“सोशल मीडिया पर उत्तराखंड वासियों को अपने पहाड़ से जोड़ने की अनोखी कोशिश है , कंचन जदली का लाटी आर्ट”
“होगा टाटा नामक देश का नमक, पहाड़ियों का नमक तो पिसयू लूण है ” इस गुदगुदाती पंचलाइन के साथ एक प्यारी सी पहाड़न कार्टून चरित्र को नमक पिसते हुए दिखाया गया है। और इस प्यारे से संदेश को देख कर गर्व और प्रेम के मिश्रित भाव एक साथ हिलोरे मारते हैं। और अपनी संस्कृति के लिए मन मे प्रेम उमडता है।
इसी प्रकार अपने पहाड़ी कार्टून चित्रों और गुदगुदाती पंचलाइन से पहाड़ी को पहाड़ से जोड़ने की कोशिश कर रही है,उत्तराखंड की कंचन जदली।
कंचन जदली उत्तराखंड के पौड़ी जिले के लैंड्सडॉन की रहने वाली है। कंचन की आरम्भिक शिक्षा कोटद्वार में हुई है। कंचन को बचपन से ही कला का शौक था। वह बचपन से ही कलाकार बनाना चाहती थी। 11 वी और 12 वी कला विषय से करने के बाद , कंचन जदली ने “फ़ाईन आर्ट्स ” विषय मे, चंडीगढ़ के “गवर्मेंट कालेज ऑफ आर्ट्स ” से स्नातक और परस्नातक की पढ़ाई पूरी की।
अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद , दो तीन साल कंचन ने चंडीगढ़ और दिल्ली में आर्ट्स के क्षेत्र में कार्य शुरू किया। मेट्रो शहरों का अशांत जीवन शैली और अपनी देवभूमि उत्तराखंड के लिए कुछ करने की इच्छा दिल मे रख वो वापस अपने पहाड़ आ गई।
उत्तराखंड आकर कंचन जदली ने अपने डिजिटल आर्ट के माध्य्म से उत्तराखंड के प्रवासियों को पहाड़ से जोड़ने का काम शुरू कर दिया। इसके लिए उन्होंने बनाई पहाड़ी कार्टून कैरेक्टर लाटी। और अपने आर्ट को नाम दिया लाटी आर्ट हम सभी आजकल सोशल मीडिया पर देख ही रहे हैं, उत्तराखंड के जितने भी आजकल कार्टून मिम्स दिख रहे हैं, उनमे एक सिग्नेचर होता है लाटी आर्ट ।
उसी लाटी आर्ट को बनाती है, कंचन जदली।अपने प्रोजेक्ट का नाम लाटी आर्ट रखने के पीछे का कारण बताती है कि, लाटी का अर्थ पहाड़ में होता है एक प्यारी सीधी नादान लड़कीं। या एक मासूम लड़कीं। कंचन के अनुसार लाटी आर्ट के माध्य्म से हर एक पहाड़ी के मन मे अपने पहाड़ के लिए प्यार जगाना तथा उनको अपनी बोली भाषा से जोड़े रखना चाहती है। कंचन को अपने पहाड़ से बहुत प्यार है। और उसे वो अपनी कला के माध्यम से दर्शा भी रही है।
कंचन जदली के लाटी आर्ट को उत्तराखंड पर्यटन विभाग (Uttarakhand Tourism ) ने अपने आधिकारिक फेसबुक पेज से (Official Facebook page of Uttarakhand Tourism ) से शेयर किया गया और सराहा गया हैं।
अभी तक कंचन जदली 100 से अधिक लाटी सीरीज के कार्टून बना चुकी है। अमूल के कार्टून और पंजाब के सांता बंता कार्टून की तर्ज पर कंचन ने ठेठ पहाड़ी चरित्र लाटी को तराशा है। उत्तराखंड के नाते घटनाक्रम तथा सांस्कृतिक कार्यक्रमों एवं त्योहारों के आधार पर अपने चरित्र लाटी को तराशती हैं।
अब वह छोटे अनिमिशन वीडियो क्लिप भी बनाती है। इसी सीरीज का मकरैणी ,की घुगते बाँटते हुई लाटी जबरदस्त हिट रही।
कंचन ने अभी तक डिजिटल आईपैड के इस्तेमाल से गौरा देवी, लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी, प्रीतम भरतवाण, पवनदीप राजन तथा अनेक फेमस हस्तियों के स्केच बना चुकी है। कंचन जदली अपने कार्टून कैरेक्टर को मग पर प्रिंट करके ऑफ़लाइन भी घर घर पहुचाने का काम कर रही है।
वास्तव में कंचन जदली अपनी अनूठी कला से उत्तराखंड की संस्कृति को एक सराहनीय योगदान दे रही है। उनके कार्टून मिम्स और पंचलाइन ,वर्तमान के आधुनिक शिक्षित युववर्ग को अपनी संस्कृति अपनी जड़ों से जोड़ने का काम कर रहे हैं।
बसंत ऋतु उत्तराखंड वासियों को बहुत सुहाता है,बसंत में उत्तराखंड के लोग उत्तराखंड की विश्व प्रसिद्ध कुमाउनी होली के रंग में डूब जाते हैं, बच्चे फूलदेई ,फुलारी त्यौहार मनाते हैं। वही महिलाएं भी आपने मायके से आने वाली भिटौली की राह तक रही होती हैं। इसलिये उत्तराखंड वासी चैत्र माह को रंगीला महीना भी कहते हैं।
क्योंकि फाल्गुन चैत्र में होली का आनंद रोमांच ,फूलदेई की खुशी और भिटौली का प्यार एक साथ आता है। और इसी खुशी में पुरूष एवं महिलायें इस माह में लोकनृत्य लोकगीत झोड़ा चाचेरी गा कर आनंद मानते हैं।
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भिटौली क्या है ?
यह उत्तराखंड की एक बहुत ही प्यारी परम्परा है। चैत्र मास में विवाहिता बहु के मायके वाले , विवाहिता लड़की का भाई विवाहिता के लिए , सुंदर उपहार ,या उपहार में कपड़े और पूड़ी या मिठाई लेकर आते हैं। जिसका विवाहिता बड़ी बेसब्री से इंतजार करती है।और वह आस पड़ोस में बांट कर इसकी खुशी सबके साथ मानती है। स्थानीय भाषा मे भेट का मतलब होता है मुलाकात करना ,और भिटौली का अर्थ होता है, भेंट करने के लिये लायी गयी सामग्री या उपहार।
भिटौली परम्परा कैसे शुरू हुई ?
पहले पहाड़ो में बहुत असुविधाएं थी। यातायात के साधन नही थे। संचार व्यवस्था नही थी, जहां थी भी तो वो ढंग से काम नही करती थी। गरीबी के कारण लोग रोज अच्छा खाना नही खा सकते थे। पूड़ी सब्जी आदि पकवान केवल त्योहारों को खाने को मिलते थे। और नए कपड़े पहनने को भी खास मौके पर ही पहने जाते थे। बहुएं अपने ससुराल में बहुत परेशान रहती थी। दिन भर जी तोड़ मेहनत उसके बाद खाने को मिलता था रूखा सूखा खाना। लड़की को अपने मायके की बहुत याद आती थी। उधर यही हाल लड़की के माता पिता और भाई का हुआ रहता था।
लड़की के मायके वाले अपनी बेटी की चिंता में परेशान रहते थे। लड़कीं के मायके वाले भी काम काज में बिजी होने के कारण , अपनी लड़कीं से मिलने का समय नहीं निकाल पाते थे, क्योंकि खेती बाड़ी का काम ही उस समय जीविकोपार्जन का साधन होता था।
पहाड़ो में पौष माह से चैत्र तक काम कम होता है। तब इसी बीच चैत्र माह में बसंत ऋतु परिवर्तन और मौसम में गर्माहट आनी शुरू हो जाती है। यह मौसम यात्रा के लिये सवर्था उचित रहता है। इसलिए लड़कीं के माता पिता अपनी बेटी को मिलने उसके मायके जाते थे। जिनके मा पिता ज्यादा यात्रा नही कर सकते थे, वे लड़कीं के भाई को भेजते थे।
लड़कीं के मायके वाले उसके लिए, पूड़ी पकवान बना के तथा नए कपड़े लाते थे। इससे लड़कीं काफी खुश होती थी।उसके जीवन मे नव्उम्मीदो का संचार होता था। और गांव की सभी विवाहिताएं मिल कर खुशी के गीत , झोड़ा चाचरी गाती,नाचती थी।
धीरे धीरे यह एक परम्परा बन गई, और वर्तमान मे यह उत्तराखंड की एक सांस्कृतिक परम्परा है। इस परम्परा पर कई लोक गीत एवं लोक कथाएँ प्रचलित हैं।
भिटोली की प्रचलित लोक कथा ” मि सीतो म्यर भे भूखों ” –
उत्तराखंड के एक गांव में दो भाई बहिन अपनी माता पिता के साथ रहते थे। दोनो भाई बहिन के बीच अगाध प्रेम था। समय के साथ दोनो बड़े हुए , तो बड़ी लड़की थी उसकी शादी हो गई। भाई को घर में दीदी के बिना अच्छा नहीं लगता था। उधर बहिन को भी हमेशा अपने मायके और अपने भाई की याद सताती थी।
मगर प्राचीन काल में गांव में संचार के कोई साधन न होने के कारण उनकी बातचीत नहीं हो पाती थी।उधर भाई बहिन की यादों में तड़पता रहता था। तब उसके माता पिता उसको भरोसा देते थे, कि चैत का महीना आ रहा ,तेरी बहिन भिटोली लेने आएगी तब मिल लेना अपनी बहिन से ।
चैत का महीना आ कर खत्म होने वाला हो गया ,लेकिन उसकी बहिन नही आई।एक दिन वो खुद ही पूरी पकवान बना कर अपनी बहिन को भिटोली देने के लिए उसके गांव की ओर चला गया ।
पहुंचते पहुंचते उसे दोपहर हो गई। जब बहिन के घर पहुंचा तो उसने देखा कि , सुबह से काम करके उसकी बहिन चैत की दोपहरी में , थोड़ा सुकून से सोई है। इसलिए उसने सोचा बहिन की नींद खराब नही करनी चाहिए। वह चुपचाप बहिन के सिरहाने पर पूरी पकवान से भरी डालियां (बैग) रखकर वापस घर को लौट गया। बहिन से बिना मिले जा रहा था, दुख तो हो रहा था लेकिन बहिन से इतना प्यार था कि ,उसकी नींद नहीं खराब कर पाया ।
आखिर भाई से मुलाकात नहीं हो पाई –
जब संध्या के समय उसकी बहिन की नींद खुली तो, सिरहाने पर रखी पूरी पकवान को देख कर समझ गई कि उसका भाई आया था भिटौली देने । और सोए रहने की वजह से वो उससे मुलाकात भी नही कर पाई और वो भूखा प्यासा चला गया। उसे बहुत दुःख हुवा। वो रोने लगी,” मि सीति ,म्यार भे भूखों” रोते परेशान होते वो अपने भाई को पहाड़ों में ढूढने लगी। इसी आपाधापी में उसके पैर में ठोकर लगी और वो गहरी खाई में गिर गई।
और उसकी मृत्यु हो गई। कहा जाता है, कि वो मृत्यु उपरांत एक चिड़िया बनी और आज भी पहाड़ों में बोलती है, “मि सीतो म्यर भे भूखों ”
वर्तमान समय में भिटौली –
बदलते समय में भिटौली का स्वरूप भी बदला है। पहले समय मे भिटौली की शुरुवात बेटी को देखने तथा उसके दुख सुख जानने के लिए की गई थी। वर्तमान में पहाड़ों में पहले की अपेक्षा काफी विकास हो गया है। यातायात के साधन काफी हो गए हैं। संचार के क्षेत्र में राज्य लगभग डिजिटल हो गया है। शिक्षा के क्षेत्र में भी काफी सुधार हो गया है।
सबसे बड़ा परिवर्तन पलायन का हुआ है। अब बेटियों को वो पहले वाली परेशानी नही होती। अधिकतर बेटियां शहर में रहती हैं। मगर फिर भी जो हमारी सांस्कृतिक परम्परा है, लोग उसे एक परम्परा के तौर पर खुशी खुशी मानते हैं। जहा तक मेरी अपनी अपनी जानकारी है, आजकल भिटौली पैसे देकर या डिजिटल मनी ट्रांसफर करके मनाई जाती है। जिससे बिटिया अपनी पसंद की मिठाई और कपड़े खरीद लेती है।
पहले बेटी के माता पिता और बेटी के लिए यह साल का सबसे अनमोल पल रहता था। वर्तमान में भिटौली उत्तराखंड की एक खास परम्परा के रूप में मनाई जाती है।चाहे वो डिजिटल रूप से ही मनाया जाय।
होली सनातन परंपरा का प्रमुख त्यौहार है। भारत मे बहुत ही हर्षोल्लास के साथ यह त्यौहार मनाया जाता है। भारत के हर क्षेत्र राज्य में अलग अलग तरह से होली मनाई जाती है। इनमे से भारत मे दो होली उत्सव अत्यधिक प्रसिद्ध हैं। उत्तराखंड की कुमाऊनी होली ( Kumaoni holi)और बरसाने की होली।
बरसाने की होली के साथ साथ उत्तराखंड की कुमाऊनी होली विश्व प्रसिद्ध है। कुमाउनी होली 2 से 3 माह तक चलने वाला संगीतमय त्यौहार है। कुमाउनी होली विश्व की सांस्कृतिक विरासत है। कई इतिहासकार कुमाउनी होली का संबंध चंद शाशनकाल से बताते हैं। इस होली के बारे बताया जाता है कि यह होली 1870 ई से वार्षिक उत्सव के रूप में चली आ रही है। उससे पहले होली की नियमित बैठकें हुवा करती थी।
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कुमाऊनी होली के प्रकार –
कुमाऊनी होली मुख्यतः शास्त्रीय संगीत और लोकसंगीत के मिश्रण पे गाई जाती है। उत्तराखंड की कुमाऊनी होली की भाषा ब्रज खड़ी बोली है। कुछ स्थानीय शब्दों का मिश्रण भी मिलता है। यह त्यौहार पौष मास से शुरू होता है। पौष माह से कुमाऊं के नैनीताल और अल्मोड़ा में बैठक होलियों का दौर शुरू हो जाता है। और फाल्गुन में कड़ी होली के साथ होलिका दहन के दिन तक चलता है। यह मुख्यरूप से तीन प्रारूपों में मनाया जाता है।
खड़ी होली
बैठकी होली
महिला होली
पौष के प्रथम रविवार से बैठकी होली शुरू हो जाती है। उसके बाद बसंत पंचमी के दिन से शृंगार रस प्रधान बैठकी होली चलती है। और फाल्गुन की एकादशी से खड़ी होली उत्सव शुरू होता है। खड़ी होली में ही रंगों का प्रयोग होता है। एकादशी के दिन रंग पड़ता है। कुमाऊं के कई क्षेत्रों में चीर बाँधकर होली का खड़ी होली का शुभारंभ होता है। चीर कपड़े के टुकड़ों एवं लकड़ी से मिला कर एक प्रतीकात्मक होलिका बनाई जाती है।
जिसका होलिका दहन के दिन दहन किया जाता है। एकादशी के दिन होलियार लोग मंदिरों में खड़ी होली गाकर ,खड़ी होली का शुभारंभ करते हैं। उसके बाद रोज बारी बारी से सबके घर होली गाई जाती है। होली गाने वाले लोगो को होलियार कहा जाता है। चतुर्दर्शी के दिन सब होलियार अपनी अपनी गांव की होली लेकर शिवमंदिर जाते हैं। भगवान शिव के आंगन में होली गाते है, “शिव के मन बसे काशी” इस होली की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
कुमाऊनी होली गीत ,” शिव के मन माहि बसे काशी ” –
शिव के मन माहि बसे काशी -2
आधी काशी में बामन बनिया,
आधी काशी में सन्यासी,
शिव के मन माहि बसे काशी।
काही करन को बामन बनिया,
काही करन को सन्यासी,
शिव के मन माहि बसे काशी।
पूजा करन को बामन बनिया,
सेवा करन को सन्यासी,
शिव के मन माहि बसे काशी
काही को पूजे बामन बनिया,
काही को पूजे सन्यासी,
शिव के मन माहि बसे काशी
देवी को पूजे बामन बनिया,
शिव को पूजे सन्यासी,
शिव के मन माहि बसे काशी
क्या इच्छा पूजे बामन बनिया,
क्या इच्छा पूजे सन्यासी,
शिव के मन माहि बसे काशी
नव सिद्धि पूजे बामन बनिया,
अष्ट सिद्धि पूजे सन्यासी,
शिव के मन…
इसके अलावा “चलो चले शिव के भवन ” होली भी गाई जाती है।
महिला होली भी खड़ी होली के बीच – बीच में चलती रहती है। इसमें केवल महिलाये नृत्य, गायन और ठिठोली से होली की खुशिया मनाती हैं। इसके अलावा पौष माह से चलने वाली बैठक होली का अपना एक अलग रंग होता है। जिसमे उर्दू का असर भी मिलता है। इसे बैठ कर हारमोनियम तबले के साथ राग रागनियों के साथ गाया जाता है।
होलिका दहन के दिन , चीर दहन किया जाता है।चीर को प्रतीकात्मक होलिका माना जाता है। होलिका दहन के दूसरे दिन यानी होली के अंतिम दिन , छलड़ी मनाई जाती है। इस दिन गाँव मे घर घर जाकर , रंग खेला जाता है । और साथ मे होली आशीष गीत भी गया जाता है। इसके उपरांत गांव के सार्वजनिक स्थान पर होली का प्रसाद बनता हैं। होली के प्रसाद में हलुवा बनता है। यह प्रसाद समस्त ग्रामवासियों एवं सम्बंधियों में वितरित किया जाता है।
कुमाऊनी होली में छलड़ी के दिन आशीष गीत गाया जाता है। जो इस प्रकार है –
गावैं ,खेलैं ,देवैं असीस, हो हो हो लख रे
बरस दिवाली बरसै फ़ाग, हो हो हो लख रे।
जो नर जीवैं, खेलें फ़ाग, हो हो हो लख रे।
आज को बसंत कृष्ण महाराज का घरा, हो हो हो लख रे।
श्री कृष्ण जीरों लाख सौ बरीस, हो हो हो लख रे।
यो गौं को भूमिया जीरों लाख सौ बरीस, हो हो हो लख रे।
यो घर की घरणी जीरों लाख सौ बरीस, हो हो हो लख रे।
गोठ की घस्यारी जीरों लाख सौ बरीस, हो हो हो लख रे।
पानै की रस्यारी जीरों लाख सौ बरीस, हो हो हो लख रे
गावैं होली देवैं असीस, हो हो हो लख रे॥
उपसंहार –
होली समस्त भारत वर्ष का सबसे बड़ा एवं प्रिय त्यौहार है। और भारत की प्रसिद्ध कुमाऊनी होली उत्तराखंड की सांस्कृतिक पहचान है। वर्तमान में उत्तराखंड की कई सांस्कृतिक पहचान के स्रोत विलुप्ति के द्वार पर खड़े हैं। जबकि प्रसिद्ध कुमाउनी होली की रंगत में खोए लोगों को देखकर सुखद अनुभूति होती है। उत्तराखंड की कुमाउनी होली अपने नित नए जोश और प्रेम से हर साल नए आयामो को छूती हैं।
समस्त उत्तराखंड में चैत्र प्रथम तिथि को बाल लोक पर्व फूलदेई, फुलारी मनाया जाता है। यह त्यौहार बच्चों द्धारा मनाया जाता है। बसंत के उल्लास और प्रकृति के साथ अपना प्यार जताने वाला यह त्यौहार समस्त उत्तराखंड में मनाया जाता है। उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में यह त्यौहार एक दिन मनाया जाता है, तथा इसे वहाँ फूलदेई के त्यौहार के नाम से जाना जाता है।
कुमाऊं में चैत्र प्रथम तिथि को बच्चे सबकी देहरी पर फूल डालते हैं,और गाते है “फूलदेई छम्मा देई उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में यह त्योहार चैत्र प्रथम तिथि से अष्टम तिथि तक मनाया जाता है। इस त्यौहार में छोटे छोटे बच्चे अपनी कंडली फूलों से सजाते हैं ,और आठ दिन तक रोज सबकी देहरी पर फूल डाल कर मांगल गाते हैै। घोघा माता की जय जय कार करके गाते है “जय घोघा माता, प्यूली फूल, जय पैंया पात’
घोघा माता को फूलों की देवी माना जाता है। घोघा माता की पूजा केवल बच्चे कर सकते हैं। फुलारी में बच्चे घोघा का डोला बनाते हैं। रोज उनकी पूजा करते हैं तथा अंतिम दिन , लोगो से मिले चावल का भोग लगाकर घोघा माता को विदाई देते हैं।
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फुलारी या फूलदेई की लोक कथा –
बहुत समय पहले, एक घोघाजीत नामक राजा थे। वो न्यायप्रिय एवं धार्मिक राजा थे। कुछ समय बाद उनके घर एक तेजस्वी लड़की हुई। उस लड़की का नाम घोघा रखा। उनके राज ज्योतिष ने राजा को बताया कि यह लड़की असाधारण है। यह लड़की प्रकृति प्रेमी है। 10 साल की होते ही यह तुम्हे छोड़ कर चली जायेगी।
घोघा अन्य बच्चों से अलग थी, उसे प्रकृति और प्राकृतिक चीजे अच्छी लगती थी। वह थोड़ी बड़ी हुई तो, उसने महल में रखी बासुरी बजाई। उसकी बाँसुरी की धुन सुनकर सभी पशु पक्षी महल की तरफ आ गए। सभी झूमने लगे ,प्रकृति में एक अलग सी खुशियों की लहर सी जग गई। प्यूली खिल गई, बुरांश भी खिल गए हर तरफ आनंद ही आनंद छा गया।
एक दिन अचानक घोघा कही गायब हो गई। राजा ने बहुत ढूढा कही नही मिली। अंत मे राजा को ज्योतिष की बात याद आ गई।वह उदास हो गया। एक दिन रात को राजा को सपने में अपनी पुत्री घोघा दिखाई दी , वह राजा की कुल देवी प्रकृति के गोद मे बैठ के खूब खुश हो रही थी। तब कुलदेवी ने कहा ,कि हे राजन तुम उदास मत हो, तुम्हरी पुत्री मेरे पास है, असल में ये मेरी पुत्री है। प्रकृति का रक्षण तुम्हारे राज्य की उन्नति एवं समृधि के लिए आवश्यक है। इसी का अहसास दिलाने के लिए घोघा को तुम्हारे घर भेजा था।
घोगा माता की याद में मनाया जाता है यह त्यौहार –
अगले वर्ष की वसंत चैत्र की प्रथमा से अष्टमी तक तुम सभी देवतुल्य बच्चों से प्यूली ,बुराँस के फूलों को छोटी छोटी टोकरी में रखकर हर घर की देहरी पर डालेंगे और जय घोघा माता, प्यूली फूल, जय पैंया पात गाएंगे। घोघा आज से आपके राज्य में घोघा माता ,फूलों की देवी के रूप में मानी जायेगी। और इनकी कृपा से आपके राज्य में प्राकृतिक समृधि एवं सुंदरता बनी रहेगी।
घोघा की याद में आज भी उत्तराखंड में फुलारी ,फूलदेई का त्यौहार मनाया जाता हैं। गढ़वाल क्षेत्र में चैत्र प्रथम से चैत्र अष्टमी तक यह त्यौहार मनाया जाता है। तथा कुमाऊं क्षेत्र में एक दिन मनाया जाता है। इस अवधि में फूल खेलने वाले बच्चों को फुलारी कहा जाता है।
उत्तराखंड वासियों का प्रकृति प्रेम जगविख्यात है। चाहे पेड़ बचाने के लिए चिपको आंदोलन हो या पेड़ लगाने के लिए मैती आंदोलन या प्रकृति का त्योहार हरेला हो। इसी प्रकार प्रकृति को प्रेम प्रकट करने का त्योहार या प्रकृति का आभार प्रकट करने का प्रसिद्ध फूलदेई त्यौहार मनाया जाता है।
फूलदेई त्योहार मुख्यतः छोटे छोटे बच्चो द्वारा मनाया जाता है। यह उत्तराखंड का प्रसिद्ध लोक पर्व है। फूलदेई त्योहार बच्चों द्वारा मनाए जाने के कारण इसे लोक बाल पर्व भी कहते हैं। प्रसिद्ध त्योहार फूलदेई (Phool dei festival ) चैैत्र मास के प्रथम तिथि को मनाया जाता है। अर्थात प्रत्येक वर्ष मार्च 14 या 15 तारीख को यह त्योहार मनाया जाता है। फूल सग्यान ,फूल संग्रात या मीन संक्रांति उत्तराखंड के दोनों मंडलों में मनाई जाती है। कुमाऊं गढ़वाल में इसे फूलदेई और जौनसार में गोगा कहा जाता है।
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नववर्ष के स्वागत का त्यौहार है फूलों का त्यौहार –
उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में सौर कैलेंडर का उपयोग किया जाता है। इसलिए इन क्षेत्रों में हिन्दू नव वर्ष का प्रथम दिन मीन संक्रांति अर्थात फूल देइ से शुरू होता है। चैत्र मास में बसंत ऋतु का आगमन हुआ रहता है। प्रकृति अपने सबसे बेहतरीन रूप में विचरण कर रही होती है।
प्रकृति में विभिन्न प्रकार के फूल खिले रहते हैं । नववर्ष के स्वागत की परम्परा विश्व के सभी सभ्य समाजों में पाई जाती है। चाहे अंग्रेजी समाज का न्यू ईयर डे हो ,या पडोसी तिब्बत का लोसर उत्सव हो। या पारसियों का नैरोज हो या सनातन समाज की चैत्र प्रतिपदा। फुलदेई पर्व के रूप में देवतुल्य बच्चों द्वारा प्रकृति के सुन्दर फूलों से नववर्ष का स्वागत किया जाता है।
मनाने की विधि –
कुमाउनी सांस्कृतिक परम्परा में इसका रूप इस प्रकार देखा जाता है। उत्तराखंड के प्रसिद्ध लोकपर्व एवं बाल पर्व फूलदेई पर छोटे छोटे बच्चे पहले दिन अच्छे ताज़े फूल वन से तोड़ के लाते हैं। जिनमे विशेष प्योंली के फूल और बुरॉश के फूल का प्रयोग करते हैं। इस दिन गृहणियां सुबह सुबह उठ कर साफ सफाई कर चौखट को ताजे गोबर मिट्टी से लीप कर शुद्ध कर देती है।
फूलदेई के दिन सुबह सुबह छोटे छोटे बच्चे अपने वर्तनों में फूल एवं चावल रख कर घर घर जाते हैं । और सब के दरवाजे पर फूल चढ़ा कर फूलदेई के गीत , ‘फूलदेई छम्मा देई दैणी द्वार भर भकार !! ” गाते हैं। और लोग उन्हें बदले में चावल गुड़ और पैसे देते हैं। छोटे छोटे देवतुल्य बच्चे सभी की देहरी में फूल डाल कर शुभता और समृद्धि की मंगलकामना करते हैं। इस पर गृहणियां उनकी थाली में ,गुड़ और पैसे रखती हैं।
बनाया जाता है खास पकवान –
बच्चों को पुष्पार्पण करके जो आशीष और प्यार स्वरूप में जो भेंट मिलती है ,उससे अलग अलग स्थानों में अलग अलग पकवान बनाये जाते हैं। पुष्पार्पण से प्राप्त चावलों को भिगा दिया जाता है। और प्राप्त गुड़ को मिलाकर ,और पैसों से घी / तेल खरीदकर ,बच्चों के लिए हलवा ,छोई , शाइ , नामक स्थानीय पकवान बनाये जाते हैं। कुमाऊं के भोटान्तिक क्षेत्रों में चावल की पिठ्ठी और गुड़ से साया नामक विशेष पकवान बनाया जाता है।
उत्तराखंड के अलग अलग हिस्सों में अलग अलग तरीक़े से फूलदेई का त्यौहार मनाया जाता है। कुछ जगह एक दिन यह त्योहार मनाया जाता हैं। और उत्तराखंड के केदार घाटी में यह त्योहार 8 दिन तक मनाया जाता है। केदारघाटी में चैत्र संक्रांति से चैत्र अष्टमी तक यह त्योहार मनाया जाता है। बच्चे रोज ताजे फूल देहरी पर डालते हैं ,मंगल कामना करते हुए बोलते हैं “जय घोघा माता, प्यूली फूल, जय पैंया पात !
कही आठ दिन तक तो कहीं पूरे माह मनाया जाता है ये त्यौहार –
इसके अतिरिक्त गढ़वाल मंडल के कई क्षेत्रों में यह त्यौहार पुरे महीने चलता है। वहां बच्चे फाल्गुन के अंतिम दिन अपनी फूल कंडियों में युली ,बुरांस ,सरसों ,लया ,आड़ू ,पैयां ,सेमल ,खुबानी और भिन्न -भिन्न प्रकार के फूलों को लाकर उनमे पानी के छींटे डालकर खुले स्थान पर रख देते हैं। अगले दिन सुबह उठकर प्योली के पीताम्भ फूलों के लिए अपनी कंडियां लेकर निकल पड़ते हैं। और मार्ग में आते जाते वे ये गीत गाते हैं। ”ओ फुलारी घौर।झै माता का भौंर। क्यौलिदिदी फुलकंडी गौर । ”
प्योंली और बुरांश के फूल अपने फूलों में मिलकर सभी बच्चे ,आस पास के दरवाजों ,देहरियों को सजा देते है। और सुख समृद्धि की मंगल कामनाएं करते हैं। फूल लाने और दरवाजों पर सजाने का यह कार्यक्रम पुरे चैत्र मास में चलता रहता है। बैसाखी के दिन अधिक से अधिक फूल लाकर ,बड़ों के सहयोग से डोली बनाकर उसकी पूजा की जाती है। प्रत्येक घर से इस दिन बने निमित्त पकवानों ( स्यावंले \पकोड़ो ) से भोग लगाकर डोली सजाकर , डोली को घुमाकर एक स्थान पर विसर्जन किया जाता है। उत्तराखंड के कुछ हिस्सों में इसे फुलारी त्योहार के नाम से भी जाना जाता है।
अंतिम दिन बच्चे घोघा माता की डोली की पूजा करके विदाई करके यह त्योहार सम्पन्न करते हैं। वहाँ फूलदेई खेलने वाले बच्चों को फुलारी कहा जाता है। गढ़वाल क्षेत्र में बच्चो को जो गुड़ चावल मिलते हैं,उनका अंतिम दिन भोग बना कर घोघा माता को भोग लगाया जाता है। घोघा माता को फूलों की देवी माना जाता है। घोघा माता की पूजा केवल बच्चे ही कर सकते हैं। फुलारी त्योहार के अंतिम दिन बच्चे घोघा माता का डोला सजाकर, उनको भोग लगाकर उनकी पूजा करते हैं।
फूलदेई त्योहार के गीत –
फूलदेई ( Phool dei festival) के दिन बच्चे उत्तराखंड की लोकभाषा कुमाउनी में एक गीत गाते हुए सभी लोगो के दरवाजों पर फूल डालते हैं, और अपना आशीष वचन देते जाते हैं।
कुमाउनी में फूलदेई के गीत –
” फूलदेई छम्मा देई ,
दैणी द्वार भर भकार।
यो देली सो बारम्बार ।।
फूलदेई छम्मा देई
जातुके देला ,उतुके सई ।।
गढ़वाली में फुलारी के गीत –
ओ फुलारी घौर।
झै माता का भौंर ।
क्यौलिदिदी फुलकंडी गौर ।
डंडी बिराली छौ निकोर।
चला छौरो फुल्लू को।
खांतड़ि मुतड़ी चुल्लू को।
हम छौरो की द्वार पटेली।
तुम घौरों की जिब कटेली।
फूलदेई त्यौहार का इतिहास –
फूलदेई पर एक विशेष पिले रंग के फूल का प्रयोग किया जाता है ,जिसे प्योंली कहा जाता है। फूलदेई और फुलारी त्योहार के संबंधित उत्तराखंड में बहुत सारी लोककथाएँ प्रचलित हैं। और कुछ लोक कथाएँ प्योंलि फूल पर आधारित है। उनमें से एक लोककथा इस प्रकार है।
प्योंली की कहानी -:
प्योंली नामक एक वनकन्या थी।वो जंगल मे रहती थी। जंगल के सभी लोग उसके दोस्त थे। उसकी वजह जंगल मे हरियाली और सम्रद्धि थी। एक दिन एक देश का राजकुमार उस जंगल मे आया,उसे प्योंली से प्रेम हो गया और उससे शादी करके अपने देश ले गया ।प्योंली को अपने ससुराल में मायके की याद आने लगी, अपने जंगल के मित्रों की याद आने लगी। उधर जंगल मे प्योंली बिना पेड़ पौधें मुरझाने लगे, जंगली जानवर उदास रहने लगे। उधर प्योंली की सास उसे बहुत परेशान करती थी। प्योंली कि सास उसे मायके जाने नही देती थी।
प्योंली अपनी सास से और अपने पति से उसे मायके भेजने की प्रार्थना करती थी। मगर उसके ससुराल वालों ने उसे नही भेजा। प्योंलि मायके की याद में तड़पते लगी। मायके की याद में तड़पकर एक दिन प्योंली मर जाती है
राजकुमारी के ससुराल वालों ने उसे पास में ही दफना दिया। कुछ दिनों बाद जहां पर प्योंली को दफ़नाया गया था, उस स्थान पर एक सुंदर पीले रंग का फूल खिल गया था। उस फूल का नाम राजकुमारी के नाम से प्योंली रख दिया । तब से पहाड़ो में प्योंली की याद में फूलों का त्योहार फूलदेई या फुलारी त्यौहार मनाया जाता है।
केदार घाटी में एक अन्य क लोक कथा प्रचलित है जो इस प्रकार है –
“एक बार भगवान श्री कृष्ण और देवी रुक्मिणी केदारघाटी से विहार कर रहे थे । तब देवी रुक्मिणी भगवान श्री कृष्ण को खूब चिड़ा देती हैं , जिससे रुष्ट होकर भगवान छिप जाते हैं। देवी रुक्मणी भगवान को ढूढ ढूढ़ कर परेशान हो जाती है। और फ़िर देवी रुक्मिणी देवतुल्य छोटे बच्चों से रोज सबकी देहरी फूलों से सजाने को बोलती है।
ताकि बच्चो द्वारा फूलों का स्वागत देख , भगवान अपना गुस्सा त्याग सामने आ जाय। और ऐसा ही होता है,बच्चों द्वारा पवित्र मन से फूलों की सजी देहरी आंगन देखकर भगवान का मन पसीज जाता है।और वो सामने आ जाते हैं।”तब से इसी खुशी में चैत्र संक्रांति से चैत्र अष्टमी तक बच्चे रोज सबके देहरी व आंगन फूलों से सजाते हैं। और तब से इस त्यौहार को फूल संक्रांति , फूलदेई या फूलों का त्यौहार आदि नामों से जाना जाता है।
शिव के महापर्व शिवरात्रि के शुभवासर पर आप लोगो के समक्ष कुछ उत्तराखंड की प्रसिद्ध शिवरात्रि विशेष , कुमाउनी होली के लिखित व वीडियो लिंक के भाग प्रस्तुत कर रहे हैं। अच्छे लगे तो शेयर अवश्य करें।
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शिव के मन मही बसे काशी
शिव के मन माहि बसे काशी -2
आधी काशी में बामन बनिया,
आधी काशी में सन्यासी,
शिव के मन माहि बसे काशी।
काही करन को बामन बनिया,
काही करन को सन्यासी,
शिव के मन माहि बसे काशी।
पूजा करन को बामन बनिया,
सेवा करन को सन्यासी,
शिव के मन माहि बसे काशी
काही को पूजे बामन बनिया,
काही को पूजे सन्यासी,
शिव के मन माहि बसे काशी
देवी को पूजे बामन बनिया,
शिव को पूजे सन्यासी,
शिव के मन माहि बसे काशी
क्या इच्छा पूजे बामन बनिया,
क्या इच्छा पूजे सन्यासी,
शिव के मन माहि बसे काशी
नव सिद्धि पूजे बामन बनिया,
अष्ट सिद्धि पूजे सन्यासी,
शिव के मन…
शिवरात्रि विशेष-
शिवरात्रि विशेष कुमाउनी भजन –
उत्तराखंड के प्रसिद्ध लोक गायक गोपाल मठपाल जी सुमधुर आवाज में एक प्रशिद्ध कुमाउनी भजन है , म्यारा शिवज्यूँ महादेवा।
रानीखेत उत्तराखंड राज्य के अल्मोड़ा ज़िले के अंतर्गत एक पहाड़ी पर्यटन स्थल है। देवदार और बाज के वृक्षों से घिरा यह बहुत ही रमणीक एक लघु हिल स्टेशन है। काठगोदाम रेलवे स्टेशन से 85 किमी. की दूरी पर स्थित यह अच्छी पक्की सड़क से जुड़ा है। इस स्थान से हिमाच्छादित मध्य हिमालयी श्रेणियाँ स्पष्ट देखी जा सकती हैं।
रानीखेत से सुविधापूर्वक भ्रमण के लिए पिण्डारी ग्लेशियर,कौसानी, चौबटिया गार्डन ,गोल्फ कोर्स, बिनसर महादेव मंदिर, झूला देवी मंदिर,कटारमल सूर्य मंदिर और कालिका पहुँचा जा सकता है। चौबटिया में प्रदेश सरकार के फलों के उद्यान हैं। इस पर्वतीय नगरी का मुख्य आकर्षण यहाँ विराजती नैसर्गिक शान्ति है।
रानीखेत उत्तराखंड राज्य के अल्मोड़ा ज़िले में है। यह समुद्र तल से 1824 मीटर की ऊंचाई पर स्थित एक छोटा लेकिन बेहद खूबसूरत हिल स्टेशन है। कुमाऊँ के अल्मोड़ा ज़िला के अंतर्गत आने वाला एक छोटा पर एक सुन्दर पर्वतीय नगर हैं।
अंग्रेज़ों के शासनकाल में सैनिकों कीरानीखेत छावनी के लिए इस क्षेत्र का विकास किया गया। क्योंकि रानीखेत उत्तराखंड कुमाऊं रेजिमेन्ट का मुख्यालय है, इसलिए यह पूरा क्षेत्र काफ़ी साफ-सुथरा रहता है। रानीखेत में ज़िले की सबसे बड़ी सेना की छावनी स्थापित हैं, जहाँ सैनिकों को प्रशिक्षित किया जाता हैं।
रानीखेत की दूरी नैनीताल से 63 किमी, अल्मोड़ा से 50 किमी, कौसानी से 85 किमी और काठगोदाम से 80 किमी हैं। मनोरम पर्वतीय स्थल रानीखेत लगभग 25 वर्ग किलोमीटर में फैला है। कुमाऊं क्षेत्र में पड़ने वाले इस स्थान से लगभग 400 किलोमीटर लंबी हिमाच्छादित पर्वत-श्रृंखला का ज़्यादातर भाग दिखता हैं। इन पर्वतों की चोटियां सुबह-दोपहर-शाम अलग-अलग रंग की मालूम पड़ती हैं।
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रानीखेत उत्तराखंड का इतिहास –
रानीखेत का नाम रानी पद्मिनी के कारण पड़ा। रानी पदमनी राजा सुखदेव की पत्नी थीं, जो वहां के राज्य के शासक थे। रानीखेत की सुंदरता देख राजा और रानी बेहद प्रभावित हुए और उन्होंने वहीं रहने का फैसला कर किया। बाद में यह ब्रिटिश शासकों के हाथ में चला गया। अंग्रेजों ने रानीखेत को छुट्टियों में मौज-मस्ती के लिए हिल स्टेशन के रूप में विकसित किया और 1869 में यहां कई छावनियां बनवाईं जो अब ‘कुमांऊ रेजीमेंटल सेंटर’ है।
रानीखेत एक अत्यंत खूबसूरत हिल सटेशन है। जहाँ दुनिया भर से हर साल लाखों की संख्या में सैलानी यहां मौज-मस्ती करने के लिए आते हैं। रानीखेत से 6 किलोमीटर की दूरी पर गोल्फ का विशाल मैदान है। उसके पास ही कलिका में कालीदेवी का प्रसिद्ध मंदिर भी है।
यहां की खूबसूरती देखते ही बनती है। यहां पर दिखने वाले खूबसूरत नज़ारे पर्यटकों को खूब भाते हैं। रानीखेत से लगभग सात किलोमीटर दूरी पर है- कलिका मंदिर। यहां माँ काली की पूजा की जाती है। यहां पर पौधों की बहुत ही बढ़िया नर्सरी भी हैं।
ऊपर में गोल्फ कोर्स है और उसके पीछे बर्फ से ढंका हुआ पहाड़ बहुत ही मनोरम दृश्य प्रस्तुत करता है। रानीखेत में इसके अलावा और भी मनोरम स्थल है। यहां का भालू बांध मछली पकड़ने के लिए प्रसिद्ध है। रानीखेत से थोड़ी-थोड़ी दूरी पर भ्रमण करने की भी कई जगह हैं जैसे अल्मोड़ा जहां हिमालय पहाड़ों का सुंदर दृश्य मन को मोह लेता है।
रानीखेत उत्तराखंड के प्रमुख पर्यटन स्थल निम्न हैं –
गोल्फ कोर्स –
रानीखेत गोल्फ कोर्स रानीखेत उत्तराखंड के प्रमुख आकर्षणों में से एक है। एशिया के उच्चतम गोल्फ कोर्सों में से रानीखेत गोल्फ कोर्स में से एक नंबर गोल्फ कोर्स है। यह रानीखेत नगर से 5 किमी की दूरी पर है।
सैंट ब्रिजेट चर्च –
सैंट ब्रिजेट चर्च रानीखेत नगर का सबसे पुराना चर्च है।
रानीखेत उत्तराखंड का कुमाऊं रेजिमेंटल सेंटर –
कुमाऊँ रेजिमेंटल सेंटर (KRC) कुमाऊँ तथा नागा रेजिमेंट द्वारा संचालित एक म्यूजियम है। यहाँ विभिन्न युद्धों में पकडे गए अस्त्र तथा ध्वज प्रदर्शन करने के लिए रखे गए हैं। इसके अतिरिक्त म्यूजियम में ऑपरेशन पवन के समय पकड़ी गयी एलटीटीई की एक नाव भी है।
रानीखेत उत्तराखंड का द्वाराहाट क्षेत्र –
द्वाराहाट के पास ही 65 मंदिर बने हुए हैं, जो कि तत्कालीन कला के बेजोड़ नमूनों के रुप में विख्यात हैं। बद्रीकेदार मंदिर, गूजरदेव का कलात्मक मंदिर, दूनागिरि मंदिर, पाषाण मंदिर और बावड़िया यहां के प्रसिद्ध मंदिर हैं।
द्वाराहाट से 14 किलोमीटर की दूरी पर दूनागिरी मंदिर है। यहां से आप बर्फ से ढकी चोटियों को देख सकते हैं। दूनागिरी का वैष्णव शक्ति पीठ जगत प्रसिद्ध है।जहां पर आसपास के लोग बड़ी संख्या में आते है।इसके कुछ ही दूरी पर शीतलाखेत है, जो पर्यटक गांव के नाम से जाना जाता है।
आशियाना पार्क –
आशियाना पार्क रानीखेत नगर के मध्य में स्थित है। कुमाऊँ रेजिमेंट द्वारा निर्मित और विकसित इस पार्क में बच्चों के लिए विशेषकर जंगल थीम स्थित है।
मनकामेश्वर मंदिर
यह मंदिर कुमाऊँ रेजिमेंट के नर सिंह मैदान से संलग्न है। मंदिर के सामने एक गुरुद्वारा, तथा एक शाल की फैक्ट्री है।
रानी झील –
रानीखेत उत्तराखंड में रानी झील प्रसिद्ध स्थान है। रानी झील नर सिंह मैदान के समीप वीर नारी आवास के नीचे स्थित है। इस झील में नौकायन की सुविधा उपलब्ध है।
झूला देवी मंदिर रानीखेत उत्तराखंड –
उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में स्थित मां दुर्गा के इस मंदिर की रखवाली शेर करते हैं, लेकिन वह स्थानीय लोगों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाते हैं।
नवरात्र पर मां के इस मंदिर में भक्तों का तांता लग जाता है। झूला देवी मंदिर अल्मोड़ा जनपद के रानीखेत के पास चौबटिया नामक स्थान पर स्थित है। वहां के स्थानीय लोगों की कुल देवी कही जाती हैं झूला देवी।
करीब 700 वर्ष पूर्व चौबटिया एक घना जंगल हुआ करता था।जो जंगली जानवर से भरा हुआ था। शेर तथा चीते यहां बसने वाले लोगो पर आक्रमण करते और उनके पालतू पशुओं को अपना आहार बनाते।
रानीखेत शहर से 7 किमी. की दूरी पर स्थित यह एक लोकप्रिय मंदिर है। यह मंदिर मां दुर्गा को समर्पित है।झुला देवी मंदिर के रूप में भी जाना जाता है,मान्यता है कि रानीखेत के जिस क्षेत्र में यह मंदिर मौजूद है वहां जंगली जानवरों का आतंक था।
इस कारण वहां के स्थानीय लोग घर से निकलने में डरते थे।एक बार मां दुर्गा किसी ग्रामीण के सपने में आई और उसे किसी जगह की खुदाई करने को कहा। जब खुदाई की गई तो वहां से एक देवी की मूर्ति निकली जिसको इसी मंदिर में झूले पर स्थापित किया गया।
लोगों का मानना है कि मंदिर में प्रार्थना करने वाले लोगों की मनोकामनाएं मां झूला देवी पूरी करती हैं।मुराद पूरी होने पर इस मंदिर में तांबे की घंटी चढ़ाई जाती है। इस मंदिर में हजारों घंटियां लोगों की आस्था का प्रतीक हैं।
बिनसर महादेव –
बिनसर महादेव रानीखेत उत्तराखंड क्षेत्र में भगवान् शिव को समर्पित एक मंदिर है। मंदिर के समीप बहती एक गाड़ विहंगम दृश्य प्रस्तुत करती है। मंदिर के पास देवदार तथा चीड़ के जंगलों के मध्य स्थित एक आश्रम भी है।
भालू डैम रानीखेत –
भालूडैम नगर के समीप स्थित एक कृत्रिम झील है।यहाँ से हिमालय श्रंखलाओं का मनोरम दृश्य देखा जा सकता है।
ताड़ीखेत उत्तराखंड –
रानीखेत से 8 किमी दूर स्थित ताड़ीखेत गाँधी कुटी तथा गोलू देवता मंदिर के लिए प्रसिद्द है।
उत्तराखंड रानीखेत का चौबटिया गार्डन –
रानीखेत उत्तराखंड का चौबटिया गार्डन पर्यटकों की पहली पसंद है। इसके अलावा यहां का सरकारी उद्यान और फल अनुसंधान केंद्र भी देखे जा सकता है। इनके पास में ही एक वाटर फॉल भी है। कम भीड़-भाड़ और शान्त माहौल रानीखेत को और भी ख़ास बना देता है। बात करे तो चौबटिया गार्डन उत्तराखण्ड राज्य के अल्मोड़ा ज़िले के प्रसिद्ध पहाड़ी पर्यटन स्थल रानीखेत में स्थित है।
रानीखेत से 10 किलोमीटर दूर इस स्थान पर एशिया का सबसे बड़ा फलों का बगीचा हैं। यहां दर्जनों तरह के फलों के पेड़ हैं, जिन्हें देखकर पर्यटक गदगद हो उठते हैं। यहां सरकार द्वारा स्थापित विशाल फल संरक्षण केंद्र भी देखने लायक हैं। यह स्थान मुख्य रूप से फलोद्यान, बग़ीचों और सरकारी फल अनुसंधान केन्द्र के रूप में प्रसिद्ध है। यहां पिकनिक का आनंद लिया जा सकता है।
इस स्थान से विस्तृत हिमालय, नंदादेवी, त्रिशूल, नंदाघुन्टी और नीलकण्ठ के विहंगम दृश्य देखे जा सकते हैं। 265 एकड़ क्षेत्र में फैला यहां का होर्टीकल्चर गार्डन भारत के विशालतम होर्टीकल्चर गार्डन्स में एक है। इस गार्डन में 36 किस्म के सेब उगाए जाते हैं जिनमें चार किस्मों का निर्यात भी किया जाता है।
चौबटिया गार्डन 10 किमी की दूरी पर स्थित एक प्रसिद्ध पर्यटन आकर्षण है। यहां पर फलों और फूलों की 200 विभिन्न प्रजातियों के हरे-भरे बाग हैं। इन बागों में स्वादिष्ट सेब, आड़ू, प्लम और खुबानी का उत्पादन होता है। सिल्वर ओक, रोडोडेंड्रन, साइप्रस, सीडार और पाइन के जंगलों से घिरी हुई यह जगह मनोरम दृश्य प्रस्तुत करती है।
सरकारी एप्पल गार्डन और फलों का अनुसंधान केंद्र इसके पास ही स्थित हैं। यह जगह एक प्रसिद्ध पिकनिक स्पॉट भी है।
इसके अतिरिक्त रानीखेत उत्तराखंड में और कई ऐसे इलाक़े है जहाँ आप घूम सकते है:-
चिलियानौला मैं हैड़ाखान बाबा का मंदिर
गोल्फ मैदान
शीतला खेत
धोलीखेत
द्वाराहाट
दूनागिरि
मजखाली
खड़ी बाजार
कटारमल सूर्य मन्दिर
माँ कलिका मंदिर
बिन्सर महादेव मंदिर
कटारमल सूर्य मन्दिर
कुमाऊँ रेजिमेंट का संग्रहालय
रानीखेत उत्तराखंड कैसे जाएं –
काठगोदाम रेलवे स्टेशन यहां से 85 किलोमिटर की दूरी पर हैं। रानीखेत दिल्ली से 279 किलोमीटर की दूरी पर है। हल्द्वानी काठगोदाम से रानीखेत के लिए , बस टेक्सी , बुकिंग कार सभी प्रकार के यातायात के साधन उपलब्ध है।
रानीखेत उत्तराखंड का मौसम –
रानीखेत की यात्रा का आनंद लेना है, तो यहाँ गर्मियों में जाना चाहिए। गर्मियों में यहाँ का मौसम , अधिकतम तापमान 22 डिग्री तथा न्यूनतम तापमान 8 डिग्री होता है। तथा सर्दियों में रानीखेत उत्तराखंड का अधिकतम तापमान 7 से 10 डिग्री तथा न्यूनतम तापमान 3 डिग्री होता है।
बद्रीनाथ में घूमने लायक अनेक रमणीक स्थान हैं आमतौर पर तीर्थयात्री बद्रीनाथ धाम के लिए एक दिन की यात्रा या अधिकतम एक रात तक रुकना पसंद करते है । इस वजह से कुछ आकर्षक और सुन्दर दर्शनीय स्थलों के दर्शन करना तीर्थयात्री भूल जाते है । हालाँकि यदि आप एक या दो दिनों के लिए बद्रीनाथ धाम की यात्रा करने की योजना बना रहे हैं, तो बद्रीनाथ में निम्न स्थानों को देखना न भूले ।
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बद्रीनाथ में घूमने लायक निम्न स्थान हैं –
नीलकंठ –
बद्रीनाथ मंदिर के पीछे, एक तरफ घाटी एक शंक्वाकार आकार के नीलकंठ शिखर (6600 मीटर) में खुलती है। जिसे ‘गढ़वाल क्वीन’ के रूप में भी जाना जाता है, पिरामिड के आकार में एक बर्फीली चोटी है जो बद्रीनाथ की पृष्ठभूमि बनाती है। पर्यटक यहाँ ब्रह्म कमल क्षेत्र तक आ सकते हैं।
संतोथपथ –
यह एक त्रिकोणीय झील है जो बर्फ से ढकी चोटियों से घिरी हुई है और इसका नाम हिंदू देवताओं महेश (शिव), विष्णु और ब्रह्मा के नाम पर रखा गया है। ऐसा माना जाता है कि हिंदू देवता महेश (शिव), विष्णु और ब्रह्मा हिंदू कैलेंडर के अनुसार प्रत्येक एकादशी पर इस सरोवर में स्नान करते हैं। (यहाँ यात्रा करने के लिए अनुमति की आवश्यकता होती है)
बद्रीनाथ में घूमने योग्य प्रमुख स्थान तप्त कुंड –
बद्रीनाथ मंदिर में प्रवेश करने से पहले, प्रत्येक श्रद्धालु तप्त कुंड में पवित्र स्नान करता है। ताप कुंड एक प्राकृतिक गर्म पानी का कुंड है, जिसे अग्नि के देवता अग्नि का निवास कहा जाता है। स्नान क्षेत्र में पुरुषों और महिलाओं के लिए अलग-अलग व्यवस्था है। हालांकि सामान्य तापमान 55 ° C तक रहता है, दिन के दौरान पानी का तापमान धीरे-धीरे बढ़ता रहता है। ऐसा माना जाता है इस कुंड के उच्च औषधीय महत्व है । यहाँ एक डुबकी भर लगाने से त्वचा रोग ठीक हो जाते है । यह बद्रीनाथ में घूमने योग्य सबसे प्रसिद्ध स्थान है।
ब्रह्मकपाल –
मंदिर के पास, यत्रियों के लिए अपने पूर्वजों का श्राद्ध करने के लिए एक स्थान है, जिसका बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। जहां व्यक्ति अपने पूर्वजो का श्राद्ध कर सकता है।
चरण पादुका –
यह स्थान बद्रीनाथ से सिर्फ 3 किमी की दूरी पर स्थित है । गर्मियों के मौसम मे यहाँ सुन्दर घास के मैदान जंगली फूलो से ढके होते है ।यहां एक बहुत बड़ी चट्टान है, जिसमे भगवान विष्णु के पैरों के निशान अंकित हैं।
नारद कुंड –
तप्त कुंड के पास स्थित, नारद कुंड वह स्थान है जहां भगवान विष्णु की मूर्ति आदि शंकराचार्य द्वारा बरामद की गई थी। गरुड़ शिला के नीचे से गर्म पानी के झरने निकलते हैं और कुंड में आकर गिरते है। बद्रीनाथ के दर्शन हमेशा इस कुंड में एक पवित्र डुबकी लगाने से पहले होते हैं। इसके अलावा यहाँ कई अन्य गर्म पानी के झरने हैं। भक्त अपने धार्मिक और औषधीय महत्व के लिए उनमें डुबकी लगाते हैं। बद्रीनाथ में सूरज कुंड और केदारनाथ के रास्ते में गौरी कुंड एक और प्रसिद्ध कुंड हैं। यह बद्रीनाथ में घूमने योग्य प्रमुख स्थानों में एक है।
वसुधारा जल प्रपात –
वसुधारा जलप्रपात (माणा गाँव से 3 किलोमीटर) प्रसिद्ध पर्यटन आकर्षणों में से एक है, जो माना गाँव में स्थित है। इस झरने का पानी 400 फीट की ऊँचाई से नीचे गिरता है और यह 12,000 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। ऐसा माना जाता है कि वसुधारा झरने का पानी उन पर्यटकों से दूर हो जाता है जो दिल के शुद्ध नहीं होते है। झरने के करीब सतोपंथ, चौखम्बा और बालकुम की प्रमुख चोटियाँ हैं।
वासुकी ताल –
यह एक उच्च ऊंचाई वाली झील है जहाँ 8 किमी की ट्रेक द्वारा पहुँचा जा सकता है जो 14,200 फीट तक जाती है। व्यास गुफ़ा, गणेश गुफ़ा, भीमपुल और वसुधारा जलप्रपात यहाँ से 3-6 किमी दूरी पर हैं। ये सभी गंतव्य हिंदू पौराणिक कथाओं के साथ अपने संबंधों के लिए प्रसिद्ध हैं और बद्रीनाथ में घूमने योग्य एक प्रमुख स्थान हैं।
लीला ढोंगी –
बद्रीनाथ वह क्षेत्र है जिसे भगवान शिव ने मूल रूप से तपस्या के लिए चुना था। हालाँकि, भगवान विष्णु ने फैसला किया कि वह यहाँ ध्यान करना चाहते हैं इसलिए उन्होंने एक छोटे बच्चे का रूप धारण किया और एक चट्टान पर लेट गए और रो पड़े। जब पार्वती ने उन्हें सांत्वना देने की कोशिश की तब भी उन्होंने रुकने से इनकार कर दिया। अंत में, भगवान शिव बच्चे की जिद को नहीं रोक सके और केदारनाथ में ध्यान करने का फैसला किया।
उर्वशी मंदिर:
बद्रीविशाल, नर और नारायण का आश्रम, जहां दोनों ने तपस्या की और अब, पहाड़ों के आकार में, मंदिर की रक्षा करते हैं | जब वे गहन ध्यान में थे, भगवान इंद्र ने उन्हें विचलित करने के लिए आकाशीय युवतियों या अप्सराओं का एक समूह भेजा।
नारायण ने अपनी बाईं जांघ को फाड़ दिया और मांस से बाहर, कई अत्यधिक सुन्दर अप्सराओं को बनाया। उन सभी में से सबसे अधिक सुन्दर – उर्वशी – इंद्र की अप्सराओं का नेतृत्व किया और चरणपादुका में एक छोटे से तालाब के पास अपना घमंड चूर-चूर कर दिया। तालाब उर्वशी के नाम पर है; और बामनी गाँव के बाहरी इलाके में एक मंदिर है जो इस सुन्दर अप्सरा को समर्पित है।
बद्रीनाथ में घूमने योग्य प्रमुख स्थान भीम पुल –
यह एक विशाल चट्टान है जो सरस्वती नदी के पार एक प्राकृतिक सेतु का काम करती है। सरस्वती नदी दो पहाड़ों के बीच बहती है और अलकनंदा नदी में मिलती है। यह माना जाता है कि पांच पांडवों में से एक, महाबली भीम ने दो पहाड़ों के बीच एक रास्ता बनाने के लिए एक विशाल चट्टान को फेंक दिया ताकि द्रौपदी आसानी से उस पर चल सकें।
बद्रीनाथ में घूमने योग्य शेष नेत्र –
बद्रीनाथ से 1.5 किमी दूर एक शिलाखंड है जिसमें पौराणिक सांप की छाप है, जिसे शेषनाग के नेत्र (शेष का मतलब शेषनाग और नेत्र का मतलब आंख) के रूप में जाना जाता है। नर पर्वत की गोद में अलकनंदा नदी के विपरीत किनारे पर दो छोटी मौसमी झीलें हैं। इन झीलों के बीच में एक चट्टान है, जिसमें प्रसिद्ध साँप, शेषनाग की छाप है।
माणा गाँव –
यह चीन सीमा पर भारतीय क्षेत्र का अंतिम गांव है और बद्रीनाथ से सिर्फ 3 किलोमीटर दूर है। माणा गाँव के ग्रामीणों को श्री बदरीनाथ मंदिर की गतिविधियों के साथ निकटता से जोड़ा जाता है क्योंकि वे मंदिर के समापन के दिन देवता को चोली चढ़ाते हैं – एक वार्षिक पारंपरिक रिवाज ।
माणा गाँव गुफाओं से भरा हुआ है और ऐसा कहा जाता है कि वेद व्यास ने गणेश को महाभारत के अपने प्रसिद्ध महाकाव्य का वर्णन किया था, इन गुफाओं में से एक, जिसे अब व्यास गुफ़ा (गुफा) के नाम से जाना जाता है। यह बद्रीनाथ में घूमने योग्य प्रमुख स्थान है।
बद्रीनाथ में घूमने योग्य स्थान पांच धारा –
पंचधारा (पाँच धाराएँ) जो बद्रीपुरी में प्रसिद्ध हैं, वे हैं प्रह्लाद, कूर्म, भृगु, उर्वशी और इंदिरा धारा। इनमें से सबसे बड़ी अद्भुत इंदिरा धारा है, जो कि बद्रीपुरी शहर से लगभग 1.5 किमी उत्तर में है। भृगुधारा कई गुफाओं में बहती है। ऋषि गंगा नदी के दाईं ओर, मूल रूप से नीलकंठ श्रेणी की उर्वशी धारा है। कूर्म धारा का पानी बेहद ठंडा होता है, जबकि प्रह्लाद धारा में गुनगुना पानी होता है, जो नारायण पर्वत की चट्टानों से नीचे की ओर बहता है।
पंच शिला –
तप्त कुंड के आसपास नारद, नरसिंह, बराह, गरुड़ और मार्कंडेय (पत्थर) नामक पौराणिक महत्व के पांच शिलाएं हैं। तप्त और नारद कुंड के बीच में स्थित है, शंक्वाकार आकार की नारद शिला। कहा जाता है कि ऋषि नारद ने इस चट्टान पर कई वर्षों तक ध्यान किया था।
सरस्वती नदी –
माणा गाँव से 3 किमी उत्तर में एक ग्लेशियर से सरस्वती नदी निकलती है। सरस्वती को ज्ञान की देवी के रूप में जाना जाता है, जिन्होंने वेद व्यास को महाकाव्य महाभारत की रचना करने का आशीर्वाद दिया था । व्यास गुफ़ा को छूने के बाद नदी, केशव प्रयाग में अलकनंदा में खो जाती है। यहाँ से इलाहाबाद तक, सरस्वती नदी गुप्त मार्ग से बहती है। कहा जाता है कि इलाहाबाद में गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम पर, सरस्वती अदृश्य रहती है।
उत्तराखंड बागेश्वर के जगदीश कुनियाल की तारीफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने अपने साप्ताहिक कार्यक्रम मन की बात 2.0 में की। प्रधानमंत्री जी ने आज अपने कार्यक्रम में जल संरक्षण की उपयोगिता और जरूरत पर बात की । उन्होंने अपने कार्यक्रम की शुरुवात एक श्लोक से की –
अर्थात , माघ महीने में किसी भी पवित्र जलाशय में स्नान को पवित्र माना गया है। प्रधानमंत्री जी ने नदी जल आदि के बारे में बताते हुए, देश के कई भागों और लोगों की तारीफ की,जो जल संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। इसी क्रम में उन्होंने उत्तराखंड के बागेश्वर निवासी जगदीश कुनियाल जी का जिक्र भी किया। (जल संरक्षण )
प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने कहा , “साथियो, उत्तराखंड के बागेश्वर में रहने वाले जगदीश कुनियाल जी का काम भी बहुत कुछ सिखाता है। जगदीश जी का गाँव और आस-पास का क्षेत्र पानी की जरूरतों के लिये के एक प्राकृतिक स्रोत्र पर निर्भर था। लेकिन कई साल पहले ये स्त्रोत सूख गया।
इससे पूरे इलाके में पानी का संकट गहराता चला गया। जगदीश जी ने इस संकट का हल वृक्षारोपण से करने की ठानी। उन्होंने पूरे इलाके में गाँव के लोगों के साथ मिलकर हजारों पेड़ लगाए और आज उनके इलाके का सूख चुका वो जलस्त्रोत फिर से भर गया है।
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जगदीश कुनियाल और उनका जल संरक्षण –
उत्तराखंड ,बागेश्वर जिले के गरूड़ क्षेत्र के सिरकोट गांव के निवासी जगदीश कुनियाल जी के मन मे प्रकृति प्रेम बचपन से ही था। जब वो 18 वर्ष के थे , तब उन्होंने अपनी 800 नाली जमीन में चाय का बागान लगा दिया। और बाकी बची हुई अपनी जमीन में ,अलग अलग प्रकार के पेड़ लगा दिये।
आरम्भ में जगदीश जी की जमीन में, बहुत जल स्रोत थे। बंजर छूटने की वजह से,सारे जल स्रोत सूख गए। जैसे जैसे जगदीश कुनियाल जी के पेड़ बड़े होते गए , बंजर जमीन हरीभरी होती गई।
और इसका सीधा असर जल स्रोतों पर पड़ा , भूमि की पानी सोखने की क्षमता बड़ी, और भू जल श्रोत बड़े, और बंजर जमीन के सारे जल स्रोत पुर्नजीवित हो गए।
आज यहां साल भर पानी रहता है। इस पानी का उपयोग खेती आदि कार्यो के लिए किया जाता है।
कुनियाल जी पिछले 40 साल से पौधरोपण और जल संरक्षण के लिए काम कर रहे हैं। उन्होंने आज तक विभिन्न प्रजातियों के लगभग 25000 पेेेड़ लगा दिए ।
कुनियाल जी के अथक भगीरथ प्रयास से सूखे गधेरे को रिचार्ज कर दिया।
प्रसिद्ध पर्यावरण प्रेमी एवं सामाजिक कार्यकर्ता बसंत बल्लभ जोशी जी ने बताया कि, कुनियाल का पर्यवारण प्रेम अनूठा है। वह बिना किसी शोर शराबे पर्यावरण की रक्षा कर रहे हैं। दिखाओ से दूर रहकर उन्होंने प्रकृति की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया है। जो उत्तराखंड के अन्य लोगों के लिये एक आदर्श है।। (जल संरक्षण )
माननीय मुख्यमंत्री श्री त्रिवेंद्र रावत जी ने भी , कुनियाल जी की तारीफ की है। उन्होंने ट्विटर से ट्वीट किया है –
“जिद जब जुनून में बदल जाए तो उसके सार्थक परिणाम जरूर मिलते हैं। उत्तराखंड के जनपद बागेश्वर निवासी श्री जगदीश कुनियाल जी ने अपने भगीरथ प्रयासों से कई साल पहले सूख चुके स्थानीय गदेरे को पुनः रिचार्ज कर तमाम गांवों में न केवल पेयजल संकट बल्कि सिंचाई की समस्याओं को भी दूर किया है।”
निष्कर्ष –
इस साल फरवरी में उत्तराखंड का तापमान 28 डिग्री से 30 डिग्री चल रहा है। इसका मुख्य कारण पेड़ो का अनियंत्रित दोहन ही है। इसकी वजह से हमे असमान मौसम का सामना करना पड़ रहा है। (जल संरक्षण )
मित्रों कुनियाल जी इस संकट का समाधान ढूढ लिया था वृक्षारोपण और उन्होंने इसके दम पर , सूखे हुए जल स्रोत को जल से परिपूर्ण कर दिया। प्रकृति की हर समस्या का एक ही समाधान है, वृक्षारोपण।
इसलिए सभी मित्रों से निवेदन है कि, जगदीश जी को अपना प्रेरणा स्रोत मानकर अपने पर्यवारण की रक्षा में अपना सम्पूर्ण योगदान दें।
शनिवार 27 फरवरी 2021 उत्तराखंड की बेटियों के लिए शुभ दिन आया है। एक ओर नैनीताल की बेटियों को आज सरकार ने सम्मानित किया है, वही पिथौरागढ़ थल की बेटी श्वेता वर्मा का चयन भारतीय महिला क्रिकेट टीम में हुआ है। साउथ अफ्रीका के साथ 7 मार्च से शुरू हो रही एक दिवसीय पांच मैचों की श्रंखला के लिए ,भारतीय महिला क्रिकेट टीम में उत्तराखंड कि थल निवासी विकेटकीपर बल्लेबाज श्वेता वर्मा का चयन हुआ है।
Up की टीम से खेलने वाली श्वेता का चयन 2020 में India A टीम के लिए भी हुआ था। एकता बिष्ट , मानसी जोशी के बाद श्वेता उत्तराखंड की तीसरी महिला हैं, जिनका चयन राष्ट्रीय क्रिकेट टीम में हुआ है।
कौन है उत्तराखंड की श्वेता वर्मा –
टेलेंट संसाधनों का मोहताज नही होता, अपनी इच्छा शक्ति और जूनून के बल से टेलेंट खुद को साबित कर देता है। और इस बात को यथार्थ किया है, उत्तराखंड पिथौरागढ़ की बेटी श्वेता वर्मा ने। गरीब परिवार और विषम परिस्थितियों वाले पहाड़ में में पैदा हुई श्वेता वर्मा ने अपनी मंजिल हासिल कर ,पहाड़ की अन्य बेटियों के लिए एक उदाहरण पेश किया है।
थल कस्बे की श्वेता वर्मा ने प्राथमिक शिक्षा ,स्थानीय सरस्वती शिशु मंदिर से की । उनकी माता जी प्राथमिक विद्यालय में आंगन बाड़ी में कार्यरत हैं। परिवार के सदस्यों के साथ टेलीविजन पर क्रिकेट मैच देखते हुए , उनको इस खेल में ऐसी रूचि पैदा हुई कि, इसे अपना लक्ष्य बना लिया।
प्रारम्भिक शिक्षा पूरी होते ही उन्होंने अपने हाथ मे बल्ला थाम लिया था। उनकी साथ कि सहेलियों को इस खेल में कोई दिलचस्पी नहीं थी। गांव की खेल प्रतियोगिताओ में वो खेलने लगी, जब खेलने के लिए साथ मे लड़किया नही थी, तो वो लड़को के साथ खेलती थी।
बारहवीं परीक्षा पास करने के बाद तो उनको क्रिकेट की धुन सवार हो गई। आगे की शिक्षा के लिए वो अल्मोड़ा पहुँची। उन्होंने वहां अपना टेलेंट दिखाना शुरू कर दिया।
वहा के कोच लिकयात अली ने उनकी प्रतिभा को पहचाना, और 4 वर्ष तक उनको क्रिकेट का ज्ञान दिया,और बारीकियां सिखाई। इस दौरान उन्होंने कई क्रिकेट टूर्नामेंट खेले, फिर उनका चयन उत्तर प्रदेश की महिला टीम में हुआ। उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नही देखा।