Thursday, March 28, 2024
Homeसंस्कृतिछोलिया नृत्य उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल का विशिष्ट लोक नृत्य ।

छोलिया नृत्य उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल का विशिष्ट लोक नृत्य ।

छोलिया नृत्य क्या है ?

यह नृत्य ढोल ,दमाऊ ,नगाड़ा ,तुरी ,मशकबीन आदि वाद्य यंत्रों की संगति पर विशेष वेश -भूषा में हाथों में सांकेतिक ढाल तलवार के साथ युद्ध कौशल का प्रदर्शन करने वाला , उत्तराखंड कुमाऊं मंडल  का विशिष्ट लोक नृत्य है। इसके नामकरण के बारे में श्री जुगल किशोर पेटशाली जी कहते हैं ,”यह नृत्य युद्धभूमि में लड़ रहे शूरवीरों की वीरता मिश्रित छल का नृत्य है। छल से युद्ध भूमी में. दुश्मन को कैसे पराजित किया जाता है , यही प्रदर्शित करना इस नृत्य का मुख्य लक्ष्य है। इसीलिए इसे छल नृत्य ,छलिया नृत्य या छोलिया नृत्य कहा जाता है।

छोलिया नृत्य का इतिहास  –

उत्तराखंड के लोकनृत्य छोलिया नृत्य के इतिहास के बारे में कोई सटीक जानकारी उपलब्ध नहीं है ,कि यह लोकनृत्य कब शुरू हुवा। इतिहासकारों का मानना है कि ,कुमाऊं के राजाओं ने जब विजयोपरांत अपनी विजय की गाथा राजमहल में सुनाई तो ,रानियों का मन भी इस अद्भुत क्षण को देखने को हुवा तब सैनिको ने एक नृत्य के रूप में ,युद्ध के मैदान का सजीव वर्णन  विजयोत्सव के रूप करके दिखा दिया ,और धीरे -धीरे यह लोकनृत्य के रूप में आम जनता ने अंगीकार लिया।

युद्ध कौशल प्रदर्शन होता है छोलिया डांस में –

छोलिया नृत्य के नाम से अभिनीत किये जाने वाले इस नृत्य में ,नृत्य की अपेक्षा युद्धकौशल का प्रदर्शन अधिक होता  है। क्योकि इसमें न तो नृत्यगीत का साहचर्य होता है ,और न ही किसी लय -ताल का प्रतिबंध। नर्तकों की वेश भूषा और नृत्य उपकरणों से भी यही सिद्ध होता है। इसके अलावा यहाँ के क्षत्रिय वर्गीय लोगों की बारात  के साथ होने ,बारात के प्रस्थान के समय विजययात्रा के प्रतीक लाल धव्ज ( निशाण ) को लेकर चलने वाले ,तथा वापसी के समय विजय या सुलह का प्रतीक सफ़ेद ध्वज के साथ लौटने की परंपरा भी छलिया नृत्य के इसी ऐतिहासिक पृष्ठ्भूमि की पुष्टि करता है कि यह नृत्य विजयोत्सव का प्रतीक है। कुमाऊनी शादियों में इस विधा की शुरुवात कबसे हुई इसके बारे में सटीक तौर पर कुछ कह पाना कठिन है।

छोलिया नृत्य के इतिहास या उद्भव के बारे में प्रो dd शर्मा अपनी किताब उत्तराखंड ज्ञानकोष में बताते हैं कि , छोलिया नृत्य के संदर्भ में कहा जाता है कि इसी प्रकार के नृत्य का उल्लेख हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के अंतर्गत ” छालिक्य क्रीड़ा ”  नामक नृत्य का वर्णन किया गया है। यद्धपि निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जाता है ,कि कुमाउनी छलिया नृत्य या छोलिया नृत्य ( choliya dance ) का स्रोत यही है।

विजयी सैनिकों का विजयोत्सव था छोलिया नृत्य –

Best Taxi Services in haldwani

उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के क्षत्रिय वर्ग द्वारा इसे वैवाहिक अवसर पर मनोरंजन के लिए इसका प्रदर्शन किये जाने के कारण इसे नृत्य नाम देकर लोक नृत्य में परिगणित किया जाता है। किन्तु यह मूलतः कुमाऊं के राजाओं के पारम्परिक संघर्षों के बाद विजयी राजा के सैनिकों द्वारा किये जाने वाला विजयोत्सव हुवा करता था। छोलिया नृत्य के बारे यह भी कहा जाता है ,कि मध्यकाल में पहाड़ी क्षेत्रों में प्रतिद्वंदी छत्रिय नायकों की कन्याओं या प्रतिद्वंदी की बारात में से वधु का अपहरण कर लिया जाता था। उस समय के क्षत्रिय अपनी वर यात्रा में तलवारबाजी में पारंगत योद्धाओं को बारात में ले जाते थे। और वे योद्धा बारातियों को आश्वस्त करने के लिए अपने युद्ध कौशल का प्रदर्शन करते रहते थे।छोलिया नृत्य

पहाड़ी छोलिया नृत्य का स्वरूप –

लोक भाषा में इसे छोलिया नृत्य न बोलकर छोला खेलना कहते हैं। इसमें भाग लेने वाले नर्तकों को छोल्यार कहते हैं। पिथौरागढ़ आदि क्षेत्रों में इन कलाकारों को छलेर , छलेति , छलेरिया या छोलिया कहा जाता है। चम्पावत में नच्या या छोलारे भी कहते हैं। इसमें ढोल दमाऊ ,रणसिंघ आदि वाध्ययंत्रों का प्रयोग होता है। इसमें कम से कम आठ अनिवार्य और अधिकतम बाइस नर्तक भाग लेते हैं।

छलिया नृत्य की वेश भूषा –

इसी प्रकार इसमें भाग लेने वाले कलाकारों की वेश भूषा भी अन्य लोकनृत्यों में प्रयोग की जाने वाली वेश भूषा से, अलग होती है। इस नृत्य की एक निश्चित वेश भूषा होती है। इसमें चुस्त चूड़ीदार सफ़ेद पैजामा ,घेरदार सफ़ेद लम्बा चोला ,जिसमे कमरबंद के कसे जाने पर सलवटें पड़ जाती हैं। कमर पर लाल कपड़े का कमरबंद और उसके ऊपर अर्धांग में लाल जामुनी या वनकशी रंग की लाल ,हरी , पीली धारियों से युक्त वास्केट होती है। इस पर कही कही कमर तक लम्बी दो झालर युक्त लाल पत्तियां होती हैं ,जो अंत में एक दूसरे को काटती हुई दोनों और लटकी रहती है। सर में एक ओर लटकती हुई सफ़ेद पगड़ी होती है। जिसमे बाये कान के ऊपर लटकती हुई झालर , पावों में टखने से घुटने तक ऊन के कपडे की मोटी पट्टियां ,कानों में बाली ,माथे पर चन्दन या रोली का टीका होता है।

इन सभी अलंकरणों के से पहले इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है ,कि ये वेश भूषा शरीर पर एकदम फिट बैठे। ताकि नर्तकों को कलाबाजी करते समय या पैतरेबाजी करते समय परेशानी न हो। इस वेश भूषा के अलावा दाएं हाथ में तलवार और बायें हाथ में ढाल होती है। नृत्य के दौरान ढाल तलवार को घुमाने में आसानी हो इसलिए इसे छोटा रखा जाता है। तलवार से किसी को नुकसान न पहुंचे इसलिए इसकी धार को ख़त्म कर दिया जाता है।

छलिया नृत्य मण्डली में प्रायः दो नर्तक कलाकार ,दो या तीन  ढोल दमऊ इत्यादी वादक ,एक या दो मशकबीन वादक एक झाझ वादक और एक रणसिंघ वादक होता है। इसके अतिरिक्त नर्तकों की संख्या दो या दो अधिक हो सकती है। और वाद्य यंत्र भी अधिक प्रयुक्त हो सकते हैं। इनकी संख्या हमेशा दो के सम में बढ़ती है।

 छलिया नृत्य में भाव भंगिमा –

इसमें भाग लेने वाले कलाकारों को पदक्रम ,पदविन्यास ,पद्संचालन और भाव भंगिमा का विशेष ध्यान रखना होता है। इसके लिए छोलिया नृत्य में प्रशिक्षित कलाकार ही भाग ले सकते हैं। इन कलाकारों की अंग भंगिमाएं दर्शनीय और मनोरंजक होती है। ये कलाकार कभी आँख भुकुटि आदि के संचालन से अपने प्रतिद्वंदी को चिढ़ाते , ललकारते और डराने की कोशिश करते हैं। कभी नाक और मुँह की भंगिमाओं से अपने प्रतिद्वंदी के प्रति घृणा ,उपेक्षा आदि के भावों का प्रदर्शन करते हैं।

इससे दर्शक मन ही मन में आनंद और कलाकारों के प्रति प्रशंशा के भावों में डूबे रहते हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि ,इस  छलिया नृत्य में अपनी फुर्तीली पैंतरेबाजी और तेजी से अपने प्रतिद्वंदी पर आक्रमण कर सकने में प्रवीण कलाकार ही दर्शकों के ह्रदय में राज कर सकता है।

छोलिया नृत्य में गीत संगीत –

छोलिया नृत्य में संगति करने वाले वाद्य यंत्रों का भी विशेष महत्व होता है। इन वाद्य यंत्रों की लय ताल के अनुसार ही कलाकारों की आंगिक मुद्राओं , भाव भंगिमाओं , पद संचालन ,शस्त्र संचालन आदि का प्रदर्शन हुवा करता है। बारातों के संदर्भ में भी देखा जाता है कि यात्रा के पड़ावों आदि के अनुसार वाद्यों का लय ताल आदि बदलता रहता है। कहते हैं पहले वधु पक्ष वाले वर पक्ष के वाद्य संगीत के अनुसार बारात की दुरी का अंदाज लगा लेते थे। कुमाऊं में बारात प्रस्थान के समय वीर रस युक्त संगीत और बारात वापसी के समय शृंगार रस युक्त संगीत का प्रयोग किया जाता है।

इसके अलावा बारात की स्थिर अवस्था में सभी वाध्ययंत्र बाजक अर्धचन्द्राकार रूप में खड़े हो जाते हैं। और नर्तक बीच में अपने नृत्य का प्रदर्शन करते हैं। और सचल स्थिति में रणसिंघ रणघोष करता हुवा आगे चलता है। बाकी सब उसके पीछे पीछे चलते हैं।

छोलिया नृत्य का महत्व –

उत्तराखंड कुमाऊं की संस्कृति में छोलिया नृत्य  का विशेष महत्व है। यह लोक नृत्य ऐतिहासिक होने के साथ साथ कुमाउनी संस्कृति को एक विशिष्ट पहचान देता है। राजाओं की वीरता के प्रदर्शन से कुमाऊं के सांस्कृतिक जीवन में उतरा उत्तराखंड का लोक नृत्य छोलिया नृत्य कभी कुमाऊं की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा हुवा करता था। पिछले समय की क्षत्रिय बारातों की इसके बिना शोभा नहीं होती थी। कुमाऊं की बारातों में सबसे आगे मांगलिक प्रतीकों ,सूर्य ,चंद्र , स्वास्तिक से अंकित लाल रंग का ध्वज ( निशाण ) होता था। उसके पीछे रणसिंघ ,ढोल दमाऊ , मशकबीन वादक और उनके पीछे छोलिया नर्तक और वर तथा वरयात्री होते थे। रणसिंघ की आवाज से श्रीगणेश के साथ ढोल दमाऊ और मशकबीन की धुन में छोलिया नर्तक अपनी पैतरेबाजी और चपलता और नृत्य के साथ भावभंगिमाओं से बारात में आये लोगों का मनोरंजन करते हैं।

विलुप्ति की कगार पर है कुमाऊं का लोकनृत्य –

कुमाऊ मंडल के क्षत्रियों के सांस्कृतिक जीवन का अभिन्न अंग समझी जाने वाली यह विशिष्ट कला अब विलुप्तप्राय हो रही है। पुरानी पीढ़ी द्वारा सर्वमान्य सांस्कृतिक परम्परा अब सरकारी स्तर पर आयोजित एक प्रदर्शनी मात्र रह गई है।  निपुण प्रशिक्षित कलाकारों की दिन प्रतिदिन कमी हो रही है। अब वो दिन दूर नहीं जब आने वाली पीढ़ियां, वर्तमान पीढ़ी द्वारा संरक्षित फोटो या वीडियो को देखकर या किताबों या इंटरनेट पे लिखे लेख पढ़कर इनके बारे में जानकारी प्राप्त कर सकेगी।

उपरोक्त लेख का संदर्भ – 

  • उत्तराखंड ज्ञान कोष – प्रो DD शर्मा
  • तारादत्त सत्ती लेख १९९५
  • इंटरनेट पर उपलब्ध ज्ञानकोष

इन्हे भी पढ़े –

कुमाऊं में घुघुतिया त्यौहार पर खेले जाने वाला खास खेल, ‘गिर ‘ या “गिरी ” खेल।

ऐपण कला उत्तराखंड की लोक कला की सम्पूर्ण जानकारी

उत्तराखंड अल्मोड़ा के गल्ली बस्यूरा नामक गावँ में बसा है माँ नारसिंही का अद्भुत मंदिर।

हमारे व्हाट्सअप ग्रुप से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।

Follow us on Google News
Bikram Singh Bhandari
Bikram Singh Bhandarihttps://devbhoomidarshan.in/
बिक्रम सिंह भंडारी देवभूमि दर्शन के संस्थापक और लेखक हैं। बिक्रम सिंह भंडारी उत्तराखंड के निवासी है । इनको उत्तराखंड की कला संस्कृति, भाषा,पर्यटन स्थल ,मंदिरों और लोककथाओं एवं स्वरोजगार के बारे में लिखना पसंद है।
RELATED ARTICLES
spot_img
Amazon

Most Popular

Recent Comments