Monday, May 26, 2025
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मुंशी हरि प्रसाद टम्टा, उत्तराखंड में दलित और शोषित जातियों के मसीहा

उत्तराखंड में दलितों, पिछड़ों ,शोषित समाज समाज को उनका हक़ दिलाने वाले, उनको एक पहचान और नाम दिलाने वाले मुंशी हरि प्रसाद टम्टा जी का जन्म 26 अगस्त 1857 को हुवा था। पिता का नाम गोविन्द प्रसाद और माँ का नाम गोविंदी देवी था। इनका परिवार एक ताम्रशिल्पी परिवार था। हरि प्रसाद अपने माता -पिता की पहली संतान थे। इनका एक भाई ,जिसका नाम ललित था, और एक बहिन जिनका नाम कोकिला था। बचपन में ही हरि प्रसाद जी के पिता का निधन हो गया। इसके बाद हरि प्रसाद जी का लालन -पालन उनके मामा ने किया।

मुंशी हरि प्रसाद टम्टा जी का जन्म उत्तराखंड के पिछड़े में हुवा था। इसलिये उन्हें  समाज में फैली छुआछूत ,अश्पृश्यता का सामना  बचपन से ही करना पड़ा। उन्होंने बचपन में ही अपने मन में दृढ निर्णय लिया कि वे समाज में फैली इस असमानता को खत्म करने की दिशा में काम करेंगे। उस समय दलित वर्ग के लोगों के लिए शिक्षा हासिल करना लोहे के चने चबाना जैसा होता था। उनके मामा ने उन्हें शिक्षा हासिल करने  लिए प्रेरित किया। मामा की प्रेरणा और सहयोग से हरि प्रसाद जी ने हाईस्कूल तक की शिक्षा प्राप्त की। उर्दू और फ़ारसी में महारथ हासिल करके मुंशी की उपाधि प्राप्त की।

मुंशी हरि प्रसाद टम्टा
फोटो साभार -सोशल मीडिया

अल्मोड़ा में 1911 में जार्ज प्रथम की बैठक में , सवर्णो ने अपने मामा जी के साथ गए हरि प्रसाद को अपने साथ बिठाने और कुर्सी देने से इंकार कर दिया। इस घटना ने युवा हरि प्रसाद के मन को झकझोर दिया। उन्होंने वही संकल्प  लिया कि वे आजीवन इस सामाजिक असमानता को दूर करने के लिए संघर्ष करते रहेंगे। 1913 में वे अल्मोड़ा नगरपालिका के मेंबर चुने गए। किन्तु तत्कालीन सवर्ण समाज को यह रास नहीं आया। लेकिन हरि प्रसाद टम्टा जी ने हार नहीं मानी ,वे लगातार दलितों और शोषितों के उन्नमूलन के लिए कार्य करते रहे।

उन्होंने सभी दलितों को जनेऊ धारण करवार शिक्षा देना शुरू किया। उन्होंने 1925 में अल्मोड़ा में दलित समाज का बड़ा सम्मेलन करके उन्हें अपने बच्चों को पढ़ाने और उनके नाम के पीछे ,राम ,प्रसाद , कुमार ,लाल, चंद्र , आदि उपनाम या मध्य नाम लिखवाने का आवाहन किया। दलित समाज के लिए 150 से अधिक स्कूल खुलवाए। अंग्रेज शाशको से बात करके उन्होंने जनगणना में दलितों की अलग अलग जातियों की जगह ,एक शब्द शिल्पकार लिखवाने में सफल हुए।

1931 की जनगणना के बाद ,दलित जातियों के लिए अलग -अलग जाती की जगह एक शब्द “शिल्पकार ” लिखा जाने लगा। टम्टा जी की समाज सेवा और शोषितों को न्याय दिलाने की ललक से प्रभावित होकर अंग्रेजों ने उन्हें 1935 में रायबाहदुर की उपाधि प्रदान की। टम्टा जी के प्रयासों के फलस्वरूप 1935 से पिछड़ी जाती के लोगों को पुलिस, चपरासी ,अर्दली ,माली आदि पदों में नौकरी दी जाने लगी। सन 1938 से दलित समाज के लोगों के लिए सेना में भर्ती की शुरुवात भी टम्टा जी के अथक प्रयासों का फल था।

उन्होंने समाज में शोषितों के लिए हक़ की लड़ाई लड़ते हुए 1934 में समता नमक अखबार चलाया। सन 1942 से 1945 तक वे नगरपालिका अल्मोड़ा के अध्यक्ष भी रहे। एवं उनका चयन जिला परिषद में भी हुवा। टम्टा जी ने समाज में महिलाओं के हितार्थ भी कई सामजिक कार्य किये।

23 फरवरी 1960 के दिन मुंशी हरि प्रसाद टम्टा जी का निधन हो गया। हरी प्रसाद टम्टा जी उत्तराखंड के शोषित समाज के लोगो के लिए एक मसीहा से कम नहीं थे। दलित समाज के लिए किये गए अभूतपूर्व उत्थान कार्यों के लिए ,लोग उन्हें उत्तराखंड के भीम राव अम्बेडकर तक कहते थे |

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Bikram Singh Bhandari
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बिक्रम सिंह भंडारी, देवभूमि दर्शन के संस्थापक और प्रमुख लेखक हैं। उत्तराखंड की पावन भूमि से गहराई से जुड़े बिक्रम की लेखनी में इस क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर, और प्राकृतिक सौंदर्य की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी रचनाएँ उत्तराखंड के खूबसूरत पर्यटन स्थलों और प्राचीन मंदिरों का सजीव चित्रण करती हैं, जिससे पाठक इस भूमि की आध्यात्मिक और ऐतिहासिक विरासत से परिचित होते हैं। साथ ही, वे उत्तराखंड की अद्भुत लोककथाओं और धार्मिक मान्यताओं को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। बिक्रम का लेखन केवल सांस्कृतिक विरासत तक सीमित नहीं है, बल्कि वे स्वरोजगार और स्थानीय विकास जैसे विषयों को भी प्रमुखता से उठाते हैं। उनके विचार युवाओं को उत्तराखंड की पारंपरिक धरोहर के संरक्षण के साथ-साथ आर्थिक विकास के नए मार्ग तलाशने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी लेखनी भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि से परिपूर्ण है। बिक्रम सिंह भंडारी के शब्द पाठकों को उत्तराखंड की दिव्य सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत की अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाते हैं, जिससे वे इस देवभूमि से आत्मिक जुड़ाव महसूस करते हैं।
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