Friday, December 27, 2024
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कंडोलिया पार्क पौड़ी गढ़वाल की नई पहचान।

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कंडोलिया पार्क

कंडोलिया पार्क  पौड़ी गढ़वाल की नई पहचान। जी हा गुरुवार 28 जनवरी को मुख्मंत्री जी के कर कमलों द्वारा, यह थीम पार्क पौड़ी की जनता को समर्पित कर दिया गया।

कंडोलिया पार्क के बारे में –

यह उत्तराखण्ड राज्य के पौड़ी गढ़वाल में स्थित है। पौड़ी गढ़वाल के कमद नामक स्थान पर देवदार के घने पेड़ों के बीच बसा है।यह  पार्क भारत का सबसे ऊंचा पार्क है। यह भारत का पहला थीम पार्क है। ये  1750 मीटर के हाई अल्टिट्यूड पर बना है।

कंडोलिया पार्क
कंडोलिया पार्क, फोटो साभार गूगल

पौड़ी गढ़वाल के जिलाधिकारी 2019 मे कंडोलिया पार्क को नया रूप देने की योजना बनाई ,इस थीम पार्क को बनाने में पौड़ी गढ़वाल के जिलाधिकारी महोदय का महत्वूर्ण योगदान है।28 जनवरी 2021 को माननीय मुख्यमंत्री जी ने इसका उद्घाटन किया। मुख्यमंत्री महोदय ने उत्तघाटन अवसर पर बताया कि, आज तक हमारा राज्य धार्मिक टूरिज्म पर केंद्रित था। अब राज्य को एडवेंचर टूरिज्म की तरफ बड़ा रहे हैं।

विंटर टूरिज्म को राज्य में बड़ावा दिया जाएगा। आने वाले समय में एडवेंचर टूरिज्म पर और ध्यान दिया जाएगा। आने वाले समय में सतपुली में सतपुली झील में भी टिहरी झील की तर्ज पर सी-प्लेन की योजना है।मुख्यमंत्री महोदय ने कहा कि पौड़ी गढ़वाल के टूरिज्म को नए पंख लगाएगा।

कंडोलिया पार्क
Kandoliya park, photo credit-Google

कंडोलिया पार्क की विशेषताएं-

  • इस पार्क की सबसे बड़ी विशेषता लेजर लाइट सिस्टम तथा म्यूजिकल फाउंटेन सिस्टम है।
  • लेजर लाइट मे कंडोलिया पार्क की छटा देखते ही बनती है।
  • यह पार्क भारत का सबसे ऊंचा पार्क है।
  • यह पार्क भारत का पहला थीम पार्क है।
  • इसमें हर  उम्र वर्ग के लिए अलग अलग व्यवस्था है।
  • पार्क उत्तरकाशी के कोटि बनाल शैली पर आधारित है।
  • यहां पर्यटकों के लिए स्विस काटेज बने हैं।
  • थीम  पार्क में स्थानीय मनोरंजन की व्यवस्था भी है।
  • यहां जिम, स्केटिंग एवं रिंग की व्यवस्था भी है।
  • इस पार्क में स्थानीय पहाड़ी संस्कृति को जीवंत रूप देने का पवित्र प्रयास किया गया है।
कंडोलिया पार्क
कंडोलिया पार्क , लेजर शो।
Image credit-Google

यहां भी देखे…….कोटि बनाल शैली , उत्तराखण्ड की विशेष वस्तु शैली।

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Rj kaavya उर्फ कवींद्र सिंह मेहता जी का जीवन परिचय।

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rj kaavya
rj kaavya

“सोच लोकल,अप्रोच ग्लोबल” के विजन पर “उत्तर के पुत्तर” RJ kaavya उर्फ कवीन्द्र सिंह मेहता लेकर आएं है,उत्तराखंड का पहला डिजिटल रेडिओ ओहो रेडिओ आइये जानते हैं Rj kaavya उर्फ कवींद्र सिंह मेहता जी का जीवन परिचय।

वर्तमान में rj kaavya नाम से प्रसिद्ध कवीन्द्र सिंह मेहता उत्तराखंड के नवयुवाओं के लिए एक प्रेरणा स्रोत बन कर उभर रहे हैं। काव्य ने अपना डिजिटल रेडिओ ओहो रेडिओ शुरू करके,उत्तराखंड के नवयुवाओं के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत किया है, कि अगर मन मे लगन हो तो कुछ भी असंभव नहीं है।

प्रारंभिक जीवन -:

12 जुलाई 1988 को जन्मे ,कवीन्द्र सिंह मेहता उर्फ rj kaavyaa मूलतः बागेश्वर जिले के निवासी हैं। उनकी आरम्भिक शिक्षा बागेश्वर में ही हुई है। आगे की पढ़ाई के लिए, उनके माता जी ने उन्हें दिल्ली मामा जी के पास भेज दिया। पढ़ाई पूरी करने के बाद ,उन्होंने रेडिओ जॉकी बनने का निश्चय किया।

एक इंटरव्यू में वो बताते हैं, 2006 में जब उन्होंने लगे रहो मुन्ना भाई फ़िल्म में, अभिनेत्री विद्या बालन को रेडियो जॉकी का किरदार करते हुए देखा, तो उसी समय अपनी माता जी को कहा, “मुझे भी रेडियो जॉकी बनना है।”

काव्य से RJ kaavya बनने का सफर -:

जब काव्य उर्फ कवीन्द्र सिंह मेहता ने सोच लिया, कि अब रेडियो जॉकी बनना है। फिर उन्होंने fm रेडियो कंपनियों में रेडियो जॉकी की नौकरी ढूढ़नी शुरू कर दी, दो वर्ष के कठिन संघर्ष के बाद ,काव्य को जयपुर  2008 में myFm में रेडियो जॉकी की नौकरी मिली। फिर काव्य नेे पीछे मुड़कर नहीं देखा।

2010 में, वो Red FM से जुुड़ गए। उसके बाद काव्य ने Red fm के साथ,जयपुर,कानपुर,कोलकाता और दिल्ली जैसे शहरों में काम किया। उनकी मन की मुराद 2018 में पूरी हुई। जब red fm ने देहरादून में रेडियो स्टेशन खोलने का निर्णय लिया,और रेडियो जॉकी के रूप में भेजा काव्य को।

मन मे जन्मभूमि के लिए कुछ कर गुजरने का संकल्प लेकर कवीन्द्र पहुंच गए अपनी जन्मभूमि। यहाँ पहुँच कर rjkaavyaa ने कई सराहनीय कार्यों की शुरुआत की।सर्वप्रथम उन्होंने अपने शो morning no 1 में , एक कार्यक्रम चलाया, “एक पहाड़ी ऐसा भी”।

इस कार्यक्रम के अंतर्गत उन्होंने उन लोगों एक मंच दिया,किसी भी क्षेत्र में कार्य करके अपनी देवभूमि की सेवा कर रहे हैं। youtube से काव्य  उत्तर का पुत्तर करके एक शो चलाते हैं। जिसमे वो आपनी संस्कृति का प्रचार प्रसार एवं,स्थानीय कलाकारों को एक मंच प्रदान करते हैँ।

काव्या  ने पलायन की समस्या से जूझ रहे प्रदेश के लिए, Ghost village नहीं Dost village एक मुहिम चलाई। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में  rj karavaya को निर्वाचन आयोग ने अपना ब्रांड एंबेसडर नियुक्त किया।

सब कुछ अच्छा चल रहा था, लेकिन किन्ही कारणों से अक्टूबर 2020 में rjkaavya को RedFM छोड़ना पड़ा। मगर उत्तर के पुत्तर ने हार नही मानी, उत्तराखंड राज्य स्थापना के दिन उन्होंने अपने रेडियो OHO Radio की घोषणा कर दी।

rj kaavya

ओहो रेडियो स्टेशन –

“सोच लोकल अप्रोच ग्लोबल”  के विजन पर उत्तर के पुत्तर  rj kaavya लेकर आएं हैं, उत्तराखंड का पहला digital redio OHO Radio । OHO Radio की स्थापना 3 फरवरी 2021 को तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री, त्रिवेंद्र सिंह रावत जी के कर कमलों द्वारा हुई।

ओहो रेडियो एक app बेस्ड डिजिटल रेडियो है।  oho radio के द्वारा , समस्त उत्तराखंड के साथ साथ , जो उत्तराखंड के लोग बाहर रहते हैं, वो भी अपने गीत, संस्कृति से जुड़े हुए हैं। मार्च 2021 , अप्रैल 2021 में rj काव्या ने एक ओहो हिल यात्रा भी की थी। जिसके अंतर्गत उन्होंने लगभग सारे उत्तराखंड की यात्रा की थी।

RJ काव्य और उनका ओहो रेडियो स्टेशन ,उत्तराखंड की संस्कृति और भाषा का प्रचार प्रसार करते हुए। निरंतर आगे बढ़ रहे है। हमारी शुभकामनाएं rj काव्या जी के साथ हैं। ओहो रेडिओ स्टेशन एक डिजिटल एप बेस्ड रेडिओ स्टेशन है। इसको आप गूगल प्ले स्टोर से डाउनलोड कर सकते हैं।

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दूनागिरी माता का भव्य मंदिर जहाँ गुरु द्रोणाचार्य ने की तपस्या।

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दूनागिरी माता
Dunagiri temple Uttarakhand

दूनागिरी माता का भव्य मंदिर – उत्तराखण्ड राज्य के अल्मोड़ा जिले के द्वाराहाट क्षेत्र से 15 km आगे मां दूनागिरी मंदिर (Dunagiri temple ) अपार आस्था का केंद्र है । कुमांऊँ क्षेत्र के अल्मोड़ा जिले में एक पौराणिक पर्वत शिखर का नाम है, द्रोण, द्रोणगिरी, द्रोण-पर्वत, द्रोणागिरी, द्रोणांचल, तथा द्रोणांचल-पर्वत । वैसे तो मंदिर के बारे मे बहुत सी कथाये प्रचलित है।जिससे यहाँ माँ वैष्णव के विराजमान होने का प्रतीक मिलता है ।

दूनागिरी मंदिर पौराणिक महत्त्व –

द्रोणागिरी को पौराणिक महत्त्व के सात महत्वपूर्ण पर्वत शिखरों में से एक माना जाता है। दूनागिरी पर्वत पर अनेक प्रकार की वनस्पतियॉं उगतीं है। कुछ महौषधि रूपी वनस्पतियॉं रात के अधेरे में दीपक की भॉंति चमकती है। आज भी पर्वत पर घूमने पर हमें विभिन्न प्रकार की वनस्पतियॉं दिखायी देती हैं।जो स्थानीय लोगों की पहचान में भी नहीं आती हैं। दूनागिरी मंदिर द्रोणगिरी पर्वत की चोटी पर स्थित है।

यह मंदिर समुद्र तल से 8000 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। सडक से लगभग 365 सीढ़ीयों है। जिनके द्वारा मंदिर तक जाया जाता है। सीढ़ीयों की ऊचाई कम व लम्बी है। सीढ़ीयों को टिन सेड से ढका गया है।

ताकी श्रद्धालुओ को आने जाने मे धूप और वर्षा से बचाया जा सके। पूरे रास्ते में हजारों घंटे लगे हुए है। जो लगभग एक जैसे है। दूनागिरी मंदिर रखरखाव का कार्य ‘आदि शाक्ति मां दुनागिरी मंदिर ट्रस्ट’ द्वारा किया जाता है। दुनागिरी मंदिर  में ट्रस्ट द्वारा रोज भण्डारे का प्रबधन किया जाता है।

खास है द्रोणागिरी पर्वत –

दूनागिरी मंदिर से हिमालय पर्वत की पूरी श्रृंखला को देखा जा सकता है।उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में बहुत पौराणिक और सिद्ध शक्तिपीठ है। उन्ही शक्तिपीठ में से एक है द्रोणागिरी वैष्णवी शक्तिपीठ है  वैष्णो देवी के बाद उत्तराखंड के कुमाऊं में द्रोणागिरि पर्वत “दूनागिरि” दूसरी वैष्णो शक्तिपीठ है। दूनागिरी मंदिर में कोई मूर्ति नहीं है। प्राकृतिक रूप से निर्मित सिद्ध पिण्डियां माता भगवती के रूप में पूजी जाती हैं।

दूनागिरी मंदिर में अखंड ज्योति का जलना मंदिर की एक विशेषता है। दूनागिरी माता का वैष्णवी रूप में होने से, इस स्थान में किसी भी प्रकार की बलि नहीं चढ़ाई जाती है। यहाँ तक की मंदिर में भेट स्वरुप अर्पित किया गया नारियल भी , मंदिर परिसर में नहीं फोड़ा जाता है।

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भारतवर्ष के पौराणिक भूगोल व इतिहास के अनुसार ,यह सात महत्वपूर्ण पर्वत शिखरों में से एक माना जाता है। विष्णु पुराण, मत्स्य पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण, वायु पुराण, श्रीमद्भागवत पुराण, कूर्म पुराण, देवीभागवत पुराण आदि पुराणों में सप्तद्वीपीय भूगोल रचना के अन्तर्गत द्रोणगिरी (वर्तमान दूनागिरी) का वर्णन मिलता है।

श्रीमद्भागवतपुराण के अनुसार दूनागिरी की दूसरी विशेषता इसका औषधि-पर्वत होना है। विष्णु पुराण में भारत के सात कुल पर्वतों में इसे चौथे पर्वत के रूप औषधि-पर्वत के नाम से संबोधित किया गया है।

दूनागिरी माता का भव्य मंदिर जहाँ गुरु द्रोणाचार्य ने की तपस्या।

दूनागिरी माता मंदिर जहाँ गुरु द्रोणाचार्य ने की तपस्या –

दूनागिरी की पहचान का तीसरा महत्वपूर्ण लक्षण , रामायण व रामलीला में लक्ष्मण-शक्ति का कथा पर है।मंदिर निर्माण के बारे में  यह कहा जाता है कि त्रेतायुग में जब लक्ष्मण को मेघनाथ के द्वारा शक्ति लगी थी। तब सुशेन वेद्य ने हनुमान जी से द्रोणाचल नाम के पर्वत से संजीवनी बूटी लाने को कहा था।

हनुमान जी उस स्थान से पूरा पर्वत उठा रहे थे तो ,वहा पर पर्वत का एक छोटा सा टुकड़ा गिरा और फिर उसके बाद इस स्थान में दूनागिरी का मंदिर बन गया। कहा यह भी जाता है की इस पर्वत पर  गुरु द्रोणाचार्य द्वारा यहाँ तपस्या करने पर इसका नाम द्रोणागिरी पड़ा था। गुरु द्रोणाचार्य ने यहाँ माता पर्वतो की स्तुति की जिसे यहाँ उनके द्वारा माता के शक्तिपीठ स्थापना की गयी।

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पाताल भुवनेश्वर गुफा जहाँ छिपा है कलयुग के अंत का रहस्य।

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पाताल भुवनेश्वर

पाताल भुवनेश्वर गुफा मंदिर उत्तराखंड –

भगवान शिव के बहुत से मंदिर व गुफाएं हैं, जो अपने आप मे चमत्कारी, ऐतिहासिक व रहस्यमयी हैं। ऐसी ही एक गुफा उत्तराखंड के गांव भुवनेश्वर में स्थित है।उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में बना ये पाताल भुवनेश्वर गुफा मंदिर जिसमे भक्तों कि असीम आस्था है।

उत्तराखंड पिथौरागढ़ जिले के गंगोलीहाट के भुवनेश्वर गांव मे स्थित है। यह गुफा  समुद्र तल से 1350 किलोमीटर की ऊंचाई पर है। यह गुफा गंगोलीहाट तहसील से 16 किमी दूर है। पाताल भुवनेश्वर गुफ़ा किसी आश्चर्य से कम नहीं है। यह गुफा प्रवेश द्वार से 160 मीटर लंबी और 90 फीट गहरी है।

पाताल भुवनेश्वर गुफा की खोज किसने की ? |गुफा का इतिहास

पौराणिक कथाओं के अनुसार ,सर्वप्रथम त्रेता युग मे अयोध्या के सूर्यवंशी राजा ऋतुपर्णा ने की थी। स्कंदपुराण के अनुसार , पाताल भुवनेश्वर में स्वयं भगवान शिव निवास करते हैं। उसके बाद द्वापर युग मे पांडवों द्वारा इस गुफा की खोज मानी जाती है। कहा जाता है कि कलयुग में पांडवो ने यहाँ चौपड़ का खेल खेला था।

पाताल भुवनेश्वर की मान्यताओं के मुताबिक, कलयुग में इसकी खोज आदि जगत गुरु शंकराचार्य ने 822 ई के आस-पास की थी। इसके बाद कत्यूरी एवं चंद राजाओ ने इसे खोज इसका निर्माण कराया। 2000 में उत्तराखंड बनने के बाद 2007 में से इसे पर्यटकों के लिए खोल दिया गया है।

पाताल भुवनेश्वर

 गुफा की कहानी –

मान्यता है कि यहाँ भगवान गणेश का कटा हुआ सिर रखा है। पौराणिक कथाओं में बताया जाता है कि भगवान् शिव ने क्रोध में आकर गणेश जी का सिर धड से अलग कर दिया था। इस दृश्य को देखकर माता पार्वती क्रोधित हो गयी और उन्ही के कहने पर भगवान् गणेश के धड पर हाथी का सिर लगाया गया।

लेकिन जो सिर उनके शरीर से अलग किया गया था, उसको भगवान् शिव द्वारा इस गुफा में रखा था। इस गुफा में में गणेश जी का कटा हुआ सिर मूर्ति के रूप में स्थापित है इसी शिलारूपी मूर्ति के उपर 108 पंखुड़ियों वाला ब्रह्मकमल है। इस ब्रहमकमल से पानी की दिव्य बूंदे भगवान् गणेश के शिलारूपी मूर्ति पर गिरती है। कहा जाता है कि उस ब्रहमकमल को शिव ने ही स्थापित किया है।

 पाताल भुवनेश्वर गुफा के अंदर का रहस्य

गुफा के अंदर जाने का रास्ता गुफा के अंदर का विवरण – गुफा में प्रवेश करने के लिए 3 फीट चौड़ा और 4 फीट लंबा मुंह बना हुआ है। गुफा के अंदर कैमरा और मोबाइल ले जाने की अनुमति नहीं है। नीचे गुफा में उतरने के लिए चट्टानों के बीच संकरे टेढ़ी मेढ़े रास्ते से ढलान पर उतरना पड़ता है।

देखने पर गुफा में उतरना नामुमकिन सा लगता है लेकिन गुफा में उतरने पर शरीर खुद ब खुद गुफा के संकरे रास्ते में अपने लिए जगह बना लेता है। गुफा के अंदर जाने के लिए लोहे की जंजीरों का सहारा लेना पड़ता है यह गुफा पत्थरों से बनी हुई है।इसकी दीवारों से पानी रिस्ता रहता है ।जिसके कारण यहां के जाने का रास्ता बेहद चिकना है।

स्कंद पुराण में लिखा है। गुफा में शेष नाग के आकर का पत्थर है उन्हें देखकर एेसा लगता है जैसे उन्होंने पृथ्वी को पकड़ रखा है। संकरे रास्ते से होते हुए इस गुफा में प्रवेश किया जा सकता है। जमीन के अंदर लगभग 8 से 10 फीट नीचे जाने पर गुफा की दीवारों पर हैरान कर देने वाली आकृतियां नजर आने लगती हैं।

गुफा के ऊपर से नीचे की ओर आती शिवजी की विशाल जटाओं के साथ ही 33 करोड़ देवी देवताओं के दर्शन भी इस स्थान पर होते हैं। शिव की जटाओं से बहती गंगा का अदभुत दृश्य मन को मोह लेता है। गुफा में चार कदम आगे बढ़ने पर पाताल भुवनेश्वर- ब्रह्मा, विष्णु और महेश के एक साथ दर्शन होते है।

इस गुफा के अंदर केदारनाथ, बद्रीनाथ और अमरनाथ के दर्शन होते है। बद्रीनाथ में बद्री पंचायत की शिलारूप मूर्तियां हैं। जिनमें यम-कुबेर, वरुण, लक्ष्मी, गणेश तथा गरूड़ शामिल हैं। तक्षक नाग की आकृति भी बनी चट्टान में नजर आती है। इन सब के ऊपर बाबा अमरनाथ की गुफा है तथा पत्थर की बड़ी- बड़ी जटाएं फैली हुई हैं। इसी गुफा में काल भैरव जीभ के दर्शन होते हैं। धार्मिक मान्यता है कि मनुष्य कालभैरव के मुंह से गर्भ में प्रवेश कर पूंछ तक पहुंच जाए तो उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।

आगे बढ़ने पर समुद्र मंथन से निकला पारिजात का पेड़ नज़र आता है तो ब्रह्मा जी का पांचवे मस्तक के दर्शन भी यहां पर होते हैं। गुफा के दाहिनी ओर इसके ठीक सामने ब्रह्मकपाल और सप्तजलकुंड के दर्शन होते हैं जिसकी बगल में टेढ़ी गर्दन वाले एक हंस की आकृति दिखाई देती है। मानस खंड में वर्णन है कि हंस को कुंड में मौजूद अमृत की रक्षा करने का कार्य दिया गया था , लेकिन लालच में आकर हंस ने खुद ही अमृत को पीने की चेष्टा की जिससे शिव जी के श्राप के चलते हंस की गर्द हमेशा के लिए टेढ़ी हो गयी।

कुल मिलाकर 160 मीटर लंबी पाताल भुवनेश्वर गुफा एक ऐसा स्थान है जहां पर एक ही स्थान पर न सिर्फ 33 करोड़ देवताओं का वास है बल्कि इस गुफा के दर्शन से चारों धाम- जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम, द्वारिकी पुरी और बद्रीनाथ धाम के दर्शन पूर्ण हो जाते हैं। पताल भुवनेश्वर गुफा का विस्तृत वर्णन स्कन्द पुराण के मानस खंड के 103 अध्याय में मिलता है।

पाताल भुवनेश्वर अपने आप में एक दैवीय संसार को समेटे हुए है। धर्म में अगर आपकी जरा सी भी आस्था है तो आप भी जीवन में एक बार पाताल भुवनेश्वर गुफा के दर्शन अवश्य कीजिएगा। यकीन मानिए, आप महसूस करेंगे कि अगर इस गुफा के अंदर विराजमान दैवीय संसार को आप ने इसके दर्शन कर नहीं जाना तो मानो जीवन में कुछ अधूरा सा छूट गया है लगता है।

गुफा में है कलयुग के अंत का रहस्य –

इस गुफा में चारों युगों के प्रतीक रूप में 4 पत्थर स्थापित है (सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलयुग) इन चार पत्थरों को चार द्वारों का रूप माना गया है, जिनके नाम क्रमशः मोक्ष द्वार, पाप द्वार, रण द्वार, धर्म द्वार है। जिसमे से तीन युगों के प्रतीक तीन द्वार बंद हो चुके हैं। इनमें से धर्म द्वार जिसे कलयुग का प्रतीक माना जाता है। इस पत्थर की सबसे खास बात तो यह है कि ये पत्थर लगातार धीरे-धीरे ऊपर उठ रहा है। इस घुफा के पत्थर को लेकर यह मान्यता है कि जब यह पत्थर गुफा की छत को छू लेगा यह माना जाता है कि जिस दिन यह कलयुग का अंत हो जाएगा।

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कैसे पहुचे ?

पाताल भुवनेश्वर जाने के लिए रेल मार्ग से नजदीकी स्टेशन काठगोदाम है। वहाँ से टैक्सी द्वारा अल्मोड़ा पहुच कर अल्मोड़ा से पाताल भुवनेश्वर गुफा जा सकते हैं। अल्मोड़ा से पाताल भुवनेश्वर की दूरी – अल्मोड़ा बेरीनाग मार्ग होते हुए 110 किमी है। अल्मोड़ा से पाताल भुवनेश्वर जाने में आपको लगभग 4 घंटे का समय लग सकता है।

यदि आप हवाई मार्ग से आना चाहते हैं, तो पाताल भुवनेश्वर का निकटतम हवाई अड्डा नैनी सैनी अड्डा पिथौरागढ़ है। या पंतनगर हवाई अड्डा हैं । वहाँ सर सड़क मार्ग द्वारा पहुँच सकते हैं। पिथौरागढ़ जिला मुख्यालय से पाताल भुवनेश्वर की दूरी लगभग 90 किमी है। हल्द्वानी से पिथौरागढ़ की दूरी लगभग 200 किमी है।

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भारत रत्न से सम्मानित गोविन्द बल्लभ पन्त की जीवनी

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गोविन्द बल्लभ
पंडित गोविन्द बल्लभ पंत

भारत रत्न से सम्मानित पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त की जीवनी –

भारत रत्न से सम्मानित पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त का जन्म 10 सितम्बर 1887 को  उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिला, के ग्राम खूंट, मे हुआ था। इनकी माँ का नाम गोविन्दी बाई और पिता का नाम मनोरथ पन्त था। बचपन में ही पिता की मृत्यु हो जाने के कारण उनकी परवरिश उनके नाना श्री बद्री दत्त जोशी ने की थी ।

प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी और वरिष्ठ भारतीय राजनेता थे। वे उत्तर प्रदेश राज्य के प्रथम मुख्य मन्त्री और भारत के चौथे गृहमंत्री थे। सन 1957 में उन्हें भारतरत्न से सम्मानित किया गया। गृहमंत्री के रूप में उनका मुख्य योगदान भारत को भाषा के अनुसार राज्यों में विभक्त करना तथा हिन्दी को भारत की राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करना था।

बचपन में ही पिता की मृत्यु हो जाने के कारण उनकी परवरिश उनके नाना श्री बद्री दत्त जोशी ने की। 1905 में उन्होंने अल्मोड़ा छोड़ दिया और इलाहाबाद चले गये। म्योर सेन्ट्रल कॉलेज में वे गणित, साहित्य और राजनीति विषयों के अच्छे विद्यार्थियों में सबसे तेज थे। अध्ययन के साथ-साथ वे कांग्रेस के स्वयंसेवक का कार्य भी करते थे।

1910 में उन्होंने अल्मोड़ा आकर वकालत शूरू कर दी। वकालत के सिलसिले में वे पहले रानीखेत गये फिर काशीपुर में जाकर प्रेम सभा नाम से एक संस्था का गठन किया जिसका उद्देश्य शिक्षा और साहित्य के प्रति जनता में जागरुकता उत्पन्न करना था। इस संस्था का कार्य इतना व्यापक था कि ब्रिटिश स्कूलों को काशीपुर से भागना पड़ा।

भारत रत्न से सम्मानित गोविन्द बल्लभ पन्त की जीवनी

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17 जुलाई 1937से लेकर 2 नवम्बर 1939 तक वे ब्रिटिश भारत में संयुक्त प्रान्त अथवा यू०पी० के पहले मुख्य मन्त्री बने। इसके बाद दोबारा उन्हें यही दायित्व फिर सौंपा गया और वे 1अप्रैल 1966 से 15 अगस्त 1947 तक संयुक्त प्रान्त (यू०पी०) के मुख्य मन्त्री रहे।

जब भारतवर्ष का अपना संविधान बन गया और संयुक्त प्रान्त का नाम बदल कर उत्तर प्रदेश रखा गया तो फिर से तीसरी बार उन्हें ही इस पद के लिये सर्वसम्मति से उपयुक्त पाया गया। इस प्रकार स्वतन्त्र भारत के नवनिर्मित राज्य के भी वे 26 जनवरी 1940 से लेकर 27 दिसम्बर 1954 तक मुख्य मन्त्री रहे। गोविंद बल्लभ पंत के नाम पर कई यूनिविर्सिटी व संस्थाएं खुलें है।

स्मारक और संस्थान –

  • पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, पंतनगर, उत्तराखण्ड
  • पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त अभियान्त्रिकी महाविद्यालय, पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखण्ड
  • पंडित गोविन्द बल्लभ पंत सागर, सोनभद्र, उत्तर प्रदेश
  • पंडित गोविन्द गोविन्द बल्लभ पंत इण्टर कॉलेज काशीपुर ऊधमसिंह नगर उत्तराखंड

सरदार पटेल की मृत्यु के बाद उन्हें गृह मंत्रालय, भारत सरकार के प्रमुख का दायित्व दिया गया। भारत के गृह मंत्री रूप में उनका कार्यकाल सन 1955 से लेकर 1961 में उनकी मृत्यु होने तक रहा। 7 मार्च 1961 को हृदयाघात से जूझते हुए उनकी मृत्यु हो गयी। उस समय वे भारत सरकार में केन्द्रीय गृह मन्त्री थे।

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कसार देवी मंदिर का रहस्य | Kasar Devi Temple mystery

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कसार देवी

 कसार देवी मंदिर के बारे में –

उत्तराखंड अल्मोड़ा जिले में जिला मुख्यालय से लगभग 08 किलोमीटर दूर कसार देवी नमक एक गावं है। इसी कसार देवी गांव के कश्यप पर्वत माँ भगवती का मंदिर है। इस मंदिर में माँ भगवती के कात्यायनी रूप की पूजा की जाती है। और यह मंदिर कसार देवी मंदिर अल्मोड़ा के नाम से जगत विख्यात है। यहाँ योग ध्यान के लिए लोग देश विदेश से आतें हैं। कसार देवी टेम्पल अल्मोड़ा क्षेत्र और कालीमठ क्षेत्र को आधात्मिक ऊर्जा का आदर्श केंद्र माना गया है।

कसार देवी मंदिर का इतिहास और पौराणिक कहानी –

दूसरी शताब्दी में बने कसार देवी मंदिर में १९७०-८० डच सन्यासियों का प्रमुख आश्रय था। कहा जाता है की १९९० में स्वामी विवेकानंद  ध्यान के लिए यहाँ आये थे। यहाँ १९६०-७० के दशक में हिप्पी आंदोलन बहुत प्रसिद्ध हुवा था। पौराणिक कथाओं के अनुसार ,मंदिर में माँ दुर्गा के आठ रूपों में से एक रूप “देवी कात्यायनी” की पूजा की जाती है। इस स्थान में “माँ दुर्गा” ने शुम्भ-निशुम्भ नाम के दो राक्षसों का वध करने के लिए “देवी कात्यायनी” का रूप धारण किया था।

कसार देवी मंदिर का रहस्य –

दुनियाभर में वैसे तो ऐसी जगहों की कोई कमी नहीं है, जो अपनी चमत्कारी वजह से जानी जाती हैं। ये वही जगहें होती हैं जिनके चमत्कारी हचलचों को देखने के लिए भारी तादाद में लोग यहां आते हैं और अनुभव प्राप्त करते हैं। ऐसा नहीं है कि ये चमत्कारी जगहें सिर्फ विदेशों में ही है। बल्कि भारत में भी ऐसे कई चमत्कारी जगहें मौजूद हैं। उन्हीं में से आज हम एक ऐसी ही जगह की बात करेंगे जो अपने चमत्कारी शक्ति के लिए जाना जाता है।

दरअसल हम जिस जगह की बात कर रहे हैं वो एक मंदिर है ,जो उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में स्थित है। उत्तराखंड के अल्मोड़ा ज़िले में स्थित ये चमत्कारी मंदिर, जो अपनी खास चुंबकीय शक्ति के लिए जाना जाता है। इस मंदिर की शक्ति से नासा के वैज्ञानिक भी है हैरान।

इस मंदिर का यह रहस्यमयी चमत्कार अब इतना प्रसिद्ध हो चुका है कि यहां नासा के वैज्ञानिकों ने भी खूब रिसर्च की, लेकिन वे यहां से खाली हाथ ही वापस लौट गए। दरअसल मंदिर के आस-पास का पूरा इलाका एक शक्तिशाली चुंबकीय ताकत से परिपूर्ण है। इस चमत्कारी मंदिर का नाम कसार देवी मंदिर है।

कसार देवी में रेडिओएक्टिव  चुम्बकीय पुंज मिलने के कारण विश्व प्रसिद्ध खोजी संस्था नासा इसकी खोज कर रही है। और नासा वालों ने इस क्षेत्र को चिह्नित  करने के लिए इसका नाम kasar devi Devi GPS -8 रखा गया है।

कसार देवी मंदिर का रहस्य | Kasar Devi Temple mystery
कसार देवी अल्मोड़ा उत्तराखंड दुनिया की प्रसिद्ध रहसयमई जगहों में से एक है।

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उत्तराखंड का यह पूरा क्षेत्र ठीक उसी तरह से मैगनेटिक एनर्जी से चार्ज रहता है जैसे ब्रिटेन का स्टोनहॅन्ज और पेरू केमाचू- पिच्चू। ये दोनों इलाके भी ठीक ऐसी ही विशेष शक्ति से चार्ज रहते हैं। इस मंदिर के लिए कहा जाता है कि यह जगह आध्यात्मिक साधना के लिए एक उत्तम जगह है। इतना ही नहीं खुद स्वामी विवेकानंद भी इस जगह साधना के लिए आए थे।इस मंदिर के बारे में कहा जाता है कि यहां खुद मां दुर्गा प्रकट हुईं थी।

मंदिर तक पहुंचने के लिए सैकड़ों सीढ़ियों को चढ़ना होता है, जिसे भक्त बिना किसी दिक्कत के आसानी से चढ़ जाते हैं।यह वह पवित्र स्थान है , जहां भारत का प्रत्येक सच्चा धर्मालु व्यक्ति अपने जीवन का अंतिम काल बिताने को इच्छुक रहता है। अनूठी मानसिक शांति मिलने के कारण यहां देश-विदेश से कई पर्यटक आते हैं प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा में (नवम्बर-दिसम्बर) को कसार देवी का मेला लगता है।

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भूमिया देवता , उत्तराखंड में फसलों और प्रत्येक क्षेत्र के क्षेत्रपाल देवता।

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उत्तराखंड के भूमिया देवता

देवभूमि उत्तराखंड में होती है, भूमिया देवता की पूजा। उत्तराखंड के लगभग हर गांव मे होती हैै। इन्हें भूमि मे उगने वाली फसलों को जंगली जानवरों और प्राकृतिक आपदाओ से बचाने व रक्षा करने के लिए भूमि देवता के रुप मे पूजा जाता है। भूमि देवता के मंदिर आपको हर गाँव में मिलेगा। इस देवता को भूमि का रक्षक देवता माना जाता है।

कौन हैं भूमिया देवता –

भूमि के देवता के रूप में जिमदार, भूमियाँ व क्षेत्रपाल, इन तीन नामों से पूजा जाता है। भूमिया जो भूमि का स्वामी, गाँव का रक्षक, पशुओं तथा खेती की देखभाल करने वाला ग्राम देवता है, इसी को कुछ लोग जिमदार के रूप में मानते हैं। प्रत्येक लोकदेवता को संतुष्ट करने के लिए विशेष अवसरों, पर्वों, समारोहों के आयोजन में इनकी विशेष पूजा की जाती हैं।

उत्तराखंड संस्कृति के अनुसार पौराणिक परंपरा रही है कि जहां भी कोई गांव और शहर बसाया जाता या बसता है तो सबसे पहले भूमि पूजन किया जाता है और सबसे पहले नगर पवित्र भूमियाँ मंदिर (ग्राम देवता का मंदिर) बनाया जाता है। इस मंदिर में गांव पवित्र भूमिया देवता मंदिर को ग्राम देवता के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता है।

इस क्षेत्रपाल का नाम भी पौराणिक ग्रंथों शोस्त्रों-पुराणों में भी वर्णित है। जब भी गांव या नगर में जब शुभ कार्य होता है तो पहले भूमि देवता (ग्राम देवता) की पूजा की जाती है। ताकि गांव में सुख-समृद्धि शांति बनी रहे।

मान्यता है कि भूमिया देवता की इजाजत के बिना कोई दैवीय शक्ति या बाहरी शक्ति गांव में प्रवेश नहीं कर सकती।उत्तराखंड मे खेतो से उपजे अनाज या कोई भी फल सबसे पहले भूमिया देवता को अर्पित की जाती है।

उसके बाद गांव वाले इसको कहते है खेतों में बुवाई किया जाने से पहले पहाड़ी किसान बीज के कुछ दाने भूमिया देवता के मंदिर में बिखेर देते हैं।  विभिन्न पर्व-उत्सवों के फसल पक जाने के बाद भी भूमिया देवता की पूजा अवश्य की जाती है।

फसल पक जाने के बाद पहला हिस्सा चढ़ाया जाता है –

फसल पक जाने पर फसल की पहली बालियाँ भूमिया देवता को ही चढ़ाई जाती हैं और फसल से तैयार पकवान भी. सभी मौकों पर पूरे गाँव द्वारा सामूहिक रूप से भूमिया देवता का पूजन किया जाता है। मैदानी इलाकों में इन्हें भूमसेन देवता के नाम से भी जाना जाता है।  भूमिया देवता की पूजा एक प्राकृतिक लिंग के रूप में की जाती है।

भूमिया देवता के जागर भी आयोजित किये जाते हैं। इनकी पूजा मे विशेष रूप से पूवे पकाये जाते है। उत्तराखंड में कुमाऊँ के क्षेत्रों में गोलू देवता को भूमिया देवता के रूप में पूजा जाता है। बाकी क्षेत्रों में क्षेत्रपाल भैरव देवताओं को भूमिया देवता के रूप में पूजने की परम्परा है।

भूमिया देवता

भूमिया देवता के बारे में कुमाऊं के इतिहास में –

उत्तराखंड के प्रसिद्ध इतिहासकार बद्रीदत्त पांडे जी ने अपनी किताब कुमाऊं का इतिहास में भूमि देवता के बारे में कुछ इस प्रकार वर्णन किया है। – ” भूमिया यह खेतों का ग्राम सरहदों का छोटा देवता है ।यह दयालु देवता है। यह किसी को सताता नहीं है। हर गांव में एक मंदिर होता है ।जब अनाज बोया जाता है या अनाज उत्पन्न होता है ,तो उस समय इनकी पूजा होती है ।

इनसे यह कामना की जाती है, कि प्राकृतिक व्याधियों, और जंगली जानवरों से गांव की और ग्रामवासियों की फसलों की रक्षा करे। यह न्यायकारी देवता हैं ।अच्छे व्यक्ति को पुरस्कार और धूर्त को दंड देते हैं ।

यह देवता गांव की भलाई चाहता है। ब्याह ,जन्म, उत्सव और फसल कटने पर इनकी पूजा होती है । इन्हे रोट और भेंट चढ़ाई जाती है।  यह बहुत सीधे और शांत देवता होते हैं , ये फूल से भी खुश हो जाते हैं । ”

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गर्जिया देवी मंदिर,रामनगर उत्तराखंड | Garjiya Mata mandir, Ramnagar

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गर्जिया देवी

कोसी नदी के बीच स्थित माता का अनोखा मंदिर,गर्जिया मंदिर के बारे में –

कोसी नदी के बीच स्थित माता का अनोखा मंदिर ‘गर्जिया देवी मन्दिर’ उत्तराखण्ड के सुंदरखाल गाँव में स्थित है।जो माता पार्वती के प्रमुख मंदिरों में से एक है। मंदिर छोटी पहाड़ी के ऊपर बना हुआ है। जहाँ का खूबसूरत वातावरण शांति एवं रमणीयता का एहसास दिलाता है। यह मंदिर श्रद्धा एवं विश्वास का अद्भुत उदाहरण है।

उत्तराखण्ड का यह अनोखा मंदिर रामनगर से लगभग 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।देवी के प्रसिद्ध मन्दिरों में गिरिजा देवी (गर्जिया देवी) का स्थान अद्वितीय है। गिरिराज हिमालय की पुत्री होने के कारण ही इन्हें इस नाम से पुकारा जाता है। मान्यता है कि जिन मन्दिरों में देवी वैष्णवी के रूप में स्थित होती हैं, उनकी पूजा पुष्प प्रसाद से की जाती है और जहाँ शिव शक्ति के रूप में होती हैं, वहाँ बलि देने का प्रावधान है।

माँ गर्जिया देवी की इतिहास –

मान्यता है कि वर्ष 1940 से पूर्व यह क्षेत्र भयंकर जंगलों से भरा पड़ा था। सर्वप्रथम जंगल विभाग के तत्कालीन कर्मचारियों तथा स्थानीय छुट-पुट निवासियों द्वारा टीले पर मूर्तियों को देखा गया और उन्हें माता जगजननी की इस स्थान पर उपस्थिति का एहसास हुआ। प्राचीन काल से ही इस मंदिर के प्रति लोगों की आस्था बहुत थी।

एकान्त सुनसान जंगली क्षेत्र, टीले के नीचे बहती कोसी नदी की प्रबल धारा, घास-फूस की सहायता से ऊपर टीले तक चढ़ना, जंगली जानवरों की भयंकर गर्जना के बावजूद भी भक्तजन इस स्थान पर माँ के दर्शनों के लिये आने लगे। जंगल के तत्कालीन बड़े अधिकारी भी यहाँ पर आये थे। कहा जाता है कि टीले के पास माँ दुर्गा का वाहन शेर भयंकर गर्जना किया करता था।

कई बार शेर को इस टीले की परिक्रमा करते हुये भी लोगों द्वारा देखा गया। यहाँ आकर मन्दिर में पहुँचने से पहले भक्त कोसी नदी में स्नान करते हैं. फिर 90 सीढ़ियाँ चढ़कर मुख्य मंदिर तक हैं। यहाँ भक्त फूल, प्रसाद, घण्टा, छत्र, चुनरी, जटा नारियल, लाल वस्त्र, सिन्दूर, धूप, दीप आदि चढाते हैं। बहुत-से लोग अपनी मनोकामना के लिये चुनरी की गाँठ बाँधते हैं। गार्जिया माँ के दर्शनों के बाद भक्त भैरों मन्दिर, शिव मन्दिर के दर्शन कर यहाँ खिचड़ी चढ़ाते हैं।

पूजा के विधान के अनुसार माता गिरिजा की पूजा करने के बाद बाबा भैरव को चावल और मास की दाल चढ़ाकर पूजा-अर्चना करना जरूरी माना जाता है। मान्यता है कि भैरव की पूजा के बाद ही माँ गिरिजा की पूजा का सम्पूर्ण प्रतिफल हासिल होता है। नवरात्र तथा गंगा स्नान पर हज़ारों की संख्या में श्रद्धालु यहाँ आते हैं।

अनुमान है कि वर्ष भर में पांच लाख से भी ज़्यादा श्रद्धालु यहाँ आते हैं। यहाँ आने वाले श्रद्धालु कई मन्नतें मांगते हैं. नव-विवाहित स्त्रियाँ यहाँ अक्षुण सुहाग की मनोकामना करती हैं. निःसंतान दंपत्ति संतान प्राप्ति की कामना करते हैं. कार्तिक पूर्णिमा को माता गिरिजा देवी के दर्शनों एवं पवित्र कौशिकी (कोसी) नदी में नहाने के लिए भारी संख्या में श्रद्धालु यहाँ आते हैं। इसके अतिरिक्त उत्तरायणी, बसंत पंचमी, गंगा दशहरा, नव दुर्गा, शिवरात्रि, में भी काफ़ी संख्या में दर्शनार्थी आते हैं।

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गर्जिया देवी की कहानी –

वर्ष 1940 से पूर्व इस मन्दिर की स्थिति आज जैसी नहीं थी, कालान्तर में इस देवी को उपटा देवी (उपरद्यौं) के नाम से जाना जाता था। तत्कालीन जनमानस की धारणा थी कि वर्तमान गर्जिया मंदिर जिस टीले में स्थित है, वह कोसी नदी की बाढ़ में कहीं ऊपरी क्षेत्र से बहकर आ रहा था।

मंदिर को टीले के साथ बहते हुये आता देखकर भैरव देव द्वारा उसे रोकने के प्रयास से कहा गया- “थि रौ, बैणा थि रौ” अर्थात् ‘ठहरो, बहन ठहरो’, यहाँ पर मेरे साथ निवास करो। तभी से गर्जिया में देवी उपटा में निवास कर रही हैं। मान्यता थी कि वर्तमान गर्जिया मंदिर जिस पहाड़ी टीले में स्थित है।

1956 में कोसी नदी में आयी भीषण बाढ़ में मन्दिर की सभी मूर्तियाँ बह गई थीं।  पं. पूर्णचन्द्र पाण्डे ने मंदिर का पुनः जीर्णोद्धार किया।एक दिन पं. पूर्णचंद्र को स्वप्न में माता ने दर्शन दिए। यह बात सन् 1967 की है। स्वप्न में मां ने बताया कि रानीखेत के पास कालिका देवी का मंदिर है।

उसी के समीप जंगल में एक वृक्ष की जड़ के पास (काले पत्थर ग्रेनाइट) ही भगवान लक्ष्मी नारायण की मूर्त दबी पड़ी है। माता ने आदेश दिया कि उस मर्ति को वहां से निकालकर गर्जिया देवी मंदिर में स्थापित कर दिया जाए। भक्त हृदय पांडे जी स्वप्न में दिखाई पड़े स्थान पर पहुंचे और खुदाई शुरू कर दी। आश्चर्य तब हुआ जब मूर्तियां निकल गईं मगर मंदिर भवन निर्माण की प्रतीक्षा तक मर्तियां उनकी कुटिया में ही रखी रहीं। इसी बीच ये मूर्तियां चोरी हो गईं। पांडे जी ने मर्तियां काफी खोजीं मगर नहीं मिलीं।

गर्जिया देवी

किंन्तु वर्ष 1972 में रामनगर रानीखेत राजमार्ग (वर्तमान गर्जियापुल से 100 मी. आगे) से गर्जिया परिसर तक पैदल मार्ग के निर्माण का कार्य शुरू हुआ तो एक दिन जमीन में लक्ष्मी नारायण की मूर्तियां दबी पाईं। पुरातत्व विभाग ने इस बार खोज कर मूर्ति का पंजीकरण किया और गर्जिया देवी के पास ही एक भव्य मंदिर का निर्माण कर उसमें ये मूर्तियां स्थापित करा दी गईं।

पुरातत्व विभाग के अनुसार ये मूर्तियां 800-900 वर्ष पुरानी हैं अर्थात् 11वीं 12वीं सदी की हैं ये मूर्तियां। 1971 में मन्दिर की देखरेख के लिए मंदिर समिति का गठन किया गया। वर्तमान में इस मंदिर में गर्जिया माता की 4.5 फिट ऊंची मूर्ति स्थापित है।  मुख्य मूर्ति के साथ सरस्वती, गणेश तथा बटुक भैरव की संगमरमर की मूर्तियाँ भी यहाँ स्थापित हैं. यहाँ एक लक्ष्मी नारायण मंदिर भी स्थापित है। इस मंदिर में स्थापित मूर्ति यहाँ पर खुदाई के दौरान मिली थी।

गर्जिया देवी मंदिर कैसे पहुचें -:

गर्जिया देवी मन्दिर में पहुंचने के लिए आपको सबसे पहले “रामनगर” आना होगा जो की रेल और बस दोनों  माध्यम से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। रामनगर से आप रानीखेत जाने वाली बस पकड़ सकते है या फिर टैक्सी ले सकते हैं। रामनगर से 15 km दूर रानीखेत मार्ग पर स्थित है माँ गर्जिया देवी मन्दिर मंदिर।गर्जिया देवी मन्दिर से 7-8 km की दूरी पर ही “Jim Corbett National Park” है जहा पर आप जाकर घूम सकते है।

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झूला देवी मंदिर रानीखेत उत्तराखंड का इतिहास।

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झूला देवी

रानीखेत झूला देवी मंदिर के बारे में :-

अल्मोड़ा जिले के रानीखेत क्षेत्र के चौबटिया नामक स्थान में स्थित प्रसिद्ध धार्मिक,लोकप्रिय माँ झूला देवी मंदिर रानीखेत शहर से 7 कि.मी. की दुरी पर स्थित एक लोकप्रिय पवित्र एवम् धार्मिक मंदिर है। यह मंदिर माँ दुर्गा को समर्पित है एवम् इस मंदिर को झुला देवी के रूप में नामित किया गया है।

स्थानीय लोगों के अनुसार यह मंदिर 700 वर्ष पुराना है। यह दुर्गा माता का एक छोटा सा प्राचीन मन्दिर है, जिसका निर्माण 8 वीं शताब्दी में हुआ था। मंदिर में माता एक लकड़ी के झूले पर विराजमान है। इसलिए यह झुला देवी मंदिर के नाम से प्रसिद्ध हो गया। यहाँ पर मान्यता है, की भक्त लोग अपनी मनोकामना पुरी होने पर यहाँ ताम्बे की घंटी माता को अर्पित करते हैं, इसलिए मंदिर में चारों और हजारों घंटिया बंधी हुई हैं।

स्थानीय लोग बताते हैं, मंदिर से माता के मूल पौराणिक मूर्ति 1959 में चोरी हो गई थी, उसके बाद नई मूर्ति की स्थापना की गई। रानीखेत में स्थित माँ झुला देवी मंदिर पहाड़ी स्टेशन पर एक आकर्षण का स्थान है। यह भारत के उत्तराखंड राज्य में अल्मोड़ा जिले के चैबटिया गार्डन के निकट रानीखेत से 7 किमी की दूरी पर स्थित है। वर्तमान मंदिर परिसर 1935 में बनाया गया है।

माँ झुला देवी मंदिर के समीप ही भगवान राम को समर्पित मंदिर भी है। झूला देवी मंदिर को माँ झुला देवी मंदिर और घंटियों वाला मंदिर के रूप में भी जाना जाता है रानीखेत का प्रमुख आकर्षण है यह ‘घंटियों वाला मंदिर’। मां दुर्गा के इस छोटे-से शांत मंदिर में श्रद्घालु मन्नत पूरी होने पर छोटी-बड़ी घंटियां चढ़ाते हैं। यहां बंधी हजारों घंटियां देख कर कोई भी अभिभूत हो सकता है।

रानीखेत में स्थित मां दुर्गा के इस मंदिर की रखवाली बाघ करते हैं, लेकिन वह स्थानीय लोगों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाते हैं। नवरात्र पर मां के इस मंदिर में भक्तों का तांता लग जाता है।

झूला देवी मंदिर रानीखेत उत्तराखंड का इतिहास।

झूला देवी मंदिर की पौराणिक कहानी –

मां के झूला झूलने के बारे में एक और कथा प्रचलित है। माना जाता है कि एक बार श्रावण मास में माता ने किसी व्यक्ति को स्वप्न में दर्शन देकर झूला झूलने की इच्छा जताई। ग्रामीणों ने मां के लिए एक झूला तैयार कर उसमें प्रतिमा स्थापित कर दी। उसी दिन से यहां देवी मां “झूला देवी” के नाम से पूजी जाने लगी।

यह कहा जाता है कि मंदिर लगभग 700 वर्ष पुराना है । चैबटिया क्षेत्र जंगली जानवर से भरा घना जंगल था । “तेंदुओं और बाघ” आसपास के लोगों पर हमला करते थे और उनके पालतू पशुओं को ले जाते थे । लोगों को “तेंदुओं और बाघ” से डर लग रहता था और खतरनाक जंगली जानवर से सुरक्षा के लिए आसपास के लोग ‘माता दुर्गा’ से प्रार्थना करते थे । ऐसा कहा जाता है कि ‘देवी’ ने एक दिन चरवाहा को सपने में दर्शन दिए और चरवाहा से कहा कि वह एक विशेष स्थान खोदे क्यूंकि देवी उस स्थान पर अपने लिए एक मंदिर बनवाना चाहती थी।

जैसे ही चरवाहा ने गड्ढा खोद दिया तो चरवाहा को उस गड्ढे से देवी की मूर्ति मिली।  इसके बाद ग्रामीणों ने उस जगह पर एक मंदिर का निर्माण किया और देवी की मूर्ति को स्थापित किया और इस तरह ग्रामीणों को जंगल जानवरों द्वारा उत्पीड़न से मुक्त कर दिया गया और मंदिर की स्थापना के कारण चरवाहा अपने पशुओ को घास चरहने के लिए छोड़ जाते थे।  मंदिर परिसर के चारों ओर लटकी हुई अनगिनत घंटियां ‘मा झुला देवी’ की दिव्य व दुख खत्म करने वाली शक्तियो को दर्शाती है ।

मंदिर में विराजित झूला देवी के बारे में यह माना जाता है कि झूला देवी अपने भक्तों की इच्छाओं को पूरा करती हैं और इच्छाओं को पूरा करने के बाद भक्त यहाँ तांबे की घंटी भेट स्वरुप चढाने आते हैं

कैसे पहुंचें :-

मार्ग- रानीखेत जाने के लिए सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन काठगोदाम है। रानीखेत से काठगोदाम की दूरी 80 कि.मी है। रानीखेत से 7 कि.मी की दूरी पर झूला देवी मंदिर स्थित है।

सड़क मार्ग- रानीखेत से अल्मोड़ा 63 कि.मी, दिल्ली 354 कि.मी, नैनीताल 55 कि.मी की दूरी पर स्थित है। रानीखेत पहुंचने के बाद आप आसानी से झूला देवी मंदिर पहुंच सकते हैं।

वायु मार्ग– रानीखेत पहुंचने के लिए सबसे नजदीकी हवाई अड्डा पंतनगर है। रानीखेत से 114 कि.मी की दूरी पर स्थित है। पंतनगर हवाई अड्डे से बस लेकर आसानी से रानीखेत पहुंच सकते हैं।

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उत्तराखंड अल्मोड़ा के गल्ली बस्यूरा नामक गावँ में बसा है माँ नारसिंही का अद्भुत मंदिर।

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डोल आश्रम , अल्मोड़ा के घने जंगलों के बीच मे बसा ये अद्भुत आश्रम।

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डोल आश्रम
फोटो साभार -unplash kamal singh Rawat

डोल आश्रम ऊंचे-ऊँचे पहाड़ों के बीच तथा हरे भरे घने जंगलों के बीच में स्थित है। ताजी खुली हवा,हरे भरे विशाल पेड़ ,पक्षियों का मधुर कलरव तथा यहां का प्राकृतिक सौंदर्य ऐसा है कि हर किसी का मन मोह ले। प्रकृति की गोद में बसे डोल आश्रम में आने वाले लोगों के मन को एक अजीब सी शांति का अनुभव होता है। यहां आकर वो अपनी सारी परेशानियों को भूलकर डोल आश्रम व यहां की हरी-भरी वादियों के बीच खो जाते हैं।

यह जगह मन को बहुत सुकून और शांति प्रदान करती हैं। यहां आकर लोग अपने आप को एकदम तरोताजा तथा अपने अंदर एक नई सकारात्मक ऊर्जा को महसूस करते है।उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के लमगड़ा ब्लॉक में स्थित यह आश्रम हमारी धनी प्राचीन भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की जीती जागती मिसाल है।

श्री कल्याणिका हिमालयन देवस्थानम न्यास कनरा-डोल (डोल आश्रम) नाम से जानी जाने वाली यह जगह अपने आप में अद्भुत और अनोखी है। यहां के मुख्य महंत बाबा कल्याण दास जी महाराज हैं। जिनके अनुसार यह सिर्फ एक मठ नहीं है, बल्कि इसको आध्यात्मिक व साधना केंद्र के रुप में विकसित किया जा रहा है। ताकि देश विदेश से आने वाले श्रद्धालु यहां पर बैठकर ध्यान व साधना कर सके।

डोल आश्रम की विशेषता –

डोल आश्रम की विशेषता यह है की यहां पर 126 फुट ऊंचे तथा 150 मीटर व्यास के श्रीपीठम का निर्माण हुआ है। श्रीपीठम का निर्माण कार्य सन 2012 से शुरू हुआ था ।और अप्रैल 2018 में यह बनकर तैयार हो गया। इस श्रीपीठम में एक अष्ट धातु से निर्मित लगभग डेढ़ टन (150कुंतल) वजन और साढ़े तीन फुट ऊंचे श्रीयंत्र की स्थापना की गई हैं।

इस यंत्र की स्थापना के अनुष्ठान 18 अप्रैल 2018 से शुरू होकर 29 अप्रैल 2018 तक चले। इस यंत्र की स्थापना बड़े धूमधाम से की गई।यह विश्व का सबसे बड़ा व सबसे भारी श्रीयंत्र है। और यह आश्रम में मुख्य आकर्षण का केंद्र है ।वैदिक एवं आध्यात्मिक आस्था को एक साथ जोड़ने के लिए इस श्रीयंत्र की स्थापना की गई है।

श्री पीठम में लगभग 500 लोग एक साथ बैठ कर ध्यान लगा सकते हैं।डोल आश्रम में अनेक तरह की सुविधाओं उपलब्ध हैं ।आने वाले श्रद्धालुओं के लिए रहने व खाने की सुविधा है।तथा यहां पर एक मेडिटेशन हाल भी है। तथा साथ ही साथ यह चिकित्सा सेवा भी उपलब्ध करा रहा है। जिसके तहत एक डिस्पेंसरी खोली गई है। प्रसव पीड़ित महिलाओं को तत्काल सेवा देने के लिए एक एंबुलेंस की सुविधा भी की गई है।

इस आश्रम में जनकल्याण कार्यो में विशेष ध्यान दिया जा रहा है। आश्रम में विद्यार्थियों को संस्कृत भाषा का ज्ञान दिया जाता है ।तथा उनको हमारी प्राचीन भारतीय सभ्यता व संस्कृति से रूबरू कराया जाता है। आश्रम में 12वीं कक्षा तक संचालित संस्कृत विद्यालय को पब्लिक स्कूल के रूप में विकसित किया जा रहा है ।

कई बच्चों को इस स्कूल में निशुल्क शिक्षा भी प्रदान की जा रही है। यहां पर बच्चों को देव भाषा व हमारी संस्कृति की पहचान संस्कृत भाषा को सिखाने पर विशेष ध्यान दिया जाता है ।लेकिन संस्कृत भाषा के साथ साथ बच्चों को कंप्यूटर व अंग्रेजी भाषा का भी अध्ययन कराया जाता है। ताकि विद्यार्थी किसी से किसी भी क्षेत्र में पीछे न रह जाएं ।

यहां पर विद्यार्थियों को बेहद अनुशासित व संस्कारी ढंग से जीवन जीना सिखाया जाता है। आश्रम में शिक्षा से संबंधित कार्यों को विशेष बढ़ावा देकर इसे शिक्षा हब बनाने का प्रयास किया जा रहा है।डोल आश्रम  जहां एक ओर हमारे ऋषि-मुनियों की संस्कृति को संजोए रखने का काम कर रहा है।

वही साथ ही साथ आज की आधुनिक टेक्नोलॉजी व ज्ञान को भी अपना रहा है। यह आश्रम प्राचीन भारतीय संस्कृति व आधुनिक भारतीय संस्कृति के बीच में बेहतरीन तालमेल बिठाकर दिन प्रतिदिन उन्नति की ओर अग्रसर हो रहा है।

परम पूज्य गुरुजी के बारे में –

हिमालय के तपस्वी बाबा कल्याणदासजी ने बारह वर्ष की आयु में भारत के विभिन्न धार्मिक स्थलों का भ्रमण किया। गंगा नदी के तट पर, सतगुरु (स्वर्गीय) बाबा स्वरूपदासजी महाराज, जिन्होंने उन्हें धर्म के उदासीन संप्रदाय के साथ दीक्षा दी। 25 से अधिक वर्षों के लिए पूज्य बाबाजी ने अपनी साधना के दौरान छत के नीचे नहीं छोड़ने का फैसला किया। तपस्वी बाबा कल्याणदासजी अमरकंटक (म.प्र।) भारत में कल्याण सेवा आश्रम ट्रस्ट के संस्थापक हैं। जहाँ पवित्र नदी नर्मदा की उत्पत्ति भगवान शिव के तपस्या से हुई है।

साथी प्राणियों के प्रति प्रेम ने पूज्य बाबाजी को 40 वर्ष से अधिक की तपस्या के बाद वापस आने के लिए मजबूर किया और साथी प्राणियों को आंतरिक जागृति का दिव्य मार्ग दिखाया। उस समय तक कई लोग सच्चे योगी और साधिका की आभा से आकर्षित हो चुके थे।

1978 में लोगों को शिक्षित करने और अपने जीवन की दशा को उठाने के लिए भगवान राम की राह पर चलते हुए, बाबाजी ने कई जनजातियों के लिए पवित्र नदी नर्मदा का जन्मस्थान, अमरकंटक में एक प्राचीन तीर्थस्थल, श्री कल्याण सेवा आश्रम की स्थापना की।

कैलाश मानसरोवर की अपनी दूसरी यात्रा के दौरान, पूज्य बाबाजी ने माँ भगवती (माँ देवी) के दर्शन किए और हिमालय में एक आश्रम शुरू करने के लिए प्रेरित हुए और पूज्य बाबाजी ने अल्मोड़ा के पास घने जंगल में श्री कल्याणिका हिमालय देव चरणम् की स्थापना की।

डोल आश्रम का इतिहास –

डोल आश्रम की स्थापना 1990 में श्री परम योगी कल्याणदासजी द्वारा की गई थी, जिनका जन्म अल्मोड़ा जिले के एक छोटे से गाँव में हुआ था। श्री परमा योगी कल्याणदासजी ने अपनी मानसरोवर यात्रा के दौरान माँ भगवती के दर्शन किए और हिमालय में एक आश्रम शुरू करने के लिए प्रेरित हुए।

आश्रम में गतिविधियाँ –

  • योग और ध्यान
  • आध्यात्मिक ज्ञान
  • पंछी देखना
  • सुविधाएं
  • आवास
  • मेडिटेशन हॉल
  • पुस्तकालय

डोल आश्रम आपको एक आध्यात्मिक यात्रा पर ले जाता है, जहाँ योग और वेदांत के सिद्धांतों के आधार पर जीवन का अवलोकन किया जाता है। आश्रम एक दिनचर्या का पालन करता है जो आध्यात्मिक जीवन के लिए सर्वोच्च बाधा को समाप्त करता है यानी आलस्य।

आधुनिक जीवनशैली ने कई शारीरिक और मानसिक समस्याओं जैसे बेचैनी, अवसाद, मोटापा को दूर किया है; चिंता आदि और इन स्थितियों को केवल गतिहीन जीवन शैली को बदलने से आसानी से बदला जा सकता है। आश्रम की दिनचर्या आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों को भी विकसित करती है जो मानव को एक अलौकिक में बदल देती है। भगवान कृष्ण द्वारा प्रस्तावित निश्काम कर्म योग आश्रम के सभी निवासियों के लिए प्रेरणा का काम करता है।

आध्यात्मिक प्रवचन-

आश्रम विभिन्न आध्यात्मिक ग्रंथों जैसे गीता, उपनिषद, श्रीमद्भागवतम्, पतंजलि योग सूत्र आदि पर व्याख्यान देने के लिए प्रख्यात संतों और वक्ताओं के साथ आध्यात्मिक सत्र आयोजित करके ऐसा अवसर प्रदान करता है, जो साधकों की सबसे प्रभावी शैली को बताकर उनका मार्ग प्रशस्त करता है।
योग और ध्यान पाठ्यक्रम- आश्रम में हमने वेदांत, विपश्यना, पतंजलि दर्शन पर आधारित ध्यान और योग के कई पाठ्यक्रम किए।

सुविधाएं:

आवास:

आश्रम उन साधकों और आगंतुकों को आवास और भोजन की सुविधा प्रदान करता है जो आश्रम की गतिविधियों में भाग लेना चाहते हैं। आश्रम गर्म पानी की सुविधा के साथ पूरी तरह से सुसज्जित डबल बेड प्रदान करता है। आश्रम में 120 लोगों की क्षमता वाला इन-हाउस मेस है।

पुस्तकालय:-

श्री चंद्राचार्य पुस्तकालय की स्थापना वर्ष 1997 में हुई थी। पुस्तकालय में आध्यात्मिकता और विभिन्न विषयों पर विषयों को कवर करने वाली दस हजार से अधिक पुस्तकों का संग्रह है। यह न केवल आश्रम में रहने वाले छात्रों के शैक्षिक उद्देश्य को पूरा करता है बल्कि आगंतुकों और साधकों को भी लाभान्वित करता है। इसमें टीकाओं के साथ चारों वेदों का अनूठा संग्रह है।

मेडिटेशन हॉल:

परम को साकार करने की उनकी तलाश में हिमालय का शांत वातावरण एक साधक की मदद करता है। यह ध्यान में रखते हुए कि लगभग 300 लोगों की क्षमता के साथ एक ध्यान हॉल का निर्माण वर्ष 2006 में ध्यान-तंत्र की साधना के लिए किया गया था- ध्यान प्रेशिका – पूज्य बाबाजी द्वारा वर्षों की तपस्या और साधना के दौरान विकसित की गई एक प्राचीन ध्यान-तकनीक। स्नो-क्लेड हिमालयन पर्वत श्रृंखला हॉल से स्पष्ट रूप से दिखाई देती है जो अनुभव को सार्थक बनाती है।

डोल आश्रम उत्तराखंड  कैसे जाएं –

डोल आश्रम अल्मोड़ा से 52 किमी और भीमताल से 42 किमी सड़क पर है जो भीमताल से लोहाघाट-अल्मोड़ा रोड को जोड़ता है।

सड़क मार्ग से – आनंद विहार दिल्ली से बस द्वारा हल्द्वानी पहुंचा जा सकता है। हल्द्वानी में साझा और निजी टैक्सियाँ उपलब्ध हैं। हल्द्वानी, डीएल आश्रम से 70 किमी दूर है।

ट्रेन द्वारा- निकटतम रेलवे स्टेशन काठगोदाम रेलवे स्टेशन है जो डोल आश्रम से 64 किमी दूर है।
हवाई मार्ग से- निकटतम हवाई अड्डा पंतनगर हवाई अड्डा है जो डोल आश्रम से 97 किमी दूर है।

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