होली का मजा तो गाँव मे ही आता था। शहर में तो क्याप ठैरा।
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शहर की होली का मजा –
शहर में सुबह उठो नाश्ता करो, घुट लगाने वाले घूट लगाओ। फिर हाथ मे रंग का थैला लेकर चल दो, जो मिले उसे रंग मल दो। किसी के कमरे में जाओ, पापड़ गुजिया खाओ , अगर मिल गई तो एक घूट , उसे भी गटक लो, ब्रांड नही देखनी , बस पीते जाओ। यही क्रियाकलाप करते करते थोड़ी देर बाद ,आदमी को खुद पता नही चलता ,वो कौन है। अगर कम पी है,और शरीर मे जान है,तो आदमी जैसे तैसे अपनी चौखट पर सिर रख देता है।
नही तो फ़ेसबुक पर होली के रुझानों में दिखता है। उल्टी सुल्ति करते कराते ,आदमी को ऐसी कलटोप पड़ती है, आधी रात को ही नींद खुलती है,वो भी सूखे गले और सर् दर्द के साथ। ये तो है शहर की होली। ( होली का मजा)
अब चलते हैं गांव की यादों में –
गांव की होली का मजा -होली का असली मजा तो गांव में ही है। मेरी गांव की होली की बहुत सुनहरी यादें है। गांव की यादों में ,एकादशी से होली शरू हो जाती है। बचपन मे बुबु हमारे लिए नए कपड़े बनाते थे, कुर्ता पैजामा और कुमौनी टोपी। फिर शुरू होता था, गांव की होली का आनंद। रोज दिन में महिला होली, शाम को खड़ी होली ,रात को बैठक होली।
हम बच्चे थे, हमको महिला होली में भी जाने की मनाही नही थी। हम महिला होली का आनन्द भी लेते थे। महिलाओ के ठेठर और स्वांग देखने में बड़ा मजा आता था। उसके बाद शाम को होली के कपड़े पहन कर बुबु के साथ होली गाने चले जाते थे। फिर बुबु के कंधे में बैठ कर होली का आनंद लेना। होली मध्यान्ह में जब किर्तन गाये जाते थे, तब गांव के दूसरे बुबु गुड़ की भेली के बीच मे बहुत सारा घी रख कर गुड़ फोड़ते थे। ( होली का मजा )
फिर हमारी जद्दोजहद शुरू हो जाती थी ,एक गुड़ का टुकड़ा पाने के लिए। गुड़ तो पूरा मिलता था। पर आलू गुटुक ,बच्चों को हाथ मे देते थे। और बड़ो को पत्तल में। उस समय ये बहुत अन्याय लगता था। काश उस समय भी मानवाधिकार आयोग होता। मगर होली का मजा पूरा आता था।
घर से आमा एक थैली अलग से गुड़ इक्कठा करने के लिए दी रहती थी। जैसे सरकारी कर्मचारियों को मार्च में अपना टारगेट पूरा करना होता है, वैसे ही हमे भी आमा का प्रतिदिन का टारगेट पुरा करना होता था। रोज थैली भर के आमा को दैनी थी।
चतुर्दशी को बहुत मजा आता था, उस दिन होली नजदीक के शिव मंदिर में जाति थी,वहाँ अनेक गावो की होली आती थी। हमे तो बस होली का कलाकन्द खाने का लालच रहता था। मगर उस दिन शिव मंदिर तक कोरे पहुचना किसी चुनौती से कम ना होता था। जितने गांवो से मंदिर का रास्ता जाता था,वो गांव वाले पानी और गाय के
गोबर के साथ स्वागत के लिए तैयार रहते थे। वहां जाकर बुबु से 10 रुपये मांगना, और 5 के कलाकंद भस्काना। और 5 रुपये के आलू गुटुक। फिर आती थी अंतिम होली यानी छलड़ी , इस दिन बहुत मजे होते थे, होली का मजा तो इसी दिन आता था।
छलड़ी के दिन सुबह फजल उठ कर, जवान और बच्चे ढोल दमुआ लेकर गाँव मे छलड़ी खेलने चल देते थे। और बुड्ढे लोग मोर्चा सम्हालते थे, मंदिर में होली का हलुवा बनांने के लिए। हम एक एक करके सबके आंगन में जा कर ,ढोल बजा कर होली की आशीषें गाते थे।और अंदर से भाभी जी रंग फेकती थी। फिर एक घाट पर नहाधोकर वापस गांव में आते थे। फिर होली का विदाई गीत , “है हो हैं तुम कब लक आला ” गाते थे, सच मे दिल भर जाता था।
फिर होली के प्रसाद का वितरण होता था, और हमको एक भगोना ज्यादा मिलता था, क्योंकि मेरे बुबु होली के डांगर हुआ करते थे।
जो होली स्टार्ट करते हैं, और होली को लीड करते हैं उनको डांगर कहते हैं।
उसके बाद तैयारी होती थी , बकरे की , फीर रजिस्टर में हिसाब लिखा जाने लगता था, कौन कितना शिकार लेगा।
मित्रों उपरोक्त लेख मे मैंने, होली का मजा गांव और शहर दोनो जगह का वर्णन किया है। अब आप बताइए ? कौन सी होली का मजा सबसे असली मजा है। ….
पूर्णागिरि मंदिर या पुण्यागिरी, उत्तराखंड के चंपावत जिले में स्थित है। यह मंदिर समुद्र तल से 3000 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। यह मंदिर अन्नपूर्णा पर्वत पर 5500 फुट की ऊँचाई पर स्थित है। (Purnagiri ka mandir) माँ पूर्णागिरि मंदिर चंपावत से लगभग 92 किलोमीटर दूर स्थित है। पूर्णागिरि मंदिर टनकपुर से मात्र 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थिति है।
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पूर्णागिरि का मंदिर काली नदी के दाएं ओर स्थित है। काली नदी को शारदा भी कहते हैं। यह मंदिर माता के 108 शक्तिपीठों में से एक माना जाता है। पूर्णागिरि में माँ की पूजा महाकाली के रूप में की जाती है।
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पूर्णागिरि मंदिर का इतिहास –
पौराणिक कथाओं के अनुसार , जब माता सती ने आत्मदाह किया, तब भगवान शिव माता की मृत देह लेकर सारे ब्रह्मांड में तांडव करने लगे। सृष्टि में अव्यवस्था फैलने लगी । तब भगवान विष्णु ने संसार की रक्षा के लिए, माता सती की पार्थिव देह को अपने सुदर्शन चक्र से नष्ट करना शुरू किया । सुदर्शन चक्र से कट कर माता सती के शरीर का जो अंग जहाँ गिरा, वहाँ माता का शक्तिपीठ स्थापित हो गया। इस प्रकार माता के कुल 108 शक्तिपीठ हैं।
इनमे से उत्तराखंड चंपावत के अन्नपूर्णा पर्वत पर माता सती की नाभि भाग गिरा ,इसलिये वहाँ पूर्णागिरि मंदिर की स्थापना हुई।
एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार , महाभारत काल मे प्राचीन ब्रह्मकुंड के पास पांडवों द्वारा विशाल यज्ञ का आयोजन किया गया। और इस यज्ञ में प्रयोग किये गए अथाह सोने से ,से यहाँ एक सोने का पर्वत बन गया । 1632 में कुमाऊँ के राजा ज्ञान चंद के दरवार में गुजरात से श्रीचंद तिवारी नामक ब्राह्मण आये ,उन्होंने बताया कि माता ने स्वप्न में इस पर्वत की महिमा के बारे में बताया है।तब राजा ज्ञान चंद ने यहाँ मूर्ति स्थापित करके इसे मंदिर का रूप दिया।
माता के दर्शन के लिए यहाँ साल भर श्रद्धालु आते हैं। परंतु चैत्र माह और ग्रीष्म नवरात्र के दर्शन का विशेष महत्व है। चैत्र माह से यहाँ 90 दिनों तक पूर्णागिरि मंदिर का मेला भी लगता है।
पूर्णागिरि के सिद्ध बाबा मंदिर की कहानी-
सिद्ध बाबा के बारे में कहा जाता है, कि एक साधु ने घमंड से वशीभूत होकर, जिद में माँ पूर्णागिरि पर्वत पर चढ़ने की कोशिश की, तब माता पूर्णागिरि ने क्रोधित होकर साधु को नदी पार फेक दिया। (जो हिस्सा वर्तमान में नेपाल में है।) बाद में साधु द्वारा माफी मांगने के बाद ,माता ने दया में आकर साधु को सिद्ध बाबा के नाम से प्रसिद्ध होने का वरदान दिया। और कहाँ कि बिना तुम्हारे दर्शन के ,मेरे दर्शन अधूरे होंगे।
सिद्ध बाबा मंदिर फ़ोटो क्रेडिट -गूगल
अर्थात जो भी भक्त पूर्णागिरि मंदिर जाएगा, उसकी यात्रा और दर्शन तब तक पूरे नही माने जाएंगे, जब तक वह सिद्ध बाबा के दर्शन नही करेगा। यहाँ सिद्ध बाबा के लिए मोटी मोटी रोटिया ले जाने का रिवाज भी प्रचलित है।
पूर्णागिरि धाम के झूठे का मंदिर की कथा
पौराणिक कथाओं के अनुसार एक सेठ संतान विहीन थे। एक दिन माँ पूर्णागिरि ने स्वप्न में कहा कि ,मेरे दर्शन के बाद तुम्हे पुत्र प्राप्ति होगी। सेठ में माता के दर्शन किये ,ओर मन्नत मांगी यदि उसका पुत्र हुआ तो वह माँ पूर्णागिरि के लिए सोने का मंदिर बनायेगा। सेठ का पुत्र हो गया,उनकी मन्नत पूरी हो गई, लेकिन जब सेठ की बारी आई तो ,सेठ का मन लालच से भर गया।
सेठ ने सोने की मंदिर की स्थान पर ताँबे के मंदिर में सोने की पॉलिश चढ़ाकर माँ पूर्णागिरि को चढ़ाने चला गया। कहते है, टुन्याश नामक स्थान पर पहुचने के बाद वह मंदिर आगे नही ले जा सका, वह मंदिर वही जम गया। तब सेठ को वह मंदिर वही छोड़ना पड़ा। वही मंदिर अब झूठे का मंदिर के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर में बच्चों के मुंडन संस्कार किये जाते हैं। इसके बारे में मान्यता है,कि इसमें मुंडन कराने से बच्चे दीर्घायु होते हैं।
झूठे का मंदिर Image credit – google
पूर्णागिरि माता का मंदिर कैसे जाएं –
पूर्णागिरि मंदिर कैसे जाए पूर्णागिरि धाम की यात्रा यातायात के सभी प्रारूपों द्वारा सुगम है। पूर्णागिरि मंदिर की यात्रा गर्मियों में ज्यादा अच्छी होती है। विशेष तौर से 30 मार्च से अप्रैल मई तक। इस समय यहाँ पूर्णागिरि का मेला भी चलता है,और धार्मिक महत्व भी है इस समय का। मौसम के हिसाब से भी यह पूर्णागिरि यात्रा का सबसे सुगम समय है।
हवाई मार्ग से पूर्णागिरी मंदिर की यात्रा:-
पूर्णागिरी के नजदीक हवाई अड्डा पंतनगर है। पंतनगर नैनीताल जिले में स्थित है। यह पूर्णागिरी से 160 किमी दूर है। यहाँ से पुण्यागिरी, पूर्णागिरी को टैक्सी ,बस ऑटो सब उपलब्ध हैं। पंतनगर में सप्ताह की 4 उड़ाने दिल्ली के लिए उपलब्ध हैं । और देहरादून के लिए भी उड़ाने उपलब्ध हैं।
रेल मार्ग से पूर्णागिरी मंदिर की यात्रा:-
टनकपुर से पूर्णागिरी की दूरी 20 किमी है। टनकपुर से पूर्णागिरी को टैक्सी उपलब्ध हैं। टनकपुर रेलवे स्टेशन भारत के बड़े शहरों के रेलवे स्टेशन से जुड़ा है। हाल ही में भारत सरकार ने 26 फरवरी 2021 को दिल्ली पूर्णागिरी जनशताब्दी एक्सप्रेस नामक ट्रेन शुरू की है।
यह ट्रेन प्रतिदिन दिल्ली मुरादाबाद, बरेली इज्जतनगर, खटीमा होते हुए टनकपुर आती है। दिल्ली पूर्णागिरी जनशताब्दी एक्सप्रेस विशेष रूप से पूर्णागिरी यात्रा के लिए चलाया गया है। यह पूर्णागिरी जाने के लिए सबसे सुगम हैं।
सड़क मार्ग से पूर्णागिरी मंदिर की यात्रा:-
टनकपुर , देश के सभी नेशनल हाईवे से जुड़ा हुआ है। टनकपुर से पूर्णागिरी लगभग 20 किमी दूर है। टनकपुर तक दिल्ली ,लखनऊ, देहरादून या किसी अन्य शहर से बस में आसानी से आ सकते हैं। टनकपुर से पूर्णागिरी के लिए टैक्सी आसानी से उपलब्ध है। यदि निजी वाहन द्वार आ रहें तो आसानी से पूर्णागिरी पहुच सकते हैं।
रोहित फाउंडेशन – पंकज नेगी वैसे तो पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं। मगर उन्होने ने महसूस किया कि हमारे पहाड़ में गरीबी और सही साधन और मार्गदर्शन समय पर नही मिलने के कारण कई होनहार बच्चे आगे नही बड़ पाते हैं। उनका भविष्य अंधकारमय हो जाता है,और सपने धरे के धरे रह जाते हैं। इसी समस्या के समाधान की कोशिश के लिए पंकज ने रोहित फाउंडेशन की स्थापना की है।
पंकज नेगी उत्तराखंड अल्मोड़ा जिले के रानीखेत तहसील में पडने वाला गांव धुराफाट, मण्डलकोट के रहने वाले है। पंकज नेगी ने देहरादून के प्रतिष्ठित कॉलेज से सॉफ्टवेयर इंजीनियर की डिग्री हासिल की है। वर्तमान में वो पेशे से इंजीनियर हैं।पंकज नेगी ने प्राम्भिक शिक्षा अपने गांव से ही कि है। इसलिए वो भलीभांति जानते हैं, कि गांव के बच्चों को अपने भविष्य को तराशने में कितनी परेशानी होती है।
गांव के गरीब पृष्ठभूमि के बच्चों को अपने भविष्य तराशने में कोई परेशानी ना हो, प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी के लिए उन्हें सही संसाधन और सही मार्गदर्शन समय पर मिले, और उन्हें आधुनिक शिक्षा के बारे में तथा सही कैरियर कॉउंसलिंग समय पर मिले ,इन सब बातों को ध्यान में रख के,तथा इन समस्याओं के निवारण की प्रतिबद्धता के साथ सोमवार 21 मार्च 2021 को रोहित फाउंडेशन की स्थापना की गई।
रोहित फाउंडेशन ने स्थापना के शुभवासर पर सर्वप्रथम मण्डलकोट गांव के राजकीय इंटर कालेज में वहाँ के 10 वी एवं 12 वी के छात्र छात्राओं को परीक्षा किट दी गई । इस परीक्षा किट का प्रयोग छात्र छात्राएं अपने आने वाली बोर्ड परीक्षाओं में कर सकेंगे।
तथा छात्र छात्राओं को रोहित फाउंडेशन की प्रतिबद्धता और उनके आने वाले कैरियर कॉउंसलिंग के बारे में बताया गया।
इस शुभवासर के साक्षी , अध्यक्ष सरिता नेगी जी,प्रधानाचार्य रामपूजन यादव जी ,पुष्कर सिंह जी ,सुंदर करायत जी , प्रमोद भाकुनी जी,वीरेन्द्र बिष्ट जी,खुशाल बिष्ट जी,देवेंद्र बिष्ट जी,दीपक नेगी जी, दीपक मेहरा जी,अंकित मेहरा जी,गगन जी, हेमंत जी और क्षेत्रवासी और अभिवावक उपस्थित थे।
गढ़वाल राइफल्स का एक ऐसा जनरल जिसने ना कभी युद्ध किया, ना ही कभी बंदूक तक उठाई , और वह सेना का जनरल रहा । और सबसे चौकाने वाली बात यह थी कि ,वह जनरल कोई इंसान नही अपितु एक बकरा था। जिसका नाम था जनरल बकरा बैजू।
एक बकरा वो भी एक महान सैन्य राइफल का सम्मानित जनरल सुनने में बड़ा अजीब लगता है। मगर यह सत्य है। अगर आप इस कहानी को इतिहास में ढूढ़ना चाहें तो इतिहासकार डॉ रणवीर सिंह चौहान की प्रसिद्ध किताब लैंड्सडॉन सभ्यता और संस्कृति और महान साहित्यकार योगेश पांथरी की पुस्तक कलौडांडा से लैंड्सडॉन में मिल जाएगा।
कैसे गढ़वाल राइफल्स ने एक साधारण बकरे को बनाया जनरल बकरा –
यह कहानी 1919 के तीसरे एंग्लो अफगान लड़ाई की है। अफगानियों ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया था। उस विद्रोह का शमन करने के लिए अंग्रेजों ने भारत की सेना भेजी , जिसमे एक टुकड़ी गढ़वाल राइफल्स की भी शामिल हुई। लेकिन चित्राल सीमा में जा कर गढ़वाल राइफल्स की सेना टुकड़ी अपना रास्ता भटक गई। सैनिकों के पास जब तक राशन था, तब तक खाना चलता रहा। लेकिन जब टुकड़ी का राशन खत्म हो गया तो वो भूख प्यास से तड़पने लगे।
जनरल बकरा बैजू –
रास्ता भटक जाने के कारण, भूख प्यास से गढ़वाल राइफल्स के जवान , अफगानिस्तान के जंगल बीहड़ में भटकने लगे थे। अफगानिस्तान के जंगल मे भटकते हुए एक झाड़ी के पास अचानक हलचल हुई , तो सभी जवान अलर्ट हो गए। और सभी ने अपनी बंदूक तैयार कर ली। तभी उन झाड़ियों से विशाल जंगली बकरा निकला । हष्ट पुष्ट बकरे को देख कर जवानों ने इसे मार खाने का मन बना लिया। वे बकरे को मारने ही वाले थे कि बकरा वापस झाड़ियों की तरफ भागने लगा। और भागते हुए बकरा एक विशाल खेत मे पहुँच गया।
भूखे प्यासे सैनिकों को खाना दिलवाया –
वहाँ बकरा कुछ रुक कर ,अपने पैरों से मिट्टी हटाने लगा। बकरे की हरकत देख सैनिक आश्चर्य चकित थे। बकरा लगातार आपने पैरों से मिट्टी खोद रहा था। थोडी देर और मिट्टी हटाने के बाद वहां पर खेत मे दबे आलू नजर आने लगे थे। यह देख कर सैनिक खुश हो गए थे।सैनिको ने और आस पास खोद कर देखा तो,वह पूरा खेत आलू का था।
अब तो सैनिको को जैसे मन मांगी मुराद मिल गई थी।वो लोग कई दिन से भूखे थे,और उन्हें बहुत सारे आलू मिल गए थे, वो भी एक बकरे की वजह से।अगर वो बकरे को मार कर खा जाते तो,बकरा पूरी टुकड़ी के लिए पर्याप्त नही होता। और आधे सौनिक भर पेट नही खा सकते थे।
जनरल बकरा बैजू
और उन्हें उस बकरे के कारण इतने आलू मिल गए थे कि ,उनकी पूरी टुकड़ी कई दिन तक भोजन कर सकती थी। सैनिको ने आलू भूनकर अपना भोजन बनाया ,और बाकी आलू अपने साथ ले गए।
और इस संकट के समय फरिश्ता बनकर आये बकरे ने उनका आगे भी साथ निभाया। बकरे ने सैनिकों को आगे का मार्ग दिखाया। गढ़वाल राइफल्स की टुकड़ी निर्धारित स्थान पर पहुच कर,युद्ध मे विजय हुई ।
जब गढ़वाल राइफल्स की टुकड़ी वापस लैंड्सडॉन आईं तो , उस बकरे का अहसान चुकाने के लिए, उस बकरे को भी अपने साथ लैंड्सडॉन गढ़वाल ले आई। गढ़वाल पहुचते ही विजयी सैनिको के साथ बकरे का भी स्वागत सत्कार हुआ। बकरे को सेना में जनरल की मानक उपाधी देकर सम्मानित किया गया। सैनिकों ने जनरल बकरा को बैजू नाम दिया।
पूरे जनरल वाले ठाठ थे , जनरल बकरा बैजू साहब के –
जनरल बकरा बैजू को एक अलग बैरक दी गई, वहाँ उसकी सुविधा का का सारा सामान दिया गया। बैजू को पूरे लैंड्सडॉन में कही भी आने जाने की पूरी आजादी थी। उसके लिए कोई रोक टोक नही थी। अगर वह बाजार से कोई भी चीज खाता तो उसे कोई नही रोकता था। दुकानदार उसकी खाई हुई चीजो का बिल बनाकर गढ़वाल राइफल्स को देते थे। और सेना उसका बिल चुकाती थी।जनरल साहब बेझिझक लैंड्सडॉन में घूमते थे, कही पर नई रंगरूट मिलती तो ,उसको सलाम करती ,और करे भी ,
क्यों ना ,आखिर वो जनरल साहब थे। धीरे धीरे जनरल साहब बूढ़े हो गए ,और एक दिन भगवान को प्यारे हो गए। सेना ने पूरे ससम्मान उनका अंतिम संस्कार किया,अपने अनोखे जनरल साहब को विदाई दी।
जनरल बकरा बैजू इतिहास का पहला बकरा था,जिसे इतना सम्मान और अच्छी जिंदगी मिली। मगर इसका हकदार भी था वो। उसने सिद्ध किया था, जानवरों के अंदर दिल और परोपकार की भावना होती है।
“सोशल मीडिया पर उत्तराखंड वासियों को अपने पहाड़ से जोड़ने की अनोखी कोशिश है , कंचन जदली का लाटी आर्ट”
“होगा टाटा नामक देश का नमक, पहाड़ियों का नमक तो पिसयू लूण है ” इस गुदगुदाती पंचलाइन के साथ एक प्यारी सी पहाड़न कार्टून चरित्र को नमक पिसते हुए दिखाया गया है। और इस प्यारे से संदेश को देख कर गर्व और प्रेम के मिश्रित भाव एक साथ हिलोरे मारते हैं। और अपनी संस्कृति के लिए मन मे प्रेम उमडता है।
फ़ोटो क्रेडिट – लाटी आर्ट
इसी प्रकार अपने पहाड़ी कार्टून चित्रों और गुदगुदाती पंचलाइन से पहाड़ी को पहाड़ से जोड़ने की कोशिश कर रही है,उत्तराखंड की कंचन जदली।
कंचन जदली उत्तराखंड के पौड़ी जिले के लैंड्सडॉन की रहने वाली है। कंचन की आरम्भिक शिक्षा कोटद्वार में हुई है। कंचन को बचपन से ही कला का शौक था। वह बचपन से ही कलाकार बनाना चाहती थी। 11 वी और 12 वी कला विषय से करने के बाद , कंचन जदली ने “फ़ाईन आर्ट्स ” विषय मे, चंडीगढ़ के “गवर्मेंट कालेज ऑफ आर्ट्स ” से स्नातक और परस्नातक की पढ़ाई पूरी की।
अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद , दो तीन साल कंचन ने चंडीगढ़ और दिल्ली में आर्ट्स के क्षेत्र में कार्य शुरू किया। मेट्रो शहरों का अशांत जीवन शैली और अपनी देवभूमि उत्तराखंड के लिए कुछ करने की इच्छा दिल मे रख वो वापस अपने पहाड़ आ गई।
उत्तराखंड आकर कंचन जदली ने अपने डिजिटल आर्ट के माध्य्म से उत्तराखंड के प्रवासियों को पहाड़ से जोड़ने का काम शुरू कर दिया। इसके लिए उन्होंने बनाई पहाड़ी कार्टून कैरेक्टर लाटी। और अपने आर्ट को नाम दिया लाटी आर्ट हम सभी आजकल सोशल मीडिया पर देख ही रहे हैं, उत्तराखंड के जितने भी आजकल कार्टून मिम्स दिख रहे हैं, उनमे एक सिग्नेचर होता है लाटी आर्ट ।
उसी लाटी आर्ट को बनाती है, कंचन जदली।अपने प्रोजेक्ट का नाम लाटी आर्ट रखने के पीछे का कारण बताती है कि, लाटी का अर्थ पहाड़ में होता है एक प्यारी सीधी नादान लड़कीं। या एक मासूम लड़कीं। कंचन के अनुसार लाटी आर्ट के माध्य्म से हर एक पहाड़ी के मन मे अपने पहाड़ के लिए प्यार जगाना तथा उनको अपनी बोली भाषा से जोड़े रखना चाहती है। कंचन को अपने पहाड़ से बहुत प्यार है। और उसे वो अपनी कला के माध्यम से दर्शा भी रही है।
कंचन जदली के लाटी आर्ट को उत्तराखंड पर्यटन विभाग (Uttarakhand Tourism ) ने अपने आधिकारिक फेसबुक पेज से (Official Facebook page of Uttarakhand Tourism ) से शेयर किया गया और सराहा गया हैं।
अभी तक कंचन जदली 100 से अधिक लाटी सीरीज के कार्टून बना चुकी है। अमूल के कार्टून और पंजाब के सांता बंता कार्टून की तर्ज पर कंचन ने ठेठ पहाड़ी चरित्र लाटी को तराशा है। उत्तराखंड के नाते घटनाक्रम तथा सांस्कृतिक कार्यक्रमों एवं त्योहारों के आधार पर अपने चरित्र लाटी को तराशती हैं।
अब वह छोटे अनिमिशन वीडियो क्लिप भी बनाती है। इसी सीरीज का मकरैणी ,की घुगते बाँटते हुई लाटी जबरदस्त हिट रही।
फ़ोटो क्रेडिट – लाटी आर्ट
कंचन ने अभी तक डिजिटल आईपैड के इस्तेमाल से गौरा देवी, लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी, प्रीतम भरतवाण, पवनदीप राजन तथा अनेक फेमस हस्तियों के स्केच बना चुकी है। कंचन जदली अपने कार्टून कैरेक्टर को मग पर प्रिंट करके ऑफ़लाइन भी घर घर पहुचाने का काम कर रही है।
वास्तव में कंचन जदली अपनी अनूठी कला से उत्तराखंड की संस्कृति को एक सराहनीय योगदान दे रही है। उनके कार्टून मिम्स और पंचलाइन ,वर्तमान के आधुनिक शिक्षित युववर्ग को अपनी संस्कृति अपनी जड़ों से जोड़ने का काम कर रहे हैं।
बसंत ऋतु उत्तराखंड वासियों को बहुत सुहाता है,बसंत में उत्तराखंड के लोग उत्तराखंड की विश्व प्रसिद्ध कुमाउनी होली के रंग में डूब जाते हैं, बच्चे फूलदेई ,फुलारी त्यौहार मनाते हैं। वही महिलाएं भी आपने मायके से आने वाली भिटौली की राह तक रही होती हैं। इसलिये उत्तराखंड वासी चैत्र माह को रंगीला महीना भी कहते हैं।
क्योंकि फाल्गुन चैत्र में होली का आनंद रोमांच ,फूलदेई की खुशी और भिटौली का प्यार एक साथ आता है। और इसी खुशी में पुरूष एवं महिलायें इस माह में लोकनृत्य लोकगीत झोड़ा चाचेरी गा कर आनंद मानते हैं।
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भिटौली क्या है ?
यह उत्तराखंड की एक बहुत ही प्यारी परम्परा है। चैत्र मास में विवाहिता बहु के मायके वाले , विवाहिता लड़की का भाई विवाहिता के लिए , सुंदर उपहार ,या उपहार में कपड़े और पूड़ी या मिठाई लेकर आते हैं। जिसका विवाहिता बड़ी बेसब्री से इंतजार करती है।और वह आस पड़ोस में बांट कर इसकी खुशी सबके साथ मानती है। स्थानीय भाषा मे भेट का मतलब होता है मुलाकात करना ,और भिटौली का अर्थ होता है, भेंट करने के लिये लायी गयी सामग्री या उपहार।
भिटौली परम्परा कैसे शुरू हुई ?
पहले पहाड़ो में बहुत असुविधाएं थी। यातायात के साधन नही थे। संचार व्यवस्था नही थी, जहां थी भी तो वो ढंग से काम नही करती थी। गरीबी के कारण लोग रोज अच्छा खाना नही खा सकते थे। पूड़ी सब्जी आदि पकवान केवल त्योहारों को खाने को मिलते थे। और नए कपड़े पहनने को भी खास मौके पर ही पहने जाते थे। बहुएं अपने ससुराल में बहुत परेशान रहती थी। दिन भर जी तोड़ मेहनत उसके बाद खाने को मिलता था रूखा सूखा खाना। लड़की को अपने मायके की बहुत याद आती थी। उधर यही हाल लड़की के माता पिता और भाई का हुआ रहता था।
लड़की के मायके वाले अपनी बेटी की चिंता में परेशान रहते थे। लड़कीं के मायके वाले भी काम काज में बिजी होने के कारण , अपनी लड़कीं से मिलने का समय नहीं निकाल पाते थे, क्योंकि खेती बाड़ी का काम ही उस समय जीविकोपार्जन का साधन होता था।
पहाड़ो में पौष माह से चैत्र तक काम कम होता है। तब इसी बीच चैत्र माह में बसंत ऋतु परिवर्तन और मौसम में गर्माहट आनी शुरू हो जाती है। यह मौसम यात्रा के लिये सवर्था उचित रहता है। इसलिए लड़कीं के माता पिता अपनी बेटी को मिलने उसके मायके जाते थे। जिनके मा पिता ज्यादा यात्रा नही कर सकते थे, वे लड़कीं के भाई को भेजते थे।
लड़कीं के मायके वाले उसके लिए, पूड़ी पकवान बना के तथा नए कपड़े लाते थे। इससे लड़कीं काफी खुश होती थी।उसके जीवन मे नव्उम्मीदो का संचार होता था। और गांव की सभी विवाहिताएं मिल कर खुशी के गीत , झोड़ा चाचरी गाती,नाचती थी।
धीरे धीरे यह एक परम्परा बन गई, और वर्तमान मे यह उत्तराखंड की एक सांस्कृतिक परम्परा है। इस परम्परा पर कई लोक गीत एवं लोक कथाएँ प्रचलित हैं।
भिटोली की प्रचलित लोक कथा ” मि सीतो म्यर भे भूखों ” –
उत्तराखंड के एक गांव में दो भाई बहिन अपनी माता पिता के साथ रहते थे। दोनो भाई बहिन के बीच अगाध प्रेम था। समय के साथ दोनो बड़े हुए , तो बड़ी लड़की थी उसकी शादी हो गई। भाई को घर में दीदी के बिना अच्छा नहीं लगता था। उधर बहिन को भी हमेशा अपने मायके और अपने भाई की याद सताती थी।
मगर प्राचीन काल में गांव में संचार के कोई साधन न होने के कारण उनकी बातचीत नहीं हो पाती थी।उधर भाई बहिन की यादों में तड़पता रहता था। तब उसके माता पिता उसको भरोसा देते थे, कि चैत का महीना आ रहा ,तेरी बहिन भिटोली लेने आएगी तब मिल लेना अपनी बहिन से ।
चैत का महीना आ कर खत्म होने वाला हो गया ,लेकिन उसकी बहिन नही आई।एक दिन वो खुद ही पूरी पकवान बना कर अपनी बहिन को भिटोली देने के लिए उसके गांव की ओर चला गया ।
पहुंचते पहुंचते उसे दोपहर हो गई। जब बहिन के घर पहुंचा तो उसने देखा कि , सुबह से काम करके उसकी बहिन चैत की दोपहरी में , थोड़ा सुकून से सोई है। इसलिए उसने सोचा बहिन की नींद खराब नही करनी चाहिए। वह चुपचाप बहिन के सिरहाने पर पूरी पकवान से भरी डालियां (बैग) रखकर वापस घर को लौट गया। बहिन से बिना मिले जा रहा था, दुख तो हो रहा था लेकिन बहिन से इतना प्यार था कि ,उसकी नींद नहीं खराब कर पाया ।
आखिर भाई से मुलाकात नहीं हो पाई –
जब संध्या के समय उसकी बहिन की नींद खुली तो, सिरहाने पर रखी पूरी पकवान को देख कर समझ गई कि उसका भाई आया था भिटौली देने । और सोए रहने की वजह से वो उससे मुलाकात भी नही कर पाई और वो भूखा प्यासा चला गया। उसे बहुत दुःख हुवा। वो रोने लगी,” मि सीति ,म्यार भे भूखों” रोते परेशान होते वो अपने भाई को पहाड़ों में ढूढने लगी। इसी आपाधापी में उसके पैर में ठोकर लगी और वो गहरी खाई में गिर गई।
और उसकी मृत्यु हो गई। कहा जाता है, कि वो मृत्यु उपरांत एक चिड़िया बनी और आज भी पहाड़ों में बोलती है, “मि सीतो म्यर भे भूखों ”
वर्तमान समय में भिटौली –
बदलते समय में भिटौली का स्वरूप भी बदला है। पहले समय मे भिटौली की शुरुवात बेटी को देखने तथा उसके दुख सुख जानने के लिए की गई थी। वर्तमान में पहाड़ों में पहले की अपेक्षा काफी विकास हो गया है। यातायात के साधन काफी हो गए हैं। संचार के क्षेत्र में राज्य लगभग डिजिटल हो गया है। शिक्षा के क्षेत्र में भी काफी सुधार हो गया है।
सबसे बड़ा परिवर्तन पलायन का हुआ है। अब बेटियों को वो पहले वाली परेशानी नही होती। अधिकतर बेटियां शहर में रहती हैं। मगर फिर भी जो हमारी सांस्कृतिक परम्परा है, लोग उसे एक परम्परा के तौर पर खुशी खुशी मानते हैं। जहा तक मेरी अपनी अपनी जानकारी है, आजकल भिटौली पैसे देकर या डिजिटल मनी ट्रांसफर करके मनाई जाती है। जिससे बिटिया अपनी पसंद की मिठाई और कपड़े खरीद लेती है।
पहले बेटी के माता पिता और बेटी के लिए यह साल का सबसे अनमोल पल रहता था। वर्तमान में भिटौली उत्तराखंड की एक खास परम्परा के रूप में मनाई जाती है।चाहे वो डिजिटल रूप से ही मनाया जाय।
उत्तराखंड वासियों का प्रकृति प्रेम जगविख्यात है। चाहे पेड़ बचाने के लिए चिपको आंदोलन हो या पेड़ लगाने के लिए मैती आंदोलन या प्रकृति का त्योहार हरेला हो। इसी प्रकार प्रकृति को प्रेम प्रकट करने का त्योहार या प्रकृति का आभार प्रकट करने का प्रसिद्ध फूलदेई त्यौहार मनाया जाता है।
फूलदेई त्योहार मुख्यतः छोटे छोटे बच्चो द्वारा मनाया जाता है। यह उत्तराखंड का प्रसिद्ध लोक पर्व है। फूलदेई त्योहार बच्चों द्वारा मनाए जाने के कारण इसे लोक बाल पर्व भी कहते हैं। प्रसिद्ध त्योहार फूलदेई (Phool dei festival ) चैैत्र मास के प्रथम तिथि को मनाया जाता है। अर्थात प्रत्येक वर्ष मार्च 14 या 15 तारीख को यह त्योहार मनाया जाता है। फूल सग्यान ,फूल संग्रात या मीन संक्रांति उत्तराखंड के दोनों मंडलों में मनाई जाती है। कुमाऊं गढ़वाल में इसे फूलदेई और जौनसार में गोगा कहा जाता है।
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नववर्ष के स्वागत का त्यौहार है फूलों का त्यौहार –
उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में सौर कैलेंडर का उपयोग किया जाता है। इसलिए इन क्षेत्रों में हिन्दू नव वर्ष का प्रथम दिन मीन संक्रांति अर्थात फूल देइ से शुरू होता है। चैत्र मास में बसंत ऋतु का आगमन हुआ रहता है। प्रकृति अपने सबसे बेहतरीन रूप में विचरण कर रही होती है।
प्रकृति में विभिन्न प्रकार के फूल खिले रहते हैं । नववर्ष के स्वागत की परम्परा विश्व के सभी सभ्य समाजों में पाई जाती है। चाहे अंग्रेजी समाज का न्यू ईयर डे हो ,या पडोसी तिब्बत का लोसर उत्सव हो। या पारसियों का नैरोज हो या सनातन समाज की चैत्र प्रतिपदा। फुलदेई पर्व के रूप में देवतुल्य बच्चों द्वारा प्रकृति के सुन्दर फूलों से नववर्ष का स्वागत किया जाता है।
Happy phooldei 2024
मनाने की विधि –
कुमाउनी सांस्कृतिक परम्परा में इसका रूप इस प्रकार देखा जाता है। उत्तराखंड के प्रसिद्ध लोकपर्व एवं बाल पर्व फूलदेई पर छोटे छोटे बच्चे पहले दिन अच्छे ताज़े फूल वन से तोड़ के लाते हैं। जिनमे विशेष प्योंली के फूल और बुरॉश के फूल का प्रयोग करते हैं। इस दिन गृहणियां सुबह सुबह उठ कर साफ सफाई कर चौखट को ताजे गोबर मिट्टी से लीप कर शुद्ध कर देती है।
फूलदेई के दिन सुबह सुबह छोटे छोटे बच्चे अपने वर्तनों में फूल एवं चावल रख कर घर घर जाते हैं । और सब के दरवाजे पर फूल चढ़ा कर फूलदेई के गीत , ‘फूलदेई छम्मा देई दैणी द्वार भर भकार !! ” गाते हैं। और लोग उन्हें बदले में चावल गुड़ और पैसे देते हैं। छोटे छोटे देवतुल्य बच्चे सभी की देहरी में फूल डाल कर शुभता और समृद्धि की मंगलकामना करते हैं। इस पर गृहणियां उनकी थाली में ,गुड़ और पैसे रखती हैं।
बनाया जाता है खास पकवान –
बच्चों को पुष्पार्पण करके जो आशीष और प्यार स्वरूप में जो भेंट मिलती है ,उससे अलग अलग स्थानों में अलग अलग पकवान बनाये जाते हैं। पुष्पार्पण से प्राप्त चावलों को भिगा दिया जाता है। और प्राप्त गुड़ को मिलाकर ,और पैसों से घी / तेल खरीदकर ,बच्चों के लिए हलवा ,छोई , शाइ , नामक स्थानीय पकवान बनाये जाते हैं। कुमाऊं के भोटान्तिक क्षेत्रों में चावल की पिठ्ठी और गुड़ से साया नामक विशेष पकवान बनाया जाता है।
उत्तराखंड के अलग अलग हिस्सों में अलग अलग तरीक़े से फूलदेई का त्यौहार मनाया जाता है। कुछ जगह एक दिन यह त्योहार मनाया जाता हैं। और उत्तराखंड के केदार घाटी में यह त्योहार 8 दिन तक मनाया जाता है। केदारघाटी में चैत्र संक्रांति से चैत्र अष्टमी तक यह त्योहार मनाया जाता है। बच्चे रोज ताजे फूल देहरी पर डालते हैं ,मंगल कामना करते हुए बोलते हैं “जय घोघा माता, प्यूली फूल, जय पैंया पात !
कही आठ दिन तक तो कहीं पूरे माह मनाया जाता है ये त्यौहार –
इसके अतिरिक्त गढ़वाल मंडल के कई क्षेत्रों में यह त्यौहार पुरे महीने चलता है। वहां बच्चे फाल्गुन के अंतिम दिन अपनी फूल कंडियों में युली ,बुरांस ,सरसों ,लया ,आड़ू ,पैयां ,सेमल ,खुबानी और भिन्न -भिन्न प्रकार के फूलों को लाकर उनमे पानी के छींटे डालकर खुले स्थान पर रख देते हैं। अगले दिन सुबह उठकर प्योली के पीताम्भ फूलों के लिए अपनी कंडियां लेकर निकल पड़ते हैं। और मार्ग में आते जाते वे ये गीत गाते हैं। ”ओ फुलारी घौर।झै माता का भौंर। क्यौलिदिदी फुलकंडी गौर । ”
प्योंली और बुरांश के फूल अपने फूलों में मिलकर सभी बच्चे ,आस पास के दरवाजों ,देहरियों को सजा देते है। और सुख समृद्धि की मंगल कामनाएं करते हैं। फूल लाने और दरवाजों पर सजाने का यह कार्यक्रम पुरे चैत्र मास में चलता रहता है। बैसाखी के दिन अधिक से अधिक फूल लाकर ,बड़ों के सहयोग से डोली बनाकर उसकी पूजा की जाती है। प्रत्येक घर से इस दिन बने निमित्त पकवानों ( स्यावंले \पकोड़ो ) से भोग लगाकर डोली सजाकर , डोली को घुमाकर एक स्थान पर विसर्जन किया जाता है। उत्तराखंड के कुछ हिस्सों में इसे फुलारी त्योहार के नाम से भी जाना जाता है।
अंतिम दिन बच्चे घोघा माता की डोली की पूजा करके विदाई करके यह त्योहार सम्पन्न करते हैं। वहाँ फूलदेई खेलने वाले बच्चों को फुलारी कहा जाता है। गढ़वाल क्षेत्र में बच्चो को जो गुड़ चावल मिलते हैं,उनका अंतिम दिन भोग बना कर घोघा माता को भोग लगाया जाता है। घोघा माता को फूलों की देवी माना जाता है। घोघा माता की पूजा केवल बच्चे ही कर सकते हैं। फुलारी त्योहार के अंतिम दिन बच्चे घोघा माता का डोला सजाकर, उनको भोग लगाकर उनकी पूजा करते हैं।
फूलदेई त्योहार के गीत –
फूलदेई ( Phool dei festival) के दिन बच्चे उत्तराखंड की लोकभाषा कुमाउनी में एक गीत गाते हुए सभी लोगो के दरवाजों पर फूल डालते हैं, और अपना आशीष वचन देते जाते हैं।
कुमाउनी में फूलदेई के गीत –
” फूलदेई छम्मा देई ,
दैणी द्वार भर भकार।
यो देली सो बारम्बार ।।
फूलदेई छम्मा देई
जातुके देला ,उतुके सई ।।
गढ़वाली में फुलारी के गीत –
ओ फुलारी घौर।
झै माता का भौंर ।
क्यौलिदिदी फुलकंडी गौर ।
डंडी बिराली छौ निकोर।
चला छौरो फुल्लू को।
खांतड़ि मुतड़ी चुल्लू को।
हम छौरो की द्वार पटेली।
तुम घौरों की जिब कटेली।
फूलदेई त्यौहार का इतिहास –
फूलदेई पर एक विशेष पिले रंग के फूल का प्रयोग किया जाता है ,जिसे प्योंली कहा जाता है। फूलदेई और फुलारी त्योहार के संबंधित उत्तराखंड में बहुत सारी लोककथाएँ प्रचलित हैं। और कुछ लोक कथाएँ प्योंलि फूल पर आधारित है। उनमें से एक लोककथा इस प्रकार है।
प्योंली की कहानी -:
प्योंली नामक एक वनकन्या थी।वो जंगल मे रहती थी। जंगल के सभी लोग उसके दोस्त थे। उसकी वजह जंगल मे हरियाली और सम्रद्धि थी। एक दिन एक देश का राजकुमार उस जंगल मे आया,उसे प्योंली से प्रेम हो गया और उससे शादी करके अपने देश ले गया ।प्योंली को अपने ससुराल में मायके की याद आने लगी, अपने जंगल के मित्रों की याद आने लगी। उधर जंगल मे प्योंली बिना पेड़ पौधें मुरझाने लगे, जंगली जानवर उदास रहने लगे। उधर प्योंली की सास उसे बहुत परेशान करती थी। प्योंली कि सास उसे मायके जाने नही देती थी।
प्योंली अपनी सास से और अपने पति से उसे मायके भेजने की प्रार्थना करती थी। मगर उसके ससुराल वालों ने उसे नही भेजा। प्योंलि मायके की याद में तड़पते लगी। मायके की याद में तड़पकर एक दिन प्योंली मर जाती है
राजकुमारी के ससुराल वालों ने उसे पास में ही दफना दिया। कुछ दिनों बाद जहां पर प्योंली को दफ़नाया गया था, उस स्थान पर एक सुंदर पीले रंग का फूल खिल गया था। उस फूल का नाम राजकुमारी के नाम से प्योंली रख दिया । तब से पहाड़ो में प्योंली की याद में फूलों का त्योहार फूलदेई या फुलारी त्यौहार मनाया जाता है।
केदार घाटी में एक अन्य क लोक कथा प्रचलित है जो इस प्रकार है –
“एक बार भगवान श्री कृष्ण और देवी रुक्मिणी केदारघाटी से विहार कर रहे थे । तब देवी रुक्मिणी भगवान श्री कृष्ण को खूब चिड़ा देती हैं , जिससे रुष्ट होकर भगवान छिप जाते हैं। देवी रुक्मणी भगवान को ढूढ ढूढ़ कर परेशान हो जाती है। और फ़िर देवी रुक्मिणी देवतुल्य छोटे बच्चों से रोज सबकी देहरी फूलों से सजाने को बोलती है।
ताकि बच्चो द्वारा फूलों का स्वागत देख , भगवान अपना गुस्सा त्याग सामने आ जाय। और ऐसा ही होता है,बच्चों द्वारा पवित्र मन से फूलों की सजी देहरी आंगन देखकर भगवान का मन पसीज जाता है।और वो सामने आ जाते हैं।”तब से इसी खुशी में चैत्र संक्रांति से चैत्र अष्टमी तक बच्चे रोज सबके देहरी व आंगन फूलों से सजाते हैं। और तब से इस त्यौहार को फूल संक्रांति , फूलदेई या फूलों का त्यौहार आदि नामों से जाना जाता है।
शिव के महापर्व शिवरात्रि के शुभवासर पर आप लोगो के समक्ष कुछ उत्तराखंड की प्रसिद्ध शिवरात्रि विशेष , कुमाउनी होली के लिखित व वीडियो लिंक के भाग प्रस्तुत कर रहे हैं। अच्छे लगे तो शेयर अवश्य करें।
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शिव के मन मही बसे काशी
शिव के मन माहि बसे काशी -2
आधी काशी में बामन बनिया,
आधी काशी में सन्यासी,
शिव के मन माहि बसे काशी।
काही करन को बामन बनिया,
काही करन को सन्यासी,
शिव के मन माहि बसे काशी।
पूजा करन को बामन बनिया,
सेवा करन को सन्यासी,
शिव के मन माहि बसे काशी
काही को पूजे बामन बनिया,
काही को पूजे सन्यासी,
शिव के मन माहि बसे काशी
देवी को पूजे बामन बनिया,
शिव को पूजे सन्यासी,
शिव के मन माहि बसे काशी
क्या इच्छा पूजे बामन बनिया,
क्या इच्छा पूजे सन्यासी,
शिव के मन माहि बसे काशी
नव सिद्धि पूजे बामन बनिया,
अष्ट सिद्धि पूजे सन्यासी,
शिव के मन…
शिवरात्रि विशेष-
शिवरात्रि विशेष कुमाउनी भजन –
उत्तराखंड के प्रसिद्ध लोक गायक गोपाल मठपाल जी सुमधुर आवाज में एक प्रशिद्ध कुमाउनी भजन है , म्यारा शिवज्यूँ महादेवा।
रानीखेत उत्तराखंड राज्य के अल्मोड़ा ज़िले के अंतर्गत एक पहाड़ी पर्यटन स्थल है। देवदार और बाज के वृक्षों से घिरा यह बहुत ही रमणीक एक लघु हिल स्टेशन है। काठगोदाम रेलवे स्टेशन से 85 किमी. की दूरी पर स्थित यह अच्छी पक्की सड़क से जुड़ा है। इस स्थान से हिमाच्छादित मध्य हिमालयी श्रेणियाँ स्पष्ट देखी जा सकती हैं।
रानीखेत से सुविधापूर्वक भ्रमण के लिए पिण्डारी ग्लेशियर,कौसानी, चौबटिया गार्डन ,गोल्फ कोर्स, बिनसर महादेव मंदिर, झूला देवी मंदिर,कटारमल सूर्य मंदिर और कालिका पहुँचा जा सकता है। चौबटिया में प्रदेश सरकार के फलों के उद्यान हैं। इस पर्वतीय नगरी का मुख्य आकर्षण यहाँ विराजती नैसर्गिक शान्ति है।
रानीखेत उत्तराखंड राज्य के अल्मोड़ा ज़िले में है। यह समुद्र तल से 1824 मीटर की ऊंचाई पर स्थित एक छोटा लेकिन बेहद खूबसूरत हिल स्टेशन है। कुमाऊँ के अल्मोड़ा ज़िला के अंतर्गत आने वाला एक छोटा पर एक सुन्दर पर्वतीय नगर हैं।
अंग्रेज़ों के शासनकाल में सैनिकों कीरानीखेत छावनी के लिए इस क्षेत्र का विकास किया गया। क्योंकि रानीखेत उत्तराखंड कुमाऊं रेजिमेन्ट का मुख्यालय है, इसलिए यह पूरा क्षेत्र काफ़ी साफ-सुथरा रहता है। रानीखेत में ज़िले की सबसे बड़ी सेना की छावनी स्थापित हैं, जहाँ सैनिकों को प्रशिक्षित किया जाता हैं।
रानीखेत की दूरी नैनीताल से 63 किमी, अल्मोड़ा से 50 किमी, कौसानी से 85 किमी और काठगोदाम से 80 किमी हैं। मनोरम पर्वतीय स्थल रानीखेत लगभग 25 वर्ग किलोमीटर में फैला है। कुमाऊं क्षेत्र में पड़ने वाले इस स्थान से लगभग 400 किलोमीटर लंबी हिमाच्छादित पर्वत-श्रृंखला का ज़्यादातर भाग दिखता हैं। इन पर्वतों की चोटियां सुबह-दोपहर-शाम अलग-अलग रंग की मालूम पड़ती हैं।
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रानीखेत उत्तराखंड का इतिहास –
रानीखेत का नाम रानी पद्मिनी के कारण पड़ा। रानी पदमनी राजा सुखदेव की पत्नी थीं, जो वहां के राज्य के शासक थे। रानीखेत की सुंदरता देख राजा और रानी बेहद प्रभावित हुए और उन्होंने वहीं रहने का फैसला कर किया। बाद में यह ब्रिटिश शासकों के हाथ में चला गया। अंग्रेजों ने रानीखेत को छुट्टियों में मौज-मस्ती के लिए हिल स्टेशन के रूप में विकसित किया और 1869 में यहां कई छावनियां बनवाईं जो अब ‘कुमांऊ रेजीमेंटल सेंटर’ है।
रानीखेत एक अत्यंत खूबसूरत हिल सटेशन है। जहाँ दुनिया भर से हर साल लाखों की संख्या में सैलानी यहां मौज-मस्ती करने के लिए आते हैं। रानीखेत से 6 किलोमीटर की दूरी पर गोल्फ का विशाल मैदान है। उसके पास ही कलिका में कालीदेवी का प्रसिद्ध मंदिर भी है।
यहां की खूबसूरती देखते ही बनती है। यहां पर दिखने वाले खूबसूरत नज़ारे पर्यटकों को खूब भाते हैं। रानीखेत से लगभग सात किलोमीटर दूरी पर है- कलिका मंदिर। यहां माँ काली की पूजा की जाती है। यहां पर पौधों की बहुत ही बढ़िया नर्सरी भी हैं।
ऊपर में गोल्फ कोर्स है और उसके पीछे बर्फ से ढंका हुआ पहाड़ बहुत ही मनोरम दृश्य प्रस्तुत करता है। रानीखेत में इसके अलावा और भी मनोरम स्थल है। यहां का भालू बांध मछली पकड़ने के लिए प्रसिद्ध है। रानीखेत से थोड़ी-थोड़ी दूरी पर भ्रमण करने की भी कई जगह हैं जैसे अल्मोड़ा जहां हिमालय पहाड़ों का सुंदर दृश्य मन को मोह लेता है।
रानीखेत उत्तराखंड के प्रमुख पर्यटन स्थल निम्न हैं –
गोल्फ कोर्स –
रानीखेत गोल्फ कोर्स रानीखेत उत्तराखंड के प्रमुख आकर्षणों में से एक है। एशिया के उच्चतम गोल्फ कोर्सों में से रानीखेत गोल्फ कोर्स में से एक नंबर गोल्फ कोर्स है। यह रानीखेत नगर से 5 किमी की दूरी पर है।
गोल्फ़ ग्राउंड
सैंट ब्रिजेट चर्च –
सैंट ब्रिजेट चर्च रानीखेत नगर का सबसे पुराना चर्च है।
रानीखेत उत्तराखंड का कुमाऊं रेजिमेंटल सेंटर –
कुमाऊँ रेजिमेंटल सेंटर (KRC) कुमाऊँ तथा नागा रेजिमेंट द्वारा संचालित एक म्यूजियम है। यहाँ विभिन्न युद्धों में पकडे गए अस्त्र तथा ध्वज प्रदर्शन करने के लिए रखे गए हैं। इसके अतिरिक्त म्यूजियम में ऑपरेशन पवन के समय पकड़ी गयी एलटीटीई की एक नाव भी है।
रानीखेत उत्तराखंड का द्वाराहाट क्षेत्र –
द्वाराहाट के पास ही 65 मंदिर बने हुए हैं, जो कि तत्कालीन कला के बेजोड़ नमूनों के रुप में विख्यात हैं। बद्रीकेदार मंदिर, गूजरदेव का कलात्मक मंदिर, दूनागिरि मंदिर, पाषाण मंदिर और बावड़िया यहां के प्रसिद्ध मंदिर हैं।
द्वाराहाट से 14 किलोमीटर की दूरी पर दूनागिरी मंदिर है। यहां से आप बर्फ से ढकी चोटियों को देख सकते हैं। दूनागिरी का वैष्णव शक्ति पीठ जगत प्रसिद्ध है।जहां पर आसपास के लोग बड़ी संख्या में आते है।इसके कुछ ही दूरी पर शीतलाखेत है, जो पर्यटक गांव के नाम से जाना जाता है।
आशियाना पार्क –
आशियाना पार्क रानीखेत नगर के मध्य में स्थित है। कुमाऊँ रेजिमेंट द्वारा निर्मित और विकसित इस पार्क में बच्चों के लिए विशेषकर जंगल थीम स्थित है।
मनकामेश्वर मंदिर
यह मंदिर कुमाऊँ रेजिमेंट के नर सिंह मैदान से संलग्न है। मंदिर के सामने एक गुरुद्वारा, तथा एक शाल की फैक्ट्री है।
रानी झील –
रानीखेत उत्तराखंड में रानी झील प्रसिद्ध स्थान है। रानी झील नर सिंह मैदान के समीप वीर नारी आवास के नीचे स्थित है। इस झील में नौकायन की सुविधा उपलब्ध है।
झूला देवी मंदिर रानीखेत उत्तराखंड –
उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में स्थित मां दुर्गा के इस मंदिर की रखवाली शेर करते हैं, लेकिन वह स्थानीय लोगों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाते हैं।
नवरात्र पर मां के इस मंदिर में भक्तों का तांता लग जाता है। झूला देवी मंदिर अल्मोड़ा जनपद के रानीखेत के पास चौबटिया नामक स्थान पर स्थित है। वहां के स्थानीय लोगों की कुल देवी कही जाती हैं झूला देवी।
करीब 700 वर्ष पूर्व चौबटिया एक घना जंगल हुआ करता था।जो जंगली जानवर से भरा हुआ था। शेर तथा चीते यहां बसने वाले लोगो पर आक्रमण करते और उनके पालतू पशुओं को अपना आहार बनाते।
रानीखेत शहर से 7 किमी. की दूरी पर स्थित यह एक लोकप्रिय मंदिर है। यह मंदिर मां दुर्गा को समर्पित है।झुला देवी मंदिर के रूप में भी जाना जाता है,मान्यता है कि रानीखेत के जिस क्षेत्र में यह मंदिर मौजूद है वहां जंगली जानवरों का आतंक था।
इस कारण वहां के स्थानीय लोग घर से निकलने में डरते थे।एक बार मां दुर्गा किसी ग्रामीण के सपने में आई और उसे किसी जगह की खुदाई करने को कहा। जब खुदाई की गई तो वहां से एक देवी की मूर्ति निकली जिसको इसी मंदिर में झूले पर स्थापित किया गया।
लोगों का मानना है कि मंदिर में प्रार्थना करने वाले लोगों की मनोकामनाएं मां झूला देवी पूरी करती हैं।मुराद पूरी होने पर इस मंदिर में तांबे की घंटी चढ़ाई जाती है। इस मंदिर में हजारों घंटियां लोगों की आस्था का प्रतीक हैं।
बिनसर महादेव –
बिनसर महादेव रानीखेत उत्तराखंड क्षेत्र में भगवान् शिव को समर्पित एक मंदिर है। मंदिर के समीप बहती एक गाड़ विहंगम दृश्य प्रस्तुत करती है। मंदिर के पास देवदार तथा चीड़ के जंगलों के मध्य स्थित एक आश्रम भी है।
भालू डैम रानीखेत –
भालूडैम नगर के समीप स्थित एक कृत्रिम झील है।यहाँ से हिमालय श्रंखलाओं का मनोरम दृश्य देखा जा सकता है।
ताड़ीखेत उत्तराखंड –
रानीखेत से 8 किमी दूर स्थित ताड़ीखेत गाँधी कुटी तथा गोलू देवता मंदिर के लिए प्रसिद्द है।
उत्तराखंड रानीखेत का चौबटिया गार्डन –
रानीखेत उत्तराखंड का चौबटिया गार्डन पर्यटकों की पहली पसंद है। इसके अलावा यहां का सरकारी उद्यान और फल अनुसंधान केंद्र भी देखे जा सकता है। इनके पास में ही एक वाटर फॉल भी है। कम भीड़-भाड़ और शान्त माहौल रानीखेत को और भी ख़ास बना देता है। बात करे तो चौबटिया गार्डन उत्तराखण्ड राज्य के अल्मोड़ा ज़िले के प्रसिद्ध पहाड़ी पर्यटन स्थल रानीखेत में स्थित है।
रानीखेत से 10 किलोमीटर दूर इस स्थान पर एशिया का सबसे बड़ा फलों का बगीचा हैं। यहां दर्जनों तरह के फलों के पेड़ हैं, जिन्हें देखकर पर्यटक गदगद हो उठते हैं। यहां सरकार द्वारा स्थापित विशाल फल संरक्षण केंद्र भी देखने लायक हैं। यह स्थान मुख्य रूप से फलोद्यान, बग़ीचों और सरकारी फल अनुसंधान केन्द्र के रूप में प्रसिद्ध है। यहां पिकनिक का आनंद लिया जा सकता है।
इस स्थान से विस्तृत हिमालय, नंदादेवी, त्रिशूल, नंदाघुन्टी और नीलकण्ठ के विहंगम दृश्य देखे जा सकते हैं। 265 एकड़ क्षेत्र में फैला यहां का होर्टीकल्चर गार्डन भारत के विशालतम होर्टीकल्चर गार्डन्स में एक है। इस गार्डन में 36 किस्म के सेब उगाए जाते हैं जिनमें चार किस्मों का निर्यात भी किया जाता है।
चौबटिया गार्डन 10 किमी की दूरी पर स्थित एक प्रसिद्ध पर्यटन आकर्षण है। यहां पर फलों और फूलों की 200 विभिन्न प्रजातियों के हरे-भरे बाग हैं। इन बागों में स्वादिष्ट सेब, आड़ू, प्लम और खुबानी का उत्पादन होता है। सिल्वर ओक, रोडोडेंड्रन, साइप्रस, सीडार और पाइन के जंगलों से घिरी हुई यह जगह मनोरम दृश्य प्रस्तुत करती है।
सरकारी एप्पल गार्डन और फलों का अनुसंधान केंद्र इसके पास ही स्थित हैं। यह जगह एक प्रसिद्ध पिकनिक स्पॉट भी है।
इसके अतिरिक्त रानीखेत उत्तराखंड में और कई ऐसे इलाक़े है जहाँ आप घूम सकते है:-
चिलियानौला मैं हैड़ाखान बाबा का मंदिर
गोल्फ मैदान
शीतला खेत
धोलीखेत
द्वाराहाट
दूनागिरि
मजखाली
खड़ी बाजार
कटारमल सूर्य मन्दिर
माँ कलिका मंदिर
बिन्सर महादेव मंदिर
कटारमल सूर्य मन्दिर
कुमाऊँ रेजिमेंट का संग्रहालय
रानीखेत उत्तराखंड कैसे जाएं –
काठगोदाम रेलवे स्टेशन यहां से 85 किलोमिटर की दूरी पर हैं। रानीखेत दिल्ली से 279 किलोमीटर की दूरी पर है। हल्द्वानी काठगोदाम से रानीखेत के लिए , बस टेक्सी , बुकिंग कार सभी प्रकार के यातायात के साधन उपलब्ध है।
रानीखेत उत्तराखंड का मौसम –
रानीखेत की यात्रा का आनंद लेना है, तो यहाँ गर्मियों में जाना चाहिए। गर्मियों में यहाँ का मौसम , अधिकतम तापमान 22 डिग्री तथा न्यूनतम तापमान 8 डिग्री होता है। तथा सर्दियों में रानीखेत उत्तराखंड का अधिकतम तापमान 7 से 10 डिग्री तथा न्यूनतम तापमान 3 डिग्री होता है।
बद्रीनाथ में घूमने लायक अनेक रमणीक स्थान हैं आमतौर पर तीर्थयात्री बद्रीनाथ धाम के लिए एक दिन की यात्रा या अधिकतम एक रात तक रुकना पसंद करते है । इस वजह से कुछ आकर्षक और सुन्दर दर्शनीय स्थलों के दर्शन करना तीर्थयात्री भूल जाते है । हालाँकि यदि आप एक या दो दिनों के लिए बद्रीनाथ धाम की यात्रा करने की योजना बना रहे हैं, तो बद्रीनाथ में निम्न स्थानों को देखना न भूले ।
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बद्रीनाथ में घूमने लायक निम्न स्थान हैं –
नीलकंठ –
बद्रीनाथ मंदिर के पीछे, एक तरफ घाटी एक शंक्वाकार आकार के नीलकंठ शिखर (6600 मीटर) में खुलती है। जिसे ‘गढ़वाल क्वीन’ के रूप में भी जाना जाता है, पिरामिड के आकार में एक बर्फीली चोटी है जो बद्रीनाथ की पृष्ठभूमि बनाती है। पर्यटक यहाँ ब्रह्म कमल क्षेत्र तक आ सकते हैं।
संतोथपथ –
यह एक त्रिकोणीय झील है जो बर्फ से ढकी चोटियों से घिरी हुई है और इसका नाम हिंदू देवताओं महेश (शिव), विष्णु और ब्रह्मा के नाम पर रखा गया है। ऐसा माना जाता है कि हिंदू देवता महेश (शिव), विष्णु और ब्रह्मा हिंदू कैलेंडर के अनुसार प्रत्येक एकादशी पर इस सरोवर में स्नान करते हैं। (यहाँ यात्रा करने के लिए अनुमति की आवश्यकता होती है)
बद्रीनाथ में घूमने योग्य प्रमुख स्थान तप्त कुंड –
बद्रीनाथ मंदिर में प्रवेश करने से पहले, प्रत्येक श्रद्धालु तप्त कुंड में पवित्र स्नान करता है। ताप कुंड एक प्राकृतिक गर्म पानी का कुंड है, जिसे अग्नि के देवता अग्नि का निवास कहा जाता है। स्नान क्षेत्र में पुरुषों और महिलाओं के लिए अलग-अलग व्यवस्था है। हालांकि सामान्य तापमान 55 ° C तक रहता है, दिन के दौरान पानी का तापमान धीरे-धीरे बढ़ता रहता है। ऐसा माना जाता है इस कुंड के उच्च औषधीय महत्व है । यहाँ एक डुबकी भर लगाने से त्वचा रोग ठीक हो जाते है । यह बद्रीनाथ में घूमने योग्य सबसे प्रसिद्ध स्थान है।
ब्रह्मकपाल –
मंदिर के पास, यत्रियों के लिए अपने पूर्वजों का श्राद्ध करने के लिए एक स्थान है, जिसका बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। जहां व्यक्ति अपने पूर्वजो का श्राद्ध कर सकता है।
चरण पादुका –
यह स्थान बद्रीनाथ से सिर्फ 3 किमी की दूरी पर स्थित है । गर्मियों के मौसम मे यहाँ सुन्दर घास के मैदान जंगली फूलो से ढके होते है ।यहां एक बहुत बड़ी चट्टान है, जिसमे भगवान विष्णु के पैरों के निशान अंकित हैं।
नारद कुंड –
तप्त कुंड के पास स्थित, नारद कुंड वह स्थान है जहां भगवान विष्णु की मूर्ति आदि शंकराचार्य द्वारा बरामद की गई थी। गरुड़ शिला के नीचे से गर्म पानी के झरने निकलते हैं और कुंड में आकर गिरते है। बद्रीनाथ के दर्शन हमेशा इस कुंड में एक पवित्र डुबकी लगाने से पहले होते हैं। इसके अलावा यहाँ कई अन्य गर्म पानी के झरने हैं। भक्त अपने धार्मिक और औषधीय महत्व के लिए उनमें डुबकी लगाते हैं। बद्रीनाथ में सूरज कुंड और केदारनाथ के रास्ते में गौरी कुंड एक और प्रसिद्ध कुंड हैं। यह बद्रीनाथ में घूमने योग्य प्रमुख स्थानों में एक है।
वसुधारा जल प्रपात –
वसुधारा जलप्रपात (माणा गाँव से 3 किलोमीटर) प्रसिद्ध पर्यटन आकर्षणों में से एक है, जो माना गाँव में स्थित है। इस झरने का पानी 400 फीट की ऊँचाई से नीचे गिरता है और यह 12,000 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। ऐसा माना जाता है कि वसुधारा झरने का पानी उन पर्यटकों से दूर हो जाता है जो दिल के शुद्ध नहीं होते है। झरने के करीब सतोपंथ, चौखम्बा और बालकुम की प्रमुख चोटियाँ हैं।
वासुकी ताल –
यह एक उच्च ऊंचाई वाली झील है जहाँ 8 किमी की ट्रेक द्वारा पहुँचा जा सकता है जो 14,200 फीट तक जाती है। व्यास गुफ़ा, गणेश गुफ़ा, भीमपुल और वसुधारा जलप्रपात यहाँ से 3-6 किमी दूरी पर हैं। ये सभी गंतव्य हिंदू पौराणिक कथाओं के साथ अपने संबंधों के लिए प्रसिद्ध हैं और बद्रीनाथ में घूमने योग्य एक प्रमुख स्थान हैं।
लीला ढोंगी –
बद्रीनाथ वह क्षेत्र है जिसे भगवान शिव ने मूल रूप से तपस्या के लिए चुना था। हालाँकि, भगवान विष्णु ने फैसला किया कि वह यहाँ ध्यान करना चाहते हैं इसलिए उन्होंने एक छोटे बच्चे का रूप धारण किया और एक चट्टान पर लेट गए और रो पड़े। जब पार्वती ने उन्हें सांत्वना देने की कोशिश की तब भी उन्होंने रुकने से इनकार कर दिया। अंत में, भगवान शिव बच्चे की जिद को नहीं रोक सके और केदारनाथ में ध्यान करने का फैसला किया।
उर्वशी मंदिर:
बद्रीविशाल, नर और नारायण का आश्रम, जहां दोनों ने तपस्या की और अब, पहाड़ों के आकार में, मंदिर की रक्षा करते हैं | जब वे गहन ध्यान में थे, भगवान इंद्र ने उन्हें विचलित करने के लिए आकाशीय युवतियों या अप्सराओं का एक समूह भेजा।
नारायण ने अपनी बाईं जांघ को फाड़ दिया और मांस से बाहर, कई अत्यधिक सुन्दर अप्सराओं को बनाया। उन सभी में से सबसे अधिक सुन्दर – उर्वशी – इंद्र की अप्सराओं का नेतृत्व किया और चरणपादुका में एक छोटे से तालाब के पास अपना घमंड चूर-चूर कर दिया। तालाब उर्वशी के नाम पर है; और बामनी गाँव के बाहरी इलाके में एक मंदिर है जो इस सुन्दर अप्सरा को समर्पित है।
Badarinath
बद्रीनाथ में घूमने योग्य प्रमुख स्थान भीम पुल –
यह एक विशाल चट्टान है जो सरस्वती नदी के पार एक प्राकृतिक सेतु का काम करती है। सरस्वती नदी दो पहाड़ों के बीच बहती है और अलकनंदा नदी में मिलती है। यह माना जाता है कि पांच पांडवों में से एक, महाबली भीम ने दो पहाड़ों के बीच एक रास्ता बनाने के लिए एक विशाल चट्टान को फेंक दिया ताकि द्रौपदी आसानी से उस पर चल सकें।
बद्रीनाथ में घूमने योग्य शेष नेत्र –
बद्रीनाथ से 1.5 किमी दूर एक शिलाखंड है जिसमें पौराणिक सांप की छाप है, जिसे शेषनाग के नेत्र (शेष का मतलब शेषनाग और नेत्र का मतलब आंख) के रूप में जाना जाता है। नर पर्वत की गोद में अलकनंदा नदी के विपरीत किनारे पर दो छोटी मौसमी झीलें हैं। इन झीलों के बीच में एक चट्टान है, जिसमें प्रसिद्ध साँप, शेषनाग की छाप है।
माणा गाँव –
यह चीन सीमा पर भारतीय क्षेत्र का अंतिम गांव है और बद्रीनाथ से सिर्फ 3 किलोमीटर दूर है। माणा गाँव के ग्रामीणों को श्री बदरीनाथ मंदिर की गतिविधियों के साथ निकटता से जोड़ा जाता है क्योंकि वे मंदिर के समापन के दिन देवता को चोली चढ़ाते हैं – एक वार्षिक पारंपरिक रिवाज ।
माणा गाँव गुफाओं से भरा हुआ है और ऐसा कहा जाता है कि वेद व्यास ने गणेश को महाभारत के अपने प्रसिद्ध महाकाव्य का वर्णन किया था, इन गुफाओं में से एक, जिसे अब व्यास गुफ़ा (गुफा) के नाम से जाना जाता है। यह बद्रीनाथ में घूमने योग्य प्रमुख स्थान है।
बद्रीनाथ में घूमने योग्य स्थान पांच धारा –
पंचधारा (पाँच धाराएँ) जो बद्रीपुरी में प्रसिद्ध हैं, वे हैं प्रह्लाद, कूर्म, भृगु, उर्वशी और इंदिरा धारा। इनमें से सबसे बड़ी अद्भुत इंदिरा धारा है, जो कि बद्रीपुरी शहर से लगभग 1.5 किमी उत्तर में है। भृगुधारा कई गुफाओं में बहती है। ऋषि गंगा नदी के दाईं ओर, मूल रूप से नीलकंठ श्रेणी की उर्वशी धारा है। कूर्म धारा का पानी बेहद ठंडा होता है, जबकि प्रह्लाद धारा में गुनगुना पानी होता है, जो नारायण पर्वत की चट्टानों से नीचे की ओर बहता है।
पंच शिला –
तप्त कुंड के आसपास नारद, नरसिंह, बराह, गरुड़ और मार्कंडेय (पत्थर) नामक पौराणिक महत्व के पांच शिलाएं हैं। तप्त और नारद कुंड के बीच में स्थित है, शंक्वाकार आकार की नारद शिला। कहा जाता है कि ऋषि नारद ने इस चट्टान पर कई वर्षों तक ध्यान किया था।
सरस्वती नदी –
माणा गाँव से 3 किमी उत्तर में एक ग्लेशियर से सरस्वती नदी निकलती है। सरस्वती को ज्ञान की देवी के रूप में जाना जाता है, जिन्होंने वेद व्यास को महाकाव्य महाभारत की रचना करने का आशीर्वाद दिया था । व्यास गुफ़ा को छूने के बाद नदी, केशव प्रयाग में अलकनंदा में खो जाती है। यहाँ से इलाहाबाद तक, सरस्वती नदी गुप्त मार्ग से बहती है। कहा जाता है कि इलाहाबाद में गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम पर, सरस्वती अदृश्य रहती है।