Thursday, April 17, 2025
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क्या हैं घास के लुटे – आसमान के नीचे घास को स्टोर करने की पहाड़ियों की विशेष तकनीक !

अश्विन माह जिसे पहाड़ो में आशोज के नाम से जाना जाता है। और यह अशोज का महीना जबरदस्त खेती के काम का प्रतीक माना जाता है। क्योंकि इस महीने खरीफ की फसलों के साथ घास भी काटी जाती है। और अधिक मात्रा में होने के कारण इसे घास के लुटे बनाकर स्टोर किया जाता है।

काम -काज का पर्याय है आशोज का महीना –

अश्विन यानि सितम्बर और अक्टूबर में मोटा अनाज मडुवा ,झंगोरा आदि और धान की फसल ,और दाल दलहन इसके साथ घास ये सब एक साथ तैयार होते हैं। इतनी सारी फसलें एक साथ तैयार होने के कारण इस महीने काम की मारमार पड़ जाती है।  जाड़ों में पहाड़ों में अधिक ठंड पड़ने या बर्फ पड़ने के कारण पहाड़ों में जीवन यापन कठिन हो जाता है। इसलिए ठंड शुरू होने से पहले यहाँ के निवासी अपने लिए जाडों के भोजन का प्रबंध कर लेते हैं। जैसे -अनाज ,बरसात की मौसम की सब्जियों लौकी आदि को सूखा कर रख लेते हैं।

पहाड़ों में जाड़ों के लिए पहले स्टोरेज करना पड़ता है-

पहाड़ वासी अपने साथ -साथ अपने जानवरों के लिए भी जाडों के भोजन की व्यवस्था करके चलते हैं। चूँकि अश्विन माह में पहाड़ो में घास काफी अच्छी मात्रा होती है। इसलिए इसमें से कुछ भाग सुखाकर जानवरों के जाड़ों के भोजन के लिए रख लेते हैं। घास काफी जगह घेरती है इसलिए इसको गोदामों में भंडारण करना कठिन है। और पहाड़ में इतने गोदाम कौन बनाएगा। इसलिए पहाड़वासियों ने घास के भंडारण की ऐसी तकनीक निकाली जिससे गोदाम और जगह दोनों समस्याओं का समाधान हो जाता है।

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घास के लूटे
घास के लुठे बनाते हुए । फ़ोटो साभार सोशल। मीडिया

क्या हैं घास के लुटे –

पहाड़ के लोग घास को सुखाकर एक खम्बे या पेड़ पर घास को कुछ इस तरह रखते है ,उसे न बारिश का पानी लगता है ,और न ही दीमक और न ही वो तूफान में उड़ती है। पहाड़ो में जाडों के लिए इस तरीके से घास के भंडारण की व्यवस्था को लूटे या घास के लुठ कहा जाता है। हिमाचल में इसे कोठा ,कुप्प आदि नामो से जानते हैं।

घास के लुटे कैसे लगते हैं –

घास के लूटे लगाने के लिए सर्वप्रथम सुखी घास को छोटे -छोटे हिस्सों में बांधकर रख लेते हैं। घास के इन छोटे -छोटे बंडलों को पूवे या पुले कहते हैं। फिर जमीन में एक खम्बा गाढ़ कर ,झाड़ियां काटकर उसकी गोलाई में लगा लेते हैं।  ताकि घास को जमीन से पानी या दीमक न लगे। उसके बाद घास के पुलों को कुछ इस तरह नीचे से ऊपर को लगाते हुए लाते है कि वे एक दूसरे के साथ जुड़ जाएँ।

नीचे से ऊपर को पुलों की संख्या को कम करते हुए जाते हैं और एक पुले को दूसरे पुले से दबाते जाते हैं। आखिर में दो या  पुलों के नियंत्रण में पूरा घास का लूटा रहता है। और घास के कुछ तिनको की मजबूत रस्सी बनाकर खम्बे की की छोटी या पेड़ की टहनी  के साथ बांध देते हैं। जिससे पूरा लूटा मजबूत रहता है। कहीं -कहीं घास के लूटों को बारिश से बचाने के लिए लूटों में आखिरी पुलों के रूप में धान की पराली का प्रयोग करते हैं। या ऊपर आच्छादन करते हैं।

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निष्कर्ष –

कहते हैं आवश्यकता अविष्कार की जननी होती है। पहाड़ों में घास के भंडारण की आवश्यकता को पूरा करने के लिए किया गया लूटों का अविष्कार पहाड़ियों की अद्भुत सूझबूझ और तकनीक का परिणाम हैं।

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Bikram Singh Bhandari
Bikram Singh Bhandarihttps://devbhoomidarshan.in/
बिक्रम सिंह भंडारी, देवभूमि दर्शन के संस्थापक और प्रमुख लेखक हैं। उत्तराखंड की पावन भूमि से गहराई से जुड़े बिक्रम की लेखनी में इस क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर, और प्राकृतिक सौंदर्य की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी रचनाएँ उत्तराखंड के खूबसूरत पर्यटन स्थलों और प्राचीन मंदिरों का सजीव चित्रण करती हैं, जिससे पाठक इस भूमि की आध्यात्मिक और ऐतिहासिक विरासत से परिचित होते हैं। साथ ही, वे उत्तराखंड की अद्भुत लोककथाओं और धार्मिक मान्यताओं को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। बिक्रम का लेखन केवल सांस्कृतिक विरासत तक सीमित नहीं है, बल्कि वे स्वरोजगार और स्थानीय विकास जैसे विषयों को भी प्रमुखता से उठाते हैं। उनके विचार युवाओं को उत्तराखंड की पारंपरिक धरोहर के संरक्षण के साथ-साथ आर्थिक विकास के नए मार्ग तलाशने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी लेखनी भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि से परिपूर्ण है। बिक्रम सिंह भंडारी के शब्द पाठकों को उत्तराखंड की दिव्य सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत की अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाते हैं, जिससे वे इस देवभूमि से आत्मिक जुड़ाव महसूस करते हैं।
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