शिव और शक्ति के उपासक होने के बावजूद उत्तराखंड के पहाड़ी लोगों में लोकदेवताओं को पूजने की समृद्ध परम्परा है। प्राचीन काल के नायक वर्तमान में श्रद्धापूर्वक लोकदेवता के रूप में पूजे जाते हैं तो उस समय के खलनायक भी भय के कारण या अनिष्ट के डर से पूजे जाते हैं। हर लोकदेवता के साथ एक अलग कहानी जुडी होती है। हर किसी को जगह विशेष, पर्वत या मंदिर के नाम से याद किया जाता है। कही कही शिव या शक्ति को लोक देवताओं के रूप में भी पूजा जाता है। जैसे – सैम देवता, महासू देवता और निरंकार देवता को शिव का अवतार या उनका रूप समझकर पूजा जाता है। और उसी प्रकार शक्ति को भी अलग -अलग लोकदेवियों के रूप में पूजा जाता है। जैसे – नंदा देवी, अन्यारी देवी, उज्याली देवी, गढ़ देवी इत्यादि।
इनमे से अन्यारी देवी को भी उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में लोकदेवी के रूप में पूजा जाता है। हालाँकि इन्हे लगभग पुरे कुमाऊं मंडल में पूजा जाता है। उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में अन्यारी देवी को समर्पित मंदिर भी है। अन्यारी देवी कौन हैं ? और इनका उद्भव कैसे हुवा ? प्राप्त जानकारी के अनुसार अन्यारी देवी अंधकार की अधिष्ठाती देवी मानी जाती है। इनकी पूजा अँधेरे में की जाती है। उत्तराखंड की लोकथाओं और शाक्त मान्यता की पौराणिक जानकारी के अनुसार श्रष्टि के आरम्भ में माँ आदिशक्ति, परब्रह्म के रूप में में प्रकट हुई। और माँ आदिशक्ति से ही सृष्टि का निर्माण शुरू हुवा। माँ अलग -अलग परिस्थियों समय, विकारों आदि के आधार पर अलग अलग रूप में प्रकट हुई या अवतरित हुई। जिसमे से माँ का अँधेरे को समर्पित अन्यारी देवी ( अंधेरी देवी ) और उजाले को समर्पित रूप उज्याली देवी भी एक था। उत्तराखंड में कहीं -कहीं लोक देवी गढ़देवी को ही अन्यारी देवी के रूप में पूजा जाता है। उन्हें कुमाऊं के प्रमुख लोकदेवता गोलू देवता की धर्म बहिन के रूप में भी पूजा जाता है।
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अन्यारी देवी के बारे में उत्तराखंड की लोकसंस्कृति पर गहन अध्यन करने वाले और खासकर कुमाउनी संस्कृति की अच्छी जानकारी रखने वाले प्रो DD शर्मा अपनी प्रसिद्ध पुस्तक उत्तराखंड ज्ञानकोष में लिखते हैं, “अन्यारी देवी: लोक देवता के रूप में पूजित इस देवशक्ति को जोहार में दुर्गा का रूप माना जाता है तथा इसकी पूजा रात्रि के अन्धकार में की जाती है। यह पूजा चैत्र और आश्विन के शुक्लपक्ष (नवरात्रों) की अष्टमी को की जाती है तथा इसमें बकरे की बलि चढ़ाई जातीहै। इसके सम्बन्ध में लोक धारणा है कि तुर्क एवं मुगलशासनकाल में प्रत्यक्षतः कार्यकुल के देवी देवताओं के अनुष्ठानों पर प्रतिबन्ध होने के कारण देवार्चनायें प्रच्छन्नरूप से रात्रि में सम्पादित की जाती थीं। इसीलिए इसे अन्यारी (अंधियारी) देवी कहा जाता है।
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