डंगरिया, जिसे स्थानीय रूप से धामी या पश्वा भी कहा जाता है, उत्तराखंड की अनूठी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक परंपरा का प्रतीक है। यह परंपरा उस व्यक्ति पर आधारित है, जो स्थानीय देवी-देवताओं या आत्माओं का माध्यम बनता है। यह व्यक्ति जागर अनुष्ठान के दौरान देवताओं की वाणी बोलता है और जनसामान्य की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करता है।
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डंगरिया का अर्थ और भूमिका :
डंगरिया शब्द की उत्पत्ति ‘डंगर’ (पशु) से मानी जाती है। यह इसलिए क्योंकि माना जाता है कि डंगरिया देवी-देवताओं का वाहन बनता है। इसलिए उसे पश्वा भी कहते हैं। जागर अनुष्ठान के दौरान, देवता या भूत-प्रेत पश्वा के शरीर में प्रवेश कर अपनी बात कहते हैं। इस स्थिति में डंगरिया अर्ध-मूर्छित अवस्था में होता है और आत्मचेतना से शून्य हो जाता है।
पश्वा को देवता के समान सर्वज्ञ और शक्तिशाली माना जाता है। वह देवता की शक्ति से युक्त होकर समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करता है। रोग, विपत्ति, या अभौतिक कारणों का निदान करने के लिए लोग डंगरिया की शरण लेते हैं।
पहचान और विशेषताएं :
डंगरिया के रूप में चुना गया व्यक्ति सात्विक, शुद्ध और कठोर जीवन जीने के लिए प्रतिबद्ध होता है। वह लाल, पीले या सफेद वस्त्र पहनता है और इसी रंग का तिलक धारण करता है। गढ़वाल में, डंगरिया को दाढ़ी-मूंछ और बाल कटवाने की अनुमति नहीं होती है।
पश्वा (dangariya ) की पहचान उसकी कलाई पर पहने चांदी के कड़े से भी होती है। यह कड़ा देवता के वाहन का प्रतीक है और इसे धारण करने की विधि विशेष धार्मिक प्रक्रिया द्वारा पूरी की जाती है। लोक मान्यता के अनुसार, यदि कड़े की पूजा वैधानिक रूप से की जाए, तो यह स्वयं उसकी की कलाई में चढ़ जाता है।
जागर अनुष्ठान और डंगरिया की भूमिका :
उत्तराखंड में जागर अनुष्ठान देवताओं को प्रसन्न करने और उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए आयोजित किया जाता है। इसमें डंगरिया माध्यम बनकर देवता की वाणी बोलता है। ग्रामीण समुदाय भूत-प्रेत और देवी-देवताओं पर अटूट आस्था रखते हैं। किसी भी अभौतिक समस्या का समाधान खोजने के लिए जागर के माध्यम से पश्वा से संपर्क किया जाता है।
वह भभूत (भस्म) या अक्षत-भेंट लेकर देवता के साथ करार करता है। इसके बाद, व्यक्ति को अपना वचन पूरा करने के लिए पूजा या भेंट अर्पित करनी होती है।
सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व :
डंगरिया की परंपरा उत्तराखंड की गहरी धार्मिक और सांस्कृतिक जड़ों को दर्शाती है। शैवदर्शन, आगम और तांत्रिक प्रभाव इस परंपरा में स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। आगम ग्रंथों में वर्णित ‘पशुभाव’ (तीन भावों में से एक) के आधार पर पश्वा की व्याख्या की जाती है।
निष्कर्ष :
पश्वा उत्तराखंड की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर का अनमोल हिस्सा है। यह परंपरा न केवल आध्यात्मिक विश्वासों को सशक्त बनाती है, बल्कि सामुदायिक एकता और सहयोग को भी बढ़ावा देती है। इस परंपरा के माध्यम से, पहाड़ की जनता अपने देवी-देवताओं से जुड़ती है और जीवन की कठिनाइयों का समाधान खोजती है।
डंगरिया न केवल एक व्यक्ति है, बल्कि एक विश्वास, एक माध्यम, और सांस्कृतिक धरोहर का जीता-जागता प्रतीक है।
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