Friday, July 26, 2024
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बैसी – खास होती कुमाऊं में होने वाली 22 दिन की तप साधना।

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बैसी

उत्तराखंड देवभूमि के रूप में पुरे विश्व में प्रसिद्ध है। यहाँ सनातन धर्म की प्रसिद्ध नदियों के उद्गम से लेकर चारों धाम यहीं स्थित हैं। अनेक ऋषि मुनियों की तप स्थल केदारखंड और मानसखंड में प्रत्येक क्षेत्रों में लोकदेवता पूजे जाते हैं। लोक देवताओं की पूजा के पहाड़ों में अलग -अलग विधान ,परम्पराएं प्रचलित है। इन्ही अलग -अलग पूजा परम्पराओं में एक परम्परा है बैसी। इसे बैसी जागर ( Baisi jagar) भी कहते हैं।

पहाड़ में बैसी परम्परा –

उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में लोकदेवताओं के सेवा में देवालय में रहकर नियम धर्म का पालन करके तप साधना करने की परम्परा है। जिनकी समयावधि छः महीने , तीन माह और बाइस दिन होती है। छह माह के तप को छःमासी ,तीन माह को त्रिमासी और बाइस की तपस्या को बैसी कहते हैं। अधिकतम गावों में बैसी का आयोजन होता है। जैसा की नाम से ही विदित होता की बैसि बाइस दिन की तप साधना होती है। नातक या सूतक होने की स्थिति में यह ग्यारहवे या अठारहवे दिन पूर्ण कर ली जाती है।

इस धार्मिक अनुष्ठान का आयोजन प्रायः श्रावण या पौष माह में होता है। इस आयोजन में कुमाऊँ निवासी अपने ईष्ट देव हरज्यू देवता ,सैम देवता ,कलिका मइया , गोलू देवता या अपने ग्राम देवता के मंदिर में गावं की सुख शांति और अपनी मनोकामना पूर्ति के लिए बैसि का आयोजन करते हैं।

बैसी - खास होती कुमाऊं में होने वाली 22 दिन की तप साधना।

कत्युरघाटी में ‘कत्यूरी देवों’ की भी वैसी लगती है। इसमें सभी सम्बद्ध ग्रामों का पूरा योगदान रहता है जिन्हें पारिभाषिक शब्दावली में ‘स्यौंक’ (सेवक) कहा जाता है। इस अनुष्ठान का नेतृत्व इसके विधि-विधानों से परिचित एक अनुभवी डंगरिया  (पस्वा) करता है जिसे ‘तपसी डंगरिया ‘ कहा जाता है। वह इसे एकाकी भी कर सकता है एवं अन्य सहयोगियों के साथ भी। किन्तु इसमें सहभागिता करने वाले प्रायः वे लोग होते हैं जिन पर कि देव अवतरण होता है एवं धार्मिक शब्दावली में इन्हें भी ‘तपसी डंगरिया या भगत कहा जाता है। वे आपस में वार्तालाप के लिए व्यक्ति विशेष का नाम लेकर उसके भगत उपनाम जोड़ देते हैं।

इन्हें एक विशिष्ट शुभदिन के विधि-विधान पूर्वक निर्धारित तपस्थली में समारोहपूर्वक निर्धारित वेष-भूषा के साथ प्रवेश कराया जाता है। इस तपस्या में भाग लेने वाले सभी तपसी भगतों को ‘बैसी’ प्रारम्भ होने के एक दिन पूर्व से लेकर बैसी के समापन के पांच दिन बाद तक घर गृहस्थी के कार्यों व सांसारिक सम्बन्धों में निर्लिप्त रहकर मंदिर में देव भक्ति करते हुए कई नियमों का पालन करना होता है, जैसे दिन में दो या तीन बार स्नान करना, एक बार सात्विक भोजन करना, मांस, मसूर, लहसुन, प्याज, बैंगन आदि तामस भोज्य पदार्थों का, मदिरा, स्त्रीप्रसंग का सर्वथा परिहार करना होता है।

माना जाता है कि इन नियमों का उल्लंघन किये जाने पर ‘अघोर’ हो जाने से गांव में अनेक प्रकार के उत्पात होने लगते हैं। ऐसा होने पर शुद्धि के निमित्त ग्राम पुरोहितों द्वारा ‘शान्तिपाठ’ का आयोजन कराया जाता है। इस 22 दिवसीय धार्मिक तपस्या के अपने विशेष नियम व विधान होते हैं। यों तो इनमें यत्किंचित् स्थानीय विशेषताएं हो सकती हैं किन्तु समान्य रूप से जिनका अधिकार क्षेत्रों में अनुपालन किया जाता है उनमें से कुछ इस प्रकार हैं –

बैसी

1. वेषभूषा –

इनकी वेषभूषा का अंग है साधु-सन्यासियों के समान गैरिक वस्त्र/कहीं तो गेरुवे रंग के अधोवस्त्र के साथ उसी रंग का आंचल वस्त्र (गाती) भी धारण किया जाता है तथा कहीं अंगवस्त्र के रूप में गाती तथा सिरोवस्त्र के रूप में पगड़ी भी धारण की जाती है।

2. स्नान –

डंङरिये को दिन में तीन बार स्नान करना होता है। इसके प्रातःकालीन स्नान के संदर्भ में एक विशिष्ट विधान यह होता है कि उन्हें यह स्नान लोगों के उठने से पहले करना होता है। स्नान के लिए जाते-आते समय उसे किसी व्यक्ति, विशेषकर स्त्री के दर्शन नहीं होने चाहिए। इस सारे समय में उसे अबोल (मौन) रहना चाहिए। उसे मंदिर के लिए जो जल लाना होता है वह भी अभी तक किसी अन्य व्यक्ति से अछूता हो।

3. ध्यान –

तपसी डंगरियों को प्रातः सायं कम से कम एक या आधा घंटा ध्यानस्थ मुद्रा में तल्लीन होकर बैठना होता है। यदि मंदिर एकान्त स्थान में न होकर ग्राम के मध्य में या उसके किनारे पर होता है तो ध्यान काल से पूर्व आवाज लगाकर लोगों से शान्त रहने का अनुरोध किया जाता है।

4. दीप –

तपस्थली में बैसी के प्रारम्भ के समय से लेकर अंतिम समय (उद्यापन) तक एक अखण्ड ज्योति जलती रहनी चाहिए। इसके अतिरिक्त देवालय परिसर में यदि अन्य देवी-देवताओं को अर्पित देवस्थल हों तो उनमें भी प्रातः सायं दीप प्रज्जवलित किये जाने चाहिए।

5. बिभूति –

प्रतिदिन दोपहर के समय देवास्त्र ‘फौड़ी’ से देवता की ‘धूनी’ में से बिभूति (राख) निकालकर उसमें अक्षत व दूध का मिश्रण करके बनाई गई विभूति को तीन हरे पत्तों में रखा जाता है। उनमें से एक की बिभूति को मंदिर में चढ़ाकर शेष को तपसी डंगरिया ( भगत ) अपने माथे पर लगाते हैं। दूसरे की ढोलवादक (दास) को तथा तीसरे की मंदिर के स्यौंकों (सेवकों) तथा अन्य श्रृद्धालुओं को दी जाती है।

6. अर्चना –

तपसी डंगरियों को प्रतिदिन त्रिकाल (प्रातः, मध्याह्न, सायं) देवाराधना करनी होती है जिसके अन्तर्गत वे धूनी की दक्षिणावर्ती परिक्रमा/प्रदक्षिणा करते हैं। जिसमें वे अपनी दाहिने हाथ की मध्यमा अंगुली से पृथ्वी का स्पर्श करके फिर उसे वक्षस्थल का एवंमाथे का स्पर्श करते हैं।

7. प्रसाद –

मध्याह्नोत्तर में तापसियों द्वारा स्वयं तैयार किये जाने वाले सात्विक भोजन, मुख्यतः चुपड़ी हुई गेहूं की रोटियां अथवा दूध व मीठे से मिश्रित मीठी रोटियां, जिन्हें परसादी कहा जाता है, को मंदिर परिसर में उपस्थित कुमार व कुमारिकाओं तथा अन्य उपस्थित जनों को प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है।

8. जागर –

बैसी का सबसे अधिक महत्वपूर्ण अंग होता है जागर, जिसमें पहले दिन से लेकर 22वें दिन तक रात्रि में जागर का आयोजन होता है। किन्तु यदि ग्यारह दिन की भक्ति में सुबह शाम जागर लगती है और बाइस जागर पूरी करनी होती है तभी वो बैसी कहलाती है ।

भोजनोपरान्त वहां पर एकत्रित सभी नर-नारी पहले तो झोड़ा एवं भजन गीत-नृत्यों में भाग लेते हैं। इसके बाद जागर का कार्यक्रम प्रारम्भ होता है। भगत लोग हाथ पैर धोकर ईंधन से प्रज्ज्वलित हो रही धूनी के पास अपने-अपने आसनों पर आसीन हो जाते हैं। दर्शक भी मंदिर के अन्दर शांत भाव से अपना स्थान ग्रहण कर लेते हैं ।

तदुपरान्त धूनी के एक ओर धर्मदास जागर शुरू करते हैं। माध्यम धुन में देवताओं का यशोगान सुनाया जाता है। धरमदास अपने जागर गायन विधा से देवताओं को उनको जीवन से संबंधित घटनाओं को सुनाकर उन्हें भावविभोर कर देते हैं।  डंगरिये एकाग्र मन से देवगाथा को सुनते हैं।  के जागर गायन के अंतिम चरणों में फगारों के स्वर तथा ढोल व वादकों की वाद्य ध्वनियां तीव्र व उत्तेजक होने लगती है।

जिनसे प्रभावित होकर धूनी के आसपास बैठे डंगरिये ( पश्वा ) कांपने लगते हैं और विभिन्न प्रकार की ‘हांके’ (आवाजे) मारने लगते हैं। और डंगरियों के ऊपर देवता का अवतरण हो जाता है। तब उनसे गुरु विभिन्न क्रियाकलापों को सांकेतिक रूप से करवाकर उन्हें नचाते हैं। उसके बाद देव श्रद्धालुओं के सवालों के जवाब देते हैं। विभूत लगाकर तथा चावल के अक्षत मारकर अपने भक्तों को आशीष देते हैं। उसके बाद गुरु उन्हें वापस जाने की विनीत करते हुए ,उन्हें वापस भेज देता है जिसे देव घेरना कहते हैं।

बैसी के ग्यारहवे दिन होती है परीक्षा –

जागर में जिस भगत पर पहली बार अवतरित होता है उसे ग्यारहवे दिन परीक्षा देनी होती है। जिससे देव की प्रमाणिकता स्पष्ट हो सके। पहले निकट के तीर्थ में देव स्नान करते हैं  उसके बाद रात की जागर में पहली बार अवतरित होने वाले देव की परीक्षा होती है। परीक्षा में धूनी में गर्म तपा कर लाल की गई लोहे की छड़ी या फावड़ा जीभ से चाटना होता है।

कई देव सात या  बाइस प्रज्वलित दीप खाकर अपनी प्रमाणिकता सिद्ध करते हैं। देव की प्रमाणिकता सिद्ध होने पर उन्हें गद्दी सौपी जाती है। बैसी पूरी करने वाले देव की प्रमाणिकता बढ़ जाती है। और बाइस दिन के तप के प्रभाव से वे डंगरिये के तपोबल में काफी वृद्धि हो जाती है और उनके ऊपर अवतरित होने वाला देव काफी शक्तिशाली हो जाता है। और बैसी जागर के बीसवें दिन भिक्षाटन की परंपरा निभाई जाती है।

बैसी - खास होती कुमाऊं में होने वाली 22 दिन की तप साधना।

बैसी के अंतिम दिन की पूर्वरात्रि को होती है स्योंरात –

और अन्तिम दिन की रात्रि को जिसे ‘लग्याव’ या’स्योंरात’ कहा जाता है, प्रतिदिन की जागर के साथ देवातरण, देवनृत्य आदि सभी कुछ यथावत् सम्पन्न होता है। तदनन्तर तपसी डंगरिया  अथवा वरिष्ठ डंगरिया अन्य डंगरियों को देवास्त्रों के साथ लग्याव (किलौंण) की सामग्री-कुल्हाड़ी, किलौंण, सरसों, माष (उड़द) आदि सौंपता है। यात्रा के लिए स्यौकों द्वारा चीड़ की 22 मशालें तैयार की जाती हैं। तदनन्तर मशालें जलाई जाती हैं और इङरिये नाचते व ‘हांकें’ छोड़ते हुए देवालय की तीन परिक्रमाएं पूरी करके किलौंण (सीमा स्तम्भन) करने के लिए अर्थात् गांव के अन्त में पूर्व, उत्तर, पश्चिम व दक्षिण दिशाओं में किलौंण (कीले) गाड़ने के लिए चल पड़ते हैं।

उनके पीछे उनके आने तक देवस्थल पर भजन आदि का कार्यक्रम चलता रहता है और उनके पीछे उनके आने पर सभी विश्राम की स्थिति में चले जाते हैं। इस संदर्भ में लोक आस्था है कि ग्राम सीमा पर गाड़े गये स्तम्भों के अंदर गांव में किसी प्रकार की अनिष्टकारी भूत-पिशाच आदि दुष्ट शक्तियों व आधि-व्याधियों का प्रवेश नहीं होने पाता है। इस अल्पकालिक विश्राम के अनन्तर पुनः जागर लगती है।

अंतिम दिन होता है महाभंडारा –

बैसी जागर के अंतिम दिन दिन में जागर का आयोजन होता है। सभी भगतों नववस्त्र पहनाये जाते हैं। तथा उनके पुराने केश अपर्ण कर दिए जाते हैं। मंदिर में हवन यज्ञ पूर्ण होता है और सभी भगतों की बाइस दिन की बैसि पूर्ण होने के साथ उन्हें बैसी के याम नियमों से मुक्त किया जाता है। मंदिर में विशाल भंडारा आयोजित किया जाता है। भंडारा ख़त्म होने के उपरांत सभी तपसी भगतों को ढोल नगाड़ों के साथ ससम्मान उनके घर पहुंचाया जाता है।

कृपया ध्यान दें – बैसी से सम्बंधित अलग -अलग क्षेत्रों में अलग अलग परम्पराएं व नियम हो सकते हैं। इस लेख में अल्मोड़ा कालीगाढ़पट्टी  के आसपास के गांव में होने वाली बैसी और प्रोफ़ेसर DD शर्मा जी की किताब उत्तराखंड ज्ञानकोष का संदर्भ लिया है। 

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यहां कालकूट विष पीकर महादेव कहलाए नीलकंठ महादेव । सावन में विशेष महत्व है इस मंदिर का।

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नीलकंठ महादेव ऋषिकेश –

नीलकंठ महादेव मंदिर को अष्टसिद्धिएवं वाणी की सिद्धि को प्रदान करने वाला पुण्य क्षेत्र कहा गया है। इस प्रकार यह मंदिर उत्तराखंड का एक विशेष तीर्थ है। यह विशेष तीर्थ जनपद पौड़ी गढ़वाल के यमकेश्वर ब्लाक के अंतर्गत उत्तुंग पर्वत मणिकूट में स्वयंभू लिङ्ग के रूप में प्रसिद्ध है। यह मंदिर समुंद्रतल से लगभग 4,500 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। मणिकूट, विष्णुकूट, ब्रह्मकूट पर्वतों से निकलने वाली मधुमती (मणिभद्रा) एवं पंकजा (चंद्रभद्रा) नामक पवित्र धाराएँ यहाँ संगम बनाती हैं। ऋषिकेश से नीलकंठ महादेव मंदिर 32 किलोमीटर की दूरी पर है। हालाँकि  पैदल का छोटा रास्ता 12 किलोमीटर पड़ता है।

यहाँ पर एक वटवृक्ष है जिसके मूल में भगवान श्री नीलकंठ संसार के कल्याण के लिए समाधि लगाकर बैठ गए थे। कालांतर में उसी स्थान पर भगवान शिव स्वयंभू लिङ्ग के रूप में प्रकट हुए। माँ सती ने सर्वप्रथम उस लिङ्ग का पूजन किया। समय-समय पर अनेकों ऋषि-मुनियों ने इस स्थान पर तप कर अपनी इच्छित सिद्धियों को प्राप्त किया। ऋषि अगस्त्य ऋषि ने भी भगवान शंकर को प्रसन्न कर वाग सिद्धि प्राप्त की थी।

बताते हैं कि कुछ समय बाद वट वृक्ष में से ही एक पीपल का वृक्ष पैदा हुआ और बढ़ते-बढ़ते इतना बड़ा हो गया कि वट वृक्ष उसी में समा गया। फिर एक पंचपर्णी लता ने उसे घेर लिया। इसी वृक्ष के मूल पर श्री नीलकंठ स्वयंभू लिङ्ग रूप में विराजमान हैं और धातु के नाग से आच्छादित हैं। सभामंडप में नंदी ध्यानस्थ मुद्रा में हैं।

यहां कालकूट विष पीकर महादेव कहलाए नीलकंठ महादेव । सावन में विशेष महत्व है इस मंदिर का।

नीलकंठ महादेव पर आधारित पौराणिक कहानी –

कहते हैं देवासुर संग्राम के बाद जब देवो और असुरों के बीच समुंद्रमंथन का निर्णय हुवा। समुंद्र मंथन में कई प्रकार की वस्तुएं और रत्न सिद्धियां निकली उन्हें एक एक करके सभी देव व् दानवों ने धारण किया। जब समुद्रमंथन से हलाहल कालकूट विष निकला तो उसे धारण करने की हिम्मत किसी को नहीं हुई।

कालकूट विष के प्रभाव से समस्त शृष्टि में खतरा उत्पन्न हो गया। सृष्टि की रक्षा के लिए भोलेनाथ ने इस भयकर कालकूट विष को धारण करने का निर्णय लिया। कहते हैं भगवान भोलेनाथ ने इस स्थान पर विष पान किया और माँ पार्वती ने उस विष को भोलेनाथ के गले से नीचे नहीं उतरने दिया विष को उनके गले में ही रोक लिया और विष के प्रभाव से उनका गला नीला पड़ गया।

और तबसे भोलानाथ कहलाये नीलकंठ महादेव। बताते हैं कि भगवान् शिव ने विषपान करने के बाद वट वृक्ष के नीचे जनकल्याण के लिए तपस्या की और बाद में उसी स्थान पर भगवान् शिव स्वयंभू लिंग के रूप में उत्पन्न हुए। जिसकी सर्वप्रथम पूजा माता सती ने की थी।

नीलकंठ महादेव

 नीलकंठ महादेव का पौराणिक महत्त्व –

भगवान नीलकंठ महादेव के धार्मिक महत्त्व के बारे में कहा जाता है कि सिद्धि प्राप्त करने के लिए यह पुण्य क्षेत्र है। इसके बारे कहा जाता है कि यहाँ महर्षि अगस्त्य ने वाग सिद्धि की प्राप्ति की थी। इसके अलावा कहा जाता है कि सावन में यहाँ कावड़ लाकर जलाभिषेक करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। जब कालकूट विष धारण करने के बाद भगवान शिव विष के प्रभाव से जलने लगे ,तब समस्त देवताओं ने भगवान् शिव के ऊपर जल अर्पण किया और तब भोलेनाथ की जलन कम हुई। उस दिन से भोलेनाथ को जल चढाने की परम्परा शुरू हुई।

सावन में भोलेनाथ के इस मंदिर में कावड़ चढ़ाने का इसलिए भी विशेष महत्व है क्योंकि भगवान के नीलकंठ रूप  से उन्हें जल चढ़ाने की परंपरा शुरू हुई थी। और सावन भगवान शिव का प्रिय महीना होता है।

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उत्तराखंड मौसम अपडेट: 25 जुलाई तक उत्तराखंड में भारी बारिश का अलर्ट

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उत्तराखंड मौसम अपडेट

उत्तराखंड मौसम अपडेट: मौसम विज्ञान के देहरादून केंद्र द्वारा 21 जुलाई को जारी रिपोर्ट के अनुसार आगामी 25 जुलाई तक प्रदेश भर में भारी बारिश की आशंका हैं। प्रदेश में बारिश की स्थिति को देखते हुई जिलों में येलो, ऑरेंज और रेड अलर्ट जारी कर दिया गया हैं। आप को बता दे की मौसम विभाग के अनुसार आगामी 25 जुलाई तक प्रदेश के अधिकांश स्थानों में भरी बारिश का अनुमान हैं।

कल 22 जुलाई को उधम सिंह नगर, नैनीताल, और चंपावत में रेड अलर्ट जारी किया गया हैं। पौड़ी, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, और बागेश्वर में ऑरेंज तथा देहरादून, हरिद्वार, चमोली, उत्तरकाशी, टिहरी, और रुद्रप्रयाग में येलो अलर्ट जारी कर दिया गया हैं।
उत्तराखंड मौसम अपडेट: 25 जुलाई तक उत्तराखंड में भारी बारिश का अलर्ट
दिनांक 23 जुलाई को प्रदेश के सभी जिलों में ऑरेंज अलर्ट जारी कर दिया गया हैं।
दिनांक 24-25 जुलाई को नैनीताल, उधम सिंह नगर, चंपावत, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, और बागेश्वर ओरंगे येलो जारी कर दिया गया हैं। और गढ़वाल मंडल के सभी जिलों में ऑरेंज जारी कर दिया गया हैं।

श्रीदेव सुमन की कहानी एक कविता के रूप में ।

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श्रीदेव सुमन

श्रीदेव सुमन पर एक कविता ,लेखक – प्रदीप बिजलवान विलोचन।

श्रीदेव सुमन मात्र 29 वर्ष की छोटी सी उम्र में अपने राज्य, अपने पहाड़ी समाज अपने टिहरी गढ़वाल और अपने उत्तराखंड के लिए ऐसा कार्य कर गए , जिससे उनका नाम इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में सदा सदा के लिए अमर हो गया। श्री देव सुमन जी ने राजशाही के अत्याचारों के खिलाफ अंदोलन करके शहीद हो गए थे।

25 जुलाई को श्रीदेव सुमन जी की पुण्यतिथि है। इसे उनके शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता है। श्री देव सुमन की कहानी को काव्यात्मक लहजे में टिहरी गढ़वाल के प्रदीप बिजल्वाण विलोचन ने अपने शब्दों में सजाया है। यदि आपको श्रीदेव सुमन पर लिखी ये कविता अच्छी लगे तो शेयर अवश्य करें।

काव्यात्मक लहजे में श्रीदेव सुमन जी कहानी –

इस गढ़भूमि का लाल था वो ।
सन उन्नीस और मई पच्चीस के जन्मकाल का था वो। पट्टी बमुंड और गांव जौल में ।
जहां खेलता था वो दोस्तों के संग लेकर तीर और, धनुष खेल ही खेल में ।

तात जिनके हरिराम बडोनी एक सुप्रसिद्ध वैद्य थे ।
और माता तारा देवी में धीरता और साहस के गुण
अभेद्य थे ।

सन 1919 में पिता सुमन के माहमारी हैजा से स्वर्ग को सिधार गए ।
और तब माता तारादेवी पर गृहस्थ का सारा भार ला गए ।

शिक्षा प्रारंभिक श्रीदेव ने नई टिहरी में ही प्राप्त किए।
और उच्च शिक्षा की खातिर देहरादून चले गए ।

जहां उनके मन में क्रांतिकारी विचारधारा उमड़ने लगी
जिसकी आग से अंग्रेजी हुकूमत भी झुलसने लगी ।

हिमांचल और प्रभाकर जैसी पत्रिकाओं को जिन्होंने प्रकाशित किया ।
उनके ऐसे ही कदमों के कारण अंग्रेजों ने उनका जेल की ओर गमन कर दिया ।

बाद उसके टिहरी राजशाही के प्रजा पर उनके अत्यचारों के कारण उन्होंने आवाज उठाई ।
राजा को उनकी यह बात रास न आई लेकिन उनकी धीरता और वीरता पर फिर भी कोई आंच न आई ।

पैरों में कई वजनी बेड़ियों से उन्हें जकड़ दिया जाता था ।
और कभी उस ठिठुरती सी ठंड में उनको पानी से भरी कंबलों में लिपटाया जाता था ।

सन 1944 में दिन 84 के बाद करके आमरण अनशन उन्होंने अपना शरीर छोड़ दिया ।
और फिर वह लाल अनंत उस आकाश का जैसे एक टिमटिमाता सा तारा बन गया ।

श्रीदेव सुमन की कहानी एक कविता के रूप में ।

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गाती धोती गढ़वाल की मातृशक्ति को एक नई पहचान देती है।

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फ्यूंलानारायण मंदिर – देश का एकमात्र मंदिर जहाँ महिला पुजारी ही करती है भगवान् नारायण का शृंगार।

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फ्यूंलानारायण मंदिर

फ्यूंलानारायण मंदिर –

उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है यहाँ साक्षात् देवो का वास है। उत्तराखंड का हिमालयी क्षेत्र अपने आप में कई अद्भुत रहस्यों को समेटे हुए है। और अपनी अनोखी मान्यताओं और समृद्ध संस्कृति के लिए हिमालय का यह भूभाग ( केदारखंड और मानसखंड ) हमेशा चर्चाओं में रहा है।

उत्तराखंड के चमोली जिले के जोशीमठ ब्लॉक के उर्गम घाटी में भगवान् नारायण का ऐसा ही एक रहस्यमई मंदिर है जहाँ पुरुष पुजारी के साथ महिला पुजारी भी नियुक्त है और प्रतिदिन भगवान् का शृंगार केवल महिला पुजारी करती है। समुद्रतल से लगभग 10000 फ़ीट की ऊंचाई पर और बद्रीनाथ राष्ट्रिय राजमार्ग जोशीमठ से लगभग 12 किलोमीटर दूर जोशीमठ की उर्गम घाटी के भर्की गांव के बीच में स्थित है भगवान् विष्णु का मंदिर।

इस मंदिर को फ्यूंलानारायण मंदिर के नाम से जाना जाता है। प्रत्येक वर्ष श्रावण संक्रांति को विधि विधान से इस मंदिर के कपाट खुलते हैं। वर्ष 2024 में भी पुरे विधि विधान के साथ 17 जुलाई को इस मंदिर के कपाट दर्शनार्थ खुल चुके हैं।

केवल डेढ़ माह के लिए खुलते हैं कपाट –

भगवान् नारायण को समर्पित फ्यूंलानारायण मंदिर के कपाट केवल डेढ़ माह के लिए खुलते हैं। भगवान् विष्णु के इस मंदिर के कपाट प्रतिवर्ष श्रावण संक्रांति  16 या 17 जुलाई को खुलते हैं और नंदाष्टमी को कपाट एक साल के लिए बंद हो जाते हैं। इस दौरान मंदिर की पूजा के लिए पुरुष पुजारी और भगवान श्रीहरि के शृंगार के लिए महिला पुजारी नियुक्त होती है। यहाँ की पुरातन परम्परा के अनुसार यहाँ भगवान् का शृंगार करने का अधिकार केवल महिलाओं को होता है। इसलिए यहाँ महिला पुजारी की नियुक्ति होती है। कपाट बंद होने के समय मंदिर की सजावट कुंवारी कन्याओं द्वारा की जाती है।

इसके अलावा महिला पुजारी द्वारा  प्रतिदिन दूध,दही घी माखन और सत्तू का भोग भगवान् नारायण को लगाया जाता है। इस मंदिर में यह परम्परा सदियों से चली आ रही है। आज भी यहाँ के ग्रामीण सदियों से चली आ रही इस परम्परा का निर्वहन पूरी ईमानदारी और लगन से करते हैं।

फ्यूंलानारायण मंदिर

स्वर्ग की अप्सरा से चली यह विशेष परम्परा –

उत्तराखंड का संभवतः भारत का एकमात्र मंदिर है जहाँ प्राचीन काल से महिला पुजारी नियुक्त करने की परम्परा है। हलाकि आजकल कई मंदिरों में महिला पुजारियों की नियुक्ति हो रही है ,लेकिन फ्यूंलानारायण मंदिर के बारे में कहा जाता है कि यहाँ यह परम्परा स्वयं भगवान् विष्णु ने शुरू की। जी हाँ एक पौराणिक लोककथा के अनुसार पौराणिक काल में जब स्वर्ग की अप्सरा पुष्प लेने हिमालय की इस सुन्दर उर्गम घाटी में आई तो उसे यह स्वयं भगवान् विष्णु यहाँ से विचरण करते हुए मिल गए।

कहते हैं स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी ने भगवान् विष्णु को एक फूलों की माला भेंट की और कई भिन्न -भिन्न प्रकार के फूलों से भगवान् नारायण का शृंगार किया। कहा जाता है तबसे फ्यूंलानारायण मंदिर में महिलाओं द्वारा भगवान् नारायण के शृंगार की परम्परा शुरू हुई। आज भी इस परम्परा का निर्वहन पुरे विधि विधान से करते हुए महिला पुजारी डेढ़ महीने तक भिन्न -भिन्न प्रकार के फूलों से भगवान् नारायण का शृंगार करती है।

फ्यूंलानारायण मंदिर कैसे पहुंचे –

उत्तराखंड के इस अनोखे मंदिर में जाने के लिए आपको सर्वप्रथम ऋषिकेश पहुंचना होगा। ऋषिकेश से बद्रीनाथ राष्ट्रिय राजमार्ग पर जोशीमठ से लगभग 12 किलोमीटर पहले हेलंग से उर्गम घाटी के लिए अलग सड़क जाती है ,इस सड़क पर लगभग बारह किलोमीटर की दुरी तय करने के बाद आता है कल्पनाथ मंदिर। और कल्पनाथ से करीब करीब 4 किलोमीटर की दूरी तय करने के पश्च्यात आता है भगवान्  का यह खास मंदिर फ्यूंलानारायण मंदिर।

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वृद्ध जागेश्वर – जहाँ विष्णु रूप में पूजे जाते हैं भगवान् शिव।

घंटाकर्ण देवता ,भगवान विष्णु के भांजे और बद्रीनाथ के क्षेत्रपाल।

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गाती धोती गढ़वाल की मातृशक्ति को एक नई पहचान देती है।

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गाती धोती

गाती धोती :-

गाती धोती गढ़वाल के उच्च हिमालयी क्षेत्रों के परिधान का एक परम उपयोगी अंगवस्त्र होता है, जो मोटी ऊनी चादर के रूप में होता था। इसके आधे भाग को कमर के नीचे पैरों तक एक विशेष ढंग से लपेट कर तथा शेष भाग को ऊपर कंधे तक ले जाकर एक विशेष तरीके की गांठ के रूप में बांधा जाता था। उसे कन्धे पर रोके रखने के लिए लोहे या लकड़ी के सुए या आलपिन का भी उपयोग किया जाता था।

इस पर शरीर को चादर से पूरा ढक लेने के बाद कमर पर ऊपर के कपड़े या एक पट्टू (कमरबन्ध) बांधा जाता था। पट्टू से इसे कमर पर बांध दिये जाने के बाद उसके ऊपर वाला भाग झोली, खुले थैला जैसा बन जाने के कारण उसमें आसानी से छोटा-मोटा सामान भी रखा जा सकता था और आवश्यकता पड़ने परलोग रखते भी थे।

इस प्रकार शरीरावरक, बिस्तर, वर्षा और तूफान में शरीर की रक्षा करने के लिए आवरक (छतरी, रेनकोट) जैसे सभी कार्यों के लिए उपयोगी होती है तथा भोजनादि वस्तुओं को साथ ले जाने के लिए ‘हौलडौल’ का भी काम करती है। अब इसका प्रचलन लगभग समाप्त हो गया है। गढ़वाल के उच्च हिमालयी क्षेत्रों के अतिरिक्त कुमाऊं के जनजातीय क्षेत्रों दारमा, व्यांस, जोहार केकई स्थानों पर महिलाएं भी गाती पहना करती थीं।

गाती धोती गढ़वाल की मातृशक्ति को एक नई पहचान देती है।

महिलाओं के अतिरिक्त पुरुष भी गाती धोती पहनते थे, किन्तु उनके पहनने का ढंग महिलाओं से कुछ भिन्न प्रकार का होता था। वे इसके नीचे भाग को घुटनों से उलट कर कमर में बांध लिया करते थे। गाती की चादर प्रायेण काले रंग की हुआ करती थी और लोग इसे स्वयं अपने घरों में तैयार करते थे।

इधर गाती का प्रचलन प्रायः समाप्त सा हो जाने से इसका स्थान अन्य ऊनी वस्त्र लेने लगे हैं। कमर को बांधे रखने एवं शरीर को ठंड से बचाये रखने के लिए कुछ वृद्ध लोग अभी भी इसका प्रयोग कर लिया करते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ गरीब तबके के लोग जिन्हें खस/खसिया कहा जाता था भांग के रेशे से बनी गाती भी पहनते थे।

 पारम्परिक गाती अब गाती धोती बन गई है –

पहले गढ़वाल के पहाड़ी क्षेत्रों में पहने जाने वाला गाती वस्त्र अब लगभग विलुप्तप्राय है। अब पहाड़ो में गाती वस्त्र की स्टाइल में साड़ी और गाती धोती पहनने का चलन है। वर्तमान में गढ़वाल की मातृशक्ति धोती को गाती वस्त्र की तरह पहनती है। गढ़वाल का यह पारम्परिक वस्त्र गढ़वाल की मातृशक्ति को एक अलग पहचान दिलाता है। गढ़वाल के अलावा  पहाड़ के अन्य क्षेत्रों में भी इसका प्रयोग होता है।

जैसे कुमाऊँ के कुछ क्षेत्रों में धोती को कमर के नीचे इस तरीके से बांधा जाता है कि उसमे बहुत सारी घास आ जाये। कुमाऊँ के क्षेत्रों में घास काट कर एकत्र करने के लिए अंगवस्त्र धोती को थैले की स्टाइल में बांधना गाती लगाना कहते हैं।

संदर्भ – प्रो dd शर्मा उत्तराखंड ज्ञानकोष। 

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जब गोरिल देवता ने धर्म बहिन तम्बोला घुघूती की पुकार पर उजाड़ डाला डोटी गढ़

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गोरिल देवता

गोरिल देवता या गोलू देवता को उत्तराखंड के प्रमुख न्यायकारी देवता माना जाता है। उनके बारे में कहा जाता है कि जो उनकी शरण में चला जाता है ,उसकी रक्षा के लिए वे किसी हद तक जा सकते हैं। गोरिल देवता की जागर में गोलू देवता और तम्बोला घुघूती की कहानी गायी जाती है। आज इस पोस्ट में गोरिल देवता और तम्बोला घुघूती की कहानी का हिंदी में संक्षिप्त वर्णन कर रहें हैं।

गोरिल देवता और तम्बोला घुघूती की जागर कहानी –

कहते हैं एक बार एक तम्बोला नामक घुघुती गोलू देवता के राज्य गढ़ी चम्पावत में आती है। और उनके आवास के निकट वृक्ष में अपना घोसला बना लेती है।इस पक्षी से गोलू देवता को इतना प्यार होता है कि वे तम्बोला घुघुती को अपनी धर्म बहिन बना लेते हैं। तम्बोला घुघुती उस घोसले में अंडे देकर उनसे जन्मे बच्चों का बड़े स्नेह से पालन-पोषण करती है।

गोरिल देवता भी अपने भांजे-भांजियों को बहुत प्यार करते हैं। एक दिन जब तम्बोला घुघुती बाहर गई होती है, तब डोटीगढ़ नेपाल के ग्वाले आकर घुघुती का घोसला तोड़ कर, बच्चों को पटक कर मार देते हैं। जब तम्बोला घुघुती वापस आती है, तब अपने बच्चों को मृत देख खूब विलाप करती है। तब उसके आँसू गोलू देवता की कटार पर गिरते हैं। तब गोलू देवता अपनी बहन को रोते बिलखते देख गुस्सा हो जाते हैं। और अपनी धर्म बहिन तम्बोला छूछूती से सारा वृतान्त सुनकर गोलू बदला लेने के लिए, अपराधियों को दंडित करने के लिए डोटी गढ़ चले जाते हैं।

जब गोरिल देवता ने धर्म बहिन तम्बोला घुघूती की पुकार पर उजाड़ डाला डोटी गढ़

डोटी गढ़ के राजा और दरबारी सफेद घोड़े मे आए गोरिल देवता की बात सुनना छोड़ उसका मजाक उड़ाते तब गोलू देवता का गुस्सा भड़क गया। वहां भयंकर युद्ध छिड़ गया। गोलज्यू ने डोटीगढ़ को तहस नहस कर डाला। अपराधियों को दंड देकर जब गोल देव चम्पावत वापस आए, तब उन्होने अपने अमृत कलश से जल की बूंदें छिड़ककर बोला घूघूती के बच्चों को जिंदा कर दिया ।

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उत्तराखंड मौसम अपडेट: 17 और 18 जुलाई को अधिकांश स्थानों में होगी बारिश।

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उत्तराखंड मौसम अपडेट: 17 और 18 जुलाई को अधिकांश स्थानों में होगी बारिश।

उत्तराखंड मौसम अपडेट: मौसम विज्ञान के देहरादून केंद्र की जारी नयी रिपोर्ट के अनुसार आगामी 17 और 18 जुलाई को प्रदेश के सभी जिलों के अधिकांश स्थानों में बारिश होगी। मौसम विज्ञान के मौसम पर्वानुमान के आधार पर हम आप को बता दे की आने वाले 17 और 18 जुलाई को लगभग सभी जिलों में अच्छी खासी बारिश की संभावना हैं।

दिनांक 17 जुलाई को देहरादून, हरिद्वार, पौड़ी, चमोली, उधम सिंह नगर, नैनीताल, चंपावत, पिथौरागढ़, और बागेश्वर के अधिकांश (76-100%) इलाकों में बारिश की संभावना हैं। उत्तरकाशी, टिहरी, और रुद्रप्रयाग के अनेक स्थानो (51-75%) में बारिश हो सकती हैं।
वही दिनांक 18 जुलाई को देहरादून, उत्तरकाशी, टिहरी, रुद्रप्रयाग, पौड़ी, चमोली, उधम सिंह नगर, नैनीताल, चंपावत, पिथौरागढ़, और बागेश्वर के अधिकांश (76-100%) इलाकों में बारिश की संभावना हैं। हरिद्वार, और उधम सिंह नगर के अनेक स्थानो (51-75%) में बारिश हो सकती हैं।
उत्तराखंड मौसम अपडेट: 17 और 18 जुलाई को अधिकांश स्थानों में होगी बारिश।
दिनांक 19 जुलाई को देहरादून, उत्तरकाशी, टिहरी, रुद्रप्रयाग, पौड़ी, चमोली, उधम सिंह नगर, नैनीताल, चंपावत, पिथौरागढ़, और बागेश्वर के अनेक स्थानो (51-75%) में बारिश की संभावना हैं। तथा हरिद्वार, और उधम सिंह नगर के कुछ इलाकों (26-50%) में बारिश हो सकती हैं।

उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में रहने वाले लोगो और यहाँ घूमने आने वाले सभी लोगो से अनुरोध है की 17 और 18 जुलाई को मौसम की स्थिति को देख कर ही यात्रा करें। संभव हो तो अपनी यात्रा को स्थगित करें। बारिश के दिनों में पहाड़ी इलाकों में भूस्खलन की वजह से यात्रा में परेशानी आ सकती हैं। यात्रा के दौरान बारिश या भूस्खलन की वजह से कही आपातकाल की स्थिति में फसने पर प्रशासन द्वारा दिए गए हेल्पलाइन नंबर पर कॉल करे। साथ ही पुलिस प्रशासन द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन करें।

उत्तराखंड वासियों के लिए खुशखबरी: 60 साल पूरे होते ही स्वतः शुरू हो जाएगी वृद्धावस्था पेंशन

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उत्तराखंड वासियों के लिए खुशखबरी: 60 साल पूरे होते ही स्वतः शुरू हो जाएगी वृद्धावस्था पेंशन

देहरादून: उत्तराखंड वासियों के लिए खुशखबरी है। यह खुशखबरी उन लोगो के लिए हैं जिनको 60 साल पुरे होने वाले है। और भविष्य में वृद्धावस्था पेंशन पाना चाहते हैं। और उसके लिए कार्यवाही करेंगे। उत्तराखंड सरकार ने 60 साल की उम्र पूरी करने वाले सभी नागरिकों को स्वतः वृद्धावस्था पेंशन प्रदान करने का निर्णय लिया है। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने इस संबंध में अधिकारियों को निर्देश दिए हैं कि वे इस प्रक्रिया को सरल बनाएं ताकि लाभार्थियों को बिना किसी परेशानी के पेंशन मिल सके।

मुख्यमंत्री ने अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) समुदाय से जुड़े मामलों में भी तेजी लाने पर जोर दिया। उन्होंने निर्देश दिए कि इन समुदायों के खिलाफ दर्ज शिकायतों और मुकदमों का त्वरित निपटान किया जाए। मुख्यमंत्री धामी ने राज्य स्तरीय सतर्कता और अनुश्रवण समिति की बैठक की अध्यक्षता करते हुए यह निर्णय लिया। उन्होंने बैठक में एसी और एसटी आयोगों के अध्यक्षों को विशेष आमंत्रित सदस्य बनाने के निर्देश भी दिए।

मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी

यह बैठक 14 साल बाद आयोजित की गई थी। मुख्यमंत्री ने निर्देश दिया कि अब हर छह महीने में इस समिति की बैठक आयोजित की जाए। इस बैठक में वित्तमंत्री श्री प्रेम चन्द अग्रवाल ने कहा कि अधिनियम और विभागीय योजनाओं के बारे में लोगों को पूरी जानकारी हो। इसके लिए जिलास्तर पर बहुउद्देशीय कल्याण शिविरों और विकासखंड कार्यालयों का आयोजन हो और वॉल पेंटिंग एवं फ्लैक्स के माध्यम से भी प्रचार किया जाए।

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पंथ्या दादा – राजशाही और निरंकुशता के विरोध में बलिदान देने वाले पहले बालक

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पंथ्या दादा

पंथ्या काला उर्फ़ पंथ्या दादा को राजशाही और निरंकुशता के विरोध में बलिदान देने वाले पहाड़ के पहले बालक के रूप में याद किया जाता है। उन्होंने पौड़ी के सुमाड़ी गांव में राजा मेदनीशाह के निरंकुशता भरे निर्णय के विरोध में आत्मदाह कर लिया था। इस पोस्ट में हमारे प्रमुख सहयोगी प्रदीप बिल्जवान बिलोचन जी ने पंथ्या दादा की कहानी को काव्यात्मक रूप में लिखा है। उम्मीद है यह कहानी आपको पसंद आएगी।

पंथ्या दादा की कहानी काव्यात्मक रूप में –

वीर और स्वाभिमानी गाथा पंथ्या दादा की पौड़ी के सुमाड़ी गांव के वे स्वाभिमानी महापुरुष, पंथ्या दादा,अल्पावस्था में ही अनाथ हो जाते हैं । जो करके बलिदान अपना आज भी वहां पितर के, रूप में सदा से पूजे जाते हैं ।

कहानी इनकी पंवार वंश के राजा,
48 वें मेदिनिशाह से जोड़ी जाती है ।
जो गढ़वाल में राजशाही 1676 से,
1699 के बीच मानी जाती है ।

घटना यह साल 325 से पुरानी है ।
जब से पंथ्या दादा की कहानी गढ़ी जाती है ।
दौरान 1552 में राजा अजयपाल ने राजधानी,
जब चांदपुरगढ़ से देवलगढ़ बसाई जाती है ।

कुलदेवी मां गौरा ने तब काला नामक,
ब्राह्मणों को, सुमाड़ी का क्षेत्र दे दिया था ।
और कोई भी कर न लेने का आदेश भी दिया था ।
लगभग पौने 2 साल तक व्यवस्था यह चलती रही ।
लेकिन राजा अजयपाल के बाद उसके पुत्र,

मेदिनीशाह के दरबारियों को बात यह नहीं जची ।

सुमाडी गांव के सुखराम काला,
जो बजीर राजा मेदिनिशाह का था ।
दरबारियों को जो कतई नही भाता था ।
उन्होंने तब राजा के कान भरने शुरू कर दिए ।
कहा उन्होने तब राजा से कर गांव,
सुमाडी वालों से भी लेना शुरू कर दीजिए ।

राजा दरबारियों की बातों में आ गया ।
उसने भेज बजीर को कर देने का,
राजा का फरमान गांव सुमाडी वालों,
को राजा के आदेश के अनुसार दे आया ।

गांव वालों ने कर देने की बात से,
सरासर इनकार कर दिया ।
राजा ने तब इसे भी सरासर,
अपना अपमान समझ लिया ।

अब राजा ने सख्ती बरती और कहा,
या तो वे कर दें या फिर गांव छोड़ दें ।
बात यह तो घबराने वाली थी, तब रातों,
रात गांव वालों को पंचायत बुलाने वाली थी ।

पंथ्या दादा ने तब भरी पंचायत में कहा,
हम मर जाएंगे पर कर नहीं देंगे ।
तब राजा ने कहा कि यदि हम कर नही लेंगे ।
तो गांव में किसी एक की बलि देंगे ।

पंथ्या दादा - राजशाही और निरंकुशता के विरोध में बलिदान देने वाले पहले बालक

आदेश ही यह कुछ ऐसा था कि,
गांव वाले सारे घबरा गए ।
पर अपने स्वाभिमान पर जीने,
वाले पंथ्या दादा ने शब्द अपने,
तब वापस नहीं लिए ।

पंथ्या के भाई और भाभी ने तब यह सोचा कहीं,

कारण इसके गांव परेशानी में न पड़ जाए ।
और दिया आदेश दादा को कि वह ससुराल
फरासू, अपनी दीदी के यहां चला जाए ।
तब वह मानकर आज्ञा अपने भाई की,
ससुराल अपनी दीदी की वह पहुंच गया ।

एक दिन दीदी ने उसकी गायों को,
चुगाने जंगल में उसे भेज दिया ।

जाकर के जंगल थकान,
से कुछ सुस्ताने वही लगा ।
और सपने में अपनी कुलदेवी,
मां गौरा को देख सहसा जैसे जगा ।
मां गौरा ने तब कहा उससे कि,
राजा नहीं मान रहा है ।
विपदा का जैसे अब भान आ रहा है ।

सांय का वह तब समय था दीदी को,
बता वह गांव अपने सुमाडी चला गया ।
पहुंचकर वहां तब पंथ्या को देने को कुटुंब से,
उसके एक बलि को दिल को उसके तब दहला दिया ।

कहा पंथ्या दादा ने हमें अपनी ही परम्परा में रहना है।
स्वाभिमान से सर उठाकर हमें अब जीना है ।

पंथ्या दादा ने कहा कि विरोध में,
इसके मैं अब आत्मदाह करूंगा ।
मां गौरा के अग्निकुंड में तब कूदूंगा ।
16 साल की उमर में तब वह कुलदेवी,
मां गौरा के मंदिर में पहुंच गया ।
और नवाकर शीश मां को तब वह,
अग्निकुण्ड में जैसे निडर हो कूद गया ।
देखकर दृश्य यह उसकी पत्नी भद्रा
भी यह सब सहन नही कर पाई ।
और उसी अग्निकुंड में तब वह भी,
अपने प्राणों की आहुति दे आई ।

पहुंची राजा तक जब यह बात,
तो तब वह घबरा गया ।
कर दे न जनता कोई विद्रोह तो उसने,
कर को कुछ समय के लिए टाल लिया ।
गांव वालों ने तब राजा को ब्रह्महत्या,
का भय दिखलाया हो न उसके साथ कुछ,
अनहोनी भान इसका भी जतलाया।
राजा ने तब विधि विधान से मां,
भगवती का पूजा पाठ रचाया ।
राजा ने तब उनकी हर साल,
पूजा करने के वचन दिए ।
और सदा स्वाभिमान से जीने,
वाले,पंथ्या दादा तब हर इक,
वर्ष पितरों के रूप में पूजे गए ।

लेख और लेखक -पंथ्या दादा की कहानी को काव्य रूप में भेजने वाले प्रदीप बिलजवान जी उत्तराखंड के लिए समर्पित रचनाएँ देवभूमी दर्शन के लिए नियमित भेजते रहते हैं। ग्राम बमनगांव पोस्ट पोखरी पट्टी क्विलि जिला टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड के रहने वाले प्रदीप जी शिक्षा विभाग में कार्यरत हैं।

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