Friday, October 18, 2024
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हरज्यू और सैम देवता, उत्तराखंड कुमाऊँ क्षेत्र के लोक देवता की जन्म कथा।

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हरज्यू और सैम देवता

हरज्यू और सैम देवता  कुमाऊ के सुख समृद्धि के देवता माने जाते हैं। हरू देवता  सबका कल्याण करने वाले शांत स्वभाव के देवता माने जाते हैं।एक लोक कहावत में कहा जाता है,कि जहॉ हरज्यूँ ( हरू ) का वास होता है, वहा सुख समृद्धि रहती है। और ये जहॉ नाराज हो जाते हैं , वहाँ सब विनाश हो जाता है। आन हरज्यूँ हरिपट । जान हरज्यूँ खड़पट।

प्रस्तुत लेख हम आपको उत्तराखंड के लोक देवता हरज्यू और सैम देवता की जन्मकथा सुनाएंगे। तो आप इस लेख में अंत तक बने रहिए।

 हरज्यू और सैम देवता की जन्म कथा –

हरज्यू और सैम देवता दोनो को भाई मन जाता है। उनके मंदिर भी साथ साथ होते हैं। उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में उनकी जागरों में उनकी जन्म गाथा गया कर उनको अवतरित कराया जाता है। हरू राजा हरिश्चन्द्र को कहा जाता है, जो चंपावत के राजा,और मन से एक सात्विक आत्मा थे । वो सबका कल्याण करते थे। उन्होंने राजपाट का त्याग कर अपने भाई सैम, सेवको लटुवा,भनारी और अन्य सेवको के साथ सन्यास ले लिया। और लोगो का कल्याण करने लगे। उनकी मृत्यु के पश्चात वो देवरूप में पूजे जाने लगे । ( हरज्यू और सैम देवता)

बहुत समय पहले की बात है, उत्तराखंड कुमाऊ क्षेत्र में ,निकन्दर नामक एक प्रतापी राजा हुवे थे। उनकी बेटी का नाम था,कालानीरा । एक वर्ष इस वर्ष की भांति हरिद्वार में कुंभ चल रहा था। तब राजकुमारी कालानीरा का मन भी हरिद्वार कुंभ में जाने को हुवा, तो उसने अपने पिता जी से आज्ञा मांगी।

तब पिता ने कुंभ में अकेली बेटी को भेजने से मना कर दिया। मगर कालानीरा नही मानी वो जिद पर अड़ गई। तब पुत्री के जिद के आगे विवश पिता ने पुत्री को कुंभ मेले में जाने की आज्ञा दे दी । लेकिन पुत्री को सावधान करते हुए कहा कि हरिद्वार में केवल घुटनो तक नहाना , डुबकी मत लगाना। कालानीरा पिता की आज्ञा मानकर हरिद्वार कुंभ में चली गई। (हरज्यू और सैम देवता)

हरिद्वार में लाखों साधु सन्यासी आये थे, स्नान कर रहे थे। कालानीरा ने भी अपनी कुटिया एक किनारे पर बनाई और स्न्नान करने नदी में उतर गई। पहले उसको अपने पिता की बात याद थी,कि घुटनो तक ही नहाना है। बाद में सभी साधु सन्यासियों को डुबकी लगाते देख,कालानीरा का मन भी डुबकी लगाने को हुवा ,उसने पिता की कही बात भूल कर डुबकी लगा दी। जैसे ही कालानीरा ने डुबकी लगाई, उसी समय सूर्य की किरणें भी गंगा में पड़ी। और जब कालानीरा डुबकी लगा कर बाहर निकली तो, उसको अहसास हुआ, कि वो गर्भवती हो गई है।

गढ़वाल की फूलों की देवी , गोगा माता की कहानी। जानने के लिए क्लिक करें।

लोक लाज के डर से, कालानीरा अपने राज्य की तरफ नही गई, जंगलो की तरफ चली गई। जंगल मे एक स्थान पर उसे गुरु गोरखनाथ तपस्या करते हुए दिखे, उनकी धूनी बुझ चुकी थी,पेड़ पौधे सुख गए थे। कालानीरा वही रुक गई, और सुखी लकड़ीयां इकठ्ठा करके गुरु गोरखनाथ की धूनी,दुबारा जला दी। पेड़ पौधों को पानी दे कर उनको हरा भरा कर दिया। (हरज्यू और सैम देवता)

जब गुरु गोरखनाथ की तपस्या पूरी हुई तो वो बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कालानीरा को वर देना चाहा,लेकिन कालानीरा ने वरदान में मृत्यु मांग ली,इस अजीब वर को सुनकर गुरु गोरखनाथ ने उनके दुख का कारण पूछा। कालानीरा ने सारा वृतान्त बता दिया। तब गुरु गोरखनाथ ने कालानीरा को वरदान दिया कि,पुत्री चिंता मत करो तुम्हारे सारे पुत्र पराक्रमी होंगे और देवताओं की तरह पूजे जाएंगे।

हरज्यू और सैम देवता
उत्तराखंड अल्मोड़ा के बगुन गाँव मे स्थिति लोक देवता हरज्यूँ की धूनी ( मंदिर )

हरज्यू और सैम देवता

कालानीरा गुरु गोरखनाथ जी के आश्रय में ही रहने लगी। कुछ दिनों के बाद कालानीरा कि बाई कोहनी से एक पुत्र हुवा ,जिसका नाम गुरु गोरखनाथ जी ने हरू रखा। एक दिन कालानीरा स्नान के लिए नदी को गई ,और बालक हरू आश्रम में गुरु जी के पास बैठा गई। किन्तु बालक हरू चुपचाप माँ के पीछे पीछे चल दिये। उस नदी के किनारे एक भयंकर मासण रहता था, जिसका नाम था लटुवा माशाण, जैसे ही कालानीरा नदी पर पहुची  उनपे लटुवा मशान ने हमला कर दिया।

अपनी माँ पर हमला होते देख बालक हरू एकदम बिजली की फुर्ती से लटुवा माशाण पर चिपट गए, दोनो की भयंकर लड़ाई हो गई। बालक हरू ने फुर्ती और बहादुरी का परिचय देते हुए ,लटुवा मसान की गर्दन में बैठ कर उसे परास्त कर दिया और अपना दास बना लिया। ( हरज्यू और सैम देवता )

उधर गुरु गोरखनाथ ने हरू को आश्रम में नही देखा तो उनको लगा, बालक को कुछ हो गया या कोई जंगली जानवर ले गया। उन्होंने कुसा का तिनका लेकर ,उसमे अपने तपोबल प्राण फूंक दिए । और हरू के जैसे  एक बालक को जन्म दे दिया। जब कालानीरा पुत्र हरू के साथ आश्रम पहुची ,तो वहाँ हरू के जैसे दूसरे पुत्र को देख कर चकित हो गई। तब गुरु गोरखनाथ जी ने कालानीरा को सारा वृत्तांत बताया ।

हरज्यू और सैम देवता, उत्तराखंड कुमाऊँ क्षेत्र के लोक देवता की जन्म कथा।

गुरु गोरखनाथ जी ने कालानीरा को वरदान दिया ,जो पुत्र जन्म में श्रेष्ठ है,उसका नाम हरू,और जो कर्म में श्रेष्ठ उसका नाम सैम होगा। तुम्हारे दोनो पुत्र चमत्कारी और पूजनीय होंगे। (हरज्यू और सैम देवता)

तो मित्रों यह थी , उत्तराखंड कुमाऊ के लोक देवता हरज्यू और सैम देवता की जन्म कथा। उपरोक्त लेख का स्रोत , हरज्यूँ  सैम देवता जागर, और डॉ त्रिलोचन पांडे जी की किताब कुमाउनी भाषा और उसका साहित्य है। यदि आपको इसमे कुछ त्रुटि हो,तो आप हमे कमेंट्स के माध्य्म या हमारे फेसबुक पेज देवभूमिदर्शन में हमको कमेंट या मैसेज माध्यम से बता सकते हैं। हम उचित संसोधन करंगे।

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मनीला देवी मंदिर अल्मोड़ा उत्तराखंड | Manila devi temple Uttrakhand in Hindi

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मनीला देवी मंदिर उत्तराखंड अल्मोड़ा  जिले के सल्ट क्षेत्र में स्थित है। देवदार और चीड़ ,बाज बुरॉश आदि धने वृक्षो की छाया में बसा मनीला माता का मंदिर। मनिला इस क्षेत्र का नाम है। और यहाँ स्थित देवी के मंदिर को माँ मनिला देवी मंदिर कहा जाता है।

अल्मोड़ा जिला मुख्यालय  लगभग 128 किलोमीटर दूर , रानीखेत से लगभग 85 और रामनगर से लगभग 80 किलोमीटर दूर मनिला नामक स्थान पर माता का चमत्कारी मंदिर है। मनिला एक आकर्षक पर्यटक स्थल है। मनिला में देवदार, चीड़ ,बुरॉश बाज के पेड़ों की छात्र छाया से यहां का प्राकृतिक सौंदर्य निखर जाता है। मनिला  पंचाचूली ,नंदा देवी , त्रिशूल आदि हिमाच्छादित शिखरों का आनंद लेने का सर्वश्रेष्ठ स्थान है।

मनिला समुद्र तट से 1850 मीटर उचाई पर स्थित है। यहाँ उचाई वाले क्षेत्रों में सेव नाशपाती, अखरोट संतरा, माल्टा ,खुबानी आदि होते हैं। तथा यहाँ के तराई क्षेत्रो में ,आम पपीता केला आदि होते हैं।

ऐतिहासिक और धार्मिक दृष्टि से मनिला क्षेत्र का बहुत महत्व है। यह एक अच्छा पर्यटक स्थल बन सकता है, किन्तु अभी तक इसको इतनी तेजी से विकास की राह नही मिली है जितनी मिलनी चाहिए थी।

पूर्णागिरि माता के धाम की विस्तृत जानकारी के लिए क्लिक करें।

माँ मनिला देवी के यहाँ 2 मंदिर हैं । एक मंदिर का नाम है, मल्ला मनिला मंदिर अर्थात ऊपर का मनिला मंदिर, मल्ला का अर्थ कुमाउनी भाषा मे ऊपर होता है। दूसरा मंदिर का नाम है , तल्ला मनिला मंदिर मतलब नीचे वाला मनिला मंदिर । तल्ला का मतलब कुमाउनी भाषा मे  नीचे होता है। इसके पीछे एक प्रसिद्ध लोक कथा है। जिसे हम आपको इसी लेख में आगे बताइयेंगे।

मनीला देवी मंदिर
मनीला देवी मंदिर
फ़ोटो साभार – सोशल मीडिया

मनिला देवी मंदिर का इतिहास –

मनिला देवी को कत्यूरी राजाओं की कुल देवी कहा जाता है। यह मंदिर कत्यूरी निर्माण शैली में बना है। कहा जाता है , कि वर्ष 1488 में कत्यूरी  राजा ब्रह्मदेव ने मनिला देवी मंदिर का निर्माण करवाया था। मंदिर में काले पत्थर से बनी दुर्गा माँ की मूर्ति तथा भगवान विष्णु की मूर्तियां स्थापित हैं। वर्ष 1977 – 78 में मंदिर का जीर्णोद्धार कराया गया।

मनिला देवी मंदिर की कहानी –

कहाँ जाता है कि प्राचीन काल मे , यहाँ मा मनीला देवी ,क्षेत्र में कुछ भी अप्रिय घटना होने से पहले लोगो को आवाज लगा कर सतर्क कर देती थी। कहा जाता है,कि एक बार दूर प्रदेश से बैलों की खरीद फरोख्त करने हेतु मनीला क्षेत्र में आये, उनको एक जोड़ी बैल पसंद भी आ गए । लेकिन मोल भाव के कारण या किसी अन्य कारण से बैलों के मालिक ने बैल देने से इंकार कर दिया। व्यापारियों को वो बैल बहुत पसंद आ गए थे।  उन्होंने उन बैलों को चुराने का फैसला किया । व्यापारी जैसे ही बैल चुराने की तैयारी कर रहे थे। उसी समय माँ मनिला देवी ने बैलों के मालिक को आवाज लगा कर आगाह कर दिया।

माता की आवाज सुन कर व्यापारियों ने बैलों की चोरी का फैसला त्याग दिया । और वो माँ की मूर्ति अपने प्रदेश ले जाने के लिए चोरी की योजना बनाने लगे। कहा जाता है,कि उन्होंने माँ की मूर्ति उखाड़ने का बहुत प्रयास किया लेकिन उनको सफलता नही मिल पाई। और इसी खिंचा तानी में मूर्ति का एक हाथ उखड़ गया। उस टूटे हाथ को लेकर वो जैसे तैसे थोड़ी दूर तक पहुचे की ,उस हाथ का भार इतना ज्यादा हो गया कि उनको उसे, नीचे रखना पड़ा।

दुबारा उन्होंने उस हाथ को उठाने की कोशिश की तो वो असफल हो गए। वो उस हाथ को वहीं छोड़कर भाग गए। दूसरे दिन गांव वालों को इस घटना के बारे में पता चला तो, उन्होंने वही पर माता के मंदिर की स्थापना कर दी। इस प्रकार मनिला देवी के दो मंदिर मल्ला मनिला देवी और तल्ला मनीला देवी की स्थापना हुई।

सल्ट क्षेत्र में स्थित है, गढ़ कुमौ की देवी माँ भौना देवी का मंदिर, जानने के लिए क्लिक करें।

कहाँ जाता है, कि माँ मनिला देवी ने ,इस घटना के लिए भी गाँव वालों को आवाज मार के आगाह किया, लेकिन एक औरत ने ये आवाज सुनी बाहर आई, और फिर अनसुना करके सो गई। तब से माँ ने वहाँ आवाज दे कर आगाह करना बंद कर दिया ।

मनीला देवी मंदिर अल्मोड़ा उत्तराखंड | Manila devi temple Uttrakhand in Hindi

मनिला देवी कैसे जाय

मनिला देवी मंदिर जाने के लिए सबसे आसान मार्ग रामनगर से पड़ता है। रामनगर से मनिला देवी की दूरी मात्र 80 किमी है। रामनगर तक आप ट्रेन, बस में आकर यहाँ से मनिला देवी के लिए टैक्सी बस सब उपलब्ध हैं। पंतनगर तक आप हवाई जहाज में  आकर , पंतनगर से रामनगर या सीधे मनीला देवी मंदिर तक टैक्सी से जा सकते हैं।

यदि आप उत्तराखंड के अन्य क्षेत्रों से मनीला देवी मंदिर की यात्रा करना चाहते हैं तो कुमाऊ क्षेत्र के प्रमुख स्टेशनों से मनीला देवी मंदिर की दूरी निम्न प्रकार है।

  • रामनगर से मनीला देवी मंदिर की दूरी 80 किमी
  • रानीखेत से मनीला देवी मंदिर की दूरी 85 किमी
  • काठगोदाम से मनीला देवी की दूरी 140 किमी
  • अल्मोड़ा से मनीला देवी मंदिर की दूरी 128 किमी

मनीला देवी मंदिर का महत्व –

मनीला देवी मंदिर का  ऎतिहासिक ,पौराणिक महत्त्व तो है ही, साथ साथ इसका पर्यटन की द्र्ष्टि से विशेष महत्व है। देवदार चीड़ के जंगलों के बीच सुरम्य स्थान में बसा मनिला देवी मंदिर लोगों की अटूट आस्था का प्रतीक है। यहाँ साल भर श्रद्धालुओं का तातां लगा रहता है। यहाँ मान्यता है कि सच्चे मन से मांगी गई मन्नत ,माँ मनीला हमेशा पूरा करती है।

मनीला देवी मंदिर में नवविवाहित जोड़े मनोती मागने आते हैं,और माता रानी उनकी झोली खुशियों से भर देती है। दूर क्षेत्र से आने वाले श्रद्धालुओं के लिए 24 कमरे रात्रि विश्राम हेतु बनाये गए हैं।

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कटारमल सूर्य मंदिर अल्मोड़ा ,उत्तराखंड | Katarmal sun Temple Almora ,Uttrakhand

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कटारमल सूर्य मंदिर
Katarmal sun temple

कटारमल सूर्य मंदिर अल्मोड़ा से लगभग 16 किमी दूर कटारमल ( Katarmal , Adheli ,Sunar  ) अधोली सुनार गाँव मे स्थित है । कटारमल का सूर्य मंदिर समुद्र तल से 2116 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। कटारमल के पास कोसी नामक कस्बाई बाजार पड़ता है। एवं पास कोसी नदी ( कौशिकी नदी ) भी प्रवाहित होती है। Katarmal temple को  उत्तराखंड का सबसे प्राचीनतम सूर्य मंदिर माना जाता है।

कटारमल सूर्य मंदिर यह  मंदिर समस्त कुमाऊ में  विशाल मंदिरों में गिना  जाता है। कटारमल के सूर्य मंदिर को कोर्णाक सूर्य मंदिर के बाद सबसे प्राचीन मंदिर माना जाता है। कटारमल मंदिर कोर्णाक के सूर्य मंदिर से लगभग 200 वर्ष पुराना माना जाता है।

गढ़वाल कुमाऊ की देवी माँ भौना देवी के बारे में जानने के लिए क्लिक करें।

कटारमल सूर्य मंदिर का इतिहास –

कटारमल का सूर्य मंदिर अपनी विशेष वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध है। कटारमल के सूर्यमंदिर का लोकप्रिय नाम बारादित्य है। कटारमल के मंदिर के बारे मेें कहा जाता है,कि  कटारमल सूर्य मंदिर का निर्माण कत्यूरी वंश के राजा कटारमल देव ने कराया  था। इसीलिये इस मंदिर का नाम राजा कटारमल के नाम से कटारमल का सूर्य मंदिर भी कहा जाता है।

यहाँ छोटे छोटे 45 मंदिरों का समूह है। इतिहासकारों के अनुसार मुख्य मंदिर का निर्माण अलग अलग समय माना जाता है। वास्तुकला और शिलालेखों के आधार पर इस मंदिर का निर्माण 13 वी शताब्दी में माना जाता है।

अल्मोड़ा सूर्य मंदिर की दीवार पर तीन लाइन लिखा एक शिलालेख भी है। जिसके अनुसार प्रसिद्ध लेखक राहुल सांकृत्यायन 10वी या 11 वी शताब्दी का माना है। राहुल सांकृत्यायन ने भी इस मंदिर की मूर्तियां को कत्यूरी काल की माना है। इन मंदिरों में भगवान सूर्य की 2 मूर्तियां और विष्णु शिव गणेश भगवान की मूर्तियां है। पुरातत्वविद  डॉ डिमरी जी के अनुसार यह मंदिर 11वी शताब्दी का माना जा सकता है। इस मंदिर के लकड़ी के गुम्बद के हिसाब से यह 8 वी या 9 वी शताब्दी का लगता है। ( कटारमल सूर्य मंदिर अल्मोड़ा )

इस मंदिर में सुंदर अष्टधातु की मूर्ति थी , जिसे चोरों ने चुरा लिया था, जो अब दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में रखे हैं। मंदिर का ऊँचा शिखर अब खंडित हो गया है। इसकी शिखर की ऊँचाई से इसकी उचाई का अनुमान लगाया जा सकता है। भारतीय पुरातत्व विभाग ने मंदिर को संरक्षित स्मारक घोषित किया है। कटारमल मंदिर का प्रवेश द्वार जो अनुपम काष्ट कला का नमूना था, तस्करों की चोरी की वारदात के बाद। इन दरवाजों को दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में रख दिया गया। (कटारमल सूर्य मंदिर अल्मोड़ा )

कटारमल के मंदिर की विशेषता –

इस मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ,यहाँ भगवान सूर्य की मूर्ति किसी ,धातु या पत्थर से निर्मित नही है, बल्कि बड़ की लकडी अर्थात बरगद की लकड़ी से बनी है। जो अदभुत और अनोखी है। यहाँ के सूर्य भगवान की मूर्ति बड़ की लकड़ी से बने होने के कारण ऐसे बड़ादित्य या बड़आदित्य मंदिर कहा जाता है। इस मंदिर में भगवान सूर्य देव की मूर्ति पद्मासन में स्थित है। इस मंदिर में सूर्य देव की 2 मूर्तियां है।

कटारमल सूर्य मंदिर अल्मोड़ा
कटारमल सूर्य मंदिर का फोटो

यह मंदिर पूर्वमुखी है। भगवान सूर्य नारायण रोज सुबह उदय के समय अपने भवन में किरणें बिखेरते हैं।

कटारमल सूर्य मंदिर की कहानी –

पौराणिक कथा के अनुसार प्राचीन युगों से उत्तराखंड देवभूमि रही है। यहाँ पहाड़ो पर ऋषि मुनि अपनी जप तप करते थे। एक बार द्रोणागिरी , कक्षयपर्वत और कंजार पर्वत पर ऋषि मुनि अपना जप तप कर रहे थे। तभी उनको वहाँ एक असुर परेशान करने लगा। ऋषियों ने वहाँ से भाग कर , कौशिकी नदी ( कोसी नदी ) के तट पर शरण ली।

वहाँ उन्होंने भगवान सूर्य देव की आराधना की । तब भगवान सूर्य देव ने प्रसन्न होकर अपने  तेज को एक वटशिला मे स्थापित कर दिया । जैसा कि विदित है, ऊर्जा और तेज के सामने नकारात्मक शक्तियां नही टिक सकती हैं वटशिला के तेज के सामने असुर परास्त हो गया ,और ऋषियों ने निर्बिघ्न अपनी पूजा आराधना,जप तप किया। बाद में कत्यूरी वंशज राजा कटारमल देव ने इसी वटशिला पर भगवान सूर्यदेव के भव्य मंदिर का निर्माण कराया। ( कटारमल सूर्य मंदिर अल्मोड़ा )

कटारमल कोसी से मात्र 10 से 12 किलोमीटर दूर है, प्रसिद्ध शिव मंदिर सितेसर महादेव मंदिर। अधिक जानकारी के लिए यहां क्लिक करें।

कटारमल  कब जाए –

कटारमल सूर्य मंदिर की यात्रा आप कभी भी कर सकते हैं । ज्यादकर गर्मियों के मौसम में कटारमल  की यात्रा सबसे उपयुक्त रहेगी। क्योंकि कटारमल सूर्य मंदिर अल्मोड़ा जिले में आता है। अल्मोड़ा एक प्रसिद्ध हिल  स्टेशन है। अल्मोड़ा का तापमान  गर्मियों में अधिकतम 28 डिग्री तथा न्यूनतम 12 डिग्री होता है।गर्मियों कटारमल के आस पास घूमने लायक बहुत स्थान हैं। कटारमल की यात्रा के साथ आप उत्तराखंड का प्रसिद्ध हिल स्टेशन रानीखेत कि यात्रा का आनन्द भी ले सकते हैं।

इसके साथ साथ अल्मोड़ा से लगभग 30 किमी माँ दुर्गा के प्रसिद्ध वैष्णवी शक्ति पीठ माँ दूनागिरी के भव्य मंदिर का दर्शन भी कर सकते हैं। इसके अलावा कटारमल सूर्य मंदिर के आस पास माँ कसार देवी का प्रसिद्ध मंदिर है, जो अपनी विश्व प्रसिद्ध अदभुत रेडियोएक्टिव शक्ति के लिए प्रसिद्ध है।

और अनेक दर्शनीय स्थल अल्मोड़ा जिले में हैं, जो  कटारमल सूर्य मंदिर अल्मोड़ा के आस पास हैं।

कटारमल सूर्य मंदिर कैसे जाए –

कटारमल का सूर्य मंदिर एक बहुत अच्छा सूर्य मंदिर है। यहाँ जाने के लिए प्रत्येक मार्ग सुगम है। सबसे पहले आपको अल्मोड़ा पहुचना है, उसके बाद 17 किमी बस या छोटी गाड़ी से , स्याहीधार, मटेला हवालबाग, कोसी नदी के आगे लगभग 3 किमी पैदल सफर करना पड़ता है।

हवाई मार्ग से कटारमल सूर्य मंदिर  – 

अल्मोड़ा के निकट ,प्रसिद्व हवाई अड्डा पंत नगर हवाई अड्डा है। यह हवाई अड्डा देश के सभी मुख्य शहरों से जुड़ा है। पंतनगर हवाई अड्डा से अल्मोड़ा की दूरी लगभग 127 किलोमीटर है। और पंतनगर से कटारमल की दूरी लगभग 147 किलोमीटर हैं। यदि आपको दिल्ली से कटारमल सूर्य मंदिर आना है। तो आप पंतनगर तक हवाई जहाज में उसके बाद सड़क मार्ग से  छोटी गाड़ी या बस से पहुच सकते हैं। पंतनगर से अल्मोड़ा यात्रा में लगभग 5 घंटे का समय लगता है।

ट्रेन से कटारमल सूर्य मंदिर अल्मोड़ा कैसे जाए –

कुमाऊ क्षेत्र में रेलवे के 2 स्टेशन है । पहला काठगोदाम स्टेशन है, जो अल्मोड़ा कटारमल से लगभग 105  किलोमीटर दूर है। काठगोदाम स्टेशन के लिए दिल्ली से सीधी ट्रेन रानीखेत एक्सप्रेस आती है। देहरादून से काठगोदाम लिंक एक्सप्रेस जनशताब्दी एक्सप्रेस ट्रेन आती है। लखनऊ शहर से लखनऊ काठगोदाम एक्सप्रेस आती है। इन ट्रेनों से आप काठगोदाम पहुँच कर ,उसके बाद सड़क मार्ग से कटारमल का सूर्य मंदिर पहुच सकते हो।

कुमाऊ का एक स्टेशन और है,वो है रामनगर रेलवे स्टेशन। रामनगर तक ट्रेन में आकर ,वहाँ सर सड़क मार्ग से रानीखेत , मजखाली, शीतलाखेत होते हुए आप कटारमल सूर्य मंदिर पहुच सकते है। ( कटारमल सूर्य मंदिर अल्मोड़ा )

सड़क मार्ग से कटारमल सूर्य मंदिर कैसे पहुचे –

कटारमल सूर्य मंदिर का सबसे नजदीकी कस्बा कोसी बाजार हैं । कोसी बाजार अल्मोड़ा और रानीखेत के लगभग मध्य में पड़ता है।  इसलिए कोसी बाजार देश के सभी ,महत्पूर्ण सड़क मार्ग से अच्छे से जुड़ा है। यात्रा का सबसे आसान साधन सड़क मार्ग की यात्रा हैं। आप दिल्ली या अन्य शहरों से टैक्सी या गाड़ी बुक करके सीधे कटारमल पहुँच सकते  हैं।

निवेदन – 

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कोरोना पर कुमाउनी कविता | Corona pe kumaoni me kavita

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कोरोना पर कुमाउनी कविता

आजकल उत्तराखंड में कोरोना ,अपने चरम पर चल रहा है। प्रतिदिन लगभग 1000- 1900 तक संक्रमण के शिकार हो रहे हैं।आज हमने आपके मुस्कराने के लिए , कोरोना पर कुमाउनी कविता लिखी है। यह एक हास्य कविता है। इसमें हमने एक प्रेमी और प्रेमिका बीच का वार्तालाप का वर्णन है, जब प्रेमी को मास्क न पहनने के जुर्म में पुलिस की मार भी पड़ती है ,और चालान भी भरना पड़ता है । तो लीजये पढ़िए और आनंद लीजिए।

कोरोना पर कुमाउनी कविता का शीर्षक है-

            “रेशमी रुमाल”

के बतू आपुणे हिया को हाल।

कोरोना ले करि रो हाल बेहाल।

त्यर के बिगेड़ी जानो,

म्यर गिच छोपी जानो,

जो दी दिनी तू आपणो

यो रेशमी रुमाल , रेशमी रुमाल।।

के बतू आपणो हिया को हाल।

कोरोना ले कारि रो हाल बेहाल।

मि पुलिसक दंड नि खानो ।

म्यार डबल बची जाना ।

मिकी कोरोना नि लग्नो।

जो दी दीनी तू आपणो,

यो रेशमी रुमाल ,रेशमी रुमाल।।

के सुनु तेरो हिया को हाल ।

कोरोना ले  कारि रो या हाल बेहाल ।।

द्वी गजेकी दूरी , मास्क छू जरूरी।

नि चलल या  मेरो यो ,

रेशमी रुमाल,रेशमी रुमाल।।

तू  सुई लगे ल्याले,

तू मास्क लगे ल्याले ,हाथ धोइ ल्याले ,

नी लागलो तेपा, कोरोना को काल।।

कोरोना पर कुमाउनी कविता
कोरोना कविता कुमाउनी भाषा मे।

निवेदन –  

उपरोक्त कुछ लाइन हमने कोरोना पर कुमाउनी कविता लिखने की कोशिश की है । इसमे कुछ हास्य का पुट भी रखा है। यदि यह कविता आपको अच्छी लगी तो , साइड में सोशल मीडिया बटन दिख रहे हैं,उनपे क्लिक करके सोशल मीडिया पर शेयर करके हमको अनुग्रहित करें। अगर आप कुछ सुझाव देना चाहते है ।तो हमारे  फेसबुक पेज  देवभूमि दर्शन पर मैसेज करे।

इन्हे भी पढ़े –

गढ़वाली कविता – एक नवेली दुल्हन की गांव के पलायन की पीड़ा

स्याल्दे बिखौती का मेला और लोक पर्व बिखौती त्यौहार।।

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उत्तराखंड में अनेक लोक पर्व मनाए जाते हैं। अगल अलग मौसम में अलग अलग त्यौहार मनाए जाते हैं। इनमे से एक लोक पर्व बिखौती है। जिसे उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में मनाया जाता है। और प्रसिद्ध स्याल्दे बिखौती का मेला द्वाराहाट में मनाया जाता है।

बिखौती त्यौहार उत्तराखंड के लोक पर्व के रूप में मनाया जाता है। बिखौती त्योहार को ­विषुवत संक्रांति के दिन मनाया जाता है। इसलिए इसे लोक भाषा में बिखौती त्यौहार कहा जाता है। प्रत्येक साल बैसाख माह के पहली तिथि को भगवान सूर्यदेव अपनी श्रेष्ठ राशी मेष राशी में विचरण करते हैं।इस स्थिति या संक्रांति को विषुवत संक्रांति या विशुवती त्योहार या उत्तराखंड की लोक भाषा कुमाऊनी में बिखोती त्योहार कहते हैं।

विषुवत संक्रांति को विष का निदान करने वाली संक्रांति भी कहा जाता है। कहा जाता है,इस दिन दान स्नान से खतरनाक से खतरनाक विष का निदान हो जाता है। विषुवत संक्रांति के दिन गंगा स्नान  का महत्व  बताया गया है। बिखौती का मतलब भी कुमाउनी में विष का निदान होता है। बिखौती त्यौहार को कुमाऊ के कुछ क्षेत्रों में बुढ़ त्यार भी कहा जाता है। बुढ़ त्यार का मतलब होता है, बूढ़ा त्यौहार ।

बिखौती त्यौहार को बुढ़ त्यार ( बूढ़ा त्यौहार ) क्यों कहते है –

गांव के बड़े बूढे लोग बताते हैं ,कि विषुवत संक्रांति के दिन बिखौती त्यौहार के बाद लगभग 3 माह के अंतराल बाद कोई त्योहार आता है। मतलब सूर्य भगवान के उत्तरायण स्थिति में यह अंतिम त्यौहार होता है। इसके 3 माह बाद पहाड़ में हरेला त्योहार आता है। हरेला त्योहार सूर्य भगवान कि दक्षिणायन वाली स्थिति में पड़ता है। अपनी सीरीज का अंतिम त्यौहार होने की वजह से इसे कुमाऊँ के कुछ हिस्सों मे बुढ़ त्यार या बुढ़ा त्यौहार भी कहते हैं।

लोक पर्व बिखोती के दिन क्या करते है

लोक पर्व बिखौती के दिन नई फसलों का भोग अपने देवी देवताओं को लगाते हैंं। पूरी पकवान बनाये जाते हैं। पहाड़ो में संवत्सर प्रतिपदा के दिन कुल पुरोहित आकर सबको संवत्सर सुनाते हैं। अर्थात सारे साल भर का राशिफल बता कर जाते हैं। इसमे देश दुनिया के राशिफल के साथ व्यक्ति विशेष के राशिफल भी बताते है।

जिनकी राशी में वाम पाद दोष होता है, वो बुढ़ त्यार के दिन, शिवालय में जल चढ़ाकर एवं पाठ कराकर अपना वाम पाद दोष शांत कराते हैं। कुमाऊ के कुछ क्षेत्रो में हरेला भी बोया जाता है। इस दिन बिखौती के दिन कुमाऊं का प्रसिद्ध एतिहासिक स्याल्दे बिखौती का मेला भी लगता है।

स्याल्दे बिखौती का मेला –

उत्तराखंड द्वाराहाट में यह सांस्कृतिक और व्यपारिक मेला लगता है। द्वाराहाट को सांस्कृतिक नगरी कहा जाता है। यहाँ पांडव काल के , तथा  कत्यूरी राजाओं के बनाये अनेक मंदिर है। स्याल्दे बिखोति के मेले में दूर दूर से व्यापारी आते हैं। आजकल तो तो काफी विकास हो गया ,हर समान लोगो के घर पर मिलता है। या लोग पलायन कर गए। किन्तु पुराने समय मे इसका बहुत बड़ा व्यापारिक महत्व था।

 स्याल्दे बिखौती
स्याल्दे बिखौती मेला, फ़ोटो साभार गूगल

स्याल्दे बिखौती मेले का व्यपारिक के साथ  संस्कृतिक महत्व भी है। यहाँ राज्य के कोने कोने से कलाकारों के दल आते है, अपनी कला प्रस्तुतियां देने हेतु तथा कुमाउनी लोग नृत्य व गीत झोड़ा चाचरी की धूम रहती है यहां की सांस्कृतिक पहचान है ओढ़ा भेटने की रस्म ।

स्याल्दे बिखौती ओढ़ा भेटने की रस्म –

स्याल्दे बिखौती की प्रमुख सांस्कृतिक पहचान है,यहाँ की ओढ़ा भेटने की रस्म है। कहते हैं, प्राचीन काल मे स्थानीय गाव के लोग यहाँ  शीतला देवी के मंदिर में आते थे और पूजा पाठ करके जाते थे। किंतु एक बार कुछ गावो के बीच खूनी संघर्ष हो गया। और खूनी संघर्ष इतना बढ़ गया कि हारे हुवे गावो के सरदार का सिर काट कर गाड़ दिया। जिस स्थान पर उसका सिर काट कर गाड़ा गया ,वहाँ पर

स्मृति चिन्ह के रूप में एक बड़ा पत्थर स्थापित कर दिया गया। इसी पत्थर को ओढ़ा कहा जाता है। यह पत्थर द्वाराहाट चौक में आज भी है। और इसी पत्थर ( ओढ़ा ) पर चोट मार कर आगे बढ़ते हैं। और ओढ़े पर चोट मारकर आगे बढ़ने की रस्म को ओढ़ा भेटना कहते हैं। यह कार्य हर बार स्याल्दे के मेले में होता है। धीरे धीरे यह परंपरा बन गई और आज यह स्याल्दे बिखौती मेले की सांस्कृतिक पहचान है।

इस क्षेत्र के सभी गाव अपना अपना दल बनाकर , अपने नांगर निसान लेकर , बारी बारी से ओढ़ा भेटने की रस्म अदा करते हैं। यह कार्य दोपहर के बाद किया जाता हैं।  पहले यह मेला इतना बड़ा होता था कि दलों को अपनी बारी के इंतजार के लिए दिन भर इंतजार करना पड़ता था। तुतरी (तुरही) कि हुंकार और ढोल दमूवे की दम दम के बीच ,यह अदभुत प्राकृतिक दृश्य देखते बनता है।

जैसे कुंभ में शाही स्नान का दृश्य होता है,ठीक वैसा ही दृश्य होता है, स्याल्दे बिखौती में ओढ़ा भेटने की रस्म में। पहले ओढ़ा भेटने की रस्म में थोड़ी  अव्यवस्था का माहौल होता था,कई बार तो स्थिति संघर्ष तक पहुच जाती थी । अब  इसमे थोड़ा सुधार करके क्षेत्रीय गाावों को तीन प्रमुुुख दलों में बाट दिया। और इनके आने के समय और स्थान स्थिति में भी बदलाव कर दिया गया।

स्याल्दे बिखोति के प्रमुख दल –

  • आल
  • गरख
  • नोज्युला

आल धड़े में गाँव –

तल्ली मिरई मल्ली मिरई ,विजयपुर, पिनोली, तल्ली मल्लू किराली के 6 गाँव हैं। इनका मुखिया मिरई गाव का थोकदार हुवा करता है। इनका ओढ़ा भेटने का मार्ग बाजार के बीच की तंग गली है।

गरख धड़े के गाँव –

गरख धड़े में सलना, बसेरा ,असगोली, सिमलगाव ,बेदुली , पठानी, कोटिला , गाँव को जोड़ कर लगभग 40 गाँव सम्मिलित हैं। इनका मुखिया सलना गाव का थोकदार होता है। इनका ओढ़ा भेटने का मार्ग पुराने बाजार से हैं।

नोज्युला धड़ा के गाँव –

छतिना ,बीमानपुर ,सलालखोला ,बमनपुर , कौला ,इड़ा , बिठौली , कांनडे और किरोल फाटक गांव हैं। इनका थोकदार  द्वाराहाट के होता है। तथा इनका मार्ग  द्वाराहाट बाजार के बीच से होता है।

स्याल्दे बिखौती के पहले दिन बाट पूूूज मतलब रास्ते की पुुजा होती हैै। इसे छोटी स्याल्दे कहा जाता है। इसी दिन देवी को निमंत्रण दिया जाता है। ये दोनों कार्य नॉज्युला धड़ा करता है।

पहले यह मेला बहुत बड़ा होता था, इस मेले की तुलना कुंभ मेले से की जाती थी।  इसलिए कुमाउनी प्रसिद्ध गायक स्वर्गीय गोपाल बाबू गोस्वामी जी का एक प्रसिद्ध गीत इस मेले पर आधारित है। जिसके बोल हैं, अलखते बिखौती मेरी दुर्गा हरे गे

पहले इसका व्यपारिक महत्व काफी था, दूर दूर से व्यपारी आकर यहाँ दुकान लगाते थे। सांकृतिक टोलियां , भगनोल गाने वाले , झोड़ों और चाचरी की धुन में पूरा कुमाऊ खो जाता था। वर्तमान में आधुनिकीकरण और पलायन के कारण ,इसकी रंगत कम पड़ गई लेकिन  इस ऐतिहासिक मेले की आत्मा अभी भी जीवंत है।

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इन्हें भी देखें –

ओड़ा भेटना – स्याल्दे बिखौती मेले की प्रसिद्ध परम्परा।

मासी सोमनाथ का मेला उत्तराखंड का ऐतिहासिक मेला।

महालक्ष्मी किट योजना 2021 | मुख्यमंत्री महालक्ष्मी किट योजना उत्तराखंड

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महालक्ष्मी किट योजना
मुख्यमंत्री महालक्ष्मी किट योजना , सांकेतिक फ़ोटो फ़ोटो साभार - गूगल

शनिवार 9 अप्रैल 2021 को मुख्यमंत्री श्री तीरथ सिंह रावत जी ने उत्तराखंड महिला सशक्तिकरण एवं बाल विकास मंत्रालय की माँ और पुत्री के लिए नई योजना महालक्ष्मी किट योजना का शुभारंभ किया। 22 अप्रैल 2021 को यह योजना अस्तित्व में आ गई। सबसे पहले 50 हजार लाभार्थियों को इसका लाभ मिलेगा।

क्या है महालक्ष्मी किट योजना –

महिला सशक्तिकरण एवं बाल विकास मंत्रालय के अनुसार , उत्तराखंड के किसी भी परिवार में यदि पुत्री का जन्म होता है , तो माता और पुत्री को महिला सशक्तिकरण एवं बाल विकास मंत्रालय उत्तराखंड सरकार के मंत्री की की तरफ से एक शुभकामना कार्ड प्राप्त होगा ।

घर मे बेटी के जन्म पर माँ और बेटी दोनो को एक एक किट मिलेगी। इस किट की कीमत लगभग 3500 रुपये होगी।

महालक्ष्मी किट में क्या मिलेगा –

महिला सशक्तिकरण एवं बाल विकास मंत्रालय के अनुसार उत्तराखंड में हर घर मे पुत्री के जन्म पर सरकार की तरफ से 2 किट मिलेगी  जिसमे निम्न समान होगा।

माता का किट का सामान –

  • बादाम
  • छुआरा
  • साड़ी
  • सूट
  • स्कार्फ
  • बेडशीट
  • हैंडवाश
  • साबुन
  • मोजे
  • नेलकटर

पुत्री के लिए किट में समान

  • सूती कपड़े
  • तौलिया
  • कंबल
  • रबड़ शीट
  • तेल
  • साबुन

परिवार में 2 बेटियों तक महालक्ष्मी किट योजना का लाभ मिलेगा। किट के साथ टीकाकरण संबंधित संदेश भी मिलेगा। यह योजना आंगनबाड़ी केंद्रों से संचालित किया जाएगा।

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इस योजना का उद्देश्य –

महिला सशक्तिकरण एवं बाल विकास मंत्रालय के अनुसार , पूर्व में इस योजना का नाम मुख्यमंत्री सौभाग्यवती योजना किया था। मंत्री श्रीमती रेखा आर्य के अनुसार जब घर मे पुत्री आती है तो लोग कहते हैं लक्ष्मी आई है। इसलिए  इस योजना का नाम मुख्यमंत्री सौभाग्यवती योजना से बदल कर मुख्यमंत्री महालक्ष्मी किट योजना रख दिया। इस योजना का उद्देश्य उत्तराखंड में लैंगिक अनुपात में सुधार लाना और मातृ शिशु मृत्यु दर में कमी लाना ,एवं संस्थागत प्रसव को बढ़ावा देना है।

इस योजना का उद्देश्य बेटी बचाओ , बेटी पढ़ाओ कार्यक्रम को आगे बढ़ाना है। तथा विभागीय मंत्री श्रीमती रेखा आर्य जी ने बताया कि,आर्थिक संसाधनों के आभाव में उत्तराखंड की महिलाएँ स्वयं का और अपने बच्चे का देखभाल ठीक से नही करती इसलिये उत्तराखंड की महिलाओं को इस कार्य हेतु आर्थिक मदद देने के लिए मुख्यमंत्री महालक्ष्मी कवच योजना मुख्यमंत्री महालक्ष्मी किट योजना लायी गयी है।

प्राचीन रूढ़ि वादी विचारों की वजह से भी ,गांव में बेटियों का ध्यान नही रखा जाता, इस योजना का एक उद्देश्य जन जागरण कन्या संरक्षण भी है।

महालक्ष्मी किट योजना
मुख्यमंत्री महालक्ष्मी किट योजना , सांकेतिक फ़ोटो
फ़ोटो साभार – गूगल

मुख्यमंत्री महालक्ष्मी योजना में कैसे आवेदन करें-

महिला सशक्तिकरण एवं बाल विकास मंत्रालय के अनुसार , यह योजना आंगनबाड़ी केंद्रों से संचालित की जाएगी। प्रत्येक आंगनबाड़ी केंद्र में इसका निशुल्क फार्म होगा। लाभार्थी को आंगनबाड़ी में फार्म भरना होगा, उसके एक माह बाद मुख्यमंत्री महालक्ष्मी कवच योजना के तहत , माँ व पुत्री को महालक्ष्मी किट मिल जाएगी। आवेदन  होने पर इसे वेबपोर्टल पर अपडेट किया जाएगा।

अस्तित्व में आई मुख्यमंत्री महालक्ष्मी किट योजना –

9 अप्रेल 2021 को शुभारम्भ की गई, मुख्यमंत्री महालक्ष्मी किट योजना  22 अप्रैल 2021 से अस्तित्व में आ गई है। विभागीय मंत्री श्रीमती रेखा आर्य ने बताया कि पहले 50 हजार लाभार्थियों को मुख्यमंत्री महालक्ष्मी कवच | किट  दी जाएगी। इसके लिए आवेदन करने के लिए आंगनबाड़ी में पंजीकरण कराना पड़ेगा।

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गैरसैंण का इतिहास , गैरसैंण की सम्पूर्ण जानकारी हिंदी में।

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गैरसैंण को  वर्तमान में उत्तराखंड की ग्रीष्म कालीन राजधानी घोषित कर दिया है। आइए जानते है उत्तराखंड गैरसैंण का इतिहास।

गैरसैंण का मतलब :-

गैरसैंण शब्द दो पहाड़ी शब्दों से मिलकर बना है , गैर + सैंण  , जहाँ गैर का मतलब कुमाउनी एवं गढ़वाली दोनो भाषाओं में गहरी या नीचे को बोला जाता  है। सैंण का मतलब दोनों भाषाओं में मैदानी इलाके को बोला जाता है। इसका मतलब होता है  गहराई या नीचे मैदानी एरिया या जगह।  गैरसैण का मतलब है समतल मैदान ।

गैरसैंण की भौगोलिक स्थिति –

वर्तमान में जिला, चमोली की तहसील और विकासखण्ड गैरसैण 30-3 डिग्री उत्तरी अशांश तथा 79-19डिग्री पूर्वी देशान्तर मे स्थित दूधातोली और व्यासी पर्वत श्रृंखला से घिरा, उत्तराखंड के केंद्र में स्थित है।

60-70 वर्ग किमी मे फैली इस समतल घाटी की समुद्रतल से उचाई लगभग 5360 फीट है ।इस क्षेत्र से आटागाड , पश्चिमी तथा पूर्वी नयार एवं पश्चिमी रामगंगा नदियां बहती है।

इनके अलावा अनेक स्थानों पर प्राकृतिक जल स्रोत उपलब्ध हैं। बांज ,तिलोज,खरसू ,बुरास ,काफल, चीड,आदि यहां वनो की मुख्य प्रजातियां है। गेवाड़, चांदपुर गड़ी, बधान गड़ी(ग्वालदम) इस क्षेत्र के चारो ओर स्थित है।प्रसिद्ध धार्मिक स्थल विनसर माहदेव और बेनीताल का सौंदर्य यहां स्थित है।

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गैरसैंण का इतिहास  –

पौराणिक ग्रंथों के अनुसार पहले यहाँ यक्षराज कुबेर का राज्य था। 2500 ई पूर्व यहाँ कत्यूर वंश का शाशन रहा था। उसके बाद 13 वी शताब्दी से  1803 तक यहाँ परमारों का शाशन रहा। 1803 ई में आये भूकम्प ने इस क्षेत्र को बुरी तरह क्षति पहुंचाई। इसके बाद गोरखों ने इसे अपने अधीन कर लिया था।

1803 से 1815 तक गैरसैण में गोरखों का राज रहा। 1815 में गोरखे अंग्रेजो से हार गए।1815 से भारत स्वतंत्रता तक यहाँ ब्रिटिश शाशन रहा। ब्रिटिश शाशन में 1839 में गढ़वाल जिले का गठन किया, तथा गैरसैंण को इसमे शामिल किया गया।

ब्रिटिश काल में लुशिगटन जब कुमाऊँ का कमिश्नर था। तब वह वर्ष में कुछ दिन गैरसैण में रहता था। गैरसैंण को उत्तराखंड की राजधानी बनाने के समय समय पर प्रस्ताव आते रहे हैं। राजधानी के लिए सबसे पहले गैरसैण का नाम वीर चंद्र सिंह गढ़वाली आगे किया था। उन्होंने 60 के दशक में प्रस्ताव दिया था।

गैरसैंण

1992 में उत्तराखंड क्रांति दल ने गैरसैण को ,औपचारिक राजधानी घोषित किया था। उत्तराखंड क्रांति दल ने 14 वे महाधिवेशन में गैरसैंण को  वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के नाम पर चंद्रनगर नाम से राज्य की राजधानी घोषित किया था। राजधानी के चयन के लिए गठित कौशिक समिति ने गैरसैंण को राजधानी के रूप में उपयुक्त बताया था।

राज्य की स्थायी राजधानी निर्माण के लिए गठित वीरेंद्र दीक्षित आयोग  द्वारा गैरसैण का भू सर्वेक्षण करवाया गया,किन्तु उन्होंने गैरसैंण में बहुत समस्याएं गिनाई और देहरादून को उपयुक्त राजधानी बताया ,और गैरसैंण को खारिज कर दिया।

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मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने 3 नवम्बर 2012 को पहली बार गैरसैंण में कैबिनेट बैठक आयोजित करवाई। सरकार ने 2014 में गैरसैण में विधानसभा सत्र आयोजित करवाने के साथ भराड़ीसैंण विधानसभा भवन का निर्माण शुरू करवा दिया। दिसंबर 2016 में नवनिर्मित विधानसभा भवन में पहला विधान सभा सत्र आयोजित किया गया।

विधान सभा चुनाव 2017 में बीजेपी ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में ,गैरसैंण को उत्तराखंड की ग्रीष्म कालीन राजधानी बनाने का वादा किया था।

गैरसैण ग्रीष्मकालीन राजधानी –

सोमवार 8 जून 2020 को ,चमोली जिले के अंतर्गत भराड़ीसैंण ( गैरसैंण ) को आधिकारिक रूप से उत्तराखंड की ग्रीष्मकालीन राजधानी बन गई। राज्यपाल की मंजूरी के बाद मुख्य सचिव श्री उतपल कुमार सिंह ने इसकी अधिसूचना जारी कर दी।

इससे पहले मुख्यमंत्री श्री त्रिवेंद्र सिंह रावत , ने  4 मार्च 2020 को बजट सत्र के दौरान भराड़ीसैंण ( गैरसैंण  ) को  उत्तराखंड की ग्रीष्म कालीन राजधानी घोषित किया था। बीच मे कोरोना की वजह ,कार्य रुक गया। जैसे ही अनलॉक 1 शुरू हुआ। सरकार ने अधिसूचना जारी कर दी।

अधिसूचना जारी होने पर मुख्यमंत्री जी ने खुशी जाहिर की,उन्होंने कहा, उत्तराखंड को आखिर  जनभावनाओं की राजधानी मिल ही गई। भराड़ीसैंण को आदर्श पर्वतीय राजधानी के रूप में विकसित किया जाएगा। भराड़ीसैंण (  गैरसैंण ) को ई – विधानसभा के रूप में विकसित किया जाएगा।

उत्तराखंड दो राजधानी वाला देश का पांचवा राज्य है।

गैरसैण मंडल –

तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री त्रिवेंद्र सिंह रावत जी ने 5 मार्च 2021 को गैरसैंण को मंडल बनाने की घोषणा कर दी। यह घोषणा 2021 के बजट सत्र के दौरान की गई। गैरसैण को कनिशनरी बनाया गया। उत्तराखंड में पहले 2 मंडल थे , गढ़वाल मंडल और कुमाऊ मंडल । इस घोषणा के बाद उत्तराखंड में 3 मंडल बन गए।

  • गढ़वाल मंडल
  • कुमाऊ मंडल
  • गैरसैंण मंडल

गैरसैंण मंडल में जिले -गैरसैंण मंडल में निम्न 4 जिले शामिल किए गए थे।

  • चमोली
  • अल्मोड़ा
  • बागेश्वर
  • रूद्रप्रयाग

गैरसैंण मंडल की मुख्य बातें –

गैरसैंण कमिश्नरी में कमिश्नर और DIG स्तर का आदमी बैठेगा। गैरसैण के सुनियोजित नगरीय विकास के लिए टेंडर प्रकिया शुरू हो जाएगी। भराड़ीसैंण बनेगी फल पट्टी। लोगो को सहूलियत मिलेगी ,क्षेत्र का विकास होगा।

गैरसैंण

गैरसैण मंडल का विरोध –

सरकार के इस फ़ैसले का काफी जन विरोध हुआ।  लोगों ने हस्ताक्षर आंदोलन और कई प्रकार  के आंदोलन चलाए। गैरसैंण मंडल का सबसे ज्यादा विरोध कुमाऊं मंडल में हवा। राजनैतिक विश्लेषकों के अनुसार तत्कालीन मुख्यमंत्री जी को इस फैसले की वजह से अपने पद से हाथ धोना पड़ा था।

गैरसैण मंडल पर रोक –

मुख्यमंत्री श्री त्रिवेंद्र सिंह रवात जी के इस्तीफे के बाद श्री तीरथ सिंह रावत जी ने पदभार सम्हाला। और तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री तीरथ सिंह रावत ने , त्रिवेंद्र सरकार के विवादित फैसले गैरसैण मंडल पर शुक्रवार 9 अप्रैल 2021 को रोक लगा दी।

गैरसैण, गैरसैंण केवल 1 माह का मंडल बना । अब फिर से उत्तराखंड में केवल 2 ही मंडल रह गए। गढ़वाल मंडल और कुमाऊँ मंडल।

गैरसैण पर कविता-

प्रसिद्ध कवि दयाल पांडे जी ने गैरसैंण पर कुमाउनी में एक कविता लिखी है। जो इस प्रकार है।

अन्यारपट्ट रै नि सकूँ जल्दी ब्याली रात,
राजधानी जिक्र जब आलो, होलि गैरसैण की बात,

दीक्षित आयोग कुलै जाल, सरकार लै पलटि है जाल,
उत्तराखंडी मुनव उठाला – ह्वै जाला सब साथ,
राजधानी जिक्र जब आलो होलि गैरसैंण की बात,

गौं-गौं बै आवाज़ उठी गै, अन्यायी अब भौती है गे,
जनुल राजधानी नाम सुझाछी, उन लै बागियुं का सांथ,
राजधानी जिक्र…….

आंदोलनकारी उसीकी रैगिन, दमनकारी गद्दी में भैगिन,
अब ज्यादे दिन नि चलल, यो गोर्खियुं जस राज,
राजधानी जिक्र……..

सालूं में 5 बदल गिन, बात ग्वै हैंत उसीकी राइ गिन,
उन लोग लै नि नजर उनै जेल पैर यो ताज,
राजधानी जिक्र जब…..

विकास हुन जरुरी छू, गैरसैण बनुनी छू,
वचन दयुछ म्योर पहाड़ और उठून हाथ,
राजधानी जिक्र जब आलो होलि गैरसैण की बात..

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कुमाउनी भाषा मे शादी का कार्ड | Wedding card matter in Kumaoni

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कुमाउनी भाषा मे शादी का कार्ड – कुमाउनी भाषा संरक्षण में ,अपना अतुलनीय योगदान देने वाले लेखक, कवि, गायक ,कार्यक्रम संचालक श्री राजेन्द्र ढैला जी ने शादी कार्ड का निमंत्रण विवरण कुमाऊनी में लिखा है । अपनी संस्कृति अपनी भाषा को आगे बढ़ाने के लिए, और अलग यूनिक शादी कार्ड अपनी शादी में कुछ नयापन लाने के लिए आप भी अपनी दुधबोली में शादी कार्ड जरूर छपवाएं।

प्रस्तुत सैंपल कार्ड में मनोरंजन हेतु, लेखक ने कुछ हास्य का प्रयोग किया है। ( Kumaoni wedding card matter ) यदि आप कुमाऊनी में शादी का कार्ड छपवाना चाहते हैं,तो प्रस्तुत विवरण में से हास्य निकाल कर अपना विवरण भर लें।

कुमाउनी भाषा मे शादी का कार्ड
कुमाउनी भाषा मे शादी का कार्ड

कुमाउनी भाषा मे शादी का कार्ड –

!! ऊँ श्री गणेशाय नमः !!

विघ्न हरिया,मंगल करिया,श्री गणपति महराज।

पैल न्यूत तुमन कें छू, पुर करिया सब काज।।

मांगलिक कार्यक्रम

8 मई 2019 हूँ (बैशाख २५ पैट बुद्दाक दिन)

गणेश पुज,स्वाँव पथाई/हल्दी……रत्तै शुभलग्नानुसार

महंदी……… रात ८ बाजी

9 मई 2019 हूँ (बैशाख २६ पैट भीपै दिन)

बरियात जालि (प्रस्थान)…….रत्तै ८ बाजी

ब्या काज (पाणिग्रहण संस्कार)…….दिन में लग्नानुसार

बरियात वापसी……… ब्याव ५ बाजी

10 मई 2019 हूँ (बैशाख २७ पैट शुक्काक दिन)

स्यैंणियाँक नाच गीत (महिला संगीत)…..दिन में २ बाजी

खाण पिण (प्रीतिभोज)……रात ८ बाजी

जानकारी-सबै कार्यक्रम हमार घरै में संपन्न ह्वाल्,कांई बैंकट हॉल में जाणैं जरवत न्हांतीन।

!! ऊँ श्री इष्ट देवाय नमः !!

सर्व मंगल मांगल्ये, शिवे सर्वार्थ साधिके।

शरण्ये त्रयंबके गौरी, नारायणी नमोस्तुते।।

महराज, इष्ट देवों कृपाल हमर च्यल,

चिरंजीवी बूरूँष

(नाती श्रीमती अनारी देवी एवं

श्री दाड़िम सिंह)

दगाड़

आयुष्मती प्योली

(चेली श्रीमती गोदावरी देवी एवं श्री गुड़हल सिंह)

निवासी गौं-ताल, लमखेत

जिल्ल-गल्माड़ के

परिणय सूत्र बन्धनाक

पावन बेला में ऐबेर स्यैंणियाँक नाच गीत (महिला संगीत) और दगाड़-दगाड़ै घर बरियात में खाण पिणक आपूं कैं न्यूत छ,  हमर काम काज में ऐबेर बर ब्योली कैं आशीर्वाद देला तै हमनकैं भल लागल भागी।

“हम आजी नानु-नान छाँ, कसिक ऊंनु बुलूंण हूँ।

हमर काकूक ब्या में तुम, भुलि जन जाया ऊंण हूँ।।”

“पूलम,खुमानी

जमीर,निमू”

दर्शनाभिलाषी छन

श्री………

………….

फल कुटुंब कबिल और

सांक संबंधी मितुर।

विनीत

श्रीमती मासी देवी एवं

श्री फूल सिंह

गौं-पालमपुर

डाकखाण-बिनैक (पूरब रोड मोतीया गौं)

हल्द, जिल्ल-नैनी

मुबैल नंबर……….।

नोट-खबरदार शराब पिबेर क्वे जन आया, लगन में जगन करला पैं सिसौंण लगाई जाल।।

 लेखक – राजेंद्र ढैला,काठगोदाम.

लेखक :  उपरोक्त लेेख कुमाउनी भाषा मे शादी का कार्ड  हमने श्री राजेंद्र ढैला जी के फेसबुक वॉल से साभार  उनकी आज्ञा से लिया है। राजेंद्र ढैला जी वर्तमान में काठगोदाम में रहते हैं । राजेंद्र ढैला जी कुमाऊनी संस्कृति एवं भाषा संरक्षण तथा  प्रचार में अपना अतुलनीय योगदान दे रहे हैं।

राजेंद्र ढैला जी बहुत अच्छे लेखक कवि, गायक, और कार्यक्रम संचालक हैं। इसके साथ साथ वाद्य यंत्रों का भी अच्छा ज्ञान है। उन्हें कई मंचो से सम्मानित भी किया जा चुका है। वर्तमान में राजेंद्र ढैला जी ,अपने दो और मित्रों, श्री राजेंद्र प्रसाद एवं श्री गिरीश शर्मा के साथ मिल कर ,टीम घुगुती जागर नमक यूट्यूब चैनल का संचालन कर रहे हैं।

घुगुति जागर

टीम घुगुती जागर चैनल में जाने के लिए ऊपर दी गई फोटो क्लिक करे।

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भौना देवी मंदिर भतरौंजखान अल्मोड़ा उत्तराखंड | Bhauna devi mandir Almora Uttrakhand

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माँ भौना देवी उत्तराखंड  की गढ़वाल कुमाऊ की देवी हैं। जनश्रुतियों के अनुसार भौना देवी माता गढ़वाल ले लाकर कुमाऊँ में स्थापित किया गया था।

भौना देवी मंदिर –

माता भौना देवी का मंदिर भतरौजखान उत्तराखंड में  स्थित है। रामनगर रानीखेत राष्ट्रीय मार्ग पर भतरौंजखान से थोड़ा पहले मझोड़ भतरौजखान रोड पर कालसों बसोट से 14 किलोमीटर दूर जिहाड़ गांव में पड़ता है, माँ भौना देवी का ऎतिहासिक मंदिर। भौना देवी मंदिर रानीखेत से 40 किलोमीटर दूर रानीखेत रामनगर रोड पर है। भौना देवी माता का मंदिर लगभग 250 वर्ष पुराना है।

स्थानीय जनश्रुतियों के अनुसार भौना देवी को गढ़वाल से लाकर यहां स्थापित किया गया है। ( Bhauna devi mandir Almora ) वीरांगना तीलू रौतेली के एक प्रसंग के अनुसार उन्होंने भौन में भौना देवी का मंदिर स्थापित किया था । जब उन्होंने कत्यूरी सेना पर विजय पाई थी।

भौना देवी
भौना देवी माँ का पुराने मंदिर की फ़ोटो।
फ़ोटो साभार – सोशल मीडिया

गर्जिया माँ की कथा जानने के लिए क्लिक करे। 

गढ़वाल और कुमाऊँ की देवी है –

माँ भौना देवी गढ़वाल और कुमाऊ दोनो की पूज्य देवी है। सल्ट भतरौजखान एवं आस पास गढ़वाल एवं कुमाऊँ  ,पूरे क्षेत्र की अटूट श्रद्धा का केंद्र है  देवी माँ का मंदिर। माँ के मंदिर परिसर में  शिवलिंग और काल भैरव का स्तम्भ है। तथा मंदिर परिसर में ही लोक देवता हरज्यूँ की धूनी भी स्थित हैं।

भौना देवी
माँ भौना का मंदिर सल्ट भतरौजखान, अल्मोड़ा
फ़ोटो साभार -सोशल मीडिया

क्षेत्रवासियों के अनुसार , जब माता भौना देवी को गढ़वाल से लाकर यहाँ स्थापित किया गया, तब माँ की पूजा  जिहाड़ गांव के पास की जाती थी। बाद में देवी माँ को गाव की मनोरम चोटी पर स्थापित कर दिया गया। सन 1945 तक यहाँ एक छोटा सा मंदिर था। बाद में इसमे माँ की मूर्ति स्थापना कर दी गई।

माँ भौना के मंदिर की पूरी छत पत्थरों की छाई है। माँ का मंदिर जिहाड़ गांव का मनोरम पर्वत अतुलनीय प्राकृतिक सौंदर्य का केंद्र है। यहाँ से प्रकृति का विहंगम दृश्य दिखाई देता है। भौना माता के मंदिर से हिमालय का प्राकृतिक सौंदर्य के साथ सल्ट क्षेत्र की पाँच पट्टियाँ एक साथ दिखाई देती हैं। सल्ट की पाँच पट्टियों के नाम इस प्रकार हैं –

  1. तल्ला साल्ट
  2. मल्ला सल्ट
  3. विचल्ला सल्ट
  4. पल्ला सल्ट
  5. वल्ला सल्ट

यहाँ की प्राकृतिक सुंदरता धार्मिक महत्व को देखते हुए, यहाँ धार्मिक पर्यटन की अपार संभवनाएं हैं।

रानीखेत में स्थित माँ का अनोखा मंदिर ,जिसकी रक्षा स्वयं माँ का वाहन बाघ करता है। जानने के लिये यहाँ क्लिक करें।

धार्मिक महत्त्व –

भौना माता के मंदिर में, चैत्र अष्टमी में विशाल मेला लगता है। पहले यहाँ हर तीसरे साल पशु बलि की प्रथा होती थी। लेकिन अब जागरूक लोग, उत्तराखंड के अन्य क्षेत्रों की तरह यहाँ भी पशु बलि बंद करने के समर्थन में हैं। मईया के द्वार पर साल भर श्रद्धालुओं का आना जाना लगा रहता है। लोगों का मानना है कि जो सच्ची श्रद्धा से माँ वक दरबार मे आता है, मैय्या उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी करती है।

इस मंदिर के बारे मे बताते हैं कि, जिस पहाड़ी के ऊपर यह मंदिर है,उस पहाड़ी के नीचे पानी का अथाह भंडार है। मंदिर जाने वाले रास्ते में एक रिसोर्ट भी पड़ता है। इसके आस पास घूमने लायक , कार्बेट नेशनल पार्क , गर्जिया देवी मंदिर तथा प्रसिद्ध हिल स्टेशन रानीखेत है। एवं सल्ट क्षेत्र की प्राकृतिक सुंदरता देखने योग्य है। यह सल्ट का प्रसिद्ध देवी मंदिर हैं।

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जगदी देवी उत्तराखंड टिहरी क्षेत्र की प्रसिद्ध लोकदेवी।

उत्तराखंड के देवी देवता, कुमाऊं और गढ़वाल में पूजे जाने वाले लोक देवता

झूमाधूरी मंदिर चम्पवात में सूनी गोद भरती है माँ भगवती।

परी ताल , उत्तराखंड की एक ऐसी झील जहाँ नाहने आती हैं परियां

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परी ताल

उत्तराखंड प्राकृतिक संपदाओं से सम्पन्न राज्य है । यहाँ की मनोरम वादियां और सुंदर ताल , जितनी मनोहर और लुभावनी लगती है ,वे अपने आप मे उतना ही रोमांच और रहस्य समेटे हुए है। आज हम आपको उत्तराखंड के एक रहस्यमयी , रोमांचक  ताल परी ताल ( Pari tal Uttarakhand ) के बारे में जानकारी प्रदान करेंगे। शुरू करते हैं भारत का तालाबों का शहर मतलब नैनीताल से है।

नैनीताल में बहुत सारे खूबसूरत ताल हैं । जिनके देखने हर साल हजारों लोग नैनीताल आते हैं। नैनीताल के प्रमुख तालो में  नैनी झील , सात ताल , नौकुचियाताल , नल दमयंती ताल, हरीश ताल, भीमताल । इसलिये नैनीताल तालाबों का शहर के नाम से  जाना जाता है।

परी ताल कहाँ है –

नैनीताल में एक ताल ऐसा है, जो अपने आप मे रहस्यमयी और रोमांचक ताल है। इस ताल के बारे में अधिक लोगों को पता नही है।इस रहस्यमयी रोमांचक ताल का नाम है परी ताल। नैनीताल से लगभग 24 या 25 किलोमीटर दूरी पर चाफी नाम का गांव  पड़ता है।चाफी गाव से आगे कलशा नामक नदी पड़ती है।

यहाँ से परिताल लगभग 2 किलोमीटर दूर पड़ता है। परिताल का रास्ता बहुत ही रोमांचक और खतरों से भरा हुवा है। परिताल कलशा नदी के उस पार पड़ता है। कलशा नदी को पार करने के लिए, बड़े बड़े पत्थर और फिसलन भरे मार्ग से जाना पड़ता है।

परी ताल
Pari tal

परियों की झील की कथा  –

स्थानीय जनश्रुतियों के अनुसार ,और लोक कथाओं के अनुसार यह  उत्तराखंड का एक रहस्यमयी ताल है , क्योकि यहाँ कि मान्यता है कि यहाँ पूनम की रात को परिया स्नान करने के लिए आती हैं । और पुराने लोगो की मान्यता के अनुसार , स्थानीय लोगो ने परियो को यहाँ से निकलते देखा था। इसलिये इस ताल का नाम  परी ताल  है। या परियो की झील ( Pari tal ) कहाँ जाता है।

एक अन्य कथा के अनुसार पुराने समय मे काठगोदाम में लकड़ियों  का गोदाम था, और नदी मार्ग परिवहन से लकड़ियों के लाग को मैदानी क्षेत्रों में भेजते थे। उस समय एक परंपरा थी, कि लाग की सुरक्षित यात्रा के लिये , बकरे की बलि दी जाती थी। परन्तु एक ठेकेदार ने यह परंपरा निभाने से इंकार कर दिया।

कहते हैं उसके  5000 लकड़ी के लाग गायब हो गए। जब ठेकेदार को अपनी गलती का अहसास हुवा, तो वह माफी मांग कर बलि के लिए  तैयार हुवा ,तो उसके लाग चमत्कारी रूप से परी ताल से मिल गए।

परी ताल की विशेषता –

यह ताल अपनी रहस्यमयी लोक कथाओ के कारण इस ताल को शुभ माना जाता है।  इसकी मान्यता है कि यहाँ देव परिया स्नान करती हैं । इसलिए स्थानीय लोग यहाँ डुबकी लगाने या स्नान करने से परहेज करते हैं।  परीताल की वास्तविक गहराई ज्ञात नही हैं।

इस झील के आस पास  कुछ चट्टानें काले रंग की होती है, जिन्हें शिलाजीत युक्त चट्टान माना जाता है। जो एन्टी एजिंग के लिए औषधीय गुणो से भरपूर होती है। साल में जनवरी फरवरी में भारी संख्या में यहां लंगूर आते हैं। जो शिलाजीत को चूसने के लिए चट्टानों से चिपक जाते हैं।

परी ताल बहुत बड़ा नही है, लेकिन इसकी  रहस्यमयी कथाओ और रोमांचक भौगोलिक परिस्थितियों, और प्राकृतिक सुंदरता लाजवाब है। ताल के चारो ओर की विशाल चट्टाने इसकी सबसे बड़ी विशेषता है। इस ताल के ऊपर एक झरना है। इस झरने का पानी झील में  भंवर बनाता है। इस ताल की एक और बड़ी विशेषता है कि , इस ताल के पास पहुँचने पर भी यह ताल नही दिखाई देता है।

निवेदन – उपरोक्त लेख में हमने आपको परी ताल इन उत्तराखंड ,परियो की झील,परिताल के बारे में जानकारी दी है। यदि जानकारी अच्छी लगी हो तो साइड में दिए सोशल मीडिया बटन पर क्लिक करके शेयर कर दीजिए ।

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