Friday, March 14, 2025
Home Blog Page 64

गैस सिलेंडर के दामों में बढ़ोतरी के खिलाफ़ कांग्रेसियों का प्रदर्शन, केंद्र सरकार का पुतला फूका

0

गैस सिलेंडर के दामों में हुई बढ़ोतरी के खिलाफ हल्द्वानी के बुद्ध पार्क में सिलेंडर लेकर कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ताओं ने जोरदार प्रदर्शन किया।इस दौरान कांग्रेसियों ने भाजपा पर जनविरोधी तथा पूंजीपतियों की सरकार होने का आरोप लगाया तथा केंद्र सरकार व राज्य सरकार के खिलाफ नारेबाजी करते हुए सरकार का पुतला फूका।

गैस सिलेंडर
फ़ोटो साभार शंकर भंडारी

हल्द्वानी से कांग्रेस के विधायक सुमित हृदयेश ने सिर पर सिलिंडर रखकर प्रदर्शन करते हुए सरकार के खिलाफ़ खूब नारेबाजी की तथा गैस सिलेंडर को श्रद्धांजलि देते हुए लकड़ी के चूल्हे में खाना बनाकर महिलाओं ने भी विरोध जताया।।
कांग्रेस नेताओं ने कहा कि साल 2014 से पहले जब कांग्रेस पार्टी की सरकार थी तब गैस सिलेंडर के दाम 350-400 थी जबकि आज गैस सिलेंडर 1100 के आकड़े को पार कर चुका है।

उन्होंने मोदी सरकार को हिटलर की तानाशाही का नाम देते हुए कहा कि सरकार गरीबों का शोषण बंद करे, और यदि रसोई गैस की बढ़ती कीमते वापस और महँगाई कम नही होती तो 2024 के लोकसभा चुनावों में केंद्र की मोदी सरकार को सबक सिखाने का काम किया जाएगा क्योंकि मोदी सरकार ने गरीबो की कमर को तोड़ने का काम किया है।
आपको बता दें कि 1 मार्च से सरकार ने घरेलू गैस सिलेंडर में 50 रूपये तथा कमर्शियल सिलेंडर में 350 रूपये की बढ़ोतरी की है जिसका सीधा असर जनता की रसोई पर पड़ने वाला है।
प्रदर्शन करने वालों में हल्द्वानी के विधायक सुमित हृदयेश, कालाढूगी से पूर्व विधायक प्रत्याशी महेश शर्मा, कांग्रेस नेता ललित जोशी समेत दर्जनों कांग्रेस कार्यकर्ता शामिल रहे।

इन्हें भी पढ़े –

kumaoni holi geet – कुछ प्रसिद्ध कुमाउनी होली गीतों का संकलन

देश का सबसे कठोर नकल विरोधी कानून

आखिर क्यों कहते हैं माल्टा फल को पहाड़ी फलों का राजा ?

शिवरात्रि के दिन उत्तराखंड के मुक्तेश्वर मंदिर मे निःसन्तानो को संतान सुख का वर देते हैं भोलेनाथ।

उत्तराखंड के सांस्कृतिक लेख,व जानकारियों के लिए यहां क्लिक करके जुड़े हमारे टेलीग्राम चैनल से।

फ्योंली का फूल – इस फूल के खिलने से शुरू होता पहाड़ में बसंत

0
फ्योंली का फूल
फ्योंली का फूल

फरवरी मार्च के आस पास हिमालयी के पहाड़ों में एक सुन्दर पीला फूल खिलता है। यह फूल पहाड़ों में बसंत का आगाज का प्रतीक माना जाता है। इस फूल को प्योंली फूल या फ्योंली का फूल कहते हैं। फ्योंली फूल से स्थानीय लोगो की भावनाएं भी जुडी हैं।यह फूल हिमालयी संस्कृति में रचा बसा है। इसे एक सुन्दर सुन्दर राजकुमारी का दूसरा जन्म मानते हैं।पथरीले पहाड़ो में उगने वाला यह फूल जिंदगी में सकारत्मकता का सन्देश देता है।

फ्योंली फूल की कहानी का यह वीडियो देखें :

फ्योंली का फूल का वैज्ञानिक महत्त्व-

फ्योंली का फूल का वानस्पतिक नाम रेनवर्डटिया इंडिका है। इसे Yellow flax और गोल्डन गर्ल भी कहते हैं। यह चीन से हिमालयी क्षेत्र और उत्तरी भूभाग में होता है। फ्योंली का फूल लगभग 1800 मीटर की ऊंचाई खिलता है। यह एक छोटे आकर का फूल होता है। प्योली फूल में चार या पांच पंखुड़ियां होती हैं। फ्योंली का फूल पीले गाढ़े रंग बनाने में प्रयोग किया जाता है। इस फूल में कोई खुशबु नहीं होती है। इस फूल का वैज्ञानिक नाम हालैंड के प्रसिद्ध वनस्पतिज्ञ Caspar Georg Carl Reinwardt के नाम पर पड़ा है।

फ्योंली का फूल का सांस्कृतिक महत्त्व-

हिमालयी लोक संस्कृति में प्योंली फूल का बहुत बड़ा महत्व है। और उत्तराखंड की लोक संस्कृति में भी यह फूल रचा बसा है। उत्तराखंड के लोक गीतों में सुंदरता का प्रतीक के रूप में इस प्योंली के फूल को जोड़ा जाता रहा है। बसंत पंचमी पर इसी फूल से कुलदेवों की पूजा की जाती है। और फूलदेई विशेषकर इस फूल का प्रयोग किया जाता है।

फ्योंली का फूल
फ्योंली का फूल

फ्योंली की कहानी –

कहते हैं पहाड़ में प्योंली नामक एक वनकन्या रहती थी। वह जंगल मे रहती थी। जंगल के सभी लोग उसके मित्र थे। उसकी वजह जंगल मे हरियाली और सुख समृद्धि थी। एक दिन एक देश का राजकुमार उस जंगल मे आया,उसे फ्योंली  से प्यार हो गया और  वह राजकुमार उससे शादी करके अपने देश ले गया। फ्योंली (Pyoli flower ) को अपने ससुराल में मायके की याद आने लगी।

उधर जंगल मे प्योंली बिना पेड़ पौधें मुरझाने लगे, जंगली जानवर उदास रहने लगे। इधर फ्योंली की सास उसे  बहुत परेशान करती थी।  उसकी सास उसे मायके जाने नही देती थी। फ्योंली अपनी सास से और अपने पति से उसे मायके भेजने की प्रार्थना करती थी। मगर उसके ससुराल वालों ने उसे नही भेजा।

प्योंलि मायके की याद में तड़पते लगी। मायके की याद में  तड़पकर एक दिन फ्योंली  मर गई । राजकुमारी के ससुराल वालों ने उसे घर के पास में ही दफना दिया। कुछ दिनों बाद जहां पर प्योंली को दफ़नाया गया था, उस स्थान पर एक सुंदर पीले रंग का फूल खिल गया था। उस फूल का नाम राजकुमारी के नाम से फ्योंली का फूल रख दिया ।

#Image credit – इस लेख में प्रयुक्त  फ्योंली फूल के फोटो उत्तराखंड सोमेश्वर निवासी राजेंद्र सिंह नेगी जी ने उपलब्ध कराएं हैं। राजेंद्र नेगी जी गावं में रहकर , पहाड़ के जनजीवन पर बहुत अच्छे ब्लॉग बनाते हैं। यहाँ क्लिक करके आप उनके सुन्दर ब्लॉग देख सकते हैं। 

Women of Uttarakhand – उत्तराखंड की प्रसिद्ध महिलाएं

0
women of Uttarakhand
women of Uttarakhand

उत्तराखण्ड में महिलाओं (women of Uttarakhand) को पर्वतीय अर्थव्यवस्था का केंद्रबिंदु कहा जाता है। रोजगार के संसाधनों के अभाव में पुरुष जहां पलायन करने को विवश हैं। वहीं परिवार, खेती-बाड़ी और समाज की जिम्मेदारियां महिलाओं को निभानी पड़ती हैं। अपने कष्टसाध्य जीवन संघर्ष के बूते जीवन जीने वाली उत्तराखण्ड की नारी में हिम्मत, साहस, कर्मठता, निर्भीकता और जुझारूपन की कभी कमी नहीं रही। पहाड़ की माटी से बने उसके शरीर में इतनी सक्षमता होती है कि भाग्य पर रुदन करने की बजाय वह पूरी सामर्थ्य के साथ न सिर्फ घर-परिवार की जिम्मेदारियां निभाती है, बल्कि समाज सेवा, शिक्षा, उद्यम, पर्यावरण जैसे क्षेत्रों में भी सहभागी बनकर सामाजिक शून्यता को पूर्णता प्रदान करने के प्रयत्न में जुटी नजर आती है। पर्वतीय क्षेत्रों में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की अधिकता भी साबित करती है कि कष्टसाध्य जीवन के बावजूद महिलाएं यहां के समाज को जीवन्त बनाए रखने में अहम भूमिका निभा रही हैं। आज इस पोस्ट के माध्यम से कुछ  उत्तराखंड की प्रसिद्ध महिलाओं के नाम और उनके बारे में संक्षिप्त जानकारियों का संकलन कर रहें हैं, जिन्होंने उत्तराखंड के इतिहास में अपना नाम स्वर्णिम अक्षरों  में दर्ज कराया है। हालाँकि उत्तराखंड के इतिहास और वर्तमान में कई महिलाओं ने अपना अतुलनीय योगदान दिया है। इस संकलन में उत्तराखंड से जुडी कुछ ऐतिहासिक, पौराणिक महिलाओं की सूचि संकलित की है।

Women of Uttarakhand – उत्तराखंड की प्रसिद्ध महिलाएं

रानी कर्णावती: वह गढ़वाल के राजा महीपति शाह की रानी थी। जिसे के इतिहास में प्रसिद्ध ‘वीरांगना और नीति कुशल रानी’ के नाम से जाना जाता है। तत्कालीन समय में मुगलों से एक युद्ध में मुगल सेना के अधिकांश सैनिक मारे गये। रानी के आदेश पर शेष मुगल सैनिकों के नाक-कान काट कर उन्हें भागने को मजबूर कर दिया गया। रानी कर्णावती तभी से ‘नाक काटी राणी’ नाम से प्रसिद्ध हो गई।

जियारानी- कत्यूरी नरेश प्रीतम देव की छोटी रानी। कुमाऊं में न्याय की देवी और कुमाऊं की लक्ष्मीबाई  नाम से विख्यात। कुमाऊं पर रोहिलों और तुर्कों के आक्रमण के दौरान रानीबाग युद्ध में उनका डटकर मुकाबला किया था।

जसुली शौक्याण- कुमाऊं-गढ़वाल से लेकर तिब्बत तक व्यापारियों, यात्रियों के धर्मशालाएं, पानी के प्याऊ बनाने वाली दानी महिला दारमा की जसुली शौक्याण, जसुली अम्मा के नाम से जानते हैं। जसुली शौक्याण बहुत बड़ी सम्पत्ति की मालकिन थी। दुर्भाग्य से उनके पति और पुत्र की जल्दी मृत्यु हो जाने के कारण वे अकेली पड़ गई। हताशा के मारे एक दिन वो सारी दौलत धौलीगंगा में बहा देनी चाही। दौलत को बहाते हुए अचानक अंग्रेज कमिश्नर रैमजे की नजर जसुली बुढ़िया पर पड़ गई। उन्होंने उसे समझाया कि इस पैसे का सदुपयोग किया जाय। तब हेनरी रैमजे ने जसुली अम्मा के नाम से पुरे कुमाऊं गढ़वाल और तिब्बत तक धर्शालाएँ और सराय खोली।

तीलू रौतेली: चौन्दकोट, गढ़वाल में जन्मी अपूर्व शौर्य, संकल्प और साहस की धनी इस वीरांगना को गढ़वाल के इतिहास में ‘झांसी की रानी’ के नाम से जाना जाता है।
सरला बहन-मूल नाम मिस कैथरिन हैलीमन: स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी, (जन्म 5 अप्रैल, 1901 इंग्लैण्ड), मृत्यु-1982।
बिशनीदेवी शाह: स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी, जन्म 2 अक्टूबर, 1902 मृत्यु 1971 बागेश्वर। स्वतन्त्रता संग्राम में जेल जाने वाली उत्तराखण्ड की प्रथम महिला।
कुन्ती वर्मा: स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी। जन्म 1906-1980 अल्मोड़ा नगर।
टिंचरी माई: गढ़वाल में शराब विरोधी आन्दोलन एवं शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी भूमिका। टिंचरी माई का जन्म ग्राम मंज्यूर, तहसील थलीसैंण में तथा विवाह ग्राम गवांणी, ब्लॉक पोखड़ा, पौड़ी गढ़वाल के हवलदार गणेशराम नवानी से हुआ था जो द्वितीय विश्व युद्ध में शहीद हो गए थे। परिवार से विरक्त होने पर ये जोगन बन गईं मगर सामाजिक कार्यों में अपने योगदान के लिए सारे गढ़वाल में प्रसिद्ध हुईं। इनका वास्तविक नाम दीपा देवी था। गांव में यह ठगुली देवी के नाम से पुकारी जाती थी। इच्छागिरी माई के रूप में भी इन्होंने प्रसिद्धि पायी। इन्होंने सामाजिक कुरीतियों तथा धार्मिक अन्धविश्वासों का डटकर मुकाबला किया। गढ़वाल में पचास-साठ के दशक में आयुर्वेद दवाई के नामपर बिकने वाली शराब (टिंचरी) की दुकानों को बन्द कराने तथा बच्चों की शिक्षा विशेषकर बालिकाओं की शिक्षा के लिए कई स्कूलों का निर्माण कराने में इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा।
गौरा देवी: (जन्म 1925-4 जुलाई, 1991) चिपको आन्दोलन की प्रथम सूत्रधार महिला। 19 नवम्बर, 1986 में प्रथम वृक्ष मित्र पुरस्कार से सम्मानित। चिपको वूमन के नाम से ख्याति प्राप्त।
राधा बहन: सामाजिक कार्यों से सम्बद्ध। (जन्म 16 अक्टूबर, 1934) नारायण आश्रम, कौसानी।
आइरिन पन्त: इनका जन्म डेनियल पन्त के घर मला कसून अल्मोडा साथ हुआ। आइरिन पंत का विवाह लिकायत अली के साथ हुवा था। बाद में लिकायत अली पाकिस्तान के प्रथम प्रधानमंत्री बने।  वे 1954 में नीदरलैण्ड्स में पाकिस्तान की राजदूत रहीं। और गवर्नर पद पर पहुंचने वाली वे पाकिस्तान की प्रथम महिला थी। इनको ‘मदर ऑफ पाकिस्तान’, ‘वूमन ऑफ द वल्र्ल्ड’ (1965) तथा संयुक्त संघ के मानवाधिकार पुरस्कारों से सम्मानित किया गया।
चन्द्रप्रभा एतवाल: विश्व प्रसिद्ध पर्वतारोही नंदादेवी अभियान की 1993 में नेशनल एडवेंचर अवार्ड और वर्ष 2010 में तेनजिंग नोर्ग अॅवार्ड से सम्मानित किया गया है। चन्द्रप्रभा एतवाल को 1981 में सफलता के लिए अर्जुन पुरस्कार, 1990 में पदमश्री से सम्मानित किया था।
डॉ० हर्षवन्ती बिष्ट: उत्तराखंड की प्रसिद्ध पर्वतारोही व् अर्जुन पुरस्कार विजेता डा. हर्षवंती बिष्ट महिला सशक्तिकरण की मिसाल हैं। डा. हर्षवंती बिष्ट देश के सबसे बड़े पर्वतारोहण संस्थान इंडियन माउंटेनियरिंग फाउंडेशन की अध्यक्ष हैं। IMF के इतिहास में डा. हर्षवंती बिष्ट पहली महिला अध्यक्ष बनी हैं। इसके साथ ही उत्तराखंड से IMF का पहला अध्यक्ष बनने का सम्मान भी उनके नाम पर है।
बछेन्द्रीपाल: जन्म 24 मई, 1954 भारत की प्रथम महिला एवरेस्ट विजेता। 1985 में पद्मश्री से सम्मानित। बछेंद्रीपाल, माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने वाली प्रथम भारतीय महिला है। सन 1984 में इन्होंने माउंट एवरेस्ट विजय किया था। बछेंद्रीपाल एवरेस्ट की ऊंचाई को छूने वाली दुनिया की पाँचवीं महिला पर्वतारोही हैं।
हंसा मनराल: द्रोणाचार्य पुरस्कार से सम्मानित होने वाली प्रथम महिला। उत्तराखंड पिथौरागढ़ के भाटकोट में जन्मी हंसा मनराल भारत की पहली महिला भारोत्तोलक कोच रही है। इनके कुशल प्रशिक्षण में पहली बार भारतीय भारत्तोलक महिलाओं ने विश्व भारोत्तोलन प्रतियोगिता में पांच रजत और दो कांस्य पदक जीते थे।
प्रो० सुशीला डोभाल: वे 1958 में महादेवी कन्या डिग्री कॉलेज देहरादून में प्रधानाचार्या बनीं। 1977 में पहली बार और 1984-85 में वह दूसरी बार गढ़वाल विश्वविद्यालय की कुलपति बनीं। इन्हें उत्तराखण्ड की प्रथम महिला कुलपति होने का गौरव प्राप्त है।
हिमानी शिवपुरी: (24 अक्टूबर, 1957) टेलीविजन एवं हिन्दी सिनेमा की प्रसिद्ध कलाकार। 1984 में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से जुड़ने के बाद कई निर्माता-निर्देशकों के साथ कार्य किया। 1994 में सूरजबड़जात्या की फिल्म ‘हम आपके हैं कौन’ में सफल अभिनय के साथ ही कई फिल्मों एवं धारावाहिकों में अभिनय किया।
श्रीमती बसन्ती बिष्ट: ऐतिहासिक वीर गाथाओं तथा जागर गायकी के लिए प्रसिद्ध तथा ‘नन्दा के जागर’ पुस्तक की लेखिका। श्रीमती बसंती बिष्ट ने उत्तराखंड के जागर गायन को  नए आयाम दिए। पुरुष वर्चस्व वाले जागर क्षेत्र के बंधनो को तोड़कर आकाशवाणी, दूरदर्शन और विभिन्न मंचों पर पहुंचकर एक ऐसा लक्ष्य  हासिल किया, जो आज एक प्रेणा बन गया है। आजकल  में वे देहरादून में रहती हैं।  विभिन्न मंचों पर जागर की प्रस्तुति देकर पहाड़ की संस्कृति के संवर्द्धन में सतत प्रयासरत हैं । जनवरी 2017 में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया।

women of Uttarakhand
women of Uttarakhand

कबूतरी देवी: पिथौरागढ़ जिले के ग्राम क्वीतड़ निवासी लोक गायिका कबूतरी देवी का जन्म काली कुमाऊँ के लेटी गाँव में हुआ। इनके लखनऊ और नजीबाबाद आकाशवाणी केन्द्रों से गाए गीत बहुत लोकप्रिय हुए। कुमाऊं कोकिला नाम से प्रसिद्ध कबूतरी देवी राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित थी। 2016 में उत्तराखंड के 17 वे स्थापना दिवस के उपलक्ष्य में उन्हें लाइफ टाइम अचीमेन्ट पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 7 जुलाई 2018 को उनका निधन हो गया।
सुभाषिनी बर्त्वाल: उत्तराखण्ड आन्दोलन केसी०बी०आई० मुकदमे झेलने वाली एकमात्र महिला हैं। वे 2 सितम्बर 1994 को हुए मसूरी गोलीकांड की प्रत्यक्षदर्शी रही हैं। इन पर पुलिस क्षेत्राधिकारी उमाकान्त त्रिपाठी की हत्या का झूठा आरोप लगाया गया था।
विजया बड़थ्वाल: वर्ष 2009 में उत्तराखण्ड विधानसभा की प्रथम उपसभापति चुनी गई। तत्पश्चात् राज्यमंत्री बनाई गई। वह उत्तराखंड की सबसे वरिष्ठ और सक्रिय राजनीतिज्ञों में से एक हैं। वह विधान सभा की तीन बार सदस्य हैं और उन्होंने पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड के यमकेश्वर विधानसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया था।वह मुख्यमंत्री बीसी खंडूरी और रमेश पोखरियाल की सरकार के मंत्रिमंडल में थीं। उन्हें उत्तराखंड विधान सभा के पहले डिप्टी स्पीकर के रूप में भी सेवा दी गई है।
कलावती रावत: जिनेवा में आयोजित ‘विश्व महिला शीर्ष सम्मेलन’ में वर्ष 2000 का ‘ग्राम्य जीवन में रचनात्मकता’ पुरस्कार से सम्मानित। अपने गावं में बिजली लाने वाली। जंगल माफियाओं को सबक सिखाने वाली समाज सुधारक।
कैप्टेन भावना गुरुनानी : जनवरी 1972 में अल्मोड़ा के सूरीगांव में जन्मी कैप्टन भावना गुरनानी क उत्तराखण्ड की पहली सैन्याधिकारी हैं, जिन्हें ए.एम.सी. के अतिरिक्त सेना की दूसरी शाखा (AEC) में नियुक्ति पाने का गौरव प्राप्त हुआ। इन्होंने  भारतीय सेना में 1994 में प्रवेश किया था।
मेजर जनरल माया टम्टा: माया टम्टा उत्तराखंड की ही नहीं भारत की पहली महिला  मेजर जनरल थी।
मधुमिता बिष्ट: मधुमिता बिष्ट  उत्तराखंड की पूर्व बैडमिंटन खिलाड़ी हैं। वह आठ बार राष्ट्रीय एकल विजेता, नौ बार युगल विजेता और बारह बार मिश्रित युगल विजेता हैं। 1992 में विश्व की नंबर दो कुसुमा सरवंता ने मलेशियाई ओपन जीता था। 1982 में मधुमिता बिष्ट को अर्जुन पुरस्कार और 2006 में पदमश्री से सम्मानित किया गया।
श्रीमती लक्ष्मीदेवी टम्टा: लक्ष्मी देवी टम्टा उत्तराखंड की पहली दलित महिला स्नातक थी। तथा वे उत्तराखंड की पहली दलित महिला सम्पादक भी थी। हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में लक्ष्मी देवी का योगदान महत्वपूर्ण है। उत्तराखंड की पहली अनुसूचित जाती की महिला स्नातक का सम्मान प्राप्त लक्ष्मी देवी टम्टा ने समता पत्रिका के माध्यम से अनुसूचित जाती के लोगो की आवाज को बुलंद स्वर प्रदान किया। तथा दलित वर्ग की शिक्षा समानता के लिए सदा प्रयासरत रही। इनके बारे में विस्तार से पढ़े यहाँ
मृणाल पाण्डेय: इनका जन्म फरवरी 1946 में टीकमगढ़ में हुआ था। बहुमुखी  प्रतिभा की धनी मृणाल पाण्डेय लेखिका, सम्पादक, पत्रकार, कलाविद , मूर्ति शिल्पी, आगरा व ग्वालियर घरानों के  हिन्दुस्तानी संगीत की संगीतज्ञ और दूरदर्शन की जानी-मानी एंकर रही हैं। मृणाल पांडेय दैनिक ‘हिन्दुस्तान’ की संपादक है।
बसंती देवी: 2022 में पद्मश्री पाने वाली 60 वर्षीय बसंती देवी उत्तराखंड की प्रसिद्ध समाज सेविका हैं। उन्होंने राज्य में महिला सशक्तीकरण, पर्यावरण संरक्षण, पेड़ों व नदी को बचाने के लिए अपना योगदान दिया है। महज 12 वर्ष की उम्र में ही बसंती देवी का विवाह हो गया था। विवाह के महज दो साल बाद ही उनके पति का निधन हो गया। जिसके बाद बसंती देवी कौसानी स्थित लक्ष्मी आश्रम में रहने लगी।  उन्होंने कोसी नदी का अस्तित्व बचाने के लिए महिला समूहों के माध्यम से जंगल को बचाने की मुहिम शुरू की।
डॉ माधुरी बड्थ्वाल: लोक गीतों और लोक संगीत के संरक्षण और प्रचार के लिए भारत सरकार ने डॉक्टर माधुरी बर्थवाल जी को  पद्मश्री सम्मान के लिए चयनित किया है। डॉक्टर माधुरी आल इंडिया रेडिओ में पहली महिला संगीतकार के रूप में जानी जाती हैं। इनको वर्ष 2019 के अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर नारी शक्ति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। डॉक्टर माधुरी जी उत्तराखंड के लोकसंगीत के संरक्षण के लिए बरसों से काम कर रही हैं। विस्तार से पढ़े..
रेशमा शाह: ये उत्तराखंड के जौनसार बावर की प्रसिद्ध लोकगायिका है। लोकगायिका रेशमा शाह को लोक कला लिए उस्ताद बिस्मिल्लाह खान युवा पुरस्कार प्रदान किया गया है।
ऋतु खंडूरी भूषण: ऋतु खंडूड़ी उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी की बेटी है। कोटद्वार से विधायक और उत्तराखंड की पहली महिला विधानसभा अध्यक्ष हैं।
इनके अतिरिक्त उत्तराखंड की प्रसिद्ध महिलाओं में, युवा महिला क्रिकेटर एकता बिष्ट, स्नेहा राणा, मानसी जोशी, तथा युवा पत्रकार मीनाक्षी कंडवाल, युवा एथिलीट मानसी नेगी और महिला हॉकी स्टार वंदना कटारिया का नाम उल्लेखनीय है।

Chardham Opening 2023 – इस दिन खुलेंगे केदारनाथ धाम के कपाट।

0
Chardham opening 2023
Chardham opening 2023

Chardham opening 2023 – शिवरात्रि पर पंचकालीन गद्दीस्थल श्रीओंकारेश्वर मंदिर उखीमठ में आयोजित धार्मिक समारोह में पंचांग गणना के बाद श्री केदारनाथ धाम के कपाट खोलने की तिथि तय की गई। मंदिर के कपाट 25 अप्रैल को प्रात: 6:20 पर श्रद्धालुओं के लिए खोले जाएंगे। 20 अप्रैल को भैरवनाथ जी की पूजा होगी। 21 अप्रैल को भगवान केदारनाथ जी की पंचमुखी डोली केदारनाथ प्रस्थान करेगी। इस दिन डोली विश्वनाथ मंदिर गुप्तकाशी विश्राम करेगी। 22 अप्रैल को डोली का रात्रि विश्राम फाटा और 23 अप्रैल को गौरीकुंड में होगा। 24 अप्रैल को डोली केदारनाथ धाम पहुंचेगी। 25 अप्रैल को प्रात: विधि-विधान से पूजा-अर्चना के बाद मंदिर के कपाट श्रद्धालुओं के दर्शनार्थ खोल दिए जाएंगे। इस अवसर पर श्री बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति, पंचगाई हक-हकूकधारियों सहित केदारनाथ तीर्थ पुरोहित समाज समेत कई लोग मौजूद रहे।

Chardham opening 2023
Chardham opening 2023

इससे पहले बसंत पंचमी पर बद्रीनाथ धाम कपाट खुलने की तिथि तय हो गई है। भगवान बद्री नारायण का धाम बद्रीनाथ धाम के कपाट 27 अप्रैल सुबह सात बजकर दस मिनट पर खुलेंगे। गाडू घड़ा की तेल कलश यात्रा 12 अप्रेल को निकाली जाएगी। गंगोत्री और यमुनोत्री के कपाट अक्षय तृतीया के दिन खुलेंगे। 2023 में अक्षय तृतीया 22 अप्रैल को पड़ रही है। अर्थात 22 अप्रैल 2023 से उत्तराखंड में चार धाम यात्रा की शुरुवात हो जाएगी। कोरोना काल के दशं के बाद साल 2022 में चार धाम यात्रा में रिकॉर्ड यात्री आये थे। 2023 में भी चार धाम यात्रा में रिकॉर्ड यात्री आने की संभावना है।

इन्हे भी पढ़े –
उत्तराखंड की प्रतियोगी परीक्षाओं में नकल करने वालों को मिलेगा यह कठोर दंड।
पहाड़ो में गणतुवा बरसों से करते हैं बाबा बागेश्वर धाम की तरह चमत्कार !
चौकड़ी उत्तराखंड उत्तराखंड में नए साल 2023 में घूमने लायक एक खास हिल स्टेशन
कुमाऊं के वीर योद्धा स्यूंराजी बोरा और भ्यूंराजी बोरा की रोमांचक लोक कथा।
बटर फेस्टिवल उत्तराखंड का अनोखा उत्सव जिसमे मक्खन ,मट्ठे ,दही की होली खेली जाती है।
उत्तराखंड की लोक कलाएं , उत्तराखंड की समृद्ध संस्कृति की पहचान !

नाची गेना भोले बाबा ,भगवान शिव को समर्पित गढ़वाली भजन।

0

भगवान शिव को सनातन धर्म के लोग अपनी अपनी संस्कृति और अपनी बोली भाषा के अनुसार अलग अलग तरीके से मानते हैं। उत्तराखंड के पहाड़ वासियों से भगवान् शिव का एक अलग ही रिश्ता है। कहते हैं यही भोले का घर और ससुराल दोनों हैं। उत्तराखंड के दोनों मंडलों गढ़वाल और कुमाऊं में भोलेनाथ को अपनी अपनी पद्धतियों से पूजते हैं। तथा ,अपनी अपनी भाषा ,बोली में भगवान शिव का स्तुति गान करते हैं। नाची गेना भोले बाबा,भगवान भोलेनाथ  को समर्पित गढ़वाली शिव भजन  है ,जो हमे भगवान् शिव की भक्ति में झूमने पर मजबूर कर देता है।

इस भजन का वीडियो यहां देखें ।

नवम्बर 2014 को रिलीज हुवा यह गढ़वाली शिव भजन आज भी गढ़वाली समाज में उतना ही लोकप्रिय है जितना पहले था।  या यूँ कह सकते हैं कि इस गढ़वाली भजन की लोकप्रियता दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। शिवजी को समर्पित यह गढ़वाली भजन कर्णप्रिय और झूमने पर मजबूर कर देता है।

इस गढ़वाली गीत  के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी –

  •  गीत का नाम – नाची गेना भोले बाबा  , Nachi Gena Bhole baba  .
  • इस गढ़वाली गीत के अल्बम का नाम है लडबडी बांद।
  •  सुनील स्नेहवाल  इस गीत के गायक और लेखक हैं।
  • संजय कुमोला जी ने इस पहाड़ी भजन को अपने सुरों से सजाया है।
  • यह गीत हार्दिक फिल्म और एंटरटेनमेंट , Hardik Films Entertainment Pvt Ltd नामक यूट्यूब चैनल से रिलीज हुवा है।
गढ़वाली शिव भजन
गढ़वाली शिव भजन

यहाँ देखिये गढ़वाली शिव भजन लिरिक्स –
अरे भल बजणु चा डमरू ऊँचा कैलाश मा।
अरे छम छमा नचंण लैगे, अरे शिव कैलाश मा।
नाची गेना , अहा नाची गेना , अरे नाची गेना
,म्यरा  भोले बाबाजी नाची गेना। -२
बाजी गेना , अहा बाजी गेना ,
डम -डमरू बाजी  गेना। …२
अरे नाची गेना ,हा नाची गेना  ,
म्यरा भोले बाबाजी नाची गेना।
जय हो बम बम भोले नाथ।
अरे नाची गेना मेरा भोले बाबा – २
एक हाथ तिरशूल  तेरु,एक हाथ डमरु -२
आंखी  तेरी लाल हुएनी पेय्के भंगुलु – २
अरे नाची गैना, अहाँ नाची गेना।
भोला पेय्के भंगुलु नाची गैना।
बाजी गेना , अहा बाजी गेना ,
डम -डमरू बाजी  गेना।
अरे मानी गेना , भोले बाबा।
अरे नाची गेना म्यरा नीलकंठ त्रिपुरारी  नाची गेना।
कैलाश मा रोंदा शम्भू गौरा जी का संग -२
गणपति जी लाल तेरा तन रैंदु उलंग।
अरे नाची गेना , अहा नाची गेना।
सभी देवता भी संग त्यारा नाची गेना।
बाजी गेना , अहा बाजी गेना ,
डम -डमरू बाजी  गेना।
जय हो नीलकंठ महादेव।
जय हो जाता जूट धारी बाबा।
गौल  माँ गुरों की बाघम्बर धारी। -२
जटा माँ च तेरी नंदी सवारी। -२
अरे ऐगेना , अहा एगेना ,
भोला नंदी में बैठी आइगेना।
बाजी गेना , अहा बाजी गेना ,
डम -डमरू बाजी  गेना।

गढ़वाली शिव भजन लिरिक्स

इन्हे भी पढ़े: सिख नेगी , उत्तराखंड गढ़वाल की एक ऐसी जाती जो दोनो धर्मों को मानती है ।

कुमाउनी शिव भजन लिरिक्स – म्यर शिवजयू महादेवा ।

0
कुमाउनी शिव भजन
कुमाउनी शिव भजन

आज इस पोस्ट में हम कुमाउनी शिव भजन लिरिक्स पोस्ट कर रहें है। इसके साथ – साथ इस कुमाउनी भजन का वीडियो लिंक भी प्रस्तुत कर रहें हैं। कुमाऊं के सुप्रसिद्ध गायक गोपाल मठपाल जी की आवाज में यह भजन बहुत कर्णप्रिय है।

कुमाउनी शिव भजन ( Kumaoni shiv bhajan lyrics )  – म्यर शिवज्यू महादेवा। 

पी बे भंग प्याला ! हैं गई मतवाला !

तस निरंकारी द्यप्ता म्यर शिवज्यू महादेवा।

तस निरंकारी द्यप्ता म्यर शिवज्यू महादेवा।

गले सर्प माला , अरे  डमरू बजाला !

अरे गले सर्प माला , हाई डमरू बजाला !

उत्तराखंड हिमाला ,म्यर शिवज्यू महादेवा।

उत्तराखंड हिमाला ,म्यर शिवज्यू महादेवा।

गौरीपति दयाला ,काटिया विघ्न जाला।

गौरीपति दयाला ,काटिया विघ्न जाला।

विनती सुणो मेरी म्यर शिवज्यू महादेवा।

विनती सुणो मेरी म्यर शिवज्यू महादेवा।

पी बे भंग प्याला ! हैं गई मतवाला !

तस निरंकारी द्यप्ता म्यर शिवज्यू महादेवा।

हे आँसू मनका , दि दियो म्यारा साथा।

भवसागर उबारो ,म्यर शिवज्यू  महादेवा |

पी बे भंग प्याला ! हैं गई मतवाला !

तस निरंकारी द्यप्ता म्यर शिवज्यू महादेवा।

तुम छा म्यरा देवा। म्येरि विनती सुणो सेवा।

तुम छा म्यरा देवा। म्येरि विनती सुणो सेवा।

धरो यो मेरी लाजा , म्यर शिवजी महादेवा।

धरो यो मेरी लाजा , म्यर शिवजी महादेवा।

पी बे भंग प्याला ! हैं गई मतवाला !

तस निरंकारी द्यप्ता म्यर शिवज्यू महादेवा।

सुकिलो हिंवाला ,हाई ऊंचो यो शिवाला।

अरे न्यायकारी द्यप्ता म्यर शिवज्यू महादेवा।

पी बे भंग प्याला ! हैं गई मतवाला !

तस निरंकारी द्यप्ता म्यर शिवज्यू महादेवा।

यहाँ देखें कुमाउनी भजन का वीडियो

कुमाउनी भजन के बारे में (Kumaoni shiv bhajan lyrics ) – 

भगवान् शिव को समर्पित यह कुमाउनी शिव भजन को गायक है ,कुमाऊं के प्रसिद्ध गायक -श्री गोपाल मठपाल जी। राजेंद्र चौहान जी ने इस भजन को संगीत दिया है। इस कुमाउनी भजन के निर्माता हैं कृष्ण कुमार चौधरी। यह भजन नीलम कैसेट के यूट्यूब चैनल से उपलोड किया गया है।

कुमाउनी शिव भजन

 

इन्हे भी पढ़े –

Koteshwar gufa – भस्मासुर से बचने के लिए भोलेनाथ ने इस गुफा में ली थी शरण।

शिवरात्रि के दिन उत्तराखंड के मुक्तेश्वर मंदिर मे निःसन्तानो को संतान सुख का वर देते हैं भोलेनाथ।

इतिहास में पहली बार गढ़वाल और कुमाऊं के दिग्गज गायकों ने एक साथ गाया ,”बेडु पाको बारोमासा “

यहाँ क्लिक करके जुड़े हमारे साथ सोशल मीडिया में।

आखिर क्यों कहते हैं माल्टा फल को पहाड़ी फलों का राजा ? जानिए इसके 10 फायदे।

0

नींबू प्रजाती का यह खास फल माल्टा फल स्वाद में हल्का खट्टा और हल्का मीठा होता है। माल्टा एक पहाड़ी क्षेत्रों में उगने वाला फल है। माल्टा फल का वानस्पतिक नाम citrus Sinesis है। यह फल नींबू के कुल Rutaceae से सम्बन्ध रखता है।

इसका रंग सन्तरे जैसा होता है। इस फल को पहाड़ी सन्तरा या पहाड़ी फलों का राजा भी कहते हैं । सबसे पहले माल्टा का उत्पादन चीन में किया गया था। बाद मे माल्टा का हिमाचल, नेपाल, और उत्तराखंड में उत्पादन शुरू किया गया । माल्टा का पेड़ 6 से 12मीटर तक ऊंचा होता है।

इसके पेड़ 3 साल के अन्दर फल देना शुरू कर देते हैं। और लगभग 30 साल तक फल देते हैं। उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों के लोग इस फल को बहुत पसन्द करते हैं।मसाला नमक (पहाड़ी नून), गुड़, दही या छाछ के मख्खन के साथ माल्टा के छोटे छोटे टुकड़े कर मिला लिया जाता है। उसके बाद उसमें  धनिया मिला या धनिया पत्ती से सजाकर पहाड़ी लोग माल्टा की चटनी बड़े चाव से खाते हैं। माल्टा एक औषधीय फल है।

माल्टा फल में पाए जाने वाले पोषक तत्व

1- कार्बोहाइड्रेट,
2- वसा
3- फाईबर
4- आयरन
5 फास्फोरस,
6-मैग्नीशियम
7- पोरेशियम
8 प्रोटीन
9- विटामीन सी
10- फ्लेवोनॉयड्स

माल्टा फल के उपयोग –

पहाड़ो में माल्टा फल नवम्बर से दिसम्बर तक पक कर तैयार हो जाता है। माल्टा एक बहुऊपयोगी फल है। पहाड़ी जनजीवन में माल्टा के निम्न प्रकार से प्रयोग किया जाता है-

  • पहाड़ो में इस फल की चाट बना कर खाई जाती है।
  • इसके छिलके ,पत्ते ,तेल ,बीज  सभी भागों का प्रयोग आयुर्वेदिक दवाई बनाने में किया जाता है।
  • माल्टा के पत्तों का काढ़ा बना कर ,उल्टी थकान आदि समस्याओं के लिए औषधि के रूप में किया जाता है।
  • माल्टा के छिलकों का चेहरे की सुंदरता बढ़ाने के लिए प्रयोग किया जाता है।
माल्टा फल
Malta fruit

माल्टा खाने के फायदे –

शोध के अनुसार  माल्टा खाने के निम्न फायदे बताये गए हैं –

  • माल्टा खाने से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है।
  •  पेट की पाचन तंत्र की समस्याओं में लाभदायक है माल्टा।
  •  माल्टा खाने से ब्लडप्रेशर कंट्रोल करने में मदद मिलती है।
  •   वजन घटाने में सहायक है यह फल।
  • इसकी पत्तिया और बीज औषधीय रूप में लाभ देती है। माल्टा में भरपूर
  •  फाइबर शरीर में कोलोस्ट्रोल कम करने में मदद करता है।
  •  माल्टा का जूस के गुर्दे की पथरी (Kidney stone) में लाभ मिलता है।
  • माल्टा के छिलके के पॉवडर को फेसपैक के  रूप में प्रयोग करने से त्वचा में निखार आता है।
  • माल्टा का उपयोग डाइबिटीज के मरीजों के लिए भी लाभदायक हो सकता है।
  • कैंसर से बचाव में लाभदायक हो सकता है
  • खून की कमी पूरी करने और खून साफ करने में फायदेमंद है यह फल।
  • भूख बढ़ाने और कमजोरी दूर करने में सहायक है माल्टा।
  • बालों के लिए भी लाभदायक बताया जाता है, माल्टा फल।

माल्टा फल के नुकसान

इसमें कोई शक नहीं है कि माल्टा फल , एक बेमिसाल फल है। यह अनेक गुणों से भरपूर है। इसीलिए माल्टा को पहाड़ी फलों का राजा कहते हैं। लेकिन एक सीमा से अधिक किसी  भी चीज का उपयोग नुकसानदायक हो सकता है।  इसलिए माल्टा का उपयोग एक दिन अधिक न करें। अपने शरीर की प्रकृति के अनुसार इसका उपयोग करें। माल्टा फल का औषधीय प्रयोग करने से पहले एक्सपर्ट या डॉक्टर की सलाह अवश्य लें।

अस्वीकरण –

इस पोस्ट में माल्टा फल के फायदे और नुकसान व् माल्टा के बारे में जानकारी सामान्य ज्ञानवर्धन के लिए है। इसे दवाई के रूप में प्रयोग करने से पहले डॉक्टर की सलाह अवश्य लें।

इसे भी पढ़े –

किलमोड़ा पहाड़ों पर पाया जाने वाला औषधीय फल।

तिमला फल ,खाने के लाभ और पोषक तत्व

मेहल या मेलू पहाड़ में उगने वाला एक खास जंगली फल

हमारे व्हाट्सप्प ग्रुप से जुडने के लिए यहां क्लिक करें

कोटेश्वर गुफा –भस्मासुर से बचने के लिए भोलेनाथ ने इस गुफा में ली थी शरण।

0
कोटेश्वर गुफा
कोटेश्वर गुफा

उत्तराखंड में कोटेश्वर नामक कई शिवालय हैं। इस लेख में हम रुद्रप्रयाग जिले में अलकनंदा नदी के तट पर स्थित कोटेश्वर गुफा का वर्णन कर रहें हैं। उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में जिला मुख्यालय 4 किलोमीटर आगे अलकनंदा नदी के तट पर स्थित है यह गुफा। यहाँ चट्टान पर 15 -16 फ़ीट लम्बी और 2 -6 फीट ऊँची प्राकृतिक गुफा है। इस गुफा में कई शिवलिंग हैं। प्रमुख मंदिर में हनुमान जी की आदमकद मूर्ति भी है।

कोटेश्वर गुफा का इतिहास –

इस गुफा के बारे में यह मान्यता है कि यहाँ  भगवान् भोलेनाथ ने तपस्या की थी। इस स्थान पर भगवान शिव के एक करोड़ शिवलिंग होने के कारण इस स्थान का नाम कोटेश्वर पडा। 2005  से 2007 के बीच पुरातत्व विभाग द्वारा की गई खुदाई में यहाँ पक्की ईंटों से बना भगवान् शिव का मंदिर मिला। इस मंदिर के निर्माण का समय छठी या सातवीं शताब्दी माना गया है। कोटेश्वर मंदिर उत्तराखंड में मंडप ,गर्भगृह तथा अंतराल बनाया गया है। इस मंदिर के चौकोर मंडप की लम्बाई 6.60 *8 .80 मीटर है। कोटेश्वर मंदिर की कुल लम्बाई 13.10 मीटर है।

कोटेश्वर गुफा
कोटेश्वर महादेव उत्तराखंड

मंदिर से जुडी पौराणिक कथाएं –

कोटेश्वर मंदिर के बारे में कई कथाएं  प्रचलित हैं।  एक कथा के अनुसार पांडवो को यहाँ भगवान् शिव तपस्यारत मिले थे। महाभारत युद्ध के बाद पांडव भगवान शिव को मुक्ति के लिए ढूंढ रहें थे। पांडवों को ढूढते -ढूढ़ते भगवन शिव के दर्शन यही हुए थे। इसके अलावा कोटेश्वर महादेव मंदिर से एक और कथा जुडी है। कहते हैं भगवान् शिव ने भस्मासुर नामक असुर को शिव ने यह बरदान दिया कि ,वो जिसके सर में हाथ रख देगा वो भस्म हो जायेगा। अपने वरदान की जाँच के लिए भस्मासुर ने भगवान् शिव के सर में हाथ रखना चाहा।  तब भगवान् शिव ने अपनी जान बचाने के लिए इसी गुफा में शरण ली।

कोटेश्वर गुफा उत्तराखंड से जुडी मान्यता –

इस मंदिर  के बारे में मान्यता है कि  संतान सुख की कामना से , निःसंतान महिलाएं ,शिवरात्रि के दिन थाली में दीप जलाकर उसे दोनों हाथ से थामकर रातभर भगवान शिव की आराधना करती है। शिवरात्रि में कोटेश्वर महादेव  विशेष महत्त्व बताया गया है।

कोटेश्वर गुफा

कैसे पहुंचे कोटेश्वर गुफा –

कोटेश्वर गुफा जाने के लिए देहरादून से  सड़क मार्ग से रुद्रप्रयाग जिला मुख्यालय पहुंचकर ,वहां से मात्र चार किलोमीटर की दूरी पर स्तिथ है कोटेश्वर गुफा।

इन्हे भी पढ़े –

शिवरात्रि के दिन उत्तराखंड के मुक्तेश्वर मंदिर मे निःसन्तानो को संतान सुख का वर देते हैं भोलेनाथ।

कार्तिक पूर्णिमा पर सोमेश्वर के गणनाथ मंदिर का विशेष महत्व है

हमारे फेसबुक पेज से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।

गलता लोहा – स्वर्गीय श्री शेखर जोशी की कालजयी रचना

0
गलता लोहा
फोटो साभार TEHRAN TIMES

गलता लोहा – स्वर्गीय श्री शेखर जोशी की कालजयी रचना –

मोहन के पैर अनायास ही शिल्पकार टोले की ओर मुड़ गए। उसके मन के किसी कोने में शायद धनराम लोहार के आफर की वह अनुगूँज शेष थी , जिसे वह पिछले तीन-चार दिनों से दुकान की ओर जाते हुए दूर से सुनता रहा था।  निहाई पर रखे लाल गर्म लोहे पर पड़ती हथौड़े की धप्-धप् आवाज, ठंडे लोहे पर लगती चोट से उठता ठनकता स्वर और निशाना साधने से पहले खाली निहाई पर पड़ती हथौड़ी की खनक जिन्हें वह दूर से ही पहचान सकता था। लंबे बेंटवाले हँसुवे को लेकर वह घर से इस उद्देश्य से निकला था कि अपने खेतों के किनारे उग आई काँटेदार झाड़ियों को काट-छाँटकर साफ़ कर आएगा। बूढ़े वंशीधर जी के बूते का अब यह सब काम नहीं रहा। यही क्या, जन्म भर जिस पुरोहिताई के बूते पर उन्होंने घर-संसार चलाया था, वह भी अब वैसे कहाँ कर पाते हैं! यजमान लोग उनकी निष्ठा और संयम के कारण ही उनपर श्रद्धा रखते हैं लेकिन बुढ़ापे का जर्जर शरीर अब उतना कठिन श्रम और व्रत-उपवास नहीं झेल पाता. सुबह-सुबह जैसे उससे सहारा पाने की नीयत से ही उन्होंने गहरा निःश्वास लेकर कहा था। आज गणनाथ जाकर चंद्रदत्त जी के लिए रुद्रीपाठ करना था, अब मुश्किल ही लग रहा है।  यह दो मील की सीधी चढ़ाई अब अपने बूते की नहीं। एकाएक ना भी नहीं कहा जा सकता, कुछ समझ में नहीं आता!

मोहन उनका आशय न समझता हो ऐसी बात नहीं लेकिन पिता की तरह ऐसे अनुष्ठान कर पाने का न उसे अभ्यास ही है और न वैसी गति।  पिता की बातें सुनकर भी उसने उनका भार हलका करने का कोई सुझाव नहीं दिया।  जैसे हवा में बात कह दी गई थी वैसे ही अनुत्तरित रह गई। पिता का भार हलका करने के लिए वह खेतों की ओर चला था लेकिन हँसुवे की धार पर हाथ फेरते हुए उसे लगा वह पूरी तरह कुंद हो चुकी है। धनराम अपने बाएँ हाथ से धौंकनी फूँकता हुआ दाएँ हाथ से भट्ठी में गरम होते लोहे को उलट-पलट रहा था और मोहन भट्ठी से दूर हटकर एक खाली कनिस्तर के ऊपर बैठा उसकी कारीगरी को पारखी निगाहों से देख रहा था। ‘मास्टर त्रिलोक सिंह तो अब गुजर गए होंगे,’ मोहन ने पूछा। वे दोनों अब अपने बचपन की दुनिया में लौट आए थे। धनराम की आँखों में एक चमक-सी आ गई। वह बोला, ‘मास्साब भी क्या आदमी थे लला! अभी पिछले साल ही गुजरे। सच कहूँ, आखिरी दम तक उनकी छड़ी का डर लगा ही रहता था!

दोनों हो-हो कर हँस दिए।  कुछ क्षणों के लिए वे दोनों ही जैसे किसी बीती हुई दुनिया में लौट गए। गोपाल सिंह की दुकान से हुक्के का आखिरी कश खींचकर त्रिलोक सिंह स्कूल की चहारदीवारी में उतरते हैं। थोड़ी देर पहले तक धमाचौकड़ी मचाते, उठा-पटक करते और बांज के पेड़ों की टहनियों पर झूलते बच्चों को जैसे साँप सूँघ गया है।  कड़े स्वर में वह पूछते हैं, ‘प्रार्थना कर ली तुम लोगों ने?’ यह जानते हुए भी कि यदि प्रार्थना हो गई होती तो गोपाल सिंह की दुकान तक उनका समवेत स्वर पहुँचता ही, त्रिलोक सिंह घूर-घूरकर एक-एक लड़के को देखते हैं। फिर वही कड़कदार आवाज, ‘मोहन नहीं आया आज?’ मोहन उनका चहेता शिष्य था। पुरोहित खानदान का कुशाग्र बुद्धि का बालक पढ़ने में ही नहीं, गायन में भी बेजोड़।  त्रिलोक सिंह मास्टर ने उसे पूरे स्कूल का मॉनीटर बना रखा था। वही सुबह-सुबह, ‘हे प्रभो आनंददाता! ज्ञान हमको दीजिए.’ का पहला स्वर उठाकर प्रार्थना शुरू करता था।

मोहन को लेकर मास्टर त्रिलोक सिंह को बड़ी उम्मीदें थीं। कक्षा में किसी छात्र को कोई सवाल न आने पर वही सवाल वे मोहन से पूछते और उनका अनुमान सही निकलता। मोहन ठीक-ठीक उत्तर देकर उन्हें संतुष्ट कर देता और तब वे उस फिसड्डी बालक को दंड देने का भार मोहन पर डाल देते। ‘पकड़ इसका कान, और लगवा इससे दस उठक-बैठक,’ वे आदेश दे देते। धनराम भी उन अनेक छात्रों में से एक था ,जिसने त्रिलोक सिंह मास्टर के आदेश पर अपने हमजोली मोहन के हाथों कई बार बेंत खाए थे या कान खिंचवाए थे। मोहन के प्रति थोड़ी-बहुत ईर्ष्या रहने पर भी धनराम प्रारंभ से ही उसके प्रति स्नेह और आदर का भाव रखता था। इसका एक कारण शायद यह था कि बचपन से ही मन में बैठा दी गई जातिगत हीनता के कारण धनराम ने कभी मोहन को अपना प्रतिद्वंद्वी नहीं समझा बल्कि वह इसे मोहन का अधिकार ही समझता रहा था। बीच-बीच में त्रिलोक सिंह मास्टर का यह कहना कि मोहन एक दिन बहुत बड़ा आदमी बनकर स्कूल का और उनका नाम ऊँचा करेगा, धनराम के लिए किसी और तरह से सोचने की गुंजाइश ही नहीं रखता था।

और धनराम! वह गाँव के दूसरे खेतिहर या मजदूर परिवारों के लड़कों की तरह किसी प्रकार तीसरे दर्जे तक ही स्कूल का मुँह देख पाया था। त्रिलोक सिंह मास्टर कभी-कभार ही उस पर विशेष ध्यान देते थे।  एक दिन अचानक ही उन्होंने पूछ लिया था, ‘धनुवाँ! तेरह का पहाड़ा सुना तो! बारह तक का पहाड़ा तो उसने किसी तरह याद कर लिया था लेकिन तेरह का ही पहाड़ा उसके लिए पहाड़ हो गया था।
तेरै एकम तेरै, तेरै दूणी चौबीस’
सटाक्! एक संटी उसकी पिंडलियों पर मास्साब ने लगाई थी कि वह टूट गई।  गुस्से में उन्होंने आदेश दिया, ‘जा! नाले से एक अच्छी मजबूत संटी तोड़कर ला, फिर तुझे तेरह का पहाड़ा याद कराता हूँ! त्रिलोक सिंह मास्टर का यह सामान्य नियम था। सजा पाने वाले को ही अपने लिए हथियार भी जुटाना होता था। और जाहिर है, बलि का बकरा अपने से अधिक मास्टर के संतोष को ध्यान में रखकर टहनी का चुनाव ऐसे करता जैसे वह अपने लिए नहीं बल्कि किसी दूसरे को दंडित करने के लिए हथियार का चुनाव कर रहा हो।

धनराम की मंदबुद्धि रही हो या मन में बैठा हुआ डर कि पूरे दिन घोटा लगाने पर भी उसे तेरह का पहाड़ा याद नहीं हो पाया था।  छुट्टी के समय जब मास्साब ने उससे दुबारा पहाड़ा सुनाने को कहा तो तीसरी सीढ़ी तक पहुँचते-पहुँचते वह फिर लड़खड़ा गया था।  लेकिन इस बार मास्टर त्रिलोक सिंह ने उसके लाए हुए बेंत का उपयोग करने की बजाय जबान की चाबुक लगा दी थी, ‘तेरे दिमाग में तो लोहा भरा है रे! विद्या का ताप कहाँ लगेगा इसमें? अपने थैले से पाँच-छह दराँतियाँ निकालकर उन्होंने धनराम को धार लगा लाने के लिए पकड़ा दी थीं। किताबों की विद्या का ताप लगाने की सामर्थ्य धनराम के पिता की नहीं थी। धनराम हाथ-पैर चलाने लायक हुआ ही था कि बाप ने उसे धौंकनी फूँकने या सान लगाने के कामों में उलझाना शुरू कर दिया और फिर धीरे-धीरे हथौड़े से लेकर घन चलाने की विद्या सिखाने लगा। फ़र्क इतना ही था कि जहाँ मास्टर त्रिलोक सिंह उसे अपनी पसंद का बेंत चुनने की छूट दे देते थे।  वहाँ गंगाराम इसका चुनाव स्वयं करते थे और जरा-सी गलती होने पर छड़, बेंत, हत्था जो भी हाथ लग जाता उसी से अपना प्रसाद दे देते। एक दिन गंगाराम अचानक चल बसे तो धनराम ने सहज भाव से उनकी विरासत सँभाल ली और पास-पड़ोस के गाँव वालों को याद नहीं रहा वे कब गंगाराम के आफर को धनराम का आफर कहने लगे थे।

प्राइमरी स्कूल की सीमा लाँघते ही मोहन ने छात्रवृत्ति प्राप्त कर त्रिलोक सिंह मास्टर की भविष्यवाणी को किसी हद तक सिद्ध कर दिया तो साधारण हैसियत वाले यजमानों की पुरोहिताई करने वाले वंशीधर तिवारी का हौसला बढ़ गया और वे भी अपने पुत्र को पढ़ा-लिखाकर बड़ा आदमी बनाने का स्वप्न देखने लगे। पीढ़ियों से चले आते पैतृक धंधे ने उन्हें निराश कर दिया था।  दान-दक्षिणा के बूते पर वे किसी तरह परिवार का आधा पेट भर पाते थे। मोहन पढ़-लिखकर वंश का दारिद्र्य मिटा दे यह उनकी हार्दिक इच्छा थी।  लेकिन इच्छा होने भर से ही सब-कुछ नहीं हो जाता। आगे की पढ़ाई के लिए जो स्कूल था वह गाँव से चार मील दूर था। दो मील की चढ़ाई के अलावा बरसात के मौसम में रास्ते में पड़ने वाली नदी की समस्या अलग थी। तो भी वंशीधर ने हिम्मत नहीं हारी और लड़के का नाम स्कूल में लिखा दिया। बालक मोहन लंबा रास्ता तय कर स्कूल जाता और छुट्टी के बाद थका-माँदा घर लौटता तो पिता पुराणों की कथाओं से विद्याव्यसनी बालकों का उदाहरण देकर उसे उत्साहित करने की कोशिश करते रहते।

वर्षा के दिनों में नदी पार करने की कठिनाई को देखते हुए वंशीधर ने नदी पार के गाँव में एक यजमान के घर पर मोहन का डेरा तय कर दिया था। घर के अन्य बच्चों की तरह मोहन खा-पीकर स्कूल जाता और छुट्टियों में नदी उतार पर होने पर गाँव लौट आता था। संयोग की बात, एक बार छुट्टी के पहले दिन जब नदी का पानी उतार पर ही था और मोहन कुछ घसियारों के साथ नदी पार कर घर आ रहा था तो पहाड़ी के दूसरी ओर भारी वर्षा होने के कारण अचानक नदी का पानी बढ़ गया। पहले नदी की धारा में झाड़-झंखाड़ और पात-पतेल आने शुरू हुए तो अनुभवी घसियारों ने तेजी से पानी को काटकर आगे बढ़ने की कोशिश की लेकिन किनारे पहुँचते-न-पहुँचते मटमैले पानी का रेला उन तक आ ही पहुँचा। वे लोग किसी प्रकार सकुशल इस पार पहुँचने में सफल हो सके।  इस घटना के बाद वंशीधर घबरा गए और बच्चे के भविष्य को लेकर चिंतित रहने लगे।

बिरादरी के एक संपन्न परिवार का युवक रमेश उन दिनों लखनऊ से छुट्टियों में गाँव आया हुआ था।  बातों-बातों में वंशीधर ने मोहन की पढ़ाई के संबंध में उससे अपनी चिंता प्रकट की तो उसने न केवल अपनी सहानुभूति जतलाई बल्कि उन्हें सुझाव दिया कि वे मोहन को उसके साथ ही लखनऊ भेज दें। घर में जहाँ चार प्राणी हैं एक और बढ़ जाने में कोई अंतर नहीं पड़ता, बल्कि बड़े शहर में रहकर वह अच्छी तरह पढ़-लिख सकेगा। वंशीधर को जैसे रमेश के रूप में साक्षात् भगवान मिल गए हों। उनकी आँखों में पानी छलछलाने लगा। भरे गले से वे केवल इतना ही कह पाए कि बिरादरी का यही सहारा होता है। छुट्टियाँ शेष होने पर रमेश वापिस लौटा तो माँ-बाप और अपनी गाँव की दुनिया से बिछुड़कर सहमा-सहमा-सा मोहन भी उसके साथ लखनऊ आ पहुँचा. अब मोहन की जिंदगी का एक नया अध्याय शुरू हुआ।  घर की दोनों महिलाओं, जिन्हें वह चाची और भाभी कह कर पुकारता था, का हाथ बँटाने के अलावा धीरे-धीरे वह मुहल्ले की सभी चाचियों और भाभियों के लिए काम-काज में हाथ बँटाने का साधन बन गया।
‘मोहन! थोड़ा दही तो ला दे बाजार से ! मोहन! ये कपड़े धोबी को दे तो आ !‘मोहन! एक किलो आलू तो ला दे!

औसत दफ्तरी बड़े बाबू की हैसियत वाले रमेश के लिए मोहन को अपना भाई-बिरादर बतलाना अपने सम्मान के विरुद्ध जान पड़ता था और उसे घरेलू नौकर से अधिक हैसियत वह नहीं देता था, इस बात को मोहन भी समझने लगा था। थोड़ी-बहुत हीला-हवाली करने के बाद रमेश ने निकट के ही एक साधारण से स्कूल में उसका नाम लिखवा दिया। लेकिन एकदम नए वातावरण और रात-दिन के काम के बोझ के कारण गाँव का वह मेधावी छात्र शहर के स्कूली जीवन में अपनी कोई पहचान नहीं बना पाया। उसका जीवन एक बँधी-बँधाई लीक पर चलता रहा। साल में एक बार गरमियों की छुट्टी में गाँव जाने का मौका भी तभी मिलता जब रमेश या उसके घर का कोई प्राणी गाँव जाने वाला होता वरना उन छुट्टियों को भी अगले दरजे की तैयारी के नाम पर उसे शहर में ही गुजार देना पड़ता था। अगले दरजे की तैयारी तो बहाना भर थी, सवाल रमेश और उसकी गृहस्थी की सुविधा- असुविधा का था।  मोहन ने परिस्थितियों से समझौता कर लिया था क्योंकि और कोई चारा भी नहीं था. घरवालों को अपनी वास्तविक स्थिति बतलाकर वह दुखी नहीं करना चाहता था।  वंशीधर उसके सुनहरे भविष्य के सपने देख रहे थे।

आठवीं कक्षा की पढ़ाई समाप्त कर छुट्टियों में मोहन गाँव आया हुआ था। जब वह लौटकर लखनऊ पहुँचा तो उसने अनुभव किया कि रमेश के परिवार के सभी लोग जैसे उसकी आगे की पढ़ाई के पक्ष में नहीं हैं। बात घूम-फिरकर जिस ओर से उठती वह इसी मुद्दे पर जरूर खत्म हो जाती कि हजारों-लाखों बी.ए.,एम.ए. मारे-मारे बेकार फिर रहे हैं।  ऐसी पढ़ाई से अच्छा तो आदमी कोई हाथ का काम सीख ले। रमेश ने अपने किसी परिचित के प्रभाव से उसे एक तकनीकी स्कूल में भर्ती करा दिया।  मोहन की दिनचर्या में कोई विशेष अंतर नहीं आया था। वह पहले की तरह स्कूल और घरेलू काम-काज में व्यस्त रहता।  धीरे-धीरे डेढ़-दो वर्ष का यह समय भी बीत गया और मोहन अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए कारखानों और फैक्टरियों के चक्कर लगाने लगा।

वंशीधर से जब भी कोई मोहन के विषय में पूछता तो वे उत्साह के साथ उसकी पढ़ाई की बाबत बताने लगते और मन-ही-मन उनको विश्वास था कि वह एक दिन बड़ा अफ़सर बनकर लौटेगा।  लेकिन जब उन्हें वास्तविकता का ज्ञान हुआ तो न सिर्फ गहरा दुख हुआ बल्कि वे लोगों को अपने स्वप्नभंग की जानकारी देने का साहस नहीं जुटा पाए। धनराम ने भी एक दिन उनसे मोहन के बारे में पूछा था। घास का एक तिनका तोड़कर दाँत खोदते हुए उन्होंने बताया था कि उसकी सेक्रेटेरियट में नियुक्ति हो गई है और शीघ्र ही विभागीय परीक्षाएँ देकर वह बड़े पद पर पहुँच जाएगा। धनराम को त्रिलोक सिंह मास्टर की भविष्यवाणी पर पूरा यकीन था- ऐसा होना ही था उसने सोचा. दाँतों के बीच में तिनका दबाकर असत्य भाषण का दोष न लगने का संतोष लेकर वंशीधर आगे बढ़ गए थे। धनराम के शब्द, ‘मोहन लला बचपन से ही बड़े बुद्धिमान थे’, उन्हें बहुत देर तक कचोटते रहे।

त्रिलोक सिंह मास्टर की बातों के साथ-साथ बचपन से लेकर अब तक के जीवन के कई प्रसंगों पर मोहन और धनराम बातें करते रहे। धनराम ने मोहन के हँसुवे के फाल को बेंत से निकालकर भट्ठी में तपाया और मन लगाकर उसकी धार गढ़ दी।  गरम लोहे को हवा में ठंडा होने में काफ़ी समय लग गया था, धनराम ने उसे वापिस बेंत पहनाकर मोहन को लौटाते हुए जैसे अपनी भूल-चूक के लिए माफ़ी माँगी हो ‘बेचारे पंडित जी को तो फ़ुर्सत नहीं रहती लेकिन किसी के हाथ भिजवा देते तो मैं तत्काल बना देता!

मोहन ने उत्तर में कुछ नहीं कहा लेकिन हँसुवे को हाथ में लेकर वह फिर वहीं बैठा रहा जैसे उसे वापिस जाने की कोई जल्दी न रही हो। सामान्य तौर से ब्राह्मण टोले के लोगों का शिल्पकार टोले में उठना-बैठना नहीं होता था। किसी काम-काज के सिलसिले में यदि शिल्पकार टोले में आना ही पड़ा तो खड़े-खड़े बातचीत निपटा ली जाती थी. ब्राह्मण टोले के लोगों को बैठने के लिए कहना भी उनकी मर्यादा के विरुद्ध समझा जाता था। पिछले कुछ वर्षों से शहर में जा रहने के बावजूद मोहन गाँव की इन मान्यताओं से अपरिचित हो ऐसा संभव नहीं था। धनराम मन-ही-मन उसके व्यवहार से असमंजस में पड़ा था लेकिन प्रकट में उसने कुछ नहीं कहा और अपना काम करता रहा।

लोहे की एक मोटी छड़ को भट्ठी में गलाकर धनराम गोलाई में मोड़ने की कोशिश कर रहा था।  एक हाथ से सँड़सी पकड़कर जब वह दूसरे हाथ से हथौडे़ की चोट मारता तो निहाई पर ठीक घाट में सिरा न फँसने के कारण लोहा उचित ढंग से मुड़ नहीं पा रहा था। मोहन कुछ देर तक उसे काम करते हुए देखता रहा फिर जैसे अपना संकोच त्यागकर उसने दूसरी पकड़ से लोहे को स्थिर कर लिया और धनराम के हाथ से हथौड़ा लेकर नपी-तुली चोट मारते, अभ्यस्त हाथों से धौंकनी फूँककर लोहे को दुबारा भट्ठी में गरम करते और फिर निहाई पर रखकर उसे ठोकते-पीटते सुघड़ गोले का रूप दे डाला। मोहन का यह हस्तक्षेप इतनी फुर्ती और आकस्मिक ढंग से हुआ था कि धनराम को चूक का मौका ही नहीं मिला।  वह अवाक मोहन की ओर देखता रहा।  उसे मोहन की कारीगरी पर उतना आश्चर्य नहीं हुआ जितना पुरोहित खानदान के एक युवक का इस तरह के काम में, उसकी भट्ठी पर बैठकर, हाथ डालने पर हुआ था। वह शंकित दृष्टि से इधर-उधर देखने लगा।

धनराम की संकोच, असमंजस और धर्म-संकट की स्थिति से उदासीन मोहन संतुष्ट भाव से अपने लोहे के छल्ले की त्रुटिहीन गोलाई को जाँच रहा था। उसने धनराम की ओर अपनी कारीगरी की स्वीकृति पाने की मुद्रा में देखा।  उसकी आँखों में एक सर्जक की चमक थी- जिसमें न स्पर्धा थी और न ही किसी प्रकार की हार-जीत का भाव।

स्वर्गीय श्री शेखर जोशी जी की कहानी गलता लोहा

शेखर जोशी जी कहानी दाज्यू पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।

उत्तराखंड की लोक कलाएं, उत्तराखंड की समृद्ध संस्कृति की पहचान

0
उत्तराखंड की लोक कलाएं
उत्तराखंड की लोक कलाएं

उत्तराखंड की लोक कलाएं – लोक कला की दृष्टि से उत्तराखण्ड बहुत समृद्ध है। घर की सजावट में ही लोक कला सबसे पहले देखने को मिलती है। दशहरा, दीपावली, नामकरण, जनेऊ आदि शुभ अवसरों पर महिलाएं घर में ऐपण (अल्पना) बनाती हैं। इसके लिए घर,आंगन या सीढ़ियों को गेरू से लीपा जाता है। चावल को भिगोकर उसे पीसा जाता है। उसके लेप से आकर्षक चित्र बनाए जाते हैं। विभिन्न अवसरों पर नामकरण चौकी, सूर्य चौकी, स्नान चौकी, जन्मदिन चौकी, यज्ञोपवीत चौकी, विवाह चौकी, धूलिअर्घ्य चौकी, वर चौकी, आचार्य चौकी, अष्टदल कमल, स्वास्तिक पीठ, विष्णु पीठ, शिव पीठ, शिव शक्ति पीठ, सरस्वती पीठ आदि परम्परागत रूप गांव की महिलाएं स्वयं बनाती हैं।

इनका कहीं प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है। हरेले आदि पर्वों पर मिट्टी के डिकरे बनाए जाते हैं। ये डिकरे भगवान के प्रतीक माने जाते हैं। यहां के घरों को बनाते समय भी लोक कला प्रदर्शित होती है। पुराने समय के घरों के दरवाजों व खिड़कियों को लकड़ी की सजावट के साथ बनाया जाता रहा है। दरवाजों के चौखट पर गणेश आदि देवी-देवताओं, हाथी, शेर, मोर आदि के चित्र नक्काशी करके बनाए जाते थे।

पुराने समय के बने घरों की छत पर चिड़ियों के घोंसले बनाने के लिए भी स्थान छोड़ा जाता था। नक्काशी व चित्रकारी पारम्परिक रूप से आज भी होती है। इसमें समय काफी लगता है। वैश्वीकरण के दौर में आधुनिकता ने पुरानी कला को अलविदा कहना प्रारम्भ कर दिया। अल्मोड़ा सहित कई स्थानों में आज भी काष्ठ कला देखने को मिलती है। उत्तराखण्ड के प्राचीन मन्दिरों, नौलों में पत्थरों को तराश कर विभिन्न देवी-देवताओं के चित्र बनाए गए थे।
उत्तराखंड की लोक कलाएं
प्राचीन गुफाओं तथा उड्यारों में भी शैल चित्र देखने को मिलते हैं। उत्तराखण्ड की लोक धुनें भी अन्य प्रदेशों से भिन्न हैं। यहां के वाद्य यन्त्रों में नगाड़ा, ढोल, दमाऊं, रणसिंगा, भेरी, हुड़का, मोर्छग, बीन, डौंरा, कुरूली, अलगोजा हैं।

ढोल-दमाऊं तथा बीन-बाजा विशिष्ट वाद्ययन्त्र हैं जिनका प्रयोग आमतौर पर हर आयोजन में किया जाता है। गढ़वाली और कुमाउंनी के अलावा जनजातियों में भिन्न-भिन्न तरह के लोक संगीत और वाद्य यंत्र प्रचलित हैं। यहां प्रचलित लोक कथाएं भी स्थानीय परिवेश पर आधारित हैं।

लोक कथाओं में लोक विश्वासों का चित्रण, लोक जीवन के दुःख-दर्द का समावेश होता है। भारतीय साहित्य में लोक साहित्य सर्वमान्य है। लोक साहित्य मौखिक साहित्य होता है। इस प्रकार का मौखिक साहित्य उत्तराखण्ड में लोक गाथा के रूप में काफी है। प्राचीन समय में मनोरंजन के साधन नहीं थे। लोकगायक रात भर ग्रामवासियों को लोक गाथाएं सुनाते थे। इसमें मालुसाही, रमैल, जागर आदि प्रचलित थे। अब भी गांवों में रात्रि में लगने वाले जागर में लोक गाथाएं सुनने को मिलती हैं। यहां के लोक साहित्य में लोकोक्तियां, मुहावरे तथा पहेलियां (आंण) आज भी प्रचलन में हैं।

उत्तराखण्ड का छोलिया नृत्य काफी प्रसिद्ध है। चमोली के मारछा जन जाति का पौंणा नृत्य और पिण्डर घाटी का वीर नृत्य काफी लोकप्रिय हो रहा है। छोलिया नृत्य में नर्तक लम्बी-लम्बी तलवारें और गेण्डे की खाल से बनी ढाल लिए युद्ध करते हैं। यह युद्ध नगाड़े की चोट तथा रणसिंगा के साथ होता है। कुमाऊं तथा गढ़वाल में झुमैला तथा थड्या नृत्य होता है। झौड़ा नृत्य में महिलाएं और पुरुष बहुत बड़े समूह में गोल घेरे में हाथ पकड़कर गाते हुए नृत्य करते हैं।

हमारे व्हाट्सअप ग्रुप से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।