Harela festival उत्तराखंड का एक प्रसिद्ध लोक पर्व है। हरेला पर्व प्रकृति को समर्पित लोकपर्व या त्यौहार है। उत्तराखंड का हरेला पर्व प्रतिवर्ष कर्क संक्रांति को मनाया जाता है। वर्ष 2024 में harela festival 16 जुलाई को मनाया जायेगा। यह पर्व मुख्यतः उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में अधिक मनाया जाता है। पुरे वर्ष भर कुमाऊं मंडल में तीन प्रकार के हरेले मनाये जाते हैं।
हरेला की शुभकामनाएं
लेकिन उत्तराखंड के चौमास यानि जुलाई में मनाये जाने वाले हरेला त्यौहार का विशेष महत्व होता है। इस दिन से पहाड़ियों ( पहाड़ के निवासियों ) सावन शुरू हो जाते हैं। हिमाचल ,नेपाल और उत्तराखंड के लोगों के सावन ठीक हरेले के दिन से लगते हैं। क्योंकि पहाड़ियों के पंचांग में माह संक्रांति से बदलते हैं । इसलिये पहाड़ियों के सावन हरेला के दिन से शुरू होते हैं।
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हरेला पर्व (Harela festival ) की दस दिन पूर्व हो जाती है शुरुआत -:
हरेला से दस दिन पहले घर के मंदिर के पास 7 प्रकार के मिक्स अनाज बो दिए जाते हैं । इन अनाजों की दस दिन तक देखभाल की जाती है। और दसवें दिन पंडितजी की उपस्थिति में इनको काट कर इनका पूजन किया जाता हैं। और यह कटा हुआ हरेला कुलदेवों को चढ़ाया जाता है। उसके बाद परिवार और रिश्तेदारों को प्रसाद के तौर पर बांटा जाता है। हरेला पर्व (Harela festival ) के दिन लोक पकवान बनते हैं। नवविवाहिता महिलाएं अपने मायके हरियाली लेकर जाती हैं।
हरेला पर्व की शुभकामनाएं फ़ोटो।
प्रकृति की रक्षा को समर्पित है हरेला पर्व –
हरेला त्यौहार प्रकृति की रक्षा को समर्पित लोक पर्व है। पहाड़ के लोग प्रकृति का आभार व्यक्त करने के लिए हरेला पर्व मनाते हैं। वृक्षारोपण पर जोर दिया जाता है। हरेला के दिन सरकार और विभिन्न सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएं वृक्षारोपण अभियान चलाती हैं।
हरेला की शुभकामनाएं भेजने के लिए Harela festival Image यहां download कर सकते हैं –
आजकल के चलन के अनुसार हरेला पर्व पर लोग हरेला की पत्तियों की शुभकामनाएं देने के साथ वर्चुवल शुभकामनाएं भी देते हैं। लोग एक दूसरे को photo भेजते हैं । Harela festival की Image download करने के लिए आप हमारी पोस्ट की सहायता ले सकते हैं। हरेला की हार्दिक शुभकामनाएं फ़ोटो के लिए यहाँ क्लिक करें। हरेला की हार्दिक शुभकामनाएं फ़ोटो के लिए यहाँ क्लिक करें।
डिकर का मतलब है पूजा के लिए मूर्ति या वनस्पतियों से बनाई गई दैवी मूर्तियां। इनका निर्माण मुख्यतः कुमाऊं मंडल में हरेला त्यौहार, और सातू-आठु, जन्माष्टमी पर किया जाता है। कुमाऊं के पुरोहित वर्गीय समाज में हरेले को शिव-पार्वती के विवाह का दिन माना जाता है। अतः इस दिन शिव परिवार के सभी सदस्यों के मिट्टी के डिकरे बनाकर उन्हें हरियाले के पूड़ों के बीच में स्थापितकरके उनका विधिवत पूजन किया जाता है। इसी प्रकारश्री कृष्ण जन्माष्टमी पर श्रीकृष्ण, गायें, गोवर्धन पर्वत आदि के डिकरे बनाकर पूजे जाते हैं।
कैसे बनाये जाते हैं हरेले के लिए डिकारे:-
हरेले के डिकारे बनाने के लिए ,चिकनी मिटटी, रुई और पानी के मिश्रण को कूट कूट कर उसे लचीला बना लिया जाता है। ततपश्चात बाद उसे मूर्ति के सांचे में रखकर, भगवान शिव, पार्वती गणेश और उनके परिवार की मूर्तियां बनाई जाती है। मूर्ति को छाया में सुखाया जाता है। जिन्हे चावल आदि के लेप लगाकर, लेप सूखने के बाद इनके हाथ और पैर बनाये जाते हैं। मूर्ति के शरीर पर रंग भरकर, बारीक़ सींक से आँख और कान बनाये जाते हैं।
बाद में वस्त्र आभूषणों के रंग भर दिया जाता है। इस तरह हरेला की पूर्व सांध्य पूजन के लिए इन मूर्तियों को डीकारे कहा जाता है। हरेले की पूर्व संध्या को, हरेला के बीच में रखकर इनकी भी पूजा की जाती है। इसे डिकार पूजा, या डिकरे की पूजा भी कहते हैं।
ऐसे ही भाद्रपद मास में अमुक्ताभरण सप्तमी एवं विरुड़ाष्टमी (सातूं-आठू) के अवसर पर कुमाऊं के पूर्वोत्तरी क्षेत्र, सोर-पिथौरागढ़ में महिलाएं व्रती रहकर साँवाधान्य अथवा मकई की हरी बालड़ियों और पत्तों को आपस में गूंथकर तथा सफेद वस्त्र से उनकीमुखाकृति आदि का निर्माण कर गौरा (पार्वती) तथा महेश्वर (शिव) के डिकरे बनाकर तथा शिव के dikre के साथ डमरू, त्रिशूल, चन्द्रमा आदि के प्रतीकों तथा वस्त्राभूषणों से सुसज्जित गौरा के की पूजा अर्चना करती हैं।
उत्तराखंड में रोजगार की आस में बैठे युवाओं के लिए ख़ुशख़बरी आई है। उत्तराखंड समूह ग 2023 (Uttarakhand group C vacancy 2023) की भर्तियों के क्रम में 10 जुलाई 2023 को उत्तराखंड लोक सेवा आयोग ने, उत्तराखण्ड रेशम विभाग के अंतर्गत सहकारिता पर्वेक्षक के लिए 2 पदों, और शहरी विकास विभाग उत्तराखंड के अंतर्गत विभिन्न निकायों /निगमों में पर्यावरण पर्वेक्षक के 53 पदों के लिए आवेदन आमंत्रित कियें हैं। इसके इच्छुक अभ्यर्थी 10 जुलाई 2023 से 31 जुलाई 2023 तक ऑनलाइन आवेदन भर सकते हैं।
उत्तराखंड समूह ग 2023 सहकारिता पर्वेक्षक और पर्यावरण पर्वेक्षक से संबंधित प्रमुख तिथियां-
विज्ञापन प्रकाशित होने की तिथि – 10 जुलाई 2023
ऑनलाइन आवेदन शुरू होने की तिथि – 10 जुलाई 2023
ऑनलाइन आवेदन की अंतिम तिथि – 31 जुलाई 2023
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अनिवार्य शैक्षणिक योग्यता-
अभ्यर्थियों को 12वी विज्ञान वर्ग से पास होना चाहिए।
सहकारिता पर्वेक्षक और पर्यावरण पर्वेक्षक के लिए आवश्यक आयु सीमा :- उत्तराखंड समूह ग 2023 भर्ती सहकारिता पर्वेक्षक और शहरी विकास में पर्यावरण पर्वेक्षक पदों के लिए आयु गणना तिथि 01 जुलाई 2023 है। इन पदों के लिए न्यूनतम आयु 18 वर्ष और अधिकतम आयु 42 वर्ष निश्चित की गई है।
उत्तराखंड समूह ग 2023 भर्ती सहकारिता पर्यवेक्षक / पर्यावरण पर्यवेक्षक पद पर चयन हेतु परीक्षा योजना –
उपरोक्त पदों में चयन के लिए 100 नंबर की वस्तुनिष्ठ प्रकार की 2 घंटे की लिखित परीक्षा होगी । जिसमें 25 नंबर के सामान्य अध्ययन व सामान्य ज्ञान के सवाल पूछे जाएंगे। और 75 नंबर के विषयपरक सवाल पूछे जाएंगे।
Uttarakhand samuh g bharti 2023 में उपरोक्त पदों में भौतिक, रसायन और जीव विज्ञान सम्मलित हैं । मतलब परीक्षा में 75 % सवाल विषय से पूछे जाएंगे। उपरोक्त परीक्षा में ऋणात्मक मूल्यांकन (Negative marking) पद्धति अपनाई जायेगी। अभ्यर्थी द्वारा प्रत्येक प्रश्न के लिए दिये गये गलत उत्तर के लिए या अभ्यर्थी द्वारा एक ही प्रश्न के एक से अधिक उत्तर देने के लिए (चाहे दिये गये उत्तर में से एक सही ही क्यों न हो), उस प्रश्न के लिए निर्धारित अंकों का एक चौथाई (1 / 4) दण्ड के रूप में काटा जायेगा।
पिछले 4 दिन से समस्त भारत मे बारिश ने कहर बरपा रखा है। उत्तर भारत मे इसका सबसे ज्यादा असर हिमाचल में देखने को मिल रहा है। हिमाचल में जल प्रलय की स्थिति बनी हुई है। यहां के सभी जिलों में बारिश ने अपना कहर बरपा रखा है। और पड़ोसी राज्य उत्तराखंड में भी लगातार बारिश चल रही है। प्रशाशन ने 12 जुलाई तक का अलर्ट घोषित किया हुवा है।
वही हिमाचल की इस जल प्रलय के बीच हिमाचल का एक वीडियो तेजी से वायरल हो रहा है। इस वीडियो एक प्राचीन मंदिर भीषण बाढ़ के बीच अडिग खड़ा है। प्राप्त जानकारी के अनुसार यह मंदिर मंडी जिले का ऐतिहासिक पंचवक्त्र महादेव मंदिर का है। जो इस जल प्रलय के बीच में नजर आ रहा है। और व्यास नदी के रौद्र रूप से टक्कर ले रहा है।
जहां आधुनिक तकनीक से बने पुल ,भवन इस भीषण बाढ़ में आगे तिनके की तरह बह रहे हैं । और 150 साल पुराना यह मंदिर अडिग खड़ा है। कई लोगों का मानना है कि यह महादेव का चमत्कार है। केदारनाथ आपदा में भी यही स्थिति बनी थी। केदारनाथ मंदिर के सामने एक बड़ा पत्थर आकर रुक गया और प्रलय की जलधारा इधर – उधर बट गई थी।
हिमाचल के मंडी का प्रसिद्ध ऐतिहासिक पंचवक्त्र मंदिर 300 साल से ज्यादा पुराना है । इस मंदिर को उस समय के राजा सिद्ध सेन ने बनवाया था । इस मंदिर में महादेव की पंचमुखी प्रतिमा के कारण इसका नाम पंचवक्त्र महादेव मंदिर रखा गया है। इसमे सामने से तीन मुख दिखते हैं। यह मंदिर गुमनाम मूर्तिकार की कला का अदभुत नमूना है। मंडी ही नहीं बल्कि पूरे हिमाचल प्रदेश में यह मंदिर बहुत प्रसिद्ध है ।दूर-दूर से लोग इस मंदिर में दर्शन के लिए आते हैं।
उत्तराखंड प्राचीनकाल से अपनी परम्पराओं द्वारा प्रकृति प्रेम और प्रकृति के प्रति अपनी जिम्मेदारी और प्रकृति की रक्षा की सद्भावना को दर्शाता आया है। इसीलिये उत्तराखंड को देवभूमी और प्रकृति प्रदेश भी कहते हैं। प्रकृति को समर्पित उत्तराखंड का लोक पर्व हरेला प्रत्येक वर्ष कर्क संक्रांति श्रावण मास के पहले दिन मनाया जाता है। कैलेंडर के अनुसार 2024 में हरेला त्योहार 16 जुलाई को मनाया जाएगा। हरेला त्योहार के ठीक 10 दिन पहले यानी 07 जुलाई 2024 के दिन हरेला बोया जाएगा। कई लोग 11 दिन का हरेला बोते हैं इसलिए 11 दिन के हिसाब से 6 जुलाई को बोया जायेगा। उत्तराखंड की राज्य सरकार ने 16 जुलाई 202 4 को हरेला पर्व का सार्वजनिक अवकाश घोषित किया है।
उत्तराखंड का यह पर्व प्रकृति प्रेम के साथ कृषि विज्ञान को भी समर्पित है। इस त्यौहार में मिश्रित अनाज को उगाया जाता है। मकर संक्रांति से सूर्य उत्तरायण हो जाने के बाद दिन बढ़ने लगते हैं। वैसे ही कर्क संक्रांति से सूर्य भगवान दक्षिणायन हो जाते हैं।और कहा जाता है कि इस दिन से दिन रत्ती भर घटने लगते है।
हरेला पर्व कैसे मानते हैं
इसे बोने के लिए हरेला त्यौहार से लगभग 12-15 दिन पहले से तैयारी शुरू हो जाती है। शुभ दिन देख कर घर के पास शुद्ध स्थान से मिट्टी निकाल कर सुखाकर,छान कर रख लेते हैं। हरेले में 7 या 5 प्रकार का अनाज का मिश्रण करके बोया जाता है। हरेला के10 दिन पहले देवस्थानम में लकड़ी की पट्टी में छनि हुई मिट्टी को लगाकर, उसमे 7 या 5 प्रकार का मिश्रित अनाज बो देते हैं।
इनमे दो या तीन दिन बाद अंकुरण शुरू हो जाता है। सामान्यतः हरेले की देख रेख की जिम्मेदारी घर की मातृशक्ति की होती है। घर परिवार में जातकाशौच या मृतकाशौच होने की स्थिति में इसको बोने से लेकर देखभाल तक का कार्यभार घर की कुवारी कन्याओं पर आ जाता है।
हरेला में ये अनाज बोये जाते हैं –
इसमे में धान,मक्की, उड़द, गहत, तिल और भट्ट आदि को मिश्रित करके बो देते है। इन अनाजों को बोने के पीछे संभवतः मूल उदेश्य यह देखना होगा की इस वर्ष इन धान्यों की अंकुरण की स्थिति कैसी रहेगी। इसे मंदिर के कोने में सूर्य की किरणों से बचा के रखा जाता है।
हरेला बोते समय ध्यान देने योग्य बातें –
मिश्रित अनाज के बीज सड़े न हो।
हरेले को उजाले में नही बोते, हरेले को सूर्य की रोशनी से बचाया जाता है।
प्रतिदिन सिंचाई संतुलित और आराम से किया जाती है। ताकि फसल सड़े ना और पट्टे की मिट्टी बहे ना।
हरेले की देख रेख –
हरेला पर्व की पूर्व संध्या को हरेले की गुड़ाई निराई की जाती है। बांस की तीलियों से इसकी निराई गुड़ाई की जाती है। हरेला के पुटों को कलावा धागे से बांध दिया जाता है। गन्धाक्षत चढ़ाकर उसका नीराजन किया जाता है। इसके अलावा कुमाऊं क्षेत्र में कई स्थानों में हरेले के अवसर पर डिकरे बनाये जाते हैं। चिकनी मिट्टी में रुई लगाकर शिव पार्वती ,गणेश भगवान के डीकरे बनाते हैं। डिकारे को हरेले के बीच मे उनकी पूजा करते हैं। मौसमी फलों का चढ़ावा भी चड़ाया जाता है। इस दिन छउवा या चीले बनाये जाते है। वर्तमान में यह परम्परा कम हो गयी है।
पूजन व त्यौहार की प्रमुख परम्पराएं
हरेला पर्व के दिन पंडित जी देवस्थानम में हरेले की प्राणप्रतिष्ठा करते हैं। इस पर्व पर पकवान बनाये जाते हैं। पहाड़ों में किसी भी शुभ कार्य या त्योहार पर उड़द की पकोड़ी बनानां जरूरी होता है। हरेले के दिन प्रकृति की रक्षा के प्रण के साथ पौधे लगाते हैं। कटे हुए हरेले में से दो पुड़ी या कुछ भाग छत के शीर्षतम बिंदु जिसे धुरी कहते है, वहा रख दिया जाता है। इसके बाद कुल देवताओं और गाव के सभी मंदिरों में चढ़ता है। साथ साथ मे घर मे छोटो को बड़े लोग हरेले की शुभकामनाओं के साथ हरेला लगाते हैं। गाव में या रिश्तेदारी में नवजात बच्चों को विशेष करके हरेला का त्योहार भेजा जाता है।
यहाँ शौका जनजातीय ग्रामीण क्षेत्रों में हरियाली की पाती ( एक खास वनस्पति ) का टहनी के साथ प्रतीकात्मक विवाह भी रचाया जाता है। अल्मोड़ा के कुछ क्षेत्रों में नवविवाहित जोड़े लड़की के मायके फल सब्जियाँ लेकर जाते हैं, जिसे ओग देने की परंपरा कहते हैं। नवविवाहित कन्या का प्रथम हरेला मिलकर मायके में मनाना आवश्यक माना जाता है। जो कन्या किसी कारणवश अपने मायके नही जा सकती उसके लिए ससुराल में ही हरेला और दक्षिणा भेजी जाती है। गोरखनाथ जी के मठों में रोट चढ़ाए जाते हैं। गांवों में बैसि बाइस दिन की साधना जागर इसी दिन से शुरू होती है।
हरेला पर्व कुमाऊं क्षेत्र में प्रमुखता से मनाया जाता है। गढ़वाल मंडल में यह पर्व एक कृषि पर्व के रूप में मनाया जाता है। गढवाली परम्परा में कुल देवता के मंदिर के सामने जौ उगाई जाती है। इसे बोने का कार्य केवल पुरुष करते हैं। और वो जिनका यज्ञोपवीत हो चुका होता है। चमोली में यह त्यौहार हरियाली देवी की पूजा के निमित्त मनाया जाता है। देवी के प्रांगण में जौ उगाई जाती है। पूजन के बाद सब स्वयं धारण करते हैं।
हरेला पर्व पर गीत –
हरेला पर्व के दिन एक दूसरे शुभकामनायें देते हैं। हरेले की शुभकामनाएं देने के लिए ये गीत गाते हैं-
जी रये, जागी राये।
यो दिन बार भेटने राये।
स्याव जस बुद्धि है जो।
बल्द जस तराण हैं जो।
दुब जस पनपने राये।
कफुवे जस धात हैं जो।
पाणी वाई पतौउ हैं जे।
लव्हैट जस चमोड़ हैं जे।
ये दिन यो बार भेंटने राये।
जी रये जागी राये।
हरेले पर बुजुर्ग बच्चो कोआशीर्वाद देते हैं। हरेला उत्तराखंड का प्रमुख लोकपर्व है। यह उत्तराखंड के प्रसिद्ध लोक पर्वों में से एक है। हरेला त्यौहार प्रकृति से प्रेम एवं आपसी प्रेम का प्रतीक त्यौहार है।
हरेला पर्व पर वृक्षारोपण
इस त्यौहार पर वृक्षारोपण को विशेष महत्व दिया जाता है। हरेला पर्व पर लगाया गया पौधा जल्दी जड़ पकड़ लेता है। मूलतः यह पर्यावरण के प्रति जागरूक उत्तराखण्डी जनता का वृक्षारोपण के द्वारा वनस्पति की रक्षा और विकास अन्यतम लक्ष्य रहा होगा। जिसे एक मान्य त्यौहार का रूप दे दिया गया होगा। हरेले के दिन पूरे प्रदेश में वृक्षारोपण का कार्यक्रम चलाया जाता है। सरकार और जनता इसमे खुल कर भागीदारी करती हैं।
कानाताल भारत के उत्तराखंड राज्य में स्थित एक छोटा और सुन्दर हिल स्टेशन है। उत्तराखंड के टिहरी जिले में स्थित यह हिल स्टेशन, पवित्र शहर ऋषिकेश के पास स्थित है। समुद्र तल से 8500 फीट की ऊंचाई पर स्थित यह हिल स्टेशन,सुन्दर व शान्त हिमालय के पहाड़ों से घिरा हुवा है। दरसल यह एक सुन्दर गांव है। यह शांत हिल स्टेशन मसूरी – चम्बा हाईवे पर स्थित है। यह स्थान मसूरी से 38 किलोमीटर व चम्बा (टिहरी) से 12 किलोमीटर दूर है।
वर्तमान में यह शांत हिल स्टेशन काफी प्रसिद्ध हो रहा है। कानाताल दिल्ली से लगभग 300 किलोमीटर दूर है। और देहरादून से लगभग 78 किमी दूर है। इसका नाम कानाताल एक झील के नाम पर पड़ा, लेकिन अब यह ताल सूख चुका है। कानाताल का मतलब होता है, “एक आंख वाली झील या ताल”। यह हिल स्टेशन शहर की व्यस्त जिन्दगी से दूर एक शांत डेस्टिनेशन के रूप में प्रसिद्ध है। यह स्थान कभी गढ़वाल समराज्य का अभिन्न हिस्सा था? अब यह एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल है।
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कानाताल उत्तराखंड में करने लायक गतिविधियां –
कानाताल में करने के लिए कई चीजें है। जिनमे ट्रैकिंग, पैराग्लाइडिंग, रैम्पलिंग, कैपिंग, वैली क्रोसिंग और दर्शनीय स्थल शामिल हैं।
ट्रैकिंग– यहां करने के लिए सबसे लोकप्रिय गतिविधियों में से एक है। यहां बहुत सारे रास्ते हैं जो हरे-भरे जंगलो, बर्फ से ढके पहाड़ो से होकर गुजरते हैं।
पैराग्लाइडिंग– पैराग्लाइडिंग भी एक लोकप्रिय गतिविधि है। इस गतिविधी से आप यहाँ के आकाश मार्ग से रमणीक दृश्यों का आन्नद ले सकते हैं। तथा साहसिक खेल का आन्नद भी ले सकते हैं।
रैपेलिंग– यह भी एक प्रकार की साहसिक गतिविधि है, जिसमे रस्सी की साहायता से चट्टानों का भ्रमण किया जाता है। कानाताल में इस प्रकार की साहसिक गतिविधियों के लिए काफी विकल्प हैं।
कैम्पिंग– इस गतिविधि के लिए यह स्थान काफी प्रसिद्ध है। या यूं कहें कि कैम्पिंग की गतिविधियों के लिए यह क्षेत्र एक आदर्श स्थान है।
जीप सफारी- जीप सफारी की गतिविधियां कानाताल के क्षेत्र में कियान्वित की जाती हैं।
वैली क्रोसिंग- यह क्षेत्र वैली क्रोसिंग की साहसिक गतिविधियों के लिए बहुत प्रसिद्ध है। इस गतिविधि में घाटी के एक कोने से दूसरे कोने तक रस्सियों की मजबूत पटरी सी बना कर , कुशल प्रशिक्षक के देख रेख में ,सुरक्षा संसाधनों का प्रयोग करते हुए पैदल या साइकिल से पार करते हैं।
इनके अतिरिक्त आप कानाताल के दर्शनीय स्थलों का आन्नद ले सकते सकते हैं।यहाँ के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में टिहरी डैम, सुरकंडा देवी, कौड़िया जंगल कैम्पटी फॉल आदी हैं।
कानाताल क्यों प्रसिद्ध है-
पिछले कुछ समय में कानाताल काफी प्रसिद्ध हो गया है। कानाताल में वह सबकुछ है, जो एक आदर्श हिल स्टेशन में होना चाहिए। कानाताल प्राकृतिक मनोरम दृश्यों, अपने शांत वातावरण और साहसिक गतिविधियों के लिए प्रसिद्ध है।
कानाताल में घूमने लायक स्थान-
उत्तराखंड के सबसे बेस्ट हिल स्टेशनों में एक माने जाने वाले , कानाताल में घूमने लायक स्थान निम्न हैं ,जहाँ आप प्रकृति के आँचल में अभूतपूर्व शांति का अहसास कर सकते हो।
1- सुरकंडा देवी मंन्दिर-
कानाताल से लगभग 10 किलोमीटर दूर एक प्रसिद्ध धार्मिक स्थान है ,सुरकंडा देवी मंदिर। सुरकंडा देवी मंदिर एक हिंदू मंदिर है जो भारत के उत्तराखंड राज्य के टेहरी गढ़वाल जिले में स्थित है। यह समुद्र तल से लगभग 2,750 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और इस क्षेत्र के सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक स्थलों में से एक है।
जब देवी सती ने आत्मदाह कर दिया ,तब भगवान भोलेनाथ माता सती के वियोग में माता सती के शरीर को लेकर भटकने लगे। तब भगवान विष्णु नेभोलेनाथ के दुःख को समाप्त करने के लिए, अपने सुदर्शन चक्र से माता सती के शरीर को 51 भागों में विभक्त कर दिया। माता सती के शरीर के भाग जहां जहाँ गिरे,कालांतर में वह स्थान देवी माँ के शक्तिपीठों के रूप में पूजित हुए। चूँकि सुरकूट नामक पर्वत पर माता सती का सिर गिरा। इसलिए यह स्थान सरकंडा और कालांतर में सुरकंडा देवी के नाम से प्रसिद्ध हुवा।
ऐसा माना जाता है कि यह मंदिर 500 वर्ष से अधिक पुराना है और यह देवी दुर्गा के भक्तों के लिए सबसे पवित्र तीर्थ स्थानों में से एक है। ऐसा माना जाता है कि सुरकंडा देवी मंदिर की यात्रा से भक्तों के सभी पापों को धोने में मदद मिल सकती है। यह भी माना जाता है कि देवी उन भक्तों की मनोकामनाएं पूरी करती हैं जो आस्था और भक्ति के साथ मंदिर में आते हैं। यह मंदिर एक पहाड़ी के ऊपर स्थित है और घने जंगलों और हरी घास के मैदानों से घिरा हुआ है। यह मंदिर अन्य देवी-देवताओं को समर्पित कई मंदिरों और तीर्थस्थलों से भी घिरा हुआ है।
पहाड़ी की चोटी पर एक छोटा तालाब स्थित है और ऐसा माना जाता है कि तालाब में डुबकी लगाने से भक्तों के पाप धुल जाते हैं। यह मंदिर दुर्गा के भक्तों के लिए एक लोकप्रिय तीर्थ स्थल है और हर साल हजारों तीर्थयात्री इस मंदिर में आते हैं। इस मंदिर में कई पर्यटक भी आते हैं जो क्षेत्र की सुंदरता का पता लगाने के लिए आते हैं। यह मंदिर पूरे वर्ष खुला रहता है और कई भक्त यहां होने वाले धार्मिक समारोहों और अनुष्ठानों में भाग लेते हैं।
2 – टिहरी डैम –
दुनिया के सबसे ऊँचे बांधों में शुमार उत्तराखंड का टिहरी डैम कानाताल के पास घूमने लायक सर्वश्रेष्ठ जगहों में से एक है। हिमालयी वादियों के बीच बना यह बांध अभूतपूर्व है। यहाँ हिमालयी वादियों के बीच विशाल डैम में वोटिंग और प्राकृतिक दृश्यों का अहसास अपने आप में निराला होगा। इसके अलावा टिहरी डैम को मिनी मालदीव भी कहते हैं। यहाँ आप फ्लोटिंग हट्स में समय बिताने का रोमांचित अनुभव ले सकते हैं। मालदीव से कई गुना कम पैसे में आप मालदीव जैसा आनंद यहाँ ले सकते हैं।
2- कौडिया जंगल –
कानाताल उत्तराखंड में घूमने और मनोरंजन करने के लिए एक से बढ़कर एक जगह हैं। लेकिन कौडिया जंगल ( Kaudia forest ) इन सब में सबसे बेस्ट है। कौडिया फारेस्ट कानाताल पिकनिक,विभिन्न प्रजातियों के पक्षियों के दर्शन ,प्रकृति की अप्रतीम छटां को अपने कैमरे में कैद करने के लिए व् लम्बी यात्रा के लिए प्रसिद्ध है। जब आप हरे भरे जंगल के बीच कल – कल करते झरनो और पेड़ों के बीच मधुर कलरव करते विभिन्न पक्षियों के मध्य जाते हैं या वहां लम्बी पैदल यात्रा करते हैं ,तो एक अभूतपूर्व शांति और सुकून का अहसास होता है।
आप कानाताल से कौडिया फारेस्ट तक पूर्व अनुमति लेकर जीप सफारी का प्रयोग भी कर सकते हैं। इसे एक बेहतरीन पिकनिक स्थल माना जाता है। यहाँ अंदर अपने साथ खाने -पीने की वास्तु साथ ले जाए ,ताकि लम्बे पदचालन से भूख लगे तो कुछ खा लिया जाय। लेकिन साफ सफाई का भी ध्यान रखे अनावश्यक कचड़ा ( रैपर ,प्लास्टिक ) आदि वहां छोड़े।
3- धनोल्टी –
कानाताल में एक रमणीक हिल स्टेशन और है, जिसका नाम है धनौल्टी। धनौल्टी में पर्याप्त मात्रा में घास के मैदान, ऊँचे पेड़ हिमालयी पर्वत श्रेणियों के सूंदर दृश्य और हरियाली से भरे सुन्दर रस्ते हैं। धनोल्टी की यही सब विशेषताएं इसे कानाताल में घूमने के लिए बेस्ट हिल स्टेशन बनाते हैं। उत्तराखंड के देहरादून, हरिद्वार, ऋषिकेश जैसे बड़े शहरो के नजदीक होने के कारण यह स्थान वीकेंड मानाने के लिए सर्वथा उपयुक्त है।
सर्दियों में इस स्थान को बर्फ की चादर अपने आगोश में लपेट लेती है। पेड़ो के पत्तों से जो बर्फ के टुकड़े छोटी मात्रा में गिरते हैं, वे बड़े ही रमणीक लगते हैं। गर्मियों में धनोल्टी में अल्पाइन, ओक, हरे भरे देवदार के पेड़ आकर्षण का केंद्र है। इसके अलावा धनोल्टी इको पार्क, घूमने फिरने व आनंद मानाने के लिए बेहतरीन विकल्प है।
कानाताल कैसे जाएँ –
कानाताल उत्तराखंड के टिहरी जिले में स्थित है। यह उत्तराखंड के बड़े शहरो देहरादून, ऋषिकेश आदि से यातायात के हवाई तथा सड़क मार्ग से जुड़ा है। कानाताल का नजदीकी हवाई अड्डा जौलीग्रांट और नजदीकी रेलवे स्टेशन देहरादून है।
हवाई मार्ग से –
जॉली ग्रांट हवाई अड्डा कनाटल का निकटतम हवाई अड्डा है, जो अच्छी पक्की सड़कों के साथ कनताल से 92 किमी दूर स्थित है और इसे 3 घंटे के भीतर आसानी से कवर किया जा सकता है। जॉली ग्रांट हवाई अड्डे से कनाताल तक टैक्सियाँ आसानी से उपलब्ध हैं। जॉली ग्रांट हवाई अड्डा दैनिक उड़ानों के माध्यम से दिल्ली से अच्छी तरह जुड़ा हुआ है।
रेल मार्ग द्वारा –
कानाताल से जुड़े दो निकटतम रेलवे स्टेशन देहरादून और ऋषिकेश हैं। देहरादून कनाताल से 85 किमी दूर स्थित है और ऋषिकेश से कनाताल की दूरी 75k एमएस है।इन दोनों गंतव्यों से कनाटल के लिए टैक्सियाँ और बसें उपलब्ध हैं। कनाटल इन दोनों गंतव्यों से मोटर योग्य सड़कों द्वारा अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। देहरादून और ऋषिकेश भारत के प्रमुख स्थलों के साथ रेलवे नेटवर्क द्वारा अच्छी तरह से जुड़े हुए हैं।
सड़क मार्ग द्वार –
कानाताल मसूरी-चंबा रोड पर स्थित मोटर योग्य सड़कों से अच्छी तरह जुड़ा हुआ है आईएसबीटी कश्मीरी गेट से मसूरी, ऋषिकेश और चंबा के लिए लक्जरी और सामान्य बसें आसानी से उपलब्ध हैं। कनाताल के लिए बसें और टैक्सियाँ उत्तराखंड राज्य के प्रमुख स्थलों जैसे देहरादून, ऋषिकेश, हरिद्वार और टेहरी, चंबा और मसूरी आदि से आसानी से उपलब्ध हैं।
मित्रों उत्तराखंड में वर्तमान में यातायात काफी सुगम हो गया है। उत्तराखंड भारत के टॉप प्राकृतिक सुंदरता वाले राज्यों में से एक है। उत्तराखंड में परिवहन के अनेक साधन हैं। लेकिन इन सब में सबसे सुविधाजनक और सामान्य बजट में पूर्ण होने वाला यातायात का साधन उत्तराखंड परिवहन निगम की बस सेवा है। उत्तराखंड में टूरिस्ट डेस्टिनेशन अधिक होने के कारण और यहाँ के अधिकतर प्रवासी मैदानी क्षेत्रों में रहने के कारण यहाँ की बसों में भीड़ अच्छी रहती है। ऐसी स्थिति में हम आपको सुझाव देंगे कि यदि आप कम बजट और सुविधाजनक यात्रा के लिए उत्तराखंड रोडवेज से यात्रा करें। और सीट की स्थिति और भीड़ से बचने के लिए उत्तराखंड रोडवेज में ऑनलाइन टिकट कर लें।
आज अपने इस लेख में हम आपको बताएंगे कि उत्तराखंड रोडवेज में टिकट ऑनलाइन कैसे बुक करते हैं ? और उत्तराखंड रोडवेज से जुड़े कुछ आम सवालों का समाधान करने की कोशिश करेंगे। हालाँकि आजकल की नवीन पीढ़ी ने इस कार्य में महारथ हासिल की है। यह लेख उन बुजुर्गों या बड़ों के लिए लाभदायक होगा, जो आज तक उत्तराखंड रोडवेज में ऑनलाइन टिकट बुक करना नहीं जानते या इससे पूर्णतया अभिनज्ञ हैं।
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उत्तराखंड रोडवेज में ऑनलाइन टिकट कैसे बुक करे
उत्तराखंड रोडवेज बुकिंग ऑनलाइन करने के लिए अब आपको कोई अकॉउंट बनाने के आवश्यकता नहीं है। अब केवल अपने मोबाइल पर OTP मंगाकर उत्तराखंड बस में ऑनलाइन टिकट आसानी से बुक करा सकते हो। उत्तराखंड रोडवेज बुकिंग ऑनलाइन करने के लिए निम्न स्टेप का प्रयोग करें –
Search & Book के निचे दिए गए कॉलम में उस स्टेशन का नाम भरें जहाँ से यात्रा शुरू कर रहें है। फिर जहा तक जाना हैं उस स्टेशन काकर नाम भरें। स्टेशन का नाम इंग्लिश में हि भरें। इंग्लिश के कुछ शब्द डालने पर ,वेबसाइट स्टेशन का नाम ऑटोमैटिक उठा लेती है। जैसे – देहरादून के लिए DDN भरेंगे तो नाम अपने आप उठा लेगा।
अगले कॉलम में यात्रा की तारीख भरें। फिर सर्च पर क्लिक दें।
आपको आर्डिनरी बस सेवा या ac बस सेवा या वॉल्वो जो सेवा लेनी है उसके book now पर क्लिक करें। वहां प्रतिव्यक्ति टिकट का रेट भी लिखा होता है। बस सेवा में क्लिक करने के बाद सीट की स्थिति दिख जाती है। जिसमे रंगीन वाली बुक हो गई होती है,सादी वाली खाली होती हैं।
इसके बाद यात्रियों का नाम उम्र व लिंग भरकर हरे बटन proceed पर क्लिक कर दीजिये।
अब आता है अंतिम चरण! जिसमे आपको bus booking confirm & verify करनी है। दिए गए कॉलम में मोबाइल नंबर भरे। उसके नीचे दिए गए ईमेल id वाला कॉलम वैकल्पिक (optional) है।
इसके बाद एक और विंडो खुलेगी जिसमे नाम, OTP और कैप्चा भरने होंगे। OTP आपके मोबाइल नंबर डालते ही आपके मोबाइल के टेक्स्ट msg में आ जाएगी। उसके बाद नाम और कैप्चा भर कर आप विंडो में अगली प्रवेश कर जाओगे।
इसके बाद जो विंडो खुलेगी उसमे आपके टिकट का टोटल दिया होगा और उसके साथ ऑनलाइन पेमेंट के विकल्प भी दिए होंगे। जैसे UPI ,paytm आदि।
पेमेंट करते ही आपका टिकट बु क हो जायेगा और आपके मोबाइल पर bus booking का PNR का सन्देश आ जायेगा। यदि आपने ईमेल id डाली होगी तो आपके पास मेल में टिकट का pdf भी आ जायेगा। नहीं तो आप वही पर Download ticket पर क्लिक कर टिकट डाउनलोड कर सकते हैं।
इसके अलावा आप UTC online पोर्टल पर लॉगिन करके भी टिकट बना सकते हो। लेकिन OTP वाला तरीका ज्यादा आसान है।
तो इस प्रकार आपका उत्तराखंड रोडवेज में अपना टिकट ऑनलाइन बुक कर सकते हैं. यदि आपको उत्तराखंड रोडवेज बुकिंग ऑनलाइन करनी हो तो आप Uttarakhand Roadways bus booking Gide की सहायता से उत्तराखंड की रोडवेज़ बस का टिकट बुक कर सकते हैं।
“उत्तराखंड में एक से बढ़कर एक वीर भड़ो ने समय -समय पर जन्म लेकर इस पवित्र देवभूमि को गौरवान्वित किया है। इन्ही महान वीर भड़ो में से वीर भड़ गढू सुम्याल की वीर गाथा का संकलन कर रहें हैं। यह लोकगाथा प्रेम ,त्याग ,वीरता ,साहस और षङयन्त्र से युक्त है। गढ़वाल में गढू सुम्याल के पवाड़े गाये जाते हैं। पवाड़े गढ़वाल मंडल में किसी वीर योद्धा अथवा देवता के जीवन से जुड़ी अलौकिक और अद्भुद पराक्रम से सम्बंधित गाथा गीतों को पवाड़े कहा जाता है।”
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वीर भड़ गढ़ू सुम्याल की वीर गाथा
उत्तराखंड के वीर भड़ गढू सुम्याल का जन्म लगभग सन् 1365 ई० में तत्कालीन गढ़वाल – राज्य की दक्षिण-पूर्वी सीमा पर स्थित ” तल्लि खिमसरि हाट” में हुवा था। इनके पिता का नाम श्री ऊदी सुमयाल और माता का नाम श्रीमती कुंजावती देवी था। गढू सुम्याल के जन्म से कुछ माह पहले इनके पिता श्री ऊदी सुमयाल का निधन हो गया था ।
इनके खिमसरि हाट के पास ‘रुद्रपुर’ नामक स्थान के मलिक रुदी सुम्याल गढू सुम्याल के पिता ऊदी सुम्याल के चचेरे भाई थे।रूदी सुम्याल, ऊदी सुम्याल से मन ही बैर रखते थे। एक बार की बात है, माल की दून क्षेत्र के लोगों ने बहुत समय से कर नही दिया था। कर उगाही के लिए दोनो भाई रुदी सुम्याल और ऊदी सुम्याल माल की दून गए।
उन्होंने वीरता का प्रदर्शन करते हुए माल की दून में कर उगाही की । बहुत सारी खाद्य सामग्री, धनराशी लगान के रूपमें प्राप्त की। माल की दून की विजय के बाद जब सारा सामान लेकर नौकर-चाकरों के साथ दोनो भाई वापस आ रहे थे, तो बड़े भाई रूदी सुम्याल के मन में पाप आ गया।
उसने चालाकी दिखाते हुए सारा राशन, पैसा, नौकर सब अपने गाँव भिजवा दी । जब एक पुरानी पनचक्की के पास ऊदी भोजन करके विश्राम कर रहे थे, तब रूदी सुम्याल ने मौका पाकर, धोके से चक्की के पत्थर से ऊदी सुम्याल की हत्या कर दी। और तल्ली खिमसार हाट जाकर उसने यह बात फैला दी कि, उदी सुम्याल ‘माल युद्ध में मारा गया है। यह खबर सुनते ही उदी की माता व पत्नी शोक-बिह्वल हो गई। किन्तु उसी समय कुंजावती देवी गर्भवती थी! भावी सन्तान को जीवन देने के इरादें से उन्होंने जीने की ठानी।
अब स्थिती यह थी कि रुदी सुम्याल के पास अन्न, धन की कोठरियां भरी हुई थी। गाय-भैसों के गुठयार भरे थे। और ऊदी सुम्याल की नौ खम्ब की तिबरी में मक्खियां भिन – भिना रही थी। खाने को अन्न नही था। उनके परिवार की दयनीय हालत हो रही थी। ऐसी परिस्थितियों में गढ़ू सुम्याल का जन्म हुवा । गढ़ू सुम्याल में बचपन से ही भड़ो वाले गुण थे। सुडौल शरीर का स्वामी गड़ू दिखने में चाँद की तरह सुन्दर था । और गजब का साहस और तेजी थी उसमे। माँ कुंजावती ने भी उसे शास्त्र चालन की शिक्षा और वीरगाथाएं सुनाकर और मजबूत बना दिया था।
एक दिन गढ़ू सुम्याल खेलते-खेलते जंगल में चले गए। वहा उनका सामना बाघ से हुवा। इन्होंने बाघ की दोनो भुजाएं पकड़ कर उसके नाक मे नकेल डाल कर माँ के सामने ले आए। फिर माँ के कहने पर उस बाघ को छोड़ दिया। इस प्रकार वीर भड़ गढू की वीरता का यशोगान दिन प्रतिदिन चारों ओर फैल रहा था। एक बार तल्ली खिमसारी हाट में भयंकर अकाल पड़ गया। इनकी दादी का निधन हो गया और इनके खाने-पीने के बुरे हाल हो गए। एक दिन इनकी माता ने कहा, जाओ अपने ताऊ जी से छास मांगकर लाओ।
उनके पास बारह बीसी भैसी हैं। अर्थात 220 भैस हैं। गढ़ु सुम्याल अपने ताऊ के पास गया उसने छास मांगी तो,रुदी सुम्याल उससे पहले ही जला-भुना था, उसने गुस्से से बोला, लाख रूपये ला और भैसी ले जा! गढ़ु उदास होकर घर आ गया। घर में उसकी माँ ने उसे एक लाख रुपयों से भरा तुंगेला दिया ,जिसे उसके पिताजी छुपा के गए थे।
लाख रुपयों से भरा तंगेला लेकर वीर भड़ गढू सुम्याल अपने ताऊ के पास गया,ताऊ ने उसे लाख रूपये में केवल एक भैस दी। और घर आकर माँ से पता चला की वो भी बांज भैसी थी। गढ़ु सुम्याल को बहुत क्रोध आया। वे चुपचाप जंगल गए और ताऊ की छानी के नजदीक भैस की छानी बनाई। और रात को अपने ताऊ की बारह बीसी यानि 220 भैसों को खोलकर ले आये। जब उसके ताऊ के सात बेटों को इसका पता चला तो वो ,मन मरोस कर रह गए। वीर गढ़ू सुम्याल से उलझने की हिम्मत किसी में नहीं थी।
फोटो : साभार गूगल । फोटो काल्पनिक है।
उसी जंगल’ में इस प्रकार भैसों के साथ रहते-रहते एक दिन इन्हें ‘बांसुरी ” बनाने की सूझी। किन्तु जैसे ही गढु सुम्याल पास के एक जंगल -में एक “नो पोरी का बाँस” काट ही रहे.थे कि गरुड़ चन्द” के सैनिक आ गये; किंतु इन्द्दोंने उन सैनिकों को तुरन्त यमलोक पंहुचा दिया। उसके बाद इन्होने अपनी मुरली को बजाना शुरू किया तो उसमे से बावन बाजा छत्तीस स्वर निकलने लगे। चूँकि वह स्थान वर्तमान का कुमाऊं गढ़वाल बॉर्डर था। उस समय उस स्थान से कुछ दूर पर दुप्यालि कोट की नवयुवती घास काट रही थी। उस नवयौवना का नाम था सरु कुमैण। एक बात और बता दें इस कहानी को सरूली और कुम्याल की प्रेम कथा भी कहते हैं।
सरु कुमैण के रूप सौंदर्य के बारे में भक्त दर्शन लिखते हैं, हाथ नीं लियेंदी, भुयाँ नी धरेंदी, रंसकदि बाँही, छमकदि चूड़ी, जिरेलों पिडो, नौन््यालो गाथा, खंखरियालो मांथो, बड़ी भरकर ज्वान। “सरूली ने जब वीर भड़ गड़ू सुम्याल की बांसुरी की धुन सुनी तो वह मोहित हो गई। और गढू सुम्याल के खरक में आ गई। इस खबर की बावत उन्होंने अपनी माँ को खबर भेजी। तब उनकी माता ने बाजे -गाजे के साथ कुछ लोगों को नव बहु को लाने भेजा। तब गढ़ु सुम्याल नव विवाहिता सरु कुमैण को धूमधाम से टल्ली खिमसारी हाट लाये।
इनकी सफलता और समृद्धि से उनका ताऊ रुदी सुम्याल और भी जल भुन गया। उसने अपने सातों बेटों और चौदह नातियों के साथ मिलकर एक प्रपंच रचा। इन्होने गढ़ु को अपने घर बुलाया और दिखावटी प्यार जताते हुए कहा, मेरे प्यारे बेटे! तुम्हारे पिता माल की दून साधने गए थे, लेकिन वहां से कभी नहीं लौटे। तुम्हे एक राजपूत होने के नाते अपने पिता का बदला लेना चाहिये ! मैं तुम्हे रास्ता बताऊंगा ! और हर तरीके से तुम्हारी मदद करूँगा।
गढू सुम्याल सीधे साधे थे, वे उसके बहकावे में आ गए। माता और नई बहु ने बहुत समझायाये ,लेकिन भी प्रण ले चुके थे। या यूँ कह सकते हैं ,इनका राजपुताना खून उबाले मारने लगा था। इन्होने सरु को समझाया, चिंता मत करों! अपना ख्याल रखना और माता की सेवा करते रहना। मैं जल्दी लौट कर आऊंगा।
घर से अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जित होकर निकल गए माल की दून के लिए। लेकिन आधे रस्ते में इनके ताऊ ने भी इनके साथ छल किया! इनको गलत रास्ता बताकर, इनको घनघोर जंगल में पंहुचा दिया। वहां रास्ता ही नहीं मिला और जंगली जानवरों का अलग भय था। लेकिन अपनी कुलदेवी के आशीर्वाद और अपनी सूझ-बुझ से, चौरसु दून पहुंच गए। और वहां अपनी शक्ति और साहस से शत्रुओं का सर्वनाश कर दिया। गढू सुम्याल ने वहां से रस्याला (कर और अन्न) अपने घर के लिए भेज दिए।
और खुद पूरी माल की दून साधने के विचार से वहीँ रुक गए। लेकिन इनका ताऊ यहाँ पर भी षड्यंत्र खेल गया! उसने सारा अन्न व धन रस्ते में ही झपट कर अपने घर रख लिया।
इधर इनकी माता और पत्नी को खाने की परेशानी होने लगी। क्योकि सारा सामान ताऊ ने हड़प लिया था। और रूदी सुम्याल ने तल्ली खिमसारी हाट में ये खबर फैला दी की गढू सुम्याल भी अपने पिता की तरह, शत्रुओं के हाथ मारा गया है। उसने सरु को कई प्रलोभन दिए कि ,गढ़ु को भूल जाय और मेरे बड़े पुत्र से शादी कर ले। लेकिन सरु पतिव्रता स्त्री थी उसने रुदी सुम्याल को साफ मन कर दिया। फिर वो दुप्यालिकोट सरु के भाइयों को मनाने पंहुचा लेकिन सरु के भाइयों को भी उसका यह सुझाव पसंद नहीं आया।
आखिर में वह सरु के मामा के गांव गया। मामा के साथ मिलकर उसने एक षडंयत्र रचा! सरु का मामा उसके घर आया और यह बोल के सरु को घर से ले गया कि अगले दिन उसे दुगने सामान के साथ वापस भेज देगा। लेकिन अगले दिन उसके मामा ने धोके से, सरु को शौका जनजाति के रूपा शौक को बेच दिया।
जब सरु को इस षङयन्त्र का पता चला तो वो घबरा गई। फिर उसने अपनी कुलदेवी को याद किया और धैर्य के साथ युक्ति निकाली, उसने शौकों को बोला कि मैंने बारह वर्ष का व्रत लिया है और मैं तब तक न तो बात कर सकती हूँ ,और न ही तुम्हारे पास रह सकती हूँ। बारह वर्षो के व्रत के आश्वाशन पर वह रूपा शौक प्रदेश चला गया। और सरु अपने पति गढ़ू सुम्याल की याद में ,अशोक वाटिका की सीता की तरह भगवान को याद करके दिन गुजारने लगी।
उधर गढू सुम्याल की माता को जब इस षङयन्त्र का पता चला ,तब वो पहले विक्षिप्त सी हो गई। फिर उसे होश आया ,तो उसने गढ़ु को सन्देश भेजकर उसे वापस बुला लिया।
खिमसारी हाट पहुंचकर जब गढू सुम्याल को वास्तविकता का पता चला तो इनका क्रोध चरम सीमा पर पहुंच गया। इनकी माँ ने भी कहा कि, तेरे ताऊ का पाप का घड़ा भर गया है। उससे अपने परिवार का बदला ले। तभी मुझे शांति मिलेगी। ताऊ की ताकत ज्यादा थी, और गढ़ु सुम्याल अकेले थे। उन्होंने एक युक्ति सोची, रात को अपने ताऊ को सहपरिवार खाने पर बुलाया ,और जब वे सो गए तो एकमात्र दरवाजा बंद करके, लीसे की सहायता से उस छानी में आग ला दी। इस तरह दुष्ट ताऊ सहपरिवार मृत्यु को प्राप्त हुवा। उनकी माता को अति प्र्सनता हुई और उन्होंने भी प्राण त्याग दिए
। माता की अंत्योष्टि के बाद ये सरु को ढूढ़ने अपने ससुराल गए। वहां जेठू ने सारा विवरण सुना दिया। फिर गढ़ु तिमलयाली गए वहां इन्होने तांडव मचा दिया। सबका संहार करने के बाद ये जोगी के वेश में सरु की तलाश में भटकने लगे ! वर्षों भटकने के बाद इन्हे एक बूढ़ी स्त्री मिली! उसने बताया कि तुम्हारी पत्नी शौकों के घर में कैद है। सदव्रत लिया है। ऐसी सती स्त्री मैंने अपने जीवन में नहीं देखि ! वो अभी भी अपने बढ़ वर्ष के सदवर्त पर अडिग है।
गढ़ु ने वह जाकर सरु को पहचान लिया! वर्षों बाद दो प्रेमियों का आकस्मिक मिलन से दोनों खुश हो गए ! गढू सुम्याल ने दुगने साहस से सभी शौकों का संहार कर दिया !और सरु को लेकर घर के लिए निकल पड़े। रस्ते में अचानक रूपा शौक ( जो बहार गया था उसने पीछे से तलवार से वार कर दिया ! लेकिन गढू सुम्याल ने उसे भी यमपुरी पंहुचा दिया। गढू सुम्याल पर तलवार का घाव गहरा था ,लेकिन सरु की सूझबूझ और महादेव के आशीर्वाद से गढू सुम्याल ठीक हो गया है। फिर दोनों ख़ुशी -ख़ुशी घर लौटे और तल्ली खिमसारी हाट में राज्याभिषेक करके ख़ुशी -ख़ुशी जीवन यापन करने लगे। इनके राज में इनकी प्रजा बहुत सुखी थी।
संदर्भ – भक्तदर्शन की किताब गढ़वाल की दिवंगत विभूतियाँ के आधार पर !
उत्तराखंड अपनी विशेष संस्कृति, मेलों और त्योहारों के लिए विश्व प्रसिद्ध है। उत्तराखंड के विशेष मेला त्योहारों में जून अंतिम सप्ताह में होने वाला मौण मेला (Maun mela Uttarakhand) काफी प्रसिद्ध है। मौण मेला मछली पकड़ने से सम्बंधित लोकोत्सव है जो उत्तराखंड के रवाईं, जौनपुर इलाकों में मनाया जाता है। प्राप्त जानकारी के अनुसार इसकी तिथि जून के 21 से 30 के बीच मानी जाती है। इसकी तिथि का निर्णय स्थानीय आयोजकों द्वारा किया जाता है।
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मौण क्या है?
मौण तिमूर के छिलको को कूटकर तैयार किया गया वह पदार्थ है, जिसके मादक प्रभाव से मछलियां बिहोश हो कर पानी के ऊपर तैरने लगती हैं, जिन्हे आसानी से पकड़ा जा सकता है। जौनपुर में इसका आयोजन मसूरी यमुनोत्री रोड पर अगलाड़ नदी के पुल के पास बंदरकोट के पास पाटलुटाल में किया जाता है। इसे मैणकोट भी कहा जाता है। मौण मेला (Maun mela Uttarakhand ) इस क्षेत्र का प्रसिद्ध लोकोत्सव है। इस मेले में जौनपुर और रवाई क्षेत्र के दूर -दूर के लोग सम्मिलित होते हैं। इसके लिए लगभग एक माह पूर्व से तैयारियां शुरू हो जाती हैं। मौण तैयार करने के लिए प्रत्येक पट्टी ,की बारी निश्चित हो जाती है। जिस साल जिस पट्टी की बारी होती है ,उस वर्ष उस पट्टी के गावों की जिम्मेदारी होती है तिमुर से मौण बनाने की। मौण मेला (Maun mela Uttarakhand ) में पानी के तालाब या पानी एकत्रित वाली जगह में मौण डाला जाता है ,मौण के प्रभाव से मछलियां बिहोश हो कर पानी के ऊपर आ जाती है। फिर लोग उन्हें आसानी से पकड़ लेते हैं।
मौण मेले का इतिहास (HISTORY OF MAUN MELA UTTARAKHAND) –
लोकगीतों से प्राप्त जानकारी और ऐतिहासिक जानकारी के अनुसार ,मौण मेला टिहरी रियासत के महाराजा नरेंद्र शाह ने अगलाड़ नदी में पहुंचकर शुरू किया था। साल 1844 में आपसी मतभेदों की वजह से यह मेला बंद हो गया। सन 1949 में इसे फिर शुरू किया गया। राजशाही के जमाने में अगलाड़ नदी का मौण उत्सव राजमौण उत्सव के रूप में मनाया जाता था। प्रो DD शर्मा अपनी किताब उत्तराखंड ज्ञानकोष में बताते हैं कि ,लोकगीतों के अनुसार पुराने समय में इसमें टिहरी का राजा भी सम्मिलित होता था। यह लोकोत्सव मानाने के लिए राजा को आवेदन पत्र भेजा जाता था। उस आवेदन पर उसका लिखित आदेश मिलने पर पट्टियों की पंचायत बैठती थी। उसके बाद इसकी घोषणा होती थी। पहले इसकी तिथि की घोषणा राजा करता था।का पहले मौण मेला (Maun mela Uttarakhand ) के अवसर पर ओलाड़ खेलने की परम्परा भी थी। इसमें भाग लेने वाले लोग अपने हाथों में मछली ,मछली मारने का जाल ,कुनिडयाला ,फटियाला और माछोनी लेकर सामुहिक रूप से ढोल बजाते थे और बाजूबंद ,जंगू आदि गीतों को गाते हुए और सर में मौण का थैला भी लाते थे। और पट्टी के लोगों का इंतजार करते थे। टिमरू का चुर्ण लाने के लिए प्रति वर्ष हर पट्टी वाले की बारी लगती है।
कैसे मनाते हैं मौण मेला (Maun mela Uttarakhand ) –
सबसे पहले सयाणा नदी की पूजा करता है। फिर एक दूसरे पर मौण मलते हैं फिर बाकि मौन नदी में डाल कर ,मछली पकड़ने नदी में कूद जाते है। चूर्ण के कारण बिहोश हुई मछलियों को एकट्ठा करना शुरू कर देते है। प्राचीन समय में टिहरी के राजा भी वहां उपस्थित रहते थे। सभी लोग अपनी -अपनी इकट्ठा की गई मछलियों में से एक -एक मछली राजा को देते थे ,उसके बाद गाजे बाजे के साथ ख़ुशी -ख़ुशी अपने घर को जाते थे। मछली पकड़ने का यह सिलसिला लगभग 10 से 12 किलोमीटर तक चलता है। शाम होते ही सारे मौणाई ( मछली पकड़ने वाले )अपने घर को जाते हैं। शाम को सबसे बड़ी मछली अपने इष्ट देवता को चढाई जाती है। तत्पश्यात रात में अपने इष्टमित्रों के साथ मछली भात की दावत की जाती है। इसे भी पढ़े: मुक्ति कोठरी – उत्तराखंड में दुनिया की सबसे डरावनी जगह का रहस्य
मौण मेले (Maun mela Uttarakhand ) से कुछ दिन पहले स्थानीय लोग अपने लोकवाद्यों के साथ ,”दुरा भइया डोलिये” का गीत गाते हुए इस मेले से सम्बंधित गावों में जाकर इसमें सम्मिलित होने का निमंत्रण देते हैं। मौण मेले के दिन दुरा भइया डोलिये गीत गाते हुए ,सभी लोग सीटियां बजाते हुए ,लेचिया लेचिया कहते हुए नदी की ओर जाते हैं। पुराने लोगों का कहना है कि ,अब पहले जैसी मस्ती,उत्साह और जन सैलाब नहीं रहा।
मौण उत्सव के रूप –
पहले मौण उत्सव तीन प्रकार से मनाया जाता था। 1 – माछी मौण ,2 – जातरा मौण ,3 – ओदी मौण। इसमें से माछी मौण और जातरा मौण अभी भी मनाया जाता है। लेकिन ओदी मौण विलुप्तप्राय हो गया है। ओदी मौण का संबंध सामंतों और जमीदारों की शक्ति प्रदर्शन के साथ हुवा करता था।
कुमाऊं का मौण मेला “डहौ उठाना”
उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में भी ठीक इसी प्रकार का उत्सव बिखोती (विषुवत संक्रांति) के अवसर पर मनाया जाता है। जिसे डहौ उठाना कहते हैं। यह उत्सव पक्षिम रामगंगा के तटवर्ती क्षेत्रों मासी भिकियासैण में मनाया जाता है। मासी में इसका आरम्भ पौर्णमासी से सात दिन पहले होता है। और समापन पौर्णमासी के दिन होता है।
उत्तराखंड की लोक संस्कृति के बारे में चर्चा करने से पहले संस्कृति के बारे में जानना अति आवशयक है। संस्कृति के बारे में प्रसिद्ध विद्वानों का क्या मत है यह जानना आवश्यक है। किसी समाज के सामाजिक कर्मकांड, समाज की जीवन शैली, रीती रिवाज, कला, विश्वास अन्धविश्वास वह सबकुछ उस समाज विशेष की संस्कृति का अंग है जिसका पालन उस समाज में रहने वाले मनुष्य करते हैं।
अमेरिकन नृविज्ञानी (मानव उत्पत्ति तथा उसके रूप, आकार आदि का विवेचन करनेवाला शास्त्र) ई.बी. टाइलर के अनुसार, संस्कृति उस सम्पूर्ण सृष्टि का वह निर्देशक तत्व है, जिसमे ज्ञान विज्ञानं, विश्वास-आस्था, कला, नैतिकता, विधि विज्ञानं, रीति -रिवाज तथा अन्य सभी कला-कौशलों एवं मानवीय व्यवहारों का समावेश होता है, जिसे मानव किसी समाज विशेष के सदस्य के रूप में अनुग्रहित करता है।
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लोक संस्कृति की परिभाषा
लोक संस्कृति किसी प्रदेश या क्षेत्र विशेष की मूलभूत संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है। लोक संस्कृति के अंतर्गत हम उस क्षेत्र की संस्कृति के सभी रूपों को देख सकते हैं। और उसके घटक तत्वों की आधारभूमि का पता लगा सकते हैं। इसी आधार पर हम उस संस्कृति के बोधक तत्वों – अचार, विचार, विश्वास-अविश्वास, धार्मिक आस्था व अनुष्ठानो, नृत्य, जन्म मृत्यु संस्कारों व उनसे सम्ब्नधित अनुष्ठानों, परम्पराओं, प्रथाओं, जीवन शैली तथा उससे सम्बंधित क्रिया कलापों की सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
उत्तराखंड की लोक संस्कृति का आधार
उत्तराखंड की संस्कृति को रोपित करने में किसी एक संस्कृति या समुदाय का नहीं बल्कि अनेक संस्कृतियों और सांस्कृतिक तत्वों का योगदान है।आदिकाल से न जाने कितने मानव वर्गों ने इस सुरम्य हिमालयी क्षेत्र को अपना निवास स्थान बनाया। पौराणिक काल में कभी यक्ष, गन्धर्व, किन्नर जैसी देवजातियों की भूमि माने जाने वाला यह क्षेत्र इतिहास के भिन्न -भिन्न काल में अलग -अलग जातियों के अधिकार क्षेत्र में रहा।
किसी को यहाँ के रमणीय वातावरण ने आकर्षित किया तो किसी को यहाँ की पर्वतीय घाटियों ने अपने धर्म की रक्षा के लिए उपयुक्त लगी। कोई देवभूमि में शरण की इच्छा से यहाँ आया तो कोई यहाँ अधिकार करने की मंशा से आया। इस प्रकार आदि काल से आज तक उत्तराखंड की इस भूमि में विभिन्न मानव प्रजातियों का आगमन होता रहा। और ये मानव प्रजातियां अपने साथ अपनी भिन्न -भिन्न संस्कृतियों को भी साथ लायी।
आदिकाल में यहाँ शक, हूण, कोल, किरात, मंगोल यवन, खश आदि पहाड़ी जातियों के अलावा मध्यकालीन समय में पक्षिम और दक्षिण से अनेक मानव प्रजातियों का आगमन इस रमणीक भूमि में हुवा। और ये लोग अपने साथ अपनी क्षेत्रीय सामाजिक ,सांस्कृतिक परम्पराओं को भी साथ लाये। और आगंतुकों की सांस्कृतिक तत्व और यहाँ की मूल सांस्कृतिक तत्व परस्पर इस तरह घुल मिल गए कि उन्हें अलग -अलग पहचान करना कठिन हो गया। आज यही सब सांस्कृतिक तत्व मिलकर उत्तराखंड की संस्कृति के रूप में जानी जाती है।
उत्तराखंड की लोक संस्कृति
उत्तराखंड की लोकसंस्कृति आदिकाल से आज तक उत्तराखंड क्षेत्र में आयातित और उत्तराखंड की मूल संस्कृति का मिश्रण है। उत्तराखंड का अधिकतर भाग पहाड़ी क्षेत्र है, अतः यहाँ की संस्कृति ,वेशभूषा ,परम्पराएं ,खान -पान पहाड़ी अथवा ठंडी जलवायु के अनुरूप है। उत्तराखंड की संस्कृति का वर्णन हम निम्न बिंदुओं के आधार पर कर सकते हैं।
रहन -सहन
उत्तराखंड की जलवायु अधिकतर ठंडी है और अधिकतर भाग पहाड़ी है। अतः यहाँ के मकान पत्थरों से पक्के और छत शंकुवाकर तथा मकान के अंदर का मिटटी का पलस्तर ( लिपाई ) होता है। आजकल अब सीमेंट और ईंटों का प्रयोग भी करने लगे हैं। पहाड़ के लोग बहुत मेहनती होते हैं। इन्होने अपने रहन सहन के लिए पहाड़ों को काटकर सीढ़ीदार खेत बनाये हैं। जिसमे लोग खेती करते हैं। ईधन के लिए जगल से लकड़ी और मवेशियों के लिए घास लाते हैं। हालाँकि वर्तमान में शहरी संस्कृति की परिछाया भी उत्तराखंडी पहाड़ी संस्कृति पर पड़ रही है।
वर्तमान में ईधन के लिए गैस का वैकल्पिक प्रयोग और दूध और राशन के लिए बाजार पर अधिक निर्भर हो रहे हैं। अब पहाड़ों में खेती करना काम हो गई है। अधिकतर पुरुष वर्ग रोजी रोटी के लिए मैदानी भागों में चले जाते हैं। और वहीं से कमाकर अपने बच्चों भरण पोषण करते हैं।
और इसके अलावा कई लोग स्थाई रूप से पहाड़ों से पलायन कर चुके हैं। इसके अलावा उत्तराखंड में वर्तमान में एकल पति पत्नी परम्परा का निर्वहन होता हैं। या यूँ कह सकते हैं वर्तमान में उत्तराखंड के लोगो के रहन सहन में और सामाजिक परम्पराओं में सनातन परम्परा का अधिक प्रभाव मिलता है।विवाह भी कन्यादान परख विवाह को मान्यता है। किन्तु आदिकाल में यहाँ विवाह के अलग -अलग रूप प्रचलित थे।
धर्म एवं विश्वास
धर्म एवं विश्वास के मामले में उत्तराखंड अव्वल नम्बर पर है। पौराणिक काल में देवजातियों का निवास स्थान और ऋषिमुनियों की तपोस्थली रहा उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है। इतिहासकारों और पौराणिक गाथाओं के अनुसार पौराणिक काल से आज तक इस हिमालयी क्षेत्र में सनातन धर्म का प्रभाव रहा है। मध्यकाल में यहाँ बौद्ध धर्म का प्रभाव अधिक बढ़ गया था। माना जाता है कि सातवीं शताब्दी आस पास शंकराचार्य ने इस क्षेत्र में आकर सनातन धर्म की पुनर्स्थापना की ,जिसके बाद यहाँ सनातन धर्म मजबूत हुवा।
इसके अलावा माना जाता है कि उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में पौन सम्प्रदाय नामक एक तांत्रिक सम्प्रदाय का प्रभाव भी था। कई विद्वान इसे अलग धर्म मानते हैं ,जबकि कई इसे शैव सम्प्रदाय का एक रूप और सनातन धर्म का एक हिस्सा। क्यूंकि तंत्र मंत्र के अधिष्ठाती देवी देवता भगवान् शिव व् देवी पार्वती का निवास भी यहीं माना जाता है।
पहले यहाँ तांत्रिक क्रियाओं का जबरदस्त बोलबाला था। यहाँ के तांत्रिक साहित्य के बारे में कहा जाता है कि यह जानबूझ कर नष्ट किया गया है। यहाँ पुराने सिद्ध पुरुषों व् न्यायकारी राजाओं को लोकदेवताओं के रूप में पूजा जाता है। इसके अलावा अन्य पूर्वजों की पूजा भी की जाती है। इनको पूजने का तरीका है जागर। जागर गान द्वारा इन्हे किसी मनुष्य का के शरीर में अवतरित कराया जाता है। फिर वे समस्याओं समाधान करते हैं। उत्तराखंड के वासी सनातन धर्म के देवो के अलावा प्रकृति और लोकदेवताओं की पूजा भी करते हैं।
खान -पान व खेती
भारत के अलग अलग राज्यों की तरह उत्तराखंड राज्य के भी विशेष पकवान हैं। जो काफी पौष्टिक होते हैं। उत्तराखंड के पहाड़वासी मोटे अनाज का अधिक प्रयोग करते हैं। इसके अलावा पहाड़ों की जलवायु ठंडी होने के कारण यहाँ आदिकाल से मांसाहार प्रचलन में हैं। और दलहनों का प्रयोग भी यहाँ बहुत किया जाता है। पहाड़ों में कृषि वर्षा पर आधारित है। इस कारण यहाँ खेती कम होती है।
वर्तमान में जंगली जानवरों और मौसम के अनिश्चिता की वजह से अधिकतर लोगों ने खेती करना छोड़ दिया है। उत्तराखंड के प्रसिद्ध भोजन में भट्ट के डुबके ,भट्ट का चौसा ,गहत की दाल ,गहत का फाणु ,मडुवे की रोटी ,शिशुण का साग ,झुंगरू की खीर आदि हैं। उत्तराखंड के भोजन के बारे में अधिक जानने के लिए यहाँ क्लिक करें
भाषा –
उत्तराखंड की आधिकारिक भाषा हिंदी है ,और संस्कृत दूसरी आधिकारिक भाषा है। लेकिन उत्तराखंड की लोकभाषाओं की बात की जाय तो उत्तराखंड प्रमुख लोकभाषाओं में कुमाउनी ,गढ़वाली और जौनसारी भाषाएँ हैं।
वेश भूषा व आभूषण –
उत्तराखंड की संस्कृति में उत्तराखंड निवासियों की अपनी स्थानीय वेशभूषा व् आभूषण हैं। उत्तराखंड की पारम्परिक पुरुष वेशभूषा में – गाती ,मिरजई ,फतुही ,सुरयाल ( चूड़ीदार पैजामा ) ,फाटा आदि थे। आजकल कुर्ता पैजामा और गांधी टोपी मुख्य है। बाकि मौसम के अनुसार सामान्य वेशभूषा का चलन शुरू हो गया है। उत्तराखंड की महिलाओं के पारम्परिक वस्त्रों की बात करें तो इनमे प्रमुख हैं ,आँगड़ी ,घाघरी ,पिछोड़ा आदि हैं। और पारम्परिक आभूषणों में नथुली ,बुलाक ,चर्यो ,गलोबन्द ,कर्णफूल।,सिरफूल ,पौची ,धागुले चन्द्रहार आदि हैं।
उत्तराखंड की लोक संस्कृति में लोक कला –
लोक कला की दृष्टि से उत्तराखण्ड बहुत समृद्ध है। घर की सजावट में ही लोक कला सबसे पहले देखने को मिलती है। दशहरा, दीपावली, नामकरण, जनेऊ आदि शुभ अवसरों पर महिलाएं घर में ऐपण (अल्पना) बनाती हैं। इसके लिए घर,आंगन या सीढ़ियों को गेरू से लीपा जाता है। चावल को भिगोकर उसे पीसा जाता है। उसके लेप से आकर्षक चित्र बनाए जाते हैं। प्राचीन गुफाओं तथा उड्यारों में भी शैल चित्र देखने को मिलते हैं।
उत्तराखण्ड की लोक धुनें भी अन्य प्रदेशों से भिन्न हैं। यहां के वाद्य यन्त्रों में नगाड़ा, ढोल, दमाऊं, रणसिंगा, भेरी, हुड़का, मोर्छग, बीन, डौंरा, कुरूली, अलगोजा हैं। ढोल-दमाऊं तथा बीन-बाजा विशिष्ट वाद्ययन्त्र हैं जिनका प्रयोग आमतौर पर हर आयोजन में किया जाता है। गढ़वाली और कुमाउंनी के अलावा जनजातियों मेंभिन्न-भिन्न तरह के लोक संगीत और वाद्य यंत्र प्रचलित हैं।
यहां प्रचलित लोक कथाएं भी स्थानीय परिवेश पर आधारित हैं। लोक कथाओं में लोक विश्वासों काचित्रण, लोक जीवन के दुःख-दर्द का समावेश होता है। भारतीय साहित्य में लोक साहित्य सर्वमान्य है। लोक साहित्य मौखिक साहित्य होता है। इस प्रकार का मौखिक साहित्य उत्तराखण्ड में लोक गाथा के रूप में काफी है।
प्राचीन समय में मनोरंजन के साधन नहीं थे। लोकगायक रात भर ग्रामवासियों को लोक गाथाएं सुनाते थे। इसमें मालुसाही, रमैल, जागर आदि प्रचलित थे। अब भी गांवों में रात्रि में लगने वाले जागर में लोक गाथाएं सुनने को मिलती हैं। यहां के लोक साहित्य में लोकोक्तियां, मुहावरे तथा पहेलियां (आंण) आज भी प्रचलन में हैं। पूरा पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें
लोकगीत व लोक नृत्य –
उत्तराखंड की संस्कृति में भी अन्य संस्कृतियों की तरह उत्त्सवों व् ख़ुशी के अवसर पर लोकनृत्य कर आनंद मानाने का रिवाज या परम्परा है – यहाँ के प्रमुख लोक नृत्यों में छोलिया, तांदी, झोड़ा चांचरी, जागर, पांडव नृत्य आदि हैं। इसके अलावा यहाँ के निवासी विभिन अवसरों पर अपनी ख़ुशी और दुःख या अपनी भवनाओं को को अपनी स्थानीय भाषा में गीतों से भी जाहिर करते हैं। जिन्हे लोकगीत कहते हैं , उत्तराखंड के लोकगीतों में झोड़ा गायन, ऋतुरैन, जागर गीत, भगनौल गीत, न्योली गीत आदि हैं।
उत्तराखंड के लोक पर्व व मेले –
उत्तराखंड एक समृद्ध संस्कृति संपन्न राज्य है। इस राज्य में मुख्यतः गढ़वाली ,कुमाउनी और जौनसारी संस्कृति के साथ कई प्रकार की संस्कृतियों का समागम है। उत्तराखंड एक प्राकृतिक प्रदेश है। प्राकृतिक सुंदरता के लिहाज़ से यह राज्य अत्यधिक सुंदर है। इसलिए उत्तराखंड के लोक पर्व, संस्कृति, और रिवाजों में इसकी झलक स्पष्ट दिखाई देती है। उत्तराखंड के अत्यधिक त्यौहार प्रकृति की रक्षा और प्रकृति के प्रति आभार प्रकट करने के लिए समर्पित हैं।
सनातन धर्म के सभी त्यौहार उत्तराखंड में मनाए जाते हैं। लेकिन उनकी मनाने की परंपराएं भी प्रकृति को समर्पित होती हैं। उत्तराखंड के प्रमुख त्योहारों निम्न है – घुघुतिया, मरोज, जो संग्रात या वसंत पंचमी, फूलदेई, कुमाउनी होली, बिखोती, घ्वीड़ संक्रांति, हरेला, गीत घी संक्रांति, खतड़ुवा, इगास, मंगसीर बग्वाल आदि हैं। विस्तार से पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।
इसके अलावा प्राचीन काल में उत्सवों के अवसर पर मेलों का आयोजन कर अपना मनोरंजन करते थे। प्राचीन काल में उत्तराखंड में मेले पहाड़ी जनजीवन में मनोरंजन और खरीदारी का प्रमुख श्रोत होते थे। उत्तराखंड की स्थानीय भाषा में मेलों को कौथिग या कौतिक भी कहा जाता है। उत्तराखंड के प्रमुख मेले निम्न हैं -देवीधुरा मेला (चम्पावत) ,पूर्णागिरि मेला (चम्पावत), नंदा देवी मेला (अल्मोड़ा), उत्तरायणी मेला (बागेश्वर), गौचर मेला (चमोली), माघ मेला (उत्तरकाशी, विशु मेला (जौनसार बावर) सोमनाथ मेला (माँसी, अल्मोड़ा), स्याल्दे बिखोती मेला (द्वाराहाट ,अल्मोड़ा)
विशेष – मित्रों उपरोक्त लेख में हमने उत्तराखंड की लोक संस्कृति का संक्षेप में परिचय दिया है। इस लेख के लिए हमने प्रो DD शर्मा की उत्तराखंड का लोकजीवन व् लोकसंस्कृति तथा राहुल सांकृतायन की किताब हिमालय का परिचय का सहयोग लिया है।