Friday, October 18, 2024
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कार्तिक स्वामी मंदिर, कार्तिकेय को समर्पित उत्तराखंड का एकमात्र मंदिर

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कार्तिक स्वामी मंदिर के बारे में –

उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में रुद्रप्रयाग पोखरी मोटर मार्ग पर कनक चौरी नामक गाँव के पास क्रोंच पर्वत पर बसा है। कार्तिक स्वामी का प्रसिद्ध मंदिर समुद्र तल से लगभग 3048 मीटर की ऊंचाई पर स्तिथ है। कहते हैं कि कार्तिक स्वामी यहाँ आज भी निवाण रूपमें तपस्या करते हैं। रुद्रप्रयाग से लगभग 36 किलोमीटर दूर कनकचौरी पहुँच कर वहां से लगभग 4 किलोमीटर की चढ़ाई के साथ 80 सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद पहुँच जाते हैं,कार्तिक स्वामी मंदिर में। इस मंदिर में सैकड़ों घंटियां लटकाई हैं।

कहा जाता है कि इस मंदिर की घंटियों की आवाज 800 मीटर तक सुनाई पड़ती है।क्रोंच पर्वत के चारो ओर का दृश्य रमणीक है। यहां से त्रिशूल ,नंदा देवी ,आदि प्रसिद्ध हिमालयी पर्वत श्रृंखलाओं के दर्शन होते हैं। दक्षिण भारत मे कार्तिक स्वामी को कई मंदिरों में ,मुरुगन स्वामी या कार्तिक स्वामी के नाम से पूजा जाता है। लेकिन उत्तराखंड में कार्तिक स्वामी का एक ही मंदिर है। और कहते हैं ,यही वो मंदिर है ,जहाँ से कार्तिक स्वामी का दक्षिण का सफर शुरू हुआ था।

कार्तिक स्वामी मंदिर के चारों ओर लगभग 360 गुफाएं और जलकुंड हैं। कहते हैं कि क्रोंच पर्वत की घाटी में,विहड़ के बीच एक गुफा में कार्तिक स्वामी का भंडार है। यह भंडार ज्यादा ऊँचाई पर होने के कारण इसके दर्शन करना ,मुश्किल ही नही लगभग नामुमकिन है । कहते हैं कि इस भंडार के दर्शन ,अभी तक  उनके दो ही भक्त कर पाएं है।

स्थानीय पंडित विद्वानों के मतानुसार, कार्तिक स्वामी मंदिर के आस पास लगभग 360 गुफाएं और इतने ही जलकुंड हैं। जगतकल्याण  के लिए आज भी अदृश्य रुप से यहां साधना करते हैं। यह मंदिर लगभग 200 साल पुराना माना जाता है। और इसी स्थान पर कार्तिक स्वामी ने भगवान शिव को अपनी अस्थियां अर्पित की थी।

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पौराणिक मान्यता

कार्तिक स्वामी मंदिर रुद्रप्रयाग में विशेष कर संतान प्राप्ति के लिए कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर विशेष पूजा की जाती है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन दीपदान और अखंड जागरण किया जाता है। यहाँ भगवान कार्तिकेय पुत्रदा के रूप में पूजे जाते हैं। संतान प्राप्ति के लिए महिलाएं कार्तिक पूर्णिमा के दिन व्रत लेती हैं। और रात भर अखंड जागरण करते हुए हाथ मे दीपक लेकर खड़ी रहती हैं। अगले दिन भगवान कार्तिकेय को पीले अक्षत से सजाया जाता है। भगवान की पूजा अर्चना के साथ भक्त लोग अपना व्रत खोलते हैं। कहते हैं इस प्रकार भगवान कार्तिकेय की सच्चे मन से पूजा औऱ व्रत करने से निसंतान लोगों को संतान प्राप्ति होती है। कहा जाता है, कि कार्तिक पूर्णिमा के दिन भगवान कार्तिकेय ने देव सेनापति के रूप में ताड़कासुर का वध किया था ।

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कार्तिक स्वामी मंदिर से जुड़ी पौराणिक कथा :-

पौराणिक कथाओं के अनुसार , कार्तिकेय भगवान शिव के बड़े पुत्र हैं और भगवान गणेश छोटे पुत्र हैं। एक बार देवताओं में यह चर्चा हुई कि श्रेष्ठ पूजा का अधिकार किसे मिले अर्थात किस देव की पूजा हर शुभ कार्य मे पहले हो? इस बात को लेकर काफी बहस हुई। सब लोग भगवान शिव के पास गए। इंद्र ने कहा कि मैं देवराज हूँ इसलिए प्रथम पूजा का अधिकारी मैं हूँ। और अन्य देवो ने भी खुद को प्रथम पूजा का अधिकारी बताया और कुछ ने भगवान कार्तिकेय को प्रथम पूजा के लिए उपयुक्त बताया क्योंकि वो देव सेनापति और भगवान शिव के पुत्र हैं।

कार्तिक स्वामी मंदिर उत्तराखंड

तब भगवान शिव ने कहा, इस समस्या का समाधान एक प्रतियोगिता करके कर देते हैं। प्रतियोगिता इस प्रकार आयोजित की गई कि जो पूरे संसार का चक्कर काट कर सबसे पहले कैलाश पहुचेगा वो विजयी माना जायेगा और उसे प्रथम पूजा का अधिकार मिलेगा।

सभी देवता मान गए , सब लोग आपने अपने वाहन के साथ तैयार हो गए । तब भगवान गणेश भी अपने वाहन मूषक राज के साथ तैयार हो गए। जैसे ही प्रतियोगिता शुरू हुई सब देवता अपने अपने वाहन के साथ उड़ गए लेकिन गणेश जी का वाहन मूषक राज थे,वे उड़ नही सकते थे। अतः भगवान गणेश ने भगवान शिव और पार्वती की परिक्रमा की और प्रतियोगिता वाले स्थल में पहुच गए। उनसे इस कृत्य का कारण पूछा गया तो ,उन्होनें कहा कि  माता पिता को संसार का में सबसे श्रेष्ठ माना गया है। इसलिए मैंने संसार की परिक्रमा की जगह माता पिता कि परिक्रमा की । भगवान शिव और अन्य देव उनके इस तार्किक उत्तर से प्रसन्न हुए और उस दिन से गणेश भगवान को प्रथम पूजा का अधिकार मिल गया।

वापस आने पर जब कार्तिकेय जी को यह ज्ञात हुवा तो ,उन्होंने इसी क्रोचं पर्वत पर आकर अपनी समस्त अस्थियां  भगवान भोलेनाथ को अर्पित कर दी और स्वयं निर्वाण रूप में तपस्या करने लगे। कहते है कि भगवान कार्तिकेय की अस्थियां यहीं हैं। और बताते हैं कि कार्तिक स्वामी अभी भी यहाँ निर्वाण रुप मे तप करते हैं। इसी घटना पर आधारित है यह प्रसिद्ध मंदिर।

आनंद वन देहरादून, देहरादून में बच्चों के लिए जंगल बुक का अहसास

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आनंद वन
Anand van dehradun gate

आनंद वन पार्क के बारे में ( About Anand van Park Dehradun ):-

यदि आप देहरादून में नया फैमली पिकनिक स्पॉट या पार्क ढूढ़ रहे हो तो आपकी यह खोज देहरादून के आनंद वन पार्क पर आकर खत्म हो जाएगी। पिछले साल 17 अक्टूबर 2020 को आम जनता के लिए यह पार्क खोल दिया गया । शहरी वन पार्क देहरादून के झाझरा वन रेंज में स्थित है। देहरादून जिला मुख्यालय से लगभग 13 किलोमीटर दूर स्थित आनंद वन पार्क ,प्राकृतिक और कृत्रिम कलाकारी एवं साहसिक पर्यटन का मिश्रण है। यह पार्क 50 एकड़ से अधिक भूमि में फैला हुआ है। इस पार्क को बनने में लगभग 3 वर्ष का समय लगा है। इस पार्क को धरातल पर उतारने के लिए ,वन संरक्षक जयराज जी की धर्मपत्नी ,साधना जयराज ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

आनंद वन में आपको प्रकृति ,आध्यत्मिकता और ज्ञान का मिश्रण मिलेगा। यह पार्क बच्चों को कुछ नया सिखाने, और बच्चों के साथ कीमती समय बिताने का अच्छा विकल्प है। आध्यात्मिक ज्ञान के रूप में पार्क में कई जगह पवित्र श्लोक लिखे गए हैं। पार्क में मधुर संगीत की व्यवस्था भी है, जो पर्यटकों को प्राकृतिक सुंदरता के बीच मंत्रमुग्ध कर देता है। आनंद वन में बांस के जंगल से गुजरते समय पक्षियों का शोर मंत्रमुग्ध करता है।

आनंद वन

इस पार्क में उत्तराखंड में पाए जाने वाले पक्षियों की जानकारी उपलब्ध है। इसके साथ यहाँ बनी जंगली जानवरों की मूर्तियां इनके सजीव होने का एहसास कराती है। यहां के तितली पार्क और आनंदी बुग्याल भी अपनी ओर आकर्षित करते हैं। यहाँ साइकिल चलाने के लिए ट्रैक भी बनाये गए हैं।

यहाँ पेड़ो पर केदारनाथ और बद्रीनाथ नाम की हट बनाई गई है। इनमें इन धामों के बारे में जानकारी संरक्षित है। इस पार्क में सीखने वाले बच्चों के लिए कुछ सीखने लायक गतिविधियां और खेलने वाले बच्चों के लिए खेलने लायक गतिविधियां और बड़ो के लिए प्राकृतिक शांति और साहसिक गतिविधियां उपलब्ध हैं। मुख्यतः यहाँ आने वाले पर्यटकों के लिए आनंद वन पार्क में निम्न गतिविधियां उपलब्ध हैं।

  1. औषधीय पौधे
  2. सीता वाटिका
  3. नवग्रह वाटिका
  4. नक्षत्र वाटिका
  5. पानी के फव्वारा
  6. बच्चों का पार्क
  7. बॉडिंग पैराडाइज
  8. जल संरक्षण मॉडल
  9. शांति और सुकून
  10. तितली उद्यान
  11. जंगल दहाड़ता है
  12. साहसिक गतिविधियां
  13. सूचना गलियारा
  14. साईकल ट्रेल
  15. आनंदी बुग्याल
  16. झरना
  17. ट्री हट
  18. जंगल वाक
  19. जल निकाय ( दल दल भूमि )

आनंद वन देहरादून, देहरादून में बच्चों के लिए जंगल बुक का अहसास

यहां की जाने वाली साहसिक गतिविधि और उसका शुल्क

जैसा कि हमने अपनी पोस्ट में बताया है कि यहाँ साहसिक गतिविधयां भी कराई जाती है। जिनका शुल्क निम्न प्रकार है।

  1. जीप लाइन -: 50 रुपये
  2. कमांडो नेत :- 50 रुपये
  3. बर्मा ब्रिज :- 40 रुपये
  4. टायर नेट :- 20 रुपये
  5. बांस नेता :- 20 रुपये

यदि आप सभी एडवेंचर एक्टिविटी करना चाहते हैं ,तो उसके लिए कॉम्बो टिकट है 150 रुपये।

पार्क में मिलने वाली सुविधाएं :-

  1. वाहनों के लिए पार्किंग सुविधा की व्यवस्था है।
  2. पीने का पानी और वाशरूम उपलब्ध हैं।
  3. पर्यटकों के लिए मामूली शुल्क पर ट्री हट उपलब्ध हैं।

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 प्रवेश टिकट शुल्क ( Anand van Dehradun ticket price  ) :-

यदि आप आनंद वन देहरादून में घूमने जाना चाहते हैं। तो आपको यहां टिकट लेना पड़ेगा । टिकट शुल्क आयुवर्ग के अनुसार निम्नलिखित है।

  • 10 साल से छोटे बच्चों के लिए कोई शुल्क नही हैं।
  • 10 साल से ऊपर वालों के लिए 20 रुपया शुल्क है।
  • वयस्कों के लिए टिकट की कीमत प्रतिव्यक्ति 50 रुपये है।
  • पेड पार्किंग सुविधा में दोपहिया वाहनों के लिए 20 रुपये
  • चार पहियाँ वाहनों के लिए 50 रुपया शुल्क निर्धारित है।
  • बस के लिए पार्किंग शुल्क 200 रुपये है।

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आनंद वन की टाइमिंग (Anand van Dehradun Timing ) :-

आनंद वन पार्क हफ्ते में 6 दिन खुलता है। यह पार्क सोमवार को बंद रहता है।

  • पार्क का खुलने का समय 9:30 सुबह
  • पार्क बंद होने का समय 4:30 शाम

 कैसे पहुचें आनंद वन पार्क देहरादून ( Anand van Dehradun direction ) :-

आनंद वन पार्क देहरादून के झाझरा नामक स्थान पर देहरादून पौंटा हाइवे से लगभग 200 मीटर के आस पास अंदर है। आनंद वन जाने के लिए यदि आप ISBT से आ रहें हैं तो वहां से आप देहरादून विकास नगर वाली बस, या ऑटो बुकिंग और ओला आदि से भी आ सकते हैं। झाझरा पर बालाजी धाम से आगे पुलिस स्टेशन के आगे ,आनंद वन का साइन बोर्ड मिलता है। वहां से लगभग 200 मीटर आगे जाकर आपका इंतजार आनंद वन देहरादून कर रहा होगा ” यदि आप घंटाघर या रायपुर से आ रहे तो वहां से सेलाकुई के लिए स्मार्टसिटी बसें चल रही हैं ,उनमे बैठ कार डायरेक्ट आ सकते है। झाझरा पोलिस स्टेशन पर उतर कर ,वहाँ से पूछ कर जा सकते हैं !

मांगल गर्ल नंदा सती, उत्तराखंड माँगल गीतों के संरक्षण में दे रही महत्वपूर्ण योगदान

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आज उत्तराखंड के कई युवा अलग अलग क्षेत्रों में उत्तराखंड की संस्कृति के संरक्षण और उसके प्रचार में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहें हैं। उन्ही में से एक नाम है नंदा  सती  का जिन्हे अब उत्तराखंड के लोग मांगल गर्ल के नाम से जानने लगे हैं।

उत्तराखंड माँगल गीत

जैसा कि हम सब लोगों को पता है , कि मांगल गीत हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग हैं। जैसा कि नाम से पता चल रहा है  उत्तराखंड  में मंगल अवसर पर गाये जाने वाले गीतों को मांगल गीत कहते हैं। शादी ,विवाह ,नामकरण , जनेऊ आदि शुभ कार्यों पर उत्तराखंड की संस्कृति में शुभ गीत गए जाते हैं।  उत्तराखंड के इन मांगल गीतों को गढ़वाली में माँगल और कुमाऊनी में शकुन आखर या फाग  कहते हैं। मांगल गीतों को महिलाएं पारम्परिक वेश भूषा पहन कर ,समूह में एक सुर में गाती हैं।

विलुप्त हो रहे मांगल गीतों को दुबारा पहचान दिला रही है मांगल गर्ल :-

वर्तमान में उत्तराखंड के मांगल गीत अब विलुप्ति की कगार पर हैं। लोग अपनी लोक परम्परा को भूलते जा रहे है। इन्ही विलुप्त होती उत्तराखंड की परम्परा को दुबारा जीवंत करने की कोशिश कर रही उत्तराखंड की मँगलेर बेटी नंदा सती। उत्तराखंड चमोली। जिले के नारायणबगड़ ब्लॉक के नारायणबगड़  गावं की रहने वाली नंदा सती को दादी से विरासत में मिला मांगल गीत गुनगुनाने का हुनर। और  नंदा  ने मात्र 20 वर्ष की आयु में ही मांगल गीत गाना शुरू कर दिया था। नंदा सती की पढाई   तक विज्ञानं वर्ग से नारायणबगड़ में ही हुई। वर्तमान में नंदा सती हेमवती नंदन विश्वविद्यालय श्रीनगर में पढाई कर रहीं हैं। और अपनी  उत्तराखंड मांगल गीतों  मंगल यात्रा को  भी चलायमान किये है।

मांगल गर्ल

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मांगल गर्ल नंदा सती बहुमुखी प्रतिभा की धनी है। नंदा एक होनहार छात्रा होने के साथ साथ एक अच्छी खिलाडी भी है। NSS विंग की होनहार भी है। इसके साथ साथ संगीत की अच्छी जानकार भी है नंदा।  हारमोनियम वाद्य का भी नंदा को अच्छा ज्ञान है।  जो उनके यूट्यूब वीडियोज से पता चलता है। कोरोना काल जहा कई लोगो के लिए दुखद स्वप्न की तरह आया तो कई लोगों ने आपदा में अवसर तलाश कर अपने हुनर को और चमकाया।  उन्ही में से एक नाम है नंदा सती का ,जिन्होंने  कोरोना।  काल में घर में रहकर  अपनी परम्परा को डिजिटल माध्यम , फेसबुक ,यूट्यूब आदि  से देश विदेशों तक पहुंचाया ही नहीं ,वरन अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया।

मांगल गर्ल् नंदा सती के इस अनुकरणीय कार्य से गदगद लोगो ने उन्हें , मांगल गर्ल ,का नाम दिया।  नंदा सती के इस सफर में उनका पूरा साथ दिया है ,उनकी मित्र किरण नेगी ने। मांगल गीतों पर दोनों को जुगलबंदी देखते बनती है। तबले पर इनका साथ देते हैं श्रीनगर के योगेश ( योगी जी ) प्रतिभा संपन्न नंदा सती और किरण नेगी ने ,अपनी संस्कृति अपने उत्तराखंड के मांगल गीतों को समृद्ध करने और संरक्षण की जो मुहीम शुरू की है ,वह अनुकरणीय है। अपनी परम्परा और अपनी संस्कृति से बिमुख हो रहे युवाओं के लिए ये दोनों एक प्रेणा श्रोत हैं।

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उत्तराखंड मांगल गीत का वीडियो यहाँ देखें :-

संदर्भ :- 

इस जानकारी रूपक लेख का संदर्भ हमने , नंदा सती  के सोशल मिडिया हैंडल्स और  यूट्यूब चैनल , तथा सोशल  मिडिया पर उपलब्ध  अशोक जोशी जी के लेख से लिया है। इस लेख में नंदा  सती जी के मंगल गीत का  वीडियो का लिंक द्वार दिखा रहे हैं।  सभी लोगों से निवेदन है ,उत्तराखंड संस्कृति के लिए अतुलनीय योगदान देने वाली नंदा सती जी से यूट्यूब पर जुड़े और उत्तराखंडी मांगल गीतों का आनंद लें। इस लेख में प्रयुक्त फोटोज नंदा सती जी के सोशल मीडिया हैंडल्स से लिये गए हैं।

नंदा सती के यूटयूब चैनल से जुड़ने के लिए यहां क्लिक करें।

उत्तराखंड का राज्य गीत , 2016 में बना और थोड़ा बजा फिर पता नहीं कहाँ गया ?

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उत्तराखंड का राज्य गीत का अनावरण  तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री हरीश रावत जी ने  06  फरवरी 2016  के दिन किया था। 04 मार्च 2016 को इस गीत को राज्यपाल की अनुमति मिल गई थी। उत्तराखंड के राज्यगीत के चयन के लिए ,संस्कृति विभाग ने  जुलाई 2015 में  एक कमेटी बनाई। राज्यगीत चयन कमेटी के अध्यक्ष श्री लक्ष्मण सिंह बटरोही और इस कमेटी के उपाध्यक्ष श्री नरेंद्र सिंह नेगी थे। चयन कमेटी को देश भर से  203 प्रविष्टियां हुई थी।  इन प्रविष्टियों में से नैनीताल निवासी हेमंत बिष्ट का गीत  चयन हुवा था। अर्थात राज्य गीत के लेखक हेमंत बिष्ट हैं। उत्तराखंड राज्य गीत की धुन श्री नरेंद्र सिंह नेगी जी ने बनाई थी। उत्तराखंड राज्यगीत के गायक नरेंद्र सिंह नेगी और अनुराधा निराला जी हैं। इस गीत के बोल इस प्रकार हैं –

उत्तराखंड राज्य गीत के बोल (लिरिक्स) || Uttarakhand rajya geet lyrics :-

उत्तराखंड देवभूमि मातृभूमि
शत शत वंदन अभिनन्दन।
दर्शन,संस्कृति ,धर्म,साधना ,
श्रम रंजीत तेरा कण कण।
अभिनन्दन अभिनन्दन ,
उत्तराखंड देवभूमि ……
गंगा जमुना तेरा आँचल ,
दिव्य हिमालय  तेरा शीश।
सब धर्मो की छाया तुझ पर
चार धाम देते आशीष।।
श्री बद्री केदारनाथ  हैं , कलियर कुंड अति पावन।
अभिनन्दन अभिनन्दन उत्तराखंड देवभूमि …
अमर शहीदों की धरती , थाती वीर जवानो की।
आंदोलनों की जननी है ये ,कर्मभूमि बलिदानो की।
फुले  फले  तेरा यश वैभव , तुझ पर अर्पित है तन मन।
अभिनन्दन अभिनन्दन। ……
उत्तराखंड देवभूमि

रंगीली घाटी शोकों  की या
मंडुवा झुंगुरा भट अन्न-धन
रुम-झुम-रुम-झुम, झुमैलो-झुमैलो
ताल, खाल, बुग्याल, ग्लेश‍ियर
दून तराई भाबर बण
भांट‍ि-भांटि लगै गुजर है चाहे
भांट‍ि-भांटि लगै गुजर है चाहे
फिर ले उछास भरै छै मैन
अभ‍िनंदन-अभ‍िनंदन
उत्तराखंड देवभूमि

गौड़ी-भैंस्यूंन गुंजदा गुठयार
ऐपण सज्यां हर घर हर द्वार
काम-धाण की धुरी बेटी ब्वारी
कला प्राण छन श‍िल्पकार
बण पुंगड़ा सेरा पंदेरो मां
बण पुंगड़ा सेरा पंदेरो मां
बंटणा छन सुख-दुख संग-संग
अभ‍िनंदन-अभ‍िनंदन
उत्तराखंड देवभूमि

कस्तूरी मृग, ब्रह्मकमल है
फ्यूंली, बुरांस, घुघती, मोनाल
रुम-झुम-रुम-झुम, झुमैलो-झुमैलो
ढोल नगाड़े, दमुवा हुड़का
रणसिंघा, मुरली सुर-ताल
जागर, हारुल, थड्या, झुमैलो
अभ‍िनंदन-अभ‍िनंदन
उत्तराखंड देवभूमि

कुंभ, हरेला, बसंत, फूलदेई
उत्तरैणी कौथिग नंदा जात
सुमन, केसरी, जीतू, माधो
चंद्रसिंह वीरों की थात
जियारानी तीलू रौंतेली
जियारानी तीलू रौंतेली
गौरा पर गर्व‍ित जन-जन
अभ‍िनंदन-अभ‍िनंदन
उत्तराखंड देवभूमि

उत्तराखंड राज्य गीत का वीडियो यहाँ देखें :-

अंत में :- तत्कालीन सरकार उत्तराखंड राज्य बनाकर ,जनता को सौप दिया। यह राज्य गीत उस वर्ष 15 अगस्त को बजाया गया ,उसके बाद  कुछ समारोहों में भी बजा यह गीत। उसके बाद उत्तराखंड के राज्यगीत को जनता और वर्तमान सरकार ,इस तरह भूल गए हैं ,कि  पता नहीं यह गीत अब कहाँ हैं। तत्कालीन सरकार ने राज्यगीत के रूप में इस गीत को अंगीकृत भी कर लिया था। राज्य्पाल महोदय भी मान गए थे।  उसके बाद इस गीत के साथ क्या हुवा पता नहीं। आगे उत्तराखंड  के राज्य गीत का क्या होगा ये भविष्य के गर्त में छुपा है। इस गीत के बारे में एक रोचक तथ्य यह है कि , यह गीत मुफ्त में बन गया था (Uttarakhand state song Lyrics in Hindi )

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ज्वाल्पा देवी उत्तराखंड जहाँ देवी शचि ने इंद्र को पाने के लिए की थी तपस्या

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ज्वाल्पा देवी
jwalpa devi temple uttarakhand

ज्वाल्पा देवी मंदिर के बारे में :-

श्री ज्वाल्पा देवी माता मंदिर ,उत्तराखंड पौड़ी गढ़वाल जिले के कफोलस्यू पट्टी के पूर्वी छोर पर पश्चिमी नयार नदी के तट पर स्थित है। कोटद्वार -पौड़ी मुख्य मार्ग पर कोटद्वार से 63 किलोमीटर और पौड़ी से लगभग 33 किलोमीटर पर स्थित है। ऐतिहासिक और पुरातात्विक प्रमाणों के आधार पर यह मान्यता है,कि यह मंदिर हिमाचल के कांगड़ा  जिले में स्थित श्री ज्वालामुखी पीठ का उपपीठ बन कर एक प्रसिद्ध शक्तिपीठ बनकर प्रतिष्ठित हुवा।

ज्वाल्पा देवी शक्तिपीठ थालियाल और बिष्ट जाती के लोगो की कुलदेवी मानी जाती है। इस शक्तिपीठ में ग्रीष्म और शीतकालीन नवरात्र में विशेष आयोजन होता है। यहाँ विशेषकर कुँवारी कन्याएं मनचाहे वर की कामना लेकर इस मंदिर में आती हैं। ज्वाल्पा देवी के पुजारी कफोलसयुं, अणेथ गांव के अणथ्वाल ब्राह्मण हैं। जो बारी बारी से मंदिर में पूजा अर्चना करते हैं। शुरुआत में थपलियाल ब्राह्मणों द्वारा माता की पूजा का कार्य अणथ्वाल ब्राह्मणों को सौपा गया । अतः दान करने वाले थपलियाल देवी के मैती और दान प्राप्त करने वाले अणथ्वाल देवी के ससुराली कहे गए।

इस मंदिर में ज्वाल्पा माई के अलावा माता काली भैरव नाथ, शिवजी और हनुमान जी भी विराजित हैं।

श्री ज्वाल्पा देवी की पौराणिक कहानी :-

पौराणिक कथाओ के अनुसार ,आदिकाल सतयुग में दैत्यराज पुलोम की सुपुत्री देवी सती ने देवेंद्र अर्थात राजा इन्द्र को पतिरूप में पाने के लिए , यहाँ नायर नदी के किनारे माँ पार्वती की पूजा व कठोर तपस्या की थी। माता पार्वती ने देवी शचि  की तपस्या से खुश होकर उन्हें दीप्त जवाला के रूप ने दर्शन दिए तथा उन्हें मनोकामना पूर्ति का आशीर्वाद दिया। देवी शचि को  माता पार्वती के द्वारा ज्वाला रूप में दर्शन देने के कारण , इस शक्तिपीठ का नाम ज्वाल्पा देवी पड़ा । देवी शचि को मनवांछित जीवन साथी का वरदान मिलने के कारण, यह शक्ति पीठ कुँवारी कन्याओं को मनवंछित पति का वर देने वाला शक्तिपीठ माना जाता है। इसलिये यहाँ कुँवारी कन्याएं अपनी मनोकामना माँ को बताने और मनवंछित वर का आशीर्वाद लेने आती हैं।

माता पार्वती के ज्वाला रूप में प्रकट होने के कारण , माता के प्रतीक स्वरूप यहां लगातार अखंड दीपक  प्रज्वलित रहता है। इस पुण्य परम्परा को चलाये रखने के लिए, नजदीकी पट्टीयों मवाल्सयूँ, कफोलस्यु, खातस्यू, रिनवाडस्यू, आदि के गावों से तेल एकत्रित किया जाता है।और माँ के अखंड दीप को जलाए रखने की व्यवस्था की जाती है। कहते हैं कि गढ़वाल राजवंश ने इस मंदिर को 20 एकड़ से अधिक जमीन दी है। और कहा जाता है, कि यहाँ आदि शकराचार्य जी ने मा की पूजा की थी । और माता ने उन्हें दर्शन भी दिए थे। यहां हमेशा श्रद्धालुओं का तातां लगा रहता है। बसन्त पंचमी व नवरात्रों में मेले का आयोजन भी होता है। कहते हैं ,सच्चे मन से याद करने से और माँ के दर्शन करने से माँ ज्वाल्पा देवी सभी मनोकामनाएं पूरी करती हैं।

ज्वाल्पा मंदिर से जुड़ीं स्थानीय लोक कथा :-

माता ज्वाल्पा की मूर्ति स्थापना की एक स्थानीय दंतकथा भी प्रचलित है जिसके अनुसार यह स्थल प्राचीनकाल में अमेटी के नाम से विख्यात था। अमेटी आस पास के गावों वालों का इधर उधर जाते समय ,विश्राम करने का स्थल था। अर्थात पहले लोग पैदल ही जाते थे, तब लोग थोड़ी देर यहां पर बैठ कर जाते थे। एक बार कफोला बिष्ट नामक व्यक्ति नमक का कट्टा लेकर यहाँ पर आया।

उसने थोड़ी देर विश्राम के लिए यहाँ रुक गया। और अपने नमक के कट्टे के ऊपर कब उसकी आंख लग गई पता भी नही चला।  जब उसकी आंख खुली तो,उसने अपना कट्टा उठाया,लेकिन उठा नही पाया। जब उसने कट्टा खोल के देखा, तो उसमें माता की मूर्ति थी। वह उस मूर्ति को वही छोड़कर भाग गया। तब बाद में नजदीकी गाव अणेथ गाव के दत्ताराम नामक व्यक्ति को सपने में माता ने दर्शन और वही मंदिर बनाये जाने की इच्छा जताई।

ज्वाल्पा देवी उत्तराखंड जहाँ देवी शचि ने इंद्र को पाने के लिए की थी तपस्या

 मंदिर में यात्री सुविधा व ठहरने की व्यवस्था

मंदिर के विकास व श्रद्धालुओं को ,सभी सुविधाएं प्रदान करने के लिए, सन 1969 में श्री ज्वाल्पा देवी मंदिर समिति की स्थापना हुई। जिसके अंतर्गत मंदिर में अनेक विकास कार्य हुए। वर्तमान में यहां संस्कृत विद्यालय और यात्रियों के ठहरने के लिए दो तीन धर्मशालाएं हैं। यात्रियों की सुविधा के लिए , ज्वाल्पा देवी मंदिर पौड़ी गढ़वाल के कुछ दूरी पर गढवाल मंडल विकास निगम का विश्रामगृह भी उपलब्ध है।

इसे भी पढ़े ,थीम आर्ट पर बना , पौड़ी गढ़वाल का प्रसिद्ध पार्क कंडोलिया पार्क।

ज्वाल्पा देवी मंदिर कैसे जाएं :-

इस मंदिर में जाने के लिए आप कोटद्वार से सतपुली पाटीसैंण के रास्ते यहां पहुंच सकते हैं। ज्वालपा देवी मंदिर का निकटतम रेलवे स्टेशन कोटद्वार है। कोटद्वार से ज्वालपा देवी मंदिर 67 किलोमीटर दूर स्थित है। ज्वालपा देवी का निकट हवाई अड्डा देहरादून हवाई अड्डा है। यदि आप देहरादून से सीधे अपनी गाड़ी में जाना  चाहते तो , देहरादून से ज्वालपा देवी पौड़ी गढ़वाल 168किलोमीटर पड़ेगा और NH7के रास्ते से लगभग 5 घंटे में पहुंच जाते हैं।

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पोखु देवता मंदिर -उत्तराखंड का ऐसा मंदिर जहाँ भगवान को पीठ दिखा के पूजा होती है

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पोखु देवता मंदिर

पोखु देवता मंदिर उत्तराखंड ,एक ऐसा अनोखा मंदिर जहाँ ,श्रद्धालुओं से लेकर पुजारी तक को देवता की मूर्ति के दर्शन करने की आज्ञा नहीं है। पुजारी और भक्तलोग  पीठ घुमा कर पूजा करते हैं। हमारे उत्तराखंड को यूँ ही नहीं देवभूमि  हैं। आस्था और चमत्कार के अजब गजब बातें और कहानियां यही सुनने और देखने को मिलती हैं। उत्तरकाशी के जिला मुख्यालय से करीबन 160 किलोमीटर दूर ,विकासखंड मोरी में ,टौंस नदी के पास ,सुपिन और रूपिन नदी के संगम में , नैटवाड़ गावं में पोखु  देवता का मंदिर स्थित है।

पोखु देवता के बारे में :-

पोखू देवता को इस क्षेत्र का क्षेत्रपाल या राजा माना जाता है। इस क्षेत्र के प्रत्येक घर में पोखू देवता को दरातियों और चाकू के रूप में पूजा जाता है।  पोखु देवता इस क्षेत्र के क्षेत्रपाल होने के नाते, थोड़े कठोर स्वभाव के माने जाते हैं। वे अनुशाशन प्रिय और गलती करने वाले को दंड देते हैं।

स्थानीय क्षेत्रवासी इन्हे न्याय के देवता पोखु के नाम से पूजते हैं। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार , पोखू देवता का मुँह पाताल के अंदर और बाकि धड़ धरती पर है। अर्थात  यह देवता उल्टे हैं ,और उल्टी स्थिति में इनके कमर से नीचे का भाग ,जो धरती पर है ,वह नग्न अवस्था में है। देवता या किसी को भी नग्नावस्था में देखना अशिष्टता होती है। इसलिए इस मंदिर में देवता को देखना और देख कर उनकी पूजा करना वर्जित है।

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इसलिए  सभी लोग इनकी पूजा पीठ घुमा कर करते हैं। इस मंदिर के बारे में यह मान्यता है ,कि क्षेत्र में किसी भी प्रकार की विपत्ति ,संकट  में पोखु देवता  रक्षा करते हैं। पोखु देवता को कर्ण देवता का प्रतिनिधि और भगवान् शिव का सेवक माना जाता है। नवम्बर महीने में इस मंदिर में भव्य क्षेत्रीय मेला लगता है। इस मेले में रात को यहाँ का पुजारी क्षेत्र के फसल उत्पादन और खुशहाली के  बारे में भविष्यवाणी करता है। और यह भविष्यवाणी हमेशा सच भी साबित होती है। इन्ही मान्यताओं  के कारण पोखु देवता का मंदिर एक स्थानीय  तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध है। पोखू देवता का मंदिर यहाँ आने वाले पर्यटकों  के  बीच विशेष आकर्षण का केंद्र है।

पोखु देवता को न्याय के देवता या पोखु राजा नाम से क्षेत्र में पूजित हैं। इनके बारे में कहते हैं कि जिसे कही न्याय नहीं  मिलता उसे पोखु देवता के दरबार में न्याय मिलता है। पोखु देवता भगवान् शिव के सेवक होने के नाते , इनका स्वरूप डरवाना माना जाता है। और इन्हे कठोर स्वभाव वाला देवता माना जाता है। कहते हैं कि इनके क्षेत्र में कभी चोरी और अपराध नहीं होते हैं।

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पोखु देवता मंदिर में पूजा पद्धत्ति :-

पोखु देवता मंदिर में पूजा पाठ की विधि भी अलग है। जैसा कि हम अपने इस लेख में पहले ही बता चुके हैं कि  इस मंदिर में देवता के दर्शन करना वर्जित है। मंदिर में  मूर्ति की तरफ पीठ घुमा कर पूजा की जाती है। यहाँ सुबह शाम दो बार पूजा की जाती है। पूजा से पहले पुजारी रूपिन नदी में स्नान करके ,वहां से जल भर कर लाते हैं।  इसके बाद लगभग आधे घंटे तक ,ढोल के साथ मंदिर में पोखू देवता की पूजा होती है।

पोखु देवता

पोखु देवता की कहानी :-

पोखु देवता के बारे में अनेक लोककथाएं प्रचलित हैं। जिनमे से एक प्रचलित दन्त कथा के अनुसार ,किरमिर नामक एक दानव ने पुरे क्षेत्र में अत्यचार और हाहाकार मचाया हुवा था। तब दुर्योधन ने उससे युद्ध किया तथा उसे मारकर उसका सर धड़ से अलग करके टौंस नदी में डाल  दिया। किन्तु किरमिर राक्षश का सर उल्टी  दिशा में बहकर ,रूपिन और सुपिन नदियों के संगम में रुक गया।

तब दुर्योधन ने दो नदियों के संगम ,नैटवाड़ गांव में ,किरमिर दानव की मंदिर स्थापना कर दी जो कालान्तर में पोखू  देवता बन गए। कुछ लोक कथाओं में किरमिर दानव महाभारत का ब्रभुवाहन को बताया गया है ,जिसका भगवान् कृष्ण ने चतुराई  से वध कर दिया था। उत्तराखंड में कई जगह कौरवों की पूजा भी की जाती है। इसी क्षेत्र  में दुर्योधन का मंदिर और कर्ण  का मंदिर भी स्थित है। पोखूवीर देवता को कर्ण  का प्रतिनिधि देवता मानते हैं। जिससे इन दंतकथाओं की प्रमाणिकता बढ़ जाती है।

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पोखू देवता मंदिर कैसे जाएँ –

पोखू देवता या पोखूवीर का मंदिर उत्तरकाशी के नैटवाड़ गांव में है। यहाँ देहरादून विकास नगर ,त्यूणी  से होकर जाते हैं।  पोखू देवता मंदिर के नजदीक हवाई अड्डा देहरादून है। और नजदीकी  रेलवे स्टेशन भी देहरादून में ही है। देहरादून से प्राचीन पोखू देवता मंदिर की दुरी लगभग 137.6 किमी है। और दिल्ली से पोखु देवता मंदिर की दुरी 408 .8 किलोमीटर है। पोखू देवता मंदिर जाने के लिए देहरादून से चौपहिया वाहन का प्रयोग कर सकते हैं।

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प्यारी जन्मभूमि मेरो पहाड़ लिरिक्स | Pyari janmbhumi mero pahad lyrics

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प्यारी जन्मभूमि मेरो पहाड़ लिरिक्स

मित्रों आज आपके लिए उत्तराखंड का प्रसिद्ध गीत ,प्यारी जन्मभूमि मेरो पहाड़  गीत के लिरिक्स और उसका वीडियो लाये हैं। मित्रों यह गीत ,गढ़वाली  गीत मेरी जन्मभूमि मेरो पहाड़  का कुमाऊनी रूपांतरण है। इस गीत का सर्वप्रथम प्रयोग 2003 में आई उत्तराखंडी फिल्म तेरी सौ  में किया था। यह फिल्म उत्तराखंड आंदोलन को समर्पित फिल्म थी। बाद में इसका कुमाऊनी  वर्जन उत्तराखंड के गायक, वर्तमान में इंडियन आइडियल विजेता 2021,पवनदीप राजन  ने गया है। आइये इसके लिरिक्स क्रमशः कुमाऊनी और गढ़वाली में देखते हैं और लिंक द्वारा वीडियो का आनंद भी लेते हैं।

प्यारी जन्मभूमि मेरो पहाड़ ,कुमाऊनी गीत

प्यारी जन्म भूमि मेरो पहाड़।
गंगा जमुना या छो ,
बद्री केदार।
प्यारी जन्मभूमि मेरो पहाड़।
फूल फुलनि यां  फूलों की घाटी।
हौंस जागोनि यां ह्युं पड़ी  डानी।
फूल फुलनि यां  फूलों की घाटी।
हौंस जागोनि यां ह्युं पड़ी  डानी।।
नंदा देवी छाया ……..जागेश्वर  धाम……
नंदा देवी छाया ……..जागेश्वर  धाम।।
पंच  प्रयाग यां  हिमकुण्ड  धाम।
औली , गोमुख  यां  भै  हरिद्वार।
प्यारी जन्मभूमि मेरो पहाड़।
प्यारी जन्मभूमि मेरो पहाड़।।
गंगा जमुना या छो ,
बद्री केदार।।

मेरी जन्मभूमि मेरो पहाड़ ,गढ़वाली भाषा में

मेरी जन्मभूमि मेरो पहाड़।
गंगा जमुना यखी  ….. बद्री केदार।
मेरी जन्मभूमि मेरो पहाड़।
फूल खिलंदी  फूलों की घाटी।
रॉस  जगान्दी    हिंवांली काठी।।
फूल खिलंदी  फूलों की घाटी।
रॉस  जगान्दी    हिंवांली काठी।।
नंदा की छाया  …………..
जागेश्वर धाम …..
पंच प्रयाग यखी , हेमकुंड साहब  …
औली  गौमुख यखी, हरी हरिद्वार।
मेरी जन्मभूमि मेरो पहाड़।
गंगा जमुना यखी  ….. बद्री केदार।
लाम में डट्या छन हमारा लाल।
रण  का जितार छन बैरियों का काल।।
लाम में डट्या छन हमारा लाल।
रण  का जितार छन बैरियों का काल।।
सुमन, माधोसिंग  ………………..

तुम्हरो बलिदान। …..
सुमन, माधोसिंग,तुम्हरो बलिदान।
केशरी चंदर सिंह देशकी शान।
रामी ,गौरा और तिलु जनि नार।।
मेरी जन्मभूमि मेरो पहाड़।
मेरी जन्मभूमि मेरो पहाड़।।
गयेनि घसेरियुक मयालू प्राण।
बण मा ग्वेरुकि बासुरी तान।।
गयेनि घसेरियुक मयालू प्राण।
बण मा ग्वेरुकि बासुरी तान।।
थड्या ,झुमेलो , गीत खुदेड़।
हुड़की ,मसक ढोल दमऊ की ताल।
नैनताल यखी , मसूरी बाजार।।
मेरी जन्मभूमि मेरो पहाड़।
मेरी जन्मभूमि मेरो पहाड़।।
ओ। . हो…ला… ला…….
प्यारी जन्मभूमि मेरो पहाड़

गढ़वाली फ़िल्म तेरी सौं के बारे में :-

2003 में एक गढ़वाली फ़िल्म आई थी तेरी सौं , इसे  अनुज जोशी जी ने बनाया था। 02 अक्टूबर 1994 के मुजफ्फरनगर कांड का बड़ा ही मार्मिक चित्रण किया था इसमे । यह फ़िल्म कुमाउनी में भी डब की गई थी। तेरी सौं फ़िल्म में दिखाया गया है कि कैसे एक युवा अपनो पर और अपनी संस्कृति,पहाड़ और अपनी इज्ज़त पर हुए अन्याय से क्षुब्ध होकर हथियार उठाने को मजबूर हो जाता है।

मगर उसके अपने संस्कार और अपने लोग उसे इस दलदल में फसने से रोक लेते हैं। और अहिंसात्मक रूप से अपने उत्तराखंड के लिए लड़ाई जारी रखता है। अभी यूटयूब पर इसका गढ़वाली वर्सन उपलब्ध है। यहाँ उसका लिंक दे रहे हैं। इस मूवी को जरूर देखिए। कुमाउनी में प्यारी जन्मभूमि मेरो पहाड़ ,और गढ़वाली में मेरी जन्मभूमि मेरो पहाड़ गीत इसी फिल्म में प्रयोग किये गए थे।

देवप्रयाग का इतिहास और देवप्रयाग का प्रसिद्ध रघुनाथ मंदिर

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देवप्रयाग उत्तराखंड के टिहरी जिले में भागीरथी – अलकनंदा नदी के संगम पर स्थित है। देवप्रयाग ऋषिकेश से 70 किलोमीटर दूर उत्तर दिशा में स्थित है। 30°-8′ अक्षांश तथा 78 °-39′ रेखांश पर स्थित देवप्रयाग समुद्रतल से 1600 फ़ीट की उचाई पर बसा हुआ है। यह तीन पर्वतों दशरथाचल ,गर्ध्रपर्वत और नरसिंह पर्वत के मध्य ने स्थित है।

उत्तराखंड में पवित्र नदियों के संगमों पर पांच प्रयाग बने हैं , जिन्हें पंच प्रयाग कहते हैं। देवप्रयाग इन पंच प्रयागों में सबसे श्रेष्ठ और पहला प्रयाग है। देवप्रयाग का महत्व प्रयागराज के बराबर है।यहाँ का प्रसिद्ध शिलालेख जो यात्रियों की नामावली की सूचना देता है ।यह उत्तराखंड के ऐतिहासिक साक्ष्यों में प्रसिद्ध साक्ष्य है। विद्वानों ने इसे पहली या दूसरी शताब्दी का माना है।

यहाँ पर अलकनंदा और भागीरथी के संगम के बाद यह नदी देवप्रयाग से  आगे को गंगा नदी के रूप में बहती है। देवप्रयाग को गंगा की जन्मभूमि के रूप में भी जाना जाता है। देवप्रयाग में अलकनंदा और भागीरथी को स्थानीय लोग सास बहु नदियाँ भी कहते हैं। देवप्रयाग एक प्राकृतिक संपदा युक्त स्थल है। इसके पास ही डांडा नागराज मंदिर और चन्द्रबदनी मंदिर भी विशेष दर्शनीय हैं। देवप्रयाग का एक नाम सुदर्शन क्षेत्र भी है। इस क्षेत्र की एक खास विशेषता है,यहाँ कौवे नही दिखाई देते हैं। देवप्रयाग का विशेष आकर्षण यहां का रघुनाथ मंदिर है। इसकी चर्चा हम इसी लेख में आगे करेंगे।

देवप्रयाग का इतिहास –

देवप्रयाग को पुराणों में केदारखंड के सभी तीर्थों में उत्तम बताया गया है। केदारखंड के अनुसार यहाँ भगवान राम,लक्ष्मण और सीता ने निवास किया था। कहते हैं जब माँ गंगा धरती पर उतरी तो उनके साथ 33 करोड़ देवता भी आये उन्होंने देवप्रयाग को अपनी निवास स्थली बनाया।

देवप्रयाग का नाम कैसे पड़ा ? देवप्रयाग के नामकरण पर एक पौरणिक कथा प्रसिद्ध है-

कहते हैं, कि सतयुग में इस क्षेत्र में देवशर्मा नामक ब्राह्मण रहता था। वह भगवान विष्णु का परम् भक्त था । उसने विष्णु जी की तपस्या करके ,उनसे आग्रह किया कि प्रभु आप यही रहें। तब भगवान विष्णु ने कहा कि मैं त्रेता युग मे यहाँ आऊंगा। और यहाँ तप करके सदा के लिए बस जाऊंगा। और कालांतर में यह स्थान तुम्हारे नाम से जाना जाएगा। कहा जाता है,कि देवशर्मा नामक ब्राह्मण के नाम से इस जगह का नाम देवप्रयाग पड़ा।

भगवान राम से जुड़ा है देवप्रयाग का इतिहास –

देवप्रयाग क्षेत्र का भगवान राम से विशेष संबंध है। यह क्षेत्र भगवान राम की तपस्थली के रूप में प्रसिद्ध है। कहते हैं कि रावण की ब्रह्म हत्या दोष से बचने के लिए भगवान राम ने यहां तपस्या की थी, और विशेश्वर शिवलिंग की स्थापना की थी। रावण जाती धर्म से ब्राह्मण होने के कारण, उसकी हत्या करके भगवान को भी ब्रह्मदोष लग गया था जिसके निवारण के लिए भगवान राम ने यहाँ तपस्या की और ब्रह्मदोष से मुक्त हुए।

भगवान राम का प्रसिद्ध मंदिर रघुनाथ मंदिर यहीं है। केदारखंड में भगवान राम ,लक्ष्मण और माता सीता सहित आने का उल्लेख मिलता है। कहा जाता है,कि जब प्रजा के आरोप लगाने पर , भगवान राम ने माता सीता का त्याग किया तब लक्ष्मण जी ,माता सीता को ऋषिकेश के आगे तपोवन में छोड़ कर चले गए,मान्यता है,कि जिस स्थान पर लक्ष्मण ने सीता को विदा किया वह देवप्रयाग से मात्र 4 किमी दूर है।

देवप्रयाग में पितृपक्ष में पिंड दान का विशेष महत्व है

श्राद्ध पक्ष में देवप्रयाग में पिंडदान करने का विशेष महत्व बताया गया है। यहाँ देश के विभिन्न क्षेत्रों से लोग पिंडदान करने के लिए आते हैं। आनंद रामायण के अनुसार ,भगवान राम ने यहाँ ,श्राद्ध पक्ष में अपने पिता दशरथ का पिंडदान किया था। भगवान राम की इस तपस्थली में आज भी पितृपक्ष में यहाँ के पुजारी ,दशरथ जी को तर्पण करते हैं। कहते हैं कि नेपाली धर्मग्रंथ हिमवत्स में बताया गया है,कि देवप्रयाग में पितरों के तर्पण व पिंडदान का सर्वाधिक महत्व है। और भागीरथी नदी को पितृ गंगा भी कहा जाता है।

देवप्रयाग के मंदिर –

33 करोड़ देवताओं की निवास भूमि में बहुत मंदिर हैं। जिनके बारे सांशिप में जानकारी इस प्रकार है ।

रघुनाथ मंदिर देवप्रयाग उत्तराखंड

देवप्रयाग का प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिर है यहां का रघुनाथ मंदिर। इस मंदिर की स्थापना मूलतः देवशर्मा नामक ब्राह्मण ने की थी। देवप्रयाग का नामकरण भी ,देवशर्मा के नाम पे हुवा है। मंदिर को वर्तमान रूप में आदिशंकराचार्य जी ने बनवाया था। आदिशंकराचार्य जी ने चार धाम की स्थापना के अलावा ,108 विश्व मूर्ति मंदिरों की स्थापना की जिनमे भगवान ने स्वयं प्रकट होकर उस स्थान को सिद्ध किया है। इन 108 मंदिरों में देवप्रयाग का रघुनाथ मंदिर, जोशीमठ का नरसिंह मंदिर और बद्रीनाथ मंदिर भी है।

रघुनाथ मंदिर के पीछे की शिलाओं पर कुछ तीर्थयात्रियों के नाम खरोष्टि लिपि में लिखे गए हैं। इन्हें दूसरी या तीसरी शताब्दी का माना गया है। मंदिर में अनेक शिलालेख और ताम्रपत्र इसकी प्राचीनता को सिद्ध करते हैं। अनेक राजाओं ने इसके निर्माण में सहयोग किया। गढ़वाल के राजाओं के साथ साथ गोरखा सेनापतियों ने भी इस मंदिर के निर्माण में सहयोग किया। इसका उल्लेख मंदिर के मुख्यद्ववार पर है। 1803 ई में इस मंदिर का भूकंप द्वारा नष्ट होने पर दौलतराव सिंधिया ने इसका निर्माण करवाया था।

ऊँचे लंबे चबूतरों पर बनाया गया यह मंदिर बहुत सुंदर है। रघुनाथ मंदिर के गर्भगृह के फर्श से मंदिर की शिखर तक की लंबाई लगभग 80 फ़ीट है। मंदिर के अंदर विष्णु भगवान की काले रंग की मूर्ति स्थापित है। मूर्ति भक्तों की पहुँच से बाहर है। सभी भक्त बाहर के छोटे से सभामंडप क्षेत्र में खड़े होते हैं। शिखर पर लकड़ी की बनी विशाल छतरी है। इस छतरी को टिहरी की खरोटिया रानी ने बनवाया था। कुल मिला कर देवप्रयाग का रघुनाथ मंदिर द्रविड़ शैली में बना है।

इस मंदिर में प्रतिदिन पूजा अर्चना होती है। तथा वर्ष में 4 मेले भी लगते हैं – बसंतपंचमी , वैशाखी, रामनवमी और मकरसंक्रांति का मेला।

देवप्रयाग का इतिहास
देवप्रयाग का इतिहास

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भरत मंदिर –

रघुनाथ मंदिर के उत्तर में  आवादी समाप्त होने पर एक छोटा मंदिर है, इसको भरत मंदिर कहते हैं। कहते हैं कि ऋषिकेश में औरंगजेब द्वारा भरत मंदिर तोड़े जाने के खतरे के डर से वहाँ के महंत भरत मूर्ति को उठाकर यहाँ ले आये। खतरा दूर होने के बाद पुनः ऋषिकेश में स्थापित कर दिया गया। देवप्रयाग में जिस स्थान पर यह मूर्ति रखी गयी थी ,वहां एक छोटा मंदिर बना दिया गया।

वागीश्वर महादेव देवप्रयाग –

वगीश्वर पर बने शिव मंदिर को वागीश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है। पौराणिक कथाओं के आधार पर इस स्थान पर माता सरस्वती ने भगवान भोलेनाथ की तपस्या करके संगीत विद्या प्राप्त की थी।

आदि विश्वेश्वर मंदिर देवप्रयाग –

देवप्रयाग में पांच शिवमंदिर विशेष हैं। चार मंदिर इस क्षेत्र के चार कोनो पर चार दिगपाल देवताओं के मंदिर  स्थित हैं। पांचवा मंदिर मुख्य मंदिर है, जो केंद्र में अधिष्ठाता के रूप में विराजित है। इसी मंदिर को आदि विशेश्वर मंदिर कहते हैं। इसके अलावा चार दिग्पालों के मंदिर हैं – धनेश्वर ,बिल्वेश्वर ,तुन्दीश्वर, और तांटेश्वर मंदिर।

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धनेश्वर मंदिर –

धनेश्वर मंदिर देवप्रयाग में अलकनंदा के बाएं तट पर बाह नामक स्थान से लगभग एक किलोमीटर दूर है। इस मंदिर के पास धनवती नामक नदी अलकनंदा में मिलती है। इसके बारे में किदवंती है,कि यहाँ धनवती नामक एक वैश्या ने शिव की तपस्या की थी। मृत्यु के बाद वह नदी में परिवर्तित हो गई। इस मंदिर को डंडिश्वर मंदिर भी कहते हैं। कहते हैं यहाँ दशायनी दनु ने 5500 वर्ष तक एक पैर पर खड़े होकर भगवान शिव की तपस्या की थी। ( Devpryaag in hindi )

बिल्वेश्वर मंदिर –

बिल्व तीर्थ पर स्थित शिवलिंग को  बिल्वेश्वर महादेव कहते हैं। यह शिवलिंग छोटी सी गुफा में अवस्थित है।

तुन्डिश्वर मंदिर –

तुंडी कुंड से ऊपर एक विशाल टीले पर तुन्दीश्वर मंदिर कहा जाता है। कहते हैं कि यहां तुंडी नामक भील ने भगवांन भोलेनाथ की उपासना की थी। और महादेव ने प्रसन्न होकर उसे अपने गण के रूप में स्वीकार कर लिया था।

तांटकेश्वर मंदिर देवप्रयाग –

इस मंदिर को स्थानीय भाषा मे टाटेश्वर भी कहते हैं। पौराणिक कथाओं के आधार पर, जब भगवान शिव माता सती की मृत देह लेकर घूम रहे थे, तब माता सती का तांतक ( कान का आभूषण ) इस स्थान पर गिर गया था। इसलिए यह स्थान तांटकेश्वर मंदिर कहलाया।

गंगा मंदिर –

देवप्रयाग के संगम से कुछ दूरी पर एक विशाल चपटी शिला पर छोटा सा मंदिर बना कर उसमे गंगा मूर्ति स्थापित की गई है।

क्षेत्रपाल मंदिर देवप्रयाग –

गरन्ध पर्वत पास रघुनाथ मंदिर के थोड़ा ऊपर  क्षेत्रपाल मंदिर है। ऐसे भैरव भी कहते हैं। इन्हें देवप्रयाग का रक्षक देवता माना जाता है।

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नागराजा मंदिर –

देवप्रयाग से 5 किमी दूर पहाड़ी पर नागराजा मंदिर है। यहां बैसाख 2 गते को मेला लगता है।

नरसिंह मंदिर देवप्रयाग –

नरसिंह मंदिर ,यहां के नरसिंह पर्वत पर स्थिति है।

महिषमर्दिनी मंदिर देवप्रयाग –

महिष्मर्दनी दुर्गा का मंदिर ,गरन्ध पर्वत की ढलान पर रोड से ऊपर अवस्थित है।

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अंत में :- मित्रों उपरोक्त लेख में हमने देवप्रयाग के बारे में, एक संशिप्त जानकारी प्रस्तुत की है । इसमे हमने ,देवप्रयाग के इतिहास मंदिरों के बारे में जानकारी साझा की है। इस लेख के लिए हमने स्थानीय पत्र पत्रिकाओं और डॉ सरिता शाह जी की पुस्तक उत्तराखंड के तीर्थ की सहायता ली है।

यदि जानकारी में कोई त्रुटि हो , तो आप हमें हमारे फेसबुक पेज देवभूमी दर्शन पर संदेश भेज कर अवगत कर सकते हैं। हम यथायोग्य निदान करने की कोशिश करेंगे।

नरेंद्र सिंह नेगी जी का प्रसिद्ध गीत “धरती हमरा गढ़वाल की ” लिरिक्स और वीडियो के लिए यहां क्लिक करें।

नारसिंही देवी मंदिर, अल्मोड़ा के गल्ली बस्यूरा में बसा है देवी का ये खास मंदिर

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नारसिंही देवी

नारसिंही देवी मंदिर अल्मोड़ा –

उत्तराखंड अल्मोड़ा जिले के गोविंदपुर क्षेत्र, गल्ली बस्यूरा नामक गावं में स्थित है माँ नारसिंही देवी का ऐतिहासिक मंदिर। अल्मोड़ा जिला मुख्यालय से लगभग २८-३० किलोमीटर दूर ,अल्मोड़ा -द्वाराहाट मोटरमार्ग के पास स्थित माँ नारसिंही देवी का यह मंदिर अपनी पहचान लिए तरस रहा है। कुमाऊँ के प्रसिद्ध इतिहासकार श्री बद्रीदत्त पांडेय जी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ,”कुमाऊँ का इतिहास ” में इसके बारे में बताया है कि,अल्मोड़ा का यह प्रसिद्ध देवी मंदिर चंदवंशीय राजा देवीचंद ने बनवाया था।

मंदिर की बनावट और शैली देख कर ही लगता कि यह मंदिर काफी प्राचीन एवं ऐतिहासिक है। यहाँ एक बड़ा मंदिर है और बहार प्रांगण में छोटे मंदिर बने हैं। एक प्राचीन ऐतिहासिक और उत्तराखंड में नारसिंही देवी का एकमात्र होने के बाद भी ,यह मंदिर उपेक्षा का शिकार है मतलब इस मंदिर को उतनी पहचान नहीं पायी ,जितनी इसके समकालीन मंदिरों को मिली है। हालाँकि स्थानीय लोग पूजा – पाठ कथा पुराण आदि इस मंदिर में समय समय पर आयोजित करते रहते हैं। और स्थानीय लोग माँ नारसिंही देवी के दर्शार्थ आते रहते हैं।

गोलुछीना की घाटी में गल्ली बस्यूरा की तलहटी में बसा , माता का यह मंदिर जिसके दोनों तरफ छोटी नदियां बहती हैं। ये परिस्थितियाँ यहाँ एक अतुलनीय रमणीक वातावरण का निर्माण करती हैं। यह मंदिर एक ऐतिहासिक धार्मिक स्थल के साथ ,एक सूंदर पर्यटन स्थल के रूप में विकसित हो सकता है। इसके लिए क्षेत्र की जनता और स्थानीय जनप्रतिनिधियों को मिलकर कोशिश करनी पड़ेगी। इसका लाभ क्षेत्र की सभी जनता को मिलेगा।
आइये जानते हैं, कौन है माँ नारसिंही देवी ? माँ नारसिंही देवी की पौराणिक कथा

निकुंबला देवी || नारसिंही देवी की पौराणिक कहानी –

नारसिंही  देवी  का एक नाम प्रत्यंगिरा देवी है।  इन्हे निकुंबला देवी के नाम से भी जाना जाता है। दशानन रावण की कुल देवी भी प्रत्यंगिरा देवी थी। इनका सर शेर का तथा बाकि शरीर नारी का है।  प्रत्यंगिरा देवी शक्ति स्वरूपा  देवी हैं।

यह देवी विष्णु ,शिव, दुर्गा का एकीकृत रूप है। यह कहानी उस समय की जब भगवान् विष्णु ने अपने भक्त प्रह्लाद की रक्षा और लोगो को हिणाकश्यप  के अत्याचार से मुक्ति  देने के लिए नासिंह  का अवतार धरा।  हरि का यह अवतार अत्यंत रौद्र और क्रोधी था। हिणाकश्यप के वध के उपरांत भी नरसिंघ का क्रोध शांत नहीं हुवा। वे अत्यंत रौद्र रूप में  आ गए।  विनाश की आशंका से डर कर ,सभी  देवगण  भगवान भोलेनाथ के पास गए।

उन्होंने वहां भगवान् शिव से प्रार्थना की वे भगवान् नरसिंघ का क्रोध शांत करे। तब भोलेनाथ ने  शरभ का रूप धारण किया जो आधा पक्षी और आधा सिंह था।  तब भगवान् शिव का अवतार शरभ और विष्णु अवतार नरसिंह के बीच महायुद्ध शुरू हो गया। दोनों काफी समय तक बिना निर्णय  के लड़ते जा रहे थे।  भगवान्  शिव और भगवान् विष्णु की शक्तियों का महायुद्ध धीरे धीरे इतना उग्र हो गया था कि ,सृष्टि पर प्रलय का संकट मंडराने लगा था। और  इन दोनों महाशक्तियों को रोकना असम्भव लग रहा था। तब देवताओं  ने आदिशक्ति , महाशक्ति योगमाया दुर्गा का आवाहन किया। क्योकि  इन दो शक्तियों  को रोकने की क्षमता महाशक्ति दुर्गा  के पास थी।

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महाशक्ति ने आधा सिंह और आधा मानव रूप लेकर अवतार धारण किया , और अत्यंत तीव्र वेग और तीव्र हुंकार के साथ उनके बीच में प्रकट हुई ,कि  दोनों स्तब्ध हो गए।  और उनके बीच का युद्ध समाप्त हो गया।  और देवी ने दोनों के क्रोध आवेश , और रौद्रता को अपने आप में शामिल करके दोनों को शांत कर दिया। इस  प्रकार नरसिंघ को शांत करने वाली  नारसिंही देवी  के नाम से जगविख्यात हुई। प्रत्यंगिरा देवी भगवन शिव और  विष्णु  की सयुक्त विनाशकारी  शक्ति को अपने अंदर धारण करती है। प्रत्यंगिरा देवी को अघोर लक्ष्मी , सिद्ध लक्ष्मी , पूर्ण चंडी  और  अथ्वर्ण भद्रकाली के नाम से बह पुकारा जाता है।

यहां बाज के घने जंगलों में सिधेश्वर रूप में बसते हैं,महादेव। जिन्हें लोग प्यार से सितेसर महादेव कहकर बुलाते हैं।

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मठियाणा देवी मंदिर – उत्तराखंड में जाग्रत माँ भद्रकाली का मंदिर

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मठियाणा देवी मंदिर

उत्तराखंड के रूद्रप्रयाग जिले के तिलवाड़ा सौराखाल  रोड पर तिलवाड़ा से लगभग 29 किलोमीटर दूर माता का प्रसिद्ध सिद्धपीठ मठियाणा देवी मंदिर स्थित है। कहा जाता है,कि यह वर्तमान में जाग्रत महाकाली शक्तिपीठ है।

मठियाणा देवी मंदिर के बारे में एक लोक कथा प्रचलित है,जिसके अनुसार कई वर्ष पहले मठियाणा देवी भी एक साधारण कन्या थी। उनकी दो माताएं थी । वह बांगर पट्टी के श्रावणी गावँ में रहती थी। उनकी माताओं की आपस मे नही बनती थी।

दोनो माताएं अलग अलग रहती थी। उनकी सौतेली माँ गावँ वाले घर मे रहती थी ।और उनकी माँ डांडा मरणा में रहती है। यह कन्या जैसे ही बड़ी हुई तो , घरवालों ने उसकी शादी करवा दी।

विवाह के पश्चात यह कन्या एक दिन अपने मायके, गांव वाले घर  में आई । वहाँ उसकी सौतेली माँ रहती थी। उसकी सौतेली माँ ने उसको बहला फुसला कर अपनी माँ से मिलने डांडा -मरणा गावँ भेज दिया और उसके पति को गावँ में रोक लिया। उसकी सौतेली माँ ने उस कन्या के पति को भोजन में जहर देकर मार दिया और लाश को एक संदूक में बंदकरके गायों के गौशाले में रख दिया।

जब वो लड़की अपनी मा से मिलकर वापस आई ,उसे वहां पता चला कि उसकी सौतेली माँ ने उसके पति को मार दिया। तब वह लड़की अपने होश खो बैठी ,और क्रोध के आवेश में आकर उसने रात के 12 बजे अपनी सौतेली माँ के घर को जला दिया और अपने पति की मृत देह को बक्से से निकाल कर ,सूर्यप्रयाग में बहने वाली नदी के पास ले आई।

जब गावँ वाले उसके पति का अंतिम संस्कार करने लगे,तो वह सती होने के लिए चिता में जाने लगी तो, अचानक वहाँ  लाटा बाबा आ गए। उन्होंने उस कन्या को अपने आप को पहचानने और अपनी शक्तियों को जाग्रत करने के लिए कहा । इसके बाद ये देवी के रूप में स्थापित होकर देवी के रूप में पूजी जाने लगी।

मठियाणा देवी मंदिर
मठियाणा देवी मंदिर

यहाँ पर  लोग कहते हैं,कि इनको सती होने के बाद इनको देवी के रूप में पूजा गया।

इस क्षेत्र में मठियाणा देवी के बारे कई कथाएं और किंदविंदियाँ प्रसिद्ध है। लोग कहते हैं, कि देवी उन्हें कई रूपों में दिखाई देती है। रात को आने जाने वालों का मार्गदर्शन करती है। तथा, डरे हुए लोंगो को उनके नियत स्थान तक छोड़ कर भी आती है। ससुराल से परेशान भागी हुई लड़कियों की मदद करती है,और उनको उचित स्थान तक छोड़ कर आती है।

मठियाणा देवी मंदिर भद्रकाली सिद्धपीठ के रूप में प्रसिद्ध है। यहां रोज भक्तों का तांता लगा रहता है। साल के दो नवरात्रों ( ग्रीष्म एवं शीत)  में यहां माँ कि विशेष पूजा अर्चना होती है। यहां 6 से 12 वर्ष के अंतराल में अखंड यज्ञ का आयोजन भी होता है। और प्रति 3 वर्ष में माता की जागर का आयोजन भी होता है।

रुद्रप्रयाग की रमणीय ,नैसर्गिक सुंदरता के बीच बसा ,माँ भद्रकाली का यह शक्तिपीठ  भक्तों के लिये विशेष आस्था का केंद्र है।

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मठियाणा देवी मंदिर कैसे पहुचें –

मठियाना देवी माँ के मंदिर जाने के लिए सर्वोत्तम आपको रुद्रप्रयाग पहुचना होगा। यहाँ से तिलवाड़ा सौरखाल रोड पर वाहन से  25 किलोमीटर की दूरी भरदार पट्टी के अंतर्गत तिलवाड़ा से तय करने के बाद ,4 किलोमीटर पैदल चलने के बाद माँ  मठियाणा देवी के दर्शन होते हैं।

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संदर्भ – मंगत राम धस्माना जी द्वारा रचित पुस्तक, उत्तराखंड के सिद्धपीठ