Friday, October 18, 2024
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घी संक्रांति उत्तराखंड का प्रसिद्ध लोक पर्व की संपूर्ण जानकारी

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घी संक्रांति

घी संक्रांति ( ghee sankranti ) उत्तराखंड का प्रमुख लोकपर्व है। घी संक्रांति, घी त्यार, ओलगिया या घ्यू त्यार  प्रत्येक वर्ष भाद्रपद माह की सिंह संक्रांति के दिन मनाया जाता है। 2024 में घी संक्रांति 16 अगस्त 2024 को शुक्रवार के दिन मनाई जाएगी। इस दिन से सूर्य भगवान सिंह राशी में विचरण करेंगे।

भगवान सूर्यदेव जिस तिथि को अपनी राशी परिवर्तन करते है। उस तिथि को संक्रांति कहा जाता है। और उत्सव मनाए जाते हैं। उत्तराखंड में मासिक गणना के लिए सौर पंचांग का प्रयोग होता है। प्रत्येक संक्रांति उत्तराखंड में माह का पहला दिन होता है, और उत्तराखंड में पौराणिक रूप से और पारम्परिक रूप से प्रत्येक संक्रांति को लोक पर्व मनाया जाता है। इसीलिए उत्तराखंड में कहीं कही स्थानीय भाषा मे त्यौहार को सग्यान (संक्रांति) कहते हैं।

घी संक्रांति (ghee sankranti) की मान्यताएं –

उत्तराखंड के सभी लोक पर्वो की तरह घी संक्रांति भी प्रकृति एवं स्वास्थ को समर्पित त्यौहार है। पूजा पाठ करके इस दिन अच्छी फसलों की कामना करते हैं। अच्छे स्वास्थ के लिए,घी एवं पारम्परिक पकवान खाये जाते हैं।

घी त्यार के दिन घी का प्रयोग जरूरी होता है

उत्तराखंड की लोक मान्यता के अनुसार इस दिन घी खाना जरूरी होता है। कहते हैं, जो इस दिन घी नही खाता उसे अगले जन्म में घोंघा(गनेल) बनना पड़ता है। घी त्यार के दिन  खाने के साथ घी का सेवन जरूर किया जाता है, और घी से बने पकवान बनाये जाते हैं। इस दिन सबके सिर में घी रखते हैं। बुजुर्ग लोग जी राये जागी राये के आशीर्वाद के साथ छोटे बच्चों के सिर में घी रखते हैं। और उत्तराखंड के कुछ हिस्सों में घी, घुटनो और कोहनी में लगाया जाता है।

पौराणिक मान्यताओं एवं आयुर्वेद के अनुसार घी संक्रांति के दिन घी का सेवन करने से निम्न लाभ होते है –

  • घी संक्रांति के दिन घी का सेवन करने से ग्रहों के अशुभ प्रभावों से रक्षा होती है। कहा जाता है, जो इस दिन घ्यू (घी ) का सेवन करते हैं,उनके जीवन मे राहु केतु का अशुभ प्रभाव नही पड़ता है।
  • घी को शरीर मे लगाने से, बरसाती बीमारियों से त्वचा की रक्षा होती है। सिर में घी रखने से सिर की खुश्की नही होती। मनुष्य को चिंताओ और व्यथाओं से मुक्ति मिलती है। अर्थात सुकून मिलता है। बुद्धि तीव्र होती है।
  • इसके अलावा शरीर की कई व्याधियां दूर होती हैं। कफ ,पित्त दोष दूर होते है। शरीर बलिष्ठ होता है।

घी त्यार के दिन उपहार (भेंट) दिए जाते हैं

घी संक्रांति या घी त्यार के दिन दूध दही, फल सब्जियों के उपहार एक दूसरे को बाटे जाते हैं। इस परम्परा को उत्तराखंड में ओग देने की परम्परा या ओलग परम्परा कहा जाता है। इसीलिए इस त्यौहार को ओलगिया त्यौहार, ओगी त्यार  भी कहा जाता है।

यह परम्परा चंद राजाओं के समय से चली आ रही है, उस समय भूमिहीनों को और शासन और समाज मे वरिष्ठ लोगों को उपहार दिए जाते थे। इन उपहारों में काठ के बर्तन ( स्थानीय भाषा मे ठेकी कहते हैं ) में दही या दूध और अरबी के पत्ते और मौसमी सब्जी और फल दिये जाते थे। अंग्रेजी शासन काल में बड़े दिन की डाली के रूप में दी जाने वाली भेंट के सामान ,एक ठेकि दही ,मुट्ठीभर गाबा ( अरबी की कोपलें ) भुट्टे खीरे आदी दिए जाते थे।

Ghee sankranti photo
Happy ghee sankranti

अंग्रेजों ने बड़े दिन का उपहार इस दिन नियत किया था :-

बड़े दिन का उपहार भाद्रपद के इस दिन नियत किया गया था। क्युकी इस दिन या इस महीने उपहार के सारे सामान आसानी से उपलब्ध हो जाते थे। यही परम्परा आज भी चली आ रही है। इस दिन अरबी के पत्तों का मुख्यतः प्रयोग किया जाता है। सर्वोत्तम अरबी के पत्ते और मौसमी फल सब्जियां और फल अपने कुल देवताओं को चढ़ाई जाती है। उसके बाद गाँव के प्रतिष्ठित लोगो के पास ( पधान जी ) उपहार लेकर जाते हैं। फिर रिश्तेदारों को दिया जाता है।

उपहार के अर्थ में प्रचलित इस ओळग शब्द का सन्दर्भ  में कुछ लोगों का मानना है कि इसका आधार मराठी भाषा का ओळखणे या गुजरात के ओलख्यु से हो सकता है। वहां की लोक परम्परानुसार लोक देवता को दुग्ध भेंट की जाती है तो उसे स्थानीय भाषा में इस शब्द का प्रयोग करते हैं।

प्राचीन काल में गुजरात और महाराष्ट्र से ब्राह्मण वर्ग के कई लोग उत्तराखंड में आकर बसे।  हो सकता उन्ही से यह शब्द ओळग प्रचलन में आया हो। और इस दिन भेंट देने के कारण इसे ओलगिया त्यौहार कहते हैं।

घी संक्रांति

घी संक्रांति के दिन उत्तराखंड के पारम्परिक पकवान बनाये जाते हैं

घी त्यार के दिन उत्तराखंड के पारम्परिक पकवान बनाये जाते हैं। घी संक्रांति के दिन पूरी , बड़े अरबी के पत्तों की सब्जी ,खीर पुए आदि बनाये जाते हैं। इस दिन उत्तराखंड का एक विशेष पकवान बनाया जाता है, जिसे बेड़ू रोटी कहा जाता है। बेड़ू रोटी को आटे में उड़द की दाल पीस कर डाली जाती है। इस समय पहाड़ी खीरा काफी मात्रा में होते हैं, इसलिए इस त्यौहार पर पहाड़ी खीरे का रायता भी जरूर बनाया जाता है।

घी संक्रांति पर मान्यता है कि घी खाना जरूरी नहीं तो घोंगा (गनेल) बन जाओगे –

घी संक्रान्ति पर हमारे पूर्वजों ने एक परंपरा बनाई, कि इस दिन घी खाना जरूरी है, नही तो घोंगे का जन्म मिलेगा। उस समय चाहे किसी भी परिस्थिति को ध्यान में रख कर यह परंपरा बनाई हो। लेकिन देखा जाय तो हमारे पूर्वजों ने यह परंपरा हमारे स्वास्थ हित को ध्यान में रख कर बनाई है।

क्योंकि घोंघा (गनेल) सुस्त रहता है। बहुत धीरे चलता है। और घी खाने से शरीर बलिष्ठ होता है ,और चुस्ती फुर्ती आती है। इसलिए हमारे पूर्वजों ने शरीर हित को ध्यान में रखते हुए इस परंपरा और उत्सव की शुरुवात की होगी। इस परंपरा का अर्थ है, अगर घी नही खाओगे, तो घोंघा की तरह सुस्त हो जाओगे।

गढ़वाल में घी संक्रांति :-

गढ़वाल मंडल के चमोली जिले में इसे  घीया संग्रात के अलावा म्योल मुण्डया संगरात भी कहा जाता है। इस दिन धान के खेतों के बीच मेहल की टहनी रोपने का रिवाज है। धान के खेतों में मेहल की टहनी रोपने की यह रिवाज अल्मोड़ा के द्वाराहाट क्षेत्र के कतिपय गावों में भी है। जोहार में घी संग्रात एक दिन पहले मनाई जाती है।

घी संक्रान्ति की शुभकामनाएं –

घी संक्रान्ति के दिन , बड़े बुजुर्ग अपने से छोटो के सिर में और नवजात बच्चों के तलवो में घी लगाते हुए आशीष वचन जी राये जागी राये बोल कर अपना आशीर्वाद देते हैं। घी संक्रांति की शुभकामनाएं देते हैं।

जी रये जागी रये,
यो दिन यो बार भेंटने रये।
दुब जस फैल जाए,
बेरी जस फली जाईये।
हिमाल में ह्युं छन तक,
गंगा ज्यूँ में पाणी छन तक,
यो दिन और यो मास
भेंटने रये।।

उपसंहार –घी त्यौहार उत्तराखंड के प्रमुख लोक पर्वो में प्रसिद्ध त्यौहार है। प्राचीन काल मे संचार के साधन कम होने के कारण , अपनी संस्कृति अपने लोक त्यौहारों के प्रति इतनी जनजागृति नही थी। वर्तमान में डिजिटल युग आने के बाद स्थानीय त्यौहारों के प्रति जनजागृति बढ़ गई है। लोग लोक पर्वों के अपने फोन में बड़े चाव से व्हाट्सप स्टेटस लगाते हैं।

लोकपर्वों की शुभकामनाएं भेजते हैं। नई और आधुनिक शिक्षा प्रणाली के तहत बच्चो को घी संक्रांति पर निबंध लिखने का होमवर्क मिलता है, या तो अध्यापक स्कूलों में उत्तराखंड के लोक पर्व पर निबंध या लेख लिखवाते हैं। हमे इसी प्रकार ,अपनी संस्कृति, अपने त्योहारों अपनी परंपरा को सहेजकर आदिकाल तक चलायमान रखना है।

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उत्तराखंड भूकंप अलर्ट एप भारत का पहला एप है,जो भूकंप से पहले अलर्ट देगा

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उत्तराखंड भूकंप अलर्ट ऐप

उत्तराखंड देश का पहला राज्य बन गया है। जिसने उत्तराखंड भूकंप अलर्ट एप लॉन्च किया हैं । बुधवार 04 अगस्त 2021 को उत्तराखंड के मुख्यमंत्री श्री पुष्कर धामी ने इस एप की शुरुआत की। इस एप की खासियत यह है, कि ये उत्तराखंड में भूकंप आने से 30 सेकेंड पहले आपको स्मार्टफोन में अलर्ट कर देगा। उत्तराखंड भूकंप की दृष्टि से संवेदनशील राज्य है। यहाँ हमेशा भूकंप का खतरा बना रहता है। इस एप से उत्तराखंड को काफी मदद मिलेगी। भूकंप का अलर्ट देने वाला यह देश का पहला एप है।

किसने बनाया भूकंप अलर्ट एप –

IIT रुड़की ने उत्तराखंड भूकंप अलर्ट एप को बनाया है। एवं उत्तराखंड राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (USDMA) ने इस एप को स्पोंन्सर किया है।  यह एप भूकम्प के बाद ,फसे हुए लोगो की लोकेशन भी बताएगा। भूकंप पीड़ित  की लोकेशन की जानकारी देने वाला यह विश्व का पहला एप है। यह एप्लिकेशन एंड्रॉएड एवं आईओएस दोनो प्लेटफार्म पर उपलब्ध है।

इस कार्यक्रम को पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय द्वारा पायलट परियोजना के तौर पर पर उत्तराखंड में शुरू किया। पायलट प्रोजेक्ट सफल होने के बाद उत्तराखंड सरकार ने EEW प्रोजेक्ट को बढ़ाने की अनुमति दे दी। EEW वास्तविक समय मे अलर्ट देता है, बड़े झटके आने से पहले अलर्ट दिया जा सकता है। यह एप आपको बताएगा कि भूकंप कब आएगा।

उत्तराखंड भूकंप अलर्ट एप कैसे काम करता है –

इस भूकंप अलर्ट के काम करने का मुख्य आधार, भूकंप के तरंगों की गति होती है। धरती में जोर का कंपन तरंगों के कारण आता है।और तरंगे धीरे धीरे आगे बढ़ती हैं। उत्तराखंड भूकंप अलर्ट एप इसी चीज का फायदा उठा कर, जल्दी से सबको अलर्ट  कर देता है।

इस योजना के तहत गढ़वाल और कुमाऊँ मंडल में उचें स्थानों पर सेंसर लगाए गए हैं। भूकंप अलर्ट का डेटा रुड़की के सर्वर में जमा रहता है। डेटा को स्ट्रीम करने के लिए अत्याधुनिक दूर संचार का सहारा लिया जाता है। IIT रुड़की की प्रयोगशाला में लगे सुपर कंप्यूटर इसकी गणना करते हैं। यह सर्वर सेंसर वाले क्षेत्रों में भूकंप आने पर, इन क्षेत्रों के सर्वर से डेटा इकठ्ठा करके , सबके मोबाइल में अलर्ट भेजता है। यह रियक्टर स्केल पर 5 के ऊपर आने पर अलर्ट देता है।

भूकंप अलर्ट एप का लिंक –

इस एप को एंड्रॉयड यूजर प्ले स्टोर से इस लिंक द्वारा डाउनलोड कर सकते हैं –https://play.google.com/store/apps/details?id=govind.iitr.eews

IOAS user उत्तराखंड भूकंप अलर्ट एप को निम्नलिखित लिंक से डाऊनलोड कर सकते हैं।

https://apps.apple.com/us/app/uttarakhand-bhookamp-alert/id1570380724

अलर्ट के लिए वॉइस ( सायरन) और msg दोनो माध्यमों का प्रयोग किया जाय :- मा. मुख्यमंत्री उत्तराखंड

मुख्यमंत्री जी ने कहा कि , जिन लोगों के पास स्मार्टफोन नही हैं। उनके फीचर फोन पर भूकंप अलर्ट की व्यवस्था की जाय, उनको अलर्ट का msg भी पहुचाया जाय। तथा स्मार्टफोन वालों को वॉइस, और सायरन दोनो माध्यमो से अलर्ट की व्यवस्था की जाय।

मुख्यमंत्री जी ने कहा कि विभिन्न प्रचार माध्यमों से इसका प्रचार किया जाय। इस app पर एक शार्ट फ़िल्म बनाई जाए।

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भद्राज मंदिर और भद्राज देवता की कहानी

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भद्राज मंदिर

भद्राज मंदिर

उत्तराखंड में भगवान बलराम का एकमात्र मंदिर देहरादून , मसूरी में स्थित है। भद्राज मंदिर मसूरी से मात्र 15 किलोमीटर दूर  दुधली भद्राज पहाड़ी पर स्थित है। समुद्र तल से इस मंदिर की उचाई लगभग 7500 फ़ीट है। यह मन्दिर धार्मिक आस्था के साथ ,साथ साहसिक पर्यटन के लिए काफी प्रसिद्ध है। यह मंदिर ट्रेकिंग के लिए  बेस्ट है।

लोग यहाँ पैदल ट्रेकिंग काफी पसंद करते हैं। यह दून घाटी का प्रसिद्ध ट्रेकिंग क्षेत्र है। पौराणिक कथाओं के अनुसार यह मंदिर भगवान कृष्ण के बड़े भाई भगवान बलराम को समर्पित है। यहाँ भद्राज के रूप में बलराम जी की पूजा होती है।

 मंदिर का इतिहास

भगवान भद्राज को पछवादून ,मसूरी ,और जौनसार क्षेत्र के पशुपालकों का देवता माना जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार द्वापर युग में जब भगवान बलराम, ऋषि वेश में इस क्षेत्र से निकल रहे थे , तब उस समय इस क्षेत्र में पशुओं की भयानक बीमारी फैली हुई थी। ऋषि मुनि को आपने क्षेत्र से निकलता देख, लोगो ने उन्हें रोक लिया और पशुओं को ठीक करने का निवेदन करने लगे। तब बलराम जी ने उनके पशुओं को  ठीक कर दिया। लोगों ने उनकी जय जय कार की और यही रहने की विनती की तब बाबा ,कुछ समय उनके पास रुक गए। औऱ उनको आशीर्वाद दिया कि कलयुग में मैं यहाँ मंदिर में भद्राज देवता के नाम से  रहूंगा।

एक अन्य लोक कथा के अनुसार , इस क्षेत्र में द्वापर युग मे एक राक्षस ने बहुत आतंक मचाया था। लोगो को बहुत परेशान करता था। पछवादून, जौनपुर और सिलगाव पट्टी के लोग चौमासे ( चतुर्मास, बरसात के समय ) अपने पशुओं को लेकर दुधली की पहाड़ी पर चले जाते थे। परन्तु उस पहाड़ी पर राक्षस उनके पशुओं को खा जाता था। और पशुपालकों को भी परेशान करता था।

उस समय यहाँ से भगवान बलराम हिमालय जा रहे थे, तो लोगो ने उनसे मदद मांगी, तो बलराम जी ने उस राक्षस का वध कर दिया। और लोगों को आश्वासन दिया कि वे सदा इस क्षेत्र की तथा यहाँ के पशुओं की रक्षा और ध्यान रखेंगे।कहते हैं, भगवान बलभद्र आज भी उनके पशुओं की रक्षा करते हैं।

भद्राज़ मंदिर में शाम की आरती का मनमोहक दृश्य इस संशिप वीडियो के माध्यम से देखें :

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भद्राज मेला 2024

भद्राज मंदिर मसूरी में प्रत्येक वर्ष 15 अगस्त से 17 अगस्त के आस पास विशाल मेले का आयोजन होता है। दूर दूर से भक्त यहां पैदल आते हैं। भगवान भद्राज को दूध ,दही, मक्खन, और रोट का भोग  लगाया जाता है। और यहाँ सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होते हैं ।

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भद्राज मंदिर

जाने का सही समय

भद्राज मंदिर जाने का सही समय अप्रैल से शुरू होता है। गर्मियों में यहाँ जाने का सबसे अच्छा समय है। इसके अलावा 15 अगस्त से 17 अगस्त तक प्रतिवर्ष यहाँ पारम्परिक मेला लगता है। उस समय भी हजारों श्रद्धालु यहाँ आते हैं। मगर बरसात में ऊँची पहाड़ियों पर जाना रिस्की हो सकता है। इसलिए भद्राज मंदिर जाने का सही समय, गर्मियों में या बरसात के बाद  अक्टूबर या नवंबर होता है।

भद्राज मंदिर कैसे जाएं

भद्राज मंदिर जाने के लिए मसूरी से 10 से 15 किमी की दूरी तय करनी होती है। यह दूरी कार बाइक से या पैदल भी तय कर सकते हैं। भद्राज ट्रेक को यादगार और रोमांचक बनाने के लिए यह दूरी आप पैदल तय कर सकते हैं। यदि आपके पास समय है, तो एक दिन के इस ट्रैक को दो दिन में पूरा कर सकते हैं। पहले दिन दुधली गाँव पहुँच कर,वहा कैंपिंग का आनंद उठा, सकते हैं। प्रकृति की गोद मे बसा मसूरी का ये गाव अपने दूध दही के लिए प्रसिद्ध है।दूसरे दिन आप दुधली से आगे की यात्रा तय कर सकते हैं।

भद्राज मंदिर के लिए दूसरा रास्ता सहसपुर विकासनगर से जाता है। सहसपुर से मटोगी लांघा रोड तक गाड़ियां जाती हैं। वहाँ से लगभग 4 किलोमीटर का रास्ता पैदल तय करना पड़ता है। या विकासनगर कटा पत्थर 11 किमी तय करके मटोगी तक गाड़ी में वहाँ से आगे आपको पैदल। या आप पूरा भद्राज ट्रेक सहसपुर से पैदल तय कर सकते हैं। यह पैदल भी एक दिन में आसानी से तय हो जाता है। और देहरादून मसूरी आने के लिए, देश के सभी कोनो से, बस,ट्रेन और हवाई सेवा उपलब्ध है।

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माँ बाल सुंदरी मंदिर जिसका जीर्णोद्वार स्वयं मंदिरों को तोड़ने वाले क्रूर शाशक औरंगजेब ने करवाया था।

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ज्योतिपट्ट या ज्यूति पट्ट कुमाऊनी संस्कृति का एक अभिन्न अंग है

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ज्योतिपट्ट

आप अगर उत्तराखंड के कुमाऊँ क्षेत्र से सम्बंध रखते हो तो, जब आपके घर मे विवाह आदि शुभ कार्य होते हैं, तो मंदिर पर एक अलग सी फ़ोटो लगी रहती है। उसमें देवियों के चित्र और गणेश भगवान के चित्र ,के साथ पर्वत, पेड़, पुष्प आदि बने होते हैं। इस फोटो को पंडित जी अलग से पूजा के समान की लिस्ट में लिखते हैं। इसे ज्योति पट्टा या ज्योतिपट्ट कहा जाता है। पहले इसे मंदिर की दीवारों पर, गेरू और चावल के विस्वार (चावल पीस कर बना हुआ तरल) से अंकित करते थे। या कमेट से अंकित करते थे। वर्तमान में कागज पर छपे छपाये ज्योति पट्टा उपलब्ध हो गए है।अब उन्ही का प्रयोग किया जाता है।

उत्तराखंड कुमाऊँ में हर शुभ कार्य के लिए अलग ज्योति पट्टा  का प्रयोग किया जाता है। प्रस्तुत लेख में हम, कुमाऊनी शादी में प्रयुक्त होने वाले ज्योतिपट्ट के बारे में चर्चा करंगे।

ज्योति का तातपर्य , जीव माताएं – महालक्ष्मी, महासरस्वती, महागौरी से होता है। ज्योति पट्टा में इनका चित्रण ज्यामितीय आकारों में ना कर, मानवाकृतियों में किया जाता है। साथ मे भगवान गणेश का चित्रण भी किया जाता है। ज्योतिपट्ट कि रचना, घर की दीवारों पर या कागज पर की जाती है। पहले मंदिर की दीवार पर ज्योति पट्ट की रचना की जाती थी। वर्तमान में सुविधाएं होने के बाद , ज्योतिपट्ट का मुद्रण कागज में होने लगा है।

ज्योतिपट्ट
फ़ोटो मीनाक्षी खाती ऐपण गर्ल

पहले समय मे घर की दीवार पर इसे बनाने की तैयारी पहले से की जाती थी। दीवारों को चिकना कर लिया जाता था,और उस पर लाल गेरू से पट्टी का आकार बना लिया जाता था ।उसके बाद चावल का विस्वार ( पिसे चावल का घोल ) या कमेट ( एक पाकर का चूना ) के घोल बनाया जाता था। गेरू दीवार पर सूखने के बाद, एक सिंक पर रुई लपेट कर ,बारीक बिंदुओं से ज्योतिपट्ट का खाका भरा जाता था। ज्योति पट्टा के ऊर्ध्व भाग में सफेद त्रिकोण, अन्य ज्यामितीय आकार और पूजा प्रतीक चिन्हों की पुनरावृत्ति से जो बेले बनाई जाती, उन्हें हिमांचल कहते हैं।

उसके नीचे बरबून्द अलंकरण के कई पैटर्नों की पुनरावृत्ति से बेलें बनी होती हैं। बीच बीच मे सुवा, सारंग पक्षियों और वृक्षों का प्रतिकात्मक चित्रण होता है।इन्ही के ठीक मध्य में जीव मात्तृकाएँ – महाकाली, महालक्ष्मी , महासरस्वती और श्री गणेश चित्रित किये जाते हैं।

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इस पूरी रचना को सफेद , लाल,हरा पिला और नीला रंगों से पूर्ण किया जाता है। यहाँ सफेद रंग हिमालय का प्रतीक है। इसका प्रयोग हिमांचल बार्डर बनाने में किया जाता है। हरा रंग हरियाली,और खुशहाली का प्रतीक माना गया है। वृक्षों और अन्य अलंकृत मानव आकृतियों का प्रयोग भी ज्योतिपट्ट में किया जाता है। बीच बीच मे आमने सामने झुकी हुई दी स्त्रियों जैसी आकृतियों की पुनरावृत्ति होती है, जिनके मुख स्थान पर तांत्रिक पुष्पाकर्ति बनाई जाती है।

“इस लेख का संदर्भ डॉ सरिता शाह की पुस्तक ,उत्तराखंड में आध्यात्मिक पर्यटन, मंदिर एवं तीर्थ से लिया गया है।”

मुख्यमंत्री नैनो स्वरोजगार योजना – इस योजना में 50% सब्सिडी के साथ सरकार देगी ऋण

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मुख्यमंत्री नैनो स्वरोजगार योजना

उत्तराखंड पहाड़ी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में स्वरोजगार को बढ़ावा देने के लिए उत्तराखंड सरकार मुख्यमंत्री नैनो स्वरोजगार योजना शुरू करने वाली है। इस योजना को मुख्यमंत्री अतिसूक्ष्म (नैनो) स्वरोजगार योजना नाम दिया है।

इस योजना के अनुसार उत्तराखंड पर्वतीय क्षेत्रों में छोटे छोटे स्वरोजगार करने वालों को ,उत्तराखंड सरकार क्षेत्र के हिसाब से सब्सिडी देगी।

इस योजना में उत्तराखंड सरकार की तरफ से नया अपडेट आया है। अब सरकार ने एक शाशनदेश जारी कर ऋण की सीमा बढ़ा कर 50 हजार कर दी है। और अनुदान क्षेत्र के हिसाब से दिया जाएगा। इस योजना के तहत ऋण के लिए किसी भी प्रकार के कागज गिरवी नही रखें जाएंगे।

शहरी क्षेत्रों में स्ट्रीट वेंडर ( रेहड़ी) और फड़ लगाने वालों ,तथा फेरी लगा के समान बेचने वालों के लिए केंद्र सरकार ने स्ट्रीट वेंडर आत्मनिर्भर योजना शुरू की है। इसी तर्ज पर उत्तराखंड सरकार ने लघु व्यवसायों के माध्य्म से पर्वतीय लोगो के लिए मुख्यमंत्री नैनो योजना तैयार की है।

2020 – 2021 में कोरोना की मार से कई लोगो की नौकरी चली गई ,और लोग पहाड़ो को लौट आये हैं। पहाड़ वापस आने के बाद लोगो के लिए आजीविका का संकट खड़ा हो गया है। मुख्यमंत्री नैनो स्वरोजगार योजना ऐसे लोगो को मदद करेगी।

क्या लाभ मिलेगा मुख्यमंत्री नैनो स्वरोजगार योजना का

उत्तराखंड उद्योग निदेशक  सुधीर चंद्र नौटियाल जी के अनुसार , मुख्यमंत्री अतिसूक्ष्म ( नैनो ) स्वरोजगार योजना को जल्दी लागू कर दिया जाएगा। इसके लिए पूरी तैयारियां हो गई हैं। इस योजना के अंतर्गत लघु व्यवसाय करने के लिए उत्तराखंड सरकार अधिकतम 50000 रुपये तक का ऋण प्रदान करेगी। इस 50000 मे से सरकार क्षेत्र के हिसाब से सब्सिडी प्रदान करेगी।

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मुख्यमंत्री नैनो स्वरोजगार योजना के तहत कौन कौन से व्यवसाय शुरू कर सकते हैं –

उत्तराखंड सरकार की इस स्वरोजगार योजना के तहत निम्नलिखित व्यसाय शुरू कर सकते हैं। या इन व्यवसायों को शुरू करने के लिए मिलेगी मुख्यमंत्री नैनो योजना के तहत 50000 की धन राशि –

  • सब्जी फल व्यवसाय
  • फास्टफूड , चाय स्टाल , पकोड़े ब्रेड ,अंडे की स्टाल
  • प्लम्बर ,टेलर कार्य के लिए
  • मोबाईल रिपेयर कार्य के लिए
  • ब्यूटीशियन कार्य हेतु
  • इम्ब्रॉइडरी एवं सिलाई बुनाई कार्य हेतु।
  • बुक बॉन्डिंग, स्क्रीन प्रिंटिंग हेतु
  • पेपर मैच, क्राफ्ट, धूप एवं अगरबत्ती निर्माण के लिए।
  • रिगाल के कार्य, पेपर बैग निर्माण के लिए।
  • मोमबत्ती व्यवसाय के लिए
  • मशरूम उत्पादन के लिए
  • मशीन रिपेयर, कार वाश कार्य के लिए।
  • डेयरी व्यवसाय
  • बेकरी व्यसाय
  • कारपेंटर, लोहार के व्यवसाय
  • फूल विक्रेता

इसी प्रकार अन्य कई छोटे छोटे व्यवसायों के लिए उत्तराखंड सरकार 50000 तक का ऋण प्रदान करेगी।

इस योजना के लिए जिलाधिकारी की अध्यक्षता में बनेगी समिति –

मुख्यमंत्री अतिसूक्ष्म स्वरोजगार योजना को सही रूप से क्रियान्वित करने के लिए, जिलास्तरीय समिती बनेगी इसकी अध्यक्षता , संबंधित जिले के जिला अधिकारी करेंगे। इसके साथ साथ, इस समिति में मुख्य विकास अधिकारी, जिला अग्रणी बैंक के प्रबंधक, जिला महाप्रबंधक उद्योग, राष्ट्रीकृत बैंकों के प्रतिनिधि, खंड विकास अधिकारी, उद्योग विभाग की ओर से नामितसंस्था के प्रतिनिधि होंगे।

उत्तराखंड में स्वरोजगार के विकल्प से संबंधित हमारी अन्य लेख देखे :- 

खबर संदर्भhttps://www.amarujala.com/dehradun/uttarakhand-news-government-increase-loan-amount-for-small-traders?pageId=1

अजय कोठियाल – केदारनाथ आपदा से 2022 के उत्तराखंड विधानसभा चुनाव तक

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अजय कोठियाल

कर्नल अजय कोठियाल जी के बारे मे –

  • नाम – अजय कोठियाल
  • जन्म – 26 फरवरी 1969
  • जन्मस्थान – टिहरी गढ़वाल उत्तराखंड
  • पिता – श्री सत्यसरण कोठियाल ( ret. इंस्पेक्टर जनरल BSF )
  • माता – स्व श्रीमती सुशीला कोठियाल
  • पत्नी -कर्नल अजय कोठियाल  अविवाहित हैं।
  • व्यवसाय ( नौकरी ) – भारतीय सेना में कर्नल के    पद पर ( 1992 से 2017 ) , नेहरू पर्वतारोहण संस्थान के प्रधानाचार्य के रूप में भी कार्य किया
  • अन्य कार्य – यूथ फाउंडेशन के निर्माता
  • सम्मान – कीर्ति चक्र , शौर्य चक्र, विशिष्ट सेवा मेडल
  • वेबसाइट –http://youthfoundationuttarakhand.org/index.html

जन्म ( Birth ) –

अजय कोठियाल का जन्म 26 फरवरी 1969 को टिहरी जिले में हुवा था। कर्नल अजय कोठियाल के पिता श्री सत्यसरण कोठियाल BSF में इंस्पेक्टर जनरल के पद पर थे। इनकी माता का नाम स्व श्रीमती सुशीला कोठियाल था।

 अजय कोठियाल की शिक्षा – दीक्षा –

अजय कोठियाल की प्रारम्भिक शिक्षा St.Josephs Academy, Dehradun तथा Brightlands school  एवं केंद्रीय विद्यालय से हुई। DAV  कॉलेज देहरादून से इन्होंने परास्नातक की डिग्री हासिल की। तथा आगे की ट्रेनिंग इन्होंने भारतीय सैन्य संस्थान देहरादून ( Indian military academy ) देहरादून से पूर्ण की।

 कर्नल अजय कोठियाल  का सैन्य जीवन –

DAV देहरादून से परास्नातक पूर्ण करने के बाद अजय कोठियाल ने सम्मिलित रक्षा सेवा परीक्षा ( Combined Defence Services exam ) पास करके देहरादून सैन्य अकादमी से ट्रेनिंग लेकर 1992 में गढ़वाल राइफल्स की की चौथी बटालियन में सेकेंड लेफ्टिनेंट के रूप में शामिल हुए। सन 1994 में कर्नल कोठियाल ने High Altitude Warfare School ( HAWS ) से बेसिक माउंटेन वारफेयर का प्रशिक्षण लिया। बिग्रेडियर कृष्ण कुमार के नेतृत्व में , 2001 में एवरेस्ट पर्वत पर सफलता पूर्वक चढ़ाई करने वाली ,भारतीय सेना में कर्नल कोठियाल भी शामिल थे।

12 मई 2003 को भारतीय सेना ने मेजर कोठियाल के नेतृत्व में , पुलवामा जिले में अपनीं पहली सर्जिकल स्ट्राइक की थी, जिसमे 7 आतंकवादी मारे थे। इस ऑपरेशन में वे घायल भी हो गए थे। इस वीरता के लिए मेजर कोठियाल को कीर्ति चक्र से सम्मानित किया गया। और 9 मई  2011 को मेजर कोठियाल ने दुनिया की आठवीं सबसे ऊंची माउंट मानसूल पर भारतीय ध्वज लहराया। इससे पहले इस चोटी पर किसी भारतीय ने चढ़ाई नही की थी। इस विशेष कार्य के लिए अजय कोठियाल को विशिष्ट सेवा पदक से सम्मानित किया गया।

2012 में, कर्नल अजय कोठियाल ने भारतीय सेना की 07 महिला अधिकारियों की टीम के साथ , सफलता पूर्वक दुनिया की सबसे ऊंची चोटी एवरेस्ट पर दूसरी बार सफल चढ़ाई  की। इसके लिए तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा सिंह पाटिल ने उन्हें शौर्य चक्र से सम्मानित किया था।

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अजय कोठियाल

कर्नल अजय कोठियाल का  सामाजिक जीवन –

सन 2013 में उत्तराखंड में विनाशकारी केदारनाथ आपदा के बाद केदारनाथ क्षेत्र एकदम तहस नहस हो गया था। केदारनाथ  क्षेत्र के पुर्ननिर्माण और उसके पुराने रूप के साथ, इस कार्य मे  कोठियाल जी का महत्वपूर्ण भूमिका रही है। कर्नल कोठियाल और उनकी टीम के भगीरथ प्रयासों से ,आज केदारनाथ अपने पुराने रूप में खड़ा है।

केदारनाथ के पुनर्निर्माण के दौरान कर्नल कोठियाल ने अपनी मदद के लिए , पास के गांव के कुछ युवकों को अपनी टीम में शामिल किया था। तब वहां के स्थनीय निवासियों ने उनसे कहा कि आप सेना में अच्छे पद पर है, आप हमारे बच्चों के सेना में भर्ती करने में मदद कीजिये।

तब कर्नल कोठियाल को लगा, कि पहाड़ के युवकों में सेना में जाने का जज्बा है, लेकिन उचित प्रशिक्षण की कमी है। इस कमी को पूरा करने के लिए, एक प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू किया। इस प्रशिक्षण कार्यक्रम के पहले  बैच में केवल 11  बच्चे थे। और वे सारे बच्चे सेना में भर्ती हो गए।

2015 में कर्नल अजय कोठियाल ने अपने इस प्रशिक्षण कार्यक्रम को युथ फाउंडेशन के नाम से पंजीयन करा किया।

युथ फाउंडेशन के माध्यम से अब तक कर्नल कोठियाल कई युवाओ को फ़ौज और अर्धसैनिक बलों  में भर्ती करा चुके है। केदारनाथ पुनर्निर्माण के दौरान , कर्नल अजय कोठियाल नेहरू पर्वतारोहण संस्थान में प्रिंसीपल के पद पर भी रहे।।

यूथ फाउंडेशन के माध्य्म से सामाजिक कार्यों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए, कर्नल अजय कोठियाल ने 2018 में स्वेच्छिक सेवानिवृत्ति ( VRS ) ले ली।

कर्नल कोठीयाल के समर्थक युवा उन्हें प्यार से भोले का फौजी ( bhole ka fouji ) भी बोलते हैं।

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राजनीतिक सफर –

सन 2021 में कर्नल कोठियाल ने अपना राजनीतिक सफर शरू किया है। कर्नल अजय कोठियाल ने 21 अप्रैल 2021 को रामनवमी के दिन ,आम आदमी पार्टी का हाथ थाम लिया। वर्तमान में आम आदमी के मुख्य चेहरे के रूप में अपने राजनीतिक सफर को आगे बढ़ा रहे हैं।

गढ़वाली भजन – दैणा होया मोरी का गणेशा लिरिक्स व जानकारी।

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गढ़वाली भजन

मित्रो आज के लेख में हम आपके लिए एक खास  गढ़वाली भजन या गढ़वाली माँगल गीत के बोल एवं वीडियो ऑडियो  लाएं है। इस गीत के रचियता गायक गढ़रत्न श्री नरेन्द्र सिंह नेगी जी हैं। और इस गढ़वाली जागर, गढ़वाली भजन  की कुछ लाइनों का प्रयोग , उत्तराखंड के सभी गायक अपना कार्यक्रम शुरू होने से पहले करते हैं। तो आइए शुरू करते हैं  गढ़वाली जागर!

ॐ प्रभात को पर्व जाग …
गौ स्वरूप पृथ्वी  जाग…
उंदकारी काठा जाग ….
भानू पंखी गरुड़ जाग….
सप्तलोक जाग …….
इंद्रा लोक जाग …..
मेघ लोक जाग…
सूर्य लोक जाग …
चंद्र लोक जाग …
तारा लोक जाग…
पवन लोक जाग….
ब्रह्मा जी को वेद जाग…
गौरी को गणेश जाग …
हरू भरु संसार जाग …
जीव जाग , जीवन जाग …
सेतु समुद्र जाग ….
खारी समुद्र जाग, खेराणी जाग ….
घोर समुद्र जाग , अघोर समुद्र जाग…
प्रचंड समुंद्र जाग…..
श्वेत बंधु रामेश्वर जाग …..
हूं हिवालु जाग , पाणी पयालु जाग …
बाला बैजनाथ जाग , धोली देवप्रयाग जाग …
हरि कु हरिद्वार जाग ……
काशी विश्वनाथ जाग …..
बूढ़ा केदारनाथ जाग ….
भोला शम्भूनाथ जाग ….
काली कुमाऊं जाग ….
चोपड़ा , चौथाण जाग ….
खटिम कु लिंग जाग …
सोबन की गादी जाग ….
दैणा होया खोली का गणेशा हो…..
दैणा होया मोरी का नरेणा हो ….
दैणा होया खोली का गणेशा हो…
दैणा होया मोरी का नरेणा हो ….
दैणा होया भूमि का भूम्याला हो….
दैणा होया पंचनामा देवा हो…..
दैणा होया नौ खोली का नाग हो ….
दैणा होया नौखंडी नरसिंगा हो ..

गायक एवं लेखक –“इस गढ़वाली भजन  के लेखक , गायक उत्तराखंड गढ़वाली  लोक संस्कृति, लोक संगीत के पुरोधा , गढ़रत्न श्री नरेन्द्र सिंह नेगी जी हैं। श्री नेगी जी द्वारा रचित यह गढ़वाली माँगल गीत, भजन, गढ़वाली जागर , उत्तराखंड लोक संस्कृति के इतिहास में शुभारम्भ गीत के तौर पर सदा सदा के लिए अमर हो गया है।

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श्री नरेन्द्र सिंह नेगी जी द्वारा रचित इस गढ़वाली माँगल गीत का वीडियो देखने हेतु यहां क्लिक करें।

श्री देव सुमन का जीवन परिचय | श्री देव सुमन जयंती पर निबंध

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श्री देव सुमन

अमर बलिदानी श्री देव सुमन की जीवन गाथा।

नाम :- श्री देव सुमन
पिता का नाम – हरिराम बडोनी
माता का नाम – श्रीमती तारा देवी
पत्नी – श्रीमती विनय लक्ष्मी सकलानी
जन्मतिथि – 25 मई 1916
जन्म स्थान – ग्राम – जौल , टिहरी गढ़वाल उत्तराखंड
कार्य – स्वतंत्रता सेनानी
मृत्यु – 25 जुलाई 1944

श्रीदेव सुमन जी राजशाही के विरुद्ध आंदोलन करके शाहिद होने वाले , उत्तराखंड के पहले आंदोलनकारी थे। आइये जानते है श्रीदेव सुमन जी के बारे में –

श्री देव सुमन जी का प्रारम्भिक जीवन –

श्री देव सुमन जी का जन्म टिहरी गढ़वाल के जौल नामक ग्राम में 25 मई 1916 को  हुवा था। इनके पिता श्री हरिराम बडोनी अपने क्षेत्र के लोकप्रिय वैध थे। माता श्रीमती तारा देवी एक कुशल गृहणी थी। श्रीदेव सुमन का बचपन का नाम श्रीदत्त बडोनी था। सन 1919 में हैजे का प्रकोप फैलने पर श्री हरिराम बडोनी मरीजों सेवा करते, स्वयं हैजे का शिकार हो गए और 36 साल की उम्र में ही चल बसे।

मगर इनकी माता ने अपने बच्चों का लालन पालन इनकी आरम्भिक शिक्षा अपने पैतृक गांव व चम्बाखाल में हुई। 1931 में इन्होंने टिहरी से हिंदी मिडिल की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1931 में ये देहरादून गए और वहाँ के नेशनल स्कूल में अध्यापन कार्य शुरू कर दिया,और साथ साथ मे पढ़ाई भी करते रहते थे। पंजाब विश्वविद्यालय से इन्होंने रत्न,भूषण,प्रभाकर परीक्षाओं को उत्तीर्ण किया। इसके साथ साथ ,विशारद और साहित्य रत्न की परीक्षा भी उत्तीर्ण जी थी।

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श्री देव सुमन जी की, साहित्यिक जीवन यात्रा –

श्री देव सुमन ने 1937 में सुमन सौरभ नाम से अपनी कविताएं प्रकाशित कराई। इन्होंने अखबार हिन्दू और समाचार पत्र धर्मराज्य में भी कार्य किया । इन्होंने इलाहाबाद में राष्ट्र मत नामक अखबार में सहकारी संपादक के रूप में कार्य किया। इस प्रकार श्री देव सुमन साहित्य के क्षेत्र में निरंतर आगे बढ़ने लगे। जनता की सेवा के उद्देश्य से इन्होंने 1937 में की स्थापना की । यह आगे चलकर हिमालय सेवा संघ के नाम से प्रसिद्ध हुवा।

श्री देव सुमन

श्री देव सुमन जी की सामाजिक जीवन यात्रा

राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन टिहरी रियासत के विरुद्ध आंदोलन 1938 में श्रीदेव सुमन गढ़वाल की यात्रा पर गए। उन्होंने श्रीनगर में राजनैतिक सम्मेलन में भी शामिल हुए। इस सम्मेलन में नेहरू जी भी आये थे, और इन्होंने गढ़वाल की खराब स्थिति के बारे में नेहरू जी को भी अवगत कराया।

इसी राजनैतिक सम्मेलन से इन्होंने गढ़वाल की एकता का नारा मजबूत किया। श्रीदेव सुमन ने जगह जगह यात्रा करके जंन जागरण फैलाना शुरू कर दिया। 23 जनवरी 1939 की देहरादून में टिहरी राज्य प्रजा मंडल की स्थापना की गई , और श्रीदेव सुमन जी संयोजक मंत्री चुने गए। हिमालय सेवा संघ द्वारा पर्वतीय राज्यों जाग्रति और चेतना लाने का काम किया। लैंड्सडाउन से प्रकाशित होने वाली पत्रिका, कर्मभूमि से इन्होंने सहसंपादक के रूप में कई जन जागृति के लेख लिखे।

इसके बाद इन्होंने हिमांचल नामक पुस्तक छपवाकर टिहरी रियासत में बटवाई, जिससे ये रियासत के नजर में आ गए। रियासत ने इन्हें कई प्रकार के प्रलोभन भी दिए। मगर इनके नही बदले।

1942 अगस्त में जब भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ , तब इनको 29 अगस्त 1942 को देवप्रयाग में गिरफ्तार कर, 10 दिन तक मुनिकीरेती जेल भेज दिया। बाद में 06 सिंतबर 1942 को देहरादून जेल भेज दिया ,वहाँ से इनको आगरा जेल में शिप्ट किया गया। 15 माह जेल में रहने के बाद 19 नवंबर 1943 को ये रिहा हुए।

इसी बीच टिहरी रियासत ने टिहरी की जनता के ऊपर जुल्मों की सारी हदें पार की थी। श्रीदेव सुमन टिहरी की जनता के अधिकारों के लिए अपनी आवाज बुलंद करने लगे। इन्होंने जनता और रियासत के बीच सम्मान जनक संधि का प्रस्ताव भी दरवार को भेजा। लेकिन रियासत ने अस्वीकार कर दिया।

भारत रत्न से सम्मानित पंडित गोविंदबल्लभ पंत जी की जीवनी पढ़ने के लिए क्लिक करें।

29 दिसंबर 1943 को श्री देव सुमन को चम्बाखाल में गिरफ्तार करके, 30 दिसम्बर को  टिहरी जेल भिजवा दिया गया। टिहरी जेल में श्री देव सुमन जी के साथ, नारकीय व्यवहार किया गया, इनके ऊपर झूठा मुकदमा चला कर 31जनवरी 1944 को, इन्हें 2 साल का कारावास  और 200 रुपया दंड देकर इन्हें अपराधी बना दिया गया। इसके बाद भी इनके साथ नारकीय व्यवहार होते रहे। अंत मे श्री देव सुमन ने 3 मई 1944 को ऐतिहासिक आमरण अनशन शुरू कर दिया।

जेल प्रशासन ने इनका मनोबल डिगाने के लिए, कई मानसिक और शारिरिक अत्यचार किये, लेकिन ये अपनी अनशन पर डिगे रहे। जेल में इनके अनशन की खबर से जनता परेशान हो गई, लेकिन रियासत ने अफवाह फैला दी की श्रीदेव सुमन जी ने अपना अनशन समाप्त कर दिया है, और राजा के जन्मदिन पर इनको रिहा कर दिया जाएगा। यह खबर इनको को भी मिल गई, उन्होंने कहा कि वे प्रजामंडल को रेजिस्ट्रेड किये बिना मैं अपना अनशन खत्म नही करूँगा।

श्री देव सुमन की मृत्यु –

अनशन से इनकी हालत बिगड़ गई, और जेलप्रशाशन ने अफवाह फैला दी कि इनको न्यूमोनिया हो गया। इसके बाद इनको कुनेन के इंजेक्शन लगाए गए। कुनेन के इंजेक्शन के साइड इफेक्ट से इनके शरीर मे खुश्की फैल गई, जिसकी वजह से ये पानी के लिए तड़पने लगे, श्रीदेव सुमन पानी पानी चिल्लाते रहे ,लेकिन किसी ने इनको पानी नही दिया।

अंततः तड़पते तड़पते और रियासत के जुल्मों से लड़ते हुए इन्होंने 25 जुलाई 1944 को ,अपने देश के लिए , अपने राज्य उत्तराखंड के लिए अपनी पहाड़ी संस्कृति के लिए अपने प्राण त्याग दिए।

श्री देव सुमन की शहादत की खबर से जनता में एकदम उबाल आ गया, जनता ने रियासत के खिलाफ खुल कर विद्रोह शुरू कर दिया। जनता के इस आंदोलन के बाद टिहरी रियासत को प्रजामंडल को वैधानिक करना पड़ा। मई 1947 में टिहरी प्रजामंडल का पहला अधिवेशन हुवा। जनता ने 1948 में टिहरी, देवप्रयाग और कीर्तिनगर पर अपना अधिकार कर लिया।  और अंततः 01 अगस्त 1949 को टिहरी गढ़वाल राज्य , भारत गणराज्य में विलीन हो गया।

हमें गर्व हैं श्री देव सुमन और उनकी शहादत पर , मात्र 29 वर्ष की छोटी सी उम्र में श्रीदेव सुमन अपने राज्य, अपने पहाड़ी समाज अपने टिहरी गढ़वाल और अपने देश के लिए ऐसा कार्य कर गए , जिससे उनका नाम इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में सदा सदा के लिए अमर हो गया।

 

श्री देव सुमन का जीवन परिचय | श्री देव सुमन जयंती पर निबंध

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अनीशा रांगड़ उत्तराखंड की लोकगायिका का जीवन परिचय

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अनीशा रांगड़ उत्तराखंड लोकगीत संगीत क्षेत्र की उभरती हुई युवा गायिका है। उन्होंने 21 वर्ष उम्र में ही उत्तराखंड लोकसंगीत के क्षेत्र में अपनी एक अलग पहचान बना ली है। छोटी सी उम्र में अनीशा की गायकी के लाखों चाहने वाले हैं। आइये जानते हैं अनीशा रांगड़ के बारे में –

प्रारम्भिक जीवन –

मूल रूप से उत्तराखंड टिहरी गढ़वाल के क्यारी गाँव से संबंधित अनिशा रांगड़ का परिवार वर्तमान में डालनवाला ऋषिकेश देहरादून में रहता है। यही 1 अक्टूबर 2000 को माता श्रीमती बीना देवी और पिता श्री किशोर सिंह रांगड़ जी के घर मे अनीशा का जन्म हुआ । इनके पिता वाहन चालक का काम करते हैं, और माता गृहणी  है । निम्न माध्य्म वर्ग के परिवार से आने के बाद भी ,पिता श्री किशोर सिंह रांगड़ ने अपने बच्चों के लिए कोई कमी नही की। अनीशा से छोटी 3 बहिने और एक भाई भी है।

अनीसा की प्राम्भिक शिक्षा श्री लाल बहादुर शास्त्री जूनियर हाईस्कूल , ऋषिकेश में सम्पन्न हुई। उसके बाद 10वी की परीक्षा THDC हाईस्कूल ऋषिकेश से पास की । अनीशा ने 12वी कि परीक्षा राजकीय कन्या इंटर कालेज ऋषिकेश से पास की।

उच्च शिक्षा के तौर पर अनीसा ने विज्ञान वर्ग बैचलर ऑफ साइंस की परीक्षा 2020 में पास की है।

अनीशा गीत संगीत के साथ साथ सरकारी नौकरी की तैयारी के लिए अध्ययन भी कर रही है।

गढ़वाली और कुमाउनी प्रशिद्ध लोक कहावतों का आनन्द लेने के लिए यहां क्लिक करें।

अनीसा का गढ़वाल उत्तराखंड प्रसिद्ध गायिका बनने का सफर-

आज अनीशा उत्तराखंड की फेमस सिंगर है। अनीशा रांगड़ ( Anisha Ranghar ) कुमाउनी ,गढ़वाली और जौनसारी में गाने गाती है। अनीशा का मूल गायकी क्षेत्र गढ़वाली लोक गीत है। गढ़वाली लोक गायिका के रूप में अनीशा के अनेकों गीत रिलीज हो गए है। अनीशा ने 400 से अधिक गीतों में अपनी मधुर आवाज दी है।

अनीशा के गायकी का सफर बेहद संघर्षरत रहा। अनीशा बताती है कि उनकी माता जी को गायकी का बहुत शौक था, औऱ बहुत अच्छा गा लेती हैं, लेकिन पारिवारिक परिस्थितियों में वो अपना शौक पूरा नही सकी, मगर उन्होंने खुद को अपनी बड़ी बेटी अनीशा में देखा, और अनीशा को भी गीत गायन सिखाया। इसके बाद अनीशा अपने स्कूलों में भी गीत संगीत प्रतियोगिता में भाग लेने लगी, और बाहर भी छोटे छोटे संगीत प्रोग्राम करने लगी

एक दिन किसी के माध्यम से उनकी मुलाकात, सोहनपाल रावत से हुई , सोहनपाल को अनीशा की गायकी अच्छी लगी ,और उन्होंने साज स्टूडियो देहरादून में,एक गाना रिकॉर्ड करने बुलाया। साज स्टुडियो में अनीशा रांगड़  की मुलाकात , गढ़वाली लोक गीतों के प्रसिद्ध गायक केशर पंवार जी से हुई,वो भी अनीशा की गायकी सुन तारीफ किये बिना नही रह सके।

अनीसा रांगड़ का पहला गीत केशर पंवार जी  खिलकेरियाँ प्राण था।  केशर पंवार और अनीशा रांगड़ का तीसरा गाना कैन भरमाई  काफी प्रसिद्ध हुवा , कैन भरमाई , कोदू झंगेरु राठी , एक गढ़वाली भाषा का गीत है। इस गीत के सुपरहिट होने के बाद , अनीशा रांगड़ ने पीछे मुड़ कर नही देखा। एक के बाद सुपर हिट गढ़वाली गीत देते चली गई ।

अनीशा रांगड़ और केशर पंवार का सुपरहिट गढ़वाली गीत “छल कपट ” को अभी तक 2 करोड़ 60 लाख vews मिल चुके हैं। अनीशा रांगड़ के फेसबुक पेज को फेसबुक कंपनी ने ब्लू टिक दिया है।

अनीशा रांगड़ गढ़वाली गीतों की एक प्रसिद्ध उभरता हुआ सितारा है। अनीशा रांगड़ के गीतों को देश की कई म्यूजिक एप्प्स कंपनियों ने अपने अपने एप्स में स्थान दिया है।

कुमाऊँ के प्रसिद्ध देवता गंगनाथ देवता की कहानी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

अनीशा रांगड

अनीशा रांगड़ के प्रसिद्ध गढ़वाली गीत –

अनीशा  ने अभी तक लगभग 400 से अधिक पहाड़ी गीत गाये हैं। यहाँ उनके कुछ प्रसिद्ध  गढ़वाली गीतों की सूची दे रहें हैं।

  • छल कपट
  • काजल काजल
  • कैन भरमाई
  • हुलिया 6 नंबर पुलिया
  • पिंक प्लाजो
  • द्वी रति को जप
  • नथुली
  • स्वनिलु मुलुक
  • गजरा
  • मैं छू नोनी पौड़ी की
  • बामणी का पांडा जी
  • कंधी बंदूक
  • देहरादून वाली
  • मेरी बेऊ की रस्याण

अनीशा रांगड़ के नए गढ़वाली गीत

  • रात खुली
  • काली टिक्की

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बुद्धा टेम्पल देहरादून में घूमने लायक प्रसिद्ध दार्शनिक एवं आध्यात्मिक स्थल है

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बुद्धा टेम्पल देहरादून

बुद्धा टेम्पल देहरादून

वैसे तो देहरादून में घूमने लायक बहुत अच्छे स्थान हैं। मगर यदि आप देहरादून में कुछ अलग ढूढ़ रहे हैं, तो आपके लिए देहरादून का प्रसिद्ध बुद्ध मंदिर सबसे अच्छा विकल्प रहेगा। इसे सामान्य प्रचलित भाषा मे देहरादून का बुद्धा टेम्पल कहते हैं। यहाँ आकर आपको आध्यात्मिक शांति का अनुभव होगा और, बौद्ध कला और स्थापत्य कला का यह मंदिर बेजोड़ नमूना है।

देहरादून क्लेमनटाउन में स्थित बुद्धा टेम्पल का निर्माण 1965 में शुरू हुआ था, और इसके निर्माण को लगभग  3 साल लगे थे। इस प्रसिद्ध बुद्ध मंदिर का निर्माण कोहेन रिनपोछे नामक बौद्ध भिक्षु ने अन्य भिक्षुओं के साथ मिलकर कराया था। देहरादून के इस प्रसिद्ध बौद्ध मठ की वास्तुकला मूलतः जापानी वास्तुकला से प्रेरित है।

बुद्धा टेम्पल (Buddha temple) एशिया का सबसे बड़ा रोलिंग मिन्ड्रोलिंग मोनेस्ट्री (Mindroling Monastery) भी कहते हैं। अर्थात एशिया का सबसे बड़ा बौद्ध मठ है। यहाँ विश्व के सबसे बड़े बौद्ध स्तूपों में से एक प्रसिद्ध स्तूप स्थित है। इस बौद्ध स्तूप का निर्माण 28 अक्टूबर 2002 में किया गया था। यह बुद्धा टेम्पल दो एकड़ के बाग में फैला हुआ है। इस बौद्ध मठ की ऊंचाई 185 वर्ग फुट और चौड़ाई 100 फुट है। यह  मिन्ड्रोलिंग मठ विश्व के 6 प्रसिद्ध मिन्ड्रोलिंग मठो मे से एक है। यह मठ तिब्बती सम्प्रदाय के चार प्रमुख विद्यालयों में से एक है, इसे निगमा भी कहते हैं। तिब्बती सम्प्रदाय के अन्य तीन स्कूलों को क्रमशः शाक्य ,काजुयू, तथा गेलुक कहा जाता है।

बुद्धा टेम्पल देहरादून में भगवान बुद्ध की 103 फ़ीट की मूर्ति प्रमुख आकर्षण का केंद्र है। भगवान बुद्ध की मूर्ति के साथ गुरु पद्मसंभव जी की मूर्ति भी स्थापित है।  इस बुद्ध मंदिर में लगभग 500 बौद्ध लामा शिक्षा दीक्षा प्राप्त करते हैं। यह बुद्ध मंदिर पांच मंजिला मंदिर है। पहले 3 मंजिलों पर , भगवान बुद्ध के जीवन से संबंधित चित्रकारी तथा, तिब्बती धर्म से संबंधित कला कारी की गई है। इन चित्रों को 50 कलाकारों ने मिलकर बनाया है।

बुद्धा टेम्पल देहरादून का आकर्षण का केंद्र इसकी चौथी मंजिल है। यहाँ से आप देहरादून शहर की खूबसूरती को 360 के कोण से देख सकतें हैं। वर्तमान में बुद्ध मंदिर देहरादून की चौथी मंजिल पर जाना प्रतिबंधित कर दिया गया है। मगर इसके अलावा भी इस प्रसिद्ध बुद्धा टेम्पल में करने के लिए बहुत कुछ है। 2020 में यहाँ कांच के म्यूजियम में गाड़ी में बैठे, तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा की मूर्ति लगाई है। बताया गया कि हिमाचल प्रवास के दौरान इस कार का प्रयोग करते थे, इस पर नंबर भी हिमाचल का ही है।

बुद्धा टेम्पल देहरादून

इसे भी पढ़े – रानीख़ेत उत्तराखंड  का प्रसिद्ध हिल स्टेशन

बुद्धा मंदिर देहरादून में की जाने वाली गतिविधियां –

देहरादून में घूमने लायक प्रसिद्ध स्थानों में से बुद्धा टेम्पल देहरादून ( Buddha temple Dehradun ) सबसे बेस्ट लगता है। यहाँ आकर आप निम्नलिखित गतिविधियों द्वारा बुद्ध मंदिर देहरादून में आनन्द ले सकते हैं।

  • बुद्ध मंदिर देहरादून एक मधुर और आध्यात्मिक शांति वाला स्थल है। यहाँ आकर मन मे सुकून मिलता है।
  • यह मंदिर अपनी अदभुत स्थापत्य कला के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ की स्थापत्य कला जापानी कला से प्रेरित है। यहां आप इस प्रसिद्ध स्थापत्य कला और चित्रकला का आनन्द ले सकते हैं।
  • यह बौद्ध मठ रोलिंग मठ के नाम से प्रसिद्ध है, यहाँ बड़े बड़े रोलर लगे हैं, जिनको घुमा कर आप भगवान बुद्ध से जीवन मे सुख और शांति की कामना कर सकते हैं।
  • बुद्धा टेम्पल देहरादून में आप प्रसिद्ध तिब्बती भोजन विशेष मोमोज, चाउमीन और थोप्पा और अन्य पकवानों का आनन्द ले सकते हैं।
  • बुद्ध मंदिर देहरादून से आप तिब्बती समान, कपड़े, सजावट की चीजे खरीद सकते हैं।

उत्तराखंड की एक ऐसी परम्परा जिसमे दो लोगो को सात जन्म की दोस्ती के बंधन में बांधा जाता है।

बुद्धा टेम्पल देहरादून कैसे जाएं –

बुद्धा टेम्पल देहरादून अंतरराज्यीय बस अड्डा देहरादून (ISBT ) से मात्र 4 किलोमीटर दूरी पर देहरादून सहारनपुर, दिल्ली मार्ग में क्लेमनटाउन नामक स्थान पर स्थित है। यदि आप बस से देहरादून आ रहे हैं तो आपको बुद्ध मंदिर जाने के लिए, ISBT से टेक्सी से आसानी से जा सकते हैं। या देहरादून में चलने वाले सार्वजनिक ऑटो, बैटरी रिक्शा, या विक्रम से मात्र 10 से 30 रुपये खर्च करके , इस प्रसिद्ध बौद्ध मठ देहरादून में पहुच सकते हैं।

यदि आप देहरादून बाई एयर आ रहे हैं, तो देहरादून एयरपोर्ट जौलीग्रांट से बुद्धा टेंपल देहरादून लगभग 33 किमी होगा, और टैक्सी से 50 से 60 मिनट लग जाएंगे।