Home मंदिर लाटू देवता मंदिर | लाटू देवता की रहस्यमयी कहानी और मंदिर का...

लाटू देवता मंदिर | लाटू देवता की रहस्यमयी कहानी और मंदिर का रहस्य

0
लाटू देवता

उत्तराखंड के चमोली जिले के बाण गाँव में स्थित है एक रहस्यमयी मंदिर — लाटू देवता मंदिर, जहाँ स्वयं नागराज अपनी मणि के साथ विराजमान माने जाते हैं। इस मंदिर की सबसे खास बात यह है कि यहां साल में केवल एक दिन कपाट खुलते हैं और उस दिन भी पुजारी आंख, मुंह और नाक पर पट्टी बांधकर 80 फीट दूर से पूजा करते हैं।


लाटू देवता कौन हैं ?

लोककथाओं के अनुसार लाटू देवता माँ नंदा देवी के धर्म भाई माने जाते हैं। उन्हें भगवान भोलेनाथ के प्रमुख गणों में से एक माना गया है। वे सेनापति भी थे और उनके दो सहयोगी — छो सिंह और बमो सिंह — बताए जाते हैं।

उत्तराखंड की प्रसिद्ध नंदा राजजात यात्रा के दौरान, लाटू देवता की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। यह यात्रा माँ नंदा को उनके ससुराल, हिमालय के कैलाश क्षेत्र तक पहुंचाने की प्रतीकात्मक परंपरा है, जिसमें लाटू देवता मार्गदर्शक बनते हैं।


मंदिर में आंखों पर पट्टी बांधकर पूजा क्यों की जाती है?

ऐसी मान्यता है कि मंदिर के गर्भगृह में नागराज स्वयं अपनी मणि के साथ विराजमान हैं। उनकी मणि की तेज़ रोशनी और नाग के विष से सामान्य मानव की आंखों और शरीर को नुकसान हो सकता है। इसलिए पुजारी आंख, मुंह और नाक पर पट्टी बांधकर 80 फीट दूर से पूजा करते हैं।


लाटू देवता की कथा | लोककथाएं

1. माँ नंदा की भेंट लाटू से:

माना जाता है कि माँ नंदा ने जब यह इच्छा व्यक्त की कि उनका भी एक भाई होता, तब भगवान भोलेनाथ ने उन्हें कन्नौज के राजकुमार लाटू से मिलवाया। माँ नंदा ने लाटू को धर्म भाई बनाया और उन्हें अपने मायके रिसासू ले आईं।

2. शराब की गलती और मृत्यु:

नंदा देवी की डोली जब बाण गाँव पहुंची, तो लाटू को प्यास लगी। वे एक वृद्धा की कुटिया में पानी मांगने गए, जहाँ दो मटके रखे थे — एक में पानी और दूसरे में शराब। गलती से शराब पी लेने पर लाटू बेहोश हो गए और गिरकर उनकी जीभ कट गई, जिससे वे गूंगे हो गए और अंततः उनका देहांत हो गया।

माँ नंदा ने दुखी होकर उन्हें स्थानीय देवता के रूप में पूजने का आदेश दिया।


मंदिर की उत्पत्ति और वास्तुकला

जिस स्थान पर लाटू देवता का निधन हुआ, वहाँ स्थानीय बिष्ट जाति के लोगों ने एक लिंग की स्थापना की। कुछ समय बाद एक गाय वहां रोज़ दूध चढ़ाने लगी। एक दिन उस लिंग को खंडित कर दिया गया, लेकिन किसी व्यक्ति को स्वप्न में यह लिंग फिर से स्थापित करने का संदेश मिला। उन्होंने बाण गाँव में पुनः स्थापना कर मंदिर का निर्माण करवाया।

  • समुद्र तल से ऊँचाई: 8500 फीट
  • मंदिर का क्षेत्रफल: 150 मीटर
  • मुख्य पेड़: बरगद का पेड़ (5 मीटर व्यास)
  • वातावरण: सुरई के पेड़ों से घिरा

लाटू देवता और नंदा राज जात यात्रा

नंदा राजजात यात्रा एशिया की सबसे लंबी पैदल यात्रा है, जो हर 12 वर्षों में होती है। इस यात्रा का 12वाँ पड़ाव लाटू देवता मंदिर होता है। यहाँ से आगे लाटू देवता की छतोली यात्रा का मार्गदर्शन करती है।

यह प्रतीकात्मक है कि माँ नंदा अपने मायके से ससुराल जाने से पहले अपने भाई लाटू से भेंट करती हैं और आशीर्वाद लेकर यात्रा आगे बढ़ती है।


मंदिर में साल में एक बार क्यों खुलते हैं कपाट?

लाटू देवता मंदिर के कपाट केवल एक दिन — बैसाख पूर्णिमा को खुलते हैं। इस दिन विष्णु सहस्त्रनाम, चंडी पाठ और अन्य धार्मिक अनुष्ठान किए जाते हैं। मंदिर के गर्भगृह में किसी को प्रवेश नहीं दिया जाता।

इस दिन विशेष बात यह है कि पुजारी आंखों, मुंह और नाक पर पट्टी बांधकर ही पूजा करते हैं। यह परंपरा सदियों से चली आ रही है और आज भी वैसे ही निभाई जाती है।


अन्य किवदंती: स्वयं जलते हैं दीपक

स्थानीय मान्यता के अनुसार, मंदिर के भीतर यदि एक दीपक जलाया जाए तो सैकड़ों दीपक अपने आप जल उठते हैं, जिनकी रोशनी आम मनुष्यों की आंखें सहन नहीं कर सकतीं। इसलिए पुजारी आंखों पर पट्टी बांधकर ही अंदर प्रवेश करते हैं।


निष्कर्ष:

लाटू देवता मंदिर केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक नहीं, बल्कि उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर भी है। नागराज की उपस्थिति, आंखों पर पट्टी बांधकर की जाने वाली पूजा और बहन-भाई के प्रेम की यह कथा, देवभूमि की दिव्यता को दर्शाती है।

नोट: यह लेख स्थानीय लोककथाओं, जनश्रुतियों और पत्र-पत्रिकाओं के आधार पर तैयार किया गया है। वास्तविकता की पुष्टि हेतु स्वतंत्र शोध आवश्यक है।

इसे भी पढ़े :-

माँ मठयाणा देवी के बारे में पढ़ें

Exit mobile version