Thursday, May 22, 2025
Homeसंस्कृतिगोवर्धन पूजा से अलग होती है कुमाऊं की गोधन पूजा या गाखिले...

गोवर्धन पूजा से अलग होती है कुमाऊं की गोधन पूजा या गाखिले त्यार !

गोवर्धन पूजा दीपावली के दूसरे दिन मनाया जाने वाला त्यौहार है। जिसमे वृज के गोवर्धन पर्वत की पूजा की जाती है। कहते हैं द्वापर युग में भगवान् कृष्ण ने यह पूजा इंद्र देव का घमंड चूर करने के लिए शुरू करवाई थी। तबसे आज तक नियत दिन पर यह पूजा पुरे विधिपूर्वक होती है। मगर क्या आपको पता है ? उत्तराखंड के पहाड़ी हिस्से में  खासकर कुमाऊं मंडल में यह पूजा जा नहीं होती बल्कि गोवर्धन पूजा के नाम पर या उसकी जगह पर गोधन पूजा होती है। जिसमे स्थानीय निवासी अपनी पशुधन की पूजा करते हैं और उनकी सेवा और पूजा करके आभार प्रकट करते हैं।

गोवर्धन पूजा

गोवर्धन पूजा से हटकर होता है कुमाऊं का गाखिले त्यार –

दिवाली के दूसरे दिन मनाये जाने के कारण लोग इसे वृज वाली गोवर्धन पूजा मान लेते हैं। और यह नाम में भी मिलता जुलता है। किन्तु पहाड़ की गोधन पूजा मैदानों की गोवर्धन पूजा से अलग है। यह पहाड़ का अपना एक पशुउत्सव है। और गोवर्धन पूजा एक पर्वोत्सव है। कुमाऊँ के ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों  में इस दिन प्रात:काल ‘गोधन’ (गायों तथा बैलों) के सींगों में घी मलकर कच्ची हल्दी को पीसकर मठे में मिलाये गये चावल के घोल से किसी खुले मुंह के पात्र, गिलास, कटोरी आदि से इनके सम्पूर्ण शरीर में थापे (ठप्पे) लगाये जाते हैं। कई जगह केवल चावल भीगा कर उन्हें पीस कर ठप्पे लगाए जाते हैं। 

इन थापों को माणा कहा जाता है। तथा उन्हें खाने के लिए बढ़िया दाना तथा चारा दिया जाता है। उनकी घंटियाँ के नये डोरे लगाये जाते हैं, सिरों को फूलों से सजाया जाता है। गले में भी फूलमाला डाली जाती है। घर में खीर, हलवा, पूड़ी बनाये जाते हैं। थापा लगाने वाला ग्वाला हलवा-पूड़ी को एक गमछे या वस्त्र खण्ड के दोनों कोनों पर बांध कर अपने कन्धे में आगे-पीछे लटका कर थापा लगाते हुए मंगल कामनात्मक गीत की पंक्तियों को दुहराता जाता है।

‘गोधनि म्हारा (महाराज) की लतकनि भारी,
थोरि दे बाछि दे’

अर्थात ‘हे गोधन देवता तुम हमारी गायों की बच्छियां तथा भैंसों की कट्टियां (थोरिया) देना। कुमाऊं के कतिपय हिस्सों में गोवर्धन पूजा ( गोधन पूजा ) के गोशाला में गोधन की पूजा करते हुए छोटी सी मथनी से छास भी बनाई जाती है। कुमाऊं के पहाड़ी हिस्सों में यह गाखिले त्यौहार के नाम से भी जाना जाता है। इसके बाद पहाड़ों में इस दिन च्यूड़ कुटाई का कार्य किया जाता है। जिसकी दूसरे दिन बगवाई या दुतिया त्यौहार पर कुलपुरोहित प्राण प्रतिष्ठा करते हैं और कुल देवों को चढ़ने के बाद आपस में प्रसाद स्वरूप बितरित किये जाते हैं।

पहाड़ में मनाये जाने वाले इस पर्व की मानाने की विधि और परम्पराएं  गोवर्धन पूजा से अलग होने के कारण इस बात की पुष्टि हो जाती है कि यह पहाड़ के स्थानीय लोगों का अपना लोकपर्व है। जिसमे नाम साम्य होने के कारण हम वृज  की गोवर्धन पूजा का स्वरूप मान लेते हैं।

नोट – इस लेख की फीचर फोटो माननीय मुख्यमंत्री जी के सोशल मीडिया हैंडल से और दूसरी फोटो  रेखा बोरा जी सोमेश्वर घाटी पेज के सहयोग से संकलित की गई है। इस लेख के संकलन में उत्तराखंड ज्ञानकोष पुस्तक का सहयोग भी लिया गया है। 

इन्हे भी पढ़ें _

पहाड़ में बूढ़ी दीवाली का जश्न अभी बाकि है। इस तारीख को मनाई जाएगी बूढी दीवाली।
छोटी दीपावली पर खास होता है उत्तराखंड का यमदीप उत्सव या यमदीप मेला।
कुमाऊं के शक्तिशाली लोक देवता जिन्होंने अल्मोड़ा को जल संकट से उबारा था ।

हमारे व्हाट्सअप ग्रुप में जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।

Follow us on Google News Follow us on WhatsApp Channel
Bikram Singh Bhandari
Bikram Singh Bhandarihttps://devbhoomidarshan.in/
बिक्रम सिंह भंडारी, देवभूमि दर्शन के संस्थापक और प्रमुख लेखक हैं। उत्तराखंड की पावन भूमि से गहराई से जुड़े बिक्रम की लेखनी में इस क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर, और प्राकृतिक सौंदर्य की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी रचनाएँ उत्तराखंड के खूबसूरत पर्यटन स्थलों और प्राचीन मंदिरों का सजीव चित्रण करती हैं, जिससे पाठक इस भूमि की आध्यात्मिक और ऐतिहासिक विरासत से परिचित होते हैं। साथ ही, वे उत्तराखंड की अद्भुत लोककथाओं और धार्मिक मान्यताओं को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। बिक्रम का लेखन केवल सांस्कृतिक विरासत तक सीमित नहीं है, बल्कि वे स्वरोजगार और स्थानीय विकास जैसे विषयों को भी प्रमुखता से उठाते हैं। उनके विचार युवाओं को उत्तराखंड की पारंपरिक धरोहर के संरक्षण के साथ-साथ आर्थिक विकास के नए मार्ग तलाशने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी लेखनी भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि से परिपूर्ण है। बिक्रम सिंह भंडारी के शब्द पाठकों को उत्तराखंड की दिव्य सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत की अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाते हैं, जिससे वे इस देवभूमि से आत्मिक जुड़ाव महसूस करते हैं।
RELATED ARTICLES

Most Popular

Recent Comments