Sunday, November 17, 2024
Homeसंस्कृतिउत्तराखंड कुमाऊनी विवाह परम्पराएं | Kumaoni wedding rituals in hindi

उत्तराखंड कुमाऊनी विवाह परम्पराएं | Kumaoni wedding rituals in hindi

प्राचीन काल से ही सनातन समाज में विवाह संस्कार जीवन का सबसे महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता है। सनातन धर्म में अनेक जीवन पद्धतियां ,समाज हैं जिनके विवाह संस्कार मूलतः सनातनी विधि -विधानों पर होने के बावजूद थोड़ा बहुत स्थानीय संस्कृति और परम्पराओं का अंतर आ जाता है। स्थानीय मान्यताओं के आधार पर कुछ परम्पराएं बदल जाती हैं। प्रस्तुत आलेख में कुछ कुमाऊनी विवाह परम्पराओं के बारे में चर्चा करेंगे। वैसे तो कुमाऊँ मंडल में तीन प्रकार  की  विवाह परम्पराएं चलन में रही हैं – १- आँचल विवाह २ -सरोल विवाह ३ -मंदिर विवाह। कुमाऊं में आजकल मुख्यतः आंचल विवाह चलता है।

कुमाऊँ की आँचल विवाह परम्परा –

कुमाऊँ मंडल के अधिकांश कुमाऊनी विवाह आँचल विवाह परम्परा से ही होते हैं। जो विवाह आँचल परम्परा से नहीं होते हैं उन्हें समजिक  मान्यता नहीं मिलती है। इस विवाह में वर बारात लेकर वधु के घर जाता है। धूलिअर्घ ,कन्यादान आदि अनुष्ठान के बाद दोनों पक्षों से प्राप्त पीले वस्त्र ( आँचल) के एक छोर पर सरसों ,सुपारी ,अक्षत को बांध कर ,उसका एक सिरा वर के कंधे ( कमर में भी बांधते हैं ) और दूसरा सिरा दुल्हन के कंधे ( मुकुट से भी बांधते हैं ) से बांधकर या स्थिर करके ,विवाह फेरे आदि संपन्न होते हैं।

आँचल पद्धति में कुमाऊनी विवाह परंपरा के क्रमबद्ध चरण –

कुमाउनी समाज में आँचल विवाह का महत्व बहुत बताया गया है। आंचल विवाह नहीं करने वाले पुरुष या स्त्री मोक्ष के तथा धार्मिक अनुष्ठानो को संपन्न करने हकदार नहीं माने जाते हैं। कई बार मोक्षप्राप्ति के लिए या धार्मिक अनुष्ठान के लिए बिना आँचल विवाह किये हुए लोग या विदुर ,अविवाहितों का संकेतात्मक विवाह रचाया जाता है। कुमाऊनी विवाह निम्न क्रमबद्ध चरणों पूर्ण होता है –

विवाह तय करना –

कुमाऊनी विवाह परंपरा में सर्वप्रथम सजातीय ,अपने समाज में कन्या का चुनाव किया जाता है। जिसमे ध्यान रखा जाता है कि कन्या , लड़के के पितृगोत्र से तथा मातृकुल ( माँ के मायके ) में सपिंडी ना हो। अर्थात लड़के लड़की का गोत्र एक नहीं होना चाहिए और ननिहाल की सपिण्डी बिरादरी से नहीं होनी चाहिए। दोनों ओर से स्वीकृति  बाद लड़के और लड़की की कुंडली मिलाई जाती है। कुंडली को कुमाऊनी में चिंह कहते हैं। कुंडली मिलाने के बाद लड़का लड़की के घर देखने जाता है। वहां लड़का लड़की एक दूसरे को देखते हैं पसंद करते हैं। उसके बाद शादी के आगे के कार्यकम तय किये जाते हैं।

साग रखना या भेली धरना या पिठ्या लगाना अर्थात कुमाऊनी में सगाई करना –

Best Taxi Services in haldwani

मौखिक बात पक्की हो जाने के बाद कुमाऊनी विवाह परंपरा में वर पक्ष वाले  4-5  लोगो के साथ  शुभलग्न पर कन्या के घर  एक गुड़ की पिंडी और दही ,हरी साग सब्जी और होने वाली दुल्हन के लिए कपडे और एक जोड़ी पैरों के बिछुवे ,आदि लेकर आते हैं। वहां पारिवारिक लोगो और उस गांव के अन्य लोगों की उपस्थिति में कन्या को पिठ्या लगाते ( तिलक ) हैं।

कन्या को पायजेब ,बिछुए और कपडे दिए जाते हैं।  गुड़ की भेली तोड़ कर उपस्थित लोगो वितरित किया जाता है । इस दिन से कन्या वरपक्ष से जुड़ जाती है। यह कुमाऊनी सगाई परम्परा होती है। कभी इसी रस्म में शादी का शुभलग्न तय कर लिया जाता है। कभी इसके लिए दूल्हे के पिता अलग से बाद में आते हैं।

गणेश पूजा ,मंगल स्नान और सुवाल पथाई –

कुमाऊनी विवाह परंपरा में शादी के एक दिन पहले शुभलग्नानुसार  दूल्हा और दुल्हन पक्ष दोनों घरों में गणेश पूजा ,मगल स्नान ,हल्दी की रस्म निभाई जाती है। मंगल स्नान में सपिण्डी की पांच या सात विवाहिता महिलाएं पुरे साज शृंगार के साथ ( रंगवाली पिछोड़ा आवश्यक होता है ) दूल्हा ,दुल्हन को स्नान करवाती है,हल्दी लगवाती है। ये पूरी प्रक्रिया माँ के आँचल के अंतर्गत होती है।

स्नान के लिए दूल्हा या दुल्हन को तांबे के बड़े परात में बिठाया जाता है। और स्नान बंद कमरे में होता है। मंगल स्नान के समय और गणेश पूजा के बीच -बीच में पुरोहित वर्ग की महिलाएं शकुनाखर गायन करती रहती हैं।  स्नान के बाद बहिने उस स्नान के पानी को फूलों में अर्पित करती हैं। उसके बाद गणेश पूजा का कार्यक्रम होता है। इसी दिन पुरोहित दूल्हा या दुल्हन के साथ उनके माता पिता के हाथों में कंकण बांध देते हैं। जिसमे एक पिले वस्त्र में अभिमंत्रित सिक्के ,सुपारी राई इत्यादि होते हैं। इसके बाद दूल्हा दुल्हन को बारात आने या जाने से पहले घर से बहार जाने की मनाही होती है।

उत्तराखंड कुमाऊनी विवाह परम्पराएं | Kumaoni wedding rituals in hindi

सुवाल पथाई –

कुमाऊँ में मांगलिक कार्यक्रमों और कुमाऊनी विवाह के अवसर पर लड्डू सुवाल बनाया जाना अत्यंत आवश्यक माना जाता है। शादी के एक दिन पहले मांगलिक गीतों ( शकुनाखर ) के साथ परिवार की और गांव की महिलाएं आटे के सुवाल बना कर सूखा के तल लेते हैं।

और तिल के लड्डू भी बनाये जाते हैं। और इन्ही के साथ खिलोने रुपी समधी समधन बना के रख लेते हैं जो दूसरे दिन दोनों पक्ष शादी के सामान के साथ एक दूसरे को आदान प्रदान करते हैं और हसी ठिठोली भी होती है। चावलों के आटे में सौंफ ,तिल ,गुड़ या गुड़  चासनी में मिलकर लड्डू बनाये जाते हैं। जिन्हे शादी के समय रखना जरुरी होता है। साथ ही मंगलकार्यक्र्म ख़त्म होने के बाद आमंत्रित सभी व्यक्तियों को शगुन के रूप में दिए हैं।

कुमाऊनी विवाह परम्परा में दूल्हे का श्रंगार और मुकुट –

कुमाऊनी विवाह की परंपरा में दूल्हे का श्रंगार खास होता है। शादी के दिन मंगलस्नान के बाद पुरोहित दूल्हे का शृंगार करते हैं। शकुनाखरों के बीच पुरोहित दूल्हे के माथे में कुमकुम और रोली से एक खास देव आलेखन बनाते हैं जिसे कुर्मु बनाना कहते हैं। उसके बाद उसे मुकुट धारण कराया जाता है। कुमाऊनी विवाह में वर के मुकुट में गणेश जी का चित्र अंकित होता है और दुल्हन के मुकुट में राधाकृष्ण का चित्र अंकित होता है। पुरोहित दूल्हे का नारायण रुपी शृंगार करते हैं इसलिए दूल्हे को कुमाऊं में वर नारायण कहकर भी सम्बोधित किया जाता है। दुल्हन को मुकुट शादी के बीच में पहनाया जाता है।

शकुनी ठेकी और मुस गिलड़ी ,मशक्चंडोलिया –

बारात के दिन सुबह ही दूल्हा पक्ष की तरफ से एक काष्ठ के वर्त्तन या उपलब्ध वर्त्तन में दही और हरी सब्जी तथा दूल्हे की अपशिष्ट उबटन लेकर दो व्यक्ति दुल्हन के घर को रवाना कर दिए जाते हैं। जिनमे एक उम्रदराज और एक छोटा बच्चा होता है। उनको मुस गिलड़ी या मशक्चंडोलिया कहा जाता है। उनका कार्य  दुल्हन पक्ष को दूल्हे के अपशिष्ट उबटन पहुंचना और दूल्हे पक्ष की व्यवस्थाओं के बारे में दुल्हन पक्ष को अवगत कराना होता है।

इसके अलावा बरात के साथ -साथ काष्ठ की ठेकी या उपलब्ध बर्तन में दही और सब्जी पीले कपड़े से बाँध कर छोटा बालक बारात के आगे से चलता है। दही ,हरियाली वाली सब्जियों और पीले वस्त्र को शगुन का सूचक माना जाता है। इसलिए ऐसे शगुनी ठेकी कहा जाता है। और छोटे बालक चुनने के पीछे तर्क यह कि ,कुमाऊनी समाज में यह मान्यता  व्याप्त है कि छोटे बच्चे को रस्ते में आगे से चलाने से रास्ता छोटा और कठिनाई रहित होता है।

कुमाऊनी विवाह में बारात प्रस्थान या बारात आगमन –

एकदिवसीय कुमाऊनी विवाह में बारात प्रस्थान सुबह होता है ,और दो दिवसी विवाह में दोपहर को बारात प्रस्थान होता है। कुमाऊनी पारम्परिक आँचल विवाह दो दिवसीय होता है। लेकिन आजकल समाज में व्याप्त नशाखोरी और जल्दीबाजी के चक्कर में सारे विवाह एकदिवसीय होने लगे हैं। परिवार की पांच या सात पारम्परिक सुसज्जित महिलाएं दूल्हे के अक्षत परक कर दूल्हे को विदा करते हैं। घर से रस्ते तक दूल्हे को डोली में ले जाते हैं। तत्पश्यात दूल्हा घोड़ी या कार में जाता है। उधर दुल्हन पक्ष के माता -पिता दोनों व्रती रहते हैं ,और कन्या के विदाई के बाद ही भोजन करते हैं।

क्षत्रियों की बारातों में पारम्परिक वाद्य के साथ -साथ एक लाल और सफ़ेद ध्वज भी होते हैं। जिसमे बारात जाते समय लाल ध्वज आगे और सफ़ेद ध्वज पीछे रहता है। और बारात वापसी के समय सफ़ेद ध्वज आगे और लाल ध्वज पीछे रहता है। इसे पारम्परिक भाषा में निशाण  कहते हैं। दुल्हन के घर बारात आगमन पर दुल्हन का छोटा भाई ,चाहे चचेरा हो ,दूल्हे के साथ घर के बाहर से डोली में  बैठ कर जाता है।

धूलिअर्घ्य –

कुमाऊनी विवाह परंपरा में बारात गोधूलि के समय कन्या के घर में पहुँचती है। कन्या का पिता बारातियों का स्वागत करने के साथ धूलिअर्घ्य के लिए दुल्हन का पिता वर का हाथ पकड़ कर धूलि अर्घ्य के मंडप पर ले जाता है। वहां आचार्यों की भेंट कराता है। पिता अपने जमाई राजा के पैर धोते हैं। पुरोहित गोत्राचार के रूप में दूल्हा और दुल्हन के परिवारों का परिचय कराते हैं। दोनों पुरोहित एक दूसरे से कुछ इस प्रकार परिचय पूछते हैं –

किं गोत्रस्य, किं प्रवरस्य, किं शाखिनः,किं वेदाध्यायियनः, किं शर्मणः (यदि यजमान ब्राह्मण हो अन्यथा किं बर्मण) प्रपौत्री, किं गोत्रस्य, किं प्रवरस्य, किं शाखिनः,किं वेदाध्यायियनः, किं शर्मणः पौत्री, किं गोत्रस्य, किं प्रवरस्य, किं शाखिनः,किं वेदाध्यायियनः, किं शर्मणः पुत्री,किं नाम्नी वराभिलाषिणी श्री रूपिणीम आयुष्मती कन्याम्?

दूसरे पुरोहित कुछ इस प्रकार जवाब देते हैं –

अमुक गोत्रस्य, अमुक प्रवरस्य, अमुक वेदस्य, अमुक शाखाध्यायिनः अमुक शर्मणः प्रपौत्रीम् अमुक गोत्रस्य, अमुक प्रवरस्य, अमुक वेदस्य, अमुक शाखाध्यायिनः अमुक शर्मणः पौत्रीम्, अमुक गोत्रस्य, अमुक प्रवरस्य, अमुक वेदस्य, अमुक शाखाध्यायिनः अमुक शर्मणः पुत्रीम् अमुक नाम्नी वराभिलाषिणीम् श्री रूपिणीम् आयुष्मतीम् कन्या:

शकुनाखर चलते रहते हैं। बाद में भोजन होता है। भोजन के समय दूल्हे की सालिया लोकगीतों के रूप में वरपक्ष के लिए हसी ठिठोली गीत जाती हैं।

उत्तराखंड कुमाऊनी विवाह परम्पराएं | Kumaoni wedding rituals in hindi

कुमाऊनी विवाह –

भोजन के उपरांत शुभलग्नानुसार विवाह कार्यक्रम शुरू हो जाते हैं। दूल्हा दुल्हन को शादी के समय अंदर से बाहर आते समय माताओं के आँचल की छाव में मुँह दरवाजे और पीठ बाहर की तरफ करके बाहर निकाला जाता है। विवाह कार्यक्रम पहले घर निचले कमरे में संपन्न होते हैं जिसे गोठ ब्या कहा जाता है। गोठ ब्या में कन्यादान , दुल्हन को वस्त्र अलंकरण आदि होता है।

बीच -बीच में दुल्हन की सहेलिया हसी -ठिठोली वाले लोक गीत भी गाती रहती हैं। बाद में पंडित की दक्षिणा के समय दुल्हन का अलंकरण करने वालों को और हसी ठिठोली करने वाली सहेलियों को भी दक्षिणा दी जाती है। विवाह के बीच में दूल्हा -दुल्हन को बोलने की मनाही होती है। मान्यता है कि शादी के बीच में बोलने से दोनों की होने वाली संतान गूंगी होती है।

इसके बाद के कार्यक्रम बहार मंडप पर होते हैं ,जिसे बाहर का विवाह ( भ्यार का ब्या ) कहते हैं। यहाँ आँचल विवाह ,फेरे जूठा -पीठा ( वर वधु एक दूसरे का जूठा खाते हैं ) आदि कार्यक्रम होते हैं। इस विवाह को दुल्हन के माता -पिता नहीं देखते हैं। कन्यादान के बाद वे शादी से अलग हो जाते हैं। फिर लास्ट में देई भेटं ( पुनर्मिलन ) विदाई के समय दूल्हा दुल्हन से जुड़ते हैं। फिर बारातियों को पिठ्याई लगाकर ,दुल्हा दुलहन को मुखबिटाव ( शगुन का भोजन ) करा कर ,अक्षत प्रतिष्ठा करके विदा कर दिया जाता है।

अक्षत परख की रस्म –

कुमाऊनी विवाह में अक्षत परख की रस्म होती है। इस रस्म में परिवार या बिरादरी की पांच या सात सुहागिन महिलाएं भाग लेती हैं। जिसमे गहनों का तो वैकल्पिक होता है ,लेकिन सभी महिलाओं को रंगवाली पिछोड़ा पहनना आवश्यक होता है। अक्षत परख की रस्म में अक्षतों यानि चावल के दानों और जल के लोटे से दूल्हा -दुल्हन की नजर उतारती हैं।

उत्तराखंड कुमाऊनी विवाह परम्पराएं | Kumaoni wedding rituals in hindi

दूल्हे के घर बारात पहुंचते ही दरवाजे पर दुल्हन का स्वागत अक्षत परख की रस्म से होता है। फिर दरवाजे पर दूल्हे की बहिनें खड़ी रहती हैं , दूल्हे द्वारा उन्हें उपहार या दक्षिणा मिलने के बाद ही  वे रास्ता देती हैं। फिर पुरोहित मंत्रोच्चार के साथ दोनों का मुकुट उतरवाते हैं। दोनों मुकुटों को दुल्हन गांव की महिलाओं के साथ शंख ध्वनि के साथ साथ प्राकृतिक जल श्रोत पर अर्पित करके आती है।

दुरकुन या दुबारा आगमन कुमाऊनी विवाह परंपरा का अंतिम चरण  –

कुमाऊनी विवाह में शादी के पांच या सात दिन बाद दुल्हन ,दूल्हे के साथ दुबारा अपने मायके जाती है। जिसे दुरकुन कहते हैं। दुरकुन का अर्थ होता पुनरागमन।  वहां शंखध्वनि से उनका स्वागत होता है।

नोट – कुमाऊनी विवाह परंपरा में गेट पर रिबन काटना ,जयमाला ,और जूता छुपाई की रस्म कुमाऊँ की मूल विवाह परम्पराओं में शामिल नहीं हैं। ये परम्पराएं  बाहरी संस्कृति से आयातित परम्पराएं हैं। कुमाऊनी विवाह परम्पराओं से संबंधित यह लेख आपको कैसा लगा ? कोई सुझाव हों तो हमारे फेसबुक पेज पर संदेश भेजें। लेख अच्छा लगा हो तो शेयर अवश्य करें।

Follow us on Google News Follow us on WhatsApp Channel
Bikram Singh Bhandari
Bikram Singh Bhandarihttps://devbhoomidarshan.in/
बिक्रम सिंह भंडारी देवभूमि दर्शन के संस्थापक और लेखक हैं। बिक्रम सिंह भंडारी उत्तराखंड के निवासी है । इनको उत्तराखंड की कला संस्कृति, भाषा,पर्यटन स्थल ,मंदिरों और लोककथाओं एवं स्वरोजगार के बारे में लिखना पसंद है।
RELATED ARTICLES
spot_img
Amazon

Most Popular

Recent Comments