आजकल सोशल मीडिया अपना टैलेंट दिखाने का नया मंच बनता जा रहा है। सोशल मीडिया के माध्यम से प्रतिभावान लोग अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करके काफी प्रसिद्ध हो रहे हैं। आजकल उत्तराखंड का एक नवयुवक भी अपने करतबों से सोशल मीडिया छाया हुवा है। चमन वर्मा नामक इस पहाड़ी युवक के हवा में करतब दिखाते हुए करतब और लम्बी कूद से नदी पार करते हुए वीडियो काफी वायरल हो रही है। कई वीडियो में Chaman Verma अपनी करतबों में गजब का संतुलन साधते हुए नजर आ रहे हैं।
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कौन है पहाड़ का स्टंटमैन चमन वर्मा –
पहाड़ी स्टंटमैन के नाम से मशहूर हो रहे चमन वर्मा मूलतः उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के निवासी हैं। अल्मोड़ा जिले में मासी क्षेत्र के ग्रामपंचायत कनौणी गावं के भटोली तोक निवासी है। स्टंट वीडियो बनाने वाले Chaman Verma द्वाराहाट महाविद्यालय में BA तृतीय वर्ष के छात्र हैं। इनके पिता बृज लाल वर्मा एक वाहन चालक हैं।
Chaman Verma Stunt
सोशल मीडिया पर तेजी से वायरल हो रहें चमन के वीडियो –
जिस प्रकार कृष फिल्म में ऋतिक रोशन ,पहाड़ों में कूदते और नदियों को फांदते दिखाया गया है। उसमे ऋतिक रोशन ने कई तकनीशियनों और कैमरा के सहारे ये सीन दिखाए थे। लेकिन उत्तराखंड के इस कृष बिना तकनीशियनों के सहारे वास्तविक स्टंट करके लोगों को हैरत में डाल रहे हैं। वे कृष की तरह नदी को फांदते दिखाई हैं। हवा में कलाबाजियां दिखाते हुए दिख रहें। सबसे हैरत की बात है कि वे हवा में गज़ब का संतुलन साधते दिख रहे हैं।
चमन वर्मा अन्य पहाड़ी लड़कों की तरह फौज की भर्ती कर रहे हैं। उनका सपना आर्मी में जाकर देशसेवा करने का है। फौज की भर्ती की तैयारी के दौरान वे करतबों का अभ्यास भी करते हैं। Chaman Verma ने स्वाभ्यास से इस कला को सीखा है। वे लगभग आठ माह से इन करतबों को कर रहे हैं। उन्हें एक अच्छे ट्रेनर और अच्छे प्लेटफार्म की आवश्यकता है। ताकि वे अपनी इस कला को आगे ले जाकर देश दुनिया में अपने राज्य और अपने देश का नाम रोशन कर सकें।
विगत वर्षों की तरह भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में अपना सर्वस्व योगदान देने वाले चनौदा सोमेश्वर के वीर शहीदों को जनता ने और जनप्रतिनिधियों ने अपने श्रद्धासुमन अर्पित किए। प्रतिवर्ष 2 सितंबर को चनोदा सोमेश्वर में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपनी शाहदत देकर हमारी स्वतंत्रता सुनिश्चित करवाने वाले शहीदों को सम्मान और भावभीनी श्रद्धांजलि के साथ याद किया जाता है।
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क्या हुवा था उस दिन?
चनोदा सोमेश्वर क्षेत्र के अनेक स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने देश की आजादी में और अंग्रेजों के साथ लड़ाई में अपना विशेष योगदान दिया। 8 अगस्त 1942 ई में मुंबई में कांग्रेस के मुख्य कार्यकर्ताओं के पकड़े जाने के विरोध में 9 अगस्त 1942 से उत्तराखंड के जगह जगह में विरोध शुरू हो गए। जिनमे देघाट कांड, सालम की क्रांति जैसी घटनाएं प्रमुख हैं। इसी विरोध का दमन करने के लिए कठोर दमनकारी नीति अपनाई।
2 सितंबर 1942 ,जन्माष्टमी के दिन चनौदा सोमेश्वर घाटी के गांधी आश्रम से 42 स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को तत्कालीन अंग्रेज कमिश्नर एक्टन द्वारा गिरफ्तार कर अल्मोड़ा जेल में कैद कर लिया गया। अंग्रेजों ने उन्हें बेरहमी से पीटा और अत्याचार किया। जिस कारण उनमें से कुछ सेनानियों ने जेल में रहते हुए अपने प्राणों की आहुति दे दी। स्वतंत्रता के लिए देश में जितने भी आंदोलन हुए उन आंदोलनों में चनौदा (सोमेश्वर घाटी ) (जो बौरारो घाटी के नाम से जानी जाती हैं) के वीर स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने प्रतिभाग किया और देश को आजाद करने में अपना अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।
चनौदा सोमेश्वर के इन 6 शहीदों ने दी अपने प्राणों की आहुति-
2 सिंतबर के दिन बेरहमी से पीटते हुए अंग्रेजो ने स्वतंत्रता सेनानियों को गांधी आश्रम चनोदा से गिरफ्तार कर लिया था। इनमें से इन 6 स्वतंत्रता सेनानियों ने देश की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी।
भारतीय डाक सेवा: – प्रेम-विनिमय का आज भी एक प्रतीक! ✍️लेख -अशोक जोशी
अभी अलविदा मत कहो दोस्तों! क्योंकि
बीते हुए लम्हों की कसक साथ तो होगी
ख़्वाबों में ही हो चाहे मुलाक़ात तो होगी
फूलों की तरह दिल में बसाए हुए रखना
यादों के चिराग़ों को जलाए हुए रखना
भाई बहन के निस्वार्थ प्रेम और अटूट विश्वास का त्यौहार रक्षाबंधन कल देशभर में बड़ी धूमधाम से मनाया गया।
रक्षाबंधन के पावन पर्व पर जहाँ बहनों को अपने भाइयों की कलाई पर रक्षा का धागा बाँधने का बेसब्री से इंतजार रहता है, तो वहीं दूसरी ओर दूर-दराज बसे भाइयों को भी इस बात का बड़ी आतुरता से इंतजार रहता है कि , उनकी बहनें भी उन्हें राखी भेजेंगी और आज भी विशेष कर पहाड़ों के, शहरों के, गांवों के दूरस्थ क्षेत्रों में बसी बहनें डाक पार्सलों के द्वारा अपने गांव – मोहल्ले के निकटतम पोस्ट ऑफिस से अपने भाईयों को अपने नाम की राखी पोस्ट करती है।
गौर करें तो क्या हम उस वर्षों पुरानी डाक-व्यवस्था को भूल तो नहीं गए थे, वो तो रक्षाबंधन जैसे कुछ त्यौहार आज भी है जो गाहे-बगाहे मुख्यत: राखियों के माध्यम से इन डाकघरों और डाक सेवाओं से पुनः हमारी भेंट कराती है।
वरना सालों की परंपरा से हासिल कई कीमती चीजें हम भूलते जा रहे हैं, जो हमें मानवता और संबंधों के और करीब लाने का प्रयास करती थी।
वास्तव में नेगी दा ने खूब ही लिखा है कि –
बगत नि रुकि हथ जोड़ी जोड़ी, बगदू राई पाणी सी
(अर्थात हाथ जोड़-जोड़ कर भी यह वक्त कभी रुका नहीं बस पानी की तरह निरंतर अपनी गति से बहता ही चला)
समय कभी भी किसी का एक जैसा नहीं रहता, वक्त और दौर तो यूं ही जमानें में समय-समय पर सबके अपने आते और जाते रहे, बस जिंदा रह जाती है तो बस यादें।
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आज मोबाइल-इंटरनेट ने हमें डाक-चिट्ठियों से दूर कर दिया..
पत्र पेटिका के विषय में खूब ही लिखा है कि –
कोई सजनी प्रेम-विरह की
पाती रोज इक छोड़ जाती थी
कोई बहना अपने भाई के खातिर
राखी का संदेश दे जाती थी…
क्या जमाना था कभी जब,
सबको पास मैं बुलाता था।
जी हां जरा याद कीजिए दशकों पुराना वह समय जब फेसबुक,व्हाट्सएप,इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म नहीं हुआ करते, ये तो छोड़िए यहां तक की दूर-दूर तक सगे संबंधियों की सुध लेने के लिए कोई मोबाइल फोन या टेलीफोन तक भी नहीं हुआ करते थे, ऐसे वक्त में संचार का एकमात्र प्रमुख साधन हुआ करती थी तो बस हमारी डाक सेवाएं, डाकघर और डाकिए।
डाक सेवाओं के इस युग में डाकिया बाबू का व्यक्तित्व भी कोई साधारण नहीं होता था, बल्कि हर दिल में उनकी भी एक अति विशिष्ट छवि हुआ करती थी, उनके आते ही न जानें कितने परिजनों के चेहरे खिल उठ उठते, प्रीत में बंधे न जानें कितने युवा प्रेमियों की धड़कनें बढ़ने लगती, नौकरी की जॉइनिंग के कॉल लेटर की आस में बैठे कितने नौजवानों की सांसे थमने लगती इसका अंदाजा लगा पाना शायद संभव नहीं,पर एक अलग ही हलचल हुआ करती थी।
सच में ! आज जरा याद कीजिए उस समय को कितना स्वर्णिम वह वक्त रहा होगा, गहरी संवेदनशीलता और अपनत्व के भावों से भरे कितने खूबसूरत वह सम्बन्ध रहे होंगे।
पर जाने कहाँ गए वो दिन, जब रहते थे तेरी राह मे
नज़रों को हम बिछाएं
चाहे कहीं भी तुम रहो, तुमको ना भूल पाएंगे…
बरहाल आज की इस मोबाइल-इंटरनेट की दुनिया ने हमारी पुरानी पारम्परिक डाक-व्यवस्था पर ग्रहण लगा दिया है।
डाकघरों और खत – चिट्ठियों के दौर से जुड़ी कुछ अनोखी यादें-
भारतीय डाक सेवा की स्थापना यूं तो 169 साल पहले 1854 को हुई थी ग़ौरतलब है कि आज भी यह विभाग अपनी सेवाएं दे रहा है, सिनेमा जगत में समय-समय पर कई ऐसी फ़िल्में और गीत बनते रहे हैं, जिनमें चिट्ठियों, डाकियों और पुराने डाकघरों का जिक्र मिलता है –
यदि बात उत्तराखंड इतिहास की सबसे बड़ी सुपरहिट फिल्म घरजवैं की करें तो इसमें –
श्यामू परदेश में नौकरी करता है और 6 महीने साल भर बाद जब घर की ओर प्रस्थान करता है तो श्यामू के इंतजार में खड़ी उसकी माला श्यामू को कहती है कि –
मैं नि करदु त्वे से बात हट छोड़ी दे मेरु हाथ
बोल चिट्ठी किले नी भेजी, तिन चिट्ठी किले नी भेजी
श्यामू (नायक ) – तेरा गौं कु डाक्वान चिट्ठी देणु आन्दु।
तू रेन्दी बणूमां वो कैमा दे जान्दु
मुण्ड मां धेरी कि जो हाथ, सोची – सोची मिन या बात।
[ श्यामू – नायक बलराज नेगी, माला – नायिका शांति चतुर्वेदी ]
तो वही दूसरा दृश्य हम देखते हैं गढ़वाली फिल्म चक्रचाल में –
यूं तो यह फिल्म मुख्य रूप से भूकंप त्रासदी पर आधारित है, किंतु प्रेम से जुड़े हुए कुछ प्रसंग भी इस फिल्म की कहानी का मुख्य भाग है। फिल्म के मुख्य पात्रों में से एक मंगतू जोकि फौज में है, मंगतू को उसके घर से चिट्ठी पहुंचती है जिसमें उसकी मंगनी की बात लिखी हुई होती है जिसे देख वह *फूले नहीं समा* पाता।
और आगे फिर कुछ इस प्रकार से अपनी खुशी को जाहिर करता है कि – घर बटि चिट्ठी ऐ ग्यायी..
मंगतू के साथी – पढ़ क्या लिख्यू चा
मंगतू – गरु च लिफ्फु जरा ज्यादा ही
मंगतू के साथी – खोल क्या लिख्यू चा
मंगतू – पिठै लगी चा भैर लिफाफा मा भीतर लिख्यू चा ह्वे ग्यायी .. २
बल मेरी मांगण ह्वे ग्यायी डेरा बुलायु चा
इसी फिल्म में चिट्ठी पर आधारित एक दूसरा गीत यह भी है इसमें रुपा देबू के लिए गाती है कि –
ना चिट्ठी आई तेरी ना रैबार कैमा
रुव्वे ले सुव्वे ले थारयूँ
छिन आंसू मैमा
इसी क्रम में यदि बात वर्ष 1985 में बनी राज कपूर की फिल्म राम तेरी गंगा मैली की जाए तो कुदरत के नजारों के बीच हर्षिल (उत्तरकाशी) का पोस्ट ऑफिस भी उनकी इस फिल्म की कहानी का एक हिस्सा बनी थी।
अपनी चिट्ठी का इंतजार करती नायिका गंगा इस पोस्ट – ऑफिस में आकर डाक बाबू से जानकारी हासिल करती है।
आगे हम देखते है जब कॉफी देर हो जाती है और कोलकात्ता से नरेन की कोई चिट्ठी खबर गंगा तक नहीं पहुंचती तो वह कोलकात्ता जाने का साहस कर गंगोत्री से ऋषिकेश की बस पकड़ती है, बस निकलने के कुछ देर बाद नरेंद्र के चाचा कुंज बिहारी गंगा के गांव गंगोत्री पहुंचकर डाक बाबू से गंगा का पता जानते हैं।
डाक बाबू – आप भी पोस्ट की चिट्ठी की तरह देर से आए कुंज बाबू गंगा, तो नरेन के बेटे को लेकर सुबह ही कलकत्ता के लिए चले गई।
यह सीन फिल्म का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, किस्सों की इस यात्रा को आगे बढ़ाएं तो गढ़रत्न नरेंद्र सिंह नेगी जी ने भी अपनी गीत यात्रा में ऐसे तमाम गीत लिखे जिनमें डाक सेवा से जुड़े चिट्ठी – पत्री का जिक्र मिलता है कुछ गीतों का जिक्र ऊपर भी हो चुका है कुछ और बाकी है जिनकी शुरुआती पंक्तियां क्रमशः कुछ इस प्रकार से हैं।
पहला गीत –
दूर परदेशु छऊं, उमा त्वेथें म्यारें सौं
हे भूली न जैई, चिट्ठी देणी रैयी
राजी ख़ुशी छौं मी यख तूभी राजी रैई तख
गौं गौलोँ मा चिट्ठी खोली
मेरी सेवा सोंली बोली
हे भूली न जैई, चिट्ठी देणी रैयी
दूसरा गीत –
चिठ्युं का आखर अब ज्यू नि बेल मोंदा,
बुसील्या रैबार तेरा आस नी बंधौन्दा
ऐजदी भग्यानी, ऐजदी भग्यानी -२
ऐजदी भग्यानी ईं ज्वानि का छौन्दा-२
तीसरा गीत –
तेरि पिड़ा मां द्वी आंसु मेरा भि,
तोरि जाला पिड़ा ना लुकेई
तख तेरा हाथ बिटि छुटि जौ कलम
यख रौं मि चिठ्युं जगवल्णू
न हो कखि अजाणम न हो ।
ज्यू हल्कु ह्वे जालो तेरो भि
द्वी आंखर चिट्ठी मां लेखि देई ।
(पति – तुम्हारे दुखों को समझ कर यदि मेरे भी दो आंसू निकल पड़े तो तुम्हारा दर्द कुछ कम हो जाएगा इसलिए तुम अपने दुख को छुपा कर मत रखो!
आगे पत्नी – वहां आपके हाथों से कलम छूट जाए और मैं यहां आपके पत्र का इंतजार करती रहूं
ना हो ऐसा अनजाने में भी कभी न हो अगर आप अपने दिल की बात चिट्ठी में लिख दोगे तो आपका जी हल्का हो जाएगा)
चिट्ठी पत्री से जुड़ा हुआ ही एक किस्सा कक्षा दसवीं के अंग्रेजी के लेसन A Letter to God में मैंने पढ़ा था मुझे आज भी याद है जिसमें –
Lencho (लैंचो ) नाम का एक गरीब किसान था। उसे अच्छी फसल की उम्मीद थी। मगर उसकी निराशा के लिए, एक ओलावृष्टि अचानक से आई और उसकी सभी फसलों को पूरी तरह से नष्ट कर दिया।
इस प्रकार, उन्होंने अपनी वित्तीय चिंताओं को संबोधित करते हुए भगवान को एक पत्र लिखा और डाकघर चला गया। उसने पत्र पर एक मुहर लगाई और उसे मेलबॉक्स में डाल दिया। उन्होंने ईश्वर से अनुरोध किया कि वह अपने खेतों को फिर से बोने और अपने परिवार को भुखमरी से बचाने के लिए उन्हें एक सौ पेसो भेज दें।
पोस्टमास्टर ने पत्र पढ़ा लेकिन जब उसने देखा कि पत्र भगवान को संबोधित किया गया था, तो वह जोर से हंस पड़ा। हालाँकि, वह किसान के उस विश्वास से भी हिल गया था, जिसके साथ भगवान को यह पत्र लिखा गया था।
उन्होंने गरीब किसान के भगवान में निर्विवाद विश्वास की सराहना की और उसकी मदद करने का फैसला किया। जल्द ही, उन्होंने डाकघर के कर्मचारियों को दान के रूप में कुछ पैसे देने के लिए कहा और खुद अपने वेतन का एक हिस्सा भी दिया ताकि Lencho का भगवान में विश्वास हिल न जाए।
Lencho कि यह कहानी ईश्वर की प्रति अपने गहरे विश्वास को खूबसूरती से दर्शाती है और यही वह विश्वास था जो चिट्ठी पत्री के दौर में रिश्तों को कायम किए हुए था।
राखी मेकिंग के साथ राखी सेंडिंग भी बन सकती है एक बेहतर क्रियाकलाप-
यह हर्ष का विषय है की गतिविधियां दिन प्रतिदिन हमारी शिक्षण अधिगम प्रक्रिया का एक दैनिक हिस्सा बन रही है, देश और प्रदेश स्तर के विभिन्न विद्यालयों में छात्रों ने इस बार बढ़ – चढ़कर अपने सहपाठियों संग राखी मेकिंग के कार्यक्रमों में भाग लिया पर मेरे मन में नवाचार का एक अंकुर यह भी फूट रहा है कि आने वाले समय में यदि राखी मेकिंग के साथ ही राखी सेंडिंग को भी पाठ्य सहगामी क्रियाकलाप का एक हिस्सा बनाया जाए तो यह निश्चित ही डाक व्यवस्था की उस पुरानी परंपरा को संजोने की दिशा में एक लाजवाब पहल होगी, जिसमें हमारे छोटे-छोटे विद्यार्थी पत्राचार के माध्यम से अपने सगे – संबंधी भाइयों को राखी तो भेजेंगे ही लेकिन इसके साथ ही डाक व्यवस्था की व्यवहारिकता को भी आसानी से समझ सकेंगे।
अंत में आप सभी बहनों से आगे के लिए भी यह आग्रह रहेगा कि इस virtual युग में भी आप दूर बसे भाइयों को राखियां लिफाफे में डाक के माध्यम से ही प्रेषित करते रहे, ताकि प्रेम और बंधुत्व के आदान-प्रदान की यह डाक परंपरा जीवित बनी रहे।
लेखक परिचय ….
शिक्षण साहित्य व संस्कृति में विशेष रुचि रखने वाले , चमोली गढ़वाल के अशोक जोशी जी ने भारतीय डाक और उत्तराखंड की यादों पर अपने विचार एक लेख के रूप में संकलित किये हैं। श्री अशोक जोशी जी वर्तमान में , दून वैली कॉलेज ऑफ एडुकेशन देहरादून में बीएड प्रशिक्षु हैं।
69 National Film Awards में उत्तराखंड के दो युवाओं को उनके बेहतरीन कार्य के लिए Non feature Film category में राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार मिलने जा रहा है। जिसमे सृष्टि लखेड़ा को उनकी फिल्म एक था गांव के लिए और बिट्टू रावत को पाताल ती में बेस्ट सिनेमेटोग्राफर के लिए चयनित किया गया है।
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सृष्टि लखेड़ा की एक था गांव को National film Awards –
उत्तराखंड के पलायन पर आधारित फिल्म “एक था गांव को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार दिए जाने की घोषणा हुई है। गढ़वाली और हिन्दी में बनी इस फिल्म मे पलायन से खाली हो चुके गाँव की कहानी है।इस फिल्म का निर्माण और निर्देशन उत्तराखंड की बेटी सृष्टि लखेरा (Srishti lakhera) ने किया है। उत्तराखंड के पलायन के वर्व को बयां करती इस फिल्म को मुंबई एकेडमी आफ मूविंग इमेज (मामी) फिल्म महोत्सव में इंडिया गोल्ड श्रेणी में जगह बन चुकी है।
गढ़वाली और हिन्दी भाषा में बनी इस फ़िल्म में पलायन के दर्द को एक घंटे की फिल्म में बखूबी उकेरा है। एक गांव फिल्म मे एक ऐसे गांव की कहानी दिखाई गई है, जिसमे कभी 40 के ऊपर परिवार थे । आज 5-7 परिवार रह गए हैं। इस फिल्म के मुख्य पात्रों में 80वर्ष की लीलावती देवी और 19 वर्षीय किशोरी है।
सृष्टि लखेड़ा कौन है-
सृष्टि लखेरा का परिवार ऋषिकेश में रहता है। Srishti lakhera के पिता एक प्रसिद्ध बाल रोग विशेषज्ञ हैं। इनकी माता श्रीमती कुमुद लखेड़ा एक कुशल गृहणी हैं। इनके बड़े भाई सिद्धार्थ लखेड़ा का दिल्ली में अपना बिजनेस है। सृष्टि लखेड़ा की आरम्भिक शिक्षा ऋषीकेश के ओंकारानन्द स्कूल से हुई है। उन्होंने मिरांडा हाउस नई दिल्ली से स्नातक की डिग्री हासिल की। इसके बाद इन्होंने एवरग्रीन यूनिवर्सिटी ओलंपिया वॉशिगटन स्टेट से मास्टर की डिग्री हासिल की हाल ही में पिछले साल इनकी शादी प्रसिद्ध सिनेमैटोग्राफर अमिथ सुरेंद्रन से हुई है। वे कई वेब सिरीज के लिए काम कर चुके हैं।
बिट्टू रावत को पाताल ती के लिए बेस्ट सिनेमेटोग्राफर का National film Awards –
उत्तराखंड को दूसरा राष्ट्रीय पुरस्कार, पाताल ती फिल्म के लिए बिट्टू रावत को सर्वश्रेष्ठ सिनेमेटोग्राफर का पुरस्कार मिला है। पाताल ती एक लघु फिल्म है। जो भोटिया जनजाती की लोक कथा पर आधारित है। इस फिल्म के निर्देशक सन्तोष रावत हैं। इस फिल्म के लिए बिट्टू रावत ने काफी मेहनत की है। पहाड़ों पर चल-चल कर कई ऐसे सीन शूट किए हैं, जिनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
बुसान इंटनेशनल शार्ट फिल्म फेस्टिवल मे भी इस फिल्म को सर्वश्रेष्ठ सिनेमेटोग्राफर का पुरस्कार मिला था। रुद्रप्रयाग के बिटटू रावत की आरम्भिक पढ़ाईजीआईसी चोपता से हुई। इसके बाद उन्होंने दिल्ली से फोटोग्राफी का डिप्लोमा लिया।
कुमाऊँ मस्टिफ (Kumaon Mastiff) एक दुर्लभ कुत्तों की प्रजाती है। इस नस्ल की उत्पत्ती भारत के उत्तराखंड राज्य के कुमाऊ मंडल मे मानी जाती है। इसलिए इस प्रजाती का नाम Kumaon mastiff है। इस प्रजाती को साइप्रो कुकुर के नाम से भी जाना जाता है। इन्हें सर्वप्रथम कुमाऊं के पहाड़ी इलाकों में रखवाली के लिए पाला गया था। एक पुराने अध्ययन के अनुसार भारत में अब केवल 150 से 200 कुमाऊँ मस्टिफ प्रजाती के कुत्ते बचे हैं। यह अध्ययन पुराना है वर्तमान में इनकी संख्या और कम हो गई होगी ।असाधारण रूप से शक्तिशाली ये कुत्ते अत्यंत परिश्रमी और वफादार होते हैं। इनकी विलुप्ती का मुख्य कारण है, लोगों का विदेशी नस्लों के प्रति अधिक झुकाव होना और स्वदेशी नस्लों के प्रति अज्ञानता है।
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कुमाऊं मस्टिफ की शारिरिक रचना-
इनका ताकतवर पतला मांसल शरीर होता है। इनका सिर बड़ा और चौड़ा होता है । इनके बदाम जैसी आँखे, गहरा थूथन और लटकते हुए कान होते हैं। पूंछ लम्बी होती है और गर्दन के आस पास त्वचा ढीली होती है।
Kumaon mastiff के बारे में सामान्य जानकारी:
जन्मस्थान – भारत
दूसरा नाम – साइप्रो कुकुर (Cypro Kukur)
औसत आयु-10 से 12 साल लगभग
नस्ल के प्रकार – रखवाली कुत्तों के समूह
आकार- बड़े आकार के कुत्तों की नस्ल
कुमाऊं मस्टिक की ऊंचाई लगभग 27 से 30 इंच होती है।
इस प्रजाती के कुत्तों का औसत भार लगभग 150 से 180 पाऊंड के बीच होता
Kumaon mastiff नस्ल के कुत्ते आक्रमक स्वभाव के होते हैं, इन्हे प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है।
ये मुख्यतः कॉले, सफेद और चितकबरे रंग के होते हैं।
इन्हें एक दिन में लगभग 6 प्लेट भोजन चाहिए होता है।
एक मादा कुमाऊँ मस्टिफ एक बार में 2 -5 बच्चों को जन्म देती है।
इन्हें प्रशिक्षित करने के लिए धैर्य और दृढ़ता की आवश्यकता होती है।
Image source -https://youtu.be/J9oy4NLx-oU
कुमाऊं मास्टिफ का इतिहास
कहा जाता है, कि इस दुर्लभ कुत्ते की नस्ल की उत्पत्ति हिमालची भू-भाग के कुमाऊं क्षेत्र में हुई। जहा यह स्थानीय (कुमाऊनी) लोगों द्वारा पाला गया। कुछ विद्वानों का मानना है कि हिमालयी क्षेत्र में आने से पहले इस कुत्ते की उत्पत्ती साइप्रस में हुई। इसलिए Kumaon Mastiff को साइप्रो कुकुर भी कहते हैं। कहते हैं आज से लगभग 300 ई० पूर्व कुमाऊं मस्टिफ नस्ल का कुत्ता सिकन्दर के साथ आया था। आज कुमाऊं मस्टिफ नस्ल के कुत्ते केवल कुमाऊ के पहाड़ो तक ही सिमट कर रह गए हैं। साहसिक, ताकतवर और वफादारी में अव्वल कुत्ते की यह नस्ल अपने अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रही है।
स्वभाव –
ये कुत्ते आक्रमक नस्ल के माने जाते हैं। जिन्हें कभी-कभी संभालना मुश्किल हो सकता है। इसलिए कुमाऊं मस्टिफ नस्ल के कुत्तों को कम उम्र से कठोर प्रशिक्षण और समाजिकरण की आवश्यकता पड़ती है। एक अच्छा प्रशिक्षण मिलने के बाद यह कुत्ता सौम्य और घरेलू वातावरण में रहने लायक बन सकता है। कम उम्र में इस नस्ल के कुत्तों का पालकर कठोर प्रशिक्षण से इन्हें पालतू बनाया जा सकता है। ये कुत्ते वफादार साथी होते हैं। और इनमें सुरक्षा की अच्छी भावना होती है।
कुमाऊं मस्टिफ एक दुर्लभ किस्म की नस्ल का कुत्ता है। इनकी वर्तमान संख्या बहुत कम है ।इसलिए Kumaon mastiff का price तय करना बहुत कठिन है। हिमालयी भू-भाग के कुमाऊं क्षेत्र के बाहर इसको ढूंढ़ना मुश्किल हो सकता है। यदि आप इस दुलभ नस्ल के कुत्ते को पालना चाहते हैं, तो आपको कुमाऊं मंडल की यात्रा करनी पड़ेगी । एक अनुमान के अनुसार इसकी कीमत 5 हजार से 20 हजार तक आंकी गई है। बाकी कुत्ते की वर्तमान स्थित देखकर उसकी वास्तिविक कीमत तय की जा सकती है।
हिलजात्रा उत्सव उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के पिथौरागढ़ जिले का प्रमुख उत्सव है। यह सोरघाटी में विशेषतः बजेटी, कुमोड़, बराल गावं, थरकोट, बलकोट, चमाली, पुरान, देवथल, सेरी, रसैपाटा में मनाया जाने वाला लोकनृत्य है। और कुछ परिवर्तनों के साथ हरिण चित्तल नृत्य के रूप में अस्कोट और कनालीछीना में मनाया जाता है। यह लोकनृत्य कृषि व्यवसाय से संबंधित होने के कारण इसमें अभिनय करने वालों का रूप भी उसी के अनुसार होता है। अर्थात इसमें कोई हल जोतते हुए बैल बनता है तो कोई हल जोतने वाला किसान ,कोई ग्वाला ,कोई मेड बांधने वाला तो कोई अन्य पशुओं का रूप धारण करते हैं।
विभिन्न पशुओं और पात्रों का अभिनय करने वाले अभिनेता उन पात्रों के मुखौटे अपने चेहरे पर लगाते हैं। इसलिए हिलजात्रा को उत्तराखंड का प्रसिद्ध मुखौटा नृत्य भी कहते हैं। यह मुखौटे लकड़ी के बने होते हैं। अभिनय करने वाले लोग आधे अंग में केवल कच्छा पहन का बाकी शरीर में सफ़ेद मिट्टी पोत लेते हैं। उसपे काली सफ़ेद धारियां यान बूटें डाल लेते हैं। इस प्रकार का गेटउप लेकर लोग अलग -अलग अभिनय करते हैं।
कुमौड़ में हिलजात्रा का प्रारम्भिक स्थल कोट से तथा बजेटी में बिरखमचौक से हिलजात्रा का प्रारम्भ करके लोग मुख्य उत्सव स्थल तक ढोल-नगाड़ों के साथ नृत्य करते हुए, घोड़ा, बैलों की जोड़ी, हिरन, अड़ियल बैल के मुखौटे पहने, हाथ में सफेद मिट्टी लेकर सभी दर्शकों के चेहरों पर उसे पोतती हुई दुतारी एवं हुड़किया बौल के गायकों की टोली प्रवेश करती है। इसमें पर्वतीय कृषकीय वेषभूषा में कृषिपरक कार्यों का मनोरंजनात्मक प्रदर्शन एवं नृत्य व् अभिनय का कार्यक्रम प्रस्तुत किया जाता है।
इसके प्रमुख क्षेत्र कुमौड़ गांव के संदर्भ में देखा जाता है कि वहां पर यह वहां के मैदान में स्थित लगभग सौ साल पुराने विशालकाय झूले के नजदीक उत्सव का आयोजन किया जाता है। लखिया भूत को लोग सती के दाह से सम्बद्ध भगवान् शिव के गण वीरभद्र का अवतार मानकर उसे अपने श्रद्धासुमन अर्पित करने के लिए हाथों में फूल, अक्षत लेकर खड़े रहते हैं।
अपराह्न में सर्वप्रथम मुखिया सहित गांव के सयाने लोग देवताओं के चिह्नों से अंकित लाल झंडो एवं स्थानीय वाद्यों के साथ वहां पर कोट (किले) से उत्सव स्थल तक आते हैं। इसके उपरान्त अनेक स्वांग भरने वाले युवक बैल, ग्वाले, धोबी, नाई, व्यापारी, मछुआरा आदि के वेशों में प्रवेश करके अपनी ऊटपटांग शारीरिक एवं वाचिक क्रिया क्लापों से वहां उपस्थित दर्शकों को हंसाकर उनका मनोरंजन करने की कोशिश करते रहते हैं।
यह कार्यक्रम काफी देर तक चलता रहता है। इसमें पुतरिया घुटनों तक अपनी धोती को समेटे पुतेर (धान के पौधों) की रोपाई करने वाली महिलाओं को देते रहने का अभिनय करती है। वे मिट्टी के ढेले फोड़ती हुई बीच-बीच में खेत के किनारे जाकर बच्चों को स्तनपान कराकर उन्हें सुलाने का भी अभिनय करती रहती हैं।
हलिया बैल को छोड़कर हुक्का पीता है। महिलाएँ कलेवा लेकर आती हैं और काम करने वालों को देती हैं। बीच में हरिण चित्तल का पात्र भी उछल-कूद करता हुआ दर्शकों का मनोरंजन करता रहता है। अन्त में किचिंत दूरी से नगाड़ों की ध्वनि सुनाई देने लगती है जो कि इस बात की संकेतक होती है कि अब इस उत्सव का प्रमुख पात्र लखियाभूत आ रहा है और उसके लिए मैदान खाली कर दिया जाय। उस समय रोपा लगाने वाली महिला पात्रों के अतिरिक्त अन्य सभी पात्र मैदान से बाहर हो जाते हैं। तब वहां पर नगाड़ों की ध्वनि के साथ प्रवेश करता है लखिया भूत।
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कौन है लखिया भूत, या लखियादेव (lakhiya bhoot ki kahani) –
लखिया भूत उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के उत्सव हिलजात्रा उत्सव का प्रमुख पात्र है। इसे भगवान शिव का अंश या उनका प्रमुख गण माना जाता है। कई लोग इसे भगवान् वीरभद्र का अवतार भी मानते हैं। इसका प्रवेश उत्सव के अंतिम भाग में होता है। हिलजात्रा उत्सव स्थल पर इसके आने का संकेत नगाड़ो की ध्वनि से दिया जाता है। इसका रूप बड़ा भयानक होता है इसलिए इसे लखिया भूत कहते हैं।
यह काले वस्त्रों में लम्बे काले बालों के साथ हाथों में काले -काले चवर लिए और गले में मोटे रुद्राक्ष की माला धारण किये उत्सव स्थल में प्रवेश करता है। दो वीर उसके कमर में बांधे रस्सों से उसे थामे रहते हैं। उस समय सभी दर्शक गण पुष्प अर्पित करके सुख समृद्धि की कामना करते हैं। लखिया भूत सभी श्रद्धालुओं को आशीर्वाद देता हुवा उत्सव स्थल में धूमते हुए बहार निकल जाता है। और इसी के साथ इस उत्सव का समापन हो जाता है।
हिलजात्रा उत्सव का इतिहास (Hill jatra was introduced) –
हिलजात्रा किसके द्वारा प्रारंभ की गई थी ? इसके इतिहास पर आधारित जनश्रुति इस प्रकार है। सोर घाटी पिथौरागढ़ में प्रचलित इस उत्सव के इतिहास के विषय में माना जाता है कि इस उत्सव का आधार नेपाल में प्रचलित यात्राएं महेन्द्रनाथ रथजात्रा, गायजात्रा, इन्द्रजात्रा, पंचाली भैरवजात्रा, गुजेश्वरी जात्रा, चकन देवजात्रा, घोड़ाजात्रा, बालजूजात्रा आदि हैं।
लोकश्रुति के अनुसार पिथौरागढ़ में इस हिलजात्रा उत्सव का प्रारम्भ राजा पिथौराशाही के समय में नेपाल की इन्द्रजात्रा (पुरातन इन्द्रध्वज यात्रा के अनुरूप) पर वहां से आनेवाले चार महर भाइयों के द्वारा कुमौड़ ग्राम में किया गया था। इसे प्रारम्भ करने वाले महर भाइयों के सम्बन्ध में कहा जाता है कि वे बड़े वीर थे। जब वे यहां आये थे तो उस समय यहां पर एक नरभक्षी शेर का आतंक छाया हुआ था। राजा की ओर से इस हिंसक शेर को मारने वाले को मुंहमांगा पुरस्कार दिये जाने की घोषणा की गई थी। चारों महर भाइयों ने इसे मार डाला।
इस पर अपनी घोषणा के अनुसार राजा ने इन्हें चण्डाक में बुलाकर उनका भव्य सम्मान किया तथा उन्हें मनचाहा पुरस्कार मांगने को कहा। कहा जाता है इनमें से सबसे बड़े भाई कुंवर सिंह कुरमौर ने चण्डाक की चोटी पर खड़ा होकर चारों ओर देखकर कहा कि यहां से जितनी भूमि मुझे दिखाई दे रही है वह मुझे दे दी जाय।
अपने वचनानुसार राजा ने वह सारा क्षेत्र उसे दे दिया। माना जाता है कि कुमौड़ का यह नाम महर कुरमौर के नाम पर ही पड़ा है। अन्य भाईयों में से चहज सिंह ने चेंसर का, जाखन सिंह ने जाखनी का तथा बिणसिंह ने बिण का क्षेत्र मांग लिया था। अतः इन क्षेत्रों के नामों का आधार भी यही महर भाइयों के नाम माने जाते हैं।
हिल जात्रा के संदर्भ में एक अन्य जनश्रुति भी प्रचलित है। जिसके अनुसार एक बार जब ये महर भाई इन्द्रजात्रा के उत्सव के अवसर पर नेपाल गये हुए थे तो वहां पर उस समय बलि के लिए नियत भैंसे के सींग पीछे गर्दन तक लम्बे होने के कारण उसकी गर्दन को खुखरी के एक आघात से काटना असम्भव होने से सभी लोग असमंजस में थे। राजा स्वयं बड़े पशोपेश में था क्योंकि राजा के द्वारा ही इसे काटा जाना था। राजा को इस असमंजस की स्थिति में देखकर महर बन्धुओं ने कहा यदि उन्हें अनुमति दी जाय तो वे इसे एक झटके में ही काट सकते हैं।
इस पर राजा की अनुमति मिलने पर महर भाई ने भैंसे को सामने एक ऊंचे स्थान पर चढ़कर उसे हरी घास का एक मुट्ठा दिखाया। उसे खाने के लिए उसने ज्यों ही गर्दन ऊपर उठाई त्यों ही एक भाई ने नीचे से पूरे जोर के साथ खुखरी से आघात करके उसकी गर्दन को उड़ा दिया।
खुश होकर जब राजा ने उनसे पुरस्कार मांगने को कहा तो उन्होंने कहा कि हमें अपने क्षेत्र में हिलजात्रा उत्सव को मनाने की स्वीकृति के साथ इसमें प्रयुक्त किये जाने वाले मुखौटे भी प्रदान किये जांय। राजा ने खुश होकर उनके अनुरोध को स्वीकार कर लिया। वे उन मुखौटों को लेकर कुमौड़ में आये और वहां पर आठूं पर्व के अगले दिन उन्होंने इस उत्सव को मनाया। तब से यहां तथा आस-पास के क्षेत्रों में इसे इस अवसर पर मनाया जाने लगा।
मंडलकोट, 15 अगस्त 2023: भारतीय शिक्षा प्रणाली में योगदान करने वाले रोहित फाउंडेशन ने राजकीय इंटर कॉलेज मंडलकोट में विभिन्न विषयों में 90% से अधिक अंक प्राप्त करने वाले 15 विद्यार्थियों को सम्मानित करने का एक अद्वितीय कदम उठाया है। इस महत्वपूर्ण कार्यक्रम का आयोजन 15 अगस्त, यानी स्वतंत्रता दिवस के मौके पर राजकीय इंटर कॉलेज मंडलकोट में किया गया।
इस समारोह में जया नेगी, पंकज रावत, पायल नेगी, किरन आर्या, कलपना करायत, भावना नेगी, वैशाली बिष्ट, संगीता बिष्ट, राधा नेगी, रचना करायत, दिक्षा नेगी, गायत्री पांडे, सपना करायत, जितेंद्र सिंह और पिंकी करायत को रोहित फाउंडेशन द्वारा कंप्यूटर प्रदान किया गया।
रोहित फाउंडेशन पिछले तीन सालों से अल्मोड़ा जिले के एक छोटे से गांव, मण्डलकोट, और उसके आसपास के गांवों में शिक्षा, स्वास्थ्य जागरूकता, और आधुनिक कृषि के क्षेत्र में सक्रिय रहे हैं। यह स्थानीय समुदाय के उत्कृष्टता को प्रोत्साहित करता है और उनके प्रयासों को सलामी देता है।
रोहित फाउंडेशन के संस्थापक श्री पंकज नेगी, जिन्होंने स्वयं एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर होने के साथ ही पिछले कई वर्षों से पहाड़ी क्षेत्र में बच्चों की शिक्षा को महत्वपूर्ण बनाने का संकल्प लिया है, ने बताया कि उन्होंने पिछले वर्षों में 200 से अधिक विद्यार्थियों को कैरियर चुनने में मदद की है।
समारोह के इस मौके पर संस्थापक पंकज नेगी के साथ-साथ प्रधानाचार्य ललित अधिकारी, अभिभावक संघ के अध्यक्ष रणजीत बिष्ट, पंकज माहरा, संदीप मेहरा, दिनेश बिष्ट, पुष्कर सिंह नेगी, विरेन, पप्पू, रविंद्र, और अन्य शिक्षक और अभिवावक उपस्थित रहे। मंच का संचालन इस समारोह में दीप त्रिपाठी और वर्षा मेहरा द्वारा किया गया। प्रधानाचार्य ललित अधिकारी ने बताया कि रोहित फाउंडेशन द्वारा पिछले तीन सालों में विद्यार्थियों के करियर में सहायता करने के कई सराहनीय प्रयास किए गए हैं और विद्यालय प्रशासन हमेशा उनका स्वागत करेगा।
इस समारोह ने साबित किया कि रोहित फाउंडेशन के संघर्षपूर्ण प्रयास ने शिक्षा के क्षेत्र में सकारात्मक परिवर्तन की संभावनाओं को बढ़ावा दिया है और उनके सहयोगी संगठनों के साथ मिलकर विद्यार्थियों के उत्कृष्टता को प्रोत्साहित किया है।
प्राप्त जानकारी के अनुसार उत्तराखंड नैनीताल के प्रसिद्ध मन्दिर कैंची धाम में ड्रेस कोड लागू कर दिया गया है। इसके साथ-साथ कैंची धाम मन्दिर के अन्दर फोटो खीचनें पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया गया है। मन्दिर के बाहर और आस पास बोर्ड लगाकर श्रद्धालुओं से विनम्र अनुरोध किया गया है, कि श्री कैंची धाम मन्दिर की पवित्रता और मर्यादा का ध्यान रखते हुए, मन्दिर में मार्यादित वस्तों में प्रवेश करें।अमर्यादित और अशोभनीय वस्त्र पहन कर मन्दिर में प्रवेश न करें। मन्दिर के अन्दर पहुंचते ही मोबाईल silent कर दें और मन्दिर के अन्तर फोटोग्राफी और विडोयोग्राफी न करें।पकड़े जाने पर श्रद्धालू के खिलाफ़ कार्यवाही की जाएगी ।
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विश्व प्रसिद्ध है, बाबा नीम करोली का यह मन्दिर –
बाबा नीम करोली को समर्पित यह मन्दिर विश्व प्रसिद्ध है। यहां रोज श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। प्रतिवर्ष 15 जून को मन्दिर की स्थापना दिवस के अवसर पर विशाल भंडारे का आयोजन होता है। एप्पल कम्पनी के भाविक, फेसबुक के मालिक मार्क जुर्कवर्ग जैसी हस्तियों के से आमलोग तक बाबा के अनन्य भक्त है। कैंची धाम में ड्रेस कोड से पहले उत्तराखंड हरिद्वार के दलेश्वर मन्दिर और नीलकंठ मन्दिर में भी ड्रेस कोड लग चुका हैं ।
तीलू रौतेली गढ़वाल की एक वीरांगना कन्या थी, जो मात्र पंद्रह वर्ष की आयु में युद्ध में कूद पड़ी। और बाइस वर्ष की आयु तक सात युद्ध लड़ चुकी थी। सम्भवतः तीलू विश्व की सबसे कम उम्र की वीरांगना थी जिसने अपने छोटे से जीवन में सात युद्ध जीते। Teelu Rauteli को गढ़वाल की लक्ष्मीबाई भी कहते हैं। तीलू रौतेली का असली नाम तिलोत्तमा देवी था। तीलू रौतेली पौड़ी गढ़वाल के चौंदकोट के गुराड गावं की निवासी थी। इनका जन्म 8 अगस्त 1663 में हुवा था। इनके पिता का नाम भूप सिंह रावत और माता का नाम मैनावती देवी था। भूप सिंह रावत गढ़वाल के राजा मानकशाह के सरदार थे।
गढ़वाल के पूर्वी सीमांत गावों में ,कुमाउनी सीमांत उपत्यकाओं में बसे कैंतुरा (कत्यूरा) लूटपाट के इरादे से हमला करते रहते थे। एक बार जब कत्यूरी शाशक धामदेव ने खैरागढ़ पर हमला किया तो मानकशाह गढ़ की रक्षा का भार अपने सरदार भूपसिंह को सौंपकर खुद चांदपुर गढ़ी में आ गया। भूपसिंह ने आक्रमणकारी कत्यूरियों का डटकर मुकाबला किया। सराई खेत में कत्यूरियों तथा गढ़वाली सैनिकों के बीच घमासान युद्ध हुआ। भूपसिंह अपने दो बेटों, भगलू और पतवा के साथ वीरगति को प्राप्त हो गया। उस समय में गढ़वाल के पूर्वी सीमान्त के गांवों पर कुमाऊं के पश्चिमी क्षेत्रों के सशत्र कैंतुरा (कत्यूरा) वर्ग के लोग निरन्तर छापा मारकर लूटपाट करते रहते थे।
लूट-पाट करने वाले कैतुरों द्वारा उत्पन्न इसी अशान्त स्थिति में एक बार जब कांडा का वार्षिक लोकोत्सव होने वाला था तो तीलू ने अपनी मां से उसमें जाने की इच्छा व्यक्त की। मेले की बात सुनकर उसकी मां को कैतुरे आक्रमणकारियों के साथ मारे गये अपने पति व दो पुत्रों की याद आ गई और उसने अपनी पुत्री तीलू से, जो कि अभी केवल 15 साल की थी, कहा, बेटी आज यदि मेरे पुत्र जीवित होते तो एक न एक दिन वे इन कैतुरों से अपने पिता की मृत्यु का अवश्य बदला लेते।
मां के उन मर्माहत वचनों को सुनकर तीलू ने उसी समय कठोर निर्णय कर लिया कि वह अवश्य कैतुरों से इसका बदला लेगी और खैरागढ़ सहित अपने समीपवर्ती क्षेत्रों को इन आक्रमणकारियों से मुक्त करायेगी। इसलिए उसने अपने आस-पास के सभी गांवों में घोषणा करवा दी कि इस वर्ष कांडा का उत्सव नहीं, बल्कि आक्रमणकारी कैतुरों का विनाशोत्सव होगा उसके लिए सभी युवा योद्धाओं को इसमें सम्मिलित होना है। उसकी इस घोषणा पर क्षेत्र के सभी युवक और योद्धा इसके लिए तैयार हो गये।
नियत दिन पर उनका नेतृत्व करने के लिए वीरांगना तीलू योद्धाओं का बाना पहनकर व साथ में अस्त्र-शस्त्र लेकर अपनी घोड़ी बिंदुली पर सवार होकर आक्रमणकारी कैतुरों का प्रतिकार करने के लिए निकल पड़ी और उसके साथ चल पड़े उसके रणबांकुरे भी। उसके नेतृत्व में सर्वप्रथम उन्होंने खैरागढ़ के उस किले को उन आक्रमणकारियों से मुक्त कराया जो कि उस पर अपना अधिकार जमाये बैठे थे। इसके बाद उसने कालीखान पर अपना कब्जा करने के इरादे से कालीखान की ओर बढ़ते हुए कैतुरों का पीछा करके उन्हें वहां से भगाया।
इसके बाद वह लगातार अगले सात वर्षों तक अपने क्षेत्र को इन लुटेरों और आक्रमणकारियों से मुक्त कराने के लिए निरन्तर संघर्ष करती रही। इस कालावधि में उसने अपनी सैन्य टुकड़ियों का सफल नेतृत्व करते हुए अपने आसपास के क्षेत्रों-सौन, इड़ियाकोट, भौन, ज्यूंदालगढ़, सल्ट, चौखुटिया, कालिकाखान, वीरोखाल आदि को इन आक्रमणकारियों एवं लुटेरों के चंगुल से मुक्त कराकर वहां पर शान्ति स्थापित कर दी। इतने लम्बे समय तक संघर्षरत रहने तथा अपनी सीमा से शत्रुओं को खदेड़ने के उपरान्त बीरोखाल पहुंचने पर उसने कुछ दिन विश्राम करने के लिए अपना पड़ाव डाला और कुछ दिन वहां पर विश्राम करने के बाद अपने सैनिक दल के साथ कांडा के लिए प्रस्थान कर दिया।
इस क्रम में जब वह तल्ला कांडा में नयार के पास से गुजर रही थी तो उसके मन में आया कि वह वहां पर नयार में स्नान कर ले। उसने एक स्थान पर अपने प्रस्थान को रोककर सैनिकों को विश्राम का आदेश दिया और स्वयं किचिंत दूरी पर एकान्त पाकर नदी में स्थान करने लगी। इस प्रकार जब वह एकान्त में अकेले स्नान कर रही थी तो मौका पाकर उसके
पास ही एक झाड़ी में छिपे हुए एक कैंतुरा सैनिक, रामू रजवार, ने अपने हथियार से उस पर प्रहार कर दिया और उस वीरांगना के प्राण हर लिए। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के समान लड़ती-लड़ती वह मर्दानी वीरवाला बाईस साल की उम्र में अपना अदम्य पराक्रम दिखाकरगढ़वाल के इतिहास में अपना नाम अमर कर गयी।
सनातनी राखी :- रक्षाबंधन 2023 का त्यौहार आने वाला है। बाजार राखियों से सज चुके हैं। इनमें से कई राखियां विदेशी आती हैं। मसलन चीन का राखी बाजार पर बहुत बड़ा प्रभाव है। लेकिन बिगत कुछ वर्षों से चीन का राखी बाजार पर वर्चस्व कम हुवा है। इसका मुख्य कारण है स्वदेशी को बढ़ावा देना । जनता, सामाजिक संस्थाएं और सरकार अब स्वदेशी वस्तुओं को बढ़ावा दे रही है। और कई लोग अब घर मे स्वदेशी हस्तनिर्मित राखियां बना कर घर मे अच्छा रोजगार कमा रहे हैं। इसी प्रकार उत्तराखंड राज्य के विभिन्न लोग, सामाजिक संस्थाएं स्थानीय उत्पादों को बढ़ावा के साथ साथ अपनी लोक संस्कृति के प्रचार के उद्देश्य से उत्तराखंड की लोककला ऐपण से सजी स्थानीय राखियां बना रहे हैं।
उत्तराखंड की महिलाएं सनातन धर्म के धार्मिक प्रतीकों , तुलसी की लकड़ी, कलावा ,ॐ, श्री, स्वस्तिक से तथा इसमे उत्तराखंड के मांगलिक कार्यों में प्रयोग होने वाली लोककला ऐपण का प्रयोग करके हस्तनिर्मित स्वदेशी राखियां बना रहीं हैं। जिनका नाम इन्होंने “सनातनी राखी” रखा है।
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स्वदेशी सनातनी राखी :-
इन आकर्षक राखियों को उत्तराखंड के निवासी तो खरीद ही रहे अन्य संस्कृति से लोगों को भी ये आकर्षक लग रही हैं। इसी परंपरा में एक कदम आगे बढ़ते हुए उत्तराखंड की स्थानीय उत्पाद विक्रेता और ऐपण राखी विक्रेता मनोरमा मुक्ति ने रक्षाबंधन 2023 के लिए विशेष सनातनी राखी बनाई है। मनोरमा जी के अनुसार उन्होंने इन राखियों को उच्च गुणवत्ता वाले कलावा और तुलसी की लकड़ी से बनाया है। और उन्होंने इन राखियों को उत्तराखंड राज्य की लोक कला ऐपण कला से सजाया है। जो काफी आकर्षक लग रहे हैं। इन राखियों में हिन्दू धर्म के धार्मिक प्रतीक ॐ, स्वस्तिक, श्री से सजाया है। सनातनी राखी पूर्ण रूप से ecofrindly राखी हैं।
प्रधानमंत्री मोदी जी , भारतीय सेना और अन्य प्रतिष्ठित लोगों को भी भेजेंगी –
मनोरमा जी के अनुसार , देश के प्रधानमंत्री ,भारतीय सेना के जवानों और राज्य के मुख्यमंत्री और अन्य प्रतिष्ठित लोगों तथा अपने भाई बंधुओ के लिए ये एकोफ़्रिण्डली राखियां भेज रही हैं।
इसके अलावा तुलसी के लकड़ी और शुद्ध कलावा से बनी ये राखियां बिक्री के लिए भी उपलब्ध हैं। जैसा कि हमने बताया कि इन राखियों को उत्तराखंड की लोककला ऐपण से सजाया गया है। उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में इस कला का प्रयोग मांगलिक कार्यों के लिए किया जाता है।
यदि आप हस्तनिर्मित स्वदेशी सनातनी परम्परा को मजबूत करने वाली सनातनी राखी से अपना रक्षाबंधन 2023 मनाना चाहते हैं तो दिए गए लिंक और नंबर पर संपर्क कर सकते हैं । स्वदेशी हस्तनिर्मित और शुद्ध सनातनी राखियां ऑनलाइन मंगाने या अपने परिजनों को भिजवाने के लिए इस नंबर 9760 917746 पर व्हाट्सप्प संदेश भेंजे ! अथवा इस व्हाट्सप्प कैटलॉग पर सम्पर्क करें :- https://wa.me/c/919760917746
मनोरमा मुक्ति विभिन्न स्वयं सहायता समूहों से और उत्तराखंड की महिलाओं के साथ मिलकर उत्तराखंड के स्थानीय उत्पादों, लोककला से सजे उत्पादों ऑनलाईन और ऑफ़लाइन स्टोरों के माध्यम से लोगो तक पहुँचातीं हैं। मनोरमा जी और इनके साथ अन्य महिलाएं स्वदेशी और स्थानीय सामान के माध्यम से स्वरोजगार करके समाज मे एक नई मिसाल पेश कर रही हैं। इनके ऑफ़लाइन स्टोर उत्तराखंड कई महत्वपूर्ण स्थानों में उपलब्ध हैं। और ऑनलाइन माध्यम से ये पूरे देश मे स्थानीय और हस्तनिर्मित समान की सप्लाई कर रहीं है।