Friday, October 18, 2024
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फुलारी त्यौहार की कहानी।

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फुलारी
phool dei story in hindi

समस्त उत्तराखंड में चैत्र प्रथम तिथि को बाल लोक पर्व फूलदेई, फुलारी मनाया जाता है। यह त्यौहार बच्चों द्धारा मनाया जाता है। बसंत के उल्लास और प्रकृति के साथ अपना प्यार जताने वाला यह त्यौहार समस्त उत्तराखंड में मनाया जाता है। उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में यह त्यौहार एक दिन मनाया जाता है, तथा इसे वहाँ फूलदेई के त्यौहार के नाम से जाना जाता है।

कुमाऊं में चैत्र प्रथम तिथि को बच्चे सबकी देहरी पर फूल डालते हैं,और गाते है “फूलदेई  छम्मा देई उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में यह त्योहार चैत्र प्रथम तिथि से अष्टम तिथि तक मनाया जाता है। इस त्यौहार में छोटे छोटे बच्चे अपनी कंडली फूलों से सजाते हैं ,और आठ दिन तक रोज सबकी देहरी पर फूल डाल कर मांगल गाते हैै। घोघा माता की जय जय कार करके गाते है “जय घोघा माता, प्यूली फूल, जय पैंया पात’

घोघा माता को फूलों की देवी माना जाता है। घोघा माता की पूजा केवल बच्चे कर सकते हैं। फुलारी में बच्चे घोघा का डोला बनाते हैं। रोज उनकी पूजा करते हैं तथा अंतिम दिन , लोगो से मिले चावल का भोग लगाकर घोघा माता को विदाई देते हैं।

फुलारी
फुलारी की शुभकामनाएं

फुलारी या फूलदेई की लोक कथा –

बहुत समय पहले, एक घोघाजीत नामक राजा थे। वो न्यायप्रिय एवं धार्मिक राजा थे। कुछ समय बाद उनके घर एक तेजस्वी लड़की हुई। उस लड़की का नाम घोघा रखा। उनके राज ज्योतिष ने राजा को बताया कि यह लड़की असाधारण है। यह लड़की प्रकृति प्रेमी है। 10 साल की होते ही यह तुम्हे छोड़ कर चली जायेगी।

घोघा अन्य बच्चों से अलग थी, उसे प्रकृति और प्राकृतिक चीजे अच्छी लगती थी। वह थोड़ी बड़ी हुई तो, उसने महल में रखी बासुरी बजाई। उसकी बाँसुरी की धुन सुनकर सभी पशु पक्षी महल  की तरफ आ गए। सभी झूमने लगे ,प्रकृति में एक अलग सी खुशियों की लहर सी जग गई। प्यूली खिल गई, बुरांश भी खिल गए हर तरफ आनंद ही आनंद छा गया।

एक दिन अचानक घोघा कही गायब हो गई। राजा ने बहुत ढूढा कही नही मिली। अंत मे राजा को ज्योतिष की बात याद आ गई।वह उदास हो गया। एक दिन रात को राजा को सपने में अपनी पुत्री घोघा दिखाई दी , वह राजा की कुल देवी प्रकृति के गोद मे बैठ के खूब खुश हो रही थी। तब कुलदेवी ने कहा ,कि हे राजन तुम उदास मत हो, तुम्हरी पुत्री मेरे पास है, असल में ये मेरी पुत्री है। प्रकृति का रक्षण तुम्हारे राज्य की उन्नति एवं समृधि के लिए आवश्यक है। इसी का अहसास दिलाने के लिए घोघा को तुम्हारे घर भेजा था।

घोगा माता की याद में मनाया जाता है यह त्यौहार –

अगले वर्ष की वसंत चैत्र की प्रथमा से अष्टमी तक तुम सभी देवतुल्य बच्चों से प्यूली ,बुराँस के फूलों को छोटी छोटी टोकरी में रखकर हर घर की देहरी पर डालेंगे और जय घोघा माता, प्यूली फूल, जय पैंया पात  गाएंगे। घोघा आज से आपके राज्य में घोघा माता ,फूलों की देवी के रूप में मानी जायेगी। और इनकी कृपा से आपके राज्य में प्राकृतिक समृधि एवं सुंदरता बनी रहेगी।

घोघा की याद में आज भी उत्तराखंड में फुलारी ,फूलदेई का त्यौहार मनाया जाता हैं। गढ़वाल क्षेत्र में चैत्र प्रथम  से चैत्र अष्टमी तक यह त्यौहार मनाया जाता है। तथा कुमाऊं क्षेत्र में एक दिन मनाया जाता है। इस अवधि में फूल खेलने वाले बच्चों को फुलारी कहा जाता है।

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नैनीताल में गंगनाथ देवता के मंदिर में रुमाल बांध कर पूरी होती है मनोकामना।

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फूलदेई त्यौहार (Phooldei festival) ,का इतिहास व फूलदेई त्यौहार पर निबंध।

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फूलदेई

उत्तराखंड वासियों का प्रकृति प्रेम जगविख्यात है। चाहे पेड़ बचाने के लिए चिपको आंदोलन हो या पेड़ लगाने के लिए मैती आंदोलन या प्रकृति का त्योहार हरेला हो। इसी प्रकार प्रकृति को प्रेम प्रकट करने का त्योहार या प्रकृति का आभार प्रकट करने का प्रसिद्ध फूलदेई त्यौहार मनाया जाता है।

फूलदेई त्योहार मुख्यतः छोटे छोटे बच्चो द्वारा मनाया जाता है। यह उत्तराखंड का प्रसिद्ध लोक पर्व है।  फूलदेई त्योहार बच्चों द्वारा मनाए जाने के कारण इसे लोक बाल पर्व भी कहते हैं।  प्रसिद्ध त्योहार फूलदेई  (Phool dei festival ) चैैत्र मास के प्रथम तिथि को मनाया जाता है। अर्थात प्रत्येक वर्ष मार्च 14 या 15 तारीख को यह त्योहार मनाया जाता है। फूल सग्यान ,फूल संग्रात या मीन संक्रांति उत्तराखंड के दोनों मंडलों में मनाई जाती है। कुमाऊं गढ़वाल में इसे फूलदेई और जौनसार में गोगा कहा जाता है।

नववर्ष के स्वागत का त्यौहार है फूलों का त्यौहार –

उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में सौर कैलेंडर का उपयोग किया जाता है। इसलिए इन  क्षेत्रों में  हिन्दू नव वर्ष का प्रथम दिन मीन संक्रांति अर्थात फूल देइ से शुरू होता है। चैत्र मास में बसंत ऋतु का आगमन हुआ रहता है। प्रकृति अपने सबसे बेहतरीन रूप में विचरण कर रही होती है।

प्रकृति में विभिन्न प्रकार के फूल खिले रहते हैं । नववर्ष के स्वागत की परम्परा विश्व के सभी सभ्य समाजों में पाई जाती है। चाहे अंग्रेजी समाज का न्यू ईयर डे हो ,या पडोसी तिब्बत का लोसर उत्सव हो। या पारसियों का नैरोज हो या सनातन समाज की चैत्र प्रतिपदा। फुलदेई पर्व के रूप में  देवतुल्य बच्चों द्वारा प्रकृति के सुन्दर फूलों से नववर्ष का स्वागत किया जाता है।

फूलदेई त्यौहार 2022
Happy phooldei 2024

मनाने की विधि –

कुमाउनी सांस्कृतिक परम्परा में इसका रूप इस प्रकार देखा जाता है। उत्तराखंड के प्रसिद्ध लोकपर्व एवं बाल पर्व फूलदेई पर छोटे छोटे बच्चे पहले दिन अच्छे ताज़े फूल वन से तोड़ के लाते हैं। जिनमे विशेष प्योंली  के फूल  और बुरॉश के फूल का प्रयोग करते हैं। इस दिन गृहणियां सुबह सुबह उठ कर साफ सफाई कर चौखट को ताजे गोबर मिट्टी से लीप कर शुद्ध कर देती है।

फूलदेई के दिन सुबह सुबह छोटे छोटे बच्चे अपने वर्तनों में फूल एवं चावल रख कर घर घर जाते हैं । और सब के दरवाजे पर फूल चढ़ा कर फूलदेई के गीत , ‘फूलदेई छम्मा देई  दैणी द्वार भर भकार !! ” गाते हैं। और लोग उन्हें बदले में चावल गुड़ और पैसे देते हैं। छोटे छोटे देवतुल्य बच्चे सभी की देहरी में फूल डाल कर शुभता और समृद्धि की मंगलकामना करते हैं। इस पर गृहणियां उनकी थाली में ,गुड़ और पैसे रखती हैं।

बनाया जाता है खास पकवान –

बच्चों को पुष्पार्पण करके जो आशीष और प्यार स्वरूप में जो भेंट मिलती है ,उससे अलग अलग स्थानों में अलग अलग पकवान बनाये जाते हैं। पुष्पार्पण से प्राप्त चावलों को भिगा दिया जाता है। और प्राप्त गुड़ को मिलाकर ,और पैसों से घी / तेल खरीदकर ,बच्चों  के लिए हलवा ,छोई , शाइ , नामक स्थानीय पकवान बनाये जाते हैं। कुमाऊं के भोटान्तिक क्षेत्रों में चावल की पिठ्ठी और गुड़ से साया नामक विशेष पकवान बनाया जाता है।

उत्तराखंड के अलग अलग हिस्सों में अलग अलग तरीक़े से फूलदेई का त्यौहार मनाया जाता है। कुछ जगह एक दिन यह त्योहार मनाया जाता हैं। और उत्तराखंड के केदार घाटी में यह त्योहार 8 दिन तक मनाया जाता है। केदारघाटी में चैत्र संक्रांति से चैत्र अष्टमी तक यह त्योहार मनाया जाता है। बच्चे रोज ताजे फूल देहरी पर डालते हैं ,मंगल कामना करते हुए बोलते हैं “जय घोघा माता, प्यूली फूल, जय पैंया पात !

कही आठ दिन तक तो कहीं पूरे माह मनाया जाता है ये त्यौहार –

इसके अतिरिक्त गढ़वाल मंडल के कई क्षेत्रों में यह त्यौहार पुरे महीने चलता है। वहां बच्चे फाल्गुन के अंतिम दिन अपनी फूल कंडियों में युली ,बुरांस ,सरसों ,लया ,आड़ू ,पैयां ,सेमल ,खुबानी और भिन्न -भिन्न प्रकार के फूलों को लाकर उनमे पानी के छींटे डालकर खुले स्थान पर रख देते हैं। अगले दिन सुबह उठकर प्योली के पीताम्भ फूलों के लिए अपनी कंडियां लेकर निकल पड़ते हैं। और मार्ग में आते जाते वे ये गीत गाते हैं।  ”ओ फुलारी घौर।झै माता का भौंर। क्यौलिदिदी फुलकंडी गौर । ”

प्योंली और बुरांश के फूल अपने फूलों में मिलकर सभी बच्चे ,आस पास के दरवाजों ,देहरियों को सजा देते है। और सुख समृद्धि की मंगल कामनाएं करते हैं। फूल लाने और दरवाजों पर सजाने का यह कार्यक्रम पुरे चैत्र मास में चलता रहता है। बैसाखी के दिन अधिक से अधिक फूल लाकर ,बड़ों के सहयोग से डोली बनाकर उसकी पूजा की जाती है। प्रत्येक घर से इस दिन बने निमित्त पकवानों ( स्यावंले \पकोड़ो ) से भोग लगाकर डोली सजाकर , डोली को घुमाकर  एक स्थान पर विसर्जन किया जाता है। उत्तराखंड के कुछ हिस्सों में इसे फुलारी त्योहार के नाम से भी जाना जाता है।

अंतिम दिन बच्चे घोघा माता की डोली की  पूजा करके विदाई करके यह त्योहार सम्पन्न करते हैं। वहाँ फूलदेई खेलने वाले बच्चों  को फुलारी कहा जाता है। गढ़वाल क्षेत्र में बच्चो को  जो गुड़ चावल मिलते हैं,उनका अंतिम दिन भोग बना कर घोघा माता को भोग लगाया जाता है। घोघा माता  को फूलों की देवी माना जाता है। घोघा माता की पूजा केवल बच्चे ही कर सकते हैं। फुलारी त्योहार के अंतिम दिन बच्चे घोघा माता का डोला सजाकर, उनको भोग लगाकर उनकी पूजा करते हैं।

फूलदेई त्योहार के गीत –

फूलदेई ( Phool dei festival) के दिन बच्चे उत्तराखंड की लोकभाषा कुमाउनी में एक गीत गाते हुए सभी लोगो के दरवाजों पर फूल डालते हैं, और अपना आशीष वचन देते जाते हैं।

कुमाउनी में  फूलदेई के गीत –

” फूलदेई  छम्मा देई ,
दैणी द्वार भर भकार।
यो देली सो बारम्बार ।।
फूलदेई छम्मा देई
जातुके देला ,उतुके सई ।।

गढ़वाली में फुलारी के गीत –

ओ फुलारी घौर।
झै माता का भौंर ।
क्यौलिदिदी फुलकंडी गौर ।
डंडी बिराली छौ निकोर।
चला छौरो फुल्लू को।
खांतड़ि मुतड़ी चुल्लू को।
हम छौरो की द्वार पटेली।
तुम घौरों की जिब कटेली।

फूलदेई त्यौहार का इतिहास –

फूलदेई पर एक विशेष पिले रंग के फूल का प्रयोग किया जाता है ,जिसे प्योंली कहा जाता है।  फूलदेई और फुलारी त्योहार के संबंधित उत्तराखंड में बहुत सारी लोककथाएँ प्रचलित हैं। और कुछ लोक कथाएँ  प्योंलि  फूल पर आधारित है। उनमें से एक लोककथा इस प्रकार है।

प्योंली  की कहानी -:

प्योंली नामक एक वनकन्या थी।वो जंगल मे रहती थी। जंगल के सभी लोग उसके दोस्त थे। उसकी वजह जंगल मे हरियाली और सम्रद्धि थी। एक दिन एक देश का राजकुमार उस  जंगल मे आया,उसे प्योंली से प्रेम हो गया और उससे शादी करके अपने देश ले गया ।प्योंली को अपने ससुराल में मायके की याद आने लगी, अपने जंगल के मित्रों की याद आने लगी। उधर जंगल मे प्योंली बिना  पेड़ पौधें मुरझाने लगे, जंगली जानवर उदास रहने लगे। उधर प्योंली की सास उसे  बहुत परेशान करती थी। प्योंली कि सास उसे मायके जाने नही देती थी।

प्योंली अपनी सास से और अपने पति से उसे मायके भेजने की प्रार्थना करती थी। मगर उसके ससुराल वालों ने उसे नही भेजा। प्योंलि मायके की याद में तड़पते लगी। मायके की याद में  तड़पकर एक दिन  प्योंली मर जाती है
राजकुमारी के ससुराल वालों ने उसे पास में ही दफना दिया। कुछ दिनों बाद जहां पर प्योंली को दफ़नाया गया था, उस स्थान पर एक सुंदर पीले रंग का फूल खिल गया था। उस फूल का नाम राजकुमारी के नाम से  प्योंली  रख दिया । तब से पहाड़ो में प्योंली की याद में फूलों का त्योहार  फूलदेई या फुलारी त्यौहार  मनाया जाता है।

केदार घाटी में एक अन्य क लोक कथा प्रचलित है जो इस प्रकार है –

“एक बार भगवान श्री कृष्ण और देवी रुक्मिणी केदारघाटी से विहार कर रहे थे । तब देवी  रुक्मिणी भगवान श्री कृष्ण को खूब  चिड़ा देती हैं , जिससे रुष्ट होकर भगवान छिप जाते हैं। देवी रुक्मणी भगवान को ढूढ ढूढ़ कर परेशान हो जाती है। और फ़िर देवी रुक्मिणी देवतुल्य छोटे बच्चों से रोज सबकी देहरी फूलों से सजाने को बोलती है।

ताकि बच्चो द्वारा फूलों का स्वागत देख , भगवान अपना गुस्सा त्याग सामने आ जाय। और ऐसा ही होता है,बच्चों द्वारा पवित्र मन से फूलों की सजी देहरी आंगन देखकर भगवान का मन पसीज जाता है।और वो सामने आ जाते हैं।”तब से इसी खुशी में चैत्र संक्रांति से चैत्र अष्टमी तक बच्चे रोज सबके देहरी व आंगन फूलों से सजाते हैं। और तब से इस त्यौहार को फूल संक्रांति , फूलदेई  या फूलों का त्यौहार  आदि नामों से जाना जाता है।

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फूलदेई के त्यौहार की शुभकामनाएं  ( Happy phooldei 2025 ) –

उत्तराखंड के बाल पर्व फूलदेई की शुभकामनाएं वाले फेसबुक और इंस्टाग्राम स्टेटस के लिए आप हमारे इस लेख से  फूलदेई के फ़ोटो डाउनलोड कर सकते हैं।

फूल देइ
Happy phooldei 2025 

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शिवरात्रि विशेष- भगवान शिव पर प्रसिद्व कुमाउनी होली व भजन।

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शिव के महापर्व  शिवरात्रि के शुभवासर पर आप लोगो के समक्ष कुछ उत्तराखंड की प्रसिद्ध  शिवरात्रि विशेष , कुमाउनी होली के लिखित व वीडियो लिंक के भाग प्रस्तुत कर रहे हैं। अच्छे लगे तो शेयर अवश्य करें।

शिव के मन मही बसे काशी

शिव के मन माहि बसे काशी -2
आधी काशी में बामन बनिया,
आधी काशी में सन्यासी,

शिव के मन माहि बसे काशी।
काही करन को बामन बनिया,
काही करन को सन्यासी,

शिव के मन माहि बसे काशी।
पूजा करन को बामन बनिया,
सेवा करन को सन्यासी,

शिव के मन माहि बसे काशी
काही को पूजे बामन बनिया,
काही को पूजे सन्यासी,

शिव के मन माहि बसे काशी
देवी को पूजे बामन बनिया,
शिव को पूजे सन्यासी,

शिव के मन माहि बसे काशी
क्या इच्छा पूजे बामन बनिया,
क्या इच्छा पूजे सन्यासी,

शिव के मन माहि बसे काशी
नव सिद्धि पूजे बामन बनिया,
अष्ट सिद्धि पूजे सन्यासी,

शिव के मन…

शिवरात्रि विशेष-

 

शिवरात्रि विशेष कुमाउनी भजन –

उत्तराखंड के प्रसिद्ध लोक गायक गोपाल मठपाल जी सुमधुर आवाज में एक प्रशिद्ध कुमाउनी भजन है , म्यारा शिवज्यूँ महादेवा।

जिसका आनंद आप वीडियो संस्करण में ले सकते हैं।

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रानीखेत उत्तराखंड का प्रसिद्ध हिल स्टेशन | A famous hill Station of Uttrakhand Ranikhet

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रानीखेत उत्तराखंड

रानीखेत उत्तराखंड राज्य के अल्मोड़ा ज़िले के अंतर्गत एक पहाड़ी पर्यटन स्थल है। देवदार और बाज के वृक्षों से घिरा यह बहुत ही रमणीक एक लघु हिल स्टेशन है। काठगोदाम रेलवे स्टेशन से 85 किमी. की दूरी पर स्थित यह अच्छी पक्की सड़क से जुड़ा है। इस स्थान से हिमाच्छादित मध्य हिमालयी श्रेणियाँ स्पष्ट देखी जा सकती हैं।

रानीखेत से सुविधापूर्वक भ्रमण के लिए पिण्डारी ग्लेशियर,कौसानी, चौबटिया गार्डन ,गोल्फ कोर्स, बिनसर महादेव मंदिर, झूला देवी मंदिर,कटारमल सूर्य मंदिर और कालिका पहुँचा जा सकता है। चौबटिया में प्रदेश सरकार के फलों के उद्यान हैं। इस पर्वतीय नगरी का मुख्य आकर्षण यहाँ विराजती नैसर्गिक शान्ति है।

रानीखेत उत्तराखंड राज्य के अल्मोड़ा ज़िले में है। यह समुद्र तल से 1824 मीटर की ऊंचाई पर स्थित एक छोटा लेकिन बेहद खूबसूरत हिल स्टेशन है।  कुमाऊँ के अल्मोड़ा ज़िला के अंतर्गत आने वाला एक छोटा पर एक सुन्दर पर्वतीय नगर हैं।

अंग्रेज़ों के शासनकाल में सैनिकों कीरानीखेत छावनी के लिए इस क्षेत्र का विकास किया गया। क्योंकि रानीखेत उत्तराखंड कुमाऊं रेजिमेन्ट का मुख्यालय है, इसलिए यह पूरा क्षेत्र काफ़ी साफ-सुथरा रहता है। रानीखेत में ज़िले की सबसे बड़ी सेना की छावनी स्थापित हैं, जहाँ सैनिकों को प्रशिक्षित किया जाता हैं।

रानीखेत की दूरी नैनीताल से 63 किमी, अल्मोड़ा से 50 किमी, कौसानी से 85 किमी और काठगोदाम से 80 किमी हैं। मनोरम पर्वतीय स्थल रानीखेत लगभग 25 वर्ग किलोमीटर में फैला है। कुमाऊं क्षेत्र में पड़ने वाले इस स्थान से लगभग 400 किलोमीटर लंबी हिमाच्छादित पर्वत-श्रृंखला का ज़्यादातर भाग दिखता हैं। इन पर्वतों की चोटियां सुबह-दोपहर-शाम अलग-अलग रंग की मालूम पड़ती हैं।

रानीखेत उत्तराखंड का इतिहास –

रानीखेत का नाम रानी पद्मिनी के कारण पड़ा। रानी पदमनी राजा सुखदेव की पत्नी थीं, जो वहां के राज्य के शासक थे। रानीखेत की सुंदरता देख राजा और रानी बेहद प्रभावित हुए और उन्होंने वहीं रहने का फैसला कर किया। बाद में यह ब्रिटिश शासकों के हाथ में चला गया। अंग्रेजों ने रानीखेत को छुट्टियों में मौज-मस्ती के लिए हिल स्टेशन के रूप में विकसित किया और 1869 में यहां कई छावनियां बनवाईं जो अब ‘कुमांऊ रेजीमेंटल सेंटर’ है।

रानीखेत एक अत्यंत खूबसूरत हिल सटेशन है। जहाँ  दुनिया भर से हर साल लाखों की संख्या में सैलानी यहां  मौज-मस्ती करने के लिए आते हैं। रानीखेत से 6 किलोमीटर की दूरी पर गोल्फ का विशाल मैदान है। उसके पास ही कलिका में कालीदेवी का प्रसिद्ध मंदिर भी है।

यहां की खूबसूरती देखते ही बनती है। यहां पर दिखने वाले खूबसूरत नज़ारे पर्यटकों को खूब भाते हैं। रानीखेत से लगभग सात किलोमीटर दूरी पर है- कलिका मंदिर। यहां माँ काली की पूजा की जाती है। यहां पर पौधों की बहुत ही बढ़िया नर्सरी भी हैं।

ऊपर में गोल्फ कोर्स है और उसके पीछे बर्फ से ढंका हुआ पहाड़ बहुत ही मनोरम दृश्य प्रस्तुत करता है। रानीखेत में इसके अलावा और भी मनोरम स्थल है। यहां का भालू बांध मछली पकड़ने के लिए प्रसिद्ध है। रानीखेत से थोड़ी-थोड़ी दूरी पर भ्रमण करने की भी कई जगह हैं जैसे अल्मोड़ा जहां हिमालय पहाड़ों का सुंदर दृश्य मन को मोह लेता है।

रानीखेत उत्तराखंड के प्रमुख पर्यटन स्थल निम्न हैं –

गोल्फ कोर्स  –

रानीखेत गोल्फ कोर्स रानीखेत उत्तराखंड  के प्रमुख आकर्षणों में से एक है। एशिया के उच्चतम गोल्फ कोर्सों में से रानीखेत गोल्फ कोर्स में से एक नंबर  गोल्फ कोर्स है। यह रानीखेत नगर से 5 किमी की दूरी पर है।

रानीखेत उत्तराखंड
गोल्फ़ ग्राउंड
सैंट ब्रिजेट चर्च  –

सैंट ब्रिजेट चर्च रानीखेत नगर का सबसे पुराना चर्च है।

रानीखेत उत्तराखंड का कुमाऊं रेजिमेंटल सेंटर –

कुमाऊँ रेजिमेंटल सेंटर (KRC) कुमाऊँ तथा नागा रेजिमेंट द्वारा संचालित एक म्यूजियम है। यहाँ विभिन्न युद्धों में पकडे गए अस्त्र तथा ध्वज प्रदर्शन करने के लिए रखे गए हैं। इसके अतिरिक्त म्यूजियम में ऑपरेशन पवन के समय पकड़ी गयी एलटीटीई की एक नाव भी है।

रानीखेत उत्तराखंड का द्वाराहाट क्षेत्र –

द्वाराहाट के पास ही 65 मंदिर बने हुए हैं, जो कि तत्कालीन कला के बेजोड़ नमूनों के रुप में विख्यात हैं। बद्रीकेदार मंदिर, गूजरदेव का कलात्मक मंदिर, दूनागिरि मंदिर, पाषाण मंदिर और बावड़िया यहां के प्रसिद्ध मंदिर हैं।

द्वाराहाट से 14 किलोमीटर की दूरी पर दूनागिरी मंदिर है। यहां से आप बर्फ से ढकी चोटियों को देख सकते हैं। दूनागिरी का वैष्णव शक्ति पीठ जगत प्रसिद्ध है।जहां पर आसपास के लोग बड़ी संख्या में आते है।इसके कुछ ही दूरी पर शीतलाखेत है, जो पर्यटक गांव के नाम से जाना जाता है।

आशियाना पार्क  –

आशियाना पार्क रानीखेत नगर के मध्य में स्थित है। कुमाऊँ रेजिमेंट द्वारा निर्मित और विकसित इस पार्क में बच्चों के लिए विशेषकर जंगल थीम स्थित है।

मनकामेश्वर मंदिर

यह मंदिर कुमाऊँ रेजिमेंट के नर सिंह मैदान से संलग्न है। मंदिर के सामने एक गुरुद्वारा, तथा एक शाल की फैक्ट्री है।

रानी झील –

रानीखेत उत्तराखंड में रानी झील प्रसिद्ध स्थान है। रानी झील नर सिंह मैदान के समीप वीर नारी आवास के नीचे स्थित है। इस झील में नौकायन की सुविधा उपलब्ध है।

झूला देवी मंदिर रानीखेत उत्तराखंड –

उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में स्थित मां दुर्गा के इस मंदिर की रखवाली शेर करते हैं, लेकिन वह स्थानीय लोगों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाते हैं।

नवरात्र पर मां के इस मंदिर में भक्तों का तांता लग जाता है। झूला देवी मंदिर अल्मोड़ा जनपद के रानीखेत के पास चौबटिया नामक स्थान पर स्थित है। वहां के स्थानीय लोगों की कुल देवी कही जाती हैं झूला देवी।

करीब 700 वर्ष पूर्व चौबटिया एक घना जंगल हुआ करता था।जो जंगली जानवर से भरा हुआ था। शेर तथा चीते यहां बसने वाले लोगो पर आक्रमण करते और उनके पालतू पशुओं को अपना आहार बनाते।

रानीखेत शहर से 7 किमी. की दूरी पर स्थित यह एक लोकप्रिय मंदिर है। यह मंदिर मां दुर्गा को समर्पित है।झुला देवी मंदिर के रूप में भी जाना जाता है,मान्यता है कि रानीखेत के जिस क्षेत्र में यह मंदिर मौजूद है वहां जंगली जानवरों का आतंक था।

इस कारण वहां के स्थानीय लोग घर से निकलने में डरते थे।एक बार मां दुर्गा किसी ग्रामीण के सपने में आई और उसे किसी जगह की खुदाई करने को कहा। जब खुदाई की गई तो वहां से एक देवी की मूर्ति निकली जिसको इसी मंदिर में झूले पर स्‍थापित किया गया।

लोगों का मानना है कि मंदिर में प्रार्थना करने वाले लोगों की मनोकामनाएं मां झूला देवी पूरी करती हैं।मुराद पूरी होने पर इस मंदिर में तांबे की घंटी चढ़ाई जाती है। इस मंदिर में हजारों घंटियां लोगों की आस्‍था का प्रतीक हैं।

बिनसर महादेव –

बिनसर महादेव रानीखेत उत्तराखंड क्षेत्र में भगवान् शिव को समर्पित एक मंदिर है। मंदिर के समीप बहती एक गाड़ विहंगम दृश्य प्रस्तुत करती है। मंदिर के पास देवदार तथा चीड़ के जंगलों के मध्य स्थित एक आश्रम भी है।

भालू डैम रानीखेत –

भालूडैम नगर के समीप स्थित एक कृत्रिम झील है।यहाँ से हिमालय श्रंखलाओं का मनोरम दृश्य देखा जा सकता है।

ताड़ीखेत उत्तराखंड –

रानीखेत से 8 किमी दूर स्थित ताड़ीखेत गाँधी कुटी तथा गोलू देवता मंदिर के लिए प्रसिद्द है।

उत्तराखंड रानीखेत का चौबटिया गार्डन –

रानीखेत उत्तराखंड का चौबटिया गार्डन पर्यटकों की पहली पसंद है। इसके अलावा यहां का सरकारी उद्यान और फल अनुसंधान केंद्र भी देखे जा सकता है। इनके पास में ही एक वाटर फॉल भी है। कम भीड़-भाड़ और शान्त माहौल रानीखेत को और भी ख़ास बना देता है। बात करे तो चौबटिया गार्डन उत्तराखण्ड राज्य के अल्मोड़ा ज़िले के प्रसिद्ध पहाड़ी पर्यटन स्थल रानीखेत में स्थित है।

रानीखेत से 10 किलोमीटर दूर इस स्थान पर एशिया का सबसे बड़ा फलों का बगीचा हैं। यहां दर्जनों तरह के फलों के पेड़ हैं, जिन्हें देखकर पर्यटक गदगद हो उठते हैं। यहां सरकार द्वारा स्थापित विशाल फल संरक्षण केंद्र भी देखने लायक हैं। यह स्थान मुख्य रूप से फलोद्यान, बग़ीचों और सरकारी फल अनुसंधान केन्द्र के रूप में प्रसिद्ध है। यहां पिकनिक का आनंद लिया जा सकता है।

इस स्थान से विस्तृत हिमालय, नंदादेवी, त्रिशूल, नंदाघुन्टी और नीलकण्ठ के विहंगम दृश्य देखे जा सकते हैं। 265 एकड़ क्षेत्र में फैला यहां का होर्टीकल्चर गार्डन भारत के विशालतम होर्टीकल्चर गार्डन्स में एक है। इस गार्डन में 36 किस्म के सेब उगाए जाते हैं जिनमें चार किस्मों का निर्यात भी किया जाता है।

चौबटिया गार्डन  10 किमी की दूरी पर स्थित एक प्रसिद्ध पर्यटन आकर्षण है। यहां पर फलों और फूलों की 200 विभिन्न प्रजातियों के हरे-भरे बाग हैं। इन बागों में स्वादिष्ट सेब, आड़ू, प्लम और खुबानी का उत्पादन होता है। सिल्वर ओक, रोडोडेंड्रन, साइप्रस, सीडार और पाइन के जंगलों से घिरी हुई यह जगह मनोरम दृश्य प्रस्तुत करती है।

सरकारी एप्पल गार्डन और फलों का अनुसंधान केंद्र इसके पास ही स्थित हैं। यह जगह एक प्रसिद्ध पिकनिक स्पॉट भी है।

इसके अतिरिक्त रानीखेत उत्तराखंड में और कई ऐसे इलाक़े है जहाँ आप घूम सकते है:-

  • चिलियानौला मैं हैड़ाखान बाबा का मंदिर
  • गोल्फ मैदान
  • शीतला खेत
  • धोलीखेत
  • द्वाराहाट
  • दूनागिरि
  • मजखाली
  • खड़ी बाजार
  • कटारमल सूर्य मन्दिर
  • माँ कलिका मंदिर
  • बिन्सर महादेव मंदिर
  • कटारमल सूर्य मन्दिर
  • कुमाऊँ रेजिमेंट का संग्रहालय

रानीखेत उत्तराखंड कैसे जाएं –

काठगोदाम रेलवे स्टेशन यहां से 85 किलोमिटर की दूरी पर हैं। रानीखेत दिल्ली से 279 किलोमीटर की दूरी पर है। हल्द्वानी काठगोदाम से रानीखेत के लिए , बस टेक्सी , बुकिंग कार सभी प्रकार के यातायात के साधन उपलब्ध है।

रानीखेत उत्तराखंड का मौसम –

रानीखेत की यात्रा का आनंद लेना है, तो यहाँ गर्मियों में जाना चाहिए। गर्मियों में  यहाँ का मौसम , अधिकतम तापमान 22 डिग्री तथा न्यूनतम तापमान 8 डिग्री होता है। तथा सर्दियों में रानीखेत उत्तराखंड का अधिकतम तापमान 7 से 10 डिग्री तथा न्यूनतम तापमान 3 डिग्री होता है।

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बद्रीनाथ में घूमने योग्य स्थान | Top place to visit in Badrinath

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बद्रीनाथ में घूमने योग्य

बद्रीनाथ में घूमने लायक अनेक रमणीक स्थान हैं आमतौर पर तीर्थयात्री बद्रीनाथ धाम के लिए एक दिन की यात्रा या अधिकतम एक रात तक रुकना पसंद करते है । इस वजह से कुछ आकर्षक और सुन्दर दर्शनीय स्थलों के दर्शन करना तीर्थयात्री भूल जाते है । हालाँकि यदि आप एक या दो दिनों के लिए बद्रीनाथ धाम की यात्रा करने की योजना बना रहे हैं, तो बद्रीनाथ में निम्न स्थानों को देखना न भूले ।

बद्रीनाथ में घूमने लायक निम्न स्थान हैं –

नीलकंठ –

बद्रीनाथ मंदिर के पीछे, एक तरफ घाटी एक शंक्वाकार आकार के नीलकंठ शिखर (6600 मीटर) में खुलती है। जिसे ‘गढ़वाल क्वीन’ के रूप में भी जाना जाता है, पिरामिड के आकार में एक बर्फीली चोटी है जो बद्रीनाथ की पृष्ठभूमि बनाती है। पर्यटक यहाँ ब्रह्म कमल क्षेत्र तक आ सकते हैं।

संतोथपथ –

यह एक त्रिकोणीय झील है जो बर्फ से ढकी चोटियों से घिरी हुई है और इसका नाम हिंदू देवताओं महेश (शिव), विष्णु और ब्रह्मा के नाम पर रखा गया है। ऐसा माना जाता है कि हिंदू देवता महेश (शिव), विष्णु और ब्रह्मा हिंदू कैलेंडर के अनुसार प्रत्येक एकादशी पर इस सरोवर में स्नान करते हैं। (यहाँ यात्रा करने के लिए अनुमति की आवश्यकता होती है)

 बद्रीनाथ में घूमने योग्य प्रमुख स्थान तप्त कुंड –

बद्रीनाथ मंदिर में प्रवेश करने से पहले, प्रत्येक श्रद्धालु तप्त कुंड में पवित्र स्नान करता है। ताप कुंड एक प्राकृतिक गर्म पानी का कुंड है, जिसे अग्नि के देवता अग्नि का निवास कहा जाता है। स्नान क्षेत्र में पुरुषों और महिलाओं के लिए अलग-अलग व्यवस्था है। हालांकि सामान्य तापमान 55 ° C तक रहता है, दिन के दौरान पानी का तापमान धीरे-धीरे बढ़ता रहता है। ऐसा माना जाता है इस कुंड के उच्च औषधीय महत्व है । यहाँ एक डुबकी भर लगाने से त्वचा रोग ठीक हो जाते है । यह बद्रीनाथ में घूमने योग्य सबसे प्रसिद्ध स्थान है।

ब्रह्मकपाल –

मंदिर के पास, यत्रियों के लिए अपने पूर्वजों का श्राद्ध करने के लिए एक स्थान है, जिसका बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। जहां व्यक्ति अपने पूर्वजो का श्राद्ध कर सकता है।

चरण पादुका –

यह स्थान बद्रीनाथ से सिर्फ 3 किमी की दूरी पर स्थित है । गर्मियों के मौसम मे यहाँ सुन्दर घास के मैदान जंगली फूलो से ढके होते है ।यहां एक बहुत बड़ी चट्टान है, जिसमे भगवान विष्णु के पैरों के निशान अंकित हैं।

नारद कुंड –

तप्त कुंड के पास स्थित, नारद कुंड वह स्थान है जहां भगवान विष्णु की मूर्ति आदि शंकराचार्य द्वारा बरामद की गई थी। गरुड़ शिला के नीचे से गर्म पानी के झरने निकलते हैं और कुंड में आकर गिरते है। बद्रीनाथ के दर्शन हमेशा इस कुंड में एक पवित्र डुबकी लगाने से पहले होते हैं। इसके अलावा यहाँ कई अन्य गर्म पानी के झरने हैं। भक्त अपने धार्मिक और औषधीय महत्व के लिए उनमें डुबकी लगाते हैं। बद्रीनाथ में सूरज कुंड और केदारनाथ के रास्ते में गौरी कुंड एक और प्रसिद्ध कुंड हैं। यह बद्रीनाथ में घूमने योग्य प्रमुख स्थानों में एक है।

वसुधारा जल प्रपात –

वसुधारा जलप्रपात (माणा गाँव से 3 किलोमीटर) प्रसिद्ध पर्यटन आकर्षणों में से एक है, जो माना गाँव में स्थित है। इस झरने का पानी 400 फीट की ऊँचाई से नीचे गिरता है और यह 12,000 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। ऐसा माना जाता है कि वसुधारा झरने का पानी उन पर्यटकों से दूर हो जाता है जो दिल के शुद्ध नहीं होते है। झरने के करीब सतोपंथ, चौखम्बा और बालकुम की प्रमुख चोटियाँ हैं।

वासुकी ताल –

यह एक उच्च ऊंचाई वाली झील है जहाँ 8 किमी की ट्रेक द्वारा पहुँचा जा सकता है जो 14,200 फीट तक जाती है। व्यास गुफ़ा, गणेश गुफ़ा, भीमपुल और वसुधारा जलप्रपात यहाँ से 3-6 किमी दूरी पर हैं। ये सभी गंतव्य हिंदू पौराणिक कथाओं के साथ अपने संबंधों के लिए प्रसिद्ध हैं और बद्रीनाथ में घूमने योग्य  एक प्रमुख स्थान हैं।

लीला ढोंगी –

बद्रीनाथ वह क्षेत्र है जिसे भगवान शिव ने मूल रूप से तपस्या के लिए चुना था। हालाँकि, भगवान विष्णु ने फैसला किया कि वह यहाँ ध्यान करना चाहते हैं इसलिए उन्होंने एक छोटे बच्चे का रूप धारण किया और एक चट्टान पर लेट गए और रो पड़े। जब पार्वती ने उन्हें सांत्वना देने की कोशिश की तब भी उन्होंने रुकने से इनकार कर दिया। अंत में, भगवान शिव बच्चे की जिद को नहीं रोक सके और केदारनाथ में ध्यान करने का फैसला किया।

उर्वशी मंदिर:

बद्रीविशाल, नर और नारायण का आश्रम, जहां दोनों ने तपस्या की और अब, पहाड़ों के आकार में, मंदिर की रक्षा करते हैं | जब वे गहन ध्यान में थे, भगवान इंद्र ने उन्हें विचलित करने के लिए आकाशीय युवतियों या अप्सराओं का एक समूह भेजा।

नारायण ने अपनी बाईं जांघ को फाड़ दिया और मांस से बाहर, कई अत्यधिक सुन्दर अप्सराओं को बनाया। उन सभी में से सबसे अधिक सुन्दर – उर्वशी – इंद्र की अप्सराओं का नेतृत्व किया और चरणपादुका में एक छोटे से तालाब के पास अपना घमंड चूर-चूर कर दिया। तालाब उर्वशी के नाम पर है; और बामनी गाँव के बाहरी इलाके में एक मंदिर है जो इस सुन्दर अप्सरा को समर्पित है।

बद्रीनाथ में घूमने योग्य स्थान
Badarinath

 बद्रीनाथ में घूमने योग्य प्रमुख स्थान भीम पुल  –

यह एक विशाल चट्टान है जो सरस्वती नदी के पार एक प्राकृतिक सेतु का काम करती है। सरस्वती नदी दो पहाड़ों के बीच बहती है और अलकनंदा नदी में मिलती है। यह माना जाता है कि पांच पांडवों में से एक, महाबली भीम ने दो पहाड़ों के बीच एक रास्ता बनाने के लिए एक विशाल चट्टान को फेंक दिया ताकि द्रौपदी आसानी से उस पर चल सकें।

 बद्रीनाथ में घूमने योग्य शेष नेत्र –

बद्रीनाथ से 1.5 किमी दूर एक शिलाखंड है जिसमें पौराणिक सांप की छाप है, जिसे शेषनाग के नेत्र (शेष का मतलब शेषनाग और नेत्र का मतलब आंख) के रूप में जाना जाता है। नर पर्वत की गोद में अलकनंदा नदी के विपरीत किनारे पर दो छोटी मौसमी झीलें हैं। इन झीलों के बीच में एक चट्टान है, जिसमें प्रसिद्ध साँप, शेषनाग की छाप है।

माणा गाँव –

यह चीन सीमा पर भारतीय क्षेत्र का अंतिम गांव है और बद्रीनाथ से सिर्फ 3 किलोमीटर दूर है। माणा गाँव के ग्रामीणों को श्री बदरीनाथ मंदिर की गतिविधियों के साथ निकटता से जोड़ा जाता है क्योंकि वे मंदिर के समापन के दिन देवता को चोली चढ़ाते हैं – एक वार्षिक पारंपरिक रिवाज ।

माणा गाँव गुफाओं से भरा हुआ है और ऐसा कहा जाता है कि वेद व्यास ने गणेश को महाभारत के अपने प्रसिद्ध महाकाव्य का वर्णन किया था, इन गुफाओं में से एक, जिसे अब व्यास गुफ़ा (गुफा) के नाम से जाना जाता है।  यह बद्रीनाथ में घूमने योग्य प्रमुख स्थान है।

 

बद्रीनाथ में घूमने योग्य स्थान पांच धारा –

पंचधारा (पाँच धाराएँ) जो बद्रीपुरी में प्रसिद्ध हैं, वे हैं प्रह्लाद, कूर्म, भृगु, उर्वशी और इंदिरा धारा। इनमें से सबसे बड़ी अद्भुत इंदिरा धारा है, जो कि बद्रीपुरी शहर से लगभग 1.5 किमी उत्तर में है। भृगुधारा कई गुफाओं में बहती है। ऋषि गंगा नदी के दाईं ओर, मूल रूप से नीलकंठ श्रेणी की उर्वशी धारा है। कूर्म धारा का पानी बेहद ठंडा होता है, जबकि प्रह्लाद धारा में गुनगुना पानी होता है, जो नारायण पर्वत की चट्टानों से नीचे की ओर बहता है।

पंच शिला –

तप्त कुंड के आसपास नारद, नरसिंह, बराह, गरुड़ और मार्कंडेय (पत्थर) नामक पौराणिक महत्व के पांच शिलाएं हैं। तप्त और नारद कुंड के बीच में स्थित है, शंक्वाकार आकार की नारद शिला। कहा जाता है कि ऋषि नारद ने इस चट्टान पर कई वर्षों तक ध्यान किया था।

सरस्वती नदी –

माणा गाँव से 3 किमी उत्तर में एक ग्लेशियर से सरस्वती नदी निकलती है। सरस्वती को ज्ञान की देवी के रूप में जाना जाता है, जिन्होंने वेद व्यास को महाकाव्य महाभारत की रचना करने का आशीर्वाद दिया था । व्यास गुफ़ा को छूने के बाद नदी, केशव प्रयाग में अलकनंदा में खो जाती है। यहाँ से इलाहाबाद तक, सरस्वती नदी गुप्त मार्ग से बहती है। कहा जाता है कि इलाहाबाद में गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम पर, सरस्वती अदृश्य रहती है।

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जगदीश कुनियाल जी ने जल संरक्षण से, सूखे जल स्रोत को दुबारा रिचार्ज कर दिया।

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जल सरंक्षण

उत्तराखंड बागेश्वर के जगदीश कुनियाल  की तारीफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने अपने साप्ताहिक कार्यक्रम मन की बात 2.0 में की। प्रधानमंत्री जी ने आज अपने कार्यक्रम में जल संरक्षण की उपयोगिता और जरूरत पर बात की । उन्होंने अपने कार्यक्रम की शुरुवात एक श्लोक से की –

| माघे निमग्ना: सलिले सुशीते, विमुक्तपापा: त्रिदिवम् प्रयान्ति।|

अर्थात , माघ महीने में किसी भी पवित्र जलाशय में स्नान को पवित्र माना गया है। प्रधानमंत्री जी ने नदी जल आदि  के बारे में बताते हुए, देश के कई भागों और लोगों की तारीफ की,जो जल संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। इसी क्रम में उन्होंने उत्तराखंड के बागेश्वर निवासी जगदीश कुनियाल जी का जिक्र भी किया। (जल संरक्षण )

प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने कहा , “साथियो, उत्तराखंड के बागेश्वर में रहने वाले जगदीश कुनियाल जी का काम भी बहुत कुछ सिखाता है। जगदीश जी का गाँव और आस-पास का क्षेत्र पानी की जरूरतों के लिये के एक प्राकृतिक स्रोत्र पर निर्भर था। लेकिन कई साल पहले ये स्त्रोत सूख गया।

इससे पूरे इलाके में पानी का संकट गहराता चला गया। जगदीश जी ने इस संकट का हल वृक्षारोपण से करने की ठानी। उन्होंने पूरे इलाके में गाँव के लोगों के साथ मिलकर हजारों पेड़ लगाए और आज उनके इलाके का सूख चुका वो जलस्त्रोत फिर से भर गया है।

जगदीश कुनियाल जी ने जल संरक्षण से, सूखे जल स्रोत को दुबारा रिचार्ज कर दिया।

जगदीश कुनियाल और उनका जल संरक्षण –

उत्तराखंड ,बागेश्वर जिले के गरूड़ क्षेत्र के सिरकोट गांव के निवासी  जगदीश कुनियाल जी के मन मे प्रकृति प्रेम बचपन से ही था। जब वो 18 वर्ष के थे , तब उन्होंने अपनी 800 नाली जमीन में चाय का बागान लगा दिया। और बाकी बची हुई अपनी जमीन में ,अलग अलग प्रकार के पेड़ लगा दिये।

आरम्भ में जगदीश जी की जमीन में, बहुत जल स्रोत थे। बंजर छूटने की वजह से,सारे जल स्रोत सूख गए। जैसे जैसे जगदीश कुनियाल जी के पेड़ बड़े होते गए , बंजर जमीन हरीभरी होती गई।

और इसका सीधा असर जल स्रोतों पर पड़ा , भूमि की पानी सोखने की क्षमता बड़ी, और भू जल श्रोत बड़े, और बंजर जमीन के सारे जल स्रोत पुर्नजीवित हो गए।

आज यहां साल भर पानी रहता है। इस पानी का उपयोग खेती आदि कार्यो के लिए किया जाता है।

कुनियाल जी पिछले 40 साल से  पौधरोपण और जल संरक्षण के लिए काम कर रहे हैं। उन्होंने आज तक  विभिन्न प्रजातियों के लगभग 25000 पेेेड़ लगा दिए ।

कुनियाल जी के अथक भगीरथ प्रयास से सूखे गधेरे को रिचार्ज कर दिया।

प्रसिद्ध पर्यावरण प्रेमी एवं सामाजिक कार्यकर्ता बसंत बल्लभ जोशी जी ने बताया कि, कुनियाल का पर्यवारण प्रेम अनूठा है। वह बिना किसी शोर शराबे पर्यावरण की रक्षा कर रहे हैं। दिखाओ से दूर रहकर उन्होंने प्रकृति की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया है। जो उत्तराखंड के अन्य लोगों के लिये एक आदर्श है।। (जल संरक्षण )

माननीय मुख्यमंत्री श्री त्रिवेंद्र रावत जी ने भी , कुनियाल जी की तारीफ की है। उन्होंने ट्विटर से ट्वीट किया है –

“जिद जब जुनून में बदल जाए तो उसके सार्थक परिणाम जरूर मिलते हैं। उत्तराखंड के जनपद बागेश्वर निवासी श्री जगदीश कुनियाल जी ने अपने भगीरथ प्रयासों से कई साल पहले सूख चुके स्थानीय गदेरे को पुनः रिचार्ज कर तमाम गांवों में न केवल पेयजल संकट बल्कि सिंचाई की समस्याओं को भी दूर किया है।”

निष्कर्ष –

इस साल फरवरी में उत्तराखंड का तापमान 28 डिग्री से 30 डिग्री चल रहा है। इसका मुख्य कारण पेड़ो का अनियंत्रित दोहन ही है। इसकी वजह से हमे असमान मौसम का सामना करना पड़ रहा है। (जल संरक्षण )

मित्रों कुनियाल जी इस संकट का समाधान ढूढ लिया था वृक्षारोपण और उन्होंने इसके दम पर , सूखे हुए  जल स्रोत को जल से परिपूर्ण कर दिया। प्रकृति की हर समस्या का एक ही समाधान है, वृक्षारोपण।

इसलिए सभी मित्रों से निवेदन है कि, जगदीश जी को अपना प्रेरणा स्रोत मानकर अपने पर्यवारण की रक्षा में अपना सम्पूर्ण योगदान दें।

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श्वेता वर्मा उत्तराखंड की होंनहार विकेटकीपर बल्लेबाज अब खेलेंगी भारतीय क्रिकेट टीम के लिए।

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श्वेता वर्मा

शनिवार 27 फरवरी 2021 उत्तराखंड की बेटियों के लिए शुभ दिन आया है। एक ओर नैनीताल की बेटियों को आज सरकार ने सम्मानित किया है, वही पिथौरागढ़ थल की बेटी श्वेता वर्मा का चयन भारतीय महिला क्रिकेट टीम में हुआ है। साउथ अफ्रीका के साथ 7 मार्च से शुरू हो रही एक दिवसीय पांच मैचों की श्रंखला के लिए ,भारतीय महिला क्रिकेट टीम में उत्तराखंड कि थल निवासी विकेटकीपर बल्लेबाज श्वेता वर्मा का चयन हुआ है।

Up की टीम से खेलने वाली श्वेता का चयन 2020 में India A टीम के लिए भी हुआ था। एकता बिष्ट , मानसी जोशी  के बाद श्वेता उत्तराखंड की तीसरी महिला हैं, जिनका चयन राष्ट्रीय क्रिकेट टीम में हुआ है।

श्वेता वर्मा उत्तराखंड की होंनहार विकेटकीपर बल्लेबाज अब खेलेंगी भारतीय क्रिकेट टीम के लिए।
कौन है उत्तराखंड की श्वेता वर्मा –

टेलेंट संसाधनों का मोहताज नही होता, अपनी इच्छा शक्ति और जूनून के बल से टेलेंट खुद को साबित कर देता है। और इस बात को यथार्थ किया है, उत्तराखंड पिथौरागढ़ की बेटी श्वेता वर्मा ने। गरीब परिवार और विषम परिस्थितियों वाले पहाड़ में  में पैदा हुई श्वेता वर्मा ने अपनी मंजिल हासिल कर ,पहाड़ की अन्य बेटियों के लिए एक उदाहरण पेश किया है।

थल कस्बे की श्वेता वर्मा ने प्राथमिक शिक्षा ,स्थानीय सरस्वती शिशु मंदिर से की । उनकी माता जी  प्राथमिक विद्यालय में आंगन बाड़ी में कार्यरत हैं। परिवार के सदस्यों के साथ टेलीविजन पर क्रिकेट मैच देखते हुए , उनको इस खेल में ऐसी रूचि पैदा हुई कि, इसे अपना लक्ष्य बना लिया।

प्रारम्भिक शिक्षा पूरी होते ही उन्होंने अपने हाथ मे बल्ला थाम लिया था। उनकी साथ कि सहेलियों को इस खेल में कोई दिलचस्पी नहीं थी। गांव की खेल प्रतियोगिताओ में  वो खेलने लगी, जब खेलने के लिए साथ मे लड़किया नही थी, तो वो लड़को के साथ खेलती थी।

बारहवीं परीक्षा पास करने के बाद तो उनको क्रिकेट की धुन सवार हो गई। आगे की शिक्षा के लिए वो अल्मोड़ा पहुँची। उन्होंने वहां अपना टेलेंट दिखाना शुरू कर दिया।

वहा के कोच लिकयात अली ने उनकी प्रतिभा को पहचाना, और 4 वर्ष तक उनको क्रिकेट का ज्ञान दिया,और बारीकियां सिखाई। इस दौरान उन्होंने कई क्रिकेट टूर्नामेंट खेले, फिर उनका चयन उत्तर प्रदेश की महिला टीम में हुआ। उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नही देखा।

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खेंचुवा मिठाई उत्तराखंड कुमाऊं के डीडीहाट की एक स्वादिष्ट पहचान।

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खेंचुवा मिठाई

उत्तराखंड की सबसे प्रसिद्ध मिठाई है, अल्मोड़ा की बाल मिठाई, सिगोड़ी, चॉकलेट मिठाई और डीडीहाट की खेंचुवा मिठाई।अब आप में से कुछ लोग सोच रहे होंगें कि बाल मिठाई का नाम तो हमने सुना है, लेकिन ये खेंचुवा मिठाई कहाँ से आ गई? और पिथौरागढ़ और डीडीहाट के आस पास के मित्रों  को तो इस मिठाई का स्वाद दिल तक घुला होगा।

जैसा कि नाम से ही इसकी पहचान हो रही है, खेंचुवा।  मगर यह खाने में बहुत लज़ीज़ होती है। इसका स्वाद दिल से एकदम आत्मा में उतर जाता है। कुमाऊँ आँचल की एक और सौगात, परदेसी को अपने घर की याद दिला देती है।मेरे एक डीडीहाट के मित्र ने मुझे यह मिठाई चखाई तो, सच्ची में मजा आ गया। इसका स्वाद और सुगंध पर्वतीय आँचल की याद दिला देता है।

बस दोस्तों इतनी गलती कि, उसकी फोटो नही ले पाया। अगली बार सौभाग्य प्राप्त हुवा खेंचुवा खाने का तो फ़ोटो पक्का शेयर करूंगा। इस बार आप गूगल से ली हुई फ़ोटो से काम चला लीजिए। अगली बार पक्का फ़ोटो अपडेट कर दूंगा।

खेंचुवा मिठाई

खेंचुवा मिठाई का जन्म –

खेंचुवा की शुरुआत देवीधुरा से आये  नैन सिंह नेगी जी के परिवार ने 80 के दशक में पिथौरागढ़ के डीडीहाट नगर में की थी। उस समय दूध की कमी की वजह से कम बनती थी। शने शने इसकी विशेषता की वजह से इसकी मांग बढ़ती गई। और इसको बनाने के लिए दूध की मांग भी बढ़ गई।

खेंचुवा  एक प्रकार की हल्की तरल मिठाई होती है। इसकी विशेषता यह होती है कि यह लंबी खिंच जाती है, इसलिए इसको खेंचुवा मिठाई  कहा जाता हैं। यह लगभग कलाकन्द मिठाई की तरह होती है।

अपनी इसी विशेषता के कारण यह मिठाई , डीडीहाट  से पिथौरागढ़, समूचे कुमाऊं ,गढ़वाल  और मैदानों तक प्रसिद्ध है। अब तो शादियों  में भी खेंचुवा की डिमांड आती है। कैलाश मानसरोवर यात्रा के यात्रियों को भी यह मिठाई बहुत अच्छी लगती है। वो लोग यात्रा से आने के बाद यहाँ से घर के लिए मिठाई लेकर जाते हैं।

खेंचुवा कहाँ से खरीदें-

वैसे तो डीडीहाट, पिथौरागढ़, और अल्मोड़ा के कई दूकानों में खेंचुवा मिठाई मिलती है। मगर डीडीहाट के नेगी जी की दुकान की खेंचुवा सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है। हो भी क्यों ना , नेगी जी का परिवार खेंचुवा  का जनक है।

जैसे- अल्मोड़ा के खीम सिंह मोहन सिंह की बाल मिठाई प्रसिद्ध है। ठीक वैसे ही डीडीहाट के नेगी जी की खेंचुवा प्रसिद्ध है।

खेंचुवा मिठाई

कैसे बनती है खेंचुवा –

डीडीहाट की प्रसिद्ध खेंचुवा  नेगी परिवार की खोज है। लोग बताते हैं कि 80 के दशक में नेगी परिवार ने अलग अलग प्रकार की मिठाई ट्राय की। अंत मे उन्हें खेंचुवा के रूप में सफलता मिली।

खेंचुवा बनाने के लिए शुरुआत में भैंस के अधिक फैट वाले दूध का प्रयोग होता था। लेकिन अब मांग अधिक होने के कारण ,उच्च फैट वाला गाय का दूध भी प्रयोग किया जाता है।

इसको बनाने के लिए अधिक फैट वाले दूध को ,चीनी के साथ ,खूब पकाते हैं ।और तब तक पकाते हैं, जब तक वह दूध इतना गाढ़ा हो जाय ,और एक लीच लीची खिंचाव वाली मिठाई बन जाती है।खेंचुवा काफी हद तक ,अल्मोड़ा रानीखेत में बनने वाली कुंद की मिठाई जैसा होता है।

खेंचुवा मिठाई
Photo credit -https://www.thecitizen.in/index.php/en/NewsDetail/index/9/6381/The-Sweet-Tooth-Of-Kumaon

निवेदन- मित्रों यह मिठाई हमारे अंचल की ,हमारे भाइयों द्वारा आविष्कार की हुई ,कुमाऊ उत्तराखंड की पहचान है। यदि यह लेख अच्छा लगा हो तो जरूर शेयर करें।

फोटो – साभार गूगल। 

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दो बार फल देने वाला आम का पेड़ मिला है,उत्तराखंड के अल्मोड़ा में।

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दो बार फल

उत्तराखंड के स्नेही मित्रों के लिए खुश खबरी है। खुश खबरी यह है कि उत्तराखंड में साल में दो बार फल देने वाला आम का पेड़ मिला है।दगडियों आम के शौकीन तो सभी हैं, किसे अच्छा नही लगता आम! और आम का व्यसाय भी खूब होता है। मगर विडम्बना ये होती है,कि आम की फसल एक ही बार होती है। हमे रसीले आमों का आनंद लेने के लिए एक साल का इंतजार करना पड़ता है।

मगर इन सभी समस्याओं का समाधान मिला है,उत्तराखंड  अल्मोडा के नौला गांव में। कलमी (फजरी) प्रजाति का यह आम का पेड़ मिला है,विकासखंड ताड़ीखेत के नौला गांव निवासी, श्रीमान देवकी नंदन चौधरी जी के बागवान से। देेवकी नंदन चौधरी जी बागवानी का शौक रखते हैैं।

इसे भी पढ़े _ कुमाऊनी महिलाओं की सांस्कृतिक पहचान “नाखक टुकम बे लंबा पिठ्या”कुमाऊनी रोली टीका!

श्रीमान देवकी नंदन चौधरी जी ने बताया कि, वो इस दो बार फल देने वाला पेड़ को 2004 में रामनगर के हिम्मतपुर डोटीयाल नर्सरी से लाये थे। उनका यह प्रयोग सफल रहा और चार साल बाद पेड़ ने फल देने शुरू कर दिए।

इस पेड़ की पहली फसल  जून जुलाई में होती है। और इसकी दूसरी फसल अक्टूबर नवंबर में तैयार हो जाती है। जून जुलाई में होने वाली आम की फसल में,प्रति आम का वजन लगभग 175 से 200 ग्राम होता है।

दो बार फल देने वाला,
दो बार फल देने वाला,  फ़ोटो साभार -अमर उजाला

अक्टूबर और नवंबर वाली फसल में प्रति आम का वजन लगभग 160 से 175 ग्राम तक  होता है। साल में दो बार फल देने वाले आम के पेड़ की लंबाई लगभग 10 फुट की होती है। इसका आम काफी मीठा होता है। उत्तराखंड उद्यान विभाग के अधिकारियों के अनुसार, गांव में एक प्रशिक्षण के दौरान इसका पता चला। उत्तराखंड उद्यान विभाग के अधिकारियों का कहना है, कि वे इस पेड़ पर और खोज करेंगे। कुल मिलाकर निष्कर्ष ये हुवा कि अब जल्द ही हम सर्दियों में भी आम का स्वाद ले सकेंगें।

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गज्जू मलारी, उत्तराखंड की एक लव स्टोरी।

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कुमाऊनी महिलाओं की सांस्कृतिक पहचान “नाखक टुकम बे लंबा पिठ्या”कुमाऊनी रोली टीका!

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पिठ्या

बचपन में हमारी अम्मा (दादी जी) जाड़ों में हल्दी ,सुहागा,आदि के मिश्रण से घर का पिठ्या रोली तिलक बनाती थी। फिर घर के शुभ कार्यों में वहीं तिलक प्रयोग में लाया जाता था। ब्राह्मण ज्यू आते थे, पाठ मंत्रोच्चार के साथ सभी को तिलक करते थे। और घर कि महिलाओं को नाख से माथे तक एक लंबा पिठ्या रोली तिलक लगाते थे।

पहले हमारी समझ मे नही आता कि इनको, इतना लंबा तिलक क्यों ?बाद में जब रोजी रोटी के लिए परदेश गए, तब देखा,वहां की महिलाएं तो छोटा सा तिलक लगा रही। तब मेरी  समझ में आया कि कुमाउनी महिलायें ही लंबा तिलक ,जिसको नाखः टुकम बे पिठ्या बोलते हैं, वो हमारी सांस्कृतिक पहचान है। जैसे रंगीन  कुमाऊनी पिछोड़ा हमारी यूनिक पहचान हैं , वैसे ही हमारी मातृशक्ति का लंबा तिलक हमारी शान है।

मगर हमारी यह अब हमारी यह सांस्कृतिक पहचान विलुप्ति की ओर अग्रसर है। आधुनिक पीढ़ी की माताएं बहिने,अपने घर मे नही परदेस में रहती हैं, तो वहाँ के परिवेश के अनुसार उनको हमारा पारम्परिक तिलक ,लंबा पिठ्या लगाने में शर्म आती है।

और जो बहिने गांव में हैं वो भी लंबा पिठ्या नही लगाती। कारण एक ही है, आधुनिक चका चौध की अधूरी समझ।

“आजकल तो यही चलता है, “जा चेला दुकानम बैटी 5 रुपे टिका पूड़ी ले आ, और प्लेट में घोई ,शीश मे देखि गोल टिकक लगे ली”

मगर यह परम्परा विलुप्ति की कगार पर जरूर है,मगर कुछ क्षेत्रों की माताएं बहिने, इसे अभी भी जीवंत किये हुए है। कुमाऊं के कुछ क्षेत्रों में ,विवाह आदि शुभ अवसरों पर ,महिलाएं नाखम बे पिठ्या लगाई हुई मिल जाती हैं।

2 महीने पहले कि बात है, जब मगशीष के व्याह लग्न चल रहे थे। एक भूली है, मेरी मित्रता सूची में जो बचपन से दिल्ली रहती है। उसकी शादी भी थी ,उसकी शादी की दुल्हन के रूप में फ़ोटो देख कर मैं चौक गया! पहाड़ी पिछोड़े में,सिर पर राधा कृष्ण वाला मुकुट, नाख में टिहरी की चन्द्रहार नाथ, और सबसे विशेष नाखः टुकम बे पिठ्या! सच्ची उजई जयूनी जैसी लग रही थी भूली हमारी।

कहने का मतलब ये है कि कई लोग बाहर रहते हुए भी अपनी सांस्कृतिक जड़ो से जुड़े हैं। और इन्ही लोगो के कारण ये परम्पराएं बची हुई हैं। ये जो हमारा कुमाउनी परिधान है, यह एक यूनिक परिधान है, इसके साथ नाखः टुकम पे पिठ्या,का कॉम्बिनेशन है, इसमे हमारी बहिनो का सौंदर्य अलग ही तेजपूर्ण हो जाता है।

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पिठ्या
फ़ोटो साभार -प्रिंटसेट

कुमाऊँ की महिलाएं क्यों लगाती हैं, लंबा पिठ्या रोली तिलक –

अब आप को तो पता ही होगा, पहले की पीढ़ी इस परंपरा को निभाती आई है,लेकिन आधुनिक पीढ़ी की रुचि केवल कुमाउनी क्लचर को, सोशल मीडिया में लाइक पाने का जरिया बना रही हैं। वास्तविक जीवन मे इसका प्रयोग कम ही रह गया है।

किशोरावस्था मे मैंने पंडित ज्यूँ से उत्सुकतावश पूछ ही लिया, पाने ज्यूँ आमा और ईजा ,काखी को नाखम बे पिठ्या क्यों लगाते हो ? तो पंडित ज्यूँ ने मुझे निम्न बिन्दुओं के माध्यम से इसका महत्व समझाया।

नाखम बे टीका लगाने से महिला के सुहाग स्वस्थ ,तंदुरुस्त ,ओजपूर्ण एवं दिर्घायु होता है। और लंबा पिठ्या रोली तिलक केवल सुहागिन महिलाएं ही लगाती हैं। नाखे टुकम बे टीका लगाने वाली महिलाएं, सकारत्मक ऊर्जा से परिपूर्ण रहती हैं। आस पास सभी पर सकारात्मक प्रभाव डालती हैं। पारम्परिक टीका लगाने वाली, सुन्दर लगती है।

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