Thursday, April 17, 2025
Homeस्टूडेंट कॉर्नरउत्तराखंड में भूमि के प्रकार, पहाड़ में खेतों के नाम

उत्तराखंड में भूमि के प्रकार, पहाड़ में खेतों के नाम

उत्तराखंड में भूमि के प्रकार –

उत्तराखण्ड में भौगोलिक बनावट के आधार पर राजशाही के समय भूमि को सामान्यतः दो भागो में विभक्त किया गया था। पर्वतीय क्षेत्रो की भूमि को राज अभिलेखों में “परवत” और तराई-भाबर ( मैदानी ) कि भूमि को अभिलेखों में “माल” व “चौरासी माल” के नाम से अभिहित किया गया था। इसमें भी शेष भूमि को उसके उपयोग के आधार पर विभिन्न वर्गो में विभाजित किया गया था। जो इस प्रकार से हैं-

कुमाउनी राजपूत जातियां ,बिष्ट ,भंडारी और बोरा जातियों के बारे में संक्षिप्त जानकारी।

Hosting sale

गाड़: यह वह भूमि है, जो छोटी-बड़ी नदियों की घाटियों में होती है। यहाँ के खेती योग्य क्षेत्र को “गडू” या “गाड़” कहा जाता हैं।

लेक : लेक का अर्थ घने जंगल वाली उस भूमि से हैं, जिससे समतल करके खेती योग्य बनाया जाता हैं। इसी तरह के खेतो में बसे कुछ गाँव के नाम कालान्तर में कुछ इस तरह पड़। जैसे-मंगल लेख, बनलेख, कसियालेख,ओखल लेख व बिल्लेख आदि।

ईजर : यह वह भूमि है, जिसे राजा आमतौर पर दान में दिया करते थे। यह भूमि खेती के लिये बहुत उत्तम नहीं होती थी, बाद भी इसमें खेती बनाकर हर तीसरे वर्ष फसल बोई जाती थी।

Best Taxi Services in haldwani

धुरा : डांडा या धुरा डांडा-इस तरह की भूमि भी राजाओ द्वारा दान में दी जाती थी। धुरा शब्द ऐसे छोटे जंगलो प्रयोग में लाया जाता था। जिसमें घास, लकड़ी प्राप्त की जाती थी। डांडा शब्द का अर्थ विभिन्न छोटे-छोटे पहाड़ी चोटियों से है। यह भूमि समतल न होने से खेती के योग्य नहीं होती, लेकिन इस भूमि का उपयोग घास, लकड़ी व पशुचारण के लिए किया जाता हैं।

बगड़ : यह शब्द सामान्यतः खेत के लिए उपयोग होता है, पर बगड़ पहाड़ में नदियों के किनारे की समतल व उपजाऊ भूमि को कहा जाता है। ऐसे ही खेती वाले कई स्थान आज पहाड़ में हैं। जैसे-नारायणबगड, पातली बगड़, सौड़ बगड़ आदि। (उत्तराखंड में भूमि )

गाड़ को दलो : यह वह भूमि होती है, जो होती तो नदी के किनारे और उपजाऊ है, लेकिन नदी के तल से इतनी ऊँची होती है कि उस में सिंचाई नहीं की जा सकती हैं। कुमाऊँ में ऐसी भूमि को दल, या दौल कहा जाता हैं।

बण या वन : ऐसा क्षेत्र जो होता तो वन भूमि है, लेकिन उस पर नियंत्रण गांव वालो का होता है। पहाड़ों ऐसे क्षेत्र के जंगल में गांव वाले घास व लकड़ी लाने सामूहिक रूप से जाते हैं। स्थानीय भाषा में इसे बण जाना या उबढ़ी कहते हैं।

रौ या रय : पहाड़ी क्षेत्रों की गहरी घाटी में स्थित ऐसी भूमि जिसमे पानी एकत्र होकर तालाब का रूप ले लेता हैं। इसे ही रौ कहा जाता हैं। पानी के सूख जाने पर ऐसी भूमि में फसल बोई जाती हैं। यह भूमि बहुत उपजाऊ होती हैं। (उत्तराखंड में भूमि )

तलौं : पहाड़ की ऐसी खनिज भूमि जो खेती के लिए उत्तम होने के साथ ही सिंचाई सुविधा से युक्त होती है इसे तलाऊँ भूमि भी हैं।

इसे भी पढ़े: मठियाणा देवी मंदिर और माठीयाणा देवी की कहानी।

उपरौं : पहाड़ में घाटियों के ऊपरी क्षेत्रों में कंकड़-पत्थर वाली ऐसी कृषि भूमि, जिसमें सिंचाई नहीं हो सकती हैं। यहाँ की खेती वर्षा के भरोसे ही होती हैं।

सेरा : इस शब्द का उपयोग भी सिंचित तलाऊँ भूमि के लिए ही किया जाता हैं।

पचार-सिमार : पहाड़ में पचार-सिमार उस भूमि को कहा जाता है, जो नदी-घाटी में स्थित हो और जहा प्राकृतिक स्रोत से लगातार पानी रिसता रहता हो, ऐसी भूमि में धान की फसल बहुत अच्छी होती हैं। इस भूमि में साल में एक बार ही फसल बोई जाती हैं।

तलिया : भूमि की उर्वरता कि द्रष्टि से ऐसी भूमि तलाऊँ व उपरौ के मध्य मानी जाती हैं। ऐसी भूमि पत्थर रहित होती है और बिना सिंचाई के भी अच्छी पैदावार देती हैं। सिंचाई की सुविद्या मिलने पर और उत्तम फसल की पैदावार होती हैं।

इसे भी पढ़े: पहाड़ी भट्ट के फायदे और भट्ट की चटनी की रेसिपी

खिल-कटील : जंगल में लगे ऐसी बंजर भूमि जिसे खेती योग्य बनाया जाता हैं, खिल कहलाती हैं। ऐसी भूमि में कई बार बिना खेत बनाये ही हल से जुताई करके या फिर खोद कर फसल बो दी जाती हैं। एक बार फसल लेने के बाद उसे फिर कम से कम तीन साल के लिये बंजर छोड़ दिया जाता हैं।

Follow us on Google News Follow us on WhatsApp Channel
Bikram Singh Bhandari
Bikram Singh Bhandarihttps://devbhoomidarshan.in/
बिक्रम सिंह भंडारी, देवभूमि दर्शन के संस्थापक और प्रमुख लेखक हैं। उत्तराखंड की पावन भूमि से गहराई से जुड़े बिक्रम की लेखनी में इस क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर, और प्राकृतिक सौंदर्य की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी रचनाएँ उत्तराखंड के खूबसूरत पर्यटन स्थलों और प्राचीन मंदिरों का सजीव चित्रण करती हैं, जिससे पाठक इस भूमि की आध्यात्मिक और ऐतिहासिक विरासत से परिचित होते हैं। साथ ही, वे उत्तराखंड की अद्भुत लोककथाओं और धार्मिक मान्यताओं को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। बिक्रम का लेखन केवल सांस्कृतिक विरासत तक सीमित नहीं है, बल्कि वे स्वरोजगार और स्थानीय विकास जैसे विषयों को भी प्रमुखता से उठाते हैं। उनके विचार युवाओं को उत्तराखंड की पारंपरिक धरोहर के संरक्षण के साथ-साथ आर्थिक विकास के नए मार्ग तलाशने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी लेखनी भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि से परिपूर्ण है। बिक्रम सिंह भंडारी के शब्द पाठकों को उत्तराखंड की दिव्य सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत की अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाते हैं, जिससे वे इस देवभूमि से आत्मिक जुड़ाव महसूस करते हैं।
RELATED ARTICLES
spot_img
Amazon

Most Popular

Recent Comments