Friday, March 14, 2025
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उत्तराखंड की प्रतियोगी परीक्षाओं में नकल करने वालों को मिलेगा यह कठोर दंड।

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उत्तराखंड में नकल विरोधी
उत्तराखंड में नकल विरोधी कानून 2023

उत्तराखंड सरकार द्वारा प्रतियोगी परीक्षाओं में पारदर्शिता लाने के लिए, उत्तराखण्ड प्रतियोगी परीक्षा अध्यादेश 2023 को अनुमोदन प्रदान किया गया है। उत्तराखंड में नकल विरोधी कानून लागू होने के दिन से प्रभावी होगा। उत्तराखंड की प्रतियोगिता परीक्षाओं में अनुचित साधनों का करने वालों के खिलाफ दंड का प्रावधान इस प्रकार है –

  •  कोई व्यक्ति, प्रिटिंग प्रेस, सेवा प्रदाता संस्था, प्रबंध तंत्र, कोचिंग संस्थान इत्यादि अनुचित साधनों में लिप्त पाया जाता है तो उसके लिए आजीवन कारावास की सजा तथा 10 करोड़ रूपए तक के जुर्माने का प्रावधान किया गया है।
  • यदि कोई व्यक्ति संगठित रूप से परीक्षा कराने वाली संस्था के साथ षडयंत्र करता है तो आजीवन कारावास तक की सजा एवं 10 करोड़ रूपए तक के जुर्माने का प्रावधान किया गया है।
  • अगर कोई परीक्षार्थी प्रतियोगी परीक्षा में स्वयं नकल करते हुए या अन्य परीक्षार्थी को नकल कराते हुए अनुचित साधनों में लिप्त पाया जाता है तो ,उसके लिए तीन वर्ष के कारावास व न्यूनतम पांच लाख के जुर्माने का प्रावधान किया गया है। वह परीक्षार्थी दोबारा अन्य प्रतियोगी परीक्षा में पुनः दोषी पाया जाता है तो न्यूनतम दस वर्ष के कारावास तथा न्यूनतम 10 लाख जुर्माने का प्रावधान किया गया है।
  • कोई परीक्षार्थी नकल करते हुए पाया जाता है तो आरोप पत्र दाखिल होने की तिथि से दो से पांच वर्ष के लिए डिबार करने तथा दोष सिद्ध ठहराए जाने की दशा में दस वर्ष के लिए समस्त प्रतियोगी परीक्षाओं से डिबार किए जाने का प्रावधान किया गया है।
  • यदि कोई परीक्षार्थी दोबारा नकल करते हुए पाया जाता है तो क्रमशः पांच से दस
    वर्ष के लिए तथा आजीवन समस्त प्रतियोगी परीक्षाओं से डिबार किए जाने का प्रावधान किया गया है।
  • अनुचित साधनों के इस्तेमाल से अर्जित सम्पति की कुर्की की जायेगी।
  • इस अधिनियम के अन्तर्गत अपराध संज्ञेय, गैर जमानती एवं अशमनीय होगा।

उत्तराखंड में नकल विरोधी

 

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खुदेड़ गीत गढ़वाल के अन्यतम कारुणिक गीत ।

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खुदेड़ गीत
खुदेड़ गीत

खुदेड़ गीत –

गढ़वाल की विवाहिता नवयुवतियों द्वारा बसंत के आगमन पर अपने मायके की याद में और माता पिता और भाई बहिनो से मिलन की आकुलता में एकाकी गाये जाने वाला गीत खुदेड़ गीत कहलाता है।

खासकर यह गीत उनके द्वारा गया जाता है ,जिन्हे मायके में बुलाने वाला कोई नहीं होता है। यह गीत अन्यतम कारुणिक गीत होता है । इसमें नायिका पहाड़ो के वन क्षेत्र में अकेले अथवा सहेलियों के साथ करुण स्वर में खुदेड़ गीत गाती हैं। इन गीतों में अभिनय के रूप में केवल भावाभिनय ही होता है। 

केवल महिलाओं के विरह को समर्पित हैं खुदेड़ गीत –

ये गीत केवल महिला वर्ग द्वारा गाये जाते हैं। इनका स्वर कारुणिक होता है। तथा गीतों की लय-गति भी मन्द, विलम्बित हुआ करती है। पदरचना बाजूबन्द (जोड़ों) के रूप में की जाती है किन्तु वर्ण्य विषय की दृष्टि से दोनों में मौलिक अन्तर होता है। बाजूबन्द गीतों का लक्ष्य जहां प्रियजन एवं वियोग श्रृंगार होता है वहां खुदेड़ गीतों का लक्ष्य मायके की यादें  एवं माता-पिता, भाई-बहिन, सखी-सहेलियों से मिलने की व्याकुलता होती है। नायिका पर्वत, मेघ, वायु, पुष्प, वनस्पति को संदेशवाहक बना कर अपने माता से बुलाये मायके जाने का अनुरोध करती है।

 इस नृत्यगीत के विषय में एवं प्रस्तुतीकरण झुमैलो के साथ समता रखता है, किन्तु झुमैलो गीत के प्रस्तुतीकरण में जहां अभिनय करते हुए झूमने तथा गीत की प्रत्येक पंक्ति के बाद -झुमैला’ की पुनरावृत्ति आवश्यक होती है वहां इसमें ऐसा कोई नियमन नहीं होता है, पर न्यौली के समान टेक पद की पुनरावृत्ति अवश्य होती है। यहां मां को बुलावा भेजने के लिए अनुरोध करती बेटी कहती है-

खुदेड़ गीत के उदाहरण –

गौड़ी देली दूद ब्वै, गौड़ी देली दूद, मेरी जिकुड़ी लगी ब्वै, तेरी खूद।

काखड़ी को रैतू ब्वै, काखड़ी को रैतू, मैं खुद लागी ब्वै, तू बुलाई मैतू।

सूपा भरी दैण ब्वै, सूपा भरी दैण, आग भभराली ब्वै भै जी भेजी लैण।

झंगोरा की बाल ब्वै, झंगोरा की बाल, मैत को बाटो देखी ब्वै, आंखी वैन लाल।

उसके बचपन की मधुर स्मृतियों को सजाकर रखने वाले मायके के दर्शनों के लिए व्याकुल  नायिका पर्वत शिखरों एवं चीड़ की बनावलियों से अपनी उन्नतता को कम करने का अनुरोध करती हुए कहती है-

ऊंची ऊंची डाड्यों तुम नीचि हवै जाओ,

घैणी कुलायो तुम छांटी जाओ।

मैंकु लागी च खुद मैतुड़ा की,

बाबा जी को देश देखण देवा ।।

खुदेड़ गीत

बसंत आ  गया है नायिका न तो मायके जा सकती है। और न कोई उसे बुलाने के लिए ही आया है।  वह मैत की स्मृति में आकुल होकर कहती है-

आई गैन रितु बौड़ी, राई जसो फेरो,

फूली गैन बणू बीच ग्वीराल बुरांस।

गौंकी नौनीस्ये गीत वासन्ती बुरांस।

जैकि ब्वे होली मैतुड़ा बुलाली ।

मेरी जिकुड़ी मा ल्वे कुएड़ी सी लौंकी।

खुदेड़ गीत का वीडियो यहाँ देखें –

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नोट- इस पोस्ट का संदर्भ  प्रो DD शर्मा जी किताब उत्तराखंड ज्ञानकोष से लिया गया है। 

मुक्तेश्वर महादेव मंदिर नैनीताल उत्तराखंड और चौली की जाली

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उत्तराखंड के नैनीताल जिले में मुक्तेश्वर नामक बेहद खूबसूरत और रमणीय स्थल है। इसकी ऊंचाई समुद्र तल से 2286 मीटर है। मुक्तेश्वर से त्रिशूल, नन्दा देवी आदी हिमालयी चोटियों के नयनाभिराम दर्शन होते हैं। इस स्थान को स्थानीय रूप से मोतेश्वर कहा जाता है। यह स्थान नैनीताल जिला मुख्यालय से 52 किलोमीटर और हल्द्वानी काठगोदाम से लगभग 76 किलोमीटर (बाया ज्योलिकोट) पर स्थित है। यह क्षेत्र अपने नैसर्गिक सुंदरता के लिए प्रसिद्ध है। मुक्तेश्वर में अंग्रेजों ने सन 1890 में विश्व के प्रमुख सस्थान” भारतीय पशु चिकित्सा अनुसन्धान संस्थान” की स्थापना की गयी थी। यह आज भी सक्रीय है लेकिन अब इसका मुख्यालय इज्जत नगर बरेली में है। उस समय फ्रिज ना होने के कारण यह स्थान अधिकतम ठंडा होने के कारण अल्फ्रेड लिनगार्ड ने 1893 ई में, 300 एकड़ जमीन पर” इम्पीरिअल वैटरिनरी इंस्टीटूट” को पूना से स्थानांतरित करके यहाँ स्थापित किया। यहाँ पर एंथ्रेक्स, कालाज्वर, टिटनेस के टीके बनवाये। जिसे बाद में बरेली स्थान्तरित कर दिया गया।

मुक्तेश्वर महादेव मंदिर नैनीताल के बारे में –

यहां एक ऊँची चोटी पर भगवान शिव को समर्पित मन्दिर है। यह मन्दिर मुक्तेश्वर मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है। इस मन्दिर तक जाने के लिए लगभग एक हजार (1000) सिड़ियाँ चढ़नी पड़ती है। यह मन्दिर भगवान शिव को समर्पित 18 विशेष मन्दिरों में से एक है। कहते हैं, यह मन्दिर 350 वर्ष पुराना मंदिर है। इस मंदिर का नाम मूलतः “मोटेश्वर” प्रतीत होता है,जिसका सांस्कृतिक करण हो जाने के कारण मुक्तेश्वर कहा जाने लगा है। राहुल सांकृतायन के अनुसार कत्यूरी शाशनकाल (850 -1050 ई) में मुक्तेश्वर महादेव के प्रधान पुजारी लकुशीश सम्प्रदाय के शैव हुवा करते थे। कहते है, कत्यूरी राजाओं ने इसे एक रात में बनाया था। यह भी माना  जाता है कि पांडवों ने भी इस मंदिर को अपनी उपस्थिति से प्रतिष्ठित किया था। मुक्तेश्वर महादेव नाम पड़ने के पीछे एक लोक कथा यह भी है कि यहाँ भगवान् शिव और एक विशाल दानव का युद्ध हुवा था।  जिसमे दानव को भगवान शिव के हाथों मुक्ति मिली थी। मुक्तेश्वर के बारे में मान्यता है कि, भगवान् भोलेनाथ यहाँ अपने भक्तों को सभी कष्टों से मुक्ति देते हैं।  यह प्रत्येक वर्ष शिवरात्रि पर विशाल मेले का आयोजन होता है। कहते हैं महादेव यहाँ निःसन्तानों की मनोकामना पूर्ति करते हैं।

चौली की जाली से होती है निःसन्तानो की मनोकामना पूर्ति

शिवरात्रि में उत्तराखंड के इस मंदिर में आस्था का एक अनोखा मेला लगा रहता है। मुक्तेश्वर मंदिर के पास एक चौली की जाली नामक पर्यटन स्थल है। चौली की जाली एक बड़े चट्टान पर एक छिद्र है।  जो काफी ऊंचाई पर है। यह एक प्राकृतिक छेद है। चौली की जाली के बारे में लोगों का विश्वास है की ,उत्तराखंड में शिवरात्रि के दिन जो इसे पार करेगा ,उसे संतान सुख की प्राप्ति होगी। सुरक्षा व्यवस्था न होने के कारण भी ,संतान सुख की कामना में निसंतान महिलाएं इस छिद्र को पार कर लेती है।

मुक्तेश्वर
मुक्तेश्वर चौली की जाली

चौली की जाली के बारे में लोक कथा इस प्रकार है कि आदिकाल में भगवान् शिव मुक्तेश्वर में साधना में लीन थे ,तभी वहां से गोरखनाथ महाराज निकले ,उन्होंने भगवान शिव से रास्ता माँगा तो ध्यान मगन होने के कारण शिवजी उनका आग्रह नहीं सुन पाए। तब गोरखनाथ जी ने अपने अस्त्र से चट्टान में छेद कर दिया ,और अपने शिष्यों के साथ वहां से निकल गए। कुछ लोग मानते हैं कि पांडव भी मुक्तेश्वर महादेव मंदिर नैनीताल आये थे , तब भीम ने अपनी गदा के प्रहार से चट्टान पर यह निशान बना दिया। कुछ लोग इसे वायु अपरदन के कारण बना छिद्र बताते हैं।

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बहरहाल जो भी हो मुक्तेश्वर मंदिर उत्तराखंड के पास स्थित यह प्राकृतिक छिद्र ,आस्था और पर्यटन का प्रमुख आकर्षण है।

‘निशाण’ उत्तराखंड की समृद्ध संस्कृति के प्रतीक ऐतिहासिक ध्वज

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निशाण
निशाण

चित्र में आप जो ध्वज देख रहे हैं उसे ‘निशाण’ कहते हैं। ‘निशाण’ हिंदी शब्द निशान से बना है, यानी कि संकेत/चिन्ह। बद्रीदत्त पांडे जी की पुस्तक ‘कुमाऊं का इतिहास’ के अनुसार राजा सोमचंद(700वीं ईस्वी) के विवाह में निशाण पहली बार उपयोग किया गया। उसी समय छोलिया नृत्य भी पहली पहली बार किया गया। कुल मिलाकर निशाण की परंपरा 1000 वर्ष से भी पुरानी है, और अब यह हमारी संस्कृति का अहम हिस्सा है।

किताब के अनुसार सोमचंद के शासन के बाद से ही जब किसी राजा की पुत्री का चुनाव करने के लिये कोई अन्य राजा अपने राज्य से निकलता था तो सफेद ध्वज आगे रखता था लेकिन दोनों ध्वजों के बीच तलवार और ढाल के साथ सैनिक व सारे वाद्य यंत्र होते थे। तब वे सैनिक आपस में ही युद्ध कला का अभ्यास करते हुए चलते थे पर कालांतर में इसने छोलिया नृत्य का रूप ले लिया, और आमजन भी अपने विवाह आदि में ध्वज(निशाण) का उपयोग करने लगे और अभी भी हमारे यहां शादियों में ध्वज ले जाने की परंपरा है। जब दूल्हा अपने घर से निकलकर दुल्हन के घर जाता है तो आगे सफेद रंग का ध्वज होता और पीछे लाल रंग का।

कहा गया है कि तब राजाओं द्वारा सफेद ध्वज शांति के लिए होता था, इस संकेत में कि हम आपकी पुत्री का चुनाव करने आये हैं और शांति के साथ विवाह संपन्न करवाना चाहते हैं। इसलिए दूसरे राज्य/कबीले की ओर बढ़ते हुए सफेद ध्वज आगे रहता था जबकि लाल रंग का ध्वज इस संकेत के साथ जाता था कि विवाह हेतु वे युद्ध करने के लिये भी तैयार हैं। वहीं जब विवाह संपन्न हो जाता तो फिर घर वापसी के समय लाल रंग का ध्वज आगे और सफेद रंग का पीछे होता था। लाल रंग का ध्वज तब इस सूचक/संकेत के रूप में आगे रखा जाता कि वे विजेता बनकर लौटे हैं और दुल्हन को साथ लेकर आ रहे हैं।

यहां में अपना मत रख दूं कि आज के समय हमारे समाज मे विवाह के समय ध्वज के उपयोग के पीछे यह सोच किसी की भी नहीं होती कि वे लड़की को जीतने जा रहे हैं या जीतकर आ रहे हैं, पर पुराने जमाने से यह प्रथा चल रही है और अब हमारी संस्कृति का अहम हिस्सा है इसलिए इसे त्यागना हम उचित नहीं समझते न उचित है। आज के परिप्रेक्ष्य के अनुसार परम्पराओं के मायने बिल्कुल बदल चुके हैं, और अब यह निशाण केवल शादियों में नहीं ले जाए जाते बल्कि लगभग हर शुभ कार्य मे इनकी अहम भूमिका है।

वर्तमान में इन ध्वजों का स्वरूप- यह ध्वज तिकोने होते हैं और किसी लंबी मोटी लकड़ी पर लिपटे होते हैं तथा लकड़ी ऊपर त्रिशूल या बड़ा सा चाकू लगा रहता है। जो चित्र नीचे संलग्न हैं, उनमे त्रिशूल वाला हमारे गांव के निशाण का ऊपरी हिस्सा है तथा दूसरा चित्र पड़ोसी गांव मौवे से योगेश जी द्वारा लिया गया है, जिसमे कुछ बच्चे ध्वज ले जा रहे।

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लेखक परिचय –
श्री राजेंद्र सिंह नेगी उत्तराखंड अल्मोड़ा जिले के सोमेश्वर क्षेत्र के निवासी हैं। राजेंद्र सिंह नेगी जी को उत्तराखंड की पहाड़ी संस्कृति से बहुत लगाव है।  वे आभासी दुनिया के साथ साथ ,वास्तविक धरातल पर भी पहाड़ की संस्कृति और परम्पराओं के सवर्धन के लिए हमेशा प्रयासरत रहते हैं। राजू नेगी जी उत्तराखंड की संस्कृति को समर्पित लेखों के अलावा यूट्यूब पर एक ब्लॉग चैनल का संचालन करते हैं ,जिस पर वे बड़ी सादगी से पहाड़ के सरल दिखने वाले संघर्षपूर्ण जीवन को दिखाते हैं।

राजू नेगी ब्लॉग देखने के लिए आप यहाँ क्लिक कर सकते हैं।

उत्तराखंड की मानसखंड झांकी को मिला सारे देश में प्रथम स्थान

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उत्तराखंड की मानसखंड झांकी

26 जनवरी 2023 की परेड में शामिल उत्तराखंड की मानसखंड झांकी को सम्पूर्ण देश की झाकियों में प्रथम स्थान मिला है। मानसखंड झांकी में उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के मंदिर ,उद्यान, लोककला, लोक नृत्य का प्रदर्शन किया गया था।

उत्तराखंड की  झांकी में जागेश्वर धाम, उद्यान में नेशनल कार्बेट पार्क, लोककला ऐपण बेलों और विशेष सरस्वती चौकी का अंकन किया गया था। लोक नृत्य के रूप में छोलिया नृत्य करते हुए छोलिया दल ने सभी को आकर्षित किया।

आज उत्तराखंड के मुख्यमंत्री श्री पुष्कर सिंह धामी जी ने ट्वीट करके ख़ुशी उत्तराखंड की जनता साँझा की….

गौरवशाली क्षण!
गणतंत्र दिवस के शुभ अवसर पर कर्तव्य पथ पर निकाली गई झांकियों में देवभूमि के वैभवशाली सांस्कृतिक गौरव को परिलक्षित करती ‘मानसखण्ड’ पर आधारित उत्तराखण्ड की झांकी को प्रथम स्थान प्राप्त होने पर समस्त प्रदेशवासियों को हार्दिक बधाई।

उत्तराखंड की मानसखंड झांकी में सूचना विभाग के निर्देशक  K S चौहान के साथ कुल अट्ठारह कलाकार शामिल हुए थे। उत्तराखंड की समृद्ध संस्कृति से सुसज्जित झांकी को समस्त देश में प्रथम स्थान आने पर ,उत्तराखंड में एक नया आत्मविश्वास जागृत हो गया है। उम्मीद है यह आत्मविश्वास उत्तराखंड की समृद्ध संस्कृति को नई ऊंचाइयों पर ले जाने में सहायक होगा।

उत्तराखंड की मानसखंड झांकी
उत्तराखंड की मानसखंड झांकी राष्ट्रपति जी के साथ सामूहिक चित्र , फोटो साभार ट्विटर

इसे भी पढ़े: यहाँ पढ़े उत्तराखंड के लोक नृत्य छोलिया नृत्य के बारे में विस्तृत जानकारी

उत्तराखंड में गणतुवा रोज करते हैं, बाबा बागेश्वर धाम की तरह चमत्कार

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गणतुवा
गणतुवा

आज कल श्री बागेश्वर धाम के पीठाधीश श्री धीरेन्द्र शास्त्री चर्चाओं में बने हुए हैं। चर्चाओं  का कारण है उनके द्वारा किये जाने वाला चमत्कार! जी हा श्रद्धालु इसे चमत्कार कह रहें हैं, और तथाकथित बुद्धिजीवी इसे विज्ञान या मैजिक ट्रिक कह रहें हैं। उनका चमत्कार या मैजिक ट्रिक यह है कि, वे ये जान लेते हैं सामने वाले के मन में क्या चल रहा है? वह किस विषय में सोच रहा है? उनकी इसी खूबी के सारे देश के लोग दीवाने हो रहे हैं। और दिन प्रतिदिन उनके समर्थक बढ़ते जा रहे हैं। अब वे चमत्कार कर रहे या विज्ञानं है, ये शोध का विषय है। लेकिन जिस चमत्कार के लोग दीवाने हो रहे, वही चमत्कार उत्तराखंड के पहाड़ों में लोग बरसों से करते आ रहे हैं, उन्हें हम पहाड़ में गणतुवा या पुछयारा कहते हैं।

उत्तराखंड की लोक भाषा में गणतुवा, पुछयारा, पुछेर या बाक्की वह व्यक्ति कहलाता है, जो आधिदैविक, अधिभौतिक व मानसिक कष्टों से पीड़ित व्यक्ति के द्वारा उनके कारणों और निवारण हेतु पूछे गए सवालों का शरीर में अवतरित दैवीय शक्ति के माध्यम से जवाब देता है। पुछयारी का  शाब्दिक अर्थ होता है, पूछताछ के आधार पर समाधान करने वाला। और गंतुवा का अर्थ होता है गणना करके समाधान देने वाला। वास्तव में गंतुवा पीड़ित के द्वारा लाये गए चावलों पर गणना करके अपना समाधान देता है।

इस कार्य हेतु गणतुवा प्रतिदिन स्नानदि से पवित्र होकर एक आसान पर बैठता है। एक मुट्ठी या सावा मुठ्ठी चावल के दाने पीड़ित के हाथ से छुवा कर या उसके सर से घुमा कर, गणतुवा के सामने रख देते हैं। वह बारी बारी से उन्हें उठाकर दैवीय आवेश में उनका परिक्षण करता है। इसके बाद वह उस पीड़ित के कष्टों और कारणों को बताता है। जो की प्रायः किसी देवी देवता  या पितृ की उपेक्षा किये जानेउन्हें  या उनके प्रति किये हुए वादे पूरा न किये जाने से कुपित होने के संबंध में होते हैं। इसके साथ शांत एवं संतुष्ट करने के उपाय भी बताता है।कई बार ये होता है कि मौसमी बिमारियों या भौतिक व्याधियों से परेशान लोग भी गंतुवा के पास जाते हैं। गंतुवा उन्हें कर्म रोग बताकर डॉक्टरी चिकत्सा लेने या परहेज करने की सलाह देते हैं।

अब सामने वाले के मन की बात जानना चमत्कार है तो, पहाड़ों के गणतुवा, पुछेर ये चमत्कार बरसों से कर रहे हैं। अगर ये विज्ञान या जादुई ट्रिक है तो पहाड़ के पुछेर या गंतुवे तारीफ के अधिकारी हैं, वे बिना किसी शिक्षा, बिना अभ्यास के आपकी मन की बात जान लेते हैं।

गणतुवा
गणतुवा

समाज में  जब कोई सामान्य मानवीय सामर्थ्य से अधिक कार्य करके दिखाता है तो उस समाज के सामान्य श्रद्धावान लोग उस कार्य को उस मानव का चमत्कार , दैवीय चमत्कार या देव वरदान के रूप में मानते हैं। और उसी समाज के तथाकथित बुद्धिजीवी लोग उस कार्य को मैजिक ट्रिक या विज्ञान से जोड़ते हैं। समाज में इस प्रकार की घटनाएं चलती रहती हैं। कई बार श्रद्धावान मनुष्यों का मत सही होता है ,क्योकि संसार में कभी -कभी ऐसी घटनाये घटित होती हैं जिनके आगे विज्ञानं के सिद्धांत भी बौने लगते हैं। और इन्ही अप्रत्याशित घटनाओं के कारण कई लोग अतिश्रद्धावान हो जाते है। उनकी ऐसी अतिश्रद्धा का लाभ समाज के कुछ चतुर लोग लाभ उठाते हैं। ये सिलसिला समाज में चलता रहता है।

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नोट -प्रस्तुत लेख में हमारा उद्देश्य केवल इतना बताना है, कि जिस चमत्कार के बारे में देश में भीषण चर्चा का माहौल बना है ,वह चमत्कार हमारे पहाड़ों में बरसों से होता है, और यह पहाड़ वासियों के दैनिक जीवन का हिस्सा है। अब यह जादू है या चमत्कार यह शोध का विषय है।

सरस्वती चौकी ऐपण और छोलिया नृत्य आज कर्तव्य पथ पर बढ़ाएंगे उत्तराखंड की शान

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सरस्वती चौकी ऐपण
सरस्वती चौकी ऐपण

आज 26 जनवरी 2023 गणतंत्र दिवस परेड में कर्तव्य पथ पर देवभूमि उत्तराखण्ड की मानसखण्ड झांकी नजर आएगी। मानसखण्ड झांकी में प्रसिद्ध जागेश्वर धाम, कार्बेट नेशनल पार्क में विचरण करने वाले पशु पक्षियों के साथ उत्तराखंड की प्रसिद्ध ‘ऐपण’ कला से बनी सरस्वती चौकी ऐपण चार चांद लगाएगी।

जैसा कि हम सबको पता है, उत्तराखंड में मानसखंड कुमाऊं मंडल के भाग को बोला जाता है। जागेश्वर धाम भगवान शिव को समर्पित मानसखंड (कुमाऊ उत्तराखंड) का सुप्रसिद्ध धाम है, कहते हैं इस धाम को कत्यूरियों ने एक रात में निर्मित किया था।

कार्बेट नेशनल पार्क उत्तराखंड के सबसे बड़े पार्कों में से एक है। वही छोलिया नृत्य उत्तराखंड का प्रसिद्ध लोक नृत्य है। कहते प्राचीन काल मे उत्तराखंड के राजाओं ने अपने युद्धभूमि के युद्ध कौशल व विजयोत्सव के लिए आविष्कृत किया गया यह नृत्य ,वर्तमान में उत्तराखंड की संस्कृति का अभिन्न अंग है।

ऐपण कला उत्तराखंड के मानसखंड की लोक कला है। जिसे वर्तमान में कई युवा साथी अपने अथक परिश्रम से संवार रहे है। इन्ही में एक नाम है मिनाक्षी खाती जिन्हें ऐपण गर्ल के नाम से भी जाना जाता है। मानसखंड झांकी में उन्हीं की टीम द्वारा निर्मित सरस्वती चौकी ऐपण का प्रदर्शन होगा । जो उत्तराखंड के लिए गर्व का विषय है और युवाओं के लिए प्रेणादायक है।

सरस्वती चौकी ऐपण क्या है –

उत्तराखंड में नामकरण, जनेऊ संस्कार, तथा बसंत पंचमी पर सरस्वती चौकी ऐपण का निर्माण किया जाता है। इस चौकी का निर्माण मुख्यतः धरातल पर किया जाता है। कुछ स्थितियों में चौकी पर भी इसका निर्माण होता है। सरस्वती चौकी ऐपण का नौ बिन्दुओं द्वारा निर्माण होता है। इन बिन्दुओं को रेखा द्वारा इस प्रकार जोड़ा जाता है कि आठ भद्र स्वरुप बनते हैं। यह आलेखन सरस्वती चौकी ऐपण अथवा अष्टदल कंवल कहलाती है। इसको बनाने के बाद ही इस ऐपण के ऊपर देवताओं को स्थपित किया जाता है। एक तारा स्वरूप का निर्माण किया जाता है। इसमें पांच कोण होते हैं। इसे स्वस्तिक यंत्र, पंच शिखा या पंचानन भी कहा जाता है। यह चिन्ह संसार की संरचना का सूचक है। सरस्वती चौकी ऐपण के पांच कोण पांच तत्वों, पृथ्वी, जल, आकाश, वायु, अग्नि के द्योतक हैं।

सरस्वती चौकी ऐपण
सरस्वती चौकी ऐपण फ़ोटो साभार मीनाकृति ऐपण प्रोजेक्ट

छोलिया नृत्य उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल का विशिष्ट लोक नृत्य

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छोलिया नृत्य

छोलिया नृत्य क्या है?

यह नृत्य ढोल, दमाऊ, नगाड़ा, तुरी, मशकबीन आदि वाद्य यंत्रों की संगति पर विशेष वेश -भूषा में हाथों में सांकेतिक ढाल तलवार के साथ युद्ध कौशल का प्रदर्शन करने वाला , उत्तराखंड कुमाऊं मंडल  का विशिष्ट लोक नृत्य है। इसके नामकरण के बारे में श्री जुगल किशोर पेटशाली जी कहते हैं, “यह नृत्य युद्धभूमि में लड़ रहे शूरवीरों की वीरता मिश्रित छल का नृत्य है। छल से युद्ध भूमी में. दुश्मन को कैसे पराजित किया जाता है, यही प्रदर्शित करना इस नृत्य का मुख्य लक्ष्य है। इसीलिए इसे छल नृत्य, छलिया नृत्य या छोलिया नृत्य कहा जाता है।

छोलिया नृत्य का इतिहास-

उत्तराखंड के लोकनृत्य छोलिया नृत्य के इतिहास के बारे में कोई सटीक जानकारी उपलब्ध नहीं है, कि यह लोकनृत्य कब शुरू हुवा। इतिहासकारों का मानना है कि, कुमाऊं के राजाओं ने जब विजयोपरांत अपनी विजय की गाथा राजमहल में सुनाई तो, रानियों का मन भी इस अद्भुत क्षण को देखने को हुवा तब सैनिको ने एक नृत्य के रूप में, युद्ध के मैदान का सजीव वर्णन  विजयोत्सव के रूप करके दिखा दिया, और धीरे -धीरे यह लोकनृत्य के रूप में आम जनता ने अंगीकार लिया।

युद्ध कौशल प्रदर्शन होता है छोलिया डांस में –

छोलिया नृत्य के नाम से अभिनीत किये जाने वाले इस नृत्य में ,नृत्य की अपेक्षा युद्धकौशल का प्रदर्शन अधिक होता  है। क्योकि इसमें न तो नृत्यगीत का साहचर्य होता है ,और न ही किसी लय -ताल का प्रतिबंध। नर्तकों की वेश भूषा और नृत्य उपकरणों से भी यही सिद्ध होता है।

इसके अलावा यहाँ के क्षत्रिय वर्गीय लोगों की बारात  के साथ होने ,बारात के प्रस्थान के समय विजययात्रा के प्रतीक लाल धव्ज ( निशाण ) को लेकर चलने वाले ,तथा वापसी के समय विजय या सुलह का प्रतीक सफ़ेद ध्वज के साथ लौटने की परंपरा भी छलिया नृत्य के इसी ऐतिहासिक पृष्ठ्भूमि की पुष्टि करता है कि यह नृत्य विजयोत्सव का प्रतीक है। कुमाऊनी शादियों में इस विधा की शुरुवात कबसे हुई इसके बारे में सटीक तौर पर कुछ कह पाना कठिन है।

छोलिया नृत्य के इतिहास या उद्भव के बारे में प्रो dd शर्मा अपनी किताब उत्तराखंड ज्ञानकोष में बताते हैं कि , छोलिया नृत्य के संदर्भ में कहा जाता है कि इसी प्रकार के नृत्य का उल्लेख हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के अंतर्गत ” छालिक्य क्रीड़ा ”  नामक नृत्य का वर्णन किया गया है। यद्धपि निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जाता है ,कि कुमाउनी छलिया नृत्य या छोलिया नृत्य का स्रोत यही है।

विजयी सैनिकों का विजयोत्सव था छोलिया नृत्य –

उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के क्षत्रिय वर्ग द्वारा इसे वैवाहिक अवसर पर मनोरंजन के लिए इसका प्रदर्शन किये जाने के कारण इसे नृत्य नाम देकर लोक नृत्य में परिगणित किया जाता है।

किन्तु यह मूलतः कुमाऊं के राजाओं के पारम्परिक संघर्षों के बाद विजयी राजा के सैनिकों द्वारा किये जाने वाला विजयोत्सव हुवा करता था। छोलिया नृत्य के बारे यह भी कहा जाता है ,कि मध्यकाल में पहाड़ी क्षेत्रों में प्रतिद्वंदी छत्रिय नायकों की कन्याओं या प्रतिद्वंदी की बारात में से वधु का अपहरण कर लिया जाता था। उस समय के क्षत्रिय अपनी वर यात्रा में तलवारबाजी में पारंगत योद्धाओं को बारात में ले जाते थे। और वे योद्धा बारातियों को आश्वस्त करने के लिए अपने युद्ध कौशल का प्रदर्शन करते रहते थे।

छोलिया नृत्य
छोलिया नृत्य

पहाड़ी छोलिया नृत्य का स्वरूप –

लोक भाषा में इसे छोलिया नृत्य न बोलकर छोला खेलना कहते हैं। इसमें भाग लेने वाले नर्तकों को छोल्यार कहते हैं। पिथौरागढ़ आदि क्षेत्रों में इन कलाकारों को छलेर, छलेति, छलेरिया या छोलिया कहा जाता है। चम्पावत में नच्या या छोलारे भी कहते हैं। इसमें ढोल दमाऊ, रणसिंघ आदि वाध्ययंत्रों का प्रयोग होता है। इसमें कम से कम आठ अनिवार्य और अधिकतम बाइस नर्तक भाग लेते हैं।

छलिया नृत्य की वेश भूषा –

इसी प्रकार इसमें भाग लेने वाले कलाकारों की वेश भूषा भी अन्य लोकनृत्यों में प्रयोग की जाने वाली वेश भूषा से, अलग होती है। इस नृत्य की एक निश्चित वेश भूषा होती है। इसमें चुस्त चूड़ीदार सफ़ेद पैजामा, घेरदार सफ़ेद लम्बा चोला, जिसमे कमरबंद के कसे जाने पर सलवटें पड़ जाती हैं। कमर पर लाल कपड़े का कमरबंद और उसके ऊपर अर्धांग में लाल जामुनी या वनकशी रंग की लाल, हरी, पीली धारियों से युक्त वास्केट होती है।

इस पर कही कही कमर तक लम्बी दो झालर युक्त लाल पत्तियां होती हैं, जो अंत में एक दूसरे को काटती हुई दोनों और लटकी रहती है। सर में एक ओर लटकती हुई सफ़ेद पगड़ी होती है। जिसमे बाये कान के ऊपर लटकती हुई झालर, पावों में टखने से घुटने तक ऊन के कपडे की मोटी पट्टियां, कानों में बाली, माथे पर चन्दन या रोली का टीका होता है।

इन सभी अलंकरणों के से पहले इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है, कि ये वेश भूषा शरीर पर एकदम फिट बैठे। ताकि नर्तकों को कलाबाजी करते समय या पैतरेबाजी करते समय परेशानी न हो। इस वेश भूषा के अलावा दाएं हाथ में तलवार और बायें हाथ में ढाल होती है। नृत्य के दौरान ढाल तलवार को घुमाने में आसानी हो इसलिए इसे छोटा रखा जाता है। तलवार से किसी को नुकसान न पहुंचे इसलिए इसकी धार को ख़त्म कर दिया जाता है।

छलिया नृत्य मण्डली में प्रायः दो नर्तक कलाकार, दो या तीन  ढोल दमऊ इत्यादी वादक, एक या दो मशकबीन वादक एक झाझ वादक और एक रणसिंघ वादक होता है। इसके अतिरिक्त नर्तकों की संख्या दो या दो अधिक हो सकती है। और वाद्य यंत्र भी अधिक प्रयुक्त हो सकते हैं। इनकी संख्या हमेशा दो के सम में बढ़ती है।

छलिया नृत्य में भाव भंगिमा –

इसमें भाग लेने वाले कलाकारों को पदक्रम, पदविन्यास, पद्संचालन और भाव भंगिमा का विशेष ध्यान रखना होता है। इसके लिए छोलिया नृत्य में प्रशिक्षित कलाकार ही भाग ले सकते हैं। इन कलाकारों की अंग भंगिमाएं दर्शनीय और मनोरंजक होती है। ये कलाकार कभी आँख भुकुटि आदि के संचालन से अपने प्रतिद्वंदी को चिढ़ाते, ललकारते और डराने की कोशिश करते हैं। कभी नाक और मुँह की भंगिमाओं से अपने प्रतिद्वंदी के प्रति घृणा, उपेक्षा आदि के भावों का प्रदर्शन करते हैं।

इससे दर्शक मन ही मन में आनंद और कलाकारों के प्रति प्रशंशा के भावों में डूबे रहते हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि, इस छलिया नृत्य में अपनी फुर्तीली पैंतरेबाजी और तेजी से अपने प्रतिद्वंदी पर आक्रमण कर सकने में प्रवीण कलाकार ही दर्शकों के ह्रदय में राज कर सकता है।

छोलिया नृत्य में गीत संगीत-

छोलिया नृत्य में संगति करने वाले वाद्य यंत्रों का भी विशेष महत्व होता है। इन वाद्य यंत्रों की लय ताल के अनुसार ही कलाकारों की आंगिक मुद्राओं, भाव भंगिमाओं, पद संचालन, शस्त्र संचालन आदि का प्रदर्शन हुवा करता है। बारातों के संदर्भ में भी देखा जाता है कि यात्रा के पड़ावों आदि के अनुसार वाद्यों का लय ताल आदि बदलता रहता है। कहते हैं पहले वधु पक्ष वाले वर पक्ष के वाद्य संगीत के अनुसार बारात की दुरी का अंदाज लगा लेते थे। कुमाऊं में बारात प्रस्थान के समय वीर रस युक्त संगीत और बारात वापसी के समय शृंगार रस युक्त संगीत का प्रयोग किया जाता है।

इसके अलावा बारात की स्थिर अवस्था में सभी वाध्ययंत्र बाजक अर्धचन्द्राकार रूप में खड़े हो जाते हैं। और नर्तक बीच में अपने नृत्य का प्रदर्शन करते हैं। और सचल स्थिति में रणसिंघ रणघोष करता हुवा आगे चलता है। बाकी सब उसके पीछे पीछे चलते हैं।

छोलिया नृत्य

छोलिया नृत्य का महत्व-

उत्तराखंड कुमाऊं की संस्कृति में छोलिया नृत्य  का विशेष महत्व है। यह लोक नृत्य ऐतिहासिक होने के साथ साथ कुमाउनी संस्कृति को एक विशिष्ट पहचान देता है। राजाओं की वीरता के प्रदर्शन से कुमाऊं के सांस्कृतिक जीवन में उतरा उत्तराखंड का लोक नृत्य छोलिया नृत्य कभी कुमाऊं की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा हुवा करता था। पिछले समय की क्षत्रिय बारातों की इसके बिना शोभा नहीं होती थी।

कुमाऊं की बारातों में सबसे आगे मांगलिक प्रतीकों ,सूर्य ,चंद्र , स्वास्तिक से अंकित लाल रंग का ध्वज (निशाण) होता था। उसके पीछे रणसिंघ ,ढोल दमाऊ , मशकबीन वादक और उनके पीछे छोलिया नर्तक और वर तथा वरयात्री होते थे। रणसिंघ की आवाज से श्रीगणेश के साथ ढोल दमाऊ और मशकबीन की धुन में छोलिया नर्तक अपनी पैतरेबाजी और चपलता और नृत्य के साथ भावभंगिमाओं से बारात में आये लोगों का मनोरंजन करते हैं।

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विलुप्ति की कगार पर है कुमाऊं का लोकनृत्य –

कुमाऊ मंडल के क्षत्रियों के सांस्कृतिक जीवन का अभिन्न अंग समझी जाने वाली यह विशिष्ट कला अब विलुप्तप्राय हो रही है। पुरानी पीढ़ी द्वारा सर्वमान्य सांस्कृतिक परम्परा अब सरकारी स्तर पर आयोजित एक प्रदर्शनी मात्र रह गई है।  निपुण प्रशिक्षित कलाकारों की दिन प्रतिदिन कमी हो रही है। अब वो दिन दूर नहीं जब आने वाली पीढ़ियां, वर्तमान पीढ़ी द्वारा संरक्षित फोटो या वीडियो को देखकर या किताबों या इंटरनेट पे लिखे लेख पढ़कर इनके बारे में जानकारी प्राप्त कर सकेगी।

उपरोक्त लेख का संदर्भ-

  • उत्तराखंड ज्ञान कोष – प्रो DD शर्मा
  • तारादत्त सत्ती लेख १९९५
  • इंटरनेट पर उपलब्ध ज्ञानकोष

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उत्तराखंड के लोकनृत्य पर निबंध।

गढ़वाली में सरस्वती वंदना | कुमाऊनी सरस्वती वंदना

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गढ़वाली में सरस्वती वंदना
गढ़वाली में सरस्वती वंदना

अपनी भाषा ,अपनी बोली के प्रचार -प्रसार को ध्यान में रखते हुए उत्तराखंड के आदरणीय  शिक्षकों ने ,गढ़वाली और कुमाउनी भाषा में सरस्वती वंदना की रचना करके एक सराहनीय पहल शुरू की है। प्रस्तुत लेख हम गढ़वाली सरस्वती वंदना और कुमाउनी सरस्वती वंदना के बोल संकलित कर रहे हैं।

गढ़वाली में सरस्वती वंदना-

नमो भगवती मां सरस्वती
यनू ज्ञान कू भंडार दे,
पढ़ी- लिखीं हम अग्नै बढ़ जऊं
श्रेष्ठ बुद्धि  अपार दे।
नमो भगवती मां सरस्वती…..
कर सकूं हम मनुज सेवा
बुद्धि दे विस्तार दे।
जाति धर्म से ऐंच हो हम
मां यनु व्यवहार दे।

अज्ञानता का कांडा काटी
ज्ञान की फुलारी दे।
पढ़ी-लिखीं हम अग्नै बढ़ जाऊं
श्रेष्ठ बुद्धि अपार दे।
नमो भगवती मां सरस्वती…..
जिकुड़ा माया, कठोर काया
मन म सुच्चा विचार  दे।
क्षमा, दया मन मा ,
बड़ों का आदर सत्कार दे।
हे हंस वाहिनी सरस्वती
भव सिंधु  पार उतार दे।
पढ़ी-लिखी हम अग्नै बढ़ जऊं
्रेष्ठ बुद्धि अपार दे।
नमो भगवती माँ  सरस्वती…..
दुर्व्यसनु का दैंत माता खैंचणा चौंदिशु बिटी।
यानी दे बुद्धि, ताकत हमू तै,
आव न जू रिंगी रिटी।
हे कमलआशनी, वीणा वादिनी प्रेम कू संसार दे।
पढ़ी-लिखी हम अग्ने  बढ़ जऊं श्रेष्ठ बुद्धि अपार दे।
नमो भगवती मां सरस्वती….

गढ़वाली में सरस्वती वंदना के बाद हम आगे कुमाउनी में सरस्वती वंदना के बोल संकलित कर रहें हैं।

कुमाउनी सरस्वती प्रार्थना-

दैण ह्वै जाए माँ सरस्वती माँ सरस्वती दैण ह्वै जाए
हिंग्वाली अन्वार तेरि हंस की सवारी मैय्या हंस की सवारी।
तू हमरी ज्ञानदात्री हम त्यारा पुजारी मैय्या हम त्यारा पुजारी।
बुद्धि दी दिए मति दि दिए माँ सरस्वती दैण ह्वै जाए।
तेरि कृपा की चाह में , छूं सच्चाई की राह में ,छूं सुण ले माँ पुकार।
जाति धर्म छोडि छाड़ि, नक विचार छोडि छाडि, भल दिए विचार।
ध्यान धरिए भल करिए माँ सरस्वती दैण ह्वै जाए

श्वेत हंस, श्वेत कमल, श्वेत माला मोती।
एक हाथ में वीण छाजि रै एक हाथ में पोथी।
झोली भरिए ,पार करिए माँ सरस्वती दैण ह्वै जाए
मन को अन्ध्यार मिटाए , ज्ञान को दीपक जलाए ज्ञान को दीपक।
तेरि करछूं मैं विनती , मेरि धरिए लाज मैय्या मेरि धरिए लाज।
ज्ञान दी दिए विवेक दी दिए मां सरस्वती दैण ह्वै जाए।

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यह कुमाउनी प्रार्थना, श्री रमेश चन्द्र जोशी (सत्यम जोशी) अध्यापक  रा०प्रा०वि० जारा धारचूला, पिथौरागढ़ उत्तराखण्ड द्वारा रचित है।

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ईजू मेरी प्यारी ईजा – सुरीली आवाज और शानदार लेखनी के साथ आ गया है साल 2023 का बेस्ट कुमाउनी गीत !

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ईजू मेरी प्यारी ईजा
Best kumauni song 2023

ईजू मेरी प्यारी ईजा साल 2023 का बेस्ट कुमाउनी गीत –

भगवानो को  रूप भगवान छू ईजा  …… स्वर्ग  को धरती  में  एक  वरदान छू ईजा इस बार साल के पहले महीने ही, कुमाउनी लोक संगीत की दुनिया एक ऐसा गीत रिलीज़ हुवा है ,जिसे अब तक का साल 2023 का बेस्ट कुमाउनी गीत कहा जाय तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। हालाँकि अभी पूरा साल पड़ा है ,और जिस हिसाब से कुमाउनी लोक संगीत इंडस्ट्री में गीत रिलीज़ हो रहे हैं ,दिसंबर 2023 तक एक से बढ़कर एक कुमाउनी गीत आएंगे। लेकिन जनवरी 2023 में टीम घुघूती जागर RD चैनल पर  रिलीज़ “ईजू मेरी प्यारी ईजा”  ने लोगो के दिलों में अपना खास स्थान बना लिया है। यूट्यूब पर रिलीज़ होने के बाद से लगातार  इस गीत को लोगों का प्यार मिल रहा है। मात्र कुछ ही दिनों में कई हजार लोग इस गीत को देख व् पसंद कर चुके हैं।

टीम घुघूती जागर यूट्यूब चैनल हमेशा शानदार लेखनी और सुरीली आवाज से सजे  संस्कृति से जुड़े कुमाउनी गीत पेश करती है। ईजू मेरी प्यारी ईजा  गीत को भी उन्होंने खास बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। वैसे भी टीम घुघूती जागर की मेहनत और ईजा का नाम इस गीत को खास बना देता है।  ( Best kumauni song 2023 )

राजेंद्र ढैला जी ने ,इस गीत को अपने सुंदर और भावनात्मक शब्दों से सजाया है। और उन्होंने ही इस प्यारे से गीत को अपनी आवाज दी है। सागर शर्मा इस गीत के संगीतकार है। और  टीम घुघूती जागर के खास सदस्य गिरीश शर्मा जी ने इस गीत के लिए रिकॉर्डिंग ,कैमरा आदि कार्यभार सम्हाला है।

टीम घुघूती जागर का ये सुन्दर गीत ईजू मेरी प्यारी ईजा का वीडियो यहाँ देखें –

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