Monday, December 9, 2024
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कैंची धाम के जाम से पस्त है पहाड़ , भयंकर परेशानी से जूझ रहे हैं हल्द्वानी रेफर मरीज

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कैंची धाम के जाम से निजात

कैंची धाम के जाम से कब मिलेगी निजात – कैंची धाम आज भारत के सबसे बड़े धामों में शुमार है। पिछले कुछ सालों में कैंची धाम आस्था का बड़ा केंद्र बनकर उभरा है। बीते तीन चार सालों से कैंची में श्रद्धालुओं की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। यहाँ बढ़ती हुई भीड़ का मुख्य कारण है सोशल मीडिया पर कैंचीधाम का जबरदस्त प्रचार और बीते कुछ समय में यहाँ भारत सहित विदेशी सेलेब्रिटियों का आगमन। जिससे इस मंदिर को काफी प्रचार मिला और यहाँ अचानक श्रद्धालुओं की संख्या बढ़ गई।

श्रद्धालुओं की संख्या अचानक बढ़ने से यहाँ प्रतिदिन जाम लग रहा है। कैंची धाम में जाम से कुमाऊं मंडल के अधिकांश क्षेत्र त्रस्त हैं। इस जाम के कारण जहाँ हल्द्वानी जाने और आने वालों को काफी परेशानी हो रही है ,वहीँ जाम के कारण अल्मोड़ा बागेश्वर ,रानीखेत और हल्द्वानी जैसी बड़ी बाजारों की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया है। यहाँ तक कि पर्यटक भी क्षेत्र की बहुत अच्छी छवि लेकर नहीं जा रहे हैं। पहाड़ के छोटे कस्बो या जिला मार्किट में ऐसी भीड़ पहुंच जाए तो वहां की हालत त्रस्त होनी लाज़मी है।

कैंची धाम के जाम

स्थापना से आज तक नहीं देखी ऐसी भीड़ –

कैंची धाम की स्थापना 1960 के आसपास हो गई थी । तबसे अब तक ऐसी भीड़ कभी नहीं देखी। हल्द्वानी भवाली अल्मोड़ा -पिथौरागढ़ हाइवे एक तरह से कुमाऊं की लाइफ लाइन है। मैदान से रोज कई ट्रक पहाड़ों के लिए सामान ,सब्जियां राशन लेकर निकलते हैं। एक जानकारी के अनुसार इस लाइन पर रोज 400 से ज्यादा ट्रक आवाजाही करते हैं ,और वे एक हफ्ते में लगभग 03 से चार फेरे लगा देते थे।

अब एक फेरा लगाना भी भारी पड़ रहा है। जाम से बचने के लिए ट्रकों को अलग अलग रास्तों से निकाला जा रहा है , जिसकी पूर्ति के लिए सामान की कीमतों में बढ़ोतरी हो रही ,जिससे सीधा सीधा कुमाऊं की आम जनता प्रभावित हो रही है।

यही हाल यहाँ से निकलने वाले टेक्सी ,गाड़ियों का भी हो रहा है। आम जनता तो त्रस्त हो रही है ,साथ साथ कैंची धाम के आगे का पर्यटन बिजनस भी चौपट हो रहा है। प्रशाशन द्वारा कैंची धाम के जाम से निपटने के लिए मंदिर से कुछ दुरी पहले एक सुरंग बनाकर वैकल्पिक मार्ग की संभावनाएं तलाशी जा रही थी ,लेकिन सुरंग वाली जगह की मिटटी कच्ची होने के कारण योजना शुरू होने से पहले ही डब्बाबंद हो गई।

मुख्यमंत्री श्री पुष्कर सिंह धामी की घोषणा के बाद भवाली राति घाट बायपास रोड चौथाई बनने के बाद वन विभाग का पेंच गया ,जिस कारण यह योजना भी अधर में लटक गई। एक जानकारी के मुताबिक कैंचीधाम में रोज 4  से 5 हजार वाहन आ रहे हैं और वीकंड पर तो इनकी संख्या दस हजार तक पहुंच जाती है।

कैंची धाम के जाम से परेशान कुमाऊं की जनता

कैंची धाम के जाम से बीमार मरीजों को ज्यादा दिक्कत हो रही है –

कैंची धाम के जाम से सबसे ज्यादा परेशान हो रहे हैं बच्चे और बीमार मरीज। यह कोई छुपाने वाली बात नहीं है कि पहाड़ों के सभी हॉस्पिटल अब हॉस्पिटल कम और रेफर सेंटर ज्यादा हैं। अल्मोड़ा बागेश्वर ,रानीखेत पिथौरागढ़ से अधिकतम मरीज हल्द्वानी या मैदानी हॉस्पिटलों को रेफर किये जाते हैं ,और वहीं मरीज कैंची धाम के जाम में फ़सकर जिंदगी मृत्यु के बीच जूझते रहते हैं।

कैंची धाम के जाम से कब मिलेगी निजात

पार्किंग का कोई ठोस विकल्प अभी तक सरकार के पास नहीं दिख रहा है। ऐसे हालात देख कर लगता है कि कुमाऊं के निवासियों को अभी जल्द कैंची धाम के जाम से निजात मिलती नहीं दिख रही। उल्टा डर है कि आने वाले दिनों में कहीं स्थिति बाद से बदत्तर न हो जाय। जल्द से जल्द जनप्रतिनिधियों और सरकार ने इस विकराल होती समस्या को गंभीरता से नहीं लिया तो भविष्य में होने वाले भयंकर जाम से पहाड़ के निवासियों की हालत बद्तर हो सकती है।

हालाँकि अल्मोड़ा पिथौरागढ़ क्षेत्र के सांसद ,वर्तमान सड़क परिवहन राजमार्ग राज्य मंत्री श्री अजय टम्टा जी ने बीते अक्टूबर में हरतापा बायपास  की घोषणा की थी। सर्वे का काम बीते 08 नवंबर को पूरा हो चूका है। देखना यह है कि क्या यह बायपास पूरा पाएगा या एक बार फिर सुस्त सरकारी मशीनरी की भेंट चढ़ जायेगा।

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घटकू देवता के रूप में पूजे जाते हैं भीम पुत्र घटोत्कच पहाड़ में।

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उत्तराखंड के चम्पावत जिले यानी काली कुमाऊं में द्वापर युग के घटोत्कच पूजे जाते हैं घटकू देवता के रूप में। घटकू देवता का मंदिर काली कुमाऊं चम्पावत दो ढाई किलोमीटर दूर दिशा में चम्पावत तामली मोटरमार्ग पर स्थित है। यह मंदिर चम्पावत तामली मार्ग पर गिडया नदी के तट पर स्थित है है।

महाभारत युद्ध में घटोत्कच का सर यहाँ गिरा था –

स्कंदपुराण के मानसखंड के अनुसार महाभारत युद्ध में कर्ण की अमोघ शक्ति से कटकर घटोत्कच का सर यहाँ एक जलाशय में गिर गया था। अपने पुत्र का सर न मिलने के कारण पांडव बहुत दुखी थे। तब कहते हैं स्वयं घटोत्कच ने उन्हें स्वप्न में बताया कि उसका सिर यहाँ गिरा है। जब पांडव उसे ढूढ़ते ढूढ़ते यहाँ पहुंच गए। पहले तो वे भयंकर अतल सरोवर को देखकर घबरा गए कि अपने पुत्र के सर को यहाँ से कैसे निकाला जाय। तब उन्होंने माँ भगवती अखिलतारिणी से मदद मांगी ,उनके आदेश पर भीम ने अपनी गदा से सरोवर के एक हिस्से को तोड़ कर उसका जल प्रवाहित किया।

और उस सरोवर से घटोत्कच का सर बहार निकाल कर उसका श्राद्ध किया। पांडवों ने जिस शिला पर घटकू का श्राद्ध किया वह शिला अब धर्मशिला कहलाती है। लोग धार्मिक उत्सवों पर वहां स्नान करते हैं। भीम ने उस सरोवर के जल को प्रवाहित कर दिया जिससे गंडकी और लोहावती नामक नदिया निकली। भीम ने अपने पुत्र की शांति के लिए यह क्षेत्र घटकू को सौप दिया। कहते हैं बाद में घटकू देवता की माता हिडम्बा उर्फ़ हिंगला भी यहाँ आ गई अपने पुत्र के पास।

घटकू देवता

घटकू देवता के रूप में पूजे जाते हैं घटोत्कच यहाँ –

घटोत्कच को यह क्षेत्र मिलने के बाद यहाँ वे लोक देवता घटकू के रूप में पूजा जाता है। घटकू देवता का मंदिर फुंगर गांव के प्रारम्भ में ही सघन देवदार वनो में स्थित है। जिसमे घटोत्कच का प्रतीक के रूप में एक कुंड है। लोक मान्यता के अनुसार इस कुंड में चढाई गई सामग्री हिडम्बा देवी मंदिर में पहुंच जाती है। घटकू देवता की पूजा पूर्णतया सात्विक रूप से की जाती है। इसलिए यहाँ बलि सर्वथा वर्जित है। रक्त के नाम पर यहाँ लाल चन्दन ले जाना भी वर्जित है। यहाँ पूजा में सफ़ेद वस्त्र और अक्षत चंदन का प्रयोग किया जाता है।

घटकु देवता के गणो को मंदिर से कुछ दुरी पर परदे के पीछे बलि देकर संतुष्ट किया जाता है। सात्विक प्रवृति का होने के कारण यहाँ मृतक अशौच और रजस्वला स्त्रियों का जाना भी वर्जित है। घटकू देवता अन्य लोक देवताओं की तरह किसी के शरीर में अवतरित तो नहीं होता लेकिन इसे प्रसन्न करने के लिए भारतगान का आयोजन किया जाता है।

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ठठोरी देवी – बच्चों की मनोकामना पूर्ण करने वाली देवी की कहानी।

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ठठोरी देवी – बच्चों की मनोकामना पूर्ण करने वाली देवी की कहानी।

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ठठोरी देवी – उत्तराखंड को देवभूमि कहते हैं ,उत्तराखंड ही नहीं सम्पूर्ण हिमालयी भू भाग देवभूमि के नाम से प्रसिद्ध है। हिमालयी भू भाग के परत प्रत्येक भू भाग प्रत्येक कण कण में देवों का वास है। यहाँ दैवीय दिव्य शक्तियों का वास हमेशा रहता है। और समय समय पर ये अपनी उपस्थिति और अपनी दिव्यता का प्रमाण देती रहती हैं। आज उत्तराखंड के माता के एक ऐसे मंदिर के बारे में बताने जा रहे हैं ,जिसे पहाड़ के छोटे छोटे बच्चों ने अपनी बाल श्रद्धा से अपनी बाल समस्याओं के निवारण हेतु स्थापित किया और माँ भी बाल आग्रह को मिथ्या न कर उनके आग्रह को स्वीकार करके उनकी कामना पूर्ण की।

उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले के नैनीडांडा विकासखंड में ग्राम जमरिया और दिगोलिखाल के पास स्थित है माँ ठठोरी देवी का मंदिर। इस मंदिर की स्थापना किसी ऋषिमुनियों ने नहीं या पौराणिक काल में नहीं हुई ,बल्कि क्षेत्र के स्कूली बच्चों ने की थी। जिन्होंने इस बात को सिद्ध किया कि उत्तराखंड का कण कण देवभूमि है और यहाँ हर जगह पर दैवीय शक्तियों का वास है। इस मंदिर की स्थापना सन 1975 में ग्राम विनोदू बाखल के स्कूली बच्चों ने की थी। कहते हैं उस समय माँ ठठोरी देवी से बच्चों ने जो भी मनोकामना की थी माँ ने वे सभी मनोकामनाएं पूर्ण की थी।

ठठोरी देवी

ठठोरी देवी मंदिर से जुडी कहानी –

इस मंदिर की स्थापना से एक रोचक कहानी जुडी हुई है। हम सबको पता है बच्चे मन के सच्चे होते हैं और इंसान तो, इंसान भगवान् भी उनकी इच्छा पूर्ण करने से अपने आप को नहीं रोक सकते। ऐसा ही वाकया हुवा इन बच्चों के साथ। बच्चों के मन की तरह उनकी मनोकामनाएं भी बड़ी बाल सुलभ होती हैं। यहीं बाल सुलभ मनोकामनाएं माँ ठठोरी देवी मंदिर की स्थापना का कारण बनी।

हुवा यू कि जब बिनोदु बाखल के बच्चे जब किन्गोड़ीखाल स्कूल जाते थे तो बीच में ग्राम जमरिया पड़ता है । इस गावं में एक भयंकर कुत्ता रहता था जो बच्चों पर आते जाते समय भौकता था उन्हें काटने को दौड़ता था। जब बच्चे इस कुत्ते से बहुत परेशान हो गए ,तब उन्होंने ठठोरी ढैया में दो पत्थर रखकर उसपे फूल चढ़ाकर प्रार्थना की ,” हे माँ ये कुत्ता हमे बहुत तंग करता है ,और काटने भी आता है ,यदि इसको आज बाघ ले जायेगा तो हम रोज आपकी पूजा करेंगे।

बच्चों की मनोकामनाएं भी बच्चों जैसी लेकिन माँ बच्चों के कोमल ह्रदय से निकले इन शब्दों को कैसे झुठला सकती थी ,उन्होंने बच्चों की मनोकामना मान ली और उस रात वास्तव में उस कुत्ते को बाघ ले गया। अगले दिन बच्चे वहां से निकले तो उनपर कुत्ता नहीं भौका ! बच्चों को बड़ा आश्चर्य हुवा। उन्होंने उस कुत्ते के बारे में पता किया तो पता चला कि उसे रात को ही बाघ ले गया था ,बच्चे बड़े खुश हुए।

कुछ समय बाद बच्चे बड़ी कक्षाओं में चले गए। बड़ी कक्षाओं में परीक्षा के दबाव में पढाई ज्यादा होती थी ,अध्यापक डाटते और मारते भी थे। उनमे से एक अध्यापक बड़े खतरनाक थे वे बहुत मारते थे। बच्चों ने उनके डर से स्कूल जाना बंद कर दिया था। एक दिन बच्चों को अचानक अपने बचपन की कुत्ते वाली बात याद आ गई।

तब वे फिर पहुंचे ठठोरी ढैया पर वहां उन्होंने माँ से प्रार्थना की कि यदि उन मारने वाले गुरूजी की बदली हो जायेगी तो हम हमेशा आपकी पूजा करेंगे। माँ बच्चो के प्रति दयालु थी , दो तीन दिन बाद पता चला कि उन गुरु जी का तबादला हो गया है। और बच्चों की मनोकामना पूर्ण हुई और बच्चों ने उन पत्थरों को मंदिर का रूप देना शुरू कर दिया।

वैष्णवी रूप में विराजित है माँ यहाँ –

कहते हैं आगे भी बच्चों की मनोकामनाएं पूरी होती रही। बड़े होने के बाद उन्ही बच्चों की पहल पर इसे एक बड़े मंदिर का रूप दे दिया गया। जिस पर्वत पर यह मंदिर स्थित है उस पर्वत का नाम ठठोरी ढैया है इसलिए इस मंदिर का नाम ठठोरी माता मंदिर रख दिया गया। इसमें विराजित माँ दुर्गा के वैष्णवी रूप की पूजा होती है ,यहाँ किसी तरह की पशुबलि नहीं चलती है। यहाँ प्रत्येक अप्रेल में पूजा और भंडारे का आयोजन होता है।

संदर्भ –

इस कहानी का संदर्भ स्थानीय स्तर पर उपलब्ध जानकारियां और घसेरी यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध कहानी का यह वीडियो है। ठठोरी माता की कहानी वीडियो में यहाँ देखें –

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उत्तराखंड के वीर भड़ गढ़ू सुम्याल की वीर गाथा, गढ़वाल में जिसकी वीर गाथा के पवाड़े गाये जाते हैं।

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फाइव स्टोन गेम के नाम से विश्व प्रसिद्ध है पहाड़ का दाणी , नौगि ,गुट्टा खेल।

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फाइव स्टोन गेम

पांच पत्थरों से खेला जाने वाला खेल विश्व के कई शहरों में फाइव स्टोन गेम ( five stones game) के नाम से जाना जाता है। यह खेल जापान चीन ,स्पेन ,इटली , अफ्रीका सिंगापुर आदि देशों में पारंपरिक खेल के तौर पर खेला जाता है। आपको जानकर हैरानी होगी कि विश्व के कई देशों का पारम्परिक खेल फाइव स्टोन गेम के नाम से प्रसिद्ध यह खेल उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों का पारंपरिक खेल दाणी या नौगी है ,या इसे गुट्टा खेल भी कहते हैं। उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र ही नहीं अपितु भारत के कई राज्य की किशोरी लड़कियां इस खेल को खेल कर बड़ी हुई है।

भारत में यह खेल बंगाल,केरल तमिलनाडु ,राजस्थान आदि राज्यों में पारम्परिक रूप से खेला जाता है। फाइव स्टोन गेम (five stones game ) कौशल और समन्वय का खेल है। यह खेल कई चरणों में पूरा होता है। पहाड़ के समाज में भी यह खेल सदियों से एक पारंपरिक खेल के रूप में खेला जाता है। हालाँकि आजकल की बच्चियां रील्स इत्यादि देख कर या उन्हें बनाकर बड़ी हो रही हैं ,लेकिन पहले खेल और मनोरंजन के उतने साधन नहीं थे ,यही गिट्टा ,दाणी खेलकर बच्चियां अपना मनोरंजन करती थी। और लड़को का गिल्ली डंडा या गिर खेल इत्यादि होते थे।

फाइव स्टोन गेम
फाइव स्टोन गेम ( five stones game )

फाइव स्टोन गेम या पांच पत्थरों का खेल –

फाइव स्टोन गेम के नाम से प्रसिद्ध यह पारम्परिक खेल विश्व में कहीं नेकबोन्स के नाम से भी जाना जाता है। भारत में गुट्टी या गट्टी या दाणी आदि नामों से जाना जाता है। इसे खेलने के लिए पांच पत्थरों की आवश्यकता पड़ती है। कई जगह यह आड़ू की गुठली से भी खेला जाता है। प्राचीन काल में यह कहीं बकरियों के घुटने की हड्डियों से भी खेला जाता था। कहीं वर्गाकार या गोल पांच डाइज भी बनाई जाती है। वैसे यह खेल मुख्यतः पांच पत्थरों से ही खेला जाता है।

पांच पत्थरों का खेल भारत का एक प्राचीन और पारंपरिक खेल है, जो न केवल मनोरंजन प्रदान करता है बल्कि मानसिक चपलता और शारीरिक समन्वय को भी बढ़ावा देता है। यह खेल बच्चों से लेकर वयस्कों तक के बीच लोकप्रिय है और आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में इसका आकर्षण बना हुआ है। हालंकि बढ़ती डिजिटल क्रांति के कारण आजकल के बच्चे अपने इन पारंपरिक खेलों से दूर होते जा रहे हैं।

फाइव स्टोन खेल के नियम और खेलने का तरीका  –

इस खेल को खेलने के लिए पांच छोटे पत्थरों की आवश्यकता होती है। ये पत्थर आकार में गोल और हल्के होने चाहिए ताकि उन्हें आसानी से फेंका और पकड़ा जा सके। खेल में विभिन्न चरण होते हैं, और प्रत्येक चरण में खिलाड़ी को विशेष तरीके से पत्थरों को उठाना या फेंकना होता है।

फाइव स्टोन गेम

फाइव स्टोन खेल खेलने के मुख्य चरण –

  • पहला चरण:भी पत्थरों को ज़मीन पर फैला दिया जाता है। खिलाड़ी एक पत्थर को ऊपर फेंकता है और बाकी पत्थरों को एक-एक करके उठाता है, फिर फेंके गए पत्थर को पकड़ता है।
  • दूसरा चरण : अब पत्थरों को दो-दो के समूह में उठाया जाता है।
  • तीसरा चरण: तीन पत्थरों को एक बार में और चौथे को अलग से उठाया जाता है।
  • चौथा चरण: सभी चार पत्थरों को एक बार में उठाकर फेंके गए पत्थर को पकड़ना होता है।
  • अंतिम चरण: एक विशेष तरीके से सभी पत्थरों को उठाने का प्रयास किया जाता है।

फाइव स्टोन खेल या गुट्टा के खेल का महत्व –

यह खेल केवल मनोरंजन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास में भी मदद करता है। एकाग्रता और समन्वय: इस खेल में पत्थरों को फेंकने और पकड़ने की प्रक्रिया से हाथ और आंखों का समन्वय बेहतर होता है।

  • सामाजिक सम्पर्क : इसे आमतौर पर समूह में खेला जाता है, जिससे बच्चों को सामाजिक संबंध और टीम भावना सीखने का मौका मिलता है।
  • परंपरा और संस्कृति: पांच पत्थरों का खेल भारतीय संस्कृति और पारंपरिक मूल्यों का हिस्सा है, जो पीढ़ियों से हस्तांतरित हो रहा है।

आधुनिक युग में खेल का स्थान

हालांकि आधुनिक खेल और तकनीक के दौर में इस खेल की लोकप्रियता थोड़ी कम हो गई है, लेकिन यह अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों और पारंपरिक त्योहारों में देखा जाता है। आज के समय में, इसे बच्चों के बीच दोबारा प्रचलित करने के लिए स्कूलों और सामुदायिक कार्यक्रमों में शामिल किया जा सकता है। इससे बच्चों के व्यक्तित्व ,एकग्रता को विकसित करने में मदद मिलेगी। और आजकल के बच्चो को जो मोबाइल की लत लग चुकी है उसे दूर करने में मदद मिलेगी।

निष्कर्ष :

पांच पत्थरों का खेल  न केवल एक मनोरंजक गतिविधि है, बल्कि यह हमारे समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक भी है। इसे पुनर्जीवित करके न केवल बच्चों को उनकी जड़ों से जोड़ा जा सकता है, बल्कि उनके मानसिक और शारीरिक कौशल को भी विकसित किया जा सकता है। यह खेल हमारी भारतीय परंपरा की सरलता और सादगी का एक खूबसूरत उदाहरण है।

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उत्तराखंड में विकास कार्यों को मिली गति, सड़कों और पुलों के निर्माण के लिए 66.12 करोड़ रुपये स्वीकृत

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उत्तराखंड में विकास कार्यों को मिली गति, सड़कों और पुलों के निर्माण के लिए 66.12 करोड़ रुपये स्वीकृत
मुख्यमंत्री श्री पुष्कर सिंह धामी

देहरादून: उत्तराखंड के मुख्यमंत्री श्री पुष्कर सिंह धामी ने राज्य के विभिन्न विधानसभा क्षेत्रों में सड़कों और पुलों के निर्माण के लिए 66.12 करोड़ रुपये की स्वीकृति दी है। यह निर्णय राज्य के विकास और कनेक्टिविटी को बढ़ावा देने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।

मुख्यमंत्री श्री पुष्कर सिंह धामी ने कहा कि, “यह स्वीकृति राज्य के विकास के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है। इन सड़कों और पुलों के निर्माण से ग्रामीण क्षेत्रों का शहरी क्षेत्रों से बेहतर संपर्क होगा और लोगों को बेहतर सुविधाएं मिलेंगी।”

स्वीकृत धनराशि का उपयोग निम्नलिखित कार्यों के लिए किया जाएगा:

  • नैनीताल: कालाढूंगी में नहर कवरिंग और चौफुला से कठघरियां तक सड़क निर्माण के लिए 12.45 करोड़ रुपये।
  • लोहाघाट: कालसन ठांठा मोटर मार्ग और बनोली सुदर्का मोटर मार्गों के सुधार के लिए 3.46 करोड़ रुपये।
  • देहरादून: विकासनगर में लम्बरपुर से लांघा मोटर मार्ग का चौड़ीकरण के लिए 10.86 करोड़ रुपये।
  • अल्मोड़ा: जागेश्वर में पोखरी-बैगनिया और पोखरी बिनवाल के बीच सड़क के डामरीकरण के लिए 6.38 करोड़ रुपये।
  • चम्पावत: शहीद शिरोमणि चिल्कोटी मोटर मार्ग के सुधार के लिए 9.58 करोड़ रुपये और टनकपुर के आंतरिक मार्गों के सुधार के लिए 5.98 करोड़ रुपये।
  • देहरादून: राजपुर रोड में रिस्पना नदी पर पुल निर्माण के लिए 5.84 करोड़ रुपये।
  • ऊधम सिंह नगर: रूद्रपुर में ट्रांजिट कैम्प झील से चामुण्डा मंदिर तक मार्ग के पुनर्निर्माण के लिए 2.2 करोड़ रुपये और मुख्य बाजार के मध्य संपर्क मार्गों के पुनर्निर्माण के लिए 2.82 करोड़ रुपये।
  • टिहरी गढ़वाल: जौनपुर में बिलोंदी पुल से फिडोगी-धनौल्टी मोटर मार्ग के कार्य के लिए 3.70 करोड़ रुपये और बरोटीवाला-अम्बाड़ी मोटर मार्ग पर गार्डर ब्रिज के निर्माण के लिए 2.19 करोड़ रुपये।
  • उत्तरकाशी: पुरोला विधानसभा में कमल नदी गुन्याटिगांव मोटर मार्ग विस्तारीकरण और गुन्याटिगांव के खेल मैदान में इंटरलॉकिंग के निर्माण के लिए क्रमशः 4.00 लाख रुपये और 26.00 लाख रुपये।

इस स्वीकृति से राज्य के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों को कई लाभ होंगे।

  • बेहतर कनेक्टिविटी: इन सड़कों और पुलों के निर्माण से ग्रामीण क्षेत्रों का शहरी क्षेत्रों से बेहतर संपर्क होगा।
  • आर्थिक विकास: बेहतर सड़कों से व्यापार और वाणिज्य को बढ़ावा मिलेगा और क्षेत्र का आर्थिक विकास होगा।
  • सामाजिक विकास: बेहतर सड़कों से लोगों को स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी सुविधाओं तक आसानी से पहुंच होगी।
  • पर्यटन को बढ़ावा: इन सड़कों के निर्माण से पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा और राज्य में पर्यटकों की संख्या में वृद्धि होगी।

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बूढ़ी दिवाली 2024

बूढ़ी दिवाली 2024 – हिमालयी क्षेत्रों में दीपावली एक से अधिक बार मनाने की परम्परा है। उत्तराखंड से लेकर हिमाचल प्रदेश तक पहाड़ी इलाकों में बूढ़ी दिवाली मनाने की परम्परा है। यह बूढ़ी दिवाली हिमालयी क्षेत्रों में अपनी अपनी सुविधानुसार मनाई जाती है। उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र और गढ़वाल के कुछ हिस्सों में  में हरिबोधनी एकादशी के दिन बूढ़ी दिवाली इगास और बूढ़ी दिवाली के रूप में मनाई जाती है। इसके बाद मुख्य दीपावली के ठीक एक महीने बाद जौनपुर उत्तरकाशी की गंगाघाटी में मंगसीर बग्वाल के रूप में बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है। वहीं रवाई घाटी में बूढी दीवाली देवलांग के रूप में मनाई जाती है।

इसके साथ साथ उत्तराखंड के खास जनजातीय क्षेत्र जौनसार बग्वाल और हिमाचल परदेस के कुछ क्षेत्रों में दीपवाली के ठीक एक माह बाद बूढ़ी दिवाली अपने अपने पारम्परिक अंदाज में मनाई जाती है। मगर हिमालयी क्षेत्र की पहाड़ी दिवाली एक चीज कॉमन होती है ,पहला कॉमन है दीपवाली पर चूड़े बनते हैं और मसाल प्रदर्शन होता है जिसे लोग अपने क्षेत्रीय परम्परा के अनुसार प्रयोग करते हैं।

जौनसार की बूढ़ी दिवाली 2024 :

उत्तराखण्ड के देहरादून जनपद में टाँस और जाख डांडे के मध्य में अवस्थित जनजातीय क्षेत्र बावर में बग्वाल का उत्सव दीपावली के एक महीने बाद मार्गशीर्ष की अमावस्या  को मनाया जाता है। बूढ़ी दिवाली 2024 में मुख्य दीपावली के ठीक एक महीने बाद 1 दिसंबर 2021 को मनाई जाएगी।

इसमें मध्य रात्रि के समय गांव के युवक-युवतियां गांव के बाजगियों की अगवानी में गाजे-बाजों के साथ अपने-अपने घरों से चार-चार, पांच-पांच हाथ लम्बी मशालें जलाकर उन्हें तलवारों की तरह सिरों के ऊपर घुमाते हुए नाचते गाते हुए गांव के मध्य में स्थित ‘थात’ में एकत्र कर देते हैं। इस पर गांव भर के सभी स्त्री-पुरुष, लड़के-लड़कियां परस्पर उस अग्निपुंज के चारों ओर वृत्त बनाकर, पुरुष हाथों में फरेसों को तथा महिलाएं रूमालों को लहराते हुए हारुलगीतों के साथ नृत्य करते हैं।

बूढ़ी दिवाली 2024

इनमें भाग लेने वाले गायकों व नर्तकों तथा दर्शकों को तरोताजा रखने के लिए इस अवसर के लिए विशेष रूप से तैयार की गयी व सभी घरों से लायी गयी मडुवे की विशिष्ट मदिरा को एक बड़े पात्र में एकत्र कर उसे पिलाने के लिए एक व्यक्ति को नियुक्त किया जाता है जो मांगे जाने पर एक पात्र में भर-भर कर उन्हें पिलाता रहता है। कुछ देर बाद मशालें तो समाप्त हो जाती हैं किन्तु नृत्य-गीतों का दौर यथावत् चलता रहता है और एतदर्थ उनके नये-नये वृत्त बनते रहते हैं। जो कभी पुरुष और एक महिला की पंक्ति के रूप में और कभी पुरुष और महिलाओं की दो अर्घालियों के रूप में संयुक्त हो जाते हैं।

सुबह होने के बाद अधेड़ लोग तो अपने घरों को चले जाते हैं, किन्तु युवक तथा इस उत्सव को मनाने के लिए मायके आयी हुई ध्याणियां भिनसार तक नाचते-गाते रहते हैं। सूर्योदय होने पर बाजगी लोग प्रभाती बजाते हैं तो सारे गांव के लोग आकर पुनः थात में एकत्र होते हैं। इस अवसर पर बग्वाल की खुशी में पांडवनृत्य होता है। लोग नर्तकों के समक्ष हाथ जोड़कर खड़े रहते हैं और उनका आर्शीवाद लेकर विसर्जित होते हैं।

अखरोट मांगने की बिरुड़ी परम्परा :

बग्वाल में भाग लेने वाले युवक और युवितियां अपने छोटे-छोटे समूह बनाकर गांव के प्रत्येक घर में जाकर ‘बिरुड़ी’ मांगते हैं, जिसमें घर की मालकिन अपने घर के दरवाजे पर खड़ी होकर उनकी ओर अखरोट बिखेरती है और वे उन्हें बटोरकर अपनी झोलियों में समेटते हैं। इसके बाद में वे लोग देहरी पर अपने मदिरापात्र (बाल्टी) को रखते हैं। इस पर घर का सयाणा अन्दर से एक पात्र में मदिरा लाकर उसमें उड़ेल देता है। इस प्रकार सभी घरों से बिरुड़ी (अखरोट और मदिरा) एकत्र करके वे अपने-अपने घरों को जाते हैं।

इसके बाद पूर्वान्ह में भी गाना बजाना, खाना-पीना चलता रहता है। दोपहर होने पर पत्नियां अपने पतियों व बहिनें अपने भाइयों को मल मल कर गरमपानी से नहलाती पोछती हैं। इसे इस दिन का शुभशगुन माना जाता है। बकरा काटा जाता है दिन में मांस और भात का सारे गांव का सामूहिक भोज होता है।

बूढ़ी दिवाली 2024

बूढ़ी दिवाली से जुड़ी कहानी –

गढ़वाल के उत्तरकाशी क्षेत्र में भी इसे मार्गशीर्ष में मनाया जाता है। इसके संबंध में जनश्रुति भी प्रचलित है, उसके अनुसार 18वीं शती के उत्तरार्द्ध में गरेती (जोहार) के दोलपा पांगती के दो पुत्र मादू और भादू थे। जिन्होंने गढ़वाल के उत्तरकाशी जनपद के समीपवर्ती मल्ला टकनौर क्षेत्र के 8 ग्रामों को हि.प्र. की रियासत के कब्जे से मुक्त करवा कर गढ़वाल में सम्मिलित करवाया था। इससे उनका वहां पर बड़ा सम्मान हो चला था।

कहा जाता है कि एक बार इस क्षेत्र में अत्यधिक हिमपात हो जाने से ये कार्तिक मास की दीपावली को मनाने के लिए अपने घर जोहार नहीं जा पाये थे। इस कारण ये अत्यन्त दुःखी थे। राजा ने इनको प्रसन्न करने के लिए राज्य भर में मार्गशीर्ष मास की अमावस्या को दीपावली मनाये जाने की राजाना प्रसारित करवा दी। तब से आज तक इस क्षेत्र में इसी दिन दीपावली (बग्वाली) का पर्व मनाया जाता है। स्थानीय लोग इसे बग्वाल या बूढ़ी दिवाली कहते हैं।

संदर्भ – डॉ प्रयाग जोशी। और उत्तराखंड ज्ञानकोष। 

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भीमताल में भू-कानून उल्लंघन: 56 बाहरी लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज

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भीमताल में भू-कानून उल्लंघन: 56 बाहरी लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज

भीमताल: दिल्ली, हरियाणा, यूपी, पंजाब और मुंबई से आए लोगों के लिए उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में जमीन खरीदना महंगा साबित हो रहा है। धारी एसडीएम कोर्ट ने 56 ऐसे लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया है जिन्होंने जमीन खरीदने के बाद शर्तों का उल्लंघन किया है। इन लोगों की भूमि को अब सरकार के नाम निहित करने की कार्रवाई की जाएगी।

धारी एसडीएम केएन गोस्वामी ने बताया कि तहसील क्षेत्र में बाहरी लोगों ने न्यूनतम 2 नाली से लेकर अधिकतम 3 हेक्टेयर तक भूमि खरीदी है। उन्होंने बताया कि तहसील में 70 मामलों की जांच की गई थी, जिनमें से 56 मामलों में भू-कानून का उल्लंघन और ली गई अनुमति के तहत जमीन पर काम नहीं करने के साक्ष्य मिले हैं। कुछ परिवारों ने तो परिवार के अन्य सदस्यों के नाम से भी जमीनें खरीदी थीं।

एसडीएम ने बताया कि बाहरी लोगों ने धारी, धानाचूली, मुक्तेश्वर, पदमपुरी, चौखुटा, कसियालेख, भटेलिया समेत अन्य जगहों पर जमीनें खरीदी हैं। उन्होंने कहा कि अन्य मामलों की जांच अभी भी जारी है और दोषी पाए जाने वालों के खिलाफ भी कार्रवाई की जाएगी।

क्यों हो रही है कार्रवाई?

उत्तराखंड में पर्वतीय क्षेत्रों में भूमि खरीद पर कई प्रतिबंध हैं। इन प्रतिबंधों का उद्देश्य स्थानीय लोगों के हितों की रक्षा करना और पर्यावरण को बचाना है। भू-कानून के उल्लंघन से स्थानीय लोगों के लिए जमीन की उपलब्धता कम हो जाती है और पर्यावरण पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

यह खबर उन लोगों के लिए एक चेतावनी है जो उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में जमीन खरीदना चाहते हैं। उन्हें भू-कानूनों का पालन करना होगा और ली गई अनुमति के तहत ही जमीन का उपयोग करना होगा। अन्यथा, उन्हें अपनी जमीन गंवानी पड़ सकती है।

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घुघुतिया के दिन घुघुतों के साथ ढाल तलवार बनाने के पीछे छुपी है ये ऐतिहासिक कहानी।

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घुघुतिया के घुघुते

घुघुतिया उत्तराखंड का प्रसिद्ध लोकपर्व है। यह लोकपर्व प्रतिवर्ष मकर संक्रांति के दिन मनाया जाता है। इस दिन आटे और गुड़ के साथ मिलाकर विशेष पकवान घुघुते बनाये जाते हैं। घुघुतिया के दिन घुघुते बनाने के पीछे अनेक लोककथाएं और किवदंतियां जुड़ी हैं। जिसमे से अधिकतम कहानियाँ आपको पता ही होगा। अगर नहीं पता तो इस पोस्ट के अंत में घुघुतिया पर्व से जुडी कथाओं का लिंक दे रहे हैं ,जरूर पढियेगा। अब आते आज के शीर्षक की मूल कहानी पर।  घुघुतिया के दिन घुघुतों के साथ ढाल तलवार भी बनाते हैं ,और साथ में हुड़का रस्सी और लकड़ी लाने के लिए सिन भी बनाते हैं।

मकर संक्रांति के दिन घुघुतिया के साथ ढाल तलवार बनाने के पीछे एक ऐतिहासिक कहानी जुडी है ,यह ऐतहासिक कहानी उत्तराखंड के सबसे पुराने राजवंश कत्यूर वंश से जुडी है। कहते हैं कुमाऊं की लक्ष्मीबाई के नाम से विख्यात कत्यूर वंश की राजमाता जियारानी चित्रशिला में निवास करती थी। एक ऐतिहासिक जानकारी के अनुसार सन 1418 ईस्वी में तुर्कों ने रानीबाग में आक्रमण करके राजमाता जियारानी को बंदी बना लिया था। कहते हैं तुर्को ने बड़ा आक्रमण किया था। जैसे ही कत्यूरियों को इसकी सूचना मिली उन्होंने भी अपनी पूरी शक्ति के साथ तुर्को से भी बड़ा आक्रमण करके राजमाता जियारानी को छुड़ा लिया था।

घुघुतिया के दिन घुघुतों के साथ ढाल तलवार बनाने के पीछे छुपी है ये ऐतिहासिक कहानी।

कत्यूरियों ने यह विजय मकर संक्रांति के दिन प्राप्त की थी ,और यह कत्यूरियों ने इतना बड़ा पलटवार किया था कि पहाड़ की अधिकतम जनता को इस बात का पता चल गया था। लोगो ने अपने कत्यूरी राजाओं की जीत की ख़ुशी और राजमाता जिया रानी को सकुशल बचाने की ख़ुशी मकर संक्रांति के दिन ढाल तलवार बनाकर दिग्विजय की खुशिया मनाई गई। उससे उस समय पहाड़ के बच्चो के अंदर वीरता की भावना का संचार करने के लिए उनको घुघुते के ढाल तलवार बना कर दिए।

आजकल देश में कोई बड़ी घटना घटती है तो उस प्रतिक्रिया में कई लोग सोशल मीडिया में पोस्ट करके रील इत्यादि बनाकर अपनी भावनाये जाहिर करते हैं ,ठीक उसी प्रकार उस समय पहाड़ों में ऐसा कोई संचार की व्यवस्था न होने के कारण लोग अपनी भावनाये त्यौहार के रूप में या अन्य खुशियों के रूप में व्यक्त करते थे।

घुघुतिया के दिन रानीबाग में लगता है मेला –

रानीबाग में इसी उपलक्ष्य में मकर संक्रान्ति (उत्तरायणी) को मेले का आयोजन किया जाता है। जहां पर कत्यूर वंश  के लोग ढोल-दमाओं के साथ नाचते हुए ‘जै जिया’ का नारा लगाते हुए जियारानी का डोला लेकर आते हैं। और वहां पर पौष की कड़ाके की ठंड वाली रात में अग्नि का धूना जलाकर उसके चारों ओर बैठकर माँ जिया की जागर गाथाएं सुनाते हैं और श्रोताजन बड़ी श्रद्धा से इन गाथाओं को सुनते हैं। तथा अगले दिन प्रातः चित्रशिला पर स्नान करके व जियारानी की गुफा के दर्शन करके अपने-अपने घरों को जाते हैं।

संदर्भ – उत्तराखंड ज्ञानकोष। 

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उत्तराखंड: ग्राम पंचायतों में प्रशासकों की नियुक्ति, आज शाम से प्रधान जी हो जाएंगे पूर्व प्रधान जी

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उत्तराखंड: ग्राम पंचायतों में प्रशासकों की नियुक्ति, आज शाम से प्रधान जी हो जाएंगे पूर्व प्रधान जी

देहरादून, 27 नवंबर: उत्तराखंड में ग्राम पंचायतों में प्रशासकों की नियुक्ति का फैसला लिया गया है। राज्य के हरिद्वार जिले को छोड़कर बाकी सभी 7,477 ग्राम पंचायतों में आज शाम से प्रशासक नियुक्त किए जाएंगे। यह कदम चुनावों में देरी के कारण उठाया गया है। पंचायती राज विभाग के सचिव चंद्रेश कुमार ने जारी आदेश के अनुसार, ग्राम पंचायतों में सहायक विकास अधिकारी (ADO) को प्रशासक बनाया जाएगा। जबकि, क्षेत्र पंचायतों में 29 नवंबर से प्रशासक नियुक्त किए जाएंगे। इन पदों के लिए एसडीएम को नियुक्त किया जाएगा।

नए ग्राम पंचायतों के गठन या कार्यभार ग्रहण करने की तिथि से छह महीने के भीतर जो भी पहले हो प्रशासक नियुक्त किए जाएंगे। जिलों के विकासखंड के सहायक विकास अधिकारी पंचायत को प्रशासक नियुक्त करने के लिए संबंधित जिलों के जिलाधिकारियों को अधिकार दिया गया है। डीएम की ओर से नियुक्त प्रशासक निर्वाचित ग्राम पंचायत के कार्यकाल की समाप्ति पर ग्रहण करेंगे और वे नीतिगत निर्णय नहीं ले सकेंगे, बल्कि केवल सामान्य रुटीन कार्यों को ही कर सकेंगे।

इस फैसले से राज्य में पंचायत चुनावों को लेकर अनिश्चितता बढ़ गई है। अभी तक चुनावों की कोई तारीख तय नहीं की गई है। पंचायती राज विभाग के निदेशक निधि यादव ने बताया कि शासन ने जिलाधिकारियों को प्रशासकों की नियुक्ति के लिए अधिकार दे दिया है और बुधवार शाम से ही यह प्रक्रिया शुरू हो जाएगी।

हरिद्वार जिले को छोड़कर अन्य सभी जिलों की क्षेत्र पंचायतों में 29 नवंबर से प्रशासक नियुक्त किए जाएंगे। इसके लिए भी जिलाधिकारियों को अधिकार दिया गया है।

इस फैसले का मतलब है कि आने वाले कुछ महीनों तक ग्राम पंचायतों का कामकाज प्रशासकों के हाथों में रहेगा। इससे ग्रामीण विकास के कार्यों में बाधा आ सकती है। साथ ही, चुनावों में देरी से लोकतंत्र को भी नुकसान पहुंच सकता है। इस फैसले पर लोगों की प्रतिक्रियाएं मिली जुली हैं। कुछ लोग इस फैसले का समर्थन कर रहे हैं, तो कुछ लोग इसका विरोध कर रहे हैं।

विशेषज्ञों का मानना है कि इस फैसले से ग्रामीण विकास के कार्यों में बाधा आ सकती है। साथ ही, चुनावों में देरी से लोकतंत्र को भी नुकसान पहुंच सकता है। अब देखना होगा कि आने वाले समय में इस मामले में क्या होता है। क्या चुनाव जल्द ही कराए जाएंगे या फिर प्रशासकों के शासन में ही लंबा समय लगेगा?

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” पहाड़ के दास ” पहाड़ के लोक देवताओं के गुरु के रूप में मान्यता प्राप्त विशिष्ट व्यक्तित्व।

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पहाड़ के दास

पहाड़ के दास :

वैसे तो दास शब्द का सामान्य अर्थ है ‘अधीनस्थ सेवक’, या गुलाम जिसके ‘क्रीतदास’, ‘ऋणदास’ आदि कई रूप होते हैं, किन्तु उत्तराखंड  की देववाद की शब्दावली में इसका अर्थ होता है दलित वर्गीय वह व्यक्ति जो ढोल आदि लोकवाद्यों के साथ लोकदेवताओं के चरित्रगान के माध्यम से उनके धामियों,पश्वाओं,डंगरियों में उनका अवतरण कराता है। पहाड़ो के लोकदेवता उन्हें गुरु के रूप में संबोधित करते हैं। और उनके आदेशों का पालन करते हैं। उनके पास पहाड़ के देवताओं को बुलाने से लेकर उनको नियंत्रित करने और उनसे सवाल जवाब करने और उन्हें वापस भेजने की कला भी आती है।

" पहाड़ के दास " पहाड़ के लोक देवताओं के गुरु के रूप में मान्यता प्राप्त विशिष्ट व्यक्तित्व।

ऐतिहासिक स्तर पर पहाड़ के दास लोग अपने को अपने किसी पूर्वज रैदास से जोड़ते हैं। इसके अतिरिक्त जागर गाथाओं में अनेक प्रसिद्ध दासों के नामों के परिगणन में रैदास के अतिरिक्त अजयदास, विजयदास, बिणीदास, कालूदास, खैरोंदास, धरमदास आदि के नामों का उल्लेख किया जाता है। कुछ पहाड़ के दास अपने इन पूर्वजों को कत्यूरियों की चारण परम्परा से भी जोड़ते हैं, क्योंकि कत्यूरी वंशावली में इन्हें युद्ध में जाते समय बिजैसार ढोल तथा नगाड़े बजाने वाले तथा अनेक तांत्रिक विद्याओं के जानने वाला भी कहा गया है।

जैसे – बड़ी जिया का गुरु रैदास, खैरीदास छीं। बंगाली चेटू बगल दबूनी। चौबाटा की धूल, बोकसाड़ी विद्या, तामासिरी रौटी चलूंनी। लुवा बिजैसार चलूनी । भेरी की धधकारो चलूंनी।

डॉक्टर प्रयाग जोशी जी के अनुसार साम्प्रदायिक स्तर पर इन्हे कबीर पंथ के निर्गुणी सन्तों के पूज्य देव निरंकार का अनुयायी माना जाता है।

नोट – इस पोस्ट का संदर्भ उत्तराखंड ज्ञानकोष नमक पुस्तक से लिया है।

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मलयनाथ स्वामी मंदिर , कहते हैं इस मंदिर यहाँ ब्राह्मणों का प्रवेश वर्जित है।

सीतावनी रामनगर का पौराणिक इतिहास जुड़ा है माँ सीता और लव कुश से।

घणेली जागर , घड़ेली जागर ,पहाड़ में गढ़देवी ,परियों और भूत प्रेत ,मसाण पूजा की एक विधा।

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