राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में उत्तराखंड के निवासियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उत्तराखंड के कई आंदोलनकारियों ने अपने प्राणों की आहुति देकर अंग्रेजो की दासता से हमे मुक्त कराने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। उत्तराखंड की सालम क्रांति ,देघाट में क्रांति और कुली बेगार आंदोलन जैसे कई आंदोलन उत्तराखंड की धरती पर हुए और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी का भी देवभूमि के साथ विशेष जुड़ाव रहा।
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उत्तरखंड में अँग्रेजी शासनकाल –
जिस प्रकार भारत के दूसरे क्षेत्रों में अंग्रेजों के आने से अनेक प्रकार की उथल-पुथल हुई, उसी प्रकार उत्तराखंड के इतिहास, संस्कृति तथा जीवन को भी अंग्रेजों ने प्रभावित किया। उन्होनें एक और उत्तराखंड के इतिहास, संस्कृति तथा अन्य पक्षो का अभिलेखीकरण किया तो दूसरी ओर समूचे उत्तराखंड में अपनी प्रशासनिक सुविधा के लिए अनेक परिवर्तन किये। उनके आगमन से उत्तराखंड में एक नए इतिहास का आगमन हुआ।
गोरखों का गढ़वाल पर अधिकार –
वर्ष 1804 में गोरखों के हाथ गढ़वाल नरेश प्रदुमन शाह खुड़बुड़ा के मैदान में वीरगति को प्राप्त हुए। गोरखों का गढ़वाल पर भी अधिकार हो गया। प्रदुमन शाह के पुत्र सुदर्शनशाह हरिद्वार में रह कर लगातार स्वत्रन्त्र होने का प्रयास करते रहे। उन्होनें अंग्रेजों की सहायता ली। उस समय अंग्रेजों और गोरखों के मध्य संबन्ध खराब चल रहे थे। अतः अंग्रेजों ने अक्टूबर 1814 गढ़वाल राज्य की सहायता के लिए अपनी सेना भेजी और गोरखों को पराजित के दिया।
कहा जाता है कि गढ़वाल नरेश सुदर्शनशाह उस समय अंग्रेजों को उनके द्वारा मागी गई युद्ध व्यय की निर्धारित 5 लाख रूपये की राशि न दे सके। अतः उन्हें समझैते के रूप में अलकनन्दा और मन्दाकिनी के पूर्व का अपना आधा राज्य अंग्रेजों को देना पड़ा। परन्तु गढ़वाल-विभाजन में राजा का कोई था। इस प्रसंग में यह कहना आवश्यक है कि अंग्रेजों ने उस समय महाराजा सुदर्शनशाह को धोखा दिया। पहले उन्होनें सम्पूर्ण गढ़वाल राज्य को स्वत्रन्त्र करने का वादा किया था।
अंग्रेजों ने गोरखो को हरा कर जीता गढ़वाल कुमाऊं –
अंग्रेजों तथा गोरखों के मध्य हुए युद्ध में अंग्रेजों ने गोरखों से काली नदी के पक्षिम का समस्त प्रदेश जीत लिया। इस तरह 27 अप्रैल, 1815 को गढ़वाल-कुमाऊँ पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। सम्पूर्ण कुमाऊँ और पूर्वी गढ़वाल पर अधिकार करने के बाद अंग्रेजों ने 3 मई, 1815 में कर्नल एडवर्ड गार्डन को यहाँ का प्रथम कमिश्नर तथा एजेंट गवर्नर जनरल नियुक्त किया।
कालान्तर में नई प्रशासनिक व्यवस्था के अंतर्गत, अंग्रेजों ने कुमाऊँ को एक जनपद बना लिया तथा गढ़वाल के राजा सुदर्शन शाह से धोखे से लिए गए क्षेत्र को भी कुमाऊँ कमिश्नर का एक जनपद बना दिया। उन्होनें देहरादून को सहारनपुर जनपद में सम्मिलित कर दिया। इस प्रकार अंग्रेजी राज के आरम्भ में सम्पूर्ण उत्तराखंड क्षेत्र दो राजनितिक-प्रशासनिक इकाइयों में गठित हो गया। कुमाऊँ कमिश्नर और टिहरी गढ़वाल राज्य।
1840 ईसवी में प्रशासनिक सुविधा के लिए कुमाऊँ जनपद से अलग कर के गढ़वाल को गढ़वाल जनपद बना दिया गया। आगे चल कर कुमाऊँ जनपद को भी अल्मोड़ा और नैनीताल को दो जनपदों में बाँट दिया गया। यह व्यवस्था स्वत्रंत्रता मिलने तक बनी रही।
उत्तराखंड में स्वतंत्रता आंदोलन –
देश के एक बड़े भाग के ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन चले जाने के बाद देश में एक नई राष्ट्रीय चेतना पैदा हुई। फलतः देशभर में लगभग हर क्षेत्र के लोग स्वाधीनता की माँग करने लगे और अंग्रेजी शासन के विरुद्ध हो गए। इससे उत्तराखंड भी अछूता नहीं रहा। वस्तुतः अंग्रेजो ने यहाँ भी अपने ढंग से तरह-तरह के शोषण, उत्पीड़न तथा अत्याचार किये। अतः की जनता ने स्वतंत्रा के महत्व को समझा एवं स्वतंत्रता आंदोलन सक्रिय योगदान दिया।
इस क्रम में 1857 ईसवी कालू महरा नामक व्यक्ति ने अंग्रेजो के विरोध में काली कुमाऊँ क्षेत्र में एक क्रांतिकारी संगठन बनाया। इसी वर्ष लगभग 1000 क्रान्तिकारियो ने हल्द्वानी पर अधिकार कर लिया और अंग्रेज मुश्किल से उस पर पुनः अधिकार कर सके। इस लड़ाई में कई क्रान्तिकारियो ने अपने प्राणों की आहुति दी।
असहयोग आंदोलन में उत्तराखंड की भूमिका –
असहयोग आंदोलन और नामक सत्याग्रह के दौरान उत्तराखंड के लोगो की सक्रिय भूमिका रही। 20वीं शती के प्रथम दशक में पंडित गोविंदबल्लभ पन्त ने उत्तराखंड के राजनीतिक मंच में प्रवेश किया। 1916 में कुमाऊँ परिषद की स्थापना के बाद स्वतंत्रता आंदोलन को एक नई दिशा और गति मिली।
रोलेट एक्ट के विरोध में कुमाऊँ परिषद ने प्रदर्शन किए और सभाएँ आयोजित की। तभी बेरिस्टमुकुन्दीलाल और अनुसूया प्रसाद बहुगुणा ने गढ़वाल में कांग्रेस कमेटी की स्थापना की।उत्तराखंड में स्वतंत्रता संघर्ष में स्थानीय मुददे भी जुड़े। लोगो ने कुली उतार और कुली बेगार जैसे अन्यायपूर्ण प्रथाओं के विरोध में आवाज उठाई। वन संपदा पर जनता के अधिकारों की मान्यता के लिए चल रहे आंदोलन ने भी इस बीच राजनितिक रंग पकड़ लिया।
1930 ईसवी हवलदार वीर चन्द्रसिंह ‘गढ़वाली’ ने निहत्थे अफगान स्वतंत्रता सेनानियों पर गोली चलने से इनकार कर दिया। इतिहास में यह घटना ‘पेशावर काण्ड’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। भारत छोड़ो आंदोलन की संपूर्ण उत्तराखंड में तीव्र प्रतिक्रिया हुई। कुछ स्थानों पर हिंसा भड़क उठी और सरकारी सम्पति लोगो के क्रोध का निशाना बनी।
देघाट में क्रांति
8 अगस्त, 1942 ईसवी में मुम्बई में कांग्रेस के मुख्य कार्यकर्ताओ के पकडे जाने के विरोध में 9 अगस्त, 1942 ईसवी को उत्तराखंड में जगह-जगह जुलुस निकले गए। अल्मोड़ा नगर में विघार्थियो ने पुलिस पर पत्थरो से प्रहार किया, जिससे कुमाऊँ के कमिश्नर एक्टन के सिर पर चोट आई। अल्मोड़ा शहर पर 6 हजार रूपये का जुर्माना किया गया। अल्मोड़ा जिले में सर्वप्रथम 19 अगस्त, 1942 को देघाट (मल्ला चौकोट) नामक स्थान पर पुलिस ने जनता पर गोलिया चलाई। जिसमें हीरामणी और हरिकृष्ण नामक दो व्यक्ति शहीद हुए।
सालम की क्रांति –
वहाँ पहले सरकारी कर्मचारियों का दल जनता के उत्पीड़न के लिए भेजा गया, लेकिन जब सालम की साहसी जनता ने उन्हें पीट कर अल्मोड़ा भेज दिया, तो ब्रिटिश सरकार ने क्रोधित होकर वहाँ ब्रिटिश सेना भेजी। सेना और जनता में धामदेव नामक ऊँचे टीले पर पत्थर और गोलियों से तीव्र संधर्ष हुआ। इस संधर्ष में दो प्रमुख नेता नरसिंह धानक और टीकासिंह कन्याल बुरी तरह घायल हो गये और कुछ दिनों के बाद अस्पताल में उन की मृत्यु हो गई। तत्पश्चात डिप्टी कलेक्टर मेहरबान सिंह के नेतृत्व में सालम में जाट सेना भेजी गई, जिसने वहाँ अनेक अत्याचार किये।
खुमाड़ सल्ट की क्रांति –
सालम की भाँति सल्ट क्षेत्र ने भी 1942 ईसवी के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में सक्रिय भाग लिया। वहाँ खुमाड़ नामक स्थान पर, जो सल्ट काँग्रेस का मुख्यालय था, ब्रिटिश सेना ने जनता पर गोलिया चलाई। इस गोलीकाण्ड में गंगाराम तथा खीमादेव नामक दो सगे भाई घटनास्थल पर ही शहीद हो गए और गोलियों से बुरी तरह घायल चूड़ामणि और बहादुरसिंह चार-चार दिन बाद शहीद हुए। स्वाधीनता आंदोलन में सल्ट की अद्वितीय भूमिका की सराहना करते हुए महात्मा गाँधी ने इसे ‘कुमाऊँ की बारदोली’ की पदवी से विभूषित किया था। आज भी खुमाड़ में हर साल 5 सितम्बर को खुमाड़ सल्ट की क्रांति के शहीदों की स्मृति में शहीद दिवस मनाया जाता हैं।
टिहरी राज्य भी पहाड़ों में अन्यत्र चल रही गतिविधियों से अछूता न रहा। 1939 में वहाँ प्रजामण्डल की स्थापना के बाद जनजागृत बडी। श्रीदेव सुमन के नेतृत्व में जनता के अधिकारों के लिए संघर्ष और तेज हुआ। इस संघर्ष के दौरान 84 दिन की भूख हड़ताल के बाद सुमन ने 25 जुलाई, 1944 को दम तोड़ दिया। सकलाना विरोध (1947) और कीर्तिनगर आंदोलन (1948) टिहरी राज्य में प्रबल जन-आन्दोलन के रूप में भड़क उठे। परिस्थितियों को देखकर, महाराजा मानवेन्द्र शाह ने विलीनीकरण क्र प्रपत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। अन्ततः 1 अगस्त, 1949 को टिहरी राज्य उत्तर प्रदेश का जनपद बन गया।
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