Friday, July 26, 2024
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कुमाउनी संस्कृति की सहयोग की भावना को नुकसान पहुचा रहा शहरीकरण

दोस्तो हमारी कुमाउनी संस्कृति, पहाड़ी संस्कृति और पहाड़ी परम्पराओ का मूल आधार आपसी एकता और सहयोग की भावना है। इसी भावना से निहित होकर हम अपनी सांस्कृतिक परम्पराओ का निर्वहन करते हैं। विगत समय मे हमारी कुमाउनी संस्कृति, पहाड़ी संकृति में एकता आपसी सहयोग और मिलजुल कर रहने के व्यवहार में कमी आ रही है। जिसका मूल कारण, शहरी समाज के रहन सहन को अपनाना और उससे भी बड़ा कारण पलायन है।

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दगड़ियों कुमाउनी या पहाड़ी संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता यह है, कि हम पहाड़ी लोगों के अंदर मिलजुल कर रहने औऱ मिलजुल कर काम करने तथा मिल जुलकर कष्टों से निपटने की भावना रहती थी। जो कि गांव में रहने वालों में अभी भी है, लेकिन जो भाई शहरों में रहने लगे हैं, वो इस भावना से दूर हो रहे हैं। गावों में कोई भी काम हो, जैसे शादी, नामकरण, या अन्य उत्सव लोग बढ़चढ़ कर मदद के लिए आगे आते हैं। क्योंकि उनको लगता है, कि आज हम इनके काम आए तो कल ये  हमारे काम आएंगे। जैसे युवा लोग गाव के समारोह में भारी काम करते और बूढ़े बुजुर्ग युवाओं को उचित दिशा निर्देश देते हुए, सब्जी छिलने, काटने का काम करते हैं। गावँ की महिलाओं का कार्य होता है, समारोह में रोटियां, पूड़ी बनाना और बर्तन साफ करना । फिर सब पंक्तिबद्ध होकर गढ़ भोज परम्परा में भोजन करते हैं। गावँ में किसी का स्वास्थ्य खराब हो जाय, तो गांव के कर्मठ युवा, डोली रूपी एम्बुलेंस के साथ तैयार रहते हैं। और इतना तेज चलते हैं कि मरीज को समय पर अस्पताल पहुचा कर ही दम लेते हैं।

इससे बड़े से बड़े काम चुटकियों में कम खर्चे में हो जाते हैं। और आपस मे प्यार एकता की भावना बनी रहती है। कुमाउनी संस्कृति या पहाड़ी संस्कृति की इस भावना पर चोट कर रही है, शहरों की एकाकी परवर्ती। अब लोग अपने समारोह में पैसे खर्च करके काम कराने के लिए खुश हैं, लेकिन किसी से मदद न लेना चाहते न देना चाहते हैं। हालांकि ये भावना पूर्ण रूप से पहाड़ो में नही छाई है। लेकिन नगरों के नजदीक या गावों के कतिपय सम्पन्न लोगों के मन मे ये भावना जन्म ले चुकी है। जिससे गरीब आदमी को अपने समारोह कराने के लिए काफी मुश्किल भरा हो रहा है। और यह भावना इसी तरह लोगो के मन में अपना जाल बिछाते गई तो, आने वाले समय मे पहाड़ी लोगो के मन मे आपसी एकता और मदद की भावना खत्म हो जाएगी। और अगर ये भावना खत्म हो गई तो कुमाउनी संस्कृति, पहाड़ी संस्कृति का ह्रास होगा और कोई भी दूसरी संस्कृति आसानी से हावी हो जाएगी।

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दगड़ियों यहां लेखक का उद्देश्य आलोचना करना नही है। लेकिन लेखक को हाल फिलहाल में जो महसूस किया वो अपनी लेखनी में उतारा है। मित्रों आपको लेख अच्छा लगे तो,शेयर बटनों पर क्लिक करके शेयर अवश्य करें।

इसे भी पढ़े – पहले पहाड़ो में रात को ट्वॉल चलते थे , अब पता नहीं कहाँ विलुप्त हो गए।

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Bikram Singh Bhandari
Bikram Singh Bhandarihttps://devbhoomidarshan.in/
बिक्रम सिंह भंडारी देवभूमि दर्शन के संस्थापक और लेखक हैं। बिक्रम सिंह भंडारी उत्तराखंड के निवासी है । इनको उत्तराखंड की कला संस्कृति, भाषा,पर्यटन स्थल ,मंदिरों और लोककथाओं एवं स्वरोजगार के बारे में लिखना पसंद है।
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