Friday, April 18, 2025
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दिन दीदी रुको रुको, पहाड़ी लोककथा

“दगड़ियों उत्तराखंड के पहाड़ी  क्षेत्रों के प्राचीन दैनिक जीवन पर आधारित उत्तराखंडी लोक कथा ‘दिन दीदी रुको रुको’ का संकलन कर रहे हैं। यदि ये पहाड़ी लोक कथा  आपको अच्छी लगे तो आभासी दुनिया के अपने मित्रता समूह में अवश्य साँझा करें।”

पहाड़ के एक गावं में एक सास और उसकी बहु रहती थी। सास एकदम गुस्सैल और बुरे स्वभाव की थी। और जितनी सास गुस्सैल स्वभाव की थी ,बहु उसके एकदम विपरीत शांत और सौम्य स्वभाव की महिला थी। सास समय -समय पर बहु को खरी खोटी सुनाती थी। बहु बड़ी विनम्रता से सब सहन करती थी। सास बहु को बार त्योहारों पर अपने मायके नहीं जाने देती थी। बहु जब  अपने साथ वालों को मायके जाते देखती तो बेचारी चुप चाप आसूं बहाती थी। अपने मायके की याद उसे तड़पा देती थी, मगर वह करे भी तो क्या करें। वह कुटिल सास के आगे बेबस थी।

एक दिन हरेले का त्यौहार आया। बहु ने डरते-डरते सास से कहा, सासु जी आप हरेले के अवसर पर मुझे दो -चार दिन के लिए मायके भेज देती तो, मै भी अपने माता पिता और भाई बहिनों से मुलाकात करके आ जाती। हरेले पर बड़े भईया भी छुट्टी आये होंगे उनसे भी मुलाकात हो जाती।

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बहु के मुँह से इतना सुनते ही सास बिफर गई। ,’क्यों तेरा ही मायका अनोखा है क्या ? जब देखो तब मायके की रट लगाए रहती है। तुम मायके चली जाओगी तो यहाँ का काम कौन करेगा ? तुम्हारे मायके वालों ने नौकर लगा रखें हैं क्या यहाँ ?  यहाँ घास लकड़ी का काम मै करुँगी क्या ?

बहु विनम्रता से बोली ,’आप क्यों करोगी ? दो चार दिन का घास लकड़ी का काम मै करके जाउंगी। बस आप मुझे दो चार दिन के लिए मायके जाने दे। सास जैसे -तैसे तैयार हो गई लेकिन बहु को ढेर सारा काम सौप दिया। और बहु से बोली ,जाने को तो तू आज शाम को ही चले जाना लेकिन ,जाने से पहले सात गोठों  (गौशालाओं ) का गोबर निकाल कर जाना। सात दिन का धान कूट कर जाना। सात दिन के लिए घास काट कर जाना। इसके साथ ही चालाक सास ने , मूसल , रस्सी। दराती आदि छुपा दिए। सास से सोचा यदि काम करने वाले सामान छुपा दूंगी तो ये काम कैसे करेगी ?

इधर बहु काम पर लग गई। सात गोठों का गोबर निकालते -निकालते उसे दोपहर हो गई। उसके बाद सात सूपे धान कूटने ओखली पर गई तो ,वहां मूसल गायब था, बहू रोने लगी कि अब धान कैसे कूटू । उसका रोना सुनकर घिनोड़ि ( गौरयाँ ) उसके पास आई और उसके रोने का कारन पूछने लगी। कहते हैं दया और सहानुभूति का भाव मनुष्य जाती के अलावा अन्य प्राणियों में भी होता है। गौरया को बहु ने अपनी विवशता बताई। तब गौरया अपने विशेष स्वर में चहकने लगी। देखते ही देखते वहां गोरैयों का एक बड़ा झुण्ड आ गया। तब सारी चिड़ियों ने सात के सात सुपे धान के छील कर चावल अलग -अलग कर दिए। बहु ने बड़ी कृतग्यता से चिड़ियों के झुण्ड का आभार प्रकट किया और सात के सात सुपे चावल के घर के अंदर ले गई। घर के अंदर उसकी दुष्ट सास उन चावलों को मापने के लिए नाली का बर्तन  ( लगभग 2 सेर माप का मापक बर्तन  ) लेकर तैयार बैठी थी। सारे चावल मापने के बाद उसने बड़ी कुटिलता से बोला, चावल में 1 दाना कम है। लगता है तूने एक दाना छुपा दिया है। बहु बेचारी को कुछ भी कहना नहीं आया।  वो एकदम रुआँसी हो गई। बहु फिर रोते हुए गौरेया के पास गई। तब गौरेया रानी ने सारी गौरैयों को अपने पंख झाड़ने को कहा ! तब एक चिड़िया के पंख में से चावल का दाना निचे गिर गया। तब बहु ने वो दाना  ले कर अपनी कुटिल सास को दे दिया।

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अब बहु ने सात गठ्ठर घास के काटने थे ,उसने आसमान की तरफ देखा दोपहर ढल चुकी थी। उसको दराती और रस्सी भी नहीं मिली , बिना रस्सी और दराती के जंगल जाती हुई बहु सूर्य देव से प्रार्थना करने लगी , दिन दीदी रुको रुको। अर्थात हे सूर्य देव आप मेरी मदद करना ! इस विप्पति से मुझे उबरना। तुम मुझे रुके रहना। जब तक मै सारा काम निपटा कर मायके ना पहुँच जाऊ ,तब तक आप अस्त मत होना। जब बहु जंगल पहुंची तब वहां हजारों की संख्या में चूहे अपने बिलों से बाहर आ गए। उन्होंने जल्दी -जल्दी बहु के लिए सात गट्ठर घास काट दिए। और सापों ने गट्ठरों को इक्क्ठा करके रस्सी का काम किया।  इस बीच वो बार -बार सूर्यदेव को हाथ जोड़कर यही बोलती रही दिन दीदी रुको रुको। एक -एक करके बहु ने सातों गट्ठर घास के ससुराल पंहुचा दिए। और सूर्य देव को बोलती रही ,दिन दीदी रुको रुको।  बहु को दुखी देखकर सूर्यदेव भी अस्त होने के अंतिम बिंदु पर रुक गए।

काम पूरा करके बहु अपने मायके की तरफ चल पड़ी। जल्दी जल्दी जाते -जाते सूर्यदेव को भी हाथ जोड़ते जाती और बोलती रहती ,”दिन दीदी रुको रुको ! वह मायके के पास पहुंच गई ,तब उसने देखा की सूर्यदेव अंतिम चोटी पर रुके हुए थे। उस दिन बहुत बड़ा हो गया था। बहु मायके पहुंचने की ख़ुशी में सूर्यदेव को विदा करना भूल गई। इधर बहु सीढ़ी चढ़ रही थी ,उधर सूर्यदेव क्रोधित होकर एकदम अस्त हो गए। एकदम अँधेरा होने से बहु का पैर दरवाजे पर फिसल गया और वो सीढ़ियों से निचे गिर गई। दिन भर थकी बहु के प्राण पखेरू उड़ गए।

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Bikram Singh Bhandari
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बिक्रम सिंह भंडारी, देवभूमि दर्शन के संस्थापक और प्रमुख लेखक हैं। उत्तराखंड की पावन भूमि से गहराई से जुड़े बिक्रम की लेखनी में इस क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर, और प्राकृतिक सौंदर्य की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी रचनाएँ उत्तराखंड के खूबसूरत पर्यटन स्थलों और प्राचीन मंदिरों का सजीव चित्रण करती हैं, जिससे पाठक इस भूमि की आध्यात्मिक और ऐतिहासिक विरासत से परिचित होते हैं। साथ ही, वे उत्तराखंड की अद्भुत लोककथाओं और धार्मिक मान्यताओं को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। बिक्रम का लेखन केवल सांस्कृतिक विरासत तक सीमित नहीं है, बल्कि वे स्वरोजगार और स्थानीय विकास जैसे विषयों को भी प्रमुखता से उठाते हैं। उनके विचार युवाओं को उत्तराखंड की पारंपरिक धरोहर के संरक्षण के साथ-साथ आर्थिक विकास के नए मार्ग तलाशने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी लेखनी भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि से परिपूर्ण है। बिक्रम सिंह भंडारी के शब्द पाठकों को उत्तराखंड की दिव्य सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत की अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाते हैं, जिससे वे इस देवभूमि से आत्मिक जुड़ाव महसूस करते हैं।
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