गंगोलीहाट के हिमांशु ने हमे एक सुंदर सी कुमाउनी कविता भेजी है। आइये सर्वप्रथम हिमांशु की सुंदर कविता का आनंद लेते हैं।
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कुमाउनी कविता का शीर्षक-
आहा रे कतु याद उँ
लेखक – हिमांशु पन्त
उ दौर ले कमाल छी, यो दौर ले कमाल छु,
तब जिंदगी में खुशी छी, अब जिंदगी बडी दुखी छु।
आहा रे कतु भल लागछि…
जब बुजुर्ग नकि बात सुणछ्यां, आब् सब मोबाइल में व्यस्त छन और बुढ़ बाढ़ि हमन देखि पस्त छन,
उ घरक बिजलीक लंफु आज ले याद ऊँ, ज्या में हाथ लगा भेर झाव लागछि खोर लगा भेर चड़चड़ाट हुंछि।
आब् तो ख्वार है ले मलि एक LED लाइट हूँ, नें तो झाव हूँ, नै हीं कोई चड़चड़ाट हूं।
उ जनव और मडुआ क रोट ले याद ऊँ, ज्या में घ्यू और चीनी लगा भेर एक अलगे स्वाद आ जांछि, आब् तो बढ़िया बढ़िया डिश हुनन लेकिन उस स्वाद कां ले नै मिलन।
आहा रे कतु याद ऊं…..
उ ईजा क लाड़ और बाबू की मार कतु याद उँ,
जब ईज लिखि कयो ल्हि बेर उँछि और हम कोई हथियार समझि बेर डरी जांच्छ्या।
बाबू घर में उँछि तो किताब खोलि बेर बैठि जांच्छ्या।
आब् तो PUBG और FREE FIRE है ई नानतिन नं कें फुर्सत नहां।
आहा रे कतु याद ऊं…..
उ घर पनिकी फसक फराव, उ आठ बखत क चाहा।
उ बूढ़ी बाढ़ि नैकि काटणि, उ हमार कुड़बूती।
उ रात्ते रात्ते गोरु क डूडाट, उ चाड़ नाक चड़चड़ाट।
उ बुबु कि लट्ठी कि खट खट, उ मडुआ रोट कि पट पट।
उ ग्यूँ मडु चुटण, उ घवाग् भुटण।
उ चीनी लागि मडुवा रवाट, उ भेकुवाक लकड नाक स्वाट।
उ स्कूल क भात, उ बाखई में जोरेकि धात।
उ पहाड़कि हवा, उ बुजुर्ग नैकि प्राकृतिक दवा।
उ पाणिकि तें धार में जाण, उ इजाक हाथक खाण।
उ हमार तीज त्यार, उ हमरि बाखई में चाड़ हजार।
उ च्यूड भुटनैकि भट भट, उ धान कूटनैकि खट खट।
आहा रे कतु याद ऊं…..
आहा रे कतु याद ऊं…
लेखक के बारे में
उपरोक्त कुमाउनी कविता के लेखक श्री हिमांशु पंत जी है। हिमांशु पंत मूलतः गंगोलीहाट पिथौरागढ़ के रहने वाले हैं। आई टी कंपनी में कार्यरत हिमांशु पंत , अपने पहाड़ व अपनी दूधबोली कुमाउनी में कविता और लेख लिखने के शौकीन हैं।
नोट – मित्रों यदि आप भी हमे कुमाउनी और गढ़वाली व जौनसारी में कविता,कहानियां और उत्तराखंड संबंधित लेख व जानकारियां भेजना चाहते हैं तो आप निम्न मेल एड्रेस पर ईमेल कर सकते हैं।
उत्तराखंड के निवासी छोटी छोटे आयोजनों पर और कार्यों के समापन पर खुशियां मनाने का अवसर नही छोड़ते हैं। ऐसा ही कार्य संपन्न होने की खुशी में मनाए जाने वाला त्यौहार है ,हई दशौर (कृषक दशहरा)। यह कुमाऊं के किसानों का स्थानीय त्यौहार माना जाता है। यह त्यौहार सौर पंचांग के अनुसार प्रत्येक वर्ष मागशीष माह की दशमी तिथि के दिन मनाया जाता है। जिस प्रकार दशहरे के दिन हथियारों की पूजा होती है, ठीक उसी प्रकार हई दशौर (कृषक दशहरा) के दिन कृषि उपकरणों कि पूजा की जाती है। और विभिन्न प्रकार के पकवान बनाये जाते हैं। यह त्योहार मुख्य रूप से नैनीताल के कुछ हिस्सों और अल्मोड़ा के हवलबाग ब्लॉक के आस पास और द्वाराहाट क्षेत्र में मनाया जाता है। पिथौरागढ़ जिले में इसे मैझाड़ कहते हैं। जिसका अर्थ होता है , बुवाई काम पूरा होने के बाद मनाया जाने वाला त्यौहार।
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हैया दोहर, या हई दोहर मनाने का मुख्य कारण
“हई दुहर” के त्यौहार के दिन विशेषकर हल ,हल का जुआ और नाड़ा (नाड़ा पहले चमड़े से बनाया जाता था) बैल ,हालिया,और अनाज कूटने के पत्थर के अखलेश को पिठ्या अक्षत लगाकर सम्मान सहित पूजने और उनके परिश्रम को आदर सम्मान देने का का दिन था और है । क्योंकि इन सबकी बदौलत ही सबके भकार अन्न से भरते थे और है । हिन्दू धर्म में हर वर्ग और वर्ण के लोगों यहां तक कि पशुओं और पत्थरों को भी देवता स्वरूप में पूजने का रिवाज है अब चाहे वह गाय हो वह मां समान है बैल नन्दी का स्वरूप है कुत्ता भैरव का स्वरूप है उल्लू लक्ष्मी का वाहन है। हम हिन्दू मनुष्य पशु पक्षी वृक्ष लता पहाड़ सब में इश्वर देखते हैं । इसीलिए हिन्दू धर्म सनातन है ।
हई दशोर (कृषक दशहरा) पर आधारित लोक कथा या किस्सा
जैसा कि हमने अपने लेख में उपरोक्त बताया है कि , यह त्यौहार कुमाऊं के किसानों का त्यौहार है। और यह त्यौहार मूलतः खेती का काम निपट जाने के बाद मनाया जाता है। और खेती के काम के निपट जाने की खुशी में मनाया जाता है। इस स्थानीय पर्व के पीछे एक लोककथा भी प्रसिद्ध है, जो इस प्रकार है।
उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में ,भाद्रपद ,अश्विन और कार्तिक ये तीन माह सबसे ज्यादा काम वाले होते हैं। क्योंकि इस समय पहाड़ में कई प्रकार की फसलें तैयार होती हैं। और बरसात की वजह से घास भी खूब हुई रहती है। और उसे काट कर जाड़ो के लिए रखने की चुनोती भी होती है। इस समय ये समझ लीजिए कि खेती का कार्य अपने चरम पर होता है। अशोज लगना मतलब काम की मारमार।
एक बार उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में एक रोचक घटना घटी ,जैसा कि हमको पता कि खेती में पहला कार्य महिला वर्ग का होता है, करते पुरुष भी हैं लेकिन ,फसल काटना, मड़ाई, और घास काटने जैसे कार्यों का नेतृत्व महिलाएं करती हैं। और उसके बाद पुरुषों का कार्य हल जोतना, बुवाई आदि होता है।
एक बार क्या हुवा, कि जैसे ही महिलाओं का खेती का काम निपटा तो महिलाओं ने नए अनाज का भगवान को भोग लगाकर ,खूब पूड़ी कचौड़ी , सब्जी खीर पकवान बनाकर खूब दवात उड़ाई और अपनी थकान मिटाई। कहते हैं कि इस दावत में महिलाओं ने पुरुषों को खास तवज्जो नही दी ,मतलब अपनी पसंद के पकवान बनाये , शिकार नही बनाया जो कि पुरुषों का प्रिय था, और सभी चीजें महिलाओं ने अपनी पसंद की बनाई।
इस कार्य पर कुमाऊं के पुरुषों को बुरा लगा और उन्होंने कहा , जिस दिन हमारा कार्य (हल जुताई और बुवाई पूरी हो जाएगी उस दिन हम भी पूरी पकवान बनाएंगे। हम भी दवात करेंगे और महिलाओं को कुछ नही देंगे।
अब पुरुषों का हल जोतने का कार्य मागशीष 10 गते को पुरुष अपने खेती के काम से मुक्त हुए। पूर्व निर्धारित कार्यक्रम की वजह से उस दिन को कुमाऊं के पुरुषों ने त्यौहार के रूप में मनाया। ओखली को साफ चमक कर,उसपे ऐपण निकाल कर सजाया।और कृषि यंत्रों को भी सजा कर उनकी पूजा की। और शिकार बनाया और साथ मे बेडू रोटी, पूड़ी सब्जी आदि बनाई और महिलाओं से भी बड़ी दावत उड़ाई। कहते हैं उस दिन से कुमाऊं के किसानों के त्यौहार के रूप में इसका प्रचलन शुरू हुआ। हई का अर्थ होता है, हल जोतने वाला किसान और दशौर का अर्थ हुवा , दशहरा , मागशीष की की दशमी तिथि। अर्थात दशमी के दिन मनाए जाने वाले त्यौहार को हई दशौर कहते है।
कैसे मनाते हैं, कुमाऊं के किसानों का त्यौहार, हई दशौर
हई दशौर (कृषक दशहरे) के दिन , इस त्योहार को बड़े उत्साह के साथ मनाने की तैयारियां सुबह से हो जाती हैं । यह त्यौहार कृषि प्रधान होने के कारण , इसे ओखली पर मनाया जाता है। सर्वप्रथम ओखली को साफ करके ,उसे ऐपण से सजाया जाता है। उसके साथ साथ ,सभी कृषि यंत्र, हल,मूसल पलटा आदि ओखली के पास रख कर उन्हें भी ऐपण से सजाते हैं। इसके अतिरिक्त इन सबको एक विशेष लता से इन सबको सजाया जाता है। या वह बेल इन पर लटकाई जाती , जिसको स्थानीय भाषा घनाई की बेल कहते हैं। यह शुभ मानी जाती है। और यह इस त्योहार का महत्वपूर्ण हिस्सा है। बचपन मे हम इस घनाई की बेल ढूढने के लिए पूरे गाँव का चक्कर लगा देते थे। तत्पश्चात शाम को विभिन्न पकवान बनते हैं, जैसे पूड़ी सब्जी, बेडू रोटी ( दाल भरवा रोटी ) और शिकार बनाना जरूरी होता है। शाम को घर के मुखिया किसान ,ओखली के पास रखे कृषि यंत्रों की पूजा करते हैं। ओखली में धान और कुछ पैसे रखे होते हैं,जिन्हें गरीब वर्ग के लोग सुबह ले जाते हैं।
रात को पूजा के बाद ,सारा परिवार मिलकर स्वादिष्ट पकवानों का आनंद लेते हैं।
हई दशौर (कृषक दशहरा) हमारे पुरखों द्वारा खुशी के पलों का आनंद लेने या खुशियां मनाने के लिए शुरू की गई एक अच्छी परम्परा है। जिसे हमे आदिकाल तक चलाये मान रखनी है। मगर एक विडम्बना बीच मे आ गई है, वह यह है कि इस त्यौहार की शुरुआत हमारे पुरखों ने खेती की थकान मिटाने के लिए की थी। मगर अब हम तो खेती करते ही नहीं।
मेरी जन्मभूमी उत्तराखंड, यह नाम सुनते ही शरीर में एक बड़ी प्यारी सी सिहरन उठ जाती है, लगता है कि जैसे किसी ऐसी चीज के बारे में बात हो रही है जो कि हमारी अपनी है, हमारा हिस्सा है, हमारे प्राण जिसमें बसते हैं ऐसी कोई चीज है, लेकिन यह नाम है हमारे प्यारे प्रदेश का, यह नाम है हमारी मातृभूमि, जन्मभूमि का।
उत्तराखंड के बारे में काफी लोग (जो इसको अच्छे से जानते हैं) यह राय रखते हैं कि यह अपने आप में एक सम्पूर्ण राज्य है। यहाँ की प्राकृतिक सम्पदाएँ, यहां के लोगों का स्वभाव, यह सब कुछ ऐसी बातें हैं जो हमारे राज्य को बहुत अलग बना देते हैं।
जब हम अपने राज्य से बाहर होते हैं तो उस समय अपनी माँ से बिछड़ने के समान दुःख सा महसूस होता है जिसका एक कारण यह है कि हमें हमारे राज्य के समान और कोई जगह ऐसी नही लगती है जो कि इसकी बराबरी कर सके।
हमारे राज्य का प्राकृतिक आवरण कुछ इस तरह का है कि कोई भी इंसान इसकी ओर खिंचा चला आता है। हमारे पास हर वह चीज है जो कि शहरों में या किसी अन्य जगह रहने वाले लोगों को एक सपना सा लगता है। हमारे हर एक जिले के पास एक विशेष चीज है जो कि उस जिले को बहुत महत्वपूर्ण बना देती हैं। अगर आपको गंगा स्नान का पुण्य कमाना है तो आप उत्तराखंड में आ कर अपनी आत्मिक शांति प्राप्त कर सकते हैं। अगर बहुत अधिक घूमने फिरने का शौक रखते हैं तो आपको पहाड़ों में आने के बाद ऐसी बेहतरीन चीजें देखने को मिलेंगी कि आप बार बार आना चाहेंगे।
अगर आप खाने पीने के शौकीन हैं तो हमारे उत्तराखंड के पहाड़ों में कुछ इस तरह की खाने की चीजें मिलती और बनाई जाती हैं कि कोई भी खाने का शौकीन इंसान हमेशा के लिए यादें ले कर अपने साथ यहां से जाएगा। अगर आपको बर्फ से खेलने का शौक है तो आपको हमारे वहां यह शौक भी पूरा करने का मौका मिल जाएगा।
ऊपर लिखी हुई बाते यह बताने के लिए काफी हैं कि हमारा राज्य क्या है। यहां के लोग इतने ज्यादा सीधे और सामान्य रूप से जीवनयापन करते हैं कि यदि आप किसी से कुछ मदद मांगें या फिर कोई पता पूछें तो ये लोग आपको आपके पते पर पहुँचा कर आते हैं। भले ही पीछे इनका कितना ही बड़ा काम क्यों ना छूट रहा हो।
ये बातें कुछ ऐसी हैं जो हमको बहुत ज्यादा मजबूत बनाती हैं और हमेशा के लिए अच्छी सीखें देती हैं। यहां खेलों और अन्य कार्यक्रमों में भी लोग बराबर हिस्से लेते हैं और बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। भारतीय सेना की दो टुकड़ियां इसी राज्य में हैं जिनसे दुश्मन हर एक तरह के वातावरण में लड़ने से कांप जाती हैं। हमारे राज्य के नौजवान बचपन से ही इतने मेहनती और तेज होते हैं कि एक उम्र के आते ही ये भारतीय सेना में भर्ती होने की दिन रात जी तोड़ मेहनत करने लग जाते हैं।
हमारे यहां के बुजुर्गों को देख कर कभी कभी अहसास होता है कि उम्र नाम का कोई पैमाना हमारे लिए है ही नहीं, बहुत बार हम देखते हैं कि हमारे 75-80 साल के बुजुर्ग, शहरों में रहने वाले 18-20 साल के लड़को से भी ज्यादा तेज चल जाते हैं। कुछ राज्य इस बात को ले कर परेशान रहते हैं कि उनके वहां जंगली जानवर अधिक नही है लेकिन उत्तराखंड में रहने वाले लोगों का जंगली जानवरों के साथ कुछ इस तरह का संबंध है कि वे हमेशा हमारे अगल बगल ही रहते हैं। ये सब बातें कहने और सुनने में भले ही बड़ी सामान्य लगती हों लेकिन इनका बहुत गहरा महत्व है। किसी भी राज्य को यही कुछ बातें महत्वपूर्ण बनाती हैं।
वर्तमान समय में हमारा राज्य हर एक स्थान पर बेहतरीन प्रदर्शन कर रहा है। खेलों के क्षेत्र में हमारे राज्य के बहुत से खिलाड़ी अपनी प्रतिभा से हमें गौरवान्वित कर रहे हैं। ऐसे ही विज्ञान के क्षेत्र में हो या फिर साहित्य के क्षेत्र में, हम हर जगह पर अच्छा काम कर रहे हैं। हमारे पास प्राकृतिक संसाधनों की भी कोई कमी नहीं है और यही वजह हैं कि हम एक संपूर्ण राज्य का हिस्सा हैं।
कुछ बातें जो आने वाली पीढ़ियों को हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए:
आपकी भाषा देश की सबसे अच्छी भाषा है, भले ही आप कुमाऊनी बोलते हों या गढ़वाली, आपकी भाषा बहुत अच्छी भाषा है और आपको हमेशा यह प्रयास करना चाहिए कि आपकी भाषा का महत्व कम ना हो।
अपने राज्य के प्रति श्रद्धावान रहें – कहा जाता है कि अपने घर का बोरिया, दूसरे के घर के बेड से भी ज्यादा सुखद एवं आनंददायक होता है। यह बात हमेशा याद रखनी होगी कि भले ही आप देश के किसी भी कोने में अपनी आजीविका बना रहे हैं, आपको अपने राज्य के प्रति जागरूक रहना होगा, राज्य के हर एक महत्वपूर्ण मसले पर अपना योगदान देना होगा, राज्य के उज्जवल भविष्य के लिए जो भी अच्छे कार्य कर सकें करने होंगे।
कुछ लोग, जो कि केवल शौक रखने के हिसाब से उत्तराखंड से बाहर रहन सहन कर रहे हैं उनको यह बात याद रखनी चाहिए कि हमारे राज्य के पास हर एक ऐसी जगह है जिसको आप घूम सकते हैं, जहां आप रहकर अपना काम कर सकते हैं, अपनी आजीविका बना सकते हैं ।
यदि आप उत्तराखंड में रह कर कोई ऐसा काम करते हैं जिससे आपकी आजीविका निकलती है तो यह एक हिसाब से राज्य का विकास ही होगा क्योंकि आपका एक छोटा सा काम भी हमारे राज्य को बेहद ऊंचाइयों पर ले जाने के लिए काफी है। आज के समय में हमारा राज्य कुछ ऐसी मुसीबतों का सामना कर रहा है जिसका कुछ समय पहले तक किसी को भान तक नही था लेकिन अब यह समस्याएं बढ़ती जा रही है।
जिस तरह से बढ़ती आधुनिकता हमे विकास के नए आयामों की ओर ले जाती है बिल्कुल उसी तरह यह आधुनिकता हमारे अंदर से हमारी प्राचीनता को भुला देती है जो कि हमारे लिए बहुत अधिक बुरी बात है। हम सब को एक बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि हम भले ही जितने भी आधुनिक क्यों ना हो जाएं , हमारे अंदर हमारे संस्कार, परम्परायें उसी तरह से रहनी चाहिए जैसे यह पहले थी। आज का युग हमें जिस तरह विकास की तरफ ले जा रही हैं वैसे ही कुछ चीजें हमसे हमारा अस्तित्व भी छीन रही हैं क्योंकि हमारा यह मानना रहा है कि हमारी संस्कृति, संस्कार और परंपरा ही हमारा अस्तित्व है।
आज की नई पीढ़ी अपने राज्य के प्रति, अपनी भाषा के प्रति, अपनी परम्पराओ के प्रति, अपने संस्कारों के प्रति उदासीन सी लगती है जिसकी वजह से इस राज्य का भविष्य थोड़ा सा डगमगाता सा नजर आता है परंतु हम ही इस राज्य की नींव है तो हमे ही इन पीढ़ी के लोगों को अपने राज्य के बारे में, अपनी परम्पराओ के बारे में समझाना होगा, तथा जागरूक करना होगा। बाकी हम सभी को गर्व होना चाहिए कि हम एक ऐसे राज्य से ताल्लुक रखते हैं जहां जाना लोगों का सपना होता है, जहाँ पर अपना मनपसंद काम करने के लिए लोग तरसते हैं, जहाँ पर पर्यटन इतना अधिक होता है कि कई बार होटल तक में लोगों को ठहरने के लिए जगह नही मिलती है।
हम सब खुशकिस्मत हैं जो स्वर्ग के समान इस राज्य में पैदा हुए हैं। तो आइए, एक पहल करते हैं अपने राज्य के भविष्य को उज्जवल बनाने और इसकी परम्पराओ को सहेजने की ओर क्योकि आज यदि हमने सही समय पर सही कदम नहीं उठाए तो शायद कल पश्चाताप करना पड़े।
धन्यवाद !
प्रियंका जोशी !
लेखिका के बारे में :-
मेरी जन्मभूमी उत्तराखंड की लेखिका प्रियंका जोशी पुत्री श्री दिनेश चंद्र जोशी हैं। प्रियंका मूलतः टनकपुर चम्पावत की रहने वाली है और अभी पढाई कर रही हैं। प्रियंका जोशी जी को उत्तराखंड पर लेख लिखना व जानकारियां साझा करना अच्छा लगता हैं। उत्तराखंड की समृद्ध परम्पराओं व जानकारियों को डिजिटल मंच पर उतारने में प्रियंका टीम देवभूमि दर्शन की मदद कर रही हैं। प्रियंका जोशी जी की इंस्टाग्राम id – https://instagram.com/priyankajoshi1920?utm_medium=copy_link
मेरी छैला वे मेरी छबीली गोपाल बाबू गोस्वामी जी का वह प्रसिद्ध गीत था ,जिस पे बॉलीवुड की फेमस अभिनेत्री ने कोर्ट केस कर दिया था। आइये दोस्तों पहले इस गीत के लिरिक्स और वीडियो देख लेते हैं ,फिर उस रोचक वाकये पर बात करेंगे।
मित्रो यह गीत कुमाऊं के सुप्रसिद्ध गीतकार ,गायक स्वर्गीय श्री गोपाल बाबू गोस्वामी जी द्वारा रचित है। शृंगार रस में डूबे इस प्रसिद्ध गीत में गोस्वामी जी ने अपनी धर्मपत्नी/ नायिका की तारीफ की है। उन्होंने अपनी पत्नी की कल्पना तत्कालीन प्रसिद्ध अभिनेत्री हेमा मालिनी से की है। कहते है की इस गीत को सुनने के बाद ,बॉलीवुड की प्रसिद्ध अभिनेत्री हेमा मालिनी ने उन पर केस कर दिया था। और बाद में वह केस सुलझ गया था।अभिनेत्री ने गीत में अपना नाम प्रयोग की वजह उनपे केस कर दिया था ।
आज से चालीस साल पहले ,जब संचार के साधन अच्छे नहीं थे। आज की तरह सोशल मिडिया नहीं था ,केवल रेडिओ चलता था। तब भी एक कुमाउनी गीत बॉलीवुड की अभिनेत्री के कानों तक पहुँच गया। और आजकल के गीतों का पता ही नहीं चलता कि कब रिलीज हुए और कब गायब हो गए। जबकि आजकल संचार और सोशल मीडिया के मजबूत साधन हैं। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि पुराने कुमाउनी गीतों में क्या मिठास और शुद्धता होती थी। कुछ पारम्परिक लोकगायकों को छोड़ कर आजकल लोकगीतों के नाम पर निम्न कोटि की गुणवत्ता के गीतों का चलन बढ़ गया है।
स्व गोपाल बाबू गोस्वामी जी नारी ह्रदय को समझने वाले सबसे प्रसिद्ध लेखक और गायक थे। नारी वेदना, नारी के विरह और नारी की सुंदरता पर उन्होनें कई प्रसिद्ध गीतों की रचना की है। यह में भी गीत नायिका की सुंदरता का वर्णन करते हुए उसकी तुलना हिंदी फिल्मों की प्रसिद्ध अभिनेत्री श्रीमती हेमा मालिनी जी से की गई है।
बेडू पाको बारो मासा गीत उत्तराखंड की पहचान है। या यु कहिये यह गीत उत्तराखंड का पहला अघोषित राज्य गीत है। जब कोई उत्तराखंड का निवासी कही अपनी पहचान बताता है तो, बेडू पाको बारो मासा गीत से स्वयं को जोड़ कर खुद का परिचय देता है। आज इस लेख में इसी प्रसिद्ध गीत के बारे में संक्षिप्त जानकारी व बेडू पाको बारोमासा गीत के बोल संकलित कर रहे हैं। स्वर्गीय श्री बिजेंद्र लाल शाह मंच पर गीत प्रस्तुत करते हुए।
Table of Contents
बेडू पाको बारो मासा सांग लिरिक्स –
बेडू पाको बारो मासा ,
नरेण काफल पाको चैत मेरी छैला।
बेडू पाको बारो मासा ,
ओ नरेण काफल पाको चैत मेरी छैला।।
रुणा भूणा दिन आया ,
नरेण को जा मेरी मैता ,मेरी छैला।
अल्मोड़े की नंदा देवी ,
नरेण फुल चढूनी पाती ,मेरी छैला।
जैसी तीले बोली मारी ,
ओह नरेण धन्य मेरी छाती मेरी छैला।
बेडू पाको बारो मासा ,
ओ नरेण काफल पाको चैत मेरी छैला।
नैनीताल की नंदा देवी ,
नरेण फुल चढूनी पाती ,मेरी छैला।
बेडू पाको बारो मासा ,
ओ नरेण काफल पाको चैत मेरी छैला।
तेरी खुटी को कान बूड़ो ,
नरेण मेरी खुटी में पीड़ा ,मेरी छैला।
बेडू पाको बारो मासा ,
ओ नरेण काफल पाको चैत मेरी छैला।
अल्मोड़े की लाल बजारा ,-2
नरेण पाथरे की सीणी मेरी छैला।
आपु खानी पान सुपारी ,-2
ओ नरेण मैकू दीनी बीड़ी मेरी छैला।
बेडू पाको बारो मासा ,
ओ नरेण काफल पाको चैत मेरी छैला।
श्री बिजेंद्र लाल शाह ,-2
यो तनोरो गीत मेरी छैला।
बेडू पाको बारो मासा। ……………..
महत्वपूर्ण जानकारी बेडु पाको गीत के बारे में –
मित्रो उपरोक्त पंक्तियाँ स्वर्गीय गोपाल बाबू गोस्वामी जी द्वारा गाये गीत से ली गई हैं। अभी तक इस गीत के कई संस्करण बन गए हैं। कई गायको ने इसके अलग अलग वर्जन भी बना दिए गए हैं। बेडु पको गीत मूलतः कुमाऊनी लोक गीत है। अब इसका गढ़वाली वर्जन भी उपलब्ध है। बेडू पाको गीत के रचियता स्व श्री बिजेंद्र लाल शाह जी हैं। और इसका संगीत स्व श्री मोहन उप्रेती और बृजमोहन शाह ने बनाया था। इस प्रसिद्ध उत्तरांचली लोक गीत को पहली बार 1952 में राजकीय इंटर कालेज नैनीताल में गाया गया था। तत्पश्यात दिल्ली की एक अंतर्राष्ट्रीय सभा में इसकी पहली रिकॉर्डिंग सम्मान में बजाई गई। इसकी रिकॉर्डिंग hmv द्वारा बनाई गई थी।
कहते है, भारत के प्रथम प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू जी का प्रिय गीत था।कहते हैं नेहरू जी ने मोहन उप्रेती जी को ‘बेडू पाको बॉय ‘ का नाम दिया था। अभी तक के सभी गीतों में, स्वर्गीय गोपाल बाबू गोस्वामी जी और स्वर्गीय नईमा खान उप्रेती जी द्वारा गाया हुवा गीत original बेडू पाको गीत माना जाता है।
उत्तराखंड सरकार ने अपनी सरकार पोर्टल / अपणि सरकार,और उन्नति पोर्टल का आरम्भ किया। इन पोर्टल का उट्घाटन से सरकार का लक्ष्य उत्तराखंड में डिजिटल कार्यों को बढ़ावा देना है। यह पोर्टल उत्तराखंड वासियों को उनकी आवश्यक सेवाओं का ऑनलाइन लाभ देने के लिए विकसित किया गया है। इस पोस्ट में हम जानेंगे उत्तराखंड अपनी सरकार पोर्टल में रजिस्ट्रेशन कैसे करें ? इस पोर्टल किन किन सेवाओं का लाभ मिलेगा? Apni sarkar portal Uttarakhand के साथ उत्तराखंड सरकार ने उन्नति पोर्टल उत्तराखंड भी लॉन्च किया है।
अपनी सरकार पोर्टल उत्तराखंड में ऑनलाइन कार्यों को बढ़ावा देने की दिशा में एक बड़ा कदम है। अपणि सरकार पोर्टल द्वारा उत्तराखंड की जनता बिना फजीहत के अपने मह्त्वपूर्ण शाशकीय कार्यों को ऑनलाइन अपने मोबाइल द्वारा कर सकते हैं। अपनी सरकार पोर्टल में जाने के लिए सर्वप्रथम आपको
पर जाकर रेगिस्ट्रशन करना होगा और उसके बाद आप उत्तराखंड के ऑनलाइन पोर्टल अपनी सरकार में उपलब्ध सेवाओं का लाभ ले सकेंगे।कॉमन सर्विस सेंटर से आवेदन करने वालों को रेजिस्ट्रेशन की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। सरकार के दूसरे नए पोर्टल उन्नति में ,उत्तराखंड सरकार की सभी योजनाओं की पूरी प्रक्रिया ऑनलाइन होगी।
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पोर्टल में किन सेवाओं का लाभ मिलेगा
पहले उत्तराखंड के ऑनलाइन पोर्टल इ-डिस्ट्रिक द्वारा 32 सेवाओं का ऑनलाइन लाभ ले सकते थे। किन्तु अपणि सरकार पोर्टल द्वारा घर बैठे 72 प्रकार की सेवाओं का लाभ ले सकते हैं। उत्तराखंड अपनी सरकार पोर्टल द्वारा चरित्र प्रमाण पत्र का स्वतः ऑनलाइन सत्यापन हो जायेगा।
अपणि सरकार पोर्टल में निम्न सेवाओं का ऑनलाइन लाभ मिलेगा –
स्थाई निवास प्रमाण पत्र।
चरित्र प्रमाण पात्र( ठेकेदारी )
चरित्र प्रमाण पत्र (सामान्य )
हैसियत प्रमाण पत्र
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी प्रमाण पत्र।
पर्वतीय प्रमाण पत्र
उत्तरजीवी प्रमाण पत्र
आय प्रमाण पत्र।
नया परिवार जोड़ना व परिवार रजिस्टर की कॉपी
परिवार अलग करना या परिवार संसोधन की प्रति।
जन्म पंजीकरण व् जन्मप्रमाण पत्र (जन्म से एक माह के भीतर करना आवश्यक है )
मृत्यु पंजीकरण व् प्रमाण पत्र।
निजी भवन निर्माण के लिए noc प्राप्त करना।
शौचालय निर्माण प्रमाण पत्र।
रोजगार कार्यालय में पंजीकरण व नवीनीकरण करवाना।
वृद्धावस्था पेंशन ,विधवा पेंशन के कार्य।
तीलू रौतेली पेंशन ,दिव्यांग भत्ता ,आदि सभी प्रकार के राजकीय पेंशन व भत्ते।
शादी अनुदान फार्म।
बिजली पानी के कनेक्शन और शिकायत दर्ज कराना।
अपनी सरकार पोर्टल में रेजिस्ट्रेशन कैसे करें
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उसमे सबसे निचे login /Register का ऑप्शन मिलेगा। ( यदि मोबाइल में वेबसाइट देखने में दिक्कत आये तो ,मोबाइल ब्राउज़र के ऊपर तीन डॉट पर क्लीक करके डेस्कटॉप मोड कर लें। )
इसके बाद एक छोटी सी विंडो खुलेगी जिसमे लिखा होगा , Apani sarkar Individual login इसमें सबसे निचे sign up here .
sign up here में क्लिक करने के बाद एक पंजीकरण पेज (registration page ) खुलेगा ,जिसमे आप सभी प्रकार की जानकारियां भरने के बाद सबमिट करेंगे।
इसके बाद आप फिर से login पेज में आ जायेंगे। और आपके रजिस्ट्रेड मोबाइल नंबर पे एक कोड आएगा।
यह कोड आपके login के लिए पासवर्ड होगा।
अब आप लॉगिन id की जगह मोबाइल नंबर या जीमेल id डालें और पासवर्ड में ,sms में प्राप्त कोड डालें लॉगिन हो जायेगा।
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ई सर्विसेज उत्तराखंड अपने पोर्टल आपणि सरकार पोर्टल इसे बेहतर बनाने के लिए अभी भी इस पर काम कर रहे। इसलिये इसमे कभी कभी तकनीकी खराबी भी आ सकती है। इस लेख में हमने अधितम जानकारी और काम करने के लिए अधितम सहयोग किया है। कोई नया अपडेट मिलते ही हम इसमे उपडेट करते रहेंगे।
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परिवार जोड़ने, अलग करने, परिवार रजिस्टर की नकल, परिवार संसोधन, शौचालय प्रमाण पत्र ,घर के लिए noc के लिए पंचायती विभाग सलेक्ट करें।
बिजली से जुड़ी समस्याओं व कार्यों के लिए ऊर्जा विभाग का चयन करें।
पानी के कनेक्शन के लिए जल विभाग का चयन करें।
सीवर से जुड़े कार्यों के लिए भी जल विभाग का चयन करें।
Apni Sarkar Uttarakhand सामान्य जनता के लिए बहुत लाभदायक सिद्ध होगा। इससे उत्तराखंड की जनता (विशेषकर पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाली ) को राहत मिलेगी। बार बार सरकारी ऑफिसों के चककर काटने से बच जायेंगे और सारा कार्य अपने मोबाइल पर हो जायेगा।
उन्नति पोर्टल क्या है ?
अपनी सरकार पोर्टल उत्तराखंड के साथ उत्तराखंड सरकार ने उन्नति पोर्टल भी लांच किया है। सरकार के अनुसार इस पोर्टल पर सरकार द्वारा चलाई जा रही विभिन्न योजनाओं को अपलोड किया जाएगा। और इस पोर्टल की निगरानी स्वयं माननीय मुख्यमंत्री उत्तराखंड और उत्तराखंड के मुख्य सचिव करेंगे। सरकार को उम्मीद है कि , उन्नति पोर्टल उत्तराखंड के विकास में सहायक होगा। अपनी सरकार पोर्टल की वेबसाइट http://eservices.uk.gov.in यहाँ देखें – देवभूमि जनसेवा केंद्र (CSC ) कैसे खोले ? आधुनिक स्वरोजगार का बेहतरीन विकल्प है।
उत्तराखंड की ‘पामीर’ कही जाने वाली तथा चमोली, गढ़वाल एवं अल्मोड़ा जिलों में फैली दूधातोली शृखला बुग्यालों, चरागाहों और सघन बाँज, खर्सू, उतीश व कैल वृक्षो से आच्छादित 2000-2400 मीटर की ऊँचाई का वन क्षेत्र है।
दूधातोली से पक्षिम रामगंगा, आटा गाड़, पक्षिम व पूर्वी नयार तथा विनो नदी का उदगम होता है। आटागाड़ लगभग 30 किलोमीटर बहने के बाद सिमली (चमोली) में पिंडर से मिलती है। विनो भी यही दूरी तय कर केदार (अल्मोड़ा) में रामगंगा की सहायक नदी बनती है। तो पूर्व-पक्षिमी नयार नदीयां भी गंगा में समाहित हो जाती है। दूधातोली से निकलने वाली सबसे बड़ी पक्षिमी रामगंगा, चमोली, अल्मोड़ा एवं गढ़वाल को सीचतें, कालागढ़ बांध में विघुत उत्पादन करते हुए उत्तर प्रदेश के कन्नौज में गंगा से आत्मसात होती है।
उत्तराखंड की हिमनदियाँ जहाँ अथाह जलराशि के बावजूत उत्तराखंड को प्यासा छोड़ जाती है। वहीं दूधातोली, भाटकोट, गागर व मसूरी चम्बा चार पर्वत श्रृंखलाओ की नदियाँ बड़ी मात्रा में पेयजल उपलब्ध करती है। और नदी घाटियों की सिंचाई का जिम्मा भी लिये हुए हैं। दूधातोली का पर्यावरणीय महत्व पाँच नदियों के उदगम से तो है ही, उसकी औषधीय वनस्पतियों और विविध प्रजाति वनों से भी है। बाँज, फर,खर्सू,देवदार और कैल की दुर्लभ प्रजातियों के साथ भाबर (घना जंगल) कहे जाने वाले दूधतोली में बाघ, गुलदार, चीते से लेकर भालू, सूअर, खरगोश, शेही व अनेकानेक पक्षियों का निवास है। लगभग मार्च अंतिम सप्ताह तक बर्फ से ढकी रहने वाली दूधातोली के चारागाह व चोटियां उदगमित नदियों को सदानीरा तो बनाती ही है, क्षेत्र की चतुर्दिक हरियाली भी सुनिश्चित करती है।
ब्रिटिश शासनकाल में चांदपुर परगना दूधातोली के चारो ओर फैली चांदपुर सेली, चांदपुर तैली, लोहबा, रानीगढ़, ढाईज्यूली, चौपड़ाकोट, चौथान व श्रीगुर पट्टियों को मिलाकर बनाया गया है। 1960 में चमोली जिले के गठन के साथ भौगोलिक रूप से दूधतोली का विभाजन हो गया और दूधातोली के काश्तकर दो प्रशासनिक इकाइयों में बंट गये। हालाकिं दूधातोली में हक़-हकूक धारक चोकोट पट्टी पहले ही अल्मोड़ा जिले का हिस्सा थी।
1912 में जंगलात विभाग द्वारा जारी सूची में चांदपुर, लोहबा, चौथान, चौकोट, ढाईज्यूली व चौपड़ाकोट के निवासियों को दूधातोली जंगल का हक दिया गया। वहां पशुपालको को खरक बनाने हेतु भूमि आवटित है। और पशुपालन का अधिकार भी, न केवल उक्त गाँवो को बल्कि हिमालय के गददी व गूजरों के पशु भी नियमित रूप से दूधातोली में देखे जा सकते है। 6 पट्टियों के 50 गाँवो के 800 पशुपालकों के 99 खरक भी दूधातोली में विघमान है। विस्तृत चरागाह के क्षेत्र दूधातोली अपने नाम के अनुरूप दूध की तौली (दूध का बड़ा बर्तन) है। उसके चरागाह उससे जुड़े ग्रामीण के लिए अत्यन्त लाभदायी थे।
1912 में जंगलात द्वारा हक लिस्ट में अल्मोड़ा जिला के चौकोट पट्टी के लम्बाड़ी गांव को मिले हक में गांव की 112 जनसंख्या में एक साल के ऊपर के 114 गौवंश, 35 महिष वंश व 141 भेड़-बकरियों का उल्लेख है। वर्तमान में भी दूधातोली क्षेत्र से लगे लोहबा के 24 गावों का 12 प्रतिशत पशुपालन दूधातोली के खरकों में होती है। जागड़ी गांव का 30.46, आरूडाली का 36.11, अन्द्रपा का 24.33 तथा रामड़ा का 57.28 प्रतिशत पशुघन खरकों में है।
दूधातोली की पर्यावरणीय समस्याओ में उसके ऊपरी भाग से लगातार सिमटते वन प्रमुख है। हिमपात में टूटे वृक्षो के साथ स्थानीय जनता का अपनी जरूरतों के लिए प्रयोग और 67-70 के दशक तक वनो का अंधाधुंध दोहन की नीतिया इस खली सपाट बनती श्रंखला के लिए जिम्मेदार है। खरकों के निर्माण में प्रतिवर्ष खपने वाली लगभग सौ घन मीटर लकड़ी का उपयोग होता है। दूधातोली में वृक्षारोपण के व्यापक कार्यक्रम लाभदायी हो सकते है क्योकि प्राकृतिक रूप से बीच निचले हिस्से में तो आसानी से आते है, लेकिन ऊंचाई की ओर नहीं जा सकते है। यदि वनो के यहीं घटने का यहीं क्रम रहा तो वो हिम जमने की क्षमता और अंतत: नदियों के सदानीर रूप को प्रभावित करेगा।
वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली दूधातोली के अर्दितीय सौंदर्य के अनन्य उपासक थे। उन्होनें 1960 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से दूधातोली को भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने की माँग की थी। उन्हीं की माँग पर इस हेतु अध्ययन भी कराया गया। गैरसैण राजधानी की माँग भी उसी कड़ी का अगला हिस्सा है। वे रामगंगा और नयार घाटियों से दूधातोली रेल पहुँचाने का भी स्वपन देख चुके थे। और गढ़वाल और कुमाऊँ विश्व विघालयों की स्थापना से पहले दूधातोली में उत्तराखंड विश्व विघालयखुलवाने की बात कह चुके थे। 1979 में वह दूधतोली में थे। और यही बीमार हुए जहाँ से उन्हें राम मनोहर लोहिया अस्पताल दिल्ली पहुँचाया गया। वहाँ चन्द्रसिंह गढ़वाली की मृत्यु हो गई थी। उनकी इच्छा के अनुरूप उनकी समाधि दूधातोली के कोदियाबगड़ में बनाई गयी। उनकी याद में प्रतिवर्ष 12 जून वहाँ मेला लगता है। वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली के बाद बाबा मोहन सिंह उत्तराखंडी ने भी अपनी समाधि के लिए दूधातोली को चुना।
राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में उत्तराखंड के निवासियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उत्तराखंड के कई आंदोलनकारियों ने अपने प्राणों की आहुति देकर अंग्रेजो की दासता से हमे मुक्त कराने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। उत्तराखंड की सालम क्रांति ,देघाट में क्रांति और कुली बेगार आंदोलन जैसे कई आंदोलन उत्तराखंड की धरती पर हुए और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी का भी देवभूमि के साथ विशेष जुड़ाव रहा।
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उत्तरखंड में अँग्रेजी शासनकाल –
जिस प्रकार भारत के दूसरे क्षेत्रों में अंग्रेजों के आने से अनेक प्रकार की उथल-पुथल हुई, उसी प्रकार उत्तराखंड के इतिहास, संस्कृति तथा जीवन को भी अंग्रेजों ने प्रभावित किया। उन्होनें एक और उत्तराखंड के इतिहास, संस्कृति तथा अन्य पक्षो का अभिलेखीकरण किया तो दूसरी ओर समूचे उत्तराखंड में अपनी प्रशासनिक सुविधा के लिए अनेक परिवर्तन किये। उनके आगमन से उत्तराखंड में एक नए इतिहास का आगमन हुआ।
गोरखों का गढ़वाल पर अधिकार –
वर्ष 1804 में गोरखों के हाथ गढ़वाल नरेश प्रदुमन शाह खुड़बुड़ा के मैदान में वीरगति को प्राप्त हुए। गोरखों का गढ़वाल पर भी अधिकार हो गया। प्रदुमन शाह के पुत्र सुदर्शनशाह हरिद्वार में रह कर लगातार स्वत्रन्त्र होने का प्रयास करते रहे। उन्होनें अंग्रेजों की सहायता ली। उस समय अंग्रेजों और गोरखों के मध्य संबन्ध खराब चल रहे थे। अतः अंग्रेजों ने अक्टूबर 1814 गढ़वाल राज्य की सहायता के लिए अपनी सेना भेजी और गोरखों को पराजित के दिया।
कहा जाता है कि गढ़वाल नरेश सुदर्शनशाह उस समय अंग्रेजों को उनके द्वारा मागी गई युद्ध व्यय की निर्धारित 5 लाख रूपये की राशि न दे सके। अतः उन्हें समझैते के रूप में अलकनन्दा और मन्दाकिनी के पूर्व का अपना आधा राज्य अंग्रेजों को देना पड़ा। परन्तु गढ़वाल-विभाजन में राजा का कोई था। इस प्रसंग में यह कहना आवश्यक है कि अंग्रेजों ने उस समय महाराजा सुदर्शनशाह को धोखा दिया। पहले उन्होनें सम्पूर्ण गढ़वाल राज्य को स्वत्रन्त्र करने का वादा किया था।
अंग्रेजों ने गोरखो को हरा कर जीता गढ़वाल कुमाऊं –
अंग्रेजों तथा गोरखों के मध्य हुए युद्ध में अंग्रेजों ने गोरखों से काली नदी के पक्षिम का समस्त प्रदेश जीत लिया। इस तरह 27 अप्रैल, 1815 को गढ़वाल-कुमाऊँ पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। सम्पूर्ण कुमाऊँ और पूर्वी गढ़वाल पर अधिकार करने के बाद अंग्रेजों ने 3 मई, 1815 में कर्नल एडवर्ड गार्डन को यहाँ का प्रथम कमिश्नर तथा एजेंट गवर्नर जनरल नियुक्त किया।
कालान्तर में नई प्रशासनिक व्यवस्था के अंतर्गत, अंग्रेजों ने कुमाऊँ को एक जनपद बना लिया तथा गढ़वाल के राजा सुदर्शन शाह से धोखे से लिए गए क्षेत्र को भी कुमाऊँ कमिश्नर का एक जनपद बना दिया। उन्होनें देहरादून को सहारनपुर जनपद में सम्मिलित कर दिया। इस प्रकार अंग्रेजी राज के आरम्भ में सम्पूर्ण उत्तराखंड क्षेत्र दो राजनितिक-प्रशासनिक इकाइयों में गठित हो गया। कुमाऊँ कमिश्नर और टिहरी गढ़वाल राज्य।
1840 ईसवी में प्रशासनिक सुविधा के लिए कुमाऊँ जनपद से अलग कर के गढ़वाल को गढ़वाल जनपद बना दिया गया। आगे चल कर कुमाऊँ जनपद को भी अल्मोड़ा और नैनीताल को दो जनपदों में बाँट दिया गया। यह व्यवस्था स्वत्रंत्रता मिलने तक बनी रही।
उत्तराखंड में स्वतंत्रता आंदोलन –
देश के एक बड़े भाग के ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन चले जाने के बाद देश में एक नई राष्ट्रीय चेतना पैदा हुई। फलतः देशभर में लगभग हर क्षेत्र के लोग स्वाधीनता की माँग करने लगे और अंग्रेजी शासन के विरुद्ध हो गए। इससे उत्तराखंड भी अछूता नहीं रहा। वस्तुतः अंग्रेजो ने यहाँ भी अपने ढंग से तरह-तरह के शोषण, उत्पीड़न तथा अत्याचार किये। अतः की जनता ने स्वतंत्रा के महत्व को समझा एवं स्वतंत्रता आंदोलन सक्रिय योगदान दिया।
इस क्रम में 1857 ईसवी कालू महरा नामक व्यक्ति ने अंग्रेजो के विरोध में काली कुमाऊँ क्षेत्र में एक क्रांतिकारी संगठन बनाया। इसी वर्ष लगभग 1000 क्रान्तिकारियो ने हल्द्वानी पर अधिकार कर लिया और अंग्रेज मुश्किल से उस पर पुनः अधिकार कर सके। इस लड़ाई में कई क्रान्तिकारियो ने अपने प्राणों की आहुति दी।
असहयोग आंदोलन में उत्तराखंड की भूमिका –
असहयोग आंदोलन और नामक सत्याग्रह के दौरान उत्तराखंड के लोगो की सक्रिय भूमिका रही। 20वीं शती के प्रथम दशक में पंडित गोविंदबल्लभ पन्त ने उत्तराखंड के राजनीतिक मंच में प्रवेश किया। 1916 में कुमाऊँ परिषद की स्थापना के बाद स्वतंत्रता आंदोलन को एक नई दिशा और गति मिली।
रोलेट एक्ट के विरोध में कुमाऊँ परिषद ने प्रदर्शन किए और सभाएँ आयोजित की। तभी बेरिस्टमुकुन्दीलाल और अनुसूया प्रसाद बहुगुणा ने गढ़वाल में कांग्रेस कमेटी की स्थापना की।उत्तराखंड में स्वतंत्रता संघर्ष में स्थानीय मुददे भी जुड़े। लोगो ने कुली उतार और कुली बेगार जैसे अन्यायपूर्ण प्रथाओं के विरोध में आवाज उठाई। वन संपदा पर जनता के अधिकारों की मान्यता के लिए चल रहे आंदोलन ने भी इस बीच राजनितिक रंग पकड़ लिया।
1930 ईसवी हवलदार वीर चन्द्रसिंह ‘गढ़वाली’ ने निहत्थे अफगान स्वतंत्रता सेनानियों पर गोली चलने से इनकार कर दिया। इतिहास में यह घटना ‘पेशावर काण्ड’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। भारत छोड़ो आंदोलन की संपूर्ण उत्तराखंड में तीव्र प्रतिक्रिया हुई। कुछ स्थानों पर हिंसा भड़क उठी और सरकारी सम्पति लोगो के क्रोध का निशाना बनी।
देघाट में क्रांति
8 अगस्त, 1942 ईसवी में मुम्बई में कांग्रेस के मुख्य कार्यकर्ताओ के पकडे जाने के विरोध में 9 अगस्त, 1942 ईसवी को उत्तराखंड में जगह-जगह जुलुस निकले गए। अल्मोड़ा नगर में विघार्थियो ने पुलिस पर पत्थरो से प्रहार किया, जिससे कुमाऊँ के कमिश्नर एक्टन के सिर पर चोट आई। अल्मोड़ा शहर पर 6 हजार रूपये का जुर्माना किया गया। अल्मोड़ा जिले में सर्वप्रथम 19 अगस्त, 1942 को देघाट (मल्ला चौकोट) नामक स्थान पर पुलिस ने जनता पर गोलिया चलाई। जिसमें हीरामणी और हरिकृष्ण नामक दो व्यक्ति शहीद हुए।
सालम की क्रांति –
वहाँ पहले सरकारी कर्मचारियों का दल जनता के उत्पीड़न के लिए भेजा गया, लेकिन जब सालम की साहसी जनता ने उन्हें पीट कर अल्मोड़ा भेज दिया, तो ब्रिटिश सरकार ने क्रोधित होकर वहाँ ब्रिटिश सेना भेजी। सेना और जनता में धामदेव नामक ऊँचे टीले पर पत्थर और गोलियों से तीव्र संधर्ष हुआ। इस संधर्ष में दो प्रमुख नेता नरसिंह धानक और टीकासिंह कन्याल बुरी तरह घायल हो गये और कुछ दिनों के बाद अस्पताल में उन की मृत्यु हो गई। तत्पश्चात डिप्टी कलेक्टर मेहरबान सिंह के नेतृत्व में सालम में जाट सेना भेजी गई, जिसने वहाँ अनेक अत्याचार किये।
खुमाड़ सल्ट की क्रांति –
सालम की भाँति सल्ट क्षेत्र ने भी 1942 ईसवी के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में सक्रिय भाग लिया। वहाँ खुमाड़ नामक स्थान पर, जो सल्ट काँग्रेस का मुख्यालय था, ब्रिटिश सेना ने जनता पर गोलिया चलाई। इस गोलीकाण्ड में गंगाराम तथा खीमादेव नामक दो सगे भाई घटनास्थल पर ही शहीद हो गए और गोलियों से बुरी तरह घायल चूड़ामणि और बहादुरसिंह चार-चार दिन बाद शहीद हुए। स्वाधीनता आंदोलन में सल्ट की अद्वितीय भूमिका की सराहना करते हुए महात्मा गाँधी ने इसे ‘कुमाऊँ की बारदोली’ की पदवी से विभूषित किया था। आज भी खुमाड़ में हर साल 5 सितम्बर को खुमाड़ सल्ट की क्रांति के शहीदों की स्मृति में शहीद दिवस मनाया जाता हैं।
टिहरी राज्य भी पहाड़ों में अन्यत्र चल रही गतिविधियों से अछूता न रहा। 1939 में वहाँ प्रजामण्डल की स्थापना के बाद जनजागृत बडी। श्रीदेव सुमन के नेतृत्व में जनता के अधिकारों के लिए संघर्ष और तेज हुआ। इस संघर्ष के दौरान 84 दिन की भूख हड़ताल के बाद सुमन ने 25 जुलाई, 1944 को दम तोड़ दिया। सकलाना विरोध (1947) और कीर्तिनगर आंदोलन (1948) टिहरी राज्य में प्रबल जन-आन्दोलन के रूप में भड़क उठे। परिस्थितियों को देखकर, महाराजा मानवेन्द्र शाह ने विलीनीकरण क्र प्रपत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। अन्ततः 1 अगस्त, 1949 को टिहरी राज्य उत्तर प्रदेश का जनपद बन गया।
09 नवंबर सन 2000 को उत्तराखंड राज्य का देश के 27वे राज्य के रूप में निर्माण हुवा। अनेक आंदोलनकारियों ने इस राज्य के निर्माण में अपना बलिदान दिया। प्रस्तुत लेख में उत्तराखंड का इतिहास का आदिकाल से लेकर उत्तराखंड के राजवंशो का तथा उत्तराखंड में गोरखा शाशन का संशिप्त क्रमबद्ध वर्णन संकलित किया गया है। उत्तराखंड में अंग्रेजो का शाशन तथा उत्तराखंड के निर्माण के का इतिहास अगले लेख में संकलित करने की कोशिश करेंगे।
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आदिकाल-
चतुर्थ सहस्त्राब्दी ईसवी पूर्व से पहले लाखो वर्षो तक फैले युग को प्रागैतिहासिक कहते हैं। इस दीर्घकाल में ,उत्तराखंड भू -भाग में मानव -गतिविधियों की अब तक एक हलकी झलक ही प्राप्त हो सकी हैं।उत्तराखंड में कई स्थानों पर पाषाणकालीन -उपकरण ,कप -माक्स्र तथा शैलाश्रयों के रूपों में प्रागैतिहासिक अवशेष मिले हैं, जिनसे संकेत मिलता हैं ।कि यहाँ पर प्रागैतिहासिक मानव रहते थे। वह शैलाश्रयों में वास करते थे और उन्हें सुन्दर चित्रकारी से सजाते थे। लघु -उड़्यार के पश्चयात ग्वरख्या -उड़्यार के शैलचित्रों की खोज से ज्ञात होता हैं कि ये शैलचित्र मध्य -प्रस्तर युग से उतर -प्रस्तर युग के हैं।
ऐतिहासिक काल से पूर्व चतुर्थ सहत्राब्दि तक आघ -ऐतिहासिक कल फैला था। इस कल में मानव को धातु का ज्ञान हो चुका था। अतः ताम्र तथा लौहयुग की सभ्यताओं का जन्म हुआ। चित्रित धूसर मृदभाण्ड कला का प्रादुर्भाव हुआ और कृषि एव पशु पालन का प्रारम्भ भी इसी काल में हुआ। गावों व् नगर सभ्यताओं का आरम्भ भी इसी समय हुआ। उदाहरण के लिए ,ताम्र -संचय संस्कृति के उपकरण बहदराबाद से प्राप्त हुआ हैं। महापाषाणीय शवाधान भी इसी युग के हैं। मलारी तथा रामगंगा -घाट से ऐसे शवाधान प्राप्त हो चुके हैं। इनमें मानव -अस्थियो के साथ धातु -उपकरण तथा विभित्र आकार के मृतिका -पात्र प्राप्त हुऐ हैं। ( history of Uttarakhand in hindi )
गढ़भूमि अर्थात गंगा की उपरली उपत्यका को ऋग्वेद में सप्तसिंधु देश की संज्ञा दी गई हैं। आर्य संस्कृति का आदि स्रोत यही भू-भाग हैं।इसी भू -भाग को वेदो -पुराणों में स्वर्गभूमि कहा गया हैं। उत्तराखंड आदि सभ्यता का जन्मदाता हैं ,हिमालय के इसी दुस्तर पार्वत्य प्रदेश के एक निर्झरणी तटस्थ तपोवन में बैठे महामुनि वेद्ब्यास ने वेदों का विभाजन तथा पुराण -ग्रंथो की रचना की थी। इसी के मध्य बहती हैं बद्रीपरभवा दिव्य नदी अलकनंदा और कल -कल निनादिनी अन्य कई लघु सरितायें। वस्तुतः तपोलोक से नीचे दिग्दिगन्तव्यापी हिमालय के चरणों में अरण्यमय स्तर का भू -भाग देवभूमि उत्तराखंड ही हैं।
वैदिक आर्य सप्तसिन्ध प्रदेश अर्थात उत्तराखंड से परचित थे।वैदिक साहित्य के अनुसार ,बद्रिकाश्रम और कण्वाश्रम में दो प्रसिद्ध विद्यापीठ स्थापित थे। वैदिक ग्रन्थ ऐतरेय ब्राह्मण में उत्तर -कुरुओं का हिमालय क्षेत्र में निवास स्थान होने का उल्लेख मिलता हैं। इस कारण इस क्षेत्र को उत्तर -कुरु की संज्ञा दी गई हैं।
इस कल के कुछ सन्दर्भ महाभारत तथा पुराणों से भी मिलते हैं। बौद्ध ग्रंथों में इस के लिए हिमवन्त नाम का उल्लेख मिलता हैं। महाभारत में कई स्थानों पर उत्तराखंड के स्थलों एवं जातियों का उल्लेख आता हैं। गंगा को पृथ्वी पर लाने वाले महाराजा भगीरथ इसी क्षेत्र से जुड़े थे। राजा दुष्यंत और शकुंतला की प्रेम-लीला कण्वाश्रम से आरम्भ हुई थी। चक्रवर्ती भरत की जन्मस्थली भी यही हैं। पाँचो पांडवो ने इसी मार्ग से बह्मलोक की यात्रा की थी। उत्तराखंड के कुणिन्द शासकों के पाण्डवों से मैत्री संबन्ध थे और कुणिन्द नरेश सुबाहु ने उनके पक्ष में युद्ध किया था। मान्यता हैं की कुन्ती एवं द्रौपदी सहित पांडवो ने उत्तराखंड क्षेत्र में ही अपने जीवन को विराम दिया और स्वर्गलोक को सिधारे।
ऐतिहासिक काल
इतिहास के विभिन विद्वानों एवं अध्येता उत्तराखंड का इतिहास के स्रोत भिंन -भिन आधारों व्हैं प्रमाणो पर मिलते हैं।इसमें उत्तराखंड में प्राप्त पुरावशेष सिक्के शिला -लेख, वास्तु -स्मारक, ताम्रपत्र आदि सम्मिलित हैं। इस काल में रचित साहित्य भी ऐतिहासिक युग की एक झाँकी प्रस्तुत करता हैं। इन विभिंन विद्वानों ने ऐसे विभिंन ऐतिहासिक स्रोतों के आधार पर उत्तराखंड में समय -समय पर निम्न राजाओ का शासन होना माना हैं।
उत्तराखंड का प्राचीन इतिहास
प्राचीन उत्तराखंड का अधिकांश भाग बीहड़, वीरान,जंगलों से भरा तथा लगभग निर्जन था। इसलिए यहाँ किसी स्थायी राज्य के स्थापित होने होने विकसित होने की स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती। परन्तु उत्तराखंड में अनेक सिक्के, अभिलेख ताम्रपत्र आदि प्राप्त होने से इतिहास के कुछ सूत्र जोड़े जा सकते हैं। शायद उस समय जो राज्य इस भू -भाग के आस -पास थे या जिन राजा ने भी इसके निकटवर्ती मैदानी इलाकों में अपने राज्य का विस्तार किया, उसने सम्भतव: इसी कारण इतिहासकार मानतें हैं की यहाँ अमुक समय में अमुक राज्य था। किन्तु इन बातो से वास्तविक इतिहास की पुष्टि नहीं हो पाती। कलसी (देहरादून के पास ) में अशोक के शिलालेख की उपस्थिति प्रमाणित करती हैं कि तीसरी शती ईसा पूर्व में इस प्रदेश का भारत की राजनीतिक और सांस्कृतिक व्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान था। प्रख्यात विद्वान रैप्सन का विचार हैं की ‘यह संभव है की शिशुनाग और नन्द उन पर्वतीय सरदारों के वंशज थे, जिन्होंने मगध राज्य को विजय करके हस्तगत किया था। यधपि नन्दों की उत्तपति के बारे में कोई निश्चित जानकारी नहीं हैं, परन्तु सम्भवत:यह नाम जनजातीय हैं। उसका सम्बन्ध उत्तर प्रदेश के हिमालय क्षेत्र में गंगा और कोशी नदी के बीच,रामगंगा नदी के समीप रहने वाले नन्दों से जोड़ा जा सकता हैं।
कुणिन्द वंश का शाशन
कुणिंद जाति उत्तराखंड तथा उसके आस पास के पर्वतों पर तृतीय -चतुर्थ सदी ईस्वी तक शासन करने वाली सर्वप्रथम राजनितिक शक्ति थी। महाभारत से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है। चौथी शती ईसवी पूर्व से ये मौर्यो के अधीन विदित होते हैं| भूगोलवेत्ता ‘टालमी’ के अनुसार भी कुलिद्रीन (कुणिन्द) लोग दूसरी शती ईसा पूर्व में व्यास, गंगा और यमुना के ऊपर क्षेत्रों में फैलें थे। सतलुज और काली नदी के बीच के क्षेत्र में मिले कुणिन्द सिक्के भी इसकी पुष्टि करते हैं| श्रीनगर के समीप सुमाड़ी गांव, थत्यूड़ा, अठूर तथा अल्मोड़ा जनपद से मिले कुणिंद-सिक्कों का समय भी ईसा पूर्व की शती में आँका गया हैं। अमोघभूति कुणिंद राजवंश के सबसे प्रभावशाली नरेश थे। पहली शती ईसा पूर्व में अमोघभूति की मृत्यु के बाद कुणिन्द शक्ति निर्बल पड़ गई| स्थिति का लाभ उठाते हुए शकों ने उनके मैदानी प्रदेश पर अधिकार कर दिया।पहली शदी के उत्तरार्द्व में कुषाणों ने उत्तराखंड क्षेत्र के तराई क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। वीरभद्र (ऋषिकेश), मोरध्वज (कोटद्वार के पास) और गोविषाण (काशीपुर) से क्रुषाणकालीन अवशेष बड़ी संख्या में मिले हैं।
उत्तराखंड के इतिहास में कर्तृपुर राज्य
कुषाणों के पतनकाल में गोविषाण (काशीपुर ), कलसी और लाखामण्डल (चकराता) में कुछ और राजवंशी भी उभरकर सामने आये। कुणिन्द भी किसी न किसी रूप में शासन करते रहे। इस काल में उत्तराखंड के इतिहास की सबसे महत्वपुर्ण घटना ‘कर्तृपुर राज्य ‘ का उदय था। इतिहासकारों का मत हैं कि इस राज्य की स्थापना भी कुणिन्दों ने की थी। इस राज्य में उत्तराखंड, हिमालचल प्रदेश और रुहेलखंड के उत्तरीय क्षेत्र सम्मलित थे। समुद्रगुप्त के प्रयास स्तम्भ लेख में ‘कर्तृपुर’ को गुप्त साम्राज्य की उत्तरीय सीमा पर स्थित एक अधीनस्थ राज्य कहा गया हैं। उत्तराखंड में शक प्रभाव की प्रमाणिकता वहा से प्राप्त अनेक उदीच्य वेशधारी (कोट, बूटधारी ) सूर्य प्रतिमाओं से भी सिद्ध होता हैं, क्योंकि शक उपासक थे।
5वी शती के उत्तरार्द्ध में नागो ने कर्तृपुर के कुणिन्द राजवंश की सत्ता समाप्त कर उत्तराखंड पर अपना अधिकार जमाया। तब पश्चिम में यमुना की उपत्यका में यादववंशी सेनवर्मा का शासन था। शायद छठी शती के उत्तरार्द्व में कन्नौज के मौखरि राजवंश ने नागों की सत्ता समाप्त कर उत्तराखड पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया।
हर्ष का अल्पकालीन अधिकार
अंतिम मौखरि नरेश गृहवर्मा की हत्या हो जाने के बाद मौखरि राज्य उनके बहनोई thaneshvar नरेश हर्षवर्धनके अधिकार मेँ चला गया और इस प्रकार उत्तराखंड भी उनके राज्य का अंग बन गया। महाराजा हर्षवर्धन ने एक पर्वतीय राजकुमारी से विवाह भी किया। हर्ष के राज्यकाल में (7 वीं शती) चीनी यात्री हेनसांग ने भारत यात्रा की। उन्होनें ‘सुवर्णगोत्र’ नामक एक राज्य का उल्लेख किया हैं -“यहाँ पर सोने का उत्पादन होता था। सदियों से यहाँ पर स्त्रियाँ राज करती रही हैं, इसलिए इसे स्त्रीराज्य कहा जाता हैं। शासन करने वाली स्त्री के पति को राजा कहा जाता हैं, परन्तु वह राज्य के मामलों की कोई जानकारी नहीं रखता हैं। पुरुष वर्ग युद्ध करता हैं और खेती का काम देखता हैं।”
इतिहासकारों का मत हैं इन राजनितिक परिस्थितियों में, एक नये ‘कार्तिकेयपुर राजवंश’ का उदय हुआ जिसकी राजधानी जोशीमठ के दक्षिण में कहीं ‘कार्त्तिकेयपुर’ में थी। मन जाता हैं कि कार्त्तिकेयपुर राजवंश उत्तराखंड का प्रथम ऐतिहासिक राजवंश हैं। इस राजवंश के अभिलेखक , कंडारा, पांडुकेश्वर, आदि स्थलों से प्राप्त हो चुके हैं। इसके कम-से-कम तीन परिवारों ने 700 ईस्वी से 1050 ईस्वी तक उत्तराखंड के विशाल भू-भाग पर शासन किया। निम्बर,ललितशुरदेव,सलोणादित्य आदि इस राजवंश में प्रतापी राजा हुए। एटकिन्सन के अनुसार, यह राज्य सतलुज से गण्डकी तक और हिमालय से मैदानी क्षेत्र रुहेलखण्ड तक फैला था। कार्तिकेयपुर राजवंश के काल में उत्कृष्ट कला का विकास हुआ। वास्तु तथा मूर्तिकला के क्षेत्र में यह उत्तराखंड का ‘स्वर्णकाल’ था। कभी-कभी भ्रम से कुछ लोग इसी को ‘कत्यूरी कला’ कह देते हैं। कत्यूरी शासन तो बहुत बाद का मध्यकालीन था। लगभग तीन सौ वर्ष तक कार्तिकेयपुर में शासन करने के उपरान्त यह राजवंश अपनी राजधनी कुमाऊँ की कत्यूर-घाटी में बैजनाथ ले आया तथा वहाँ ‘वैघनाथ-कार्तिकेयपुर’ बसाया। परन्तु कुछ ही समय बाद कार्तिकेयपुर राजवंश का अन्त हो गया।
बहुराजकता का युग
हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद (648 ईस्वी) उत्तराखंड का इतिहास कुछ अस्पष्ट-सा हैं। इस विघटनकाल में उत्तराखंड में अनेक छोटे-बड़े राज्यों का भरमार हो गई। हर्ष-काल में, सातवीं शती ईसवी में, भारत-भ्रमण पर आये चीनी यात्री हेनसांग के वृतान्त के आधार पर कहा जा सकता हैं कि इस काल में उत्तराखंड की सीमाओं में तीन राज्य प्रसिद्ध थे- ब्रह्मपुर, स्त्रुध्न्न तथा गोविषाण। इनमें पौरवो का ब्रह्मपुर राज्य सबसे विशाल था। सैन्य शक्ति के आभाव में इन दुर्लभ राजाओं ने सुरक्षा के लिए छोटे-छोटे कोटों अथवा गढ़ों का निर्माण किया।
इस विघटनकाल में उत्तराखंड पर कई बहरी आक्रमण भी हुए। दक्षिणी उत्तराखंड पर चौहान नरेश विग्रहराज के शासन की चर्चा मिलती हैं। तोनर राजाओं ने भी उत्तराखंड के कुछ क्षेत्रों पर अपना अधिपत्य जमाया था।
बहुराजकता का यह काल लगभग तीन सौ वर्षो तक रहा। गढ़वाल-कुमाऊँ में इस समय बहुसंख्यक गढ़पतियों का शासन रहा। कुमाऊँ में कत्यूर राजवंश कई शाखाओ में बिखर गया।
उत्तराखंड का कत्यूरी राजवंश
‘कार्त्तिकेरीपुर’ राजाओं के पश्च्यात , मध्यकालीन कुमाऊँ में ‘कतियुरों’ की विशेष चर्चा मिलती हैं। कदाचित इस राजवंश का मूल नाम ‘कतियुर’ ही था। पीछे जागरो में जो अधिक पुराने नहीं हैं, इन्हीं को ‘कत्यूरी’ या ‘कंथापूरी’ कहने लगे। उनके इतिहास के स्रोत मात्र स्थानीय लोककथाएँ, तथा जागर हैं। जो मौखिक रूप में प्रचलित हैं। आगे चलकर कत्यूरियों के कमजोर पड़ने से उनका राज्य छीन-भिंन हो गया। इस राजवंश का अंतिम राजा बीरदेव या वीराम था। मध्यकाल म कत्यूरियों की कई शाखाएँ कुमाऊँ में शासन करती थी। असकोट के रजवार तथा डोटी के मल्ल उन्हीं के शाखाएँ मानी जाती हैं। उत्तराखंड एक बार फिर बहुराजकता के घेरे में आ गया और उस पर बहरी आक्रमण होने लगे।
पक्षिम नेपाल नरेश अशोकचल्ल ने 1191 ईसवी में उत्तराखंड पर धावा बोला और उसके अधिकांश भाग पर अधिकार कर दिया। तदन्तर पक्षिम नेपाल से ही आक्रान्ता क्राचलदेव ने भी कुमाऊँ पर अधिकार किया यघपि उसकी सत्ता भी अधिक समय तक नहीं रही।
उत्तराखंड का इतिहास में गढ़वाल का परमार राजवंश –
ऐतिहासिक सूत्रों के अनुसार परमार वंश की स्थापना कनकपाल ने 888 ईसवी में चंन्द्पुरगढ़ में की थी। किन्तु गढ़वाल का परमार राजवंश एक ‘स्वतन्त्र’ राजनितिक शक्ति के रूप में 10वीं-11वीं शती के आसपास ही स्थपित हो गया। परमार वंश के प्रारम्भिक नरेश कार्तिकेयपुरीय नरेशों के सामन्त रहे, ऐसा प्रतीत होता हैं। इस वंश के शक्तिशाली राजा अजयपाल ने चान्दपुरगढ़ से अपनी राजधानी पहले देवलगढ़ और फिर श्रीनगर में स्थापित की। कहा जाता हैं की दिल्ली के सुल्तान बहलोल लोदी (1451-88) ने परमार नरेश बलभद्रपाल को ‘शाह’ की उपाधि देकर सम्मानित किया। इसलिए आगे चलकर ‘परमार’ नरेश अपने नाम के साथ ‘शाह’ का प्रयोग करने लगे। परन्तु पँवार राजाओं को ‘शाह’ या ‘साही’ उपाधि किसी दिल्ली के किसी बादशाह ने नहीं दी। ‘साही’ शुद्ध हिन्दू उपाधि थी। इनके राज्य में उस समय वर्तमान हिमाचल प्रदेश के थ्योग, मथन, रवाईगढ़ आदि क्षेत्र भी सम्मिलित थे।
इसके अलावा, वर्तमान में हिमालचल प्रदेश स्थित डोडराकवारा और रामीगढ़ भी गढ़वाल नरेश के अधीन थे। गढ़वाल पर मुगलों ने भी छुटपुट आक्रमण किये, किन्तु गढ़वाल कभी उनके अधीन नहीं रहा। इस सन्दर्भ में एक रोचक प्रसंग 1636 में मुगल सेनापति नवाजतखाँ का दून-घाटी पर हमला था।
उस समय गढ़वाल राज्य की बागडोर महाराणी कर्णावती के हाथों में थी। उसने अपनी वीरता तथा सूझबूझ से शक्तिशाली मुगलों को करारी मात दी। रानी के सैनिको ने उन सभी मुगल सैनिकों के नाक काट दिए जो आक्रमण के लिए आये हुये थे। इससे महारानी कर्णावती ‘नाक-कटी राणी’ के नाम से प्रसिद्ध हो गई। गढ़वाल नरेश मानशाह और महीपतिशाह ने तिब्बत हमलों का सफलतापूर्ण सामना किया। तिब्बत के विरुद्ध युद्धों में परमार सेनानायक माधेसिंह भण्डारी और लोदी रिखोला ने असाधारण वीरता का परिचय दिया।
परमार (पॉवर) नरेशों में अजयपाल के पश्च्यात मानशाह, फतेपतिशाह, तथा प्रदीपशाह महान राजा हुए। ‘मनोदयकाव्य’ ,’फतेप्रकाश’ आदि रचनाओं में उन नरेशों के प्रताप का वर्णन किया गया हैं। जिन्होने अपनी सीमाओं की वीरतापूर्णक सुरक्षा ही नहीं की, अपितु गढ़-संस्कृती का उत्थान भी किया। ‘गढ़वाल’ भाषा पँवार शासनकाल में गढ़वाल राज्य की राजभाषा थी।
14 मई, 1804 में गोरखों के हाथों प्रघुम्नशाह की पराजय के बाद, परमार नरेश अपना राज्य खो बैठे। गढ़वाल-कुमाऊँ पर गोरखों का शासन स्थापित हो गया। परन्तु सन 1814 में अंग्रेजों के हाथों गोरखों की पराजय के परिणामस्वरूप गढ़वाल स्वत्रन्त्र हो गया। कहते हैं अंग्रेजों को लड़ाई का खर्च न दे सकने के कारण, गढ़वाल नरेश को समझौते में अपना आधा राज्य अंग्रेजों को देना पड़ा। परन्तु तथ्य यह है की अंग्रेजों ने गढ़वाल नरेश को धोखा देकर अर्थात वचन-भंगकर पूर्वी गढ़वाल पर अधिकार कर लिया।
गढ़वाल नरेश कभी श्रीनगर राजधानी को नहीं छोड़ना चाहते थे। लेकिन अंग्रेजों के क्रुचक्र के कारण गढ़वाल नरेश सुदर्शनशाह ने अपनी राजधानी ‘टिहरी’ में स्थापित कर दी। उनके वंशज 1 अगस्त, 1949 तक टिहरी गढ़वाल पर राज करते रहे तथा भारत में विलय के बाद टिहरी राज्य को उत्तर प्रदेश का एक जनपद बना दिया गया।
उत्तराखंड के कुमाऊँ का चन्द वंश
कातियुरों के उपरान्त,उत्तराखंड के पूर्व भाग कुमाऊँ में चन्द राजवंश का शासन स्थापित हुआ। पहले भ्र्म से इसका पहला शासक राजा सोमचंद मन जाता था। नये शोधों से ज्ञात होता है की “सोमचन्द का कुमाऊँ के इतिहास में कोई अस्तित्व नहीं हैं। चन्द वंश का संस्थापक थोहरचन्द था।” ऐसा माना जाता है कि चन्द कुमाऊँ क्षेत्र पर अपना प्रभुत्व 14वीं शती के बाद ही जमा पाए। कुमाऊँ में चन्द और कातियुर (तथा-कथित कत्यूरी) प्रारम्भ में समकालीन थे। और उनके सत्ता के लिए संघर्ष चला जिसमें अन्त में चन्द विजय रहे।
सबसे पहले चन्दो ने ‘चंपावत’ को अपनी राजधानी बनाया। कालान्तर में, कतियुर-शाखाओं पर क्रमशः विजय प्राप्त कर उन्होनें ‘अल्मोड़ा’ अपनी राजधानी बनायी। वर्तमान पक्षिम नेपाल के कुछ भाग भी इसके क्षेत्र में सम्मिलित थे। शायद १५६३ ईसवी में राजा बालो कल्याणचन्द ने अपनी राजधानी को अल्मोड़ा में स्थानान्तरित कर दिया। 1790 में गोरखा आक्रान्ताओं ने चन्द राजवंश का अन्त कर दिया।
उत्तराखंड के इतिहास में गोरखा शासन
1790 ईसवी में गोरखों ने कुमाऊँ पर अधिकार कर लेने के बाद गढ़वाल पर भी आक्रमण किया। परन्तु चीनी हमलों के भय से उस समय उन की सेना वापस लोट गई। 1804 में गोरखों ने फिर से गढ़वाल पर एक सुनियोजित आक्रमण कर अधिकार कर लिया। युद्ध में गढ़वाल नरेश प्रदुमन शाह देहरादून के खुड़बुड़ा स्थान पर वीरगति को प्राप्त हुए। इस प्रकार सम्पूर्ण उत्तराखंड पर गोरखों का अधिकार हो गया।
कुमाऊँ पर यह गोरखा शासन 25 वर्ष तक और गढ़वाल पर लगभग ११-१२ वर्ष तक रहा। इस अवधि में भी गढ़वाल में उसका कड़ा विरोध होता रहा। कई स्थानों पर तो गढ़वालियों ने उनसे अपने किले वापिस करवा दिऐ। उनके शासन काल में उत्तराखंड के लोगो को असहनीय अत्याचार, अन्याय और दमन झेलना पड़ा। अतः इस अनैतिक शासनकाल को गोरख्याणी राज कि संज्ञा दी जाती हैं।
कंगनी अनाज जिसे हमारे पहाड़ों में कौणी या कौंणी कहा जाता है। यह पहाड़ों की पारंपरिक फसल भी है । वर्तमान में पलायन की मार झेल रहे पहाड़ो में कौंणी लगभग विलुप्त हो गई है। इसका वानस्पतिक नाम Setarika italics है। यह पोएसी कुल का पादप है। यह चीन में मुख्यतः उगाई जाने वाली फसल है। चीन में ई0पु0 600 वर्ष से उत्त्पादन किया जा रहा है। इसलिए “चीनी बाजरा” भी कहा जाता है। यह पूर्वी एशिया में अधिक उगाई जाने वाली फसल है। इसका उपयोग एक घास के रूप में भी होता है।
कौणी या कंगनी प्रतिवर्ष होने वाली फसल है। इसका पौधा लगभग 7 फ़ीट ऊँचा होता है । इनके छोटे छोटे बीज होते हैं । जिनपर बारीक छिलके होते हैं। झंगोरा अनाज की तरह इनके कई पकवान बनते हैं। इसकी रोटियां, खीर, भात, इडली, दलिया, मिठाई बिस्किट आदि बनाये जाते हैं।
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कंगनी के अलग अलग नाम –
हिंदी में इसे कंगनी या कफनी , काकुंन, टांगुन कहते हैं।
अंग्रेजी में इसे Foxtail Millet , Italian millet कहते हैं।
संस्कृत में कंगनी, प्रियंगु, कंगुक, सुकुमार, अस्थिबन्धन
कंगनी भारत मे नागालैंड और दक्षिण भारत के छत्तीसगढ़ आदि क्षेत्रों में प्रमुख अनाज के रूप में उगाया जाता है। इसके अलावा देश के अन्य क्षेत्रों में भी यह अनाज के रूप में उगाया जाता है। उत्तराखंड में कौंणी पहले सहायक अनाज के रूप में प्रमुखता से उगाया जाता था। वर्त्तमान में पलायन की मार झेल रहा उत्तराखंड में यह अनाज लगभग विलुप्त हो गया है।
विदेशों में देखा जाय तो यह चीन का मुख्य अनाज है। चीन में इसे छोटा चावल भी कहते हैं। अमेरिका यूरोप में इसे पक्षियों के लिए उगाया जाता है।
फ़ॉक्सटेल मिलेट्स या कंगनी में पाए जाने वाले पौष्टिक तत्व –
कौंणी या कंगनी एक पौष्टिक अनाज है इसमे निम्न पौष्टिक तत्व प्रमुखतया पाए जाते है।
पौष्टिक तत्व
मात्रा प्रति 100 gm में
कार्बोहाइड्रेट
67 mg
प्रोटीन
12.30 gm
फैट
4.30 gm
आयरन
2.8 gm
एनर्जी
331 kcl
फाइबर
8 gm
कैल्शियम
3 gm
फास्फोरस
290 mg
ग्लाइसेमिक इंडेक्स
52
ग्लाइसेमिक लोड
32
इसके अलावा इसमे बीटा कैरोटीन, एल्कलॉइड, फेनोलिक्स, फलवोनॉइड्स, टॉनिन्स और विटामिन बी1, बी2, बी3, पोटेशियम क्लोरीन और जिंक मौजूद होता है। और साथ में कई प्रकार के एमिनो एसिड भी उपलब्ध होते है।