जोशीमठ का उत्तराखंड के राजनीति और सांस्कृतिक इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। ऐतिहासिक एवं धार्मिक महत्व का यह स्थान, उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल के चमोली जनपद में पैनखंडा परगने में समुद्रतल से 6107 फीट उचाई पर स्थित है। चमोली-बद्रीनाथ मार्ग पर कर्णप्रयाग से 75 किमी, चमोली से 59 किमी आगे और बद्रीनाथ से 32 किलोमीटर पहले औली डांडा की ढलान पर, अलकनंदा के बायीं ओर स्थित है। यहाँ से विष्णुप्रयाग लगभग 12 किलोमीटर दूर है। और जोशीमठ से फूलों की घाटी 38 किलोमीटर दूर है। कहा जाता है ,कि यहाँ 815 ईसवी पूर्व एक शहतूत के पेड़ के नीचे ज्ञान की दिव्य ज्योति प्राप्त की थी। तब से इसका नाम ज्योतिर्मठ पड़ा और जोशीमठ उसका विकसित रूप है। जोशीमठ में ही उन्होंने शंकर भाष्य नामक ग्रंथ की रचना की थी। यहाँ आदिगुरु शंकराचार्य ने अपने चार मठो में से एक मठ की रचना की थी। जिसका नाम ज्योतिर्मठ रखा था। कहा जाता है कि यह मठ शंकराचार्य ने अपने अनन्य शिष्य त्रोटका को सौप दिया था। बाद में वे यहाँ के प्रथम शंकराचार्य बने।
यहाँ पर स्थित शिवालय को ज्योतिश्वर महादेव कहा जाता है। मुख्य मंदिर भगवान् विष्णु को समर्पित है। इसके अलावा यहाँ पर भगवान विष्णु के अवतार भगवान् नरसिंह, वासुदेव, नवदुर्गा के मंदिर परिसर भी हैं। पहले शीतकाल में भगवान् बद्रीनारायण की उत्त्सव मूर्ति भी यहीं आती थी। यहाँ मुख्य मूर्ति भगवान् नरसिंह की है, जो काळा स्फटिक के पत्थर से बनी है। कहा जाता है कि इसका बयां हाथ प्रतिवर्ष कोहनी के पास से प्रतिवर्ष क्षीण होता जा रहा है। और जब यह पूरी तरह क्षीण होकर गिर जायेगा तो, नर और नारायण पर्वतों के मिल जाने से बद्रीनाथ धाम का मार्ग बंद हो जायेगा। उसके बाद भगवान् बद्रीनाथ की पूजा भविष्य बद्री में होगी। इसके पास पूर्णागिरि देवी का शक्तिपीठ है, यहाँ आदि शंकराचार्य की गद्दी है।
कत्यूर घाटी के कार्तिकेयपुर को अपनी नई राजधानी बनाने से पहले जोशीमठ कत्यूरियों की राजधानी थी और इसे कीर्तिपुर के नाम से जाना जाता था। कत्यूरी शाशकों के ताम्रपत्रों में इसे इसी नाम से अभिहीत किया गया है। बद्रीनाथ के पुजारी रावल और उनके अधीनस्थ कर्मचारियों का शीतकालीन निवास यही होता है। भगवान बद्रीनाथ की शीतकालीन पूजा भी यही होती है। कहा जाता है कि भगवान् बद्रीनाथ की शीतकालीन पूजा की परम्परा स्वामी रामानुजाचार्य ने 1450 ईसवी पूर्व की थी। यहाँ पर एक शहतूत का लगभग 2400 वर्ष पुराना वृक्ष है। इसकी जड़ की गोलाई 36 मीटर है। इसे पवित्र कल्पवृक्ष भी कहते हैं। इसके नीचे आदिशंकराचार्य की तपस्थली गुफा भी है। जिसे ज्योतिश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है।
माघ मेला प्रयागराज में इस वर्ष 6 जनवरी 2023 से शुरू होगा। प्रतिवर्ष पौष पूर्णिमा से माघ मेला शुरू होता है ,और इसका समापन माघपूर्णिमा के दिन होता है। माघ मेला हिन्दू धर्म का वार्षिक उत्सव है जो हिंदू कैलेंडर के अनुसार माघ (जनवरी और फरवरी) के महीने में मनाया जाता है। इसे मिनी कुंभ मेला भी कहा जाता है। यह मेला सनातन धर्म के लोगों लिए बहुत महत्व रखता
है। लोग त्रिवेणी संगम, 3 पवित्र नदियों गंगा, यमुना और सरस्वती के पवित्र संगम स्थल पर आते हैं। और यहाँ एक महीना कल्पवास करते हैं। माघ का महीना दान धर्म स्नान के लिए बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है।
माघ मेला 2023 स्नान तिथियां \लिस्ट –
6 जनवरी 2023 पौष पूर्णिमा को पहला स्नानं
15 जनवरी 2023 मकर संक्रांति के दिन दूसरा स्नान
21 जनवरी मौनी अमावस्या पर तीसरा स्नान
26 जनवरी बसंत पंचमी पर चौथा स्नानं।
05 फरवरी माघ पूर्णिमा पर पांचवा स्नान
18 फरवरी महाशिवरात्रि पर छठा स्नानं
कल्पवास क्या है
कल्पवास का मतलब होता है ,संगम तट पर निवास करते हुए वेदों का अध्ययन और ध्यान करना। प्रयाग के कुम्भ मेले और प्रत्येक वर्ष होने वाले माघ मेले में कल्पवास का अधिक महत्व माना जाता है। कल्पवास भक्ति और धैर्य का प्रतीक माना जाता है। कल्पवास दौरान दिन में एक बार भोजन किया जाता है। ऐसा विश्वास है कि जो कल्पवास का प्रण लेता है ,उसके पूर्वजन्मों के पाप कट जाते हैं तथा वह मानव अगले जन्म में राजा के रूप में जन्म लेता है।
कल्पवास प्राचीन सनातन संस्कृति की महान देन है। कल्पवास का विधान हजारों वर्षों से चला आ रहा है। प्राचीन काल में तीर्थराज प्रयाग ऋषिमुनियों की तपोस्थली थी। यहाँ गंगा यमुना के आस पास जंगल था। इस जंगल में ऋषिमुनि जप तप करते थे। उस समय ऋषिमुनियों ने सामान्य गृहस्थों के लिए कल्पवास का विधान बनाया था। इस कल्पवास के दौरान गृहस्थों को वेद और सनातन धर्म की शिक्षा दीक्षा दी जाती थी। जो भी सामान्य नागरिक कल्पवास के लिए आता था ,वो पर्णकुटीर में रहता था। कल्पवास के दौरान कल्पवासी एक बार भोजन करता है ,और धैर्य अहिंसा ,और भक्तिपूर्ण भावना से रहता है। कल्पवासी को सदाचारी , शांत मन और समस्त इन्द्रियों पर नियंत्रण रखने वाला होना चाहिए।
प्रयागराज में कल्पवास की परम्परा सदियों से चल रही है। प्रयाग के संगम पर प्रतिवर्ष माघ मास के दौरान पौष पूर्णिमा से माघ पूर्णिमा तक कल्पवास किया जाता है। प्रतिवर्ष माघ मेला ,कुम्भ ,अर्धकुंभ मेले के रूप में आयोजित किया जाता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार एक कल्प भगवान ब्रह्मदेव के एक दिन को कहा जाता है जिसकी अवधि चार युगों के बराबर की अवधि होती है। अर्थात एक कल्पवास चार युगों के तप ध्यान ,दान के बराबर होता है। और इसमें अर्जित पुण्य फल चार युगों में अर्जित पुण्य फल के बराबर होता है।
मरोज त्योहार: उत्तराखंड के जौनपुर, जौनसार-बावर क्षेत्र में मनाया जाने वाला मरोज पर्व इस क्षेत्र का सबसे प्रमुख और विशिष्ट त्योहार है। यह त्यौहार हर वर्ष पौष मास के 28वें दिन से शुरू होता है और माघ मास के अंत तक चलता है। इस पर्व की शुरुआत हिन्दू समाज में माघ महीने को पवित्र माह माना जाता है, जिसमें पूजा, व्रत, स्नान और दान-पुण्य का महत्व अधिक होता है। हालांकि, जौनपुर और जौनसार-बावर क्षेत्र में मरोज पर्व के दौरान पूरे माघ महीने में मांस और मदिरा का सेवन किया जाता है, साथ ही लोग नाच-गाने का आनंद भी लेते हैं और मेहमाननवाजी का आदान-प्रदान करते हैं।
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मरोज पर्व का महत्व और इसका उत्सव :
ठंड के मौसम में इस क्षेत्र के लोग खेती-बाड़ी के काम से मुक्त होते हैं, और यह समय उनके लिए आराम और आनंद लेने का होता है। चूँकि इस क्षेत्र में अत्यधिक ठंड पड़ती है, लोग इस दौरान अपने रिश्तेदारों को बुलाकर या उनके घर जाकर एक साथ भोजन करते हैं, नृत्य करते हैं और एक दूसरे के साथ खुशियाँ साझा करते हैं। मरोज पर्व की खुशियाँ मनाते हुए यह उत्सव पूरे क्षेत्र में जीवन के आनंद को संजोता है।
लोककथा: मरोज त्योहार का धार्मिक आधार :
मरोज पर्व के पीछे एक प्रसिद्ध लोककथा भी है, जो इस त्यौहार के महत्व को और बढ़ाती है। कहा जाता है कि प्राचीन काल में जौनसार-बावर क्षेत्र के तमसा नदी के पास एक भयंकर राक्षस “किरमिर” ने आतंक मचाया था। इस राक्षस का भोजन क्षेत्र के लोगों के जीवन से जुड़ा हुआ था, और उसे रोज एक व्यक्ति की बलि देनी पड़ती थी।
तब इस क्षेत्र के एक ब्राह्मण, हुणभट्ट ने अपनी तपस्या से प्रसन्न होकर महासू देवता से सहायता मांगी। महासू देवता के आदेश पर उनके सेनापति कयलु महाराज ने किरमिर राक्षस का वध किया। राक्षस के मारे जाने की खबर सुनकर पूरे क्षेत्र में एक महीने तक खुशियाँ मनाई गईं और इसी उत्सव की शुरुआत से मरोज पर्व का चलन हुआ।
मरोज पर्व के दौरान बकरों की विशेष श्रेणियाँ :
मरोज पर्व पर बकरों की बलि देना एक महत्वपूर्ण परंपरा है। इस पर्व पर विभिन्न प्रकार के बकरों की बलि दी जाती है, जो इस उत्सव की विशिष्टता को और भी बढ़ा देते हैं। जौनसार-बावर क्षेत्र में बकरों की विभिन्न श्रेणियाँ होती हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख हैं:
खोलेड़ा – यह बकरा खासतौर पर रसोईघर के पास पाला जाता है। इसे गृहणी उत्तम घास खिलाकर स्वस्थ और चर्बीयुक्त बनाती है।
खिलेड़ा – यह बकरा विशेष देखभाल के साथ पाला जाता है, और इसे दिन में बाहर खूंटी पर और रात को अंदर बांधा जाता है। इसे हष्ट-पुष्ट बनाने के लिए विशेष प्रकार का आहार दिया जाता है।
बनेड़ा – यह बकरा बकरों के झुंड से चुना जाता है। इसे दिन में झुंड के साथ घुमने दिया जाता है, लेकिन सुबह, शाम और रात को इसकी विशेष देखभाल की जाती है।
क्रीत बकरा – यह बकरा उन लोगों द्वारा खरीदा जाता है, जो सालभर बकरा पाल नहीं सकते। वे मरोज पर्व के लिए इसे बाहर से खरीदकर लाते हैं। यह बकरा आमतौर पर कमजोर होता है और इसे अन्य बकरों के मुकाबले कम महत्त्व दिया जाता है।
निष्कर्ष :
मरोज पर्व न केवल जौनसार-बावर क्षेत्र के लोगों के लिए एक आनंद का अवसर है, बल्कि यह उनके सांस्कृतिक और धार्मिक जीवन का अभिन्न हिस्सा भी है। यह पर्व इस क्षेत्र की समृद्ध परंपराओं, धार्मिक विश्वासों और सामाजिक रिश्तों को मजबूत करता है। हर वर्ष, यह पर्व क्षेत्र के निवासियों को एकजुट करता है, और जीवन के सुख-संयोग की याद दिलाता है।
मडुवा की रोटी के फायदे :- मडुवा को पहाड़ अनाज का राजा कहा जाता है। मडुवा पहाड़ो में सरलता से उग जाता है ,और पहाड़ का वातावरण इसके उत्पादन के लिए लाभदायक होता है। मडुवा उत्तराखंड की कुमाउनी भाषा का नाम है। मडुवा को हिंदी में रागी कहते हैं। मड़ुआ को अंग्रेजी में finger millet ( फिंगर मिलेट कहते हैं। मड़ुआ को गढ़वाली में कोदा के नाम से जानते हैं। मडुवा मुख्यतः अफ्रीका व् एशिया के सूखे क्षेत्रों में उगाया जाने वाला अनाज है। चार हजार साल पहले मडुवा भारत लाया गया। भारत में इसकी सबसे अधिक मड़ुआ कर्नाटक में उगाया जाता है। इसके साथ-साथ इसका आंध्र प्रदेश, ओडिसा, तमिलनाडु, गोवा और उत्तराखंड में भी उत्पादन होता है।
इसका अनाज भूरे -भूरे दानों के रूप में होता है। इनको निकाल कर आटे के रूप में पिसवाकर उसका प्रयोग किया जाता है। कोदा अथवा मडुए का इस्तेमाल, रोटी उपमा, डोसा, केक, चॉकलेट, बिस्किट, चिप्स, और आयुर्वेदिक दवाओं के रूप में होता है। मडुवे अथवा रागी के आटे से आजकल अनेक उत्पाद बन रहे हैं। पहाड़ों में मडुवे के आटे से मिठाई , मोमो तक बनाये जा रहे हैं। इसकी पारम्परिक मडुवे की रोटी बनाई जाती है।, जो घी चुपड़कर और गुड़ के साथ खाने में बहुत स्वादिष्ट और स्वास्थवर्धक होती है। इसके अलावा गेहू के आटे में मडुवे के आटे की स्टफिंग करके रोटी बनाई जाती है, जिसे लेसू रोटी कहते हैं।
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मडुवा में पाए जाने वाले पोषक तत्व –
मडुवा अनाज में प्रोटीन ,कैल्सियम ,ट्रिप्टोफैन ,आयरन ,मिथियोनिन,फाइबर ,फास्फोरस ,कार्बोहाइड्रेड आदि भरपूर मात्रा में पाए जाते है। मड़ुआ आनाज तासीर में थोड़ा गर्म अनाज होता है। इसे शीतकाल में खाना अच्छा होता है।
मडुवा की रोटी के फायदे
मधुमेह के रोगियों के लिए लाभदायक है मडुवा की रोटी – मडुवे की रोटी डाइबिटीज के रोगियों के लिए रामबाण का काम करता है। मडुवा की रोटी खाने से बार -बार भूख नहीं लगती। और मडुवा ग्लूटन फ्री होने के कारण ,शरीर में ग्लूकोज के स्तर में कमी आ जाती है।
मडुवे की रोटी हड्डियों को मजबूत करती है – मडुवा की रोटी का सबसे बड़ा फयदा यह है कि ,यह विटामिन d का सबसे बड़ा श्रोत है। मडुवा में कैल्सियम भरपूर मात्रा में होता है ,जो शरीर में होने वाले हड्डी रोगों से बचाता है। इसके अलावा मडुवा में पाए जाने वाला कैल्सियम की वजह से यह अनाज , दांतों की परेशानियों के लिए रामबाण इलाज है।
वजन काम करने में मदद करती है कोदा की रोटी – मड़ुआ की रोटी खाने से भूख पर नियंत्रित रहती है। इसमें ट्रिप्टोफेन नामक एसिड पाया जाता है ,जो भूख नियंत्रित करता है। दूसरा इसमें वसा कम होती है , जिससे शरीर में ज्यादा वजन नहीं बढ़ता।
पेट के लिए रामबाण है मडुवा की रोटी – मडुवा में पाया जाने वाला उच्च मात्रा का फाइबर पेट की सभी समस्याओं से राहत दिलाता है। विशेषकर कब्ज में मडुवे की रोटी अति लाभदायक है।
खून की कमी दूर करता है मडुवा – कोदा में आइरन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होने के कारण यह खून की कमी को कम करने में सहायक होता है।
ह्रदय रोग में लाभ देता है मडुवा – मडुवा रक्तचाप को नियंत्रित करने में सहायक होता है।
त्वचा के लिए लाभदायक है मडुवा – मडुवा का सेवन त्वचा के लिए लाभदायक होता है। त्वचा को उच्च पोषण प्रदान करता है मडुवा।
डिक्लेरेशन – ” मडुवा पर आधारित यह लेख शोधपत्रिकाओं और जानकारियों पर आधारित एक शिक्षाप्रद लेख है। इसका औषधीय प्रयोग से पूर्व अपने या नजदीकी चिकित्स्क से अवश्य परामर्श लें। “
यदि आप नैनीताल ,मंसूरी जैसी भीड़ भाड़ वाले हिल स्टेशनों से अलावा कुछ शांत और लुभावने हिल स्टेशन की खोज में हैं ,तो चौकड़ी उत्तराखंड में आपकी खोज खत्म हो सकती है। उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में बसा ये छोटा सा ,सुंदर हिल स्टेशन ,आस पास सुंदर वनसम्पदा से घिरा ,हिमालय के पंचाचूली ,नंदादेवी , नंन्दा कोट आदि पर्वत शिखरों के सुंदर दृश्य प्रदान करता है। असल मे यह एक सुंदर गाव हैं। चौकड़ी उत्तराखंड समुंद्रतल से लगभग 2010 की ऊंचाई पर स्थित है।
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चौकड़ी उत्तराखंड क्यों जाएं ?
जैसा कि नाम से पता चलता है कि यह एक कटोरे नुमा छोटा सा गावँ है, जो कि हिमालय के बीचों बीच स्थित है। यह रमणीय गावँ प्रकृति की नैसर्गिक सुंदरता से विभूषित है। यहां आप प्राकृतिक सुंदरता, फलों के बाग, देवदार के वन, हिमालय की चोटियों का साक्षात्कार , विभिन्न प्रकार के पक्षियों के दर्शन कर सकते हैं। यहां कई प्रसिद्ध मंदिर भी हैं।
पिथौरागढ़ के प्रसिद्ध लोक देवता मोस्टमानु का मंदिर यही है। इसके अलावा पौराणिक कथाओं के अनुसार बेरीनाग में आर्यों से पहले कालिया नाग के वंशज नागों का राज था। बाद में नागवंशजो ने अपने पूर्वजों के मंदिर स्थापित किये हैं। जो काफी शक्तिशाली और प्रसिद्ध मंदिर हैं। इन प्रमुख मंदिरों में बेरीनाग मंदिर, धौलीनाग मंदिर, फेणीनाग मंदिर, पिंगलीनाग, कालीनाग, सुंदरीनाग हैं। चौकड़ी उत्तराखंड में आप प्रकृति दर्शन, ट्रेकिंग, ग्राम्य भर्मण तथा हिमालयी चोटियों का विहंगम दृश्य का आनंद ले सकते हैं।
चौकड़ी उत्तराखंड
चौकड़ी उत्तराखंड का चाय बागान –
यह उन खास पहाड़ी क्षेत्रों में से एक है, जहाँ आप प्रकृतिक सुंदरता बिखेरे चाय बागान का दर्शन का आनंद ले सकते हैं। शुद्ध चाय की खुशबू को यहां महसूस कर सकते हैं। यह स्थान इतना सुरम्य है, कि आप यहां से वापस जाना भूल जाओगे।
चौकड़ी उत्तराखंड घूमने कैसे जाएं :-
यहाँ आप ,हल्द्वानी से बया अल्मोड़ा होकर जा सकते हैं। पिथौरागढ़ का नैनी सैनी हवाई अड्डा नजदीकी हवाई अड्डा है। किंतु इसका अधिक सुविधाजनक हवाई अड्डा पंत नगर हवाई अड्डा है। और नजदीकी रेलवे स्टेशन काठगोदाम रेलवे स्टेशन है। जहाँ से आप बस या कार से आसानी से पहुँच सकते हो। दिल्ली से चौकोड़ी उत्तराखंड लगभग 450 किलोमीटर दूर है।
चौकड़ी उत्तराखंड ,मंसूरी ,नैनीताल जैसा प्रसिद्ध नही है , इसलिए वहां रहने की व्यवस्था सीमित है। वहां सीमित गेस्ट हाउस हैं। किन्तु उत्तराखंड सरकार की पहल से,दीनदयाल होमस्टे योजना से प्रेरित होकर ,पहाड़ो में लोग धीरे धीरे , होमस्टे खोल रहे हैं, और वहाँ भी होमस्टे उपलब्ध हैं। इसके अलावा कुमाऊं मंडल विकास निगम का गेस्ट हाउस भी उपलब्ध है। चौकड़ी में उत्तराखंड के पारंपरिक व्यंजनों के साथ ,उत्तर भारतीय व्यंजन व चाइनीज़ व्यंजन आसानी से उपलब्ध है।
उत्तराखंड एक समृद्ध संस्कृति संपन्न राज्य है। इस राज्य में मुख्यतः गढ़वाली ,कुमाउनी और जौनसारी संस्कृति के साथ कई प्रकार की संस्कृतियों का समागम है। उत्तराखंड एक प्राकृतिक प्रदेश है। प्राकृतिक सुंदरता के लिहाज़ से यह राज्य अत्यधिक सुंदर है। इसलिए उत्तराखंड के लोक पर्व , संस्कृति , और रिवाजों में इसकी झलक स्पष्ट दिखाई देती है उत्तराखंड के अत्यधिक त्यौहार प्रकृति की रक्षा और प्रकृति के प्रति आभार प्रकट करने के लिए समर्पित हैं। सनातन धर्म के सभी त्यौहार उत्तराखंड में मनाए जाते हैं। लेकिन उनकी मनाने की परंपराएं भी प्रकृति को समर्पित होती हैं।
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उत्तराखंड के प्रमुख लोक पर्व –
1- घुघुतिया या उत्तरायणी :-
उत्तराखंड में सनातन संस्कृति के प्रमुख पर्व मकर संक्रांति को घुघुतिया के नाम से मनाया जाता है। इस अवसर पर उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के निवासी घुघुत नामक पकवान बनाते हैं। जिन्हे अगले दिन काले कावा गा कर कवों को खिलाते हैं। वहीं गढ़वाल क्षेत्र के निवासी इस दिन को खिचड़ी संग्रात के रूप में मनाते हैं। सम्पूर्ण उत्तराखंड में इस दिन बड़े बड़े मेलों का आयोजन होता हैं। बागेश्वर में उतरायनी मेला और उत्तरकाशी में माघ मेले का आयोजन इसी दिन से शुरू होता है।
2– मरोज त्योहार
उत्तराखंड मसूरी के पास जौनपुर, जौनसार व रवाई घाटी में माघ के महीने में मनाये जाने वाला मरोज त्योहार मनाया जाता है ।इस त्योहार के दौरान हर घर में विभिन्न तरह के पकवान बनाए जाते हैं ।मरोज का त्योहार कई पीढ़ियों से मनाया जा रहा है । इस त्यौहार को मनाने गांव से बाहर रहने वाले सभी लोग अपने घर आते हैं. स्थानीय वाद्य यंत्रों के साथ इस पर्व को धूमधाम से मनाया जाता है ।
3–उत्तराखंड का लोक पर्व सिर पंचमी अर्थात बसंत पंचमी :
बसंत पंचमी का त्यौहार उत्तराखंड में प्रकृति प्रेम और आपसी सद्भाव के रूप में मनाया जाता है। बसंत पंचमी के दिन उत्तराखंड में दान और स्नानं का विशेष महत्त्व है। स्थानीय पवित्र नदियों में स्नान या प्राकृतिक जल श्रोत पर स्नान शुभ माना जाता है। उसके बाद घर की लिपाई पोताई की जाती है।और घर की दहलीज में सरसों के पीले फूल डालें जाते हैं। घर में पूरी,वड़ा ,खीर, दाल भात ,और घुघते बनाये जाते हैं। मकर संक्रांति की तरह उत्तराखंड के कुमाऊं में पंचमी के दिन भी घुघते बनाये जाते हैं। उसके बाद कुलदेवों, ग्रामदेवों और पितरों की पूजा करके उनको भोग लगते हैं।
बच्चो को पीले कपडे पहनाते हैं। उत्तराखंड में बसंत पंचमी अवसर पर नई फसल की जौ की पत्तियों को देवताओं को चढ़ाकर ,एक दूसरे को आशीष के रूप में चढ़ाते हैं। इसलिए बसंत पंचमी को उत्तराखंड में जौ त्यार भी कहा जाता है। घर में महिलाये जौ की पत्तियों को दरवाजों पर लगाती हैं। जौ इस समय नई फसल होती है। नई फसल होने के साथ जौ को सुख और समृद्धि का प्रतीक मन जाता है। इसलिए इस शुभ दिन इसे देवताओं से लेकर घर तक सबको अर्पित किया जाता है या चढ़ाया जाता है। यह दिन अत्यंत शुभ माना जाता है।
इसलिए इस दिन बिना मुहूर्त निकाले सरे शुभ काम किये जाते हैं। बसंत पंचमी के दिन उत्तराखंड में बच्चों के कान नाक छेदन , यज्ञोपवीत संस्कार , लड़की को पिठ्या लगाना ,साग रखना अर्थात कुमाउनी में सगाई करना एवं शादी का मुहर्त व् तिथि निश्चित करना ,छोटे बच्चों का अन्नप्राशन जैसे शुभ कार्य किये जाते हैं।
उत्तराखंड का खास लोकपर्व फूलदेई या फूल संक्रांति पर्व :
फूलदेई त्योहार मुख्यतः छोटे छोटे बच्चो द्वारा मनाया जाता है। यह उत्तराखंड का प्रसिद्ध लोक पर्व है। फूलदेई त्योहार बच्चों द्वारा मनाए जाने के कारण इसे लोक बाल पर्व भी कहते हैं। प्रसिद्ध त्योहार फूलदेई चैैत्र मास के प्रथम तिथि को मनाया जाता है। अर्थात प्रत्येक वर्ष मार्च 14 या 15 तारीख को यह त्योहार मनाया जाता है।
कुमाऊनी होली :
होली भारत के प्रमुख त्योहारों में से प्रसिद्ध त्यौहार है। भारत में हर समाज समुदाय के लोग अपने अपने अंदाज में होली की खुशिया मनाते हैं। यहाँ सबसे अधिक बरसाने की लठ मार होली प्रसिद्ध है ,उसके बाद उत्तराखंड की कुमाउनी होली प्रसिद्ध है। उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में वैसे तो बैठकी होली पौष मास से शुरू हो जाती है।
और मार्च में रंग एकादशी से खड़ी होली शुरू हो जाती है ,जो होलिका दहन तक चलती है। इन बैठकी और खड़ी होलियों में ,शास्त्रीय होलियां गाई जाती हैं। इन होली गीतों में अवधि और उर्दू का प्रभाव दिखता है। होली के दिनों में पूरा उत्तराखंड होली के रंगों में डूबा रहता है। हर जगह होली गीतों का आयोजन चलता है।
विषुवत संक्रांति या बुढ़ त्यार:
प्रत्येक साल बैसाख माह के संक्रांति तिथि को भगवान सूर्यदेव अपनी श्रेष्ठ राशी मेष राशी में विचरण करते हैं।इस स्थिति या संक्रांति को विषुवत संक्रांति या विशुवती त्योहार के रूप में मनाते हैं। उत्तराखंड की लोक भाषा कुमाऊनी में इस त्यौहार को बिखोती त्योहार कहते हैं।
विषुवत संक्रांति को विष का निदान करने वाली संक्रांति भी कहा जाता है। कहा जाता है, इस दिन दान स्नान से खतरनाक से खतरनाक विष का निदान हो जाता है। विषुवत संक्रांति के दिन गंगा स्नान का महत्व बताया गया है। बिखौती का मतलब भी कुमाउनी में विष का निदान होता है। बिखौती त्यौहार को कुमाऊ के कुछ क्षेत्रों में बुढ़ त्यार भी कहा जाता है।
घ्वीड़ संक्रांति :-
उत्तराखंड गढ़वाल का लोक पर्व घ्वीड़ संक्रांति ,घोल्ड संक्रांति ,घोलड संक्रांति या घोरड़ संक्रांति के नामों से मनाया जाने वाला त्योहार ,ज्येष्ठ मास की वृष संक्रांति 14 या 15 मई को मनाया जाता है। यह त्योहार भी उत्तराखंड के अन्य लोक त्योहारों की तरह प्रकृति को समर्पित है। घवीड संक्रांति के दिन गढ़वाल में नए अनाज (रवि की फसल, गेंहू और मसूर ) के घवीड बनाये जाते हैं। और अपने पितरों और कुल देवताओं को चढ़ा कर ,और बच्चों को खेलने एवं खाने देते हैं।
उत्तराखंड का लोक पर्व हरेला –
हरेला पर्व उत्तराखंड का सबसे बड़ा लोकपर्व है। मूलतः कुमाऊं क्षेत्र में मनाया जाने वाला यह पर्व वर्तमान में सम्पूर्ण उत्तराखंड में मनाया जाता है। प्रकृति की मदद का आभार उसकी रक्षा और पूजा के रूप में प्रकट करने का पर्व है हरेला। हरेले के दिन पेड़ लगाकर प्रकृति के सवर्धन में अपनी तरफ से एक छोटा सा योगदान देकर प्रकृति के चिरायु रहने की कामना की जाती है। हरेला त्यौहार सावन माह की कर्क संक्रांति को मनाया जाता है। अर्थात हरेला प्रतिवर्ष 16 जुलाई के आस पास मनाया जाता है।
घी संक्रांति –
घी संक्रांति का उत्तराखंड के लोकपर्व की सूची में विशेष स्थान है। घी संक्रांति, घी त्यार ,ओलगिया या घ्यू त्यार प्रत्येक वर्ष भाद्रपद माह की सिंह संक्रांति के दिन मनाया जाता है। यह अच्छे स्वास्थ पर आधारित पर्व है।लोक मान्यता के अनुसार इस दिन घी खाना जरूरी होता है। कहते हैं, जो इस दिन घी नही खाता उसे अगले जन्म में घोंघा( गनेल) बनना पड़ता है।
घी त्यार के दिन खाने के साथ घी का सेवन जरूर किया जाता है, और घी से बने पकवान बनाये जाते हैं। इस दिन सबके सिर में घी रखते हैं। घी संक्रांति या घी त्यार के दिन दूध दही, फल सब्जियों के उपहार एक दूसरे को बाटे जाते हैं। इस परम्परा को उत्तराखंड में ओग देने की परम्परा या ओलग परम्परा कहा जाता है। इसीलिए इस त्यौहार को ओलगिया त्यौहार, ओगी त्यार भी कहा जाता है।
खतड़ुवा त्यार –
आश्विन मास की संक्रांति के दिन उत्तराखंड के कुमाऊँ मंडल के लोग खतडुवा लोक पर्व मनाते हैं। अश्विन संक्रांति को कन्या संक्रांति भी कहते हैं। इस दिन भगवान सूर्यदेव सिंह राशि की यात्रा समाप्त कर कन्या राशि मे प्रवेश करते हैं। खतड़वा पर्व मुख्यतः शीत ऋतु के आगमन के प्रतीक जाड़े से रक्षा की कामना तथा पशुओं की रोगों और ठंड से रक्षा की कामना के रूप में मनाया जाता है। कुछ लोक कथाओं के अनुसार खतड़वा पर्व को कुमाऊँ मंडल के लोग अपने सेनापति अपने राजा की विजय की खुशी में मनाते हैं। पहले जमाने मे संचार के साधन नही थे, उस समय ऊँची ऊँची चोटियों पर आग जला कर संदेश प्रसारित किए जाते थे।
संयोगवश अश्विन संक्रांति किसी राजा की विजय हुई हो या ऊँची चोटियों पर आग जला के संदेश पहुचाया हो, और लोगो ने इसे खतड़वा त्यौहार के साथ जोड़ दिया। जबकि किसी भी इतिहासकार ने यह स्पष्ट नही किया कि यह त्यौहार विजय के प्रतीक का त्यौहार है। और खतडूवा पर्व मनाने की विधियों और परम्परा से भी यह स्पष्ट होता है,कि खतड़वा त्यौहार जाड़ो के आगमन का प्रतीक तथा जाड़ो से रक्षा के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है।
ईगास बग्वाल –
उत्तराखंड के लोक पर्वों की सूची में अपना विशेष स्थान रखने वाला लोक पर्व इगास बग्वाल। मुख्य दीपावली के ग्यारह दिन बाद उत्तराखंड के गढ़वाल में मनाया जाने वाली दीपावली है इगास बग्वाल। ईगास बग्वाल मतलब एकादशी को किया जाने वाला पत्थर युद्ध अभ्यास । कालांतर में पत्थर युद्ध के अभ्यास की परंपरा खत्म हो गई और कार्तिक एकादशी के दिन उत्तराखंड के वीर भड़ श्री माधो सिंह भंडारी तिब्बत विजय करके लौटे तो उनकी विजय के उपलक्ष में इस दिन उत्सव मनाया गया।
इगास पर्व की फोटो
और वीर माधो सिंह भंडारी और गढ़वाल की सेना के युद्धरत होने के कारण ,हो सकता प्रजा ने भी अमावस्या की दीपावली नही मनाई और विजय मिलने के बाद ही सबने साथ में खुशियां मनाई । और प्रतिवर्ष उत्तराखंड गढ़वाल में यह पर्व विजयोत्सव के रूप में मनाया जाता है। इगास बग्वाल के बारे में विस्तार से पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।
मंगसीर बग्वाल –
मार्गशीर्ष की अमावस्या को मनाया जाने वाला यह उत्सव ,हिमालयी क्षेत्रों का एक खास त्यौहार है ,जो मैदानी दीवाली के ठीक एक माह बाद मार्गशीष की अमावस्या को मनाया जाता है। हिमाचल और उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में इसे कहीं बूढी दीवाली कही ,कोलेरी दीवाली ,पहाड़ी दिवाली के नाम से मनाया जाता है। उत्तराखंड के टिहरी ,उत्तरकाशी जनपदों के रवाईं ,जौनपुर उत्तरकाशी ,टनकौर आदि में बग्वाली, मंगसीर बग्वाल और जौनसार बावर में यह पर्व बूढ़ी दीवाली के नाम से पांच दिन मनाया जाता है। मंगसीर बग्वाल उत्तराखंड की बूढ़ी दीवाली के बारे में विस्तार से पढ़ने के लिए यहाँ क्लीक करें।
उपसंहार –
उत्तराखंड लोक पर्वों का और परम्पराओं का प्रदेश है। यहाँ की परम्पराएं और त्योहार प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से प्रकृति से जुड़ी है। प्रकृति से प्रेम , प्रकृति की रक्षा और प्रकृति का संवर्धन हमारी परंपराओं और लोक पर्वों में स्पष्ट दिखाई देता है।
मिनी मालदीव –घूमने के लिए मालदीव हर किसी की पहली पसंद होती है। किन्तु मालदीव दुनिया की महँगी टूरिस्ट डेस्टिनेशन में से एक है। ऊपर से मालदीव के साथ भारत का विवाद भी चल रहा है। एक मध्यवर्गीय परिवार पाई पाई करके अपनी बचत करके रखता है।
जब बात ज्यादा खर्च की आती है तो, इतना ज्यादा खर्च अफोर्ड करना हर किसी के वश में नहीं होता। यदि आप मालदीव जैसा अहसास कम खर्च में लेना चाहते हैं तो लक्षद्वीप के बाद भारत में उत्तराखंड का मिनी मालदीव आपके मालदीव जाने के सपने को कम बजट में पूरा कर सकता है।
जी हाँ आप उत्तराखंड के टिहरी बांध पर बने फ्लोटिंग हट्स में समय बिताकर मालदीव जैसा अहसास ले सकते हो। उत्तराखंड के सुप्रसिद्ध बांध टिहरी बांध पर सुन्दर फ्लोटिंग हट्स और इको रूम बनाये हैं। जिन्हे तैरते हुए घर भी कह सकते हैं। उत्तराखंड राज्य अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए विश्वविख्यात है।
उसमे विशाल टिहरी बांध में तैरते हुए फ्लोटिंग हट्स और चारो और रमणीक प्राकृतिक नज़ारे, दिखने में बिलकुल मालदीव जैसे लगते हैं। इन तैरते हुए घरों अर्थात फ्लोटिंग हट्स में प्रकृति के बीच में रहकर आप अपने जीवन का अभूतपूर्व अनुभव प्राप्त कर सकते हैं।
Mini Maldives in Uttarakhand
टिहरी बांध फ्लोटिंग हट्स में रात गुजारने के लिए बुकिंग बहुत आसान है। इंटरनेट पर ऐसी बहुत वेबसाइट हैं जिनके द्वारा यहाँ रूम बुक करा सकते हैं। इसके अतिरिक्त टिहरी बांध पर कई अन्य मजेदार और रोमांचक एक्टिविटीज़ कर सकते हैं।
जैसे – नदी में स्पेशल बोटिंग, बनाना राइड ,पैरासेलिंग। इसके अतिरिक्त कयाकिंग, बोटिंग जॉर्बिंग, बंनाना बोट सवारी ,बैंडवैगन बोट सवारी, हॉटडॉग सवारी, पैराग्लाडिंग आदि कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ बर्थडे सेलेब्रेटीन, प्री वेडिंग फोटशूट भी करवा सकते हैं।
उत्तराखंड में घूमने के लिए उत्तराखंड का मिनी मालदीव एक अच्छी डेस्टिनेसशन बन सकता है। इसके अतिरिक्त उत्तराखंड के। मिनी मालदीव के आस पास अनेक प्रसिद्ध हिल स्टेशन हैं। उत्तराखंड आकर आप मालदीव के अहसास के साथ ,हिमालयी प्राकृतिक सुंदरता को भी एक्सप्लोर कर सकते हैं।
उत्तराखंड के मिनी मालदीव पहुंचना बहुत आसान है। सर्वप्रथम आपको उत्तराखंड की शीतकालीन राजधानी देहरादून पहुंचना होगा जो कि ,वायुमार्ग रेलमार्ग और बस मार्ग द्वारा देश के बड़े शहरों से जुड़ा हुवा है। मतलब देहरादून आसानी से पहुंचा जा सकता है। देहरादून से मात्र 2 – 3 घंटे में बस या प्राइवेट टेक्सी द्वारा टिहरी पहुंच सकते है।
विशेष – जाड़ों के मौसम में उत्तराखंड में ठण्ड अधिक पड़ती है। इसलिए ऐतिहातन अच्छे गर्म कपडे साथ में लेकर चलें।
हल्द्वानी का इतिहास – हल्द्वानी उत्तराखंड का सबसे बड़ा व्यापारिक नगर है। हल्द्वानी नगर नैनीताल जिले में 29 डिग्री 13 डिग्री उत्तरी अक्षांश तथा 79 -32′ डिग्री पूर्वी देशांतर में समुद्रतल से 1434 फ़ीट की ऊंचाई पर नैनीताल के पाद प्रदेश में स्थित है। कुमाऊं का द्वार माने जाने वाला हल्द्वानी पंद्रहवी शताब्दी से पहले हल्दु (कदम्ब ) के पेड़ों अलावा बेर ,शीशम ,कंजु ,तुन खैर ,बेल तथा लैंटाना जैसी झाड़ियों और घास का मैदान था। सोलहवीं शताब्दी के बाद राजा रूपचंद के शाशन में पहाड़ी लोगों ने शीतकाल में यहाँ आना शुरू किया।
सन 1815 में अंग्रेजों ने गोरखों को सम्पूर्ण उत्तराखंड से मार भगाया तब अंग्रेजों ने कुमाऊं में ई. गार्डनर को शाशक बनाकर भेजा। गार्डनर ने पहली बार यहाँ सरकारी बटालियन तैनात की। इनके बाद अगले कुमाऊं कमिश्नर जार्ज विलियम ट्रेल ने हल्दूवनी नामक गावं को हल्द्वानी नमक नगर का स्वरूप दिया
कुमाऊं कमिश्नर जार्ज विलियम ट्रेल ने हल्द्वानी की खोज की
सन 1834 में कुमाऊं कमिश्नर जार्ज विलियम ट्रेल द्वारा व्यापारिक मंडी के रूप में स्थपित किये जाने और 1860 में हेनरी रैमजे कमिश्नर द्वारा तराई की तहसील का मुख्यालय बनाये जाने तक यह स्थान मात्र एक ग्राम था। जो वर्तमान में सर्वसम्पन्न नगर के रूप में विकसित हो गया है। 1856 में हेनरी रैमजे कुमाऊं के कमिश्नर बने। उन्होंने अपने रहने के लिए हल्द्वानी में एक बंगला भी बनवाया।
1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में 17 सितम्बर 1857 में स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा हल्द्वानी शहर पर अधिकार कर लिया गया। लेकिन अगले अंग्रेजों ने फिर इसे अपने अधिकार में ले लिया। 1882 में कुमाऊं कमिश्नर हेनरी रैमजे ने काठगोदाम से नैनीताल तक सड़क बनवाई। 1883 -84 में बरेली से काठगोदाम तक रेल लाइन बिछाई गई। 24 अप्रेल 1884 में लखनऊ से हल्द्वानी रेल पहुंची।
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हल्द्वानी नाम क्यों पड़ा?
इस क्षेत्र में हल्दू (कदम्ब ) नामक इमारती लकड़ी के पेड़ों की अधिकता के कारण हल्द्वानी का नाम हल्दू वनी पड़ा जो बाद में हल्द्वानी हो गया। 1834 के समय , हल्द्वानी का पुराना नाम पहाड़ का बाजार था। इस नगर को कुमाऊं का द्वार भी कहते हैं।
सन 1885 में यहां पर टाउन एरिया कमेटी की तथा 1897 में नगरपालिका की स्थापना की गई। 1899 में हल्द्वानी में तहसील कार्यालय खोला गया था। सन 1929 में अल्मोड़ा यात्रा पर आए महात्मा गांधी भी यहां आए थे। सन 1937 में यहां नागरिक चिकित्सालय खोला गया ।1942 में हल्द्वानी -काठगोदाम नगरपालिका परिषद का गठन किया गया । उस समय इसे चतुर्थ श्रेणी की नगरपालिका का दर्जा दिया गया था। फिर दिसंबर 1966 में इसे प्रथम श्रेणी का दर्जा दे दिया गया । उसके बाद मई 2011 में इसे नगर निगम का दर्जा मिल गया ।
यहां क्या फेमस है?
यह पहाड़ों पर जाने की पहली सीढ़ी है। यह उत्तराखंड का तीसरी बड़ी नगरपालिका है। हल्द्वानी में भी भारत के अन्य नगरों की तरह कई प्रसिद्ध और ऐतिहासिक ,धार्मिक स्थान और प्राकृतिक स्थान हैं। जिनमे से हल्द्वानी की पहली पहचान वहां की ऐतिहासिक मंडी है। इसके अलावा यहाँ घूमने के लिए गौला बैराज , भुजियाघाट का सूर्य गावं की प्राकृतिक सुंदरता। शीतला देवी मंदिर। काली चौड़ मंदिर और कालू सिद्ध मंदिर हैं।
ईजा शब्द का प्रयोग उत्तराखंड की कुमाउनी भाषा में माँ के लिए किया जाता है। इस शब्द की उत्पत्ति कहाँ से हुई इसकी कोई सटीक जानकारी नहीं है। इस शब्द का माँ को सम्बोधित करने लिए प्रयोग के साथ-साथ कुमाउनी जीवन में भी इस शब्द का बहुताय प्रयोग किया जाता है। किसी मुसीबत के समय ,खुशी व्यक्त करने अन्य सवेदनाएँ जिनके लिए ईजा शब्द का प्रयोग होता है।
इसके अलावा पहाड़ों में सहानुभूति के साथ वार्तालाप करने के लिए भी इस शब्द का प्रयोग होता है। इस प्रकार के वार्तालाप का प्रयोग पहाड़ की महिलाएं अधिक करती हैं। जैसे – अपने से छोटे से कुशल पूछते हुए, भल हेरेछे इजा भोजन के लिए बुलाने के लिए, खाण खे लेह इजा
इस शब्द का ऐसा जादू है ,जिस लाइन के पीछे ये इजा शब्द लग जाता है ,उस लाइन को करिश्माई बना देता है। मीठी शहद की तरह दिल को छू जाती है ये लाइन।
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ईजा शब्द का अर्थ ( Meaning of Ija )-
कुछ लोग इस शब्द का अर्थ इस प्रकार बताते हैं, ” ई का मतलब ईश्वर और जा का मतलब जन्म देने वाली या जनने वाली अर्थात जन्म देने वाला ईश्वर या ईजा का सीधा मतलब होता है भगवान्। इसके अलावा कई विद्वानों का मत है कि यहाँ जगतगुरु स्वामी शंकराचार्य जी के साथ कई मराठी ब्राह्मण भी आये , जो धीरे -धीरे यहीं बस गए।
चूँकि मराठी में माँ को आई बोलते है इसलिए कई लोग मानते हैं कि ईजा शब्द मराठी के आई का अभ्रंश है। आई शब्द ओई शब्द बना और फिर बना ओईजा या ईजा। कुमाऊं में कही कही माँ को सम्बोधन के लिए इजा के साथ -साथ ओई का प्रयोग भी करते हैं।
कुमाऊनी भाषा का अच्छा ज्ञान रखने वाले नाजिम अंसारी जी ने अपने सोशल मीडिया हैंडल पर ईजा शब्द के बारे में बड़ी ही तार्किक जानकारी प्रस्तुत की है। जो साभार इस प्रकार है –
“इज, इजा, ईजा. इजी, इजू ,इ,ओई,ओइजा आदि कुमाउंनी के मूल और प्राचीन समय से प्रयुक्त शब्द हैं जिनकी व्युत्पत्ति के विषय में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है. इजा का अर्थ जन्म देने वाली मां,मातृ तुल्य मानी गयी स्त्री,संरक्षिका आदि है . अंग्रेज़ी का aegis संरक्षकत्व बोधक शब्द इसी मूल से बना है क्योंकि इसका भी अर्थ है to protect ,to support अर्थात संरक्षण या सहारा देने वाली — जननी, मां, माता, ममतामयी संरक्षिका –मिस्र का अंग्रेज़ी नाम इजिप्ट है,रोमनकाल में इसका नाम था मद्रिया,मातृया –इजिस यहाँ की मातृ देवी और Ptah प्रजापति के प्रतीक हैं
इन दोनों नामों के योग से बना इजिप्ट –इजि +प्तः — Egypt चूँकि इजि शब्द यहां भी मां मातृदेवी के लिए प्राचीन समय से प्रचलित रहा है और कुमाउनी में भी, इसलिए इस शब्द की व्युत्पत्ति के विषय में इतना ही कहा जा सकता है कि यह शब्द भारत के सुदूर पर्वतीय क्षेत्र में और समुद्र पार मिस्र में भी एक ही अर्थ में प्रचलित था .”
प्रस्तुत लेख में हम आपको उत्तराखंड के आदर्श हिल स्टेशन मुनस्यारी के बारे में सम्पूर्ण जानकारी विस्तार देने की कोशिश करेंगे। यह जानकारी निम्न क्रम में दी जाएगी। मुनस्यारी के बारे में आप जिस विषय मे जानकारी चाहते हैं, दिए गए टेबल में उस लाइन पर क्लिक करें। आप अपने मनपसंद टॉपिक पर पहुँच जाएंगे।
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मुनस्यारी
मुन्स्यारी चारो ओर से पर्वतों से घिरा हुआ, एक ख़ूबसरत हिल स्टेशन है। यह उत्तराखंड के जिला पिथौरागढ़ का सीमांत क्षेत्र है। मुनस्यारी की सीमा एक तरफ तिब्बत और दूसरी तरफ नेपाल से लगा है। मुनस्यारी की समुंद्र तल से उचाई 2200 मीटर है। मुनस्यारी का मौसम ठंडा रहता है। और गर्मियों में यहाँ घूमने लायक बहुत अच्छा मौसम है। वैसे यहाँ वर्ष भर पर्यटन के लायक उपयुक्त है।
यहाँ घूमने लायक एक से बढ़कर एक स्थल हैं। इसके के सामने विश्व प्रसिद्ध हिमालय की पांच पर्वतों की श्रंखला पंचाचूली पर्वत श्रंखला है। मुनस्यार दो शब्दों से मिल कर बना है। मुन और स्यार । मुन का अर्थ स्थानीय भाषा मे बर्फ कण कहा जाता है। और स्यार कुमाउनी में दलदल वाले क्षेत्र को कहा जाता है। बर्फ और कीचड़ एक ही क्षेत्र में होने के कारण इस क्षेत्र का नाम मुनस्यारी पड़ा है। यह क्षेत्र खलिया पर्वत पर बसा है।
मुनस्यारी का इतिहास
पौराणिक कथाओं के अनुसार , पांडवो ने स्वर्गारोहण की शुरुआत यहीं से की थी। द्रौपदी ने अंतिम बार यहीं पर भोजन बनाया था। पंचचुली पर्वत श्रंखला को इसका प्रतीक माना जाता है। मुनस्यारी के बारे में कहावत है , “आधा संसार आधा मुनस्यार ” इस प्रसिद्ध कहावत में मुनस्यार की तुलना आधे संसार के साथ कि है। मतलब मुनस्यार आधे संसार के बराबर है। और हो ना क्यों ना, जब आप खिड़की से बाहर देखे, तो सामने चमकता हिमालय दिखे, झरने पेड़ पौधे , और अब तो विश्व प्रसिद्ध ट्यूलिप गार्डन भी यही है।
1960 में पिथौरागढ़ जिला बनने के बाद इसके का विकास में गति आने लगी थी। 1962 भारत चीन के युद्ध से पहले यह क्षेत्र भारत तिब्बत व्यापार का एक प्रमुख पड़ाव था। 1962 युद्ध के बाद यह व्यपार बन्द हो गया। औऱ इसी के साथ जौहार क्षेत्र भी प्रभावित हो गया ।
1963 के आस पास यहाँ कुछ ही मकान थे। इस क्षेत्र को जोहार जाने के लिए एक पड़ाव के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। यहां से सड़क 132 किमी दूर पिथौरागढ़ तक थी। शिक्षा के लिए एक स्कूल अंतिम गाव मिलम में था। उससे आगे की शिक्षा के लिए पिथौरागढ़ या अल्मोड़ा जाना पड़ता था। 1971 में मुनस्यारी को तहसील बनाया गया । तभी यहाँ रोड पहुची।
इसे बनाने का धेय्य कोलकाता के सदानंद बाबू और न्यूजीलैंड की मार्केल क्लार्क को दिया जाता है। सदानंद बाबू 1981 में यहाँ आये, उस समय बर्फ से घिरा यह इलाका अधिक विकसित नही था। यहां जनजातीय लोग अधिक रहते थे। और अनेकों उपजातियां रहती थी। सदानंद बाबू को यह स्थल इतना अच्छा लगा,उन्होंने इसका खूब प्रचार किया। कोलकाता से निकलने वाली भ्रमण पत्रिका की टीम यहाँ आई, और इस पत्रिका ने इसके बारे प्रकाशित किया,और यहाँ खूब बंगाली पर्यटक आये। सन 1985 में न्यूजीलैंड की पर्यटक मार्केल क्लार्क यहां आई, और उन्होंने भी मुनस्यारी का दुनिया भर में प्रचार किया। जिसके फलस्वरूप उत्तराखंड का यह हिल स्टेशन दुनिया की नजर में आया।
मुनस्यारी का पुराना नाम
मुनस्यारी का पुराना नाम तिकसेन है। यह एक स्थानीय नाम है। 1962 से पहले यह भारत चीन के व्यपार का प्रमुख स्थल था। तिकसेन व्यपारियों के विश्राम का प्रमुख पड़ाव था। बाद बाद में तिकसेन को मुनस्यारी के नाम से जाने लगा। इसको हिमनगरी के नाम से भी जाने जाता है।
मुनस्यारी के प्रसिद्ध दर्शनीय स्थल या घूमने लायक स्थल
प्रकृति ने मुनस्यारी को वो सबकुछ प्रदान किया है, जो एक आदर्श पर्यटन स्थल को मिलना चाहिए। यहाँ अनेकों प्रकार के दर्शनीय स्थल, साहसिक खेल ट्रेक ,पौराणिक मंदिर और ट्यूलिप गार्डन यहां स्थित है। अगर आप एक बार यहां आ जाओ तो आपको लगेगा आप जन्नत में आ गए।
मुनस्यारी में घूमने लायक स्थल निम्न हैं।-
बिर्थी झरना
बर्ड वाचिंग
मिलम ग्लेशियर
रालम ग्लेशियर
नंदा देवी बेस कैंप
नंदा देवी मंदिर
काला मुनि मंदिर
पंचाचूली चोटी
माहेश्वरी कुंड
थमरी कुंड
मैडकोट
बिर्थी झरना –
बिर्थी झरना उत्तराखंड मुनस्यारी में स्थित है। यह झरना मुनस्यारी से लगभग 35 किलोमीटर दूर है। अल्मोड़ा से मुनस्यारी जाने वाली सड़क पर पड़ने वाले तेजम नामक स्थान से यह लगभग 14 किलोमीटर दूर पड़ता है। मुनस्यारी बिर्थी झरने की ऊंचाई लगभग 400 फ़ीट है। बरसात के समय मतलब जुलाई से सितंबर के बीच इस झरने की सुंदरता देखते ही बनती है। अल्मोड़ा – मुनस्यारी मार्ग में पड़ने के कारण,और दूर से दिखाई देखने कारण यह बिर्थी प्रपात काफी लोकप्रिय हो गया है।
बिर्थी झरने को देखने ,और इसकी सुंदरता का आनन्द लेने के साथ साथ इस झरने में साहसिक खेल रैपलिंग भी की जाती है। रैपलिंग साहसिक खेल में ,झरने की ठंडी जलधाराओं से झुंझते हुए, झरने के साथ साथ उचाई तय करनी होती है। बिर्थी झरना , उत्तराखंड के प्रसिद्ध झरनों में से एक है।
मिलम ग्लेशियर पिथौरागढ़ उत्तराखंड
मिलम ग्लेशियर (मिलम हिमनद ) उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के मुनस्यारी क्षेत्र में स्थित है। इस ग्लेशियर उचाई 5500 मीटर से 3870 मीटर के बीच है। पिथौरागढ़ मुनस्यारी में मिलम ग्लेशियर देखने ,और घूमने लायक बहुत ही बेहतरीन स्थल है। मिलम ग्लेशियर कुमाऊँ मंडल का सबसे बड़ा ग्लेशियर है। मुनस्यारी से बहने वाली गौरीगंगा नदी का उद्गम स्थल मिलम ग्लेशियर है।
मिलम घाटी कभी उत्तराखंड का सबसे बड़ा गाव हुवा करता था। मिलम हिमनद को 1962 में बंद कर दिया गया था। इसे दुबारा 1994 में खोला गया। मिलम हिमनद जाने का उपयुक्त समय मार्च से मई के बीच का होता है। मिलम ग्लेशियर को मुनस्यारी से पैदल ट्रेकिंग की जाती है। मिलम ग्लेशियर मुनस्यारी का सबसे अच्छा दर्शनीय स्थल है।
खलिया टॉप –
मुनस्यारी में बर्ड वाचिंग गतिविधि – उच्च हिमालयी क्षेत्र की खूबसूरत चिड़ियों को देखने का सबसे अच्छा स्थल है , खलिया टॉप मुनस्यारी। मुनस्यारी में ट्यूलिप गार्डन विकसित होने के साथ साथ,बर्ड वाचिंग सेंटर भी है। बर्ड वाचिंग के लिए मुनस्यारी में 340 प्रजातियां चिन्हित है। पहले नैनिताल के पंगोट में भी बर्ड वाचिंग होती थी। अब अलग अलग प्रकार के पक्षियों के दीदार करने के शौकीन लोगो के लिए मुनस्यारी हिल स्टेशन सबसे अच्छी जगह है।
अगर आपको उत्तराखंड के राज्य पक्षी मोनाल का दीदार करना है, तो मुनस्यारी पिथौरागढ़ आइये। मुनस्यारी खूबसूरत पक्षियों के दीदार का पसंदीदा स्थल बन रहा है।सिंतबर अक्टूबर में ग्लेशियर से पक्षी नीचे आते हैं। वह समय उपयुक्त है। बर्ड वाचिंग के लिए।हिमनदों में रहने वाले पक्षी मोनाल ,रेड फ्रण्टेड रोज फिंच, स्नोकॉक, स्नोपरतेज ,झुंड में नीचे की ओर आते हैं। मुनस्यारी में बर्ड वाचिंग के लिए बेस्ट लोकेशन ,नंदा देवी क्षेत्र, बलाती फार्म, दरकोट आदि में अच्छी संख्या में चिड़िया देखी जा सकती है।
रालम ग्लेशियर मुनस्यारी पिथौरागढ़ –
रालम ग्लेशियर उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में स्थित एक सुंदर मनोरम ग्लेशियर है। यह हिमनद कुमाऊँ क्षेत्र के रालम खल के रालम धुरा के पास स्थित है। रालम ग्लेशियर की उचाई समुद्रतल से 2290 मीटर है। यह ग्लेशियर दो भागों में बंटा है। ऊपरी रालम और निचला रालम । इसके अलावा, तीन प्रचीन ग्लेशियर हैं जो कालाबैण्ड, सुतेला और यांगचर, रालम ग्लेशियर से मिलते हैं। यहां से रालम ग्लेशियर की दूरी लगभग 15 किलोमीटर है। रालम धुरा ट्रेक की यात्रा का सही समय अप्रेल से जून तथा, सितम्बर और नवम्बर होता है।
रालम धुरा या रालम ग्लेशियर में करने लायक प्रसिद्ध गतिविधिया –
आधिक ऊंचाई पर ट्रेकिंग
कैंपिंग
फोटोग्राफी
ग्राम पर्यटन
नंदा देवी बेस कैंप पर ट्रेकिंग का आनन्द लें
नंदा देवी चोटी हिमालय की विशाल और भब्य चोटियों में से एक है। यह देश की दूसरी सबसे ऊँची चोटी है। नंदा देवी चोटी दुनिया की 23वी सबसे ऊंची चोटी है।नंदा देवी बेस कैम्प ट्रेक द्वारा, नंदा देवी चोटियो के बीच जैवमंडल और वायुमंडल का आनन्द ले सकते हैं।
इस ट्रैक पर ट्रेकिंग का आनंद वही लोग ले जिन्हें रिस्की ट्रेक पर ट्रेकिंग का अनुभव है। क्योंकि यह बहुत कठिन ट्रेक है। नंदा देवी ट्रेक पर ट्रेकिंग के लिए पर्याप्त तैयारी बहुत आवश्यक है। घोड़े या खच्चर द्वारा आप केवल मर्तोली तक समान ले जा सकते हैं।उससे आगे आपको कुली की सहायता लेनी होगी।
मुनस्यारी से आप सभी आवश्यक सामान और दवाई फल आदि खरीद कर रख ले। क्योंकि मुनस्यारी आखिरी बाजार है। नंदा देवी ट्रेकिंग का। नंदा देवी ट्रेकिंग में जाने से पहले मुनस्यारी से सभी आवश्यक कॉल कर ले, यहां से आगे मोबाइल के टावर कम होते हैं,या नही आते।
नंदा देवी मंदिर
माँ नंदा देवी लगभग सम्पूर्ण उत्तराखंड में पूजी जाती है। और माँ नंदा के उत्तराखंड में कई स्थानों पर मंदिर भी हैं। उसी प्रकार मा नंदा देवी का प्रसिद्ध मंदिर मुनस्यारी में भी स्थिति है। समुद्र तल से 7500 मीटर की उचाई पर स्थित इस मंदिर की अलग पहचान है। मंदिर में पूजा करने के साथ साथ, मंदिर के चारो ओर हिमालयी पर्वत श्रंखला का अदभुद नजारा देखने को मिलता है।
काला मुनि मंदिर
पिथौरागढ़ के मुनस्यारी में समुद्र तल से 2700 मीटर की उचाई पर कलामुनि मंदिर स्थित है। यह मंदिर मुख्यतः मा काली को समर्पित है। मगर वहां काला मुनि नामक एक ऋषि की मूर्ति भी स्थित है। कहा जाता है, कि कालनेमि नामक ऋषि हिमालय से तप करके लौट रहे थे, तब इस स्थान पर इनको हजारों जोकं लग गई, और मुनि ने ये जोकों को अपने शरीर से नही हटाया, और वहीं उनकी मृत्यु हो गई। उनकी याद में यह मंदिर बनाया गया है।इस मंदिर के दर्शन हेतु लोग दूर दूर से आते हैं। और माँ काली के साथ, कलामुनि जी का आशीर्वाद भी ले जाते हैं।
पंचाचूली की चोटियां –
पंचाचूली की चोटियां उत्तराखंड राज्य के पिथौरागढ़ में स्थित पांच पर्वत चोटियों का समूह है। समुद्र तल से इनकी उचाई 6312 मीटर से 6904 मीटर तक है। इन पांच पर्वत शिखरों को पंचाचूली 1 से पंचाचूली 5 तक के नाम दिए हैं। पौराणिक कथाओं के आधार पर, पांच पांडव और द्रौपदी ने अपनी स्वर्ग आरोहण की यात्रा यही से शुरू की थी। पंचाचूली की चढ़ाई के लिए पहले पिथौरागढ़, से धारचूला मुनस्यारी होकर सोबला नामक स्थान पर जाना पड़ता है। चौकड़ी हिल स्टेशन और मुनस्यारी हिल स्टेशन से पंचाचूली पर्वत श्रंखला का मनमोहक दृश्य दिखाई देता है। मुनस्यारी ट्यूलिप गार्डन के साथ पंचाचूली पर्वत श्रृंखला का दृश्य अति मनमोहक लगता है।
माहेश्वरी कुंड
स्थानीय भाषा मे इसे महसर कुंड/ मेसर कुंड / मेशर कुंड के नाम से जाना जाता है। मुनस्यारी से 10 किमी दूर एक छोटा फैमली ट्रेक है। यहाँ एक प्राचीन कुंड है। जिसका अपना पौराणिक महत्व है। यह प्राचीन झील अब लाकरंग के रोडोड्रेडरों, ओक के पेड़ और अन्य हिमालयी वस्पतियों से युक्त है। माहेश्वरी कुंड से पंचाचूली की चोटियों का स्पष्ट नजारा देखने को मिलता है।
माहेश्वरी कुंड की लोक कथा
यहां एक यक्ष रहता था। उसे गाव के मुखिया की बेटी से प्यार हो गया था।लेकिन गाव वालों ने यक्ष की शादी उस लड़की से नही होने दी और यक्ष का कुंड सूखा दिया। यक्ष ने गुस्से में आकर गाव वलो को श्राप दिया कि वे आने वाले वर्षों में सूखे से पीड़ित रहेंगे। यह स्थान कई साल तक सूखे झुझता रहा, आखिर में गाव वालों ने यक्ष से माफी मांगी, फिर इस कुंड में पानी आया।
थमरी कुंड
थमरी कुंड मुनस्यारी से लगभग 10 किलोमीटर दूर पड़ता है। इसके चारों ओर अल्पाइन के पेड़ इसकी सुंदरता में चार चांद लगा देते हैं। थमरी कुंड को
कुमाऊँ की ताज़े पानी की झील भी कहा जाता है। इस झील में पूरे साल भर पानी रहता है।
मैडकोट
इन सभी स्थानों के अलावा आप मुनस्यारी में मैडकोट की यात्रा कर सकते हैं। मैडकोट यहां से 5 किलोमीटर दूर स्थित है। मैडकोट गर्म पानी की झील के लिए विख्यात है।
मैडकोट में गरमपानी की प्राकृतिक झील है। यह प्राकृतिक गर्म पानी त्वचा रोग, गठिया रोग , बदन दर्द आदि के लिए लाभदायक माना जाता है। मैडकोट एक शांत वातावरण वाला स्थल है। शांति के शौकिन यहाँ यात्रा कर लाभ ले सकते हैं।
मुनस्यारी के प्रसिद्ध भोजन
अगर आप मुनस्यारी की यात्रा पर है, तो आपने वहाँ का प्रसिद्ध मांसाहारी भोजन अर्जी और गितकु का स्वाद नही लिया तो आपकी मुनस्यारी यात्रा अधूरी है। यदि आप शुद्ध
शाकाहारी है, तो उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल व्यंजनों का आनन्द ले सकते हैं।
अर्जी
यह मुनस्यारी का प्रसिद्ध मांसाहारी पकवान है। बकरी की आंत में मडुवे का आटा ( रागी का आटा) और कलेजी के टुकड़ों को भर कर बनाये जाने वाला स्वादिष्ट पकवान , मुनस्यार का प्रसिद्ध भोजन है।
गितकु-
यह अर्जी के साथ परोसें जाने वाला सहायक पकवान है। यह सूप है , जो अर्जी के साथ परोसा जाता है। जिस प्रकार इडली के साथ सांभर परोसा जाता है, उसी प्रकार अर्जी के साथ गितकु का कॉम्बिनेशन होता है।
ऊनी कपड़े मुनस्यारी में बहुत प्रसिद्ध हैं। अंगोरा शशक के उन से बने वस्त्र प्रसिद्ध हैं। मुनस्यारी की यात्रा की यादगार के तौर पर आप अंगोरा शशक के उन से बने कपड़े ले जा सकते हैं।
कैसे जाएं
पिथौरागढ़ मुनस्यारी की यात्रा का बेस्ट टाइम मार्च से जून तक का तथा सितम्बर से अक्टूबर का होता है। मुनस्यारी जाने के लिए आप हल्द्वानी या काठगोदाम मार्ग से जा सकते हैं। हल्द्वानी से लगभग 285 किलोमीटर दूर है।
यदि आप रेल मार्ग से मुनस्यारी जाना चाहते हैं, तो आप काठगोदाम तक रेल से आकर वहां से सडक़ मार्ग से वाया अल्मोड़ा , सेराघाट , बेरीनाग होते हुए मुनस्यारी पहुच सकते हैं। बिर्थी के बाद यहाँ का भूगोल ही अलग हो जाता है। वहां से आगे को यात्रा सावधानी से करनी चाहिए। वैसे पूरे पहाड़ी क्षेत्र में सावधानी बहुत जरूरी है।
वायुमार्ग से मुनस्यारी जाने के लिए आप हवाई जहाज द्वारा कुमाऊँ के एक मात्र हवाई अड्डे नैनी सैनी हवाई अड्डा पिथौरागढ़ द्वारा मुनस्यार पहुच सकते हैं। यदि आप नैनी सैनी से नही आ पा रहे हैं, तो आप पंतनगर हवाई अड्डे का इस्तेमाल कर सकते हैं। वहाँ से आगे सड़क मार्ग से मुनस्यारी जा सकते हैं।
कहा ठहरे –
यदि आप पिथौरागढ़ मुनस्यारी की यात्रा की योजना बना रहे हो तो,आप वहाँ कहाँ रहे इस बात की चिंता न करें। मुनस्यारी में होम स्टे वहा रुकने का सबसे अच्छा साधन है। मुनस्यारी से व्यास घाटी तक लगभग 115 होम स्टे उपलब्ध है । और यहां के सरमोली गांव में अकेले 35 होम स्टे उपलब्ध हैं। होम स्टे मुनस्यारी में ठहरने के लिए एक अच्छा विकल्प है। होम स्टे में ठहरने से यात्रा का आनन्द दोगुना हो जाता है।