Thursday, May 22, 2025
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शौशकार देना या अंतिम हयोव देना ,कुमाउनी मृतक संस्कार से संबंधित परंपरा

हमारी उत्तराखंडी संस्कृति में कई ऐसे रिवाज और परम्पराएं हैं , जो वैज्ञानिक तर्कों पर खरी उतरती हैं। और कई रिवाज और परम्पराये ,त्योहार मानवता का पाठ पढ़ाती हैं। आज हम इस लेख में कुमाउनी मृतक संस्कार से जुडी एक परम्परा का जिक्र कर रहे हैं। जो कुमाऊं के कुछ भागों ,अल्मोड़ा और नैनीताल में निभाई जाती है।

इन दो जिलों का नाम मै विशेषकर इसलिए ले रहा हूँ ,क्योंकि इन जिलों इस परंपरा  को निभाते हुए मैंने देखा है। हो सकता है ,कुमाऊं में या गढ़वाल में अन्यत्र जगहों में भी इस परम्परा को निभाया जाता हो। कुमाउनी मृतक संस्कार के समय निभाए जाने वाली परम्परा को शौनशकार देना या अंतिम हयोव देना या आखरी आवाज देना कहते हैं। “कुमाऊं मंडल के कुछ क्षेत्रों में मृतक की शवयात्रा के समय ,मृतक के पुत्रों द्वारा एक विशेष विह्वल अंतर्नाद किया जाता है ,जिसे शौशकार देना कहते हैं।”

इसमें मृतक की अंत्योष्टि के लिए नियत व्यक्ति ज्येष्ठ पुत्र या भाई जो मार्गदर्शक दंडवस्त्र लेकर सबसे आगे चल रहा होता है ,वह  घर से शव उठाते समय और शमशान पहुंचने तक थोड़े थोड़े अंतराल में मृतक के साथ अपने रिश्ते को लंबा उच्चारण करके लम्बे स्वर में पुकारता है। जैसे – पुत्र अपने माता के लिए , ईजा वे….………..या  पिता के लिए पुकरता है बाज्यू हो……… अन्य शवयात्री भी इनके स्वर में स्वर मिलाकर ह्योव भरते हैं। फिर उसके बाद लगातार राम नाम सत्य है का उच्चारण करते रहते हैं। आजकल आधुनिक परिवेश में इसका रूप बदल है। अब केवल घर से शवयात्रा उठाते समय ,ज्येष्ठ पुत्र या भाई एक बार ईजा वे …………… या बाज्यू हो…….या दाज्यू हो……. का जोर से विह्वल अंतर्नाद कर दिया जाता है।

पहले मुझे ये सामान्य लगता था। जैसे हर समाज में किसी मृतक के परिजन रोते ,बिलखते हैं या दुःख व्यक्त करते हैं। मगर कई जगहों पर मैंने नोटिस किया कि गांव के सयाने पुरुष या महिलायें मृतक के परिजन को कहती हैं ,बेटा आपने पिता या माता को  ह्योव दे या अंतिम आवाज दे। कुछ किताबों और बुजुर्गों के सहयोग से पता लगा कि यह ,कुमाऊं के कुछ क्षेत्रों  शवयात्रा से जुडी विशेष परम्परा हैं।

 

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Bikram Singh Bhandari
Bikram Singh Bhandarihttps://devbhoomidarshan.in/
बिक्रम सिंह भंडारी, देवभूमि दर्शन के संस्थापक और प्रमुख लेखक हैं। उत्तराखंड की पावन भूमि से गहराई से जुड़े बिक्रम की लेखनी में इस क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर, और प्राकृतिक सौंदर्य की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी रचनाएँ उत्तराखंड के खूबसूरत पर्यटन स्थलों और प्राचीन मंदिरों का सजीव चित्रण करती हैं, जिससे पाठक इस भूमि की आध्यात्मिक और ऐतिहासिक विरासत से परिचित होते हैं। साथ ही, वे उत्तराखंड की अद्भुत लोककथाओं और धार्मिक मान्यताओं को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। बिक्रम का लेखन केवल सांस्कृतिक विरासत तक सीमित नहीं है, बल्कि वे स्वरोजगार और स्थानीय विकास जैसे विषयों को भी प्रमुखता से उठाते हैं। उनके विचार युवाओं को उत्तराखंड की पारंपरिक धरोहर के संरक्षण के साथ-साथ आर्थिक विकास के नए मार्ग तलाशने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी लेखनी भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि से परिपूर्ण है। बिक्रम सिंह भंडारी के शब्द पाठकों को उत्तराखंड की दिव्य सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत की अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाते हैं, जिससे वे इस देवभूमि से आत्मिक जुड़ाव महसूस करते हैं।
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