बसंत ऋतु उत्तराखंड वासियों को बहुत सुहाता है,बसंत में उत्तराखंड के लोग उत्तराखंड की विश्व प्रसिद्ध कुमाउनी होली के रंग में डूब जाते हैं, बच्चे फूलदेई ,फुलारी त्यौहार मनाते हैं। वही महिलाएं भी आपने मायके से आने वाली भिटौली की राह तक रही होती हैं। इसलिये उत्तराखंड वासी चैत्र माह को रंगीला महीना भी कहते हैं।
क्योंकि फाल्गुन चैत्र में होली का आनंद रोमांच ,फूलदेई की खुशी और भिटौली का प्यार एक साथ आता है। और इसी खुशी में पुरूष एवं महिलायें इस माह में लोकनृत्य लोकगीत झोड़ा चाचेरी गा कर आनंद मानते हैं।
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भिटौली क्या है ?
यह उत्तराखंड की एक बहुत ही प्यारी परम्परा है। चैत्र मास में विवाहिता बहु के मायके वाले , विवाहिता लड़की का भाई विवाहिता के लिए , सुंदर उपहार ,या उपहार में कपड़े और पूड़ी या मिठाई लेकर आते हैं। जिसका विवाहिता बड़ी बेसब्री से इंतजार करती है।और वह आस पड़ोस में बांट कर इसकी खुशी सबके साथ मानती है। स्थानीय भाषा मे भेट का मतलब होता है मुलाकात करना ,और भिटौली का अर्थ होता है, भेंट करने के लिये लायी गयी सामग्री या उपहार।
भिटौली परम्परा कैसे शुरू हुई ?
पहले पहाड़ो में बहुत असुविधाएं थी। यातायात के साधन नही थे। संचार व्यवस्था नही थी, जहां थी भी तो वो ढंग से काम नही करती थी। गरीबी के कारण लोग रोज अच्छा खाना नही खा सकते थे। पूड़ी सब्जी आदि पकवान केवल त्योहारों को खाने को मिलते थे। और नए कपड़े पहनने को भी खास मौके पर ही पहने जाते थे। बहुएं अपने ससुराल में बहुत परेशान रहती थी। दिन भर जी तोड़ मेहनत उसके बाद खाने को मिलता था रूखा सूखा खाना। लड़की को अपने मायके की बहुत याद आती थी। उधर यही हाल लड़की के माता पिता और भाई का हुआ रहता था।
लड़की के मायके वाले अपनी बेटी की चिंता में परेशान रहते थे। लड़कीं के मायके वाले भी काम काज में बिजी होने के कारण , अपनी लड़कीं से मिलने का समय नहीं निकाल पाते थे, क्योंकि खेती बाड़ी का काम ही उस समय जीविकोपार्जन का साधन होता था।
पहाड़ो में पौष माह से चैत्र तक काम कम होता है। तब इसी बीच चैत्र माह में बसंत ऋतु परिवर्तन और मौसम में गर्माहट आनी शुरू हो जाती है। यह मौसम यात्रा के लिये सवर्था उचित रहता है। इसलिए लड़कीं के माता पिता अपनी बेटी को मिलने उसके मायके जाते थे। जिनके मा पिता ज्यादा यात्रा नही कर सकते थे, वे लड़कीं के भाई को भेजते थे।
लड़कीं के मायके वाले उसके लिए, पूड़ी पकवान बना के तथा नए कपड़े लाते थे। इससे लड़कीं काफी खुश होती थी।उसके जीवन मे नव्उम्मीदो का संचार होता था। और गांव की सभी विवाहिताएं मिल कर खुशी के गीत , झोड़ा चाचरी गाती,नाचती थी।
धीरे धीरे यह एक परम्परा बन गई, और वर्तमान मे यह उत्तराखंड की एक सांस्कृतिक परम्परा है। इस परम्परा पर कई लोक गीत एवं लोक कथाएँ प्रचलित हैं।
भिटोली की प्रचलित लोक कथा ” मि सीतो म्यर भे भूखों ” –
उत्तराखंड के एक गांव में दो भाई बहिन अपनी माता पिता के साथ रहते थे। दोनो भाई बहिन के बीच अगाध प्रेम था। समय के साथ दोनो बड़े हुए , तो बड़ी लड़की थी उसकी शादी हो गई। भाई को घर में दीदी के बिना अच्छा नहीं लगता था। उधर बहिन को भी हमेशा अपने मायके और अपने भाई की याद सताती थी।
मगर प्राचीन काल में गांव में संचार के कोई साधन न होने के कारण उनकी बातचीत नहीं हो पाती थी।उधर भाई बहिन की यादों में तड़पता रहता था। तब उसके माता पिता उसको भरोसा देते थे, कि चैत का महीना आ रहा ,तेरी बहिन भिटोली लेने आएगी तब मिल लेना अपनी बहिन से ।
चैत का महीना आ कर खत्म होने वाला हो गया ,लेकिन उसकी बहिन नही आई।एक दिन वो खुद ही पूरी पकवान बना कर अपनी बहिन को भिटोली देने के लिए उसके गांव की ओर चला गया ।
पहुंचते पहुंचते उसे दोपहर हो गई। जब बहिन के घर पहुंचा तो उसने देखा कि , सुबह से काम करके उसकी बहिन चैत की दोपहरी में , थोड़ा सुकून से सोई है। इसलिए उसने सोचा बहिन की नींद खराब नही करनी चाहिए। वह चुपचाप बहिन के सिरहाने पर पूरी पकवान से भरी डालियां (बैग) रखकर वापस घर को लौट गया। बहिन से बिना मिले जा रहा था, दुख तो हो रहा था लेकिन बहिन से इतना प्यार था कि ,उसकी नींद नहीं खराब कर पाया ।
आखिर भाई से मुलाकात नहीं हो पाई –
जब संध्या के समय उसकी बहिन की नींद खुली तो, सिरहाने पर रखी पूरी पकवान को देख कर समझ गई कि उसका भाई आया था भिटौली देने । और सोए रहने की वजह से वो उससे मुलाकात भी नही कर पाई और वो भूखा प्यासा चला गया। उसे बहुत दुःख हुवा। वो रोने लगी,” मि सीति ,म्यार भे भूखों” रोते परेशान होते वो अपने भाई को पहाड़ों में ढूढने लगी। इसी आपाधापी में उसके पैर में ठोकर लगी और वो गहरी खाई में गिर गई।
और उसकी मृत्यु हो गई। कहा जाता है, कि वो मृत्यु उपरांत एक चिड़िया बनी और आज भी पहाड़ों में बोलती है, “मि सीतो म्यर भे भूखों ”
वर्तमान समय में भिटौली –
बदलते समय में भिटौली का स्वरूप भी बदला है। पहले समय मे भिटौली की शुरुवात बेटी को देखने तथा उसके दुख सुख जानने के लिए की गई थी। वर्तमान में पहाड़ों में पहले की अपेक्षा काफी विकास हो गया है। यातायात के साधन काफी हो गए हैं। संचार के क्षेत्र में राज्य लगभग डिजिटल हो गया है। शिक्षा के क्षेत्र में भी काफी सुधार हो गया है।
सबसे बड़ा परिवर्तन पलायन का हुआ है। अब बेटियों को वो पहले वाली परेशानी नही होती। अधिकतर बेटियां शहर में रहती हैं। मगर फिर भी जो हमारी सांस्कृतिक परम्परा है, लोग उसे एक परम्परा के तौर पर खुशी खुशी मानते हैं। जहा तक मेरी अपनी अपनी जानकारी है, आजकल भिटौली पैसे देकर या डिजिटल मनी ट्रांसफर करके मनाई जाती है। जिससे बिटिया अपनी पसंद की मिठाई और कपड़े खरीद लेती है।
पहले बेटी के माता पिता और बेटी के लिए यह साल का सबसे अनमोल पल रहता था। वर्तमान में भिटौली उत्तराखंड की एक खास परम्परा के रूप में मनाई जाती है।चाहे वो डिजिटल रूप से ही मनाया जाय।
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