गढ़वाल राइफल्स का एक ऐसा जनरल जिसने ना कभी युद्ध किया, ना ही कभी बंदूक तक उठाई , और वह सेना का जनरल रहा । और सबसे चौकाने वाली बात यह थी कि ,वह जनरल कोई इंसान नही अपितु एक बकरा था। जिसका नाम था जनरल बकरा बैजू।
एक बकरा वो भी एक महान सैन्य राइफल का सम्मानित जनरल सुनने में बड़ा अजीब लगता है। मगर यह सत्य है। अगर आप इस कहानी को इतिहास में ढूढ़ना चाहें तो इतिहासकार डॉ रणवीर सिंह चौहान की प्रसिद्ध किताब लैंड्सडॉन सभ्यता और संस्कृति और महान साहित्यकार योगेश पांथरी की पुस्तक कलौडांडा से लैंड्सडॉन में मिल जाएगा।
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कैसे गढ़वाल राइफल्स ने एक साधारण बकरे को बनाया जनरल बकरा –
यह कहानी 1919 के तीसरे एंग्लो अफगान लड़ाई की है। अफगानियों ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया था। उस विद्रोह का शमन करने के लिए अंग्रेजों ने भारत की सेना भेजी , जिसमे एक टुकड़ी गढ़वाल राइफल्स की भी शामिल हुई। लेकिन चित्राल सीमा में जा कर गढ़वाल राइफल्स की सेना टुकड़ी अपना रास्ता भटक गई। सैनिकों के पास जब तक राशन था, तब तक खाना चलता रहा। लेकिन जब टुकड़ी का राशन खत्म हो गया तो वो भूख प्यास से तड़पने लगे।
जनरल बकरा बैजू –
रास्ता भटक जाने के कारण, भूख प्यास से गढ़वाल राइफल्स के जवान , अफगानिस्तान के जंगल बीहड़ में भटकने लगे थे। अफगानिस्तान के जंगल मे भटकते हुए एक झाड़ी के पास अचानक हलचल हुई , तो सभी जवान अलर्ट हो गए। और सभी ने अपनी बंदूक तैयार कर ली। तभी उन झाड़ियों से विशाल जंगली बकरा निकला । हष्ट पुष्ट बकरे को देख कर जवानों ने इसे मार खाने का मन बना लिया। वे बकरे को मारने ही वाले थे कि बकरा वापस झाड़ियों की तरफ भागने लगा। और भागते हुए बकरा एक विशाल खेत मे पहुँच गया।
भूखे प्यासे सैनिकों को खाना दिलवाया –
वहाँ बकरा कुछ रुक कर ,अपने पैरों से मिट्टी हटाने लगा। बकरे की हरकत देख सैनिक आश्चर्य चकित थे। बकरा लगातार आपने पैरों से मिट्टी खोद रहा था। थोडी देर और मिट्टी हटाने के बाद वहां पर खेत मे दबे आलू नजर आने लगे थे। यह देख कर सैनिक खुश हो गए थे।सैनिको ने और आस पास खोद कर देखा तो,वह पूरा खेत आलू का था।
अब तो सैनिको को जैसे मन मांगी मुराद मिल गई थी।वो लोग कई दिन से भूखे थे,और उन्हें बहुत सारे आलू मिल गए थे, वो भी एक बकरे की वजह से।अगर वो बकरे को मार कर खा जाते तो,बकरा पूरी टुकड़ी के लिए पर्याप्त नही होता। और आधे सौनिक भर पेट नही खा सकते थे।
और उन्हें उस बकरे के कारण इतने आलू मिल गए थे कि ,उनकी पूरी टुकड़ी कई दिन तक भोजन कर सकती थी। सैनिको ने आलू भूनकर अपना भोजन बनाया ,और बाकी आलू अपने साथ ले गए।
और इस संकट के समय फरिश्ता बनकर आये बकरे ने उनका आगे भी साथ निभाया। बकरे ने सैनिकों को आगे का मार्ग दिखाया। गढ़वाल राइफल्स की टुकड़ी निर्धारित स्थान पर पहुच कर,युद्ध मे विजय हुई ।
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गढ़वाल राइफल ने भी अहसान चुकाया –
जब गढ़वाल राइफल्स की टुकड़ी वापस लैंड्सडॉन आईं तो , उस बकरे का अहसान चुकाने के लिए, उस बकरे को भी अपने साथ लैंड्सडॉन गढ़वाल ले आई। गढ़वाल पहुचते ही विजयी सैनिको के साथ बकरे का भी स्वागत सत्कार हुआ। बकरे को सेना में जनरल की मानक उपाधी देकर सम्मानित किया गया। सैनिकों ने जनरल बकरा को बैजू नाम दिया।
पूरे जनरल वाले ठाठ थे , जनरल बकरा बैजू साहब के –
जनरल बकरा बैजू को एक अलग बैरक दी गई, वहाँ उसकी सुविधा का का सारा सामान दिया गया। बैजू को पूरे लैंड्सडॉन में कही भी आने जाने की पूरी आजादी थी। उसके लिए कोई रोक टोक नही थी। अगर वह बाजार से कोई भी चीज खाता तो उसे कोई नही रोकता था। दुकानदार उसकी खाई हुई चीजो का बिल बनाकर गढ़वाल राइफल्स को देते थे। और सेना उसका बिल चुकाती थी।जनरल साहब बेझिझक लैंड्सडॉन में घूमते थे, कही पर नई रंगरूट मिलती तो ,उसको सलाम करती ,और करे भी ,
क्यों ना ,आखिर वो जनरल साहब थे। धीरे धीरे जनरल साहब बूढ़े हो गए ,और एक दिन भगवान को प्यारे हो गए। सेना ने पूरे ससम्मान उनका अंतिम संस्कार किया,अपने अनोखे जनरल साहब को विदाई दी।
जनरल बकरा बैजू इतिहास का पहला बकरा था,जिसे इतना सम्मान और अच्छी जिंदगी मिली। मगर इसका हकदार भी था वो। उसने सिद्ध किया था, जानवरों के अंदर दिल और परोपकार की भावना होती है।
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