उत्तराखंड की देवभूमि, अपने प्रत्येक कण में आस्था और लोक परंपरा को समेटे हुए है। इन्हीं लोकदेवताओं में एक अत्यंत पूजनीय और रहस्यमय देवता हैं — नगेला देवता। नागराज के दूसरे स्वरूप माने जाने वाले नगेला देवता को “नागेन्द्र” भी कहा जाता है। यह देवता न केवल गढ़वाल बल्कि कुमाऊं में भी अपने शक्ति और दिव्यता के लिए प्रसिद्ध हैं।
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नगेला देवता की उत्पत्ति और प्राचीन मान्यता
मान्यता है कि जब गढ़वाल की जनसंख्या मात्र सवा लाख थी, तब से नगेला देवता की उपासना की परंपरा चली आ रही है। यह देवता गद्दीधारी हैं और उत्तराखंड में देवताओं के पीठाधिपति कहे जाते हैं। कुछ किंवदंतियों के अनुसार इनकी उत्पत्ति कुमाऊं में मानी जाती है, जहाँ इनका लिंग स्फटिक मणि या खैर की लकड़ी से निर्मित बताया गया है।
नगेला देवता कुमाऊं से नेगी वंश के क्षत्रियों के साथ गढ़वाल आए। कोटिगांव के नेगी परिवार के साथ इनका गहरा संबंध बताया जाता है। बाद में यह देवता टिहरी जनपद के लस्या पट्टी के वजिरा गांव में प्रकट हुए।
कुण्ड का सौड़ और अजगर का रहस्य
वजिरा गांव के ऊपर स्थित एक समतल स्थान जिसे “कुण्ड का सौड़” कहा जाता है, वहीं पर नगेला देवता ने अपना स्थायी वास बनाया। मान्यता है कि इस स्थान पर एक कुआं है, जिसमें से पानी निकालने पर कभी-कभी अजगर प्रकट होता है — यह स्वयं देवता का प्रतीक माना जाता है।
देवता की यात्रा और गद्दियों का विस्तार :
नगेला देवता वजिरा से निकलकर टिहरी गढ़वाल के कई क्षेत्रों — जैसे लोस्तु बडियारगढ़, कड़कोट, वासर और थाती कठूड़ — में पहुंचे। बडियारगढ़ पट्टी के खोला गांव में भी इनकी गद्दी स्थापित है, जहाँ कमटनड़ ब्राह्मण इनके परम भक्त और पुजारी माने जाते हैं।
इस देवता के साथ कई वीर, योगिनियाँ और शक्ति रूप भी जुड़े हुए हैं। यह देवता वैष्णव भाव से पूजित होते हैं। इनकी पूजा में सात्विक प्रसाद जैसे पीली मिठाई, अक्षत, गुड़ और कोदे का उपयोग किया जाता है।
राणा और ब्राह्मण वंश से विशेष संबंध
नगेला देवता विशेष रूप से राणा जाति के क्षत्रियों पर अवतरित होते हैं। वजिरा, चक्र, गवांणा, खोला आदि गांवों में इनका ‘न्यूता’ (देववाणी) बोलने का विशेष महत्व है। कपुरवान ब्राह्मणों और उनियाल ब्राह्मणों के वंशज आज भी इस देवता की पूजा करते हैं।
मंदिर में नागदंश से मुक्ति का अद्भुत चमत्कार –
एक समय था जब यदि किसी को सांप काट लेता था, तो उसे नगेला मंदिर में दीपक जलाकर रात भर छोड़ दिया जाता था। प्रातः होते ही व्यक्ति स्वस्थ होकर स्वयं घर लौट आता — यह आज भी लोक में प्रचलित चमत्कारिक मान्यता है।
लास्या में 12 वर्षीय यज्ञ और लोक सांस्कृतिक महत्व
प्रत्येक 12 वर्ष में लस्या के 12 गांवों के सहयोग से देवता का विशेष यज्ञ होता है, जहाँ नगेला देवता की डोली निकाली जाती है और जागर गीत गाए जाते हैं। जागरों में इनकी वीरता और वंश का उल्लेख मिलता है — जैसे “रक्तकोटि विन्दी नाग” और “राणों का जागू वंश”।
आज भी जीवित है लोक आस्था –
मुसमोला गांव के दाणोंधार पर्वत और थूले गांव में यह ‘अदम’ नाम से पूजित होते हैं। यहाँ की एक पौराणिक कथा है कि पहले सांपों की संख्या इतनी अधिक थी कि वे बच्चों के साथ बिस्तर पर भी सोते थे। वहां के लोग सांपों से नहीं डरते थे — यह देवता की ही कृपा मानी जाती है।
सांस्कृतिक प्रतीक और शक्तिशाली चेतना –
नगेला देवता को घण्टाकर्ण, हीत विनसर और क्षेत्रपाल जैसे देवताओं का मामा माना जाता है। जब लस्या के लोग कुमाऊं नमक लेने जाते थे, तो देवता के लिए मक्खन, गुग्गुल, कोदा-फाफरा और चावल का भोग लगाते थे। एक बार अलकनंदा नदी पार करते समय इस देवता ने गंगा का जल रोककर लोगों को पार करवाया — यह उनकी दिव्य शक्ति का प्रतीक है।
निष्कर्ष –
नगेला देवता केवल एक नागस्वरूप लोकदेवता नहीं, बल्कि उत्तराखंड की लोक संस्कृति, श्रद्धा और सामाजिक एकता के प्रतीक हैं। इनकी 72 गद्दियाँ गढ़वाल क्षेत्र में स्थापित हैं — यही कारण है कि इन्हें पीठाधिपति देवता कहा जाता है।
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