Wednesday, March 26, 2025
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रणकोची माता मंदिर: उत्तराखंड का एक छिपा हुआ आध्यात्मिक रत्न

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रणकोची माता मंदिर

उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में हिमालय की ऊबड़-खाबड़ चोटियों के बीच बसा रणकोची माता मंदिर (rankochi mata mandir ) आध्यात्मिकता और सांस्कृतिक धरोहर का एक अनमोल खजाना है। यह पवित्र स्थल चम्पावत-टनकपुर-चम्पावत मार्ग पर चलथी से लगभग 20-22 किलोमीटर उत्तर-पूर्व दिशा में ‘रियासी बामन गांव’ के अंतर्गत खेतीगांव में स्थित है। जो लोग एकांत में शांति या रोमांचक तीर्थयात्रा की तलाश में हैं, उनके लिए रणकोची माता मंदिर एक अनूठा अनुभव प्रदान करता है। इसे रणकोची देवी या रणचंडिका के नाम से भी जाना जाता है।

इस लेख में हम आपको रणकोची माता मंदिर के इतिहास, पौराणिक कथाओं, आध्यात्मिक महत्व और यात्रा के लिए जरूरी सुझावों के बारे में बताएंगे। यह लेख आपको इस पवित्र स्थल की यात्रा के लिए तैयार करने के साथ-साथ इसके महत्व को समझने में भी मदद करेगा।

रणकोची माता मंदिर की यात्रा –

रणकोची माता मंदिर ( rankochi mata mandir) तक पहुंचना आसान नहीं है। यह यात्रा शारीरिक सहनशक्ति और आध्यात्मिक समर्पण की परीक्षा लेती है। यह मंदिर चम्पावत-टनकपुर-चम्पावत मार्ग पर चलथी से 20-22 किलोमीटर उत्तर-पूर्व में स्थित है। कुमाऊं क्षेत्र की पहाड़ियों के बीच यह रास्ता खड़ी चढ़ाई और उतार से भरा है, जो अप्रस्तुत यात्रियों के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकता है।

इस यात्रा में आमतौर पर एक पूरा दिन लगता है। रात में विश्राम के लिए रियासी बामन गांव में रुकना पड़ता है। चम्पावत या टनकपुर से सुबह जल्दी निकलना बेहतर होता है ताकि दिन की रोशनी का पूरा फायदा उठाया जा सके। यात्रा का सबसे अच्छा समय वसंत (मार्च से मई) और शरद ऋतु (सितंबर से नवंबर) है, जब मौसम सुहावना रहता है और रास्ते मानसून की तुलना में कम फिसलन भरे होते हैं।

रणकोची माता मंदिर

रणकोची माता मंदिर का इतिहास और पौराणिक कथा –

रणकोची माता मंदिर और रियासी बामन गांव का इतिहास चंद वंश के शासनकाल से जुड़ा है। कहा जाता है कि चम्पावत में चंद वंश के समय एक भारद्वाज गोत्र के ब्राह्मण परिवार को बनारस से लाया गया था। उन्हें राजपुरोहित बनाया गया और आभार में यह गांव उन्हें बसने के लिए दिया गया। चूंकि वे वहां बसने वाला एकमात्र ब्राह्मण परिवार थे, इसलिए इस गांव का नाम बामन गांव पड़ा। आज भी भट्ट परिवार के वंशज ही इस मंदिर में पूजा करते हैं, जिससे यह परंपरा जीवित है।

मंदिर की उत्पत्ति की एक रोचक कथा भी प्रचलित है। स्थानीय लोगों के अनुसार, एक गाय रोजाना रहस्यमय तरीके से गायब हो जाती थी। भट्ट परिवार के एक सदस्य ने उसका पीछा किया और देखा कि वह जंगल में एक शिवलिंग पर अपना दूध अर्पित कर रही थी। गुस्से में उसने शिवलिंग पर कुल्हाड़ी से प्रहार किया। उसी रात रणकोची देवी ने सपने में आकर उन्हें उस स्थान पर मंदिर बनाने और उनकी पूजा करने का आदेश दिया। इसके बाद मंदिर का निर्माण हुआ

रणकोची देवी का आध्यात्मिक महत्व –

रणकोची देवी को मां पूर्णागिरी की बड़ी बहन माना जाता है और भक्तों के बीच उनकी गहरी आस्था है। उन्हें न्याय की देवी के रूप में पूजा जाता है, जो अपने भक्तों की परेशानियों को दूर करती हैं और शांति प्रदान करती हैं। यह आस्था साल भर श्रद्धालुओं को रणकोची माता मंदिर की ओर खींचती है, खासकर उत्तरायणी पर्व के दौरान।उत्तरायणी पर्व सूर्य के उत्तरायण का प्रतीक है। इस समय मंदिर भक्ति का केंद्र बन जाता है। कुमाऊं क्षेत्र के अलावा नेपाल से भी भक्त यहां आशीर्वाद लेने आते हैं। पहले इस मंदिर में पशु बलि की प्रथा भी थी, जो समय के साथ बदल गई है। यह पर्व मंदिर के सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व को दर्शाता है।

निष्कर्ष –

रणकोची माता मंदिर ( rankochi mata mandir ) सिर्फ एक स्थान नहीं, बल्कि एक अनुभव है जो आध्यात्मिकता, साहसिकता और संस्कृति का संगम है। इसका दूरस्थ स्थान इसे भीड़ से दूर एक शांत आश्रय बनाता है।

इस पवित्र स्थल की यात्रा करें और रणकोची देवी के आशीर्वाद से अपनी आत्मा को समृद्ध करें। क्या आपने इस मंदिर की यात्रा की है? अपने अनुभव हमारे साथ साझा करें और इस छिपे हुए रत्न की जानकारी दूसरों तक पहुंचाएं!

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अटरिया देवी मंदिर: उत्तराखंड के कुमाऊं की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक धरोहर

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अटरिया देवी

अटरिया देवी मंदिर (Atariya Devi Mandir) उत्तराखंड के ऊधमसिंह नगर जिले के रुद्रपुर में स्थित एक प्राचीन और पवित्र तीर्थ स्थल है। यह मंदिर कुमाऊं के तराई क्षेत्र में बसे थारू-बुक्सा जनजातियों के बीच विशेष रूप से पूजनीय है। रुद्रपुर के उत्तरांचल राज्य परिवहन निगम बस अड्डे से मात्र 2 किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह मंदिर न केवल धार्मिक महत्व रखता है, बल्कि यहाँ की पौराणिक कथा और अटरिया मेला इसे और भी खास बनाते हैं। आइए, इस लेख में अटरिया देवी मंदिर के इतिहास, कथा, और महत्व को विस्तार से जानें।

अटरिया देवी मंदिर का इतिहास और पौराणिक कथा –

अटरिया देवी मंदिर का निर्माण कुमाऊं के प्रसिद्ध चंद शासकों के शासनकाल में हुआ था। यह मंदिर प्राचीन समय से श्रद्धालुओं के लिए आस्था का केंद्र रहा है। एक लोकप्रिय कथा के अनुसार, प्राचीन काल में किसी आक्रमणकारी ने इस मंदिर को नष्ट कर दिया था और माता की मूर्तियों को पास के कुएँ में डाल दिया था।

कहा जाता है कि रुद्रपुर को बसाने वाले चंद वंश के राजा रुद्रचंद एक बार यहाँ के जंगलों में शिकार के लिए निकले थे। शिकार के दौरान उनके रथ का पहिया एक स्थान पर जमीन में धंस गया। कई प्रयासों के बाद भी जब रथ नहीं निकला, तो राजा थककर एक वट वृक्ष की छाया में विश्राम करने लगे और उन्हें नींद आ गई। नींद में माता भगवती ने स्वप्न में दर्शन दिए और बताया कि जिस स्थान पर रथ का पहिया धंसा है, वहाँ एक कुआँ है जिसमें उनकी प्रतिमा दबी हुई है।

जागने के बाद राजा ने सैनिकों को उस स्थान पर खुदाई करने का आदेश दिया। खुदाई में कुएँ के अवशेष मिले और गहराई में माता की वह प्रतिमा भी प्राप्त हुई, जिसका जिक्र स्वप्न में हुआ था। राजा रुद्रचंद ने तुरंत उस स्थान पर अटरिया देवी मंदिर का निर्माण करवाया और मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा की। संयोगवश, यह घटना चैत्र नवरात्र के दौरान हुई थी, जिसके बाद से यहाँ हर साल अटरिया मेला आयोजित होने लगा।

अटरिया मेला: चैत्र नवरात्र का भव्य उत्सव :

हर साल चैत्र नवरात्र के दौरान अटरिया मेलाका आयोजन होता है, जो इस मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता है। चैत्र नवरात्र की अष्टमी को माँ अटरिया की प्रतिमा को रुद्रपुर के रम्पुरा से ढोल-नगाड़ों के साथ शोभायात्रा में लाया जाता है। मंदिर में विधिवत पूजा-अर्चना के बाद प्रतिमा की स्थापना की जाती है, और अगले 21 दिनों तक यहाँ मेला चलता है।

अटरिया मेला में स्थानीय लोगों के साथ-साथ उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के दूरदराज के क्षेत्रों से श्रद्धालु शामिल होते हैं। मान्यता है कि अटरिया देवी के दर्शन मात्र से निसंतान दंपतियों को संतान सुख की प्राप्ति होती है। मेले के दौरान भक्त मन्नत माँगते हैं और मन्नत पूरी होने पर माता को प्रसाद चढ़ाने व बच्चों का मुंडन संस्कार करने वापस आते हैं।

अटरिया देवी मंदिर का परिसर :

अटरिया देवी मंदिर का परिसर विशाल और आध्यात्मिक ऊर्जा से भरा हुआ है। मुख्य मंदिर में माँ अटरिया की प्रतिमा के अलावा शीतला माता, भद्रकाली, सरस्वती, शिव, और भैरव के छोटे-छोटे देवालय भी मौजूद हैं। यहाँ की शांत और पवित्र वातावरण भक्तों को मंत्रमुग्ध कर देता है। थारू-बुक्सा जनजाति के लोग विवाह के बाद नवदंपति को यहाँ लाते हैं ताकि वे माता का आशीर्वाद प्राप्त कर सकें।

अटरिया देवी का महत्व :

अटरिया देवी को कुमाऊं क्षेत्र में शक्ति और ममता का प्रतीक माना जाता है। यहाँ आने वाले भक्तों का विश्वास है कि माता हर मनोकामना पूरी करती हैं, खासकर संतान प्राप्ति की। इस मंदिर का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व भी है, क्योंकि यह चंद शासकों और तराई की जनजातीय संस्कृति से जुड़ा हुआ है।

कैसे पहुँचें अटरिया देवी मंदिर?

  • स्थान : रुद्रपुर, ऊधमसिंह नगर, उत्तराखंड।
  • दूरी : उत्तरांचल राज्य परिवहन निगम बस अड्डे से 2 किमी।
  • यातायात: रुद्रपुर रेलवे स्टेशन और पंतनगर हवाई अड्डे से आसानी से टैक्सी या बस उपलब्ध है।

निष्कर्ष :

अटरिया देवी मंदिर (Atariya Devi Mandir) न केवल एक धार्मिक स्थल है, बल्कि कुमाऊं की समृद्ध संस्कृति और इतिहास का प्रतीक भी है। अटरिया मेला और यहाँ की पौराणिक कथा इसे और भी खास बनाती है। यदि आप उत्तराखंड की यात्रा पर हैं, तो अटरिया देवी के दर्शन और मेले का आनंद जरूर लें। यहाँ की शांति और आध्यात्मिकता आपके मन को सुकून देगी।

क्या आपने कभी अटरिया देवी मंदिर की यात्रा की है? अपने अनुभव हमारे साथ साझा करें! यहाँ क्लिक करें !

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उफराई देवी मंदिर: आस्था, उत्सव और हिमालयी विरासत।

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उफराई देवी

उफराई देवी मंदिर उत्तराखंड के चमोली जिले में नौटी गांव में स्थित एक प्राचीन और पवित्र तीर्थ स्थल है। यह मंदिर समुद्र तल से 5300 फीट की ऊंचाई पर बसा है और उफराई देवी को समर्पित है, जिन्हें स्थानीय लोग भूम्याल देवी के रूप में पूजते हैं। यह स्थान अपनी धार्मिक महत्ता, पौराणिक कथाओं और सांस्कृतिक परंपराओं के लिए प्रसिद्ध है। इस ब्लॉग पोस्ट में हम उफराई देवी मंदिर के इतिहास, उससे जुड़ी कथा, वार्षिक उत्सव और यात्रा के बारे में विस्तार से जानेंगे। यदि आप उत्तराखंड की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक यात्रा पर निकलना चाहते हैं, तो यह लेख आपके लिए उपयोगी सिद्ध होगा।

उफराई देवी की पौराणिक कथा –

उफराई देवी की कहानी एक रोचक स्थानीय जनश्रुति पर आधारित है, जो 7वीं या 8वीं शताब्दी से जुड़ी बताई जाती है। राकेश मोहन भण्डारी, श्रीनगर के अनुसार, एक बार वैनोली गांव की कुछ महिलाएं घास काटने के लिए नौटी की उत्तर दिशा में स्थित एक चोटी पर गईं। उनके साथ आलमसिंह की एक लड़की भी थी, जो अचानक गायब हो गई। महिलाओं ने उसे बहुत ढूंढा, लेकिन उसका कोई पता नहीं चला। बाद में, उन्होंने चोटी पर उसकी जूरी-दाथुली (रस्सी और दराती ) पड़ी हुई देखी। हारकर वे गांव लौट आईं और घटना की सूचना दी। गांव वालों ने दो दिनों तक खोजबीन की, लेकिन लड़की नहीं मिली।

फिर एक रात, वह लड़की नौटी गांव के मुखिया के स्वप्न में प्रकट हुई और बोली, “मैं नौटी, मैठाणा, नैणी, झुरकण्डे, नैनोली, और छतोली गांवों की देवी भूम्यां हो गई हूं। मेरा नाम उफराई देवी है, और जिस चोटी पर मैं अदृश्य हुई, वह उफराई ढांक कहलाएगी। तुम मेरी मूर्ति बनाकर ग्राम मंदिर में स्थापित करो और 12 माह मेरी पूजा करो। मेरे स्वामी शिवजी चोटी पर शिला रूप में विराजमान हैं। धान बोने से पहले एक पाथा (22 किग्रा.) अलग रखना और गेहूं की फसल की तैयारी पर उमी (कच्चे भुने हुए गेहूं की बालियां) तैयार करना। हर जेठ माह में मुझे चोटी पर ले जाकर पूजा करो और फिर वापस गांव लाना।”

इस स्वप्न के आधार पर, गांव वालों ने उफराई देवी की मूर्ति बनाई और मंदिर में स्थापित की। तब से उनकी पूजा की परंपरा चली आ रही है, जिसे विजौण कहते हैं। हर 12 वर्ष में एक बड़ी पूजा, जिसे मौडिवी कहा जाता है, भी आयोजित होती है।

 उफराई देवी मंदिर का स्थान और महत्व –

उफराई देवी मंदिर नौटी गांव में स्थित है, जो कर्णप्रयाग से लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर है। यह मंदिर 5300 फीट की ऊंचाई पर बसा है और हिमालय की मनोरम वादियों से घिरा हुआ है। यह स्थान न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि प्राकृतिक सौंदर्य और शांति के लिए भी पर्यटकों को आकर्षित करता है।

उफराई देवी को भूम्याल देवी के रूप में पूजा जाता है, और उनकी पूजा में फसलों से जुड़े अनुष्ठान विशेष रूप से शामिल होते हैं। यह मंदिर स्थानीय लोगों की आस्था का केंद्र है और साल भर श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है।

 श्री उफरांई देवी मौडवी महोत्सव –

श्री उफरांई देवी मौडवी महोत्सव एक भव्य धार्मिक आयोजन है, जो हर 12 वर्ष में नौटी गांव में होता है। यह उत्सव हिमालयी सचल महाकुम्भ श्री नंदादेवी राजजात से एक वर्ष पहले आयोजित किया जाता है और इसे प्रथम अनुष्ठान या मनौती के रूप में भी जाना जाता है।

इस महोत्सव में उफराई देवी की चांदी की मूर्ति को श्रृंगार के साथ डोली में सजाया जाता है। गाजे-बाजे, भंगोर, चंवर और चांदी की छड़ के साथ भव्य यात्रा उफराई ढांक तक निकाली जाती है। उफराई ढांक नौटी से 5 किलोमीटर दूर, 8500 फीट की ऊंचाई पर स्थित है, जहां एक पौराणिक पत्थर का मंदिर है। यात्रा के दौरान रास्ते में पत्थर की पढालों पर वृहद् भोग प्रसाद वितरित किया जाता है। उफराई ढांक में दो दिनों तक विशेष पूजा होती है, और दूसरे दिन धियाड़ियों को सुफल देने की परंपरा निभाई जाती है।

उफराई देवी की पूजा और अनुष्ठान –

उफराई देवी की पूजा में फसलों से जुड़े अनुष्ठान प्रमुख हैं। धान बोने से पहले 22 किलोग्राम धान अलग रखा जाता है, और गेहूं की फसल की तैयारी पर उमी तैयार की जाती है। हर जेठ माह में देवी की मूर्ति को चोटी पर ले जाकर पूजा की जाती है।

मौडिवी महोत्सव के दौरान, बैनोली की महिलाएं प्रसाद बनाती हैं, और गांव वाले अपनी ध्याण (बहन) को नौटी ले जाते हैं। देर रात तक मंदिर में झूमेला (पारंपरिक नृत्य) के साथ उत्सव मनाया जाता है, और देवी से कुशलता की मनौती मांगी जाती है। उफराई ठांक के मंदिर में भात और चैसे (गढ़वाली व्यंजन) का भोग लगाया जाता है। मंदिर से नीचे समतल मैदान पर सेरुल ब्राह्मण भक्तों को भात और काली दाल का प्रसाद परोसते हैं, जिसे सभी बड़े चाव से ग्रहण करते हैं।

अंतिम शब्द –

उफराई देवी मंदिर उत्तराखंड के चमोली जिले में एक ऐसा पवित्र स्थल है, जो धार्मिक, सांस्कृतिक और प्राकृतिक दृष्टि से अनूठा है। उफराई देवी की पौराणिक कथा, मंदिर का हिमालयी परिवेश और मौडवी महोत्सव की भव्यता इसे खास बनाती है। यदि आप आध्यात्मिक शांति और उत्तराखंड की समृद्ध परंपराओं का अनुभव करना चाहते हैं, तो उफराई देवी मंदिर की यात्रा अवश्य करें। यह स्थान आपकी आत्मा को सुकून और मन को नई ऊर्जा देगा।

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झंगोरा : उत्तराखंड का पारंपरिक अनाज और इसके अद्भुत स्वास्थ्य लाभ

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झंगोरा

परिचय

एक समय था जब झंगोरा पहाड़ी लोगों का दिन भर का अनिवार्य भोजन हुआ करता था। धीरे-धीरे परिस्थितियां बदलीं, लोग पहाड़ छोड़कर मैदानों में बस गए। लोगों की आय और जीवन स्तर बदल गया। जानकारी के अभाव में झंगोरा जैसे सर्वगुण संपन्न अनाज को लोगों ने तुच्छ समझकर त्याग दिया। आज जब लोगों को इस अनाज के गुणों का पता चल रहा है, तो वे दुगनी कीमत में भी झंगोरा खरीदने को तैयार हैं।

झंगोरा का परिचय और महत्व –

झंगोरा उत्तराखंड का एक पारंपरिक मोटा अनाज है। इसे अंग्रेजी में Indian Barnyard Millet कहते हैं। संस्कृत में इसे श्यामाक, श्यामक, श्याम, त्रिबीज, अविप्रिय, सुकुमार, राजधान्य, तृणबीजोत्तम कहते हैं। इसके अलावा, हिंदी में झंगोरा को शमूला, सांवा, सावाँ, मोरधन, समा, वरई, कोदरी, समवत और सामक चाव आदि नामों से जाना जाता है। उत्तराखंड की कुमाउनी और गढ़वाली भाषा में इसे झंगोरा, झुंगरू आदि नामों से जाना जाता है। झंगोरा का वैज्ञानिक नाम इक्निकलोवा फ्रूमेन्टेसी है।

दुनिया के गर्म और समशीतोष्ण क्षेत्रों में उगाई जाने वाली एक प्राचीन बाजरा फसल है। एशिया, विशेष रूप से भारत, चीन, जापान और कोरिया में व्यापक रूप से खेती की जाती है। यह चौथा सबसे अधिक उत्पादित लघु बाजरा है, जो दुनिया भर में कई गरीब लोगों को खाद्य सुरक्षा प्रदान करता है। विश्व स्तर पर, भारत पिछले 3 वर्षों में 1034 किलोग्राम/हेक्टेयर की औसत उत्पादकता के साथ क्षेत्रफल (0.146 मिलियन हेक्टेयर) और उत्पादन (0.147 मिलियन टन) दोनों के मामले में बार्नयार्ड बाजरा का सबसे बड़ा उत्पादक है।

बार्नयार्ड बाजरा की खेती मुख्य रूप से मानव उपभोग के लिए की जाती है, हालांकि इसका उपयोग पशुओं के चारे के रूप में भी किया जाता है। उत्तराखंड सहित हिमालयी पहाड़ी क्षेत्रों में लगभग 2200 मीटर की ऊंचाई तक इसकी खेती की जाती है।

पोषक तत्व और स्वास्थ्य लाभ –

झंगोरा उर्फ बार्नयार्ड बाजरा एक छोटी अवधि की फसल है जो लगभग बिना किसी इनपुट के प्रतिकूल पर्यावरणीय परिस्थितियों में विकसित हो सकती है। और विभिन्न जैविक और अजैविक तनावों का सामना कर सकती है। इन कृषि संबंधी लाभों के अलावा, चावल, गेहूं और मक्का जैसे प्रमुख अनाजों की तुलना में अनाज को उनके उच्च पोषण मूल्य और कम खर्च के लिए महत्व दिया जाता है। इसमें प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, फाइबर और, विशेष रूप से, आयरन (Fe) और जिंक (Zn) जैसे सूक्ष्म पोषक तत्वों का एक समृद्ध स्रोत होता है। जो कई स्वास्थ्य लाभों से संबंधित हैं।

झंगोरा का पोषण मूल्य –

निम्नलिखित तालिका झंगोरा के पोषण मूल्य को दर्शाती है:

पोषक तत्व झंगोरा प्रति 100 ग्राम –

  • कैलोरी 342
  • कार्बोहाइड्रेट्स 64 ग्राम
  • डाइटरी फाइबर 12.6 ग्राम
  • प्रोटीन 11.2 ग्राम
  • आयरन 16 से 18 ग्राम
  • कैल्शियम 22 मिलीग्राम
  • वसा 3.6 ग्राम
  • विटामिन B1 0.33 मिलीग्राम
  • विटामिन B2 0.10 मिलीग्राम
  • विटामिन B3 4.2 मिलीग्राम
  • ग्लाइसेमिक इंडेक्स 50

स्वास्थ्य लाभ –

झंगोरा न केवल एक पारंपरिक अनाज है बल्कि इसमें ऐसे गुण हैं जो आधुनिक स्वास्थ्य समस्याओं को दूर करने में मदद करते हैं। आइए जानते हैं इसके प्रमुख स्वास्थ्य लाभ –

खून की कमी दूर करता है –

झंगोरा में आयरन की अच्छी मात्रा होने के कारण शरीर में होने वाली खून की कमी (एनीमिया) को दूर करता है। यह विशेष रूप से माहवारी में अधिक रक्तस्राव से जूझ रही महिलाओं और एनीमिया से पीड़ित लोगों के लिए लाभदायक है।
पाचन तंत्र को मजबूत करता है। झंगोरा में डाइट्री फाइबर की उच्च मात्रा होती है, जो पाचन तंत्र को मजबूत करती है। यह कब्ज, एसिडिटी और अन्य पेट संबंधी समस्याओं से राहत दिलाता है।

वजन घटाने में सहायक –

झंगोरा में फाइबर और प्रोटीन की अधिकता होती है, जिससे भूख देर से लगती है और शरीर में ऊर्जा बनी रहती है। इसकी कम कैलोरी सामग्री इसे वजन घटाने वाले अनाजों में शामिल करती है।

मधुमेह रोगियों के लिए उपयोगी –

झंगोरा में चावल की तुलना में कार्बोहाइड्रेट की मात्रा कम होती है, और इसमें मौजूद उच्च डाइट्री फाइबर शरीर में ग्लूकोज के स्तर को नियंत्रित करते हैं। यह मधुमेह रोगियों के लिए एक सुरक्षित और लाभदायक विकल्प है।

हृदय स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद –

झंगोरा के विशिष्ट गुण हृदय रोगियों के लिए इसे एक आदर्श आहार बनाते हैं। यह हृदय स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में मदद करता है।

वर्तमान पहल और सरकार का समर्थन –

2023 को अंतर्राष्ट्रीय बाजरा वर्ष घोषित किए जाने के बाद, भारत सरकार और विभिन्न संगठन बाजरों को बढ़ावा देने के लिए कई पहल जारी रखे हुए हैं। MyGov जैसे मंचों पर क्विज और इंटरैक्टिव गतिविधियों के माध्यम से बाजरों के बारे में जागरूकता बढ़ाई जा रही है (MyGov Millets Campaign)।

सरकार ने बाजरों की खेती, उत्पादन और उपभोग को बढ़ावा देने के लिए नीतियों और योजनाओं को भी लागू किया है। उदाहरण के लिए, ICAR-इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मिलेट्स रिसर्च (IIMR), हैदराबाद को “ग्लोबल सेंटर ऑफ एक्सीलेंस ऑन मिलेट्स” घोषित किया गया है (ICAR-IIMR)। इसके अलावा, “मिलेट चैलेंज” जैसी पहल स्टार्टअप्स को बाजरा वैल्यू चेन में नवाचार करने के लिए प्रोत्साहित करती हैं।

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छपेली नृत्य उत्तराखंड : इतिहास, महत्व और सांस्कृतिक विरासत | Chhapeli folk dance of Uttrakhand

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छपेली नृत्य उत्तराखंड

छपेली नृत्य उत्तराखंड : कुमाऊँ की लोक संस्कृति में छपेली गीत (Chhapeli song ) एक ऐसी मुक्तक नृत्य-गान शैली है, जो अपनी अनूठी विशेषताओं के कारण लोगों के दिलों में बसी हुई है। छपेली लोक नृत्य और छपेली लोक गीत न केवल मनोरंजन का साधन हैं, बल्कि यह कुमाउंनी समाज के प्रेम, श्रृंगार और जीवन के विविध रंगों को भी दर्शाते हैं। यह पारंपरिक कला विवाह, उत्सवों और अन्य शुभ अवसरों पर आयोजित की जाती है, जिसमें गायन और नृत्य का समन्वय इसे दृश्य और श्रव्य काव्य का एक अनुपम संगम बनाता है।

छपेली नृत्य उत्तराखंड का स्वरूप : –

छपेली लोक नृत्य में एक मुख्य गायक और एक नर्तक की अहम भूमिका होती है। मुख्य गायक प्रायः हुड़का वादक होता है, जो गीतों को स्वर देता है। पहले इस नृत्य में नर्तक के रूप में महिलाएं भाग लेती थीं, लेकिन अब यह भूमिका स्त्री वेशधारी पुरुष निभाते हैं ।

हालांकि शादी विवाह जैसे पारिवारिक या त्योहार रूपी सामाजिक उत्सवों में महिलाएं भी इस नृत्य में हिस्सा लेती हैं । नर्तक अपने हाथ में रूमाल लिए अंग-संचालन और भाव-भंगिमाओं के साथ नृत्य करता है, जो गीत की भावनाओं को जीवंत करता है। यह नृत्य प्रेमाभिनय पर आधारित होता है, जिसमें स्त्री और पुरुष पात्र प्रेम के विविध रूपों को प्रस्तुत करते हैं। समूह के गायक परस्पर प्रश्नोत्तर शैली में गाते हैं, और जब बहस छिड़ जाती है, तो गायक अपने गीत की विषयवस्तु बदल देते हैं ।

इस नृत्य में हुड़का, बांसुरी और अन्य वाद्य यंत्रों का प्रयोग होता है, जो इसे और आकर्षक बनाते हैं। छपेली की अभिनयात्मकता और नृत्य वैविध्य इसे ‘लोकनाट्य’ का स्वरूप प्रदान करते हैं।

छपेली गीत की संरचना : –

छपेली लोक गीत की रचना नृत्य और गायन के आधार पर होती है। इसमें एक या दो पंक्तियों का टेकपद या स्थायी होता है, जिसे समूहगान के रूप में बार-बार गाया जाता है। इसके बाद जोड़, न्यौली आदि के चरण पल्लव या अंतरा के रूप में आते हैं, जिन्हें केवल मुख्य गायक गाता है। यह संरचना नृत्य और गायन के बीच तालमेल बनाए रखती है। विवाह जैसे अवसरों पर छोलिया नृत्य के साथ भी छपेली गायी जाती है, जिसमें ढोल, दमामे, तुरी, झाल और मसकबीन जैसे वाद्य यंत्रों का समावेश होता है।

छपेली गीत का विषय और भाव : –

छपेली गीतों ( Chhapeli song ) में प्रमुख रूप से श्रृंगार और प्रेम का चित्रण होता है। यह प्रेमपूर्ण भावुकता की अभिव्यक्ति का एक सुंदर माध्यम है। प्रश्नोत्तर शैली में प्रेमी-प्रेमिका के बीच संवाद, सौंदर्य वर्णन, परिहास और प्रेम की विभिन्न दशाओं का अंकन इसे जीवंत बनाता है। उदाहरण के लिए –

“बिर्ति ख्वाला पानी बगौ उकाला। तेरौ मेरौ जोड़ौ हुंछ पगाला।।”

यह पंक्ति युवा प्रेम की उन्मुक्तता और उल्लास को दर्शाती है। वहीं, कुछ गीतों में प्रिया के हंसने, बोलने और रूप पर प्रेमी के मोह का वर्णन भी मिलता है –

“अल्मोड़ा मोहनी हंसनी किलै नै। हंसन हंसछी, बुलानी किलै नै।।”

कहीं प्रेमी अपनी प्रिया के सौंदर्य पर मुग्ध है, तो कहीं वियोग की पीड़ा भी इन गीतों में झलकती है। इसके अलावा, समसामयिक संदर्भ, व्यंग्य और हास्य भी छपेली का हिस्सा हैं। जैसे, फैशन और युद्ध के उल्लेख से यह गीत लोक जीवन के बदलते रंगों को भी दर्शाते हैं।

छपेली गीत का सांस्कृतिक महत्व : –

छपेली केवल एक नृत्य या गीत नहीं, बल्कि कुमाऊँ की लोक संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। यह प्रेम, उमंग और जीवन के उत्साह को व्यक्त करने का माध्यम है। इसके गीतों में छंदक (टेक) और सम्पद (अंतरा) की संरचना इसे संगीतमय बनाती है, जो नर्तक, वादक और गायक को एक सूत्र में बांधती है। यह लोक संस्कृति पीढ़ियों से चली आ रही है और आज भी अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए है।

छपेली गीत ( Chhapeli song ) कुमाऊँ की लोक परंपरा का एक ऐसा रत्न है, जो नृत्य, गायन और अभिनय के मिश्रण से लोक जीवन की भावनाओं को उकेरता है। चाहे वह विवाह का उत्सव हो या कोई अन्य शुभ अवसर, छपेली लोक नृत्य और छपेली लोक गीत हर मौके को यादगार बनाते हैं। यह कला न केवल मनोरंजन करती है, बल्कि कुमाउंनी संस्कृति की समृद्धि को भी विश्व भर में पहचान दिलाती है।

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मुख्य सचिव ने आपदा प्रबंधन बैठक में दिए अहम निर्देश

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मुख्य सचिव ने आपदा प्रबंधन बैठक में दिए अहम निर्देश

देहरादून। उत्तराखण्ड की मुख्य सचिव श्रीमती राधा रतूड़ी ने सचिवालय में आपदा प्रबंधन विभाग की महत्वपूर्ण बैठक की अध्यक्षता की। बैठक के दौरान उन्होंने भूकंप संवेदी उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में हल्की निर्माण सामग्री के उपयोग को प्राथमिकता देने और बिल्डिंग कोड का सख्ती से पालन कराने को लेकर एजेंसियों को निर्देश दिए। उन्होंने इस संदर्भ में कार्यशालाएं एवं प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित कराने की बात कही।

मुख्य सचिव ने विशेष रूप से जोर देते हुए कहा कि उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में भवन निर्माण में हल्की सामग्री का प्रयोग आवश्यक है। उन्होंने सरकारी भवनों के निर्माण में भी इस प्रणाली को अपनाने के निर्देश दिए। आपदा प्रबंधन की रणनीति में सुधार के उद्देश्य से राज्य में हाल ही में हुए हिमस्खलन सहित अन्य आपदाओं की केस स्टडी तैयार करने का भी आदेश दिया गया।

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बैठक में मुख्य सचिव ने आपदा संवेदी क्षेत्रों में कार्य करने वाले श्रमिकों की सुरक्षा को लेकर ठेकेदार, कार्यदायी संस्थाओं और जिला प्रशासन की भूमिका स्पष्ट करने को कहा। इसके लिए एक विशेष मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) बनाने के निर्देश दिए गए, जिसमें कार्यरत श्रमिकों की जानकारी जिला प्रशासन को उपलब्ध कराई जाएगी। उन्होंने उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में हिमस्खलन जैसी आपदाओं से बचाव एवं राहत हेतु स्थानीय समुदायों को जागरूक एवं सक्रिय करने के निर्देश भी दिए।

इसके अतिरिक्त, मुख्य सचिव ने नेशनल ग्लेश्यिल लेक आउटबर्स्ट फ्लड रिस्क मिटिगेशन प्रोग्राम (एनजीआरएमपी) के तहत राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) को उत्तराखण्ड राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण द्वारा भेजी गई प्रोजेक्ट प्री-फिजीबिलिटी रिपोर्ट और राष्ट्रीय भूकंप जोखिम न्यूनीकरण कार्यक्रम की प्राथमिक प्रोजेक्ट रिपोर्ट पर भी चर्चा की। उन्होंने ग्लेश्यिल लेक आउटबर्स्ट फ्लड पर अर्ली वार्निंग सिस्टम के लिए सीडैक के तकनीकी एवं वित्तीय प्रस्तावों की समीक्षा की।

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बैठक में सचिव श्री विनोद कुमार सुमन, आईजी श्री अरुण मोहन जोशी, आपदा प्रबंधन विभाग, एनडीआरएफ, एसडीआरएफ और पुलिस विभाग के अन्य अधिकारी उपस्थित रहे।

हल्द्वानी में 21 जून से शुरू होगी सिटी बस सेवा, शहरवासियों को मिलेगी राहत

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हल्द्वानी में 21 जून से शुरू होगी सिटी बस सेवा, शहरवासियों को मिलेगी राहत

हल्द्वानी: शहर में सार्वजनिक परिवहन को बेहतर बनाने के लिए 21 जून 2025 से सिटी बस सेवा शुरू की जा रही है। यह महत्वपूर्ण निर्णय आयुक्त एवं मुख्यमंत्री के सचिव दीपक रावत की अध्यक्षता में काठगोदाम स्थित सर्किट हाउस में आयोजित रीजनल ट्रांसपोर्ट अथॉरिटी (आरटीए) की बैठक में लिया गया। इस योजना के तहत, हल्द्वानी में कुल 168 किलोमीटर के दायरे में छह रूटों पर सिटी बसें संचालित की जाएंगी।

सिटी बस सेवा के रूट और दूरी:

  1. रूट नंबर-1 (45.60 किमी): रानीबाग से रोडवेज बस स्टैंड, स्टेडियम रोड, मुखानी, कुसुमखेड़ा, ब्लॉक, फतेहपुर, लामाचौड़, भाखड़ा, कठघरिया, चौफुला चौराहा, चंबलपुल, पनचक्की, हाइडिल गेट से वापस रानीबाग।
  2. रूट नंबर-2 (33.60 किमी): बस स्टेशन से मंगलपड़ाव, गांधी स्कूल, तीनपानी, उत्तराखंड ओपन यूनिवर्सिटी, टीपीनगर, देवलचौर, पंचायत घर, पाल कॉलेज, कुसुमखेड़ा, लालडांठ, पनचक्की, मुखानी, कालाढूंगी चौराहा से वापस बस स्टेशन।
  3. रूट नंबर-3 (33.60 किमी): बस स्टेशन से काठगोदाम रेलवे स्टेशन, सर्किट हाउस, स्टेडियम, तीनपानी, गोरा पड़ाव, गन्ना सेंटर, टीपीनगर, एसटीएच, धान मिल, पीलीकोठी, मुखानी, कालाढूंगी चौराहा होकर वापस बस स्टेशन।
  4. रूट नंबर-4 (12.20 किमी): बस स्टेशन से सिंधी चौराहा, रामपुर रोड, देवलचौड़, बिड़ला स्कूल, गैस गोदाम रोड, सेंट्रल अस्पताल से मुखानी, कालाढूंगी चौराहा होकर वापस बस स्टेशन।
  5. रूट नंबर-5 (18.80 किमी): बस स्टेशन से दुर्गा सिटी सेंटर, नवाबी रोड, मुखानी, कुसुमखेड़ा, कमलुवागांजा, लामाचौड़, भांखड़ा।
  6. रूट नंबर-6 (21.60 किमी): बस स्टेशन से स्टेडियम रोड, मुखानी, कुसुमखेड़ा, ऊंचापुल, कमलुवागांजा, मुखानी होकर वापस बस स्टैंड।

पर्यावरण अनुकूल और आधुनिक सुविधाओं से लैस बसें
सिटी बस सेवा के तहत सभी बसें सीएनजी या बीएस-6 मानकों पर आधारित होंगी, जिससे प्रदूषण को कम किया जा सके। यात्रियों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए सभी बसों में सीसीटीवी कैमरा, जीपीएस, रंगीन डिस्प्ले बोर्ड, और बड़े अक्षरों में अंकित रूट नंबर लगाए जाएंगे। इन बसों का रंग भी एक समान होगा, जिससे इन्हें आसानी से पहचाना जा सके। महिलाओं, बुजुर्गों और दिव्यांगजनों के लिए विशेष सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएंगी।

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परिवहन सेवा का संचालन समय
सर्दियों में यह बस सेवा सुबह 8:00 बजे से रात 8:30 बजे तक, जबकि गर्मियों में सुबह 6:30 बजे से रात 8:30 बजे तक संचालित होगी।

हल्द्वानी में 21 जून से शुरू होगी सिटी बस सेवा, शहरवासियों को मिलेगी राहत

नैनीताल में भी ट्रैफिक सुधार की योजना
बैठक में नैनीताल शहर के यातायात प्रबंधन पर भी चर्चा की गई। यहां वन-वे सिस्टम के अनुरूप नगर बसों के संचालन की योजना बनाई जा रही है। इससे कॉलेज के छात्रों और नौकरीपेशा लोगों को राहत मिलेगी और शहर का यातायात सुगम होगा।

शटल बस सेवा का विस्तार
कैंची धाम मंदिर जाने वाले श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए 25 नई शटल बसों को अनुमति दी गई है। वर्तमान में केवल 6 शटल बसें संचालित हैं।

आरटीए बैठक में पर्वतीय एवं मैदानी क्षेत्रों में 35 नए रूटों पर बस संचालन की स्वीकृति प्रदान की गई। इसके अलावा, शहर में भारी वाहनों के संचालन को नियंत्रित करने के निर्देश दिए गए हैं ताकि जाम की समस्या से निजात मिल सके। पर्वतीय क्षेत्रों में ओवरलोडिंग पर सख्ती बरतने के भी आदेश दिए गए हैं।

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इस योजना से न केवल हल्द्वानी में ट्रैफिक व्यवस्था सुधरेगी बल्कि यात्रियों को सुगम और सस्ती परिवहन सुविधा भी मिलेगी। सरकार का उद्देश्य हल्द्वानी को एक क्लीन और ग्रीन शहर के रूप में विकसित करना है। यह कदम शहर के विकास में एक मील का पत्थर साबित होगा।

उत्तराखंड में IAS अधिकारियों का फेरबदल, कई महत्वपूर्ण विभागों में बदलाव

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उत्तराखंड में IAS अधिकारियों का फेरबदल, कई महत्वपूर्ण विभागों में बदलाव

देहरादून: उत्तराखंड सरकार ने आज राज्य के कई वरिष्ठ IAS अधिकारियों का तबादला किया है। इस फेरबदल में कई महत्वपूर्ण विभागों में बदलाव किए गए हैं।

प्रमुख बदलाव:

  1. श्री युगल किशोर पंत, आईएएस-2009: सचिव-धर्मस्व एवं संस्कृति से सचिव-भाषा में स्थानांतरित।
  2. श्रीमती सोनिका, आईएएस-2010: अपर सचिव, सहकारिता, निबंधक, सहकारिता, मुख्य कार्यकारी अधिकारी, उत्तराखंड सिविल एवियेशन डेवलपमेंट अथॉरिटी (UCADA) से अपर सचिव, नागरिक उड्डयन में स्थानांतरित।
  3. श्री विनीत कुमार, आईएएस-2013: अपर सचिव, लोकनिर्माण, वन, नियोजन से नियोजन में स्थानांतरित।
  4. श्रीमती रीना जोशी, आईएएस-2013: अपर सचिव, कार्मिक एवं सतर्कता विभाग, परिवहन विभाग, प्रबंध निदेशक, उत्तराखंड परिवहन निगम से मुख्य कार्यकारी अधिकारी, राज्य स्वास्थ्य प्राधिकरण, उत्तराखंड का अतिरिक्त प्रभार।
  5. श्री आनन्द श्रीवास्तव, आईएएस-2013: अपर सचिव, राजस्व, चिकित्सा स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण, मुख्य कार्यकारी अधिकारी, राज्य स्वास्थ्य प्राधिकरण, उत्तराखंड, देहरादून का अतिरिक्त प्रभार से अपर सचिव-कृषि व कृषक कल्याण और मुख्य कार्यकारी अधिकारी, राज्य स्वास्थ्य प्राधिकरण, उत्तराखंड, देहरादून का अतिरिक्त प्रभार।
  6. श्री मनुज गोयल, आईएएस-2013: अपर सचिव, ग्राम्य विकास, कृषि व कृषक कल्याण, APD, ILSP तथा परियोजना निदेशक- UGVS-REAP से अपर सचिव, ग्राम्य विकास, कृषि व कृषक कल्याण, APD, ILSP तथा परियोजना निदेशक- UGVS-REAP और अपर सचिव सैनिक कल्याण, उच्च शिक्षा विभाग।
  7. श्री हिमांशु खुराना, आईएएस-2015: अपर सचिव, जलागम, अपर निदेशक/PD, जलागम, मुख्य कार्यकारी अधिकारी, PMGSY से अपर सचिव, वित्त।
  8. श्री अभिषेक रुहेला, आईएएस-2015: अपर सचिव, पर्यटन, अपर मुख्य कार्यकारी अधिकारी, पर्यटन विकास परिषद से अपर सचिव, कौशल विकास एवं सेवायोजन विभाग।
  9. श्रीमती नितिका खण्डेलवाल, आईएएस-2015: अपर सचिव, ग्राम्य विकास, निदेशक, आईटीडीए, निदेशक, USAC, निदेशक, शहरी विकास से अपर सचिव, सूचना प्रौद्योगिकी, सुराज तथा विज्ञान प्रौद्योगिकी, प्रबंध निदेशक, हिल्ट्रान।
  10. श्रीमती अनुराधा पाल, आईएएस-2016: अपर सचिव, चिकित्सा, स्वास्थ्य एवं चिकित्सा शिक्षा, ग्राम्य विकास, आयुक्त, ग्राम्य विकास से APD, ILSP तथा परियोजना निदेशक- UGVS-REAP।
  11. श्री गौरव कुमार, आईएएस-2017: अपर सचिव, समाज कल्याण, शहरी विकास, सूचना प्रौद्योगिकी, सुराज तथा विज्ञान प्रौद्योगिकी, आयुक्त, उत्तराखण्ड दिव्यांगजन से अपर सचिव, सूचना प्रौद्योगिकी, सुराज तथा विज्ञान प्रौद्योगिकी, निदेशक- शहरी विकास।
  12. श्री वरुण चौधरी, आईएएस-2017: नगर आयुक्त हरिद्वार से अपर सचिव-चिकित्सा स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण और नगर आयुक्त हरिद्वार।
  13. श्री नंदन कुमार, आईएएस-2019: मुख्य विकास अधिकारी, चमोली से नगर आयुक्त हरिद्वार और मुख्य विकास अधिकारी, चमोली।
  14. सुश्री निधि यादव, पीसीएस-2005: निदेशक पंचायती राज से अपर सचिव कृषि एवं कृषक कल्याण।
  15. श्री महावीर सिंह चौहान, सचिवालय सेवा: अपर सचिव- आपदा प्रबन्धन विभाग से अपर सचिव-सामान्य प्रशासन, प्रोटोकॉल।
  16. श्री श्याम सिंह, सचिवालय सेवा: अपर सचिव गन्ना विकास एवं चीनी उद्योग।
उत्तराखण्ड में आईएएस अधिकारियों की स्थानांतरण सूची।
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उत्तराखण्ड में आईएएस अधिकारियों की स्थानांतरण सूची।
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यह फेरबदल प्रशासनिक दक्षता में सुधार लाने और विभिन्न विभागों के कामकाज को सुव्यवस्थित करने के उद्देश्य से किया गया है। सरकार ने अधिकारियों की योग्यता और अनुभव के आधार पर उन्हें नई जिम्मेदारियां सौंपी हैं। उम्मीद है कि यह फेरबदल राज्य के विकास और जनकल्याण में योगदान देगा।

यह फेरबदल राज्य के प्रशासनिक ढांचे में एक महत्वपूर्ण बदलाव का प्रतीक है। सरकार का उद्देश्य इन परिवर्तनों के माध्यम से राज्य के विकास को गति देना और नागरिकों को बेहतर सेवाएं प्रदान करना है।

झंडा मेला देहरादून 2025 | इतिहास और परंपराएं | Jhanda Mela Dehradun 2025

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झंडा मेला

झंडा मेला देहरादून में हर साल होली के पाँचवे दिन मनाया जाने वाला उदासी संप्रदाय के सिखों का धार्मिक उत्सव है। इस उत्सव को गुरु श्री गुरु राम राय के देहरादून आगमन की स्मृति में मनाया जाता है। आइए जानते हैं झंडा मेले का इतिहास, धार्मिक महत्व और इस साल के कार्यक्रम की पूरी जानकारी।

झंडा मेला 2025 | Jhanda Mela Dehradun 2025 –

इस साल झंडा मेला 19 मार्च से 6 अप्रैल 2025 तक आयोजित किया जाएगा।

  • 16 मार्च 2025: श्री दरबार साहिब में ध्वजदंड लाया जाएगा और गिलाफ सिलाई का कार्य शुरू होगा।
  • 19 मार्च 2025: श्री झंडे जी का आरोहण होगा, जिसे देखने के लिए हजारों श्रद्धालु इकट्ठा होंगे।
  • 21 मार्च 2025:नगर परिक्रमा निकाली जाएगी, जो श्री दरबार साहिब से शुरू होकर पूरे शहर में भ्रमण करेगी और फिर वापस दरबार साहिब में विश्राम लेगी।
  • 6 अप्रैल 2025: श्री झंडे जी के समापन के साथ मेला समाप्त होगा।

इस बार ध्वजदंड को बदला जाएगा, जिसकी तैयारियां पहले से ही शुरू हो चुकी हैं। इसके लिए दूधली से लकड़ी मंगाई गई थी और इसे महीनों पहले तराशना शुरू कर दिया गया था।

 झंडा मेला देहरादून का इतिहास :

झंडा मेला लगभग 350 साल पुराना उत्सव है, जिसकी शुरुआत श्री गुरु राम राय के जीवनकाल में हुई थी। श्री गुरु राम राय सिखों के सातवें गुरु, श्री गुरु हर राय के पुत्र थे। कहा जाता है कि मुगल बादशाह औरंगजेब के दरबार में चमत्कार दिखाने के कारण उन्हें सिख गुरु परंपरा से वंचित कर दिया गया। इसके बाद, वे अपने समर्थकों के साथ देहरादून पहुंचे और यहां अपना डेरा डाला।

राजा फतेशाह, जो औरंगजेब के मित्र थे, ने गुरु राम राय को देहरादून के तीन गांवों — खुड़बुड़ा, राजपुरा और आमसूरी की जागीर प्रदान की। सन 1694 में गुरु राम राय ने यहाँ एक गुरुद्वारे की स्थापना की और एक विशाल ध्वज फहराया, जिसकी स्मृति में हर साल झंडा मेला मनाया जाता है।

झंडा मेला की रस्में और परंपराएं :

झंडा मेले की शुरुआत से पहले, उदासी संप्रदाय के अनुयायियों द्वारा दरबार साहिब के महंत की अगुवाई में एक विशाल जुलूस निकाला जाता है, जिसमें सैकड़ों श्रद्धालु भाग लेते हैं। हर तीसरे साल नागसिद्ध वन से लाए गए लगभग 100 फीट ऊँचे नए ध्वजदंड को पुराने ध्वजदंड से बदला जाता है। इस प्रक्रिया में विशेष पूजा-अर्चना की जाती है।

ध्वजदंड को दही, घी और गंगाजल से स्नान कराया जाता है। इसके बाद, श्री झंडे जी पर तीन प्रकार के गिलाफ चढ़ाए जाते हैं:
– सबसे पहले 41 सादे गिलाफ,
– फिर 41 शनील के गिलाफ,
– अंत में एक दर्शनी गिलाफ।

ध्वज आरोहण के समय पूरा दरबार “सत श्री अकाल!” और “गुरु राम राय की जय!” के नारों से गूंज उठता है।

 धार्मिक महत्व :-

झंडा मेला केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि आस्था, भक्ति और श्रद्धा का संगम है। ऐसा माना जाता है कि श्री झंडे जी पर लाल या सुनहरी चुनरी बांधने से भक्तों की मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। भक्त दूर-दूर से इस पावन क्षण का साक्षी बनने के लिए आते हैं।

 निष्कर्ष :-

झंडा मेला देहरादून, आध्यात्मिकता और संस्कृति का अद्भुत संगम है। यह उत्सव गुरु राम राय की स्मृति, उनके द्वारा स्थापित परंपराओं और उनकी शिक्षाओं को जीवंत रखता है। 2025 में इस ऐतिहासिक मेले का हिस्सा बनकर इसकी भव्यता और पवित्रता का अनुभव जरूर करें।

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पूर्णागिरि मंदिर की कहानी | इतिहास और यात्रा गाइड | Purnagiri Mandir Guide

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पूर्णागिरि मंदिर की कहानी

पूर्णागिरि मंदिर की कहानी : उत्तराखंड के चंपावत जिले में स्थित पूर्णागिरि मंदिर (Purnagiri Mandir) न केवल धार्मिक आस्था का केंद्र है, बल्कि प्राकृतिक सौंदर्य और पौराणिक कथाओं का अद्भुत संगम भी है। समुद्र तल से लगभग 3000 मीटर की ऊँचाई पर स्थित यह मंदिर अन्नपूर्णा पर्वत पर 5500 फुट की ऊँचाई पर स्थित है। चंपावत से 92 किलोमीटर और टनकपुर से मात्र 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह धाम श्रद्धालुओं के बीच विशेष महत्व रखता है।

पूर्णागिरि मंदिर की कहानी : इतिहास और पौराणिक मान्यताएँ –

पौराणिक कथाओं के अनुसार, जब माता सती ने आत्मदाह किया, तब भगवान शिव उनके मृत शरीर को लेकर तांडव करने लगे। इससे सृष्टि में भारी अशांति फैल गई। तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से माता सती के शरीर को खंड-खंड कर दिया। जहाँ-जहाँ माता सती के अंग गिरे, वहाँ शक्तिपीठों की स्थापना हुई। उत्तराखंड के अन्नपूर्णा पर्वत पर माता सती की नाभि गिरी थी, जिसके कारण यहाँ पूर्णागिरि मंदिर की स्थापना हुई।

एक अन्य कथा के अनुसार, महाभारत काल में पांडवों ने प्राचीन ब्रह्मकुंड के पास एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया था। इस यज्ञ में प्रयोग किए गए अथाह सोने से यहाँ एक स्वर्ण पर्वत बन गया। 1632 में कुमाऊँ के राजा ज्ञान चंद के दरबार में गुजरात से आए श्रीचंद तिवारी नामक ब्राह्मण ने बताया कि माता ने स्वप्न में इस पर्वत की महिमा का उल्लेख किया है। तब राजा ज्ञान चंद ने यहाँ माता की मूर्ति स्थापित कर मंदिर का निर्माण कराया।

पूर्णागिरि मंदिर का धार्मिक महत्व –

पूर्णागिरि मंदिर 108 शक्तिपीठों में से एक माना जाता है, जहाँ माँ की पूजा महाकाली के रूप में की जाती है। यहाँ साल भर भक्तों की भीड़ लगी रहती है, लेकिन चैत्र माह और ग्रीष्म नवरात्रि के दौरान यहाँ विशेष मेला लगता है, जो 90 दिनों तक चलता है। इस दौरान देशभर से श्रद्धालु यहाँ दर्शन के लिए आते हैं।

सिद्ध बाबा मंदिर: बिना दर्शन अधूरे हैं पूर्णागिरि के दर्शन –

पूर्णागिरि यात्रा सिद्ध बाबा के दर्शन के बिना अधूरी मानी जाती है। कहा जाता है कि एक साधु ने अहंकार में आकर माँ पूर्णागिरि पर्वत पर चढ़ने की कोशिश की। माँ ने क्रोधित होकर उसे नदी के पार फेंक दिया। जब साधु ने क्षमा मांगी, तो माँ ने उसे सिद्ध बाबा के नाम से प्रसिद्ध होने का वरदान दिया। आज भी श्रद्धालु सिद्ध बाबा के दर्शन कर, उनके लिए मोटी-मोटी रोटियाँ अर्पित करते हैं।

झूठे का मंदिर : लालच की सज़ा –

झूठे का मंदिर भी पूर्णागिरि धाम के प्रमुख आकर्षणों में से एक है। मान्यता है कि एक संतानहीन सेठ ने माँ से पुत्र प्राप्ति की मन्नत मांगी थी और वचन दिया था कि वह पूर्णागिरि के लिए सोने का मंदिर बनाएगा। जब सेठ की मन्नत पूरी हुई, तो उसने तांबे के मंदिर पर सोने की पॉलिश कर माँ को अर्पित करने की कोशिश की। लेकिन टुन्याश नामक स्थान पर पहुँचने के बाद वह मंदिर आगे नहीं बढ़ सका और वहीं जम गया। तब से यह स्थान झूठे का मंदिर कहलाने लगा। यहाँ बच्चों के मुंडन संस्कार किए जाते हैं, जिससे बच्चों की दीर्घायु की कामना की जाती है।

पूर्णागिरि मंदिर यात्रा : कैसे पहुँचे ? ( Purnagiri Mandir Guide )

पूर्णागिरि मंदिर की यात्रा सभी यातायात साधनों के माध्यम से सुगम है। गर्मियों में विशेष रूप से 30 मार्च से मई तक यात्रा करना सबसे उपयुक्त होता है, जब यहाँ मेला भी लगता है।

  • हवाई मार्ग से : पंतनगर हवाई अड्डा पूर्णागिरि के सबसे नज़दीक है, जो यहाँ से लगभग 160 किमी दूर है। पंतनगर से टनकपुर तक टैक्सी और बस सेवाएँ उपलब्ध हैं। दिल्ली और देहरादून से पंतनगर के लिए सीधी उड़ानें उपलब्ध हैं।
  • रेल मार्ग से: पूर्णागिरि का निकटतम रेलवे स्टेशन टनकपुर है, जो यहाँ से मात्र 20 किमी दूर है। टनकपुर रेलवे स्टेशन भारत के प्रमुख शहरों से जुड़ा हुआ है। हाल ही में शुरू की गई दिल्ली-पूर्णागिरि जनशताब्दी एक्सप्रेस से यात्रा करना सबसे सुगम है। यह ट्रेन दिल्ली, मुरादाबाद, बरेली, इज्जतनगर, खटीमा होते हुए टनकपुर पहुँचती है।
  • सड़क मार्ग से: टनकपुर देश के सभी प्रमुख राष्ट्रीय राजमार्गों से जुड़ा हुआ है। दिल्ली, लखनऊ, देहरादून या अन्य शहरों से बस से टनकपुर पहुँचा जा सकता है। टनकपुर से पूर्णागिरि के लिए टैक्सी सेवा उपलब्ध है।

पूर्णागिरि यात्रा के दौरान ध्यान रखने योग्य बातें –

1. चैत्र नवरात्रि के समय यहाँ भारी भीड़ होती है, इसलिए अपनी यात्रा की योजना पहले से बना लें।
2. ट्रेकिंग के दौरान आरामदायक जूते पहनें और आवश्यक दवाइयाँ साथ रखें।
3. माँ पूर्णागिरि के दर्शन से पहले सिद्ध बाबा और झूठे का मंदिर के दर्शन अवश्य करें।
4. स्थानीय रीति-रिवाजों और मान्यताओं का सम्मान करें।

अंतिम शब्द :-

पूर्णागिरि मंदिर (Purnagiri Mandir) न केवल श्रद्धालुओं के लिए आस्था का केंद्र है, बल्कि यह पौराणिक कथाओं और दिव्य शक्ति से ओत-प्रोत स्थान भी है। माँ के दर्शन और सिद्ध बाबा का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए हर साल लाखों श्रद्धालु यहाँ आते हैं। अगर आप भी आध्यात्मिक यात्रा पर जाना चाहते हैं, तो पूर्णागिरि मंदिर की यात्रा आपके लिए एक अविस्मरणीय अनुभव साबित होगी।

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