तिलाड़ी कांड (tiladi kand ) : उत्तराखंड, एक ऐसा क्षेत्र जो अपनी दुर्गम पहाड़ियों और साहसी लोगों के लिए जाना जाता है, का इतिहास अधिकारों, संसाधनों, और सम्मान की लड़ाई से भरा पड़ा है। प्राचीन काल से लेकर आधुनिक समय तक, उत्तराखंड के निवासियों को अपने हक और सुविधाओं के लिए निरंतर संघर्ष करना पड़ा है।
इस क्षेत्र का इतिहास अनेक आंदोलनों की गाथाओं से सजा है, जिनमें स्थानीय लोगों ने अपनी आवाज उठाने के लिए अपने प्राण तक न्योछावर कर दिए। इन आंदोलनों में से एक, तिलाड़ी कांड (tiladi kand ) या तिलाड़ी आंदोलन, अपने हक की मांग करते हुए लोगों पर हुए अत्याचार का एक काला अध्याय है। यह लेख तिलाड़ी कांड के कारणों, घटनाओं, और इसके ऐतिहासिक महत्व को विस्तार से प्रस्तुत करता है।
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असंतोष की जड़ें: वन नियम और कर
तिलाड़ी कांड कोई अचानक उपजा आंदोलन नहीं था। यह रवाई घाटी के लोगों में वर्षों से बढ़ते असंतोष का परिणाम था। इसकी शुरुआत ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान हुई, जब ब्रिटिश सरकार ने वनों के अनियंत्रित दोहन को रोकने के लिए वन संपदा पर नियंत्रण अपने हाथों में ले लिया। इस नीति को टिहरी रियासत ने अपनाया और 1885 में वन बंदोबस्त की शुरुआत की, जिसे 1927 में रवाई घाटी में भी लागू कर दिया गया।
इन नियमों ने ग्रामीणों के पारंपरिक वन अधिकारों को छीन लिया। जंगलों में पशु चराने, लकड़ी काटने, या अन्य वन संसाधनों का उपयोग करने पर भारी कर लगा दिए गए। यहाँ तक कि पारंपरिक त्योहारों पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया। एक भैंस, एक गाय, और एक जोड़ी बैलों से अधिक पशु रखने पर प्रत्येक अतिरिक्त पशु के लिए एक रुपये प्रति वर्ष का कर थोप दिया गया। इसके अलावा, आलू की फसल पर प्रति मन एक रुपये का कर और नदियों में मछली पकड़ने पर भी रोक लगा दी गई। इन दमनकारी नीतियों ने रवाई घाटी के लोगों में गहरा रोष पैदा किया, जिसने आंदोलन की नींव रखी।
चिंगारी: अपमान और अन्याय
लोगों का असंतोष 1930 में एक अमानवीय घटना के साथ और भड़क उठा। टिहरी रियासत की राजधानी में ब्रिटिश गवर्नर हेली एक अस्पताल की नींव रखने के लिए आए थे। इस आयोजन में टिहरी के राजा नरेंद्र शाह के दरबार की ओर से गवर्नर के मनोरंजन के लिए गरीब लोगों को नंगा होकर तालाब में कूदने के लिए मजबूर किया गया। यह अपमानजनक कृत्य रवाई घाटी के लोगों के लिए असहनीय था। इस घटना ने जनमानस में विद्रोह की आग भड़का दी। लोगों ने इस अपमान को अपनी गरिमा पर हमला माना और अपने हक-हकूक की रक्षा के लिए संगठित होने का फैसला किया। इसके परिणामस्वरूप, रवाई पंचायत की स्थापना हुई, जो जनता के संघर्ष का प्रतीक बनी।
प्रतिरोध का उदय: रवाई पंचायत और विरोध
रवाई पंचायत की स्थापना ने इस संघर्ष को एक नया आयाम दिया। स्थानीय लोग वन कानूनों और करों के खिलाफ संगठित रूप से विरोध करने लगे। मार्च 1930 में, जब महाराजा नरेंद्र शाह स्वास्थ्य लाभ के लिए यूरोप गए, टिहरी रियासत की सत्ता एक परिषद के हाथों में थी, जिसके प्रमुख दीवान चक्रधर जूयाल और हरिकृष्ण रतूड़ी थे। चक्रधर जूयाल अपनी सत्ता बढ़ाने के लिए लगातार षड्यंत्र रचते रहते थे। उनकी नीतियों ने जनता के असंतोष को और बढ़ा दिया।
महाराजा की अनुपस्थिति और भ्रष्ट नौकरशाहों की अनियंत्रित सत्ता ने स्थिति को और जटिल बना दिया। जनता की शिकायतें राजा तक नहीं पहुँच पा रही थीं, क्योंकि नौकरशाहों ने संवाद के सभी रास्ते बंद कर दिए थे। नरेंद्र शाह, जो विदेश यात्राओं के शौकीन थे, ने जनता के हित में कई योजनाएँ बनाई थीं, लेकिन उनके लापरवाह और बेलगाम नौकरशाहों के कारण ये योजनाएँ धरातल पर नहीं उतर पाईं। इस संवादहीनता और दमनकारी नीतियों ने तिलाड़ी कांड की पृष्ठभूमि तैयार की।
राड़ी घाटी गोलीकांड
20 मई 1920 को राड़ी घाटी में पहली बड़ी हिंसक घटना घटी। रवाई जनसंघर्ष पंचायत के कुछ सदस्यों को बातचीत के लिए बुलाया गया, लेकिन उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। जब यह खबर जनता तक पहुँची, तो गुस्साई भीड़ ने अपने नेताओं को छुड़ाने के लिए राड़ी घाटी का घेराव कर लिया। इस स्थिति को नियंत्रित करने के बजाय, वन विभाग के अधिकारी (DFO) ने भीड़ पर गोली चलाने का आदेश दे दिया। इस गोलीबारी में अजीत सिंह और झुण्य सिंह की मौके पर ही मृत्यु हो गई। एक अन्य नेता, किशन दत्त, ने DFO पद्मदत्त रतूड़ी को रोकने की कोशिश की, लेकिन रतूड़ी नरेंद्र नगर भाग गया।
इस क्रूर घटना ने जनता का टिहरी प्रशासन पर से विश्वास पूरी तरह तोड़ दिया। लोगों को लगा कि उनके साथ पशुओं जैसा व्यवहार किया जा रहा है। गौण गाँव सहित रवाई घाटी के कई गाँव विद्रोह के लिए उठ खड़े हुए। एक बड़े आंदोलन की तैयारी शुरू हो गई।
चक्रधर जूयाल की चालबाजियाँ
महाराजा की अनुपस्थिति का फायदा उठाकर चक्रधर जूयाल ने अपनी सत्ता मजबूत करने के लिए षड्यंत्र रचे। उन्होंने DFO पद्मदत्त रतूड़ी के साथ मिलकर नैनीताल जाकर ब्रिटिश एजेंटों को रवाई की जनता के खिलाफ मनगढ़ंत कहानियाँ सुनाईं और आंदोलन को कुचलने के लिए मौन सहमति हासिल कर ली। 28 मई को जूयाल सैन्य बल के साथ राजगढ़ी पहुँच गए।
तिलाड़ी नरसंहार : एक भयावह दिन
30 मई 1930 को तिलाड़ी मैदान में स्थिति अपने चरम पर पहुँच गई। आंदोलनकारी, जिन्हें ढंडकिया कहा जाता था, टाटाव गाँव में पंचायत कर रहे थे, लेकिन सैन्य बल के आने की खबर मिलते ही उन्होंने गाँव छोड़ दिया। हालांकि, एक स्थानीय व्यक्ति, रणजोर सिंह, ने आंदोलनकारियों के महत्वपूर्ण दस्तावेज और जानकारियाँ दीवान तक पहुँचा दीं।
जूयाल ने आंदोलनकारियों को संदेश भेजे, जिसमें महाराजा के यूरोप प्रवास का हवाला देकर उन्हें तितर-बितर होने को कहा गया। लेकिन आंदोलनकारियों ने अपनी पहली शर्त रखी कि रवाई घाटी से सेना हटाई जाए। जूयाल ने एक नई चाल चली और संदेश भिजवाया कि वे केवल उन अपराधियों को पकड़ना चाहते हैं जिन्होंने सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुँचाया है। उन्होंने चेतावनी दी कि यदि 29 मई की शाम तक तिलाड़ी मैदान में इकट्ठा लोग नहीं हटे, तो सैन्य कार्रवाई की जाएगी।
30 मई की सुबह एक और संदेश भेजा गया, लेकिन आंदोलनकारी अपने रुख पर अडिग रहे। दोपहर 2 बजे, सैनिकों ने तिलाड़ी मैदान को चारों ओर से घेर लिया और निहत्थी भीड़ पर भयंकर गोलीबारी शुरू कर दी। इस नरसंहार में कई लोग गोलियों से मारे गए, जबकि कुछ लोग भयभीत होकर यमुना नदी में कूद गए और डूबकर मर गए। कहा जाता है कि सैनिकों ने पेड़ों में छिपे लोगों को भी चुन-चुनकर मार डाला। मृतकों के शवों को यमुना में बहा दिया गया, और आसपास के गाँवों में सैनिकों ने लूटपाट भी की।
परिणाम: जवाबदेही और सुधार
यूरोप से लौटने के बाद, महाराजा नरेंद्र शाह ने शुरू में आंदोलनकारियों को ही दोषी ठहराया, क्योंकि उनके भ्रष्ट नौकरशाहों ने पहले से ही एक गलत कथानक तैयार कर लिया था। लेकिन धीरे-धीरे सच्चाई उनके सामने आई। जन दबाव के कारण, महाराजा ने दमनकारी वन कानूनों को समाप्त कर दिया और चक्रधर जूयाल को पदमुक्त कर उनका देश निकाला कर दिया।
इन सुधारों के बावजूद, तिलाड़ी कांड उत्तराखंड के इतिहास में एक काले और भयावह दिन के रूप में दर्ज है। इस क्रूरता की कहानी आज भी सुनने वालों की रूह कंपा देती है।
तिलाड़ी कांड ( tiladi kand ) की विरासत –
तिलाड़ी कांड ( tiladi kand ) केवल एक ऐतिहासिक घटना नहीं है, बल्कि यह उत्तराखंड के लोगों की दृढ़ता और साहस का प्रतीक है। यह घटना शासकों और जनता के बीच संवाद की आवश्यकता और जवाबदेही के महत्व को रेखांकित करती है। इस नरसंहार में अपने प्राण गँवाने वालों की कुर्बानी आज भी उत्तराखंड में न्याय और समानता के लिए चल रहे आंदोलनों को प्रेरित करती है।
तिलाड़ी कांड हमें सामूहिक कार्रवाई की शक्ति और उत्तराखंड के लोगों की अपने हक और सम्मान के लिए अटूट लड़ाई की याद दिलाता है।
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