Friday, June 9, 2023
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प्रतिभा थपलियाल , उत्तराखंड की पहली महिला बॉडी बिल्डर भारत की तरफ से वर्ल्ड चैम्पयनशिप खेलेंगी।

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प्रतिभा थपलियाल

उत्तराखंड की पहली महिला बॉडी बिल्डर प्रतिभा थपलियाल का चयन नेपाल में होने वाले एशिया बड़ी बिल्डिंग चैम्पयनशिप और साउथ कोरिया में होने वाले वर्ल्ड बॉडी बिल्डिंग प्रतियोगिता के लिए हुवा है। उत्तराखंड की प्रतिभा थपलियाल का चयन छह से बारह सितम्बर नेपाल की राजधानी काठमांडू में होने वाली एशिया बॉडी बिल्डिंग चैम्पियनशिप तथा 30 अक्टूबर से 06 नवंबर तक होने वाली वर्ल्ड बॉडी बिल्डिंग चैम्पियनशिप साउथ कोरिया ,सिओल के लिए हुवा है।

प्रतिभा पुरे देश में एकलौती महिला हैं जिनका चयन इस प्रतियोगिता के लिए हुवा है। गोवा में बॉडी बिल्डर फेडरेशन की ओर आयोजित ट्रायल में लगभग 23 महिला बॉडी बिल्डरों ने अपनी प्रतिभा दिब्लड खाई। लेकिन उनमे से केवल उत्तराखंड की प्रतिभा थपलियाल का चयन हुवा।

कौन है प्रतिभा थपलियाल –

उत्तराखंड की पहली महिला बॉडी बिल्डर के नाम से मशहूर प्रतिभा थपलियाल उत्तराखंड के पौड़ी जिले की यमकेश्वर ब्लॉक की निवासी है। प्रतिभा के पति भूपेश थपलियाल देहरादून में कपड़ों का व्यवसाय करते हैं। प्रतिभा के बॉडी बिल्डिंग क्षेत्र में जाने का कारण एक बीमारी रही। 2008 में जब प्रतिभा का दूसरा बेटा हुवा तो उसके बाद प्रतिभा थकान और कम प्रेशर का शिकार हो गई। लेकिन वो ऐसे ही काम करती रही और अपने पति का हाथ भी बटाते रही। 2014 में जब बर्दाश्त से बहार हो गया तो वो डॉक्टर के पास गई।  तब उन्हें पता चला कि उन्हें खतरनाक स्तर का थाइराइड है। दवाई से थाइराइड कंट्रोल हो गया लेकिन वजन काम करने के लिए उन्हें जिम ज्वाइन करना पड़ा।

धीरे -धीरे उनके पति को लगने लगा कि प्रतिभा के शरीर में बॉडी बिल्डिंग की संभावनाएं है। तब उन्होंने बॉडी बिल्डिंग प्रतियोगिता को ध्यान में रख कर जिम ज्वाइन करके तैयारी शुरू कर दी। उन्हें इस कार्य के लिए पति का पूरा साथ मिला।  इसी  का नतीजा था कि कुछ महीनों की तैयारी के बाद 2022 में  सिक्किम में हुई बॉडी बिल्डिंग प्रतियोगिता में प्रतिभा को चौथा स्थान मिला। साल 2023 में रतलाम में हुई प्रतियोगिता में गोल्ड जीतकर सबकी नजरों में छा गई। एशिया चैम्पियनशिप और विश्व चैम्पियनशिप में अब उत्तराखंड को ही नहीं समस्त भारत को प्रतिभा से उम्मीदें हैं।

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बिमाता / बिमाई – पहाड़ में नवजात शिशुओं की रक्षक माता !

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बिमाता

दुनिया में सभी मानव जातियों की तरह हिमालयी जनजीवन कई सामाजिक व् सांस्कृतिक मान्यताएं मानी जाती हैं। इसी प्रकार उत्तराखंड व् हिमालयी क्षेत्रों में भी अलग अलग मान्यताएं मानी जाती हैं। उनमे से एक मान्यता हिमालयी क्षेत्रों नवजात शिशुओं को लेकर मानी जाती है। पहाड़ों में जब नवजात शिशु ( 6 माह से छोटे ) सुप्तावस्था अथवा जागृत अवस्था में बिना किसी कारण मुस्कराते हैं या रोते हैं , तो बड़े बुजुर्ग कहते हैं उन्हें बिमाता या बिमाई हँसा या रुला रही है।

पहाड़ी समाज में यह मान्यता रही है कि नवजात शिशुओं के साथ बिमाता नामक शक्ति रहती है ,जो बच्चों की नकारात्मक शक्तियों से रक्षा करती है। और शिशुओं  का मनोरंजन करती है उन्हें हसाती है या रुलाती है। कई लोग मानते हैं 6 माह तक शिशुओं को अपने पूर्व जन्म की याद रहती है ,इसलिए वे अपने पूर्व जन्म की यादों में मुस्कराते या रोते हैं। उनकी इस क्रिया को या इस क्रिया कराने वाली को बिमाता कहते हैं।

इस प्रकार के विधिमाता / बिमाई के सहचर्य की धारणा  हिमालयी क्षेत्र के अन्य समाजों में पायी जाती है। हिमांचल प्रदेश के कई क्षेत्रों में यह मान्यता मानी जाती है। वहाँ संतान के जन्म पर बिहिमाई / विधिमाता का पूजन किया जाता है। उत्तराखंड के दक्षिण -पूर्वी क्षेत्र के निवासियों थारू जाती के लोगो में नवजात शिशु की नकारात्मक शक्तियों से रक्षा के लिए प्रसूति गृह या जहाँ प्रसूता रहती है ,वहां बेमइया या विमाता का चित्रांकन किया जाता है।

उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में बिमाता का रेखांकन तो नहीं किया जाता है ,लेकिन यह मान्यता है कि जब तक शिशु सांसारिक व्यक्तियों या सांसारिक वस्तुओं के प्रति सचेत होता है , तब तक शिशु बिमाता के सम्पर्क में रहता है।

नोट-

  • हिमालयी व् थारू संदर्भ के लिए उत्तराखंड लोकजीवन एवं लोक संस्कृति किताब का सहयोग लिया गया है।
  • उत्तराखंड की समृद्ध संस्कृति पर आधारित यह लेख अच्छा लगा हो तो सोशल मीडिया बटनों के माध्यम से शेयर करने की कृपा करें।

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मुक्ति कोठरी – उत्तराखंड में दुनिया की सबसे डरावनी जगह का रहस्य !

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मुक्ति कोठरी – उत्तराखंड में दुनिया की सबसे डरावनी जगह का रहस्य !

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उत्तराखंड को एक तरफ देवभूमि कहा जाता है। यहाँ एक से बढ़कर एक तीर्थ धाम हैं। उत्तराखंड के पहाड़ों में देवो और ऋषिमुनियों का वास है। वहीं इसकी मनमोहक सुंदरता और मन सुकून देने वाला शांत वातावरण हर किसी को यहाँ कुछ पल बिताने पर मजबूर कर देता है। लेकिन इसके अतिरिक्त इन शांत पहाड़ों का अपना डरावना इतिहास भी है। जिसके बारे में जानकार अच्छे सिहर जाते हैं। वैसे तो उत्तराखंड के शांत पहाड़ों में कई डरावने स्थान हैं लेकिन चम्पावत जिले में  लोहाघाट के एबट माउंट की मुक्ति कोठरी को उत्तराखंड का सबसे अधिक डरावना स्थान माना जाता है।

लोहाघाट से 8 किलोमीटर ,चम्पावत से 22 किमी तथा पिथौरागढ़ से 56 किलोमीटर दूर एबॉट माउंट नाम से प्रसिद्ध क़स्बा है। प्राकृतिक सुंदरता से भरपूर यह स्थान समुद्रतल से लगभग 6400 फ़ीट की ऊंचाई पर स्थित है। यहाँ से हिमालयी चोटियों के भव्य दर्शन होते हैं। यहाँ से पंचाचूली त्रिशूल ,कंचनजंगा  चोटियों  नयनाभिराम दर्शन स्पष्ट होते हैं। हिमालयी तलहटी पर सबसे सुन्दर जगहों में से एक माने जाने वाले इस स्थान को सन 1920 के आसपास एबॉट नामक ऑस्ट्रेलियन सज्जन ने खरीद लिया था। उनका पूरा नाम जान हैराल्ड एबॉट था। उन्ही के नाम पर इस स्थान का नाम एबॉट माउंट रखा गया। यह स्थान यूरोपीय शैली में बसा हुवा है।

यहाँ लगभग 16 के आसपास हवेलियाँ हैं और एक पुराना चर्च तथा एक कब्रिस्तान भी है। इसके अलावा यहाँ मुक्ति कोठरी (mukti kothri Uttarakhand ) नामक एक बांग्ला भी हैं। जिसके बारे में कहा जाता है कि यह बांग्ला दुनिया का सबसे भयानक भूतिया बांग्ला है। इस बंगले के बारे के टेलीविजन में भी कई प्रोग्राम आ चुके हैं। शोधकर्ताओं को भी इस स्थान के आस -पास नकारात्मक शक्तियों का अहसास हुवा है।

मुक्ति कोठरी

हम जिसे आज मुक्ति कोठरी के नाम से जानते हैं,इस स्थान पर अंग्रेजों के समय एक ख़ूबसूरत बंगला हुआ करता था।   जिसमे एक अंग्रेज परिवार रहता था। इस बंगले का नाम अभय बांग्ला या एबी बांग्ला था। इस बंगले का नाम इस बंगले के मालिक के नाम पर पड़ा था। इस बंगले का निर्माण 1900 के आस पास बताया गया है। कुछ समय बाद उस परिवार ने इस बंगले को अस्पताल बनाने के लिए दान में दे दिया था। इस अस्पताल में दूर दराज से लोग अपना इलाज कराने के लिए आते थे। अस्पताल बनने के लगभग एक साल बाद एक अजीब स्वभाव का डॉक्टर इस अस्पताल में आया।  उसका नाम डॉक्टर मोरिस था।

यह डॉक्टर लोगों को जीवनदान देना छोड़कर उनकी मृत्यु  तारीख की भविष्यवाणी करता था। और मरीज की मृत्यु की तारीख नजदीक आने पर उस मरीज को एक खास वार्ड में शिफ्ट कर देता था ,जिसका नाम मुक्ति कोठरी रखा था। कहते हैं कि डॉक्टर सनकी था ,अपनी सनक पूरी करने के लिए वो उन मरीजों मृत्यु की नींद में सुला देता था। कई लोग मानते हैं कि वह डॉक्टर एक शोधार्थी था। और असाध्य रूप से पीड़ित मरीज को वह मुक्ति कोठरी नामक वार्ड में शिफ्ट कर देता था। वहां उन पर जीवन मृत्यु से जुड़े प्रयोग करता था। उसके इन्ही प्रयोगों के बीच वे मरीज मृत्यु को प्राप्त हो जाते थे। डॉक्टर मोरिस की भविष्यवाणियां सच होने के कारण वे जनता के बीच काफी लोकप्रिय हो गए थे।

कहते हैं डॉक्टर मोरिस द्वारा मुक्ति कोठरी में मृत्यु को प्राप्त सैकड़ों मरीजों की आत्मा आज भी एबी बंगले में तथा उसके आस पास भटकती है। उत्तराखंड का यह स्थान दुनिया के सबसे डरावने स्थानों में गिना जाता है। प्रकृति का सबसे सुरम्य स्थान दुनिया के सबसे डरावने स्थलों में एक हो सकता है ,इसकी कल्पना करना  बेहद कठिन है। कई घुमक्क्ड़ों और कई स्थानीय लोग मानते हैं कि मुक्ति कोठरी की डरवानी कहानी कोरी गप्प है। यहाँ भूतिया या डरावना जैसी कोई चीज नहीं है। बल्कि हिमालय की अद्भुत छटा का नयनाभिराम दर्शन कराती यह जगह दुनिया के सबसे सुन्दर जगहों में से एक है।

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कुमाऊं के कलुवा देवता और गढ़वाल के कलुवा वीर की रोचक कहानी !

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कलुवा वीर

कुमाऊं में लोक देवता ग्वेल देवता के साथ अवतरित होने वाले  लोक देवता कलुवा को कुमाऊं में ग्वेल देवता का प्रमुख सहयोगी और भाई माना जाता है।कुमाऊं में लोक देवता ग्वेल देवता के साथ अवतरित होने वाले  लोक देवता कलुवा को कुमाऊं में ग्वेल देवता का प्रमुख सहयोगी और भाई माना जाता है। इतिहासकार और उत्तराखंड के शोधकर्ता यह मानते हैं कि कलुवा एक नागपंथी सिद्ध थे। अपनी सिद्धियों के कारण उसने नाथपंथ में अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया था। कलुवा वीर के सम्बन्ध में कुमाऊं और गढ़वाल में अलग अलग संकल्पनाएँ पायी जाती हैं।

कुमाऊं में प्रचलित कहानियों के अनुसार कलुवा  गोरिया देवता की माता कालीनारा के पुत्र और गोरिया के भाई माने जाते हैं। कहते हैं जब ग्वेल देवता का जन्म हुवा तो कलिनारा की सौतों ने ग्वेल देवता को वहां से हटाकर उनकी जगह खून से सना सिलबट्टा रख दिया और कलिनारा से कहा कि  तेरी कोख से यह सिलबट्टा पैदा हुवा है। कहते हैं कि उस खून से सने सिलबट्टे को देख कर कन्नारा बहुत दुखी हुई।  उसने अपने इष्ट देवताओं से प्रार्थना की कि यदि आप मेरे सच्चे ईष्ट देव होंगे तो इस पत्थर में जान फूंक दो ….

कहते हैं कन्नारा की प्रार्थना पर देवों  ने अपनी शक्ति उस पत्थर में जान फूंक दी। तबसे वे ग्वेल देवता के प्रमुख सहयोगी व् भाई कलुवा देवता के रूप में प्रसिद्द हुए। कुमाऊं के पालीपछाऊं क्षेत्र में इसकी जागर अधिक लगाई जाती है तथा यह अधिकतर अनुसूचित जाती वाले लोगो के शरीर में अवतार लेता है।

कुमाऊं की कतिपय जागर गाथाओं में बताया जाता है कि इनका जन्म कैलाघाट में हुवा था। इसे मारने के लिए इसके गले में घनेरी, हाथों में हथकड़ी से बांध कर एक गड्डे में डाल दिया था। बाद में ऊपर से भारी भरकम चट्टानों से दबा दिया। किन्तु कलुवा वीर सब तोड़ कर बहार आ गया। इनको इनके काळा होने की वजह से कलुवा कहते होंगे। कहते हैं इनके साथ बारह बायल और चार वीर चलते हैं। जिनके प्रचलित नाम हैं ,रगुतुवावीर ,सोबूवावीर ,लोड़ियावीर और चौथियावीर।

काला कलुवा तेरी काली जात, तोई चलाऊं रे कलुवा
छंचर का दीन, मंगल की रात । काला कुलवा उसरालि
पाटली, नौ सौ घुंगरू, नौ सौ ताल । बाजे घुंगरू बाजे
ताल। कलुवा नाचे चोर चोर। बाटे नाचे, घाटे नाचे।
वीर नाचे, सिंगा नाचे। महादेव पार्वती के आगे नाचे।
बोल मर दुलन्तो आयो, आला कासट सुकन्तो आयो ।
सुका कासट  मोलतो लायो । इस दस दिशा
तोड़न्तो आयो । बीस दिशा मोड़न्तो आयो। दस भेड़ा
की बली झुकन्तो आयो, षाजा , बुषण
 दुकन्तो आयो ।
 कलुवा वीर
कलुवा देवता थान ग्राम -उजगल अल्मोड़ा
कलुवा के बारे में नागपंथ के इन रखवाली मन्त्रों से सिद्ध होता है कि यह नागपंथी सिद्ध था। और नागपंथ से शिक्षा ग्रहण करके इसने अपना अलग पंथ चलाया जिसके अनुयायियों के नाम के आगे कलुवा शब्द जोड़ा गया।  जैसे – उर्स कलुवा ,धर्म कलुवा , मेण कलुवा, नीच कलुवा ,हँकारी कलुवा आदि। किन्तु यह परम्परा आगे नहीं चल पायी।
 गढ़वाल में इन्हे कलुवा वीर के नाम से पूजा जाता है। वहां इनकी गिनती सिद्ध नाथपंथी वीरों में होती है। और इन्हे यहाँ लोकदेवता के रूप में नचाया जाता है। यहाँ इन्हे एक प्रचंड देवशक्ति के रूप में पूजा जाता है। यदि इनके मंदिर में कोई घात डालता है तो सामने वाले को उसी समय  टाइम दण्डित करने में देर नहीं करते हैं।
कामरूप जाप में इसकी वेषभूषा के विषय में कहा गया है, एसा पूत कलुवा आया। हात पर अमरू
का कोलंगा (सोटा) । लुवा की फावड़ी, बथथरी जामो, नादि अर सैली, सिंगी, झोली, मेखला, बोड़ण (ओढ़ना) कछोटी पैरने का आकार हैं। ‘इसी पांडुलिपि में इसके सम्बन्ध में यह भी कहा गया है, प्रथमे जउ की धूनी,जउ की धूनी उप्र कुछ ग्रास, ग्रास ऊपरि घास धरास,उपरि शिव शंकर, शिव संकरी उपरी अरू को पूतझाडू,झाडू का पूत कलुवावीर ।’
साभार –  उत्तराखंड ज्ञानकोष
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कुमाऊं रेजिमेंट जिसने बचाया था कश्मीर ! जानिए गौरवशाली इतिहास।

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कुमाऊं रेजिमेंट
कुमाऊं रेजिमेंट

उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों के लोग वीर साहसी होते हैं। इतिहास गवाह है उत्तराखंड के कुमाउनी और गढ़वाली क्षेत्रों के वीरों ने समय -समय पर अपनी वीरता और साहस का प्रदर्शन किया है। ऐसी वीरता और साहस को देख कर अंग्रेजों ने गढ़वाल राइफल और कुमाऊं रेजिमेंट की स्थापना की।

आजादी के बाद से ही कश्मीर की समस्या भारत के लिए बड़ी समस्या बना है। बटवारे के बाद से ही पाकिस्तान कश्मीर को हड़पने के लिए सारे अनैतिक रास्ते अपनाता रहा है। सन 1947 में पाकिस्तान ने कश्मीर को हड़पने के लिए कबाइली युद्ध छेड़ दिया था। भारत की तरफ से पाकिस्तान की इस अनैतिक हरकत का जवाब देने की जिम्मेदारी कुमाऊं रेजिमेंट की चौथी बटालियन की डेल्टा कंपनी को मिला था।

इस कंपनी का नेतृत्व कर रहे थे मेजर सोमनाथ शर्मा। मेजर सोमनाथ शर्मा के नेतृत्व में कुमाऊं नेतृत्व के जाबांज सैनिको ने कबाइलियों के वेश में आई पाकिस्तानी सेना के हमले से श्रीनगर को बचाया था। आज कश्मीर का जो हिस्सा भारत के नियंत्रण में है वो कुमाऊं रेजिमेंट के पराक्रम के फलस्वरूप है। इस कबाइली युद्ध में असाधारण वीरता के लिए मेजर सोमनाथ शर्मा को स्वतंत्र भारत का पहला परमवीर चक्र मिला था।

यह एकमात्र रेजिमेंट है जिसे दो – दो परमवीर चक्र मिले हुए हैं। दूसरा परमवीर चक्र मेजर शैतान सिंह को ( मरणोपरांत ) 1962 के भारत -पाकिस्तान युद्ध में असाधारण वीरता के लिए मिला था। मेजर शैतान सिंह इस रेजिमेंट की तेरहवी बटालियन चार्ली कंपनी के थे।

कुमाऊं रेजिमेंट
कुमाऊं रेजिमेंट

कुमाऊं रेजिमेंट की स्थापना –

कुमाऊं रेजिमेंट की स्थापना सन 1778 में हैदराबाद में निजाम के एक जागीरदार सलावत खान ने की थी। 1794 में इसे रेमंट कोर और उसके बाद निजाम कान्टिजेंट नाम दिया गया। सन 1813 में जब अंग्रेज अधिकारी हेनरी रसल हैदराबाद पहुंचे तो उन्होंने इन सैन्य टुकड़ियों को बटालियन के रूप में एक संगठन में बांधा। इसीलिए सर हेनरी रसल को कुमाऊं रेजिमेंट का मुख्य संस्थापक माना जाता है। 1945 में इसे द कुमाऊं रेजिमेंट के नाम से स्थापित किया गया।  पहले इस बटालियन में मुस्लिम,राजपूत ,जाट और अन्य प्रांतो के सैनिक भी थे। लेकिन बाद में जब यह बाटलियन हैदराबाद से आगरा की तरफ आई तो इसमें कुमाउनी सैनिक अधिक थे।

बाद में इसमें अन्य बटालियनें जुड़ती गई तो उनमे अधिकता कुमाउनी लोगो की ही रही। भारत की स्थापना से पहले ही कुमाऊं रेजिमेंट का इतिहास गौरवशाली रहा है। इस रेजिमेंट ने 1803 के मराठा युद्ध ,1877 का भीलों के विरुद्ध युद्ध ,1841 का अरब युद्ध ,रोहिल्ला युद्ध और प्रथम स्वतंत्रता संग्राम झाँसी ( 1857 ) में अपनी अदम्य वीरता के साथ महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

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काठगोदाम का इतिहास | कैसे पड़ा काठगोदाम का नाम !

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काठगोदाम का इतिहास
काठगोदाम का इतिहास

काठगोदाम का इतिहास – 

भारत के पूर्वोत्तर रेलवे के अंतिम विरामस्थल के रूप में जाने जाने वाला कुमाऊं के प्रवेशद्वार के नाम से प्रसिद्ध यह क़स्बा नैनीताल जिले में गौला नदी के तट पर स्थित है। सन 1975 में अंग्रेजों के कुमाऊं अधिग्रहण से पहले यह एक छोटा सा गावं था ,जिसका नाम बाड़खोड़ी या बाडाखोड़ी था। या यूँ कह सकते हैं कि काठगोदाम का पुराना नाम बाड़खोड़ी या बाडाखोड़ी था। ( काठगोदाम का इतिहास )

यह क्षेत्र चंद शाशनकाल में रुहेले आक्रमणकारियों और लुटेरों को रोकने की प्रमुख घाटी थी। राजा कल्यानचंद जी के राज में उनके सेनापति शिवदेव जोशी ने 1743 -44 में रुहेलों की फौज को यहीं परास्त किया था। बाद में अंग्रेजों के शाशन में लकड़ी के ठेकेदारों ने  पहाड़ की इमरती लकड़ी को गौला नदी के माध्यम से ला कर  यहाँ इकट्ठा करना शुरू किया ,तब इसका नाम काठगोदाम पड़ा। काठगोदाम का अर्थ होता है लकड़ी का गोदाम।

19वी सदी के पूर्व तक इस क्षेत्र की गणना यहाँ के कस्बों में भी नहीं होती थी। 1843 -44 में जब प्रथम बार ट्रेन लखनऊ से हल्द्वानी पहुंची तो इसके कुछ समय बाद उत्तर प्रदेश की छोटी लाइन की गुवहाटी -काठगोदाम तिरहुत मेल को काठगोदाम तक बढ़ा दिया गया। आरम्भ में यहाँ अधिकतर मालगाड़ियां ही चलती थी। बाद में यहाँ यात्रियों की संख्या बढ़ने से यात्री गाड़ियां भी चलने लगी। आज यहाँ देश के लगभग सभी स्थानों को ट्रैन जाती है। यात्रियों की संख्या की बात करें तो कुमाउँनी लोगों के अलावा भारी मात्रा में पर्यटकों का आवागमन यहीं से होता है।

काठगोदाम का इतिहास
काठगोदाम का इतिहास

काठगोदाम रेलवे स्टेशन सबसे स्वच्छ रेलवे स्टशनों में गिना जाता है। स्वच्छता के लिए काठगोदाम रेलवे स्टेशन को सम्मानित भी किया जा चूका है। (काठगोदाम का इतिहास )

काठगोदाम में घूमने लायक स्थान –

काठगोदाम में घूमने लायक स्थानों में कालीचौड़ मंदिर और शीतला देवी मंदिर ,है। इसके अलवा गौला नदी ,भीमताल  ,नैनीताल ,रानीबाग आदि प्रसिद्ध हैं। यह स्थान कुमाऊं मंडल के द्वार के रूप में प्रसिद्ध है ,तो यहाँ से आगे को घूमने के कई विकल्प खुल जाते हैं।

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ganga dussehra dwar patra mantra || गंगा दशहरा द्वार पत्र के मंत्र

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ganga dussehra dwar patra mantra

Ganga dussehra dwar patra mantra – पौराणिक मान्यताओं के आधार पर बताया जाता है कि जेष्ठ शुक्ल दशमी को माँ गंगा का अवतरण धरती पर हुवा था। इस अवसर पर सनातन धर्म को मानने वाले गंगा दशहरा पर्व मनाते हैं। गंगा दशहरा के अवसर पर उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के निवासी विशेष मन्त्रों से अभिमंत्रित गंगा दशहरा द्वारा पत्र अपने द्वारों पर चिपकाते हैं। इस पत्र के बारे में कहा जाता है ,कि इसमें लिखे मन्त्रों के प्रभाव से नकारात्मक शक्तियां घर से दूर रहती हैं।

कैसे शुरू हुई यह परंपरा –

गंगा दशहरा द्वार पत्र के बारे में कहा जाता है कि , जब धरती पर माँ गंगा  अवतरण हो रहा था ,तब सप्तऋषि कुमाऊं क्षेत्र में तपस्या कर रहे थे। माँ गंगा के धरती आगमन पर उन्होंने अपनी कुटियों में जल छिड़क कर ,अपने आश्रम द्वारों पर विशेष अभिमंत्रित द्वार पत्र लगाए। तब से कुमाऊं मंडल में यह परम्परा चली आ रही है। इसके बारे में यह उल्लेख्य है कि यह उत्सव पर्वतीय पारम्परिक त्योहारों में नहीं आता है। यह उत्तराखंड आकर बसने वाले पुरोहितों की देन है।

गंगा दशहरा द्वार पत्र के मंत्र ( ganga dussehra dwar patra mantra )

विभिन्न देवी देवताओं के चित्रों से बना इस पत्र में  एक विशेष मन्त्र लिखा रहता है। जिसके बारे में कहते हैं कि इससे अभी व्याधियों से रक्षा होती है। गंगा दशहरा द्वार पत्र का वो मन्त्र इस प्रकार है –

अगस्त्यश्च पुलस्त्यश्च वैशम्पायन एव च ।
र्जैमिनिश्च सुमन्तुश्च पञ्चैते वज्रवारका: ।।
मुनेःकल्याणमित्रस्य जैमिनेश्चाऽनुकीर्तनात् ।
विद्युदग्नि भयं नास्ति लिखितं गृहमण्डले ।।
यत्रानुपायी भगवान् दद्यात्ते हरिरीश्वरः।
भङ्गो भवति वज्रस्य तत्र शूलस्य का कथा ।।

इस पत्र को कुलपुरोहित अपने यजमानो को सौपते हैं और बदले में दक्षिणा प्राप्त करते हैं।

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उमी – गेहू की हरी बालियों का स्वादिष्ट पहाड़ी स्नेक्स

सोमेश्वर के प्रसिद्ध मालपुए ,विलुप्त होते पारम्परिक स्वाद का आखिरी ठिकाना।

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शकुनाखर | कुमाऊं मंडल के संस्कार गीतों की अन्यतम विधा।

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शकुनाखर

शकुनाखर –

शकुनाखर कुमाऊं मण्डल के संस्कार गीतों की एक विशेष विधा है। शकुन का अर्थ होता है ,शगुन सूचक और आखर शब्द का अर्थ होता है ,अक्षर अर्थात शगुन सूचक अक्षर। धार्मिक कार्यों अथवा मांगलिक कार्यों के शुरू में गाए मंगल गीत ,जिनका उद्देश्य विवाह ,यज्ञोपवीत व् नामकरण आदि मंगलकार्यों के आरम्भ से अंत तक निर्विघ्नपूर्वक संपन्न किये जाने की कामना से अपना आशीर्वाद देने के लिए देवी देवताओं को आमंत्रित करना और सम्बंधित परिवारजनों की दीर्घायु व् सुखशांति की कामना करने वाले गीतों को शकुनाखर कहा जाता है। गढ़वाल मंडल में इन्हे मांगल गीत कहते हैं।

शकुनाखर गीत के बोल | Shakunakhar lyrics –

प्रस्तुत लेख में शकुनाखर का अर्थ के साथ कुमाउनी सामाजिक जीवन में प्रयुक्त कुछ शकुनाखर गीतों के बोल संकलित कर रहें हैं।

मंगलाचरण

शकूना दे शकूना दे सव सिद्ध, काज ये अति नीको शूकना बोल्या ।

दाईना बजन छन, शॅख शब्द, दैणी तीर भरियो कलेश ।

अति नीको सो रंगोलो, पटलोआँचली कमलै को फूल ।

सोही फूलू मौलावन्त, गणेश रामीचन्द्र लछीमन लवकुश,

जीवा जनम आध्या अम्बरू होय ।

सोही पाट पैरी रहना, सिद्धि बुद्धि सीतादेही बहुराणी ।

आयुवन्ती पुत्रवन्ती होय सोही फूलू मोलावन्त

(परिवार को पुरुषों के नाम )

जीवा जनम आध्या अम्बरू होय ।

सोही पाट पैरी रहा, सिद्धि बुद्धि

(परिवार की महिलाओं के नाम सुन्दरी, मंजरी आदि)

आयुवन्ती पुत्रवन्ती होय ।।

गणेश पूजा के शकुनाखर –

 

जय जय गणपति, जय जय ए ब्रह्म सिद्धि विनायक ।

एक दंत शुभकरण, गंवरा के नंदन, मूसा के वाहन ।

सिंदुरी सोहे, अगनि बिना होम नहीं, ब्रह्म बिना वेद नहीं,

पुत्र धन्य काजु करें, राजु रचें।

मोत्यूं मणिका हिर-चौका पुरीयलै,

तसु चौखा बैइठाला रामीचन्द्र लछीमन विप्र ऐ।

जौ लाड़ी सीतादेही, बहुराणी, काजुकरे, राजु रचै॥

फुलनी है, फालनी है जाइ सिवान्ति ऐ ।

फूल ब्यूणी ल्यालो बालो आपू रुपी बान ऐ॥

निमंत्रण/ सुवाल पथाई के शकुन आखर :-

 

सूवा रे सूवा, बनखंडी सूवा,

रे जा सूवा घर-घर न्यूत दी आ।

हरियाँ तेरो गात, पिंगल तेरो ठून,

रत्नन्यारी तेरी आँखी, नजर तेरी बांकी,

जा सूवा घर-घर न्यूत दी आ ,गौं-गौं न्यूत दी आ।

नौं न पछ्याणन्यू, मौ नि पछ्याणन्यूं, कै घर कै नारि

दियोल?

राम चंद्र नौं छु, अवध पुर गौ छु, वी घर की नारी कैं न्यूत

दी आ ।

सूवा रे सूवा, बनखंडी सूवा,

जा सूवा घर घर न्यूत दी आ

गोकुल गौं छू, कृष्ण चंद्र नौं छु, वी घर की नारी कैं न्यूत

दी आ।

सूवा रे सूवा, बनखंडी सूवा, जा सूवा घर-घर न्यूत दी

आ।

कैलाश गौ छू, शंकर उनर नु छू, वी घवी नारी न्यूत दी

आ।

सूवा रे सूवा, बनखंडी सूवा,

जा सूवा घर-घर न्यूत दी आ

अघिल आधिबाड़ी, पछिल फुलवाड़ी, वी घर की नारी

कैं न्यूत दी आ ।

हस्तिनापुर गौं छ, सुभद्रा देवी नौं छ, वी का पुरुष को

अरजुन नौं छ,

वी घर, वी नारि न्यूंत दी आ ।

सूवा रे सूवा, बणखंडी सूवा,

जा सूवा घर-घर न्यूत दी आ

मंगल स्नान के शकुन आखर –

उमटण दइए मइए मैल छूटाइये।
गंगा जमुना मिलिआए तो बालों नवाइए, कलेश मराइए,
भाई बहिन मिलि आए तो नवाइए।।
हलदी के घर जाओ तो हलद मौलाइए।
तेली के घर जावो तो तेल मौलाइए।।
कुमकुम केसर परिमल अंग सुहाइए।
किन ए उ पंडित ले हलद मौलाइ।
तो हलद की शोभा ए,
किन ए उ सोहागिलि लै घोटा घोटाई ।
तो हलद रंगीलो,
किन ए उ पहिरन जोग्य तो हलद की शोभाये ।
रामीचंद्र, लछीमण हलद मोलाइ तो हलद की शोभाये ।
सीता देहि लै, बहूरांणि लै हलद घौटाई, तो हलद कि शोभाये।
लव कुश पहिरन जोग्य, तो हलद की शोभाये ॥

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उत्तराखंड को देवभूमि क्यों कहते हैं ?

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उत्तराखंड को देवभूमि

उत्तराखंड को देवभूमि कहने का तात्पर्यहमारे उत्तराखंड को देवभूमि क्यों कहते हैं ?, इस बात को इसमें निहित कई तथ्य हैं जो इस बात की पुष्टि करते हैं कि, हमारी देवभूमि में कई देवी देवताओं की लीला स्थली और क्रीड़ा स्थली रही है । अनेक ऋषियों, मुनियों, साधु, संतों की तपस्थली और जपस्थली से इन महान दिव्य आत्माओं की चरण रज से यह भूमि और भी पावन पवित्र होकर कण-कण भी इसका दिव्यमय होकर के इस भूमि को भी और इस भूमि के उन अनगिनत सूक्ष्म रजकणी का स्पर्श ही हमारा मन आनंद और रोमांच से रोमांचित हो जाता है, तभी तो यहां दृश्य और अदृश्य रूप से आज भी वे महान आत्माएं यहां पर जप, तप और योग, साधना के लिए इस देवभूमि को सहज मानते हैं ।

गंगोत्री, यमुनोत्री और केदारनाथ तथा बद्रीनाथ यहां ऐसे परम तीर्थ हैं, जहां श्रद्धालू प्रतिवर्ष यहां का महात्म समझकर और आस्था को लिए यहां आते और जाते रहते हैं, हेमकुंड साहब हो या फूलों की घाटी इनकी भी अलग ही महिमा किसी से छुपी नहीं  है, हरिद्वार गंगा नदी के किनारे बसी हुई है और इस तीर्थनगरी में अमृत की कुछ बूंदों के गिरने से इसका प्रभाव देखते हुए यहां छः साल बाद अर्धकुंभ और बारह साल बाद कुंभ का मेला लगता है । 

और तो और यहां के पारंपरिक वाद्य यंत्रों में भी जैसे एक दिव्य सी ऊर्जा भरी होती है, जहां ढोल दमाऊं की थाप पर देवी देवता भी पशवा पर अवतरित हो जाते हैं, कई बार चावलों की हरियाली हाथों पर उगा देते हैं, तो कभी अपने भक्तों की समस्याओं का समाधान करने के लिए उपाय सुझाना आदि, और यदि हमें अपने इष्ट में पूर्ण श्रद्धा है तो हमारी समस्याएं तब स्वतः ही समाप्त हो जाती है, और कहीं न कहीं ये सारी बातें यह इंगित करती हैं, कि ईश्वर का अस्तित्व हर जगह है ही है, तो तब हम आस्तिकता की ओर बढ़कर सत्कर्मों में निरत होकर के एक सुखी जीवन का रहस्य जानकर उसको बड़ी ही सहजता के साथ प्राप्त कर सकते हैं ।

उत्तराखंड को देवभूमि

ढोल दमाऊँ की थाप प्रतिवर्ष हमारे उत्तराखंड में पांडव वार्ता और मां भवानी के साथ साथ अन्य देवी देवताओं का आह्वान किया जाता है और उनकी पूजा आदि करके उनको संतुष्ट कर प्रसन्न किया जाता है । भगवान गौरी शंकर का स्थाई निवास कैलाश मानसरोवर भी यहीं है, यहां शून्य से भी नीचे जिन हिमालई क्षेत्रों में तापमान रहता है, वहां बहुमूल्य और बेशकीमती तथा हमारे इस जीवन को भी नवजीवन देने वाली औषधियां और पादप भी पाए जाते हैं।

भारतवर्ष की उत्तर की ओर विस्तृत यह हिमालई क्षेत्र एक सीमारेखा के जैसे दुश्मनों से भी हमारी रक्षा करता है।  इंद्रप्रस्थ, हस्तिनापुर जो वर्तमान में देहली कहा जाता है, या हरियाणा का वह कुरुक्षेत्र का युद्ध, इसके अतिरिक्त पंडोवो ने हमारी इस देवभूमि उत्तराखंड में ही अधिकतर अपनी लीलाओं का संवरण किया, जैसे द्रोण नगरी वर्तमान में देहरादून में गुरु द्रोणाचार्य द्वारा शिक्षा प्राप्त करना और अपने अज्ञातवास के समय अपनी इस देवभूमि उत्तराखंड में ही व्यतीत करना और सबसे आखिर में अपने जीवन के अंतिम समय में स्वर्गारोहिणी के दौरान स्वर्ग की ओर प्रस्थान करना आदि  प्रमुख घटनाओं को अंजाम इसी देवभूमि में उनके द्वारा दिया गया। कौरव और पांडवों की गाथाओं का बखान जागर आदि के माध्यम से इसी देवभूमि उत्तराखंड में ही इसी कारणवश होता है ।

लेखक के बारे में -; इस लेख को टिहरी गढ़वाल निवासी श्री प्रदीप बिजलवान बिलोचन जी ने लिखा है। श्री प्रदीप विलोचन जी शिक्षा विभाग में कार्यरत हैं। श्री प्रदीप जी के लेख व् गढ़वाली कवितायेँ नियमित रूप  देवभूमि दर्शन पोर्टल में संकलित होते रहते हैं। 

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द केरला स्टोरी फिल्म का यह सवाल उत्तराखंड के प्रवासियों के लिए यक्ष प्रश्न है।

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द केरला स्टोरी

हाल  ही में भारत के केरल राज्य में धर्मांतरण और आतंकवाद पर आधारित हिंदी फिल्म द केरला स्टोरी पुरे देश के सिनेमाघरों में रिलीज हुई है। हालाँकि कई जगह इसका विरोध हो रहा और अधिकतर लोग इसे पसंद कर रहे हैं और इसका समर्थन कर रहें हैं। और इसे सत्यघटना पर आधारित मान रहें है। फिल्म ‘The Kerala story ’ पर एक विशेष एजेंडा फिल्म होने के आरोप लग रहे हैं। इस फिल्म में दिखाया गया है कि केरल में लगभग 30000 लड़कियों का धर्मपरिवर्तन हुवा है।

फिल्म खराब है या सही है इसका निर्णय तो दर्शक लेंगे। मगर इस फिल्म एक सीन है या यूँ कहे कि एक डायलॉग है जो सबके के लिए प्रेरणादायक है। यह डायलॉग उत्तराखंड की वर्तमान हालात पर बिलकुल फिट बैठता है। फिल्म द केरला स्टोरी के एक सीन में पीड़ित लड़की आखिर में अपने पिता से शिकायत करती है कि ,”आपने हमे कभी अपने कल्चर के बारे में क्यों नहीं बताया ? यह एक डायलॉग पूरी फिल्म का सारांश बता देता है ,और यही सबसे प्रेरणाप्रद संवाद है। उत्तराखंड में वर्तमान में आधी से अधिक जनता पलायन करके शहरों में रह रही है। और अपने दैनिक जीवन में  पहाड़ की संस्कृति कम शहरों की जीवन शैली में अधिक जी रहे हैं।और पहाड़ में बाहरी लोग ज्यादा बस रहे हैं।

द केरला स्टोरी
फोटो -सोशल मीडिया

उत्तराखंड की पहाड़ी संस्कृति का शहरों में कम ही प्रयोग हो रहा है। वर्तमान पीढ़ी तो जैसे तैसे अपना समय निकाल ले रही लेकिन , भविष्य की पीढ़ी अर्थात उत्तराखंड के बच्चे अपनी संस्कृति से धीरे -धीरे  दूर हो रहें है। आने वाले समय में शहरों की संस्कृति से ऊब जायेंगे या द केरला स्टोरी जैसा या कश्मीर फाइल जैसा संकट आता है और पहाड़ के बच्चों को पता चलता है कि उनके पास उत्तराखंड जैसा स्वर्ग जैसा राज्य और एक समृद्ध संस्कृति थी। तब वे भी ऐसे ही अपने माता पिता से पूछेंगे , ” हमे हमारे कल्चर के बारे में क्यों नहीं बताया ?”

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पहाड़ी कहावत ” खसिया की रीस और भैस की तीस ” में छुपी है पहड़ियों की ये कमजोरी।

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