Wednesday, December 6, 2023
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रोजगार मेला लगने जा रहा है उत्तराखंड के रामनगर में।

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रोजगार मेला

नौकरी की चाह रखने वाले उत्तराखंड के नैनीताल जिले के बेरोजगार युवको के लिए खुशखबरी आई है। नवम्बर के अंत में रामनगर नैनीताल में रोजगार मेला लगने जा रहा है। जिसमे कई बेरोजगार युवक युवतियों को रोजगार मिलेगा। रामनगर नैनीताल के सेवानियोजन कार्यालय में आगामी 29 नवंबर 2023 को रोजगार मेला लगेगा जिसमे लगभग 8 कंपनियां भाग लेंगी

प्राप्त जानकारी के अनुसार रामनगर के रोजगार मेले में सुरक्षा गार्ड ,lic एडवाइज़र ,सेल्स और मार्केटिंग ,चाइनीज कुक , . फिल्ड कर्मचारी और किचन कुक की भर्ती होगी इस रोजगार मेले में भाग लेने के लिए अभ्यर्थियों को बायोडाटा ,शैक्षणिक प्रमाण पत्र , स्थाई निवास प्रमाण पत्र  व् चार फोटो लेकर आना होगा। इस रोजगार मेले में  स्थानीय युवक और युवतियों को रोजगार देने की चाह से पंतनगर ,सितारगंज ,देहरादून ,रुद्रपुर , हरिद्वार आदि जगहों की औद्योगिक इकाइयां भाग लेंगी और उत्तराखंड नैनीताल क्षेत्र के अधिकतम युवाओं को रोजगार देने की कोशी करेगी।

 

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बैकुंठ चतुर्दशी मेले का शुभारम्भ ! कमलेश्वर मंदिर में संतानप्राप्ति के लिए जागरण करेंगे दंपत्ति !

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बैकुंठ चतुर्दशी

श्रीनगर उत्तराखंड के प्रसिद्ध कमलेश्वर महादेव मंदिर में प्रसिद्ध बैकुंठ चतुर्दशी मेले का शुभारम्भ हो गया है। प्राप्त जानकारी के अनुसार कैबिनेट मंत्री श्री धन सिंह रावत ने मेले के अवसर पर पूजा अर्चना की। प्रत्येक वर्ष की तरह इस साल भी लगभग 200 से अधिक दंपत्ति संतान सुख की उम्मीद में प्रसिद्ध वैकुण्ठ चतुर्दशी के मेले में खड़ रात्रि जागरण करेंगे।

कमलेश्वर महादेव नाम से प्रसिद्ध शिव का मंदिर श्रीनगर गढ़वाल में स्थित है। मान्यता है की इस मंदिर का निर्माण गुरु शंकराचार्य जी ने किया था। उत्तराखंड के इस प्रसिद्ध मंदिर में भगवान शिव ,गणेश और गुरु शंकराचार्य जी की मूर्तियां स्थापित हैं।

बैकुंठ चतुर्दशी पर मिलता है संतान सुख का आशीर्वाद –

वैसे तो इस मंदिर में मुख्यतः तीन वार्षिक उत्सव मनाये जाते है। जो अचला सप्तमी , शिवरात्रि और बैकुंठ चतुर्दशी। वैकुण्ठ चर्तुदशी के दिन यहाँ भव्य मेला लगता है। और रात को निसंतान दंपत्ति संतान की उम्मीद में रात भर हाथ में दिया रखकर जागरण करते हैं। मान्यता है कि इस प्रकार पूजा करने से निसन्तानं दम्पतियों को भगवान् शिव संतान सुख का आशीर्वाद देते हैं।

क्या है खड़ रात्रि जागरण –

उत्तराखंड में मान्यता है कि खास त्योहारों या शुभ दिन हाथ में दीपक लेकर रात्रि भर देवता को स्मरण करने या साधना करने  से देवता संतान सुख का वरदान देते हैं। इस साधना को खड़े दिए की पूजा ,खड़रात्रि जागरण भी कहते हैं। उत्तराखंड के कमलेश्वर महादेव मंदिर के साथ साथ गणनाथ मंदिर ,जागेश्वर बागेश्वर ,कुर्मासिनी आदी मंदिरों में यह पूजा की जाती है।

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कमलेश्वर महादेव मंदिर में खड़ा दीया जागरण से होती है ,निःसंतानों की मनोकामना पूर्ति।

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कराचिल अभियान ! मुहमद तुगलक का पहाड़ जीतने का अधूरा सपना !

कराचिल अभियान ! मुहमद तुगलक का पहाड़ जीतने का अधूरा सपना !

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कराचिल अभियान ! मुहमद तुगलक का पहाड़ जीतने का अधूरा सपना !

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कराचिल अभियान

कराचिल अभियान के तहत मुहमद तुगल ने लाखों की विशाल सेना के साथ खुसरो मलिक को हिमालयी राज्य विजय करने हेतु  भेजा था। मुहमद तुगलक ने हिमालयी राज्यों पर सन 1328 में आक्रमण किया था। उसने एक विशाल सेना को हिमालयी राज्यों या एक खास राज्य को जीतने भेजा था। लेखकों ने मुहमद बिन तुग़लक के इस अभियान को कराचल ,काराचल ,करजल ,काराजिल ,कराजील आदी अलग -अलग नाम दिए हैं।

कहाँ था कराचिल राज्य –

कराचिल अभियान के बारे में तत्कालीन अफ्रीकन पर्यटक इब्नबतूता ने कराचल अभियान का विवरण कुछ इस प्रकार दिया है , ‘यह हिमालय का एक भाग था। यहां दिल्ली से लगभग प्रकार है- इसके अनुसार कराचल पर्वतीय घाटियों एवं नदी की गहरी खाइयों से युक्त एक पर्वतीय राज्य था। यहाँ 10 दिन में पहुंचा जाता था। इसका धरातल संकरी था। राज्य के दक्षिणीभाग में कृषियोग्य उत्तम भूमि थी जिस पर वहां के लोग कृषि किया करते थे। यहाँ के निवासियों की आजीविका कृषि एवं पशु (भेड़-बकरी पालन से चलती थी। यहाँ भोज्य पदार्थों का उत्पादन बड़ी मात्रा में होता था।

पर्वत श्रेणी के पादप्रदेश में जिदिया नगर था तथा मध्य में ऊंची पहाड़ी पर वारंगल नामक नगर था। राज्य में प्रवेश करने का एक ही मार्ग था, जो बहुत ही संकरा था। रास्ते के नीचे की ओर नदी की गहरी घाटी थी तथा ऊपर की ओर सीधा पर्वत था। मार्ग इतना संकरा था कि उससे केवल एक ही घुड़सवार एक बार में आगे बढ़ सकता था। एक बार में आगे बढ़ सकता था। वारंगल इसी मार्ग पर स्थित राज्य के सीमान्त पर समेहल नामक स्थान पर एक बौद्ध मंदिर था।

जहां चीनी यात्री दर्शन करने आते थे। ऊंचे पर्वतीय भाग में जहां वारंगल था वहां पर वर्षाकाल में घोर वर्षा होती थी, इतनी कि जितनी पर्वत श्रेणी के पादप्रदेश में भी नहीं होती थी। पहाड़ी ढालों पर, जिनसे होकर संकीर्ण मार्ग जाता था, बड़े आकार वाले वृक्षों के वन थे। और कराचल के नरेश की गणना महान् शक्तिशाली हिन्दू नरेशों में की जाती थी। उसके राज्य में सोने की खानें थी तथा कस्तूरी मृग मिलता था। वहां पर अनेक प्रकार के खनिज व बहुमूल्य रत्न भी मिलते थे।

फ्लॉप हुवा कराचिल अभियान पहाड़ों में नहीं टिक पाई मुस्लिम सेना –

इतिहासकारों  ने जिदिया की पहचान ‘चण्डिला’ के रूप में चांदपुर या हरिद्वार के निकटस्थ चण्डीघाट से तथा
वारंगल की पहचान श्रीनगर के निकटस्थ देवलगढ़ से करते हैं। इतिहासकार डबराल जी ने करांचल को केदारखंड राज्य माना है। कई इतिहासकारों ने इसे आधुनिक कुमाऊं माना है। अफ्रीकन पर्यटक इब्नबतूता ने माना है कि कराचील अभियान मुहमद तुगलग की बहुत बड़ी गलती थी। उसने पहाड़ी राज्यों को जितने के लिए एक विशाल  सेना तो भेजी लेकिन ,वह सेना पहाड़ी जंगली रास्तों पर भटक गई। पहाड़ी भौगोलिक राज्यों में तुगलक की सेना बुरी तरह मात खा गई। इत्तिहासकर इबनबबूता के अनुसार इस अभियान से केवल दस सैनिक ही जिन्दा वापस लौटे थे।
संदर्भ – उत्तराखंड ज्ञानकोष पुस्तक व इंटरनेट विकिपीडिया पर प्राप्त जानकारी के आधार पर ।
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बल्दिया एकास के रूप में मनाई जाती है कुमाऊं में हरिबोधनी एकादशी !

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बल्दिया एकास

उत्तराखंड का समाज मुख्यतः कृषक व् पशुपालक ही रहा है। आदिकाल से ही उत्तराखंड के निवासी मुख्यतः प्रकृति प्रेमी रहे हैं। पहाड़ की सीढ़ीदार खेतों और जल जंगल के बाद पशु उत्तराखंडियों की अमूल्य संपत्ति रहे हैं। पहले से ही दुधारू गाय /भैंस के साथ बैलों की जोड़ी का पहाड़ियों के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। वर्तमानं में पहाड़वासियों ने पशुपालन थोड़ा कम कर दिया है। लेकिन अधिकतर लोग अभी भी अपनी पारम्परिक जीवन शैली अपनाये हुए हैं। पशुओं के लिए अगाध स्नेह होने के कारण पहाड़वासियों ने अपने और प्रकृति के साथ -साथ पशुओं के लिए भी कई लोकोत्सव बनाये हैं। जिनमे खतड़ुवा ,ईगास ,बल्दिया एकास आदि लोकोत्सव प्रमुख हैं।

हरिबोधिनी एकादशी या कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन जहाँ उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल में ईगास पर्व मानते हैं ,जिसमे मूलतः दिन में पशुओं की सेवा की जाती है। रात को पारम्परिक दीवाली के रूप में भैल्लो खेलते हैं। इसी प्रकार हरिबोधनी एकादशी के उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में बल्दिया एकास नामक लोकोत्सव के रूप में मनाई जाती है। इस दिन बैलों के हल जोतने की छुट्टी रहती है। इस दिन बैलों को अच्छा भोजन और अच्छी ताज़ी घास दी जाती है। उनके सींगों में तेल से मालिश की जाती है। उनके सींगो को फूल मालाओं से सजाया जाता है। इस दिन सभी गाय ,बैलों को जौ के पिसे हुए पेड़े खिलाये जाते है। इस दिन उत्तराखंड के जौनपुर क्षेत्र में भी अपने पशुओं की सेवा की जाती है ,उन्हें दही चावल खिलाये जाते हैं।

बल्दिया एकास
फोटो साभार -फेसबुक

अतः कह सकते हैं कि हरिबोधनी एकादशी के दिन सम्पूर्ण उत्तराखंड में पशुओं को समर्पित लोकोत्सव मनाये जाते हैं। जिनके नियम व् परम्पराएं स्थानीय स्तर पर अलग – अलग होती हैं।

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इगास बग्वाल , उत्तराखंड का लोकपर्व || Igas festival in Uttarakhand

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इगास बग्वाल

इगास त्योहार या इगास बग्वाल ( egas festival ) उत्तराखंड का प्रसिद्ध लोकपर्व है। यह त्यौहार दीपावली पर्व के 11 दिन बाद मनाया जाता है। 2023 में इगास त्यौहार 23 नवंबर 2023 को  मनाया जाएगा। उत्तराखंड सरकार ने 2023 में भी उत्तराखंड सरकार ने ईगास त्यौहार पर सार्वजनिक अवकाश की घोषणा की हैं।

इगास बग्वाल का अर्थ I Meaning of egas festival

इगास का मतलब गढ़वाली भाषा मे एकादशी होता है। और बग्वाल का मतलब पाषाण युद्ध होता है। पहले पहाड़ो में राजा ,मांडलिक बरसात ऋतु खत्म होने के बाद प्रमुख त्योहारों को पत्थर युद्ध का अभ्यास करते थे। और इसी पत्थर युद्ध के अभ्यास को बग्वाल कहा जाता है। कालांतर में पत्थर युद्ध का अभ्यास बंद हो गया लेकिन बग्वाल के नाम पर अन्य उत्सव जुड़ गए। अब केवल रक्षाबंधन की बगवाल पर देवीधुरा में पत्थर युद्ध का अभ्यास किया जाता है।

जैसे :दीपावली को कुमाऊं और गढ़वाल में बग्वाल शब्द से संबोधित किया जाता है। कार्तिक मास शुक्लपक्ष की एकादशी को मनाई जाने वाली दीपावली को इगास बग्वाल ( Egaas bagwal )कहा जाता है। उत्तराखंड गढ़वाल में 4 बग्वाल होती हैं। प्रथम बग्वाल कार्तिक माह की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को होती है। दूसरी बग्वाल कार्तिक अमावस्या को मनाई जाती है।

यह बग्वाल (दीपावली ) पूरे देश में मनाई जाती है। उत्तराखंड गढ़वाल की तीसरी बग्वाल ,जिसे बड़ी बग्वाल भी कहते हैं, यह कार्तिक माह की एकादशी को इगास बग्वाल के रूप में मनाई जाती है। और चौथी बग्वाल जिसे रिख बग्वाल कहते हैं। इस चौथी बग्वाल को गढ़वाल के प्रतापनगर, जौनपुर, चमियाला,थौलधार, रवाईं और जौनसार क्षेत्र में बूढ़ी दीवाली के रूप में मनाई जाती है। यह चौथी बग्वाल ,दूसरी बग्वाल के ठीक एक माह बाद मनाई जाती है। इसी

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क्यों मनाई जाती है इगास बग्वाल | Igas festival 2023 –

इगास त्योहार मनाने के विषय मे उत्तराखंड में अनेक धारणाएं और मान्यताएं प्रचलित है। पहली मान्यता के अनुसार , सारे देश मे दीपावली भगवान राम के अयोध्या आगमन की खुशी में दीपावली पर्व मनाया जाता है। लेकिन कहते हैं कि उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में भगवान राम के लौटने की खबर 11 दिन बाद मिली इसलिए पहाड़ों में 11 दिन बाद खुशियां मनाई गई । लेकिन इस मान्यता के पीछे तर्क मजबूत नहीं है। क्योंकि उत्तराखंड के पहाड़वासी , इगास के साथ आमावस्या वाली दीपावली भी मनाते हैं ।और इगास उत्तराखंड के कुछ भागों में मनाई जाती है। और उत्तराखंड के अनेक भागों में अलग अलग तिथियों को बूढ़ी दीपावली मानाते हैं।

ईगास बग्वाल मनाने के पीछे सबसे सटीक कारण उसके नाम में छुपा है। ईगास बग्वाल मतलब एकादशी को किया जाने वाला पत्थर युद्ध अभ्यास । कालांतर में पत्थर युद्ध के अभ्यास की परंपरा खत्म हो गई और कार्तिक एकादशी के दिन उत्तराखंड के वीर भड़ श्री माधो सिंह भंडारी तिब्बत विजय करके लौटे तो उनकी विजय के उपलक्ष में इस दिन उत्सव मनाया गया। और वीर माधो सिंह भंडारी और गढ़वाल की सेना के युद्धरत होने के कारण ,हो सकता प्रजा ने भी अमावस्या की दीपावली नही मनाई और विजय मिलने के बाद ही सबने साथ में खुशियां मनाई । और प्रतिवर्ष उत्तराखंड गढ़वाल में यह पर्व विजयोत्सव के रूप में मनाया जाता है।
इगास बग्वाल मनाने के पीछे यह मान्यता तार्किक लगती है। अतः हम कह सकते हैं कि इगास ( egaas festival ) उत्तराखंड का विजयोत्सव है।

इगास बग्वाल

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इगास त्योहार से जुड़ी लोक कथा ( Story of Igas festival )-

इगास त्योहार से एक स्थानीय लोक कथा भी जुड़ी है। उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में भैलो खेल कर बग्वाल ( दीपावली ) मनाई जाती है। कहा जाता है,कि उत्तराखंड गढ़वाल में किसी एक गाव में रहने वाला व्यक्ति ,अमावस्या की बग्वाल ( दीपावली के दिन ) के दिन भैलो खेलने के लिए,छिलके लेने जंगल गया और 11 दिन तक वापस नही आया। 11वे दिन जब वह व्यक्ति वापस आया तब यह पर्व मनाया गया। तब से बग्वाल को भैलो खेलने की परम्परा शुरू हुई।

कैसे मनाते हैं इगास त्यौहार ? | Egaas festival 2023

मुख्य दीपावली पर्व की तरह भी इगास बग्वाल को भी घरों में साफ सफाई और दीये जलाए जाते हैं। इस त्यौहार के दिन गाय ,बैलों को पौष्टिक भोजन कराया जाता है। बैलों के सींगों में तेल लगाया जाता है। गोवंश के गले मे माला पहनाकर उनकी पूजा करते हैं। बग्वाल पर्व पर गढ़वाल में बर्त खींचने की परंपरा भी है। यह बर्त का मतलब है, मोटी रस्सी ।

इस पर्व पर भैलो खेलने की परम्परा है। भैलो चीड़ या भीमल आदि की लकड़ियों की गठरनुमा मशाल होती है। जिसे रस्सी से बांधकर शरीर के चारो ओर घुमाते हैं। तथा खुशियां मनाते हैं।हास्यव्यंग करते हुए ,लोक नृत्य और लोककलाओं का प्रदर्शन भी इस दिन किया जाता है। कई क्षेत्रों में पांडव नृत्य की प्रस्तुतियां भी की जाती हैं।

इगास बग्वाल की शुभकामनाएं || Happy egas bagwal

इस पर्व के अवसर पर उत्तराखंड वासी खुशियां मनाते हुए एक दूसरे को इगास त्यौहार की शुभकामनाएं देते हैं। इगास ( egaas ) के शुभावसर यह लोक गीत गाया जाता है।

सुख करी भैलो, धर्म को द्वारी, भैलो।

धर्म की खोली, भैलो जै-जस करी

सूना का संगाड़ भैलो, रूपा को द्वार दे भैलो।।

खरक दे गौड़ी-भैंस्यों को, भैलो, खोड़ दे बाखर्यों को, भैलो

हर्रों-तर्यों करी, भैलो।

भैलो रे भैलो, खेला रे भैलो।

बग्वाल की राति खेला भैलो।।

बग्वाल की राति लछमी को बास

जगमग भैलो की हर जगा सुवास

स्वाला पकोड़ों की हुई च रस्याल

सबकु ऐन इनी रंगमती बग्वाल

नाच रे नाचा खेला रे भैलो।

अगनी की पूजा, मन करा उजालो

भैलो रे भैलो।।।

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बोराणी का मेला ,- संस्कृति के अद्भुत दर्शन के साथ जुवे के लिए भी प्रसिद्ध है यह मेला।

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बोराणी का मेला

दीपावली के ठीक 15 दिन बाद कार्तिक पूर्णिमा को पिथौरागढ़ के बोराणी नामक स्थान पर सैम देवता के मंदिर में लगता है  प्रसिद्ध बोराणी का मेला। संस्कृति के अद्भुत  रूप दर्शनों के साथ जुवे के लिए भी प्रसिद्ध है यह मेला। यह उत्तराखंड के अन्य मेलों के सामान यह मेला भी धार्मिक और व्यवसायिक है। इस मेले की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इस मेले के लिए नजदीकी पुलई और चापड़ गांव के बोरा उपजाति के लोग ढोल दमु के साथ नाचते गाते बाइस फ़ीट ऊँची पहाड़ी मशाल ( पके हुए चीड़ के तने से फाड् कर निकाली हुई ) लाते हैं। इस मशाल को मंदिर के पास गाढ़ दिया जाता है।

रात भर इसी मसाल के उजाले में लोग नाचते गाते रहते हैं। दूसरे दिन सुबह दर्शन और पूजा पाठ करके अपने घरों को  जाते हैं। दूसरी तरफ मेला इस इलाके में जुवे के लिए भी प्रसिद्ध है। इस मेले में पहले स्थानीय जुवारियों के अतिरिक्त बाहर से आने वाले जुवारी भी अड्डा लगाने लगे थे। लेकिन प्रसाशन के हस्तक्षेप के बाद इसमें काफी कमी आ गई है।

बोराणी का मेला

आर्थिक रूप से इस मेले में पानी के घराटों के पत्थर के पाट और पत्थर के बर्तन और सिलबट्टे काफी प्रसिद्ध थे। इस अलावा यहाँ के कुलथीया बोरा लोगों द्वारा बनाये गए भांग के रेशो का खूब व्यपार होता था। कुमाऊं और नेपाल क्षेत्र के लोग बड़ी संख्या में यहाँ आकर खरीदारी करते हैं। बोराणी का मेला उत्तराखंड के प्रसिद्ध सांस्कृतिक मेलों में एक है।

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बौखनाग देवता नामक लोक देवता के प्रकोप का परिणाम है उत्तरकाशी टनल हादसा ?

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बौखनाग देवता
बौखनाग देवता की कहानी

उत्तरकाशी टनल हादसे में अभी भी 40 मजदूरों की जान हलक में अटकी है। तमाम प्रयासों के बावजूद प्रसाशन अभी तक मजदूरों को बाहर निकालने में सफल नहीं हुवा है। इस हादसे का असल कारण क्या था ? वो बाद की तकनीकी जांचों पता चल जायेगा। लेकिन फ़िलहाल स्थानीय ग्रामीणों के अनुसार यह हादसा क्षेत्र  शक्तिशाली लोक देवता बौखनाग देवता के प्रकोप के कारण हुवा है।

टाइम्स ऑफ़ इंडिया में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक पुराने मनेजमेंट ने पहले टनल के बहार एक देवता का एक छोटा सा मंदिर बनाया था। सभी अधिकारी और मजदूर वहां पूजा करके और सर झुका कर अंदर जाते थे। बाद में नए मैनेजमेंट वो मंदिर तोड़ दिया। और स्थानीय लोगों का मानना है कि इसी कारण लोकदेवता रुष्ट हो गए ,जिनके क्रोध के कारण आज यह दिन देखना पड़ा। स्थानीय ग्रामीणों का मानना है कि यह देवभूमि है। यहाँ की सारी जमीन और प्राकृतिक सम्पदा देवताओं की है। जिनका उपयोग करने से पूर्व लोकदेवताओं की आज्ञा लेना जरुरी है।

कौन हैं बौखनाग देवता –

यह टिहरी गढ़वाल, उत्तरकाशी , उत्तराखंड गढ़वाल के पक्षिमोत्तर क्षेत्रों रवाईं एवं भण्डारस्यूं पट्टियों के बहुपूजित नाग देवता हैं। इनका मंदिर रवाईं के  ग्राम भाटिया में है। और इनका एक और मंदिर राड़ी में भी है। इनके पुजारी डिमरी जाती के ब्राह्मण होते हैं। जेठ के महीने में बौखनाग देवता का उत्सव होता है। इनके उत्सव में दूर -दूर तक के लोग सम्मिलित होते हैं। अच्छी फसल और परिवार की सुख समृद्धि के लिए इस उत्सव का आयोजन किया जाता है। उत्सव में स्थानीय लोग अपने लोक गीतों पर जमकर झूमते हैं और अपने आराध्य देव से मनोतिया मंगाते हैं।

यह मेला 12 गांव भाटिया, कफनोल कंसेरू, उपराड़ी, छाड़ा, नंदगांव, चक्कर गांव, चेसना, कुंड, हुडोली आदि गांव के लोकदेवता बौखनाग देवता का मेला है। भाटिया, कफनोल, कंसेरू, नंदगांव में देवता के चार मंदिर हैं। प्रत्येक मंदिर में एक साल के लिए देवता प्रवास करते हैं. 12 गांव में देवता की डोली यात्रा करती है । यात्रा के दौरान हर गांव में देव डोली रात्रि विश्राम करती है । देवता के उत्सव में आराध्य देव से प्रार्थना पूरी होने पर लोग उन्हें छतर चढ़ाते हैं । इसके साथ ही विशाल भंडारे का आयोजन होता है । देवता के मंदिर के पुजारी पर पश्वा अवतरित होते हैं,और वे  मेले में आये हुए ग्रामीणों को अपना आशीर्वाद देते हैं।

इनका मूलस्थान रवांई और भण्डारस्यूं पट्टियों के बीच स्थित पर्वत ( डांडा ) को माना जाता है। सम्पूर्ण रवाई क्षेत्र  में इस देवता  की जय जय कार होती है

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उत्तराखंड के नागदेवता | नागराजा | नागथात | कुमाऊं की नागगाथा |उत्तराखंड के प्रमुख नाग मंदिर

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गंगोत्री ,यमुनोत्री और केदारनाथ धाम के कपाट बंद ! बद्रीनाथ के कपाट 18 को बंद होंगे !

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गंगोत्री

उत्तराखंड के चार धाम कपाट अपने नियत समय पर बंद होने शुरू हो गए हैं। गंगोत्री ,यमुनोत्री और केदारनाथ के कपाट बंद हो गए हैं। मंगलवार 14 नवंम्बर 2023 को गोवर्धन पूजा के दिन गंगोत्री धाम के कपाट बंद हुए। तय मुहूर्त पर गंगोत्री धाम के कपाट बंद हुए और माँ गंगा की डोली मुखबा के लिए रवाना हुई। अब अगले छह महीने तक माँ गंगा की पूजा और दर्शन मुखबा में होंगे।

भाईदूज पर यमुनोत्री धाम कपाट और केदारनाथ के कपाट बंद हुए। माँ यमुना के अगले छह माह तक खरसाली में दर्शन होंगे। तथा इस समयावधि में माँ की पूजा अर्चना भी वही होगी। इसी अवसर पर सुबह 8 :30 पर केदारनाथ धाम के कपाट भी बंद हो गए हैं। 14 नवंबर के दिन मंगलवार दिन  बाबा केदार की पंचमुखी मूर्ति को विधि-विधान और पूजा-अर्चना के साथ भंडारगृह से मंदिर के सभामंडप में विराजमान कर दिया गया था। भाईदूज के दिन सुबह 4 बजे स्वयंभू शिव लिंग को भस्म फूल इत्यादि से ढककर समाधी रूप दे दिया गया।

इसके साथ ही सुबह मंदिर के गर्भगृह में पूजा-अर्चना शुरू हुई। बाबा केदारनाथ  की चल उत्सव विग्रह डोली केदारनाथ धाम से शीतकालीन गद्दीस्थल ओंकारेश्वर मंदिर ऊखीमठ के लिए रवाना हुई। 17 नवंबर 2023 बाबा केदारनाथ छह मास की शीतकालीन पूजा के लिए ओंकारेश्वर मंदिर में विराजमान हो जाएंगे। 18 नवंबर 2023 को बद्रीनाथ धाम  कपाट बंद हो जायेंगे। बद्रीनाथ कपाट बंद करने हेतु पंचपूजा 14 नवंबर से शुरू गयी है। जो 18 नवंबर तक चलेंगी। उसके बाद पूर्ण विधि-विधान के साथ शाम 3 बजकर 33 मिनट पर बद्रीनाथ धाम के कपाट शीतकाल के लिए बंद हो जायेंगे।

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उज्याव संगठन की तरफ से जल्द हल्द्वानी में होने जा रहा है कुमाउनी भाषा युवा सम्मलेन !

छोटी दीपावली पर खास होता है उत्तराखंड का यमदीप उत्सव या यमदीप मेला।

जड़ी-बूटी मंडी मजबूत करेगी पहाड़ों की ग्रामीण आर्थिकी: डा. महेन्द्र राणा

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महेंद्र सिंह धोनी पहुंचे नैनीताल! बाबा नीम करौली जी के दर्शन करेंगे।

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महेंद्र सिंह धोनी

प्राप्त जानकारी के अनुसार भारतीय टीम के पूर्व कप्तान और भारतीय क्रिकेट में अब तक के सबसे सफल कप्तान महेंद्र सिंह धोनी उत्तराखंड नैनीताल पहुंच गए हैं। सूत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार धोनी नैनीताल में बाबा नीम करोली के दर्शन करेंगे। इससे पहले विराट अनुष्का भी बाबा नीम करौली के दर्शन करने आ चुके हैं। लोग बताते हैं कि बाबा नीम करोली के आशीर्वाद से विराट अपनी जीवन की नई सफलताओं को चूम रहे हैं ,और व्यवहार में भी काफी परिवर्तन है। इनके अलावा कई बड़ी -बड़ी हस्तियां बाबा नीम करोली का आशीर्वाद ले चुकी हैं। कैंची धाम में प्रतिदिन भक्तों की भीड़ बाबा के आशीष के लिए आती रहती है।

महेंद्र सिंह धोनी

यह तो सर्वविदित है कि बाबा के आशीष प्राप्त भक्तों की फेहरिस्त में एप्पल कम्पनी के संस्थापक स्टीव जॉब्स और फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग भी शामिल हैं। अब महेंद्र सिंह धोनी अपनी मन्नतों के साथ बाबा के चरणों में आएं हैं। जैसा कि सर्वविदित है कि महेंद्र सिंह धोनी उत्तराखंडी मूल के हैं। उनका गांव उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में अल्मोड़ा -जागेश्वर विधानसभा के अंतर्गत ल्वाली  गांव में पड़ता है। धोनी के उत्तराखंड पहुंचने की खबर से उनके ग्रामवासी भी उत्साहित हैं। उनको विश्वास है कि धोनी अपने भाई बंधुओं से मिलने अपने पैतृक गावं अवश्य आएंगे।

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गोवर्धन पूजा से अलग होती है कुमाऊं की गोधन पूजा या गाखिले त्यार !

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गोवर्धन पूजा
फोटो साभार माननीय मुख्यमंत्री जी के सोशल मीडिया हैंडल से

गोवर्धन पूजा दीपावली के दूसरे दिन मनाया जाने वाला त्यौहार है। जिसमे वृज के गोवर्धन पर्वत की पूजा की जाती है। कहते हैं द्वापर युग में भगवान् कृष्ण ने यह पूजा इंद्र देव का घमंड चूर करने के लिए शुरू करवाई थी। तबसे आज तक नियत दिन पर यह पूजा पुरे विधिपूर्वक होती है। मगर क्या आपको पता है ? उत्तराखंड के पहाड़ी हिस्से में  खासकर कुमाऊं मंडल में यह पूजा जा नहीं होती बल्कि गोवर्धन पूजा के नाम पर या उसकी जगह पर गोधन पूजा होती है। जिसमे स्थानीय निवासी अपनी पशुधन की पूजा करते हैं और उनकी सेवा और पूजा करके आभार प्रकट करते हैं।

गोवर्धन पूजा दिवाली के दूसरे दिन मनाये जाने के कारण लोग इसे वृज वाली गोवर्धन पूजा मान लेते हैं। और यह नाम में भी मिलता जुलता है। किन्तु पहाड़ की गोधन पूजा मैदानों की गोवर्धन पूजा से अलग है। यह पहाड़ का अपना एक पशुउत्सव है। और गोवर्धन पूजा एक पर्वोत्सव है। कुमाऊँ के ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों  में इस दिन प्रात:काल ‘गोधन’ (गायों तथा बैलों) के सींगों में घी मलकर कच्ची हल्दी को पीसकर मठे में मिलाये गये चावल के घोल से किसी खुले मुंह के पात्र, गिलास, कटोरी आदि से इनके सम्पूर्ण शरीर में थापे (ठप्पे) लगाये जाते हैं। कई जगह केवल चावल भीगा कर उन्हें पीस कर ठप्पे लगाए जाते हैं। 

इन थापों को माणा कहा जाता है। तथा उन्हें खाने के लिए बढ़िया दाना तथा चारा दिया जाता है। उनकी घंटियाँ के नये डोरे लगाये जाते हैं, सिरों को फूलों से सजाया जाता है। गले में भी फूलमाला डाली जाती है।  घर में खीर, हलवा, पूड़ी बनाये जाते हैं। थापा लगाने वाला ग्वाला हलवा-पूड़ी को एक गमछे या वस्त्र खण्ड के दोनों कोनों पर बांध कर अपने कन्धे में आगे-पीछे लटका कर थापा लगाते हुए मंगल कामनात्मक गीत की पंक्तियों को दुहराता जाता है। ‘

गोधनि म्हारा (महाराज) की लतकनि भारी,

थोरि दे बाछि दे’

अर्थात ‘हे गोधन देवता तुम हमारी गायों की बच्छियां तथा भैंसों की कट्टियां (थोरिया) देना। कुमाऊं के कतिपय हिस्सों में गोवर्धन पूजा ( गोधन पूजा ) के गोशाला में गोधन की पूजा करते हुए छोटी सी मथनी से छास भी बनाई जाती है। कुमाऊं के पहाड़ी हिस्सों में यह गाखिले त्यौहार के नाम से भी जाना जाता है। इसके बाद पहाड़ों में इस दिन च्यूड़ कुटाई का कार्य किया जाता है। जिसकी दूसरे दिन बगवाई या दुतिया त्यौहार पर कुलपुरोहित प्राण प्रतिष्ठा करते हैं और कुल देवों को चढ़ने के बाद आपस में प्रसाद स्वरूप बितरित किये जाते हैं। 

पहाड़ में मनाये जाने वाले इस पर्व की मानाने की विधि और परम्पराएं  गोवर्धन पूजा से अलग होने के कारण इस बात की पुष्टि हो जाती है कि यह पहाड़ के स्थानीय लोगों का अपना लोकपर्व है। जिसमे नाम साम्य होने के कारण हम वृज  की गोवर्धन पूजा का स्वरूप मान लेते हैं।

नोट – इस लेख की फीचर फोटो माननीय मुख्यमंत्री जी के सोशल मीडिया हैंडल से और दूसरी फोटो  रेखा बोरा जी सोमेश्वर घाटी पेज के सहयोग से संकलित की गई है। इस लेख के संकलन में उत्तराखंड ज्ञानकोष पुस्तक का सहयोग भी लिया गया है। 

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