बूढ़ी दीवाली 2022 :-
“देश भर में अपनी अलग और अनोखी संस्कृति के लिए प्रसिद्ध उत्तराखंड के जौनसार बावर क्षेत्र और हिमाचल के कुछ क्षेत्रों में दीवाली 23 नवंबर 2022 को मनाई जाएगी ।जिसे बूढ़ी दीवाली कहते हैं। यह पर्व दीवाली के ठीक एक माह बाद मनाया जाता है। और इसी के साथ उत्तरकाशी की गंगा घाटी में मंगसीर बग्वाल और यमुना घाटी में देवलांग बड़े धूम धाम से मनाई जाती है। ”
जैसा कि हमे ज्ञात है, कि समस्त गढ़वाल में 4 बग्वाल मनाई जाती है। इन बग्वालों मे गढ़वाल, कुमाऊं और जौनसार उत्तराखंड की तीनों संस्कृतियों की अपनी दीवाली मनाई जाती है। जिसे बूढ़ी दीवाली के नाम से जानते है। हरिबोधनी एकादशी को गढ़वाल के कुछ क्षेत्रों में इगास बग्वाल के रूप में बूढ़ी दीवाली जाती है । और देव दीवाली ,कार्तिक पूर्णिमा को कुमाऊं क्षेत्र में बूढ़ी दीवाली मनाई जाती है। वहीं मुख्य दीवाली के ठीक एक माह बाद जौनसार में बूढ़ी दीवाली मनाई जाती है । यह पारम्परिक पर्व पांच दिन तक चलता है। पटाखों प्रदूषण से मुक्त और आपस मे एकता और खुशियों का संदेश देने वाली ये दीवाली असली eco friendly deewali होती है। यह दीवाली कुल मिलाकर 5 दिन की होती है। पहले दिन छोटी दीवाली, दूसरे दिन रणदयाला , तीसरे दिन बड़ी दीवाली , चौथे दिन बिरुड़ी और पांचवे दिन जनदोई मेले के साथ दीवाली का समापन होता है।
जौनसार में बूढ़ी दीवाली मनाने के पीछे अलग अलग मत हैं। बड़े बूढ़े बुजुर्गों के अनुसार यहां ,भगवान राम के वापस आने का पता एक माह बाद चला इसलिए यहाँ एक माह बाद यहां दीवाली मनाते हैं। जबकि यहां के युवाओं का मत हैं कि, मुख्य दीवाली के समय खेती का काम चल रहा होता है। सबको एक साथ इक्क्ठा होने का समय भी नही होता। एक माह बाद सब काम निपटाकर सब मिल कर खुशियां मनाते हैं।

कुछ इस प्रकार मनाई जाती है, जौनसार की बूढ़ी दीवाली :-

जौनसार की बूढ़ी दीवाली के दिन , परम्परा अनुसार गाँव के कुछ दूर लकड़ियों का ढेर बनाते हैं। इसे होला कहते हैं। पहले दिन रात को होला जला कर , ढोल दमू के साथ नाचते गाते, मशाल जलाते हैं। और मशाल लेकर दीवाली के गीत गाते हुए ,गाव आते हैं। बूढ़ी दीवाली के दूसरे दिन पंचायत भवन के आंगन में अलाव जलाकर । नाचते गाते हैं। ( बूढ़ी दीवाली )
खास है बूढ़ी दीवाली की भिरूढ़ि परम्परा :-
जौनसार की बूढ़ी दीवाली पर भिरूढ़ि परम्परा बहुत खास है। इस परंपरा में लोग पंचायत भवन के आंगन में अपने इष्ट देवता के नाम के अखरोट जमा करते हैं, और दीवाली के गीत गाते हैं । दीवाली के गीत के बाद ,गाव का मुखिया इन अखरोटों को आंगन में फैला देता है। और लोग इन्हें देव प्रसाद के रूप में अधिक से अधिक एकत्र करने की कोशिश करते हैं।
पारम्परिक परिधान ,जौनसारी लोक गीतों व लोकनृत्य के साथ बूढ़ी दीवाली का मजा दोगुना हो जाता है । :-
इस त्योहार पर महिलाएं व पुरूष एकत्र होकर , जौनसारी लोकगीत गाते हैं। और जौनसारी नृत्य हारुल, रासो ,नाटी आदि का आनंद लेते हैं। इस त्यौहार की खासियत यह है, कि यहां के लोग इसे अलग अलग नगरों में नही मनाते, बल्कि अपने गावँ जाकर ,एकसाथ पारम्परिक वस्त्रों में धूम धाम से मनाते हैं।
इसे भी पढ़िए :- अनोखा मंदिर है, रवाईं घाटी के पोखू देवता का मंदिर , जहाँ पीठ घुमाकर होती है पूजा।
खास होते हैं बूढ़ी दीवाली पर बनने वाले च्युड़े ( चिवड़े ):-
जौनसार की बूढ़ी दीवाली में , मेहमानों को चिवड़ा , मूडी व अखरोट देते हैं। दीवाली का खास आकर्षण होता है। पहाड़ों प्रसिद्ध व्यंजन चिवड़ा । चिवड़ा चावल से बना एक विशेष खाद्य है। जो काफी समय तक चलता है। चिवड़ा बनाने के लिए , धान को कई दिन पहले से भिगाने डाल देते हैं। उसके बाद उसे आंछ में सेक कर , ओखली में कूट कर चपटे कर दिया जाता है। और साफ करके इसको खाते हैं। चिवड़े का प्रयोग कुमाऊं में मुख्य दीवाली में किया जाता है। कुमाऊं में यम द्वितीया पर बग्वाई त्योहार मनाया जाता है।
देवलांग और मंगसीर बग्वाल भी होती है खास :-
जौनसार क्षेत्र से लगे जिले उत्तरकाशी में इस बूढ़ी दीवाली के अवसर पर , मंगसीर बग्वाल और देवलांग मनाई जाती है। मंगसीर बग्वाल गंगा घाटी के लोग मनाते है। और देवलांग यमुना घाटी में मनाई जाती है।
मंगसीर बग्वाल :-
उत्तराखंड के वीर भड़ो , माधो सिंह भंडारी और लोदी रीखोला के तिब्बत युद्ध जीत कर आने की खुशी में मनाई जाती है। मंगसीर बग्वाल सन 1632 में गढ़वाल नरेश महिपत शाह के शाशन काल मे ,गढ़वाल और तिब्बत सेना के बीच युद्ध हुवा था। गढ़वाल की सेना का नेतृत्व माधो सिंह भंडारी और लोदी रीखोला ने किया था। मुख्य दीवाली को गढ़वाल सेना और गढ़वाल के वीर सेनापति युद्ध मे फसे होने के कारण ,गढ़वाल में मुख्य दीवाली नही मनाई गई। कार्तिक एकादशी को इनके जीत की खुशी में या वापस आने की खुशी में इगाश मनाई गई। और इनके वापस अपने घर मलेथा आने की खुशी में प्रतिवर्ष मंगसीर बग्वाल मनाई जाती है।

गज्जू मलारी की अमर प्रेम कथा पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
रवाईं घाटी की सम्रद्ध संस्कृति का प्रतीक है देवलांग पर्व :-
देवलांग पर्व रवाईं घाटी का लोकोत्सव है। रवाईं घाटी अर्थात यमुना घाटी के विशेष त्योहारों में शामिल है देवलांग । बूढ़ी दीवाली या मंगसीर बग्वाल की तरह देवलांग भी बड़ी दीवाली के ठीक एक माह बाद मनाई जाती है। ( देवलांग की शुभकामनाएं )
रवाईं घाटी की बनाल पट्टी के गावँ दो दलों में बटे है। एक दल का नाम साठी है, जबकि दूसरे दल का नाम पांसाई। ये दोनों दल एक माह पूर्व से देवलांग की तैयारियां शुरू कर देते हैं। देवलांग मनाने के लिए पहले छिलकों की व्यवस्था की जाती है। और इस दिन अमावस्या के दिन लोग , व्रत रखते हैं और बड़ी श्रद्धा के साथ देवदार के लंबे पेड़ को राजा रघुनाथ मंदिर में लाते हैं। इस पर छिलके बांधते है। रात को लोग ,ढोल नगाड़ों के साथ अलग अलग दलों के साथ ,यहाँ पहुचते हैं । नाच गाने के साथ खुशियां मनाते हैं। सुबह होने से पहले , रात्रि के अंतिम पहर में इसके छिलकों में आग लगाकर इसे खड़ा किया जाता है। साठी और पांसाई दलों के लोग इसे खड़ा करते हैं। इसे देवलांग कहा जाता है। यह पेड़ सुबह तक जलता रहता है। अगले दिन यहाँ ऐतिहासिक देवलांग मेला लगता है।

ऐतिहासिक देवलांग की लोक कथा :-
कहा जाता है कि प्राचीन काल मे , उत्तरकाशी क्षेत्र में कौरव और पांडवो का विशेष लगाव था। खास कर कौरवों का , क्योंकि सारे भारत मे एक उत्तरकाशी ऐसी जगह है। जहाँ कौरवों के राजा दुर्योधन को पूजा जाता है
और कर्ण को भी यहाँ पूजा जाता है। वैसे पूरा उत्तराखंड में महाभारत काल से जुड़ा हुवा है। दुर्योधन को पूजना सुनकर कुछ अटपटा लगता है। लेकिन हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि दुर्योधन, कौरव पांडव सत्ता के लिए आपस मे लड़े थे। लेकिन जनता के लिए दुर्योधन का कहीं भी नकारात्मक वर्णन नही है। दुर्योधन भी आम राजाओं की तरह जानता के लिए ,जनहितकारी होंगे तभी तो उन्हें भी लोग पूजते हैं। ( देवलांग की शुभकामनाएं )
अब आते है, देवलांग की कहानी पर ,कहा जाता है कि त्रेता युग मे महाभारत के युद्ध का निमंत्रण बनाल पट्टी वालों को भी मिला । और इसमे से कुछ लोगों ने कौरवों का साथ दिया ,जो कालांतर में साठी दल के लोग कहलाये। और कुछ ने पांडवों का साथ दिया ,और वे पांसाई कहलाते है। वर्तमान में देवलांग एक तरह का प्रतीकात्मक धर्मयुद्ध के तौर पर मनाते हैं। बनाल के दोनों तोको के लोग अपने इष्ट देवता राजा रघुनाथ मंदिर में पहुँचते है। और वहां सांकेतिक युद्ध अभ्यास करके , देवलांग को जलाकर ,उसे डंडों और बल्लियों के सहारे खड़ा करते हैं। और उस देव वृक्ष से मन्नतें मांगते हैं। प्राथना करते हैं।
देवभूमी दर्शन के व्हाट्सप्प ग्रुप से जुड़ने के लिए यहां क्लिक करें।