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गोवर्धन पूजा से अलग होती है कुमाऊं की गोधन पूजा या गाखिले त्यार !

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गोवर्धन पूजा दीपावली के दूसरे दिन मनाया जाने वाला त्यौहार है। जिसमे वृज के गोवर्धन पर्वत की पूजा की जाती है। कहते हैं द्वापर युग में भगवान् कृष्ण ने यह पूजा इंद्र देव का घमंड चूर करने के लिए शुरू करवाई थी। तबसे आज तक नियत दिन पर यह पूजा पुरे विधिपूर्वक होती है। मगर क्या आपको पता है ? उत्तराखंड के पहाड़ी हिस्से में  खासकर कुमाऊं मंडल में यह पूजा जा नहीं होती बल्कि गोवर्धन पूजा के नाम पर या उसकी जगह पर गोधन पूजा होती है। जिसमे स्थानीय निवासी अपनी पशुधन की पूजा करते हैं और उनकी सेवा और पूजा करके आभार प्रकट करते हैं।

गोवर्धन पूजा

दिवाली के दूसरे दिन मनाये जाने के कारण लोग इसे वृज वाली गोवर्धन पूजा मान लेते हैं। और यह नाम में भी मिलता जुलता है। किन्तु पहाड़ की गोधन पूजा मैदानों की गोवर्धन पूजा से अलग है। यह पहाड़ का अपना एक पशुउत्सव है। और गोवर्धन पूजा एक पर्वोत्सव है। कुमाऊँ के ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों  में इस दिन प्रात:काल ‘गोधन’ (गायों तथा बैलों) के सींगों में घी मलकर कच्ची हल्दी को पीसकर मठे में मिलाये गये चावल के घोल से किसी खुले मुंह के पात्र, गिलास, कटोरी आदि से इनके सम्पूर्ण शरीर में थापे (ठप्पे) लगाये जाते हैं। कई जगह केवल चावल भीगा कर उन्हें पीस कर ठप्पे लगाए जाते हैं। 

इन थापों को माणा कहा जाता है। तथा उन्हें खाने के लिए बढ़िया दाना तथा चारा दिया जाता है। उनकी घंटियाँ के नये डोरे लगाये जाते हैं, सिरों को फूलों से सजाया जाता है। गले में भी फूलमाला डाली जाती है। घर में खीर, हलवा, पूड़ी बनाये जाते हैं। थापा लगाने वाला ग्वाला हलवा-पूड़ी को एक गमछे या वस्त्र खण्ड के दोनों कोनों पर बांध कर अपने कन्धे में आगे-पीछे लटका कर थापा लगाते हुए मंगल कामनात्मक गीत की पंक्तियों को दुहराता जाता है।

‘गोधनि म्हारा (महाराज) की लतकनि भारी,
थोरि दे बाछि दे’

अर्थात ‘हे गोधन देवता तुम हमारी गायों की बच्छियां तथा भैंसों की कट्टियां (थोरिया) देना। कुमाऊं के कतिपय हिस्सों में गोवर्धन पूजा ( गोधन पूजा ) के गोशाला में गोधन की पूजा करते हुए छोटी सी मथनी से छास भी बनाई जाती है। कुमाऊं के पहाड़ी हिस्सों में यह गाखिले त्यौहार के नाम से भी जाना जाता है। इसके बाद पहाड़ों में इस दिन च्यूड़ कुटाई का कार्य किया जाता है। जिसकी दूसरे दिन बगवाई या दुतिया त्यौहार पर कुलपुरोहित प्राण प्रतिष्ठा करते हैं और कुल देवों को चढ़ने के बाद आपस में प्रसाद स्वरूप बितरित किये जाते हैं।

पहाड़ में मनाये जाने वाले इस पर्व की मानाने की विधि और परम्पराएं  गोवर्धन पूजा से अलग होने के कारण इस बात की पुष्टि हो जाती है कि यह पहाड़ के स्थानीय लोगों का अपना लोकपर्व है। जिसमे नाम साम्य होने के कारण हम वृज  की गोवर्धन पूजा का स्वरूप मान लेते हैं।

नोट – इस लेख की फीचर फोटो माननीय मुख्यमंत्री जी के सोशल मीडिया हैंडल से और दूसरी फोटो  रेखा बोरा जी सोमेश्वर घाटी पेज के सहयोग से संकलित की गई है। इस लेख के संकलन में उत्तराखंड ज्ञानकोष पुस्तक का सहयोग भी लिया गया है। 

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