उत्तराखंड के पहाड़ों में हर गांव, हर घाटी की अपनी लोककथाएं और देव कथाएं हैं। इन्हीं में से एक हैं एजेंडी बूबू। अपनी-अपनी बोली के हिसाब से कोई उन्हें एजेंटी बूबू कहता है तो कोई अजेंडी बूबू । सफेद कपड़े, सफेद पगड़ी, लंबी दाढ़ी और हाथ में अपने से भी लंबी लाठी लिए बूढ़े से दिखने वाले एजेंडी बूबू, रात के समय जंगलों में भटके लोगों को रास्ता दिखाते हैं। पहाड़ की लोकबोली में वे भटके हुए से कहते हैं – “बाटा बाट हिटो, बाट छाड़ि राखो। (रास्ते पर चलो, रास्ता मत छोड़ो।)
पश्चिमी रामगंगा और उसकी सहायक नदियों के किनारे बसे गांवों में आज भी एजेंडी बूबू को खूब पूजा जाता है। जब कोई बच्चा खो जाता है या कोई महिला जंगल में भटक जाती है, तो घर की औरतें उन्हें याद करती हैं। कहा जाता है, एजेंडी बूबू कभी किसी को डराते नहीं, न ही नुकसान पहुंचाते हैं। वे जंगलों के रक्षक माने जाते हैं।
उनके बारे में एक कथा प्रचलित है कि गढ़वाल और कुमाऊं की सीमा पर गैंड़ा जाति का एक एजेंट जंगलों में रहता था। एक बार जंगल में आग लगी और वह उसमें झुलसकर मर गया। तभी से उसकी आत्मा जंगलों में भटके लोगों को रास्ता दिखाने लगी। लोग मानते हैं ‘एजेंडी’ शब्द ‘एजेंट’ का ही अपभ्रंश है।
एक अन्य कथा कहती है कि एजेंटी बूबू जौनसार से आए वीर बेताल थे। कहा जाता है कि कुमाऊं का एक व्यक्ति किसी काम से जौनसार गया, वहां उसका प्रेम प्रसंग एक शादीशुदा महिला से हो गया और वह उसे भगाकर कुमाऊं ले आया। जब उसके पति को यह बात पता चली तो उसने जौनसारी तांत्रिक से आटे के गोले से वीर बेताल प्रकट कराकर बदला लेने के लिए भेजा।
जैसे ही बेताल ने कुमाऊं पहुंचकर हमला किया, उस व्यक्ति ने अपने इष्ट श्री 10008 शिखर मूल नारायण देवता को याद किया। श्री मूल नारायण देवता को कुमाऊं के शक्तिशाली देवो में माना जाता है। उन दोनों का तीन दिन तक युद्ध हुआ। अंत में मूल नारायण देवता ने वीर बेताल को पराजित कर उसे नियंत्रित किया और उससे लोगों की मदद करने का वचन लेकर देव रूप में स्थापित कर दिया।
आज भी गांव-गांव में जब रात के अंधेरे में कोई रास्ता भूलता है, तो लोग कहते हैं –
“डरो मत, एजेंडी बूबू हैं ना… बाटा बाट हिटो।”
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