Wednesday, October 9, 2024
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‘निशाण’ उत्तराखंड की समृद्ध संस्कृति के प्रतीक ऐतिहासिक ध्वज

चित्र में आप जो ध्वज देख रहे हैं उसे ‘निशाण’ कहते हैं। ‘निशाण’ हिंदी शब्द निशान से बना है, यानी कि संकेत/चिन्ह। बद्रीदत्त पांडे जी की पुस्तक ‘कुमाऊं का इतिहास’ के अनुसार राजा सोमचंद(700वीं ईस्वी) के विवाह में निशाण पहली बार उपयोग किया गया। उसी समय छोलिया नृत्य भी पहली पहली बार किया गया। कुल मिलाकर निशाण की परंपरा 1000 वर्ष से भी पुरानी है, और अब यह हमारी संस्कृति का अहम हिस्सा है।

किताब के अनुसार सोमचंद के शासन के बाद से ही जब किसी राजा की पुत्री का चुनाव करने के लिये कोई अन्य राजा अपने राज्य से निकलता था तो सफेद ध्वज आगे रखता था लेकिन दोनों ध्वजों के बीच तलवार और ढाल के साथ सैनिक व सारे वाद्य यंत्र होते थे। तब वे सैनिक आपस में ही युद्ध कला का अभ्यास करते हुए चलते थे पर कालांतर में इसने छोलिया नृत्य का रूप ले लिया, और आमजन भी अपने विवाह आदि में ध्वज(निशाण) का उपयोग करने लगे और अभी भी हमारे यहां शादियों में ध्वज ले जाने की परंपरा है। जब दूल्हा अपने घर से निकलकर दुल्हन के घर जाता है तो आगे सफेद रंग का ध्वज होता और पीछे लाल रंग का।

कहा गया है कि तब राजाओं द्वारा सफेद ध्वज शांति के लिए होता था, इस संकेत में कि हम आपकी पुत्री का चुनाव करने आये हैं और शांति के साथ विवाह संपन्न करवाना चाहते हैं। इसलिए दूसरे राज्य/कबीले की ओर बढ़ते हुए सफेद ध्वज आगे रहता था जबकि लाल रंग का ध्वज इस संकेत के साथ जाता था कि विवाह हेतु वे युद्ध करने के लिये भी तैयार हैं। वहीं जब विवाह संपन्न हो जाता तो फिर घर वापसी के समय लाल रंग का ध्वज आगे और सफेद रंग का पीछे होता था। लाल रंग का ध्वज तब इस सूचक/संकेत के रूप में आगे रखा जाता कि वे विजेता बनकर लौटे हैं और दुल्हन को साथ लेकर आ रहे हैं।

यहां में अपना मत रख दूं कि आज के समय हमारे समाज मे विवाह के समय ध्वज के उपयोग के पीछे यह सोच किसी की भी नहीं होती कि वे लड़की को जीतने जा रहे हैं या जीतकर आ रहे हैं, पर पुराने जमाने से यह प्रथा चल रही है और अब हमारी संस्कृति का अहम हिस्सा है इसलिए इसे त्यागना हम उचित नहीं समझते न उचित है। आज के परिप्रेक्ष्य के अनुसार परम्पराओं के मायने बिल्कुल बदल चुके हैं, और अब यह निशाण केवल शादियों में नहीं ले जाए जाते बल्कि लगभग हर शुभ कार्य मे इनकी अहम भूमिका है।

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वर्तमान में इन ध्वजों का स्वरूप- यह ध्वज तिकोने होते हैं और किसी लंबी मोटी लकड़ी पर लिपटे होते हैं तथा लकड़ी ऊपर त्रिशूल या बड़ा सा चाकू लगा रहता है। जो चित्र नीचे संलग्न हैं, उनमे त्रिशूल वाला हमारे गांव के निशाण का ऊपरी हिस्सा है तथा दूसरा चित्र पड़ोसी गांव मौवे से योगेश जी द्वारा लिया गया है, जिसमे कुछ बच्चे ध्वज ले जा रहे।

इसे भी पढ़े: छोलिया नृत्य उत्तराखंड का प्रसिद्ध लोक नृत्य के बारे में समूर्ण जानकारी

लेखक परिचय –
श्री राजेंद्र सिंह नेगी उत्तराखंड अल्मोड़ा जिले के सोमेश्वर क्षेत्र के निवासी हैं। राजेंद्र सिंह नेगी जी को उत्तराखंड की पहाड़ी संस्कृति से बहुत लगाव है।  वे आभासी दुनिया के साथ साथ ,वास्तविक धरातल पर भी पहाड़ की संस्कृति और परम्पराओं के सवर्धन के लिए हमेशा प्रयासरत रहते हैं। राजू नेगी जी उत्तराखंड की संस्कृति को समर्पित लेखों के अलावा यूट्यूब पर एक ब्लॉग चैनल का संचालन करते हैं ,जिस पर वे बड़ी सादगी से पहाड़ के सरल दिखने वाले संघर्षपूर्ण जीवन को दिखाते हैं।

राजू नेगी ब्लॉग देखने के लिए आप यहाँ क्लिक कर सकते हैं।

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Bikram Singh Bhandari
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बिक्रम सिंह भंडारी देवभूमि दर्शन के संस्थापक और लेखक हैं। बिक्रम सिंह भंडारी उत्तराखंड के निवासी है । इनको उत्तराखंड की कला संस्कृति, भाषा,पर्यटन स्थल ,मंदिरों और लोककथाओं एवं स्वरोजगार के बारे में लिखना पसंद है।
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