Thursday, September 21, 2023
Homeइतिहासउत्तराखंड का इतिहास || History of Uttarakhand in hindi

उत्तराखंड का इतिहास || History of Uttarakhand in hindi

09 नवंबर सन 2000 को उत्तराखंड राज्य का देश के 27वे राज्य के रूप में निर्माण हुवा। अनेक आंदोलनकारियों ने इस राज्य के निर्माण में अपना बलिदान दिया। प्रस्तुत लेख में उत्तराखंड का इतिहास का आदिकाल से लेकर उत्तराखंड के राजवंशो का तथा उत्तराखंड में गोरखा शाशन का संशिप्त क्रमबद्ध वर्णन संकलित किया गया है। उत्तराखंड में अंग्रेजो का शाशन तथा उत्तराखंड के निर्माण के का इतिहास अगले लेख में संकलित करने की कोशिश करेंगे।

आदिकाल –

चतुर्थ सहस्त्राब्दी ईसवी पूर्व से पहले लाखो वर्षो तक फैले युग को  प्रागैतिहासिक कहते हैं। इस दीर्घकाल में ,उत्तराखंड भू -भाग में मानव -गतिविधियों की अब तक एक हलकी झलक ही प्राप्त हो सकी हैं।उत्तराखंड में कई स्थानों पर पाषाणकालीन -उपकरण ,कप -माक्स्र तथा शैलाश्रयों  के रूपों में प्रागैतिहासिक अवशेष मिले हैं, जिनसे संकेत मिलता हैं ।कि यहाँ पर प्रागैतिहासिक मानव रहते थे। वह शैलाश्रयों में वास करते थे और उन्हें सुन्दर चित्रकारी से सजाते थे। लघु -उड़्यार के पश्चयात  ग्वरख्या -उड़्यार के शैलचित्रों की खोज से ज्ञात होता हैं कि ये शैलचित्र मध्य -प्रस्तर युग से उतर -प्रस्तर युग के हैं।

  1. उत्तराखंड के इतिहास का पौराणिक काल
  2. ऐतिहासिक काल
  3. ऐतिहासिक काल के स्रोत
  4. उत्तराखंड का प्राचीन इतिहास
  5. कुणिन्द वंश का शाशन
  6. उत्तराखंड के इतिहास में कर्तृपुर राज्य
  7. हर्ष का अल्पकालीन अधिकार
  8. कार्त्तिकेयपुर राजवंश
  9. बहुराजकता का युग
  10. उत्तराखंड का कत्यूरी राजवंश
  11. उत्तराखंड का इतिहास में गढ़वाल का परमार राजवंश
  12. उत्तराखंड के कुमाऊँ का चन्द वंश
  13. उत्तराखंड के इतिहास में  गोरखा शासन

उत्तराखंड के इतिहास का पौराणिक काल –

ऐतिहासिक काल  से पूर्व चतुर्थ सहत्राब्दि तक आघ -ऐतिहासिक कल फैला था। इस कल में मानव को धातु का ज्ञान हो चुका था। अतः  ताम्र तथा लौहयुग की सभ्यताओं का जन्म हुआ।  चित्रित धूसर मृदभाण्ड कला का प्रादुर्भाव हुआ और कृषि एव पशु पालन का प्रारम्भ भी इसी काल  में हुआ। गावों व् नगर सभ्यताओं  का आरम्भ भी इसी समय हुआ। उदाहरण के लिए ,ताम्र -संचय संस्कृति के उपकरण बहदराबाद से प्राप्त हुआ हैं।  महापाषाणीय शवाधान भी इसी युग के हैं। मलारी तथा रामगंगा -घाट से ऐसे शवाधान प्राप्त हो चुके हैं। इनमें मानव -अस्थियो के साथ धातु -उपकरण तथा विभित्र आकार के मृतिका -पात्र प्राप्त हुऐ हैं। ( history of Uttarakhand in hindi )

MY11Circle

गढ़भूमि अर्थात गंगा की उपरली उपत्यका को ऋग्वेद में सप्तसिंधु देश की संज्ञा दी गई हैं। आर्य संस्कृति का आदि स्रोत यही भू-भाग हैं।इसी भू -भाग को वेदो -पुराणों में स्वर्गभूमि कहा गया हैं। उत्तराखंड आदि सभ्यता का जन्मदाता हैं ,हिमालय के इसी दुस्तर पार्वत्य प्रदेश के एक निर्झरणी तटस्थ तपोवन में बैठे महामुनि वेद्ब्यास ने वेदों का विभाजन तथा पुराण -ग्रंथो की रचना की थी। इसी के मध्य बहती हैं बद्रीपरभवा दिव्य नदी अलकनंदा और कल -कल निनादिनी अन्य कई लघु सरितायें। वस्तुतः तपोलोक से नीचे दिग्दिगन्तव्यापी हिमालय के चरणों में अरण्यमय स्तर का भू -भाग देवभूमि उत्तराखंड ही हैं।

Best Taxi Services in haldwani

वैदिक आर्य सप्तसिन्ध प्रदेश अर्थात उत्तराखंड से परचित थे।वैदिक साहित्य के अनुसार ,बद्रिकाश्रम और कण्वाश्रम में दो प्रसिद्ध विद्यापीठ स्थापित थे। वैदिक ग्रन्थ ऐतरेय ब्राह्मण में उत्तर -कुरुओं का हिमालय क्षेत्र में निवास स्थान होने का उल्लेख मिलता हैं। इस कारण इस क्षेत्र को उत्तर -कुरु की संज्ञा दी गई हैं।

इस कल के कुछ सन्दर्भ महाभारत तथा पुराणों से भी मिलते हैं।  बौद्ध ग्रंथों में इस के लिए हिमवन्त नाम का उल्लेख मिलता हैं।  महाभारत में कई स्थानों पर उत्तराखंड के स्थलों एवं जातियों का उल्लेख आता हैं।  गंगा को पृथ्वी पर लाने वाले महाराजा भगीरथ इसी क्षेत्र से जुड़े थे।  राजा दुष्यंत और शकुंतला की प्रेम-लीला कण्वाश्रम से आरम्भ हुई थी। चक्रवर्ती भरत की जन्मस्थली भी यही हैं। पाँचो पांडवो ने इसी मार्ग से बह्मलोक की यात्रा की थी।  उत्तराखंड के कुणिन्द शासकों के पाण्डवों से मैत्री संबन्ध थे और कुणिन्द नरेश सुबाहु ने उनके पक्ष में युद्ध किया था। मान्यता हैं की कुन्ती एवं द्रौपदी सहित पांडवो ने उत्तराखंड क्षेत्र में ही अपने जीवन को विराम दिया और स्वर्गलोक को सिधारे।

ऐतिहासिक काल –

ऐतिहासिक काल के स्रोत 

इतिहास के विभिन विद्वानों एवं अध्येता उत्तराखंड का  इतिहास के  स्रोत भिंन -भिन आधारों व्हैं प्रमाणो पर मिलते हैं।इसमें उत्तराखंड में प्राप्त पुरावशेष सिक्के शिला -लेख, वास्तु -स्मारक, ताम्रपत्र आदि सम्मिलित हैं। इस काल में रचित साहित्य भी ऐतिहासिक युग की एक झाँकी प्रस्तुत करता हैं। इन विभिंन विद्वानों ने ऐसे विभिंन ऐतिहासिक स्रोतों के आधार पर उत्तराखंड में समय -समय पर निमन राजाओ का शासन होना माना हैं।

उत्तराखंड का प्राचीन इतिहास 

प्राचीन उत्तराखंड का अधिकांश भाग बीहड़, वीरान,जंगलों से भरा तथा लगभग निर्जन था। इसलिए यहाँ किसी स्थायी राज्य के स्थापित  होने होने  विकसित होने की स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती। परन्तु उत्तराखंड में अनेक सिक्के, अभिलेख ताम्रपत्र आदि प्राप्त होने से इतिहास के कुछ सूत्र जोड़े जा सकते हैं। शायद उस समय जो राज्य इस भू -भाग के आस -पास थे या जिन राजा ने भी इसके निकटवर्ती मैदानी इलाकों में अपने राज्य का विस्तार किया, उसने सम्भतव: इसी कारण इतिहासकार मानतें हैं की यहाँ अमुक समय में अमुक राज्य था।  किन्तु इन बातो से वास्तविक इतिहास की पुष्टि नहीं हो पाती। कलसी (देहरादून के पास ) में अशोक के शिलालेख की उपस्थिति प्रमाणित करती हैं कि तीसरी शती ईसा पूर्व में इस प्रदेश का भारत की राजनीतिक और सांस्कृतिक व्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान था। प्रख्यात विद्वान रैप्सन का विचार हैं की ‘यह संभव है की शिशुनाग और नन्द उन पर्वतीय सरदारों के वंशज थे, जिन्होंने मगध राज्य को विजय करके हस्तगत किया था।  यधपि नन्दों की उत्तपति के बारे में कोई निश्चित जानकारी नहीं हैं, परन्तु सम्भवत:यह नाम जनजातीय हैं। उसका सम्बन्ध उत्तर प्रदेश के हिमालय क्षेत्र में गंगा और कोशी नदी के बीच,रामगंगा नदी के समीप रहने वाले नन्दों से जोड़ा जा सकता हैं।

uttarakhand-ka-navun-etihash

 कुणिन्द वंश का शाशन –

कुणिंद जाति उत्तराखंड तथा उसके आस पास के पर्वतों पर तृतीय -चतुर्थ सदी ईस्वी तक शासन करने वाली सर्वप्रथम राजनितिक शक्ति थी।  महाभारत से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है। चौथी शती ईसवी पूर्व से ये मौर्यो के अधीन विदित होते हैं| भूगोलवेत्ता ‘टालमी’ के अनुसार भी कुलिद्रीन (कुणिन्द) लोग दूसरी शती ईसा पूर्व में व्यास, गंगा और यमुना के ऊपर क्षेत्रों में फैलें थे। सतलुज और काली नदी के बीच के क्षेत्र में मिले कुणिन्द सिक्के भी इसकी पुष्टि करते हैं| श्रीनगर के समीप सुमाड़ी गांव, थत्यूड़ा, अठूर तथा अल्मोड़ा जनपद से मिले कुणिंद-सिक्कों का समय भी ईसा पूर्व की शती में आँका गया हैं। अमोघभूति कुणिंद राजवंश के सबसे प्रभावशाली नरेश थे। पहली शती ईसा पूर्व में अमोघभूति की मृत्यु के बाद कुणिन्द शक्ति निर्बल पड़ गई| स्थिति का लाभ उठाते हुए शकों ने उनके मैदानी प्रदेश पर अधिकार कर दिया।पहली शदी  के उत्तरार्द्व में कुषाणों ने उत्तराखंड क्षेत्र के तराई क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। वीरभद्र (ऋषिकेश), मोरध्वज (कोटद्वार के पास) और गोविषाण (काशीपुर) से क्रुषाणकालीन अवशेष बड़ी संख्या में मिले हैं।

उत्तराखंड के इतिहास में कर्तृपुर राज्य –

कुषाणों के पतनकाल में गोविषाण (काशीपुर ), कलसी और लाखामण्डल (चकराता) में कुछ और राजवंशी भी उभरकर सामने आये। कुणिन्द भी किसी न किसी रूप में शासन करते रहे। इस काल में उत्तराखंड के इतिहास की सबसे महत्वपुर्ण घटना ‘कर्तृपुर राज्य ‘ का उदय था। इतिहासकारों का मत हैं कि इस राज्य की स्थापना भी कुणिन्दों ने की थी। इस राज्य में उत्तराखंड, हिमालचल प्रदेश और रुहेलखंड के उत्तरीय क्षेत्र सम्मलित थे। समुद्रगुप्त के प्रयास स्तम्भ लेख में ‘कर्तृपुर’ को गुप्त साम्राज्य की उत्तरीय सीमा पर स्थित एक अधीनस्थ राज्य कहा गया हैं। उत्तराखंड में शक प्रभाव की प्रमाणिकता वहा से प्राप्त अनेक उदीच्य वेशधारी (कोट, बूटधारी ) सूर्य प्रतिमाओं से भी सिद्ध होता हैं, क्योंकि शक उपासक थे।

5वी शती के उत्तरार्द्ध में नागो ने कर्तृपुर के कुणिन्द राजवंश की सत्ता समाप्त कर उत्तराखंड पर अपना अधिकार जमाया। तब पश्चिम में यमुना की उपत्यका में यादववंशी सेनवर्मा का शासन था। शायद छठी शती के उत्तरार्द्व में कन्नौज के मौखरि राजवंश ने नागों की सत्ता समाप्त कर उत्तराखड पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया।

हर्ष का अल्पकालीन अधिकार 

अंतिम मौखरि नरेश गृहवर्मा की हत्या हो जाने के बाद मौखरि राज्य उनके बहनोई thaneshvar नरेश हर्षवर्धन के अधिकार मेँ चला गया और इस प्रकार उत्तराखंड भी उनके राज्य का अंग बन गया। महाराजा हर्षवर्धन ने एक पर्वतीय राजकुमारी से विवाह भी किया। हर्ष के राज्यकाल में (7 वीं शती) चीनी यात्री हेनसांग ने भारत यात्रा की। उन्होनें ‘सुवर्णगोत्र’ नामक एक राज्य का उल्लेख किया हैं -“यहाँ पर सोने का उत्पादन होता था। सदियों से यहाँ पर स्त्रियाँ राज करती रही हैं, इसलिए इसे स्त्रीराज्य कहा जाता हैं। शासन करने वाली स्त्री के पति को राजा कहा जाता हैं, परन्तु वह राज्य के मामलों की कोई जानकारी नहीं रखता हैं। पुरुष वर्ग युद्ध करता हैं और खेती का काम देखता हैं।”

 कार्त्तिकेयपुर राजवंश-

इतिहासकारों का मत हैं इन राजनितिक परिस्थितियों में, एक नये ‘कार्तिकेयपुर  राजवंश’ का उदय हुआ जिसकी राजधानी जोशीमठ के दक्षिण में कहीं ‘कार्त्तिकेयपुर’ में थी। मन जाता हैं कि कार्त्तिकेयपुर राजवंश उत्तराखंड का प्रथम ऐतिहासिक राजवंश हैं। इस राजवंश के अभिलेखक , कंडारा, पांडुकेश्वर, आदि स्थलों से प्राप्त हो चुके हैं। इसके कम-से-कम तीन परिवारों ने 700 ईस्वी से 1050 ईस्वी तक उत्तराखंड के विशाल भू-भाग पर शासन किया। निम्बर,ललितशुरदेव,सलोणादित्य आदि इस राजवंश में प्रतापी राजा हुए। एटकिन्सन के अनुसार, यह राज्य सतलुज से गण्डकी तक और हिमालय से मैदानी क्षेत्र रुहेलखण्ड तक फैला था। कार्तिकेयपुर राजवंश के काल में उत्कृष्ट कला का विकास हुआ। वास्तु तथा मूर्तिकला के क्षेत्र में यह उत्तराखंड का ‘स्वर्णकाल’ था। कभी-कभी भ्रम से कुछ लोग इसी को ‘कत्यूरी कला’ कह देते हैं। कत्यूरी शासन तो बहुत बाद का मध्यकालीन था। लगभग तीन सौ वर्ष तक कार्तिकेयपुर में शासन करने के उपरान्त यह राजवंश अपनी राजधनी कुमाऊँ की कत्यूर-घाटी में बैजनाथ ले आया तथा वहाँ ‘वैघनाथ-कार्तिकेयपुर’ बसाया। परन्तु कुछ ही समय बाद कार्तिकेयपुर राजवंश का अन्त हो गया।

बहुराजकता का युग 

हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद (648 ईस्वी) उत्तराखंड का इतिहास कुछ अस्पष्ट-सा हैं। इस विघटनकाल में उत्तराखंड में अनेक छोटे-बड़े राज्यों का भरमार हो गई। हर्ष-काल में, सातवीं शती ईसवी में, भारत-भ्रमण पर आये चीनी यात्री हेनसांग के वृतान्त के आधार पर कहा जा सकता हैं कि इस काल में उत्तराखंड की सीमाओं में तीन राज्य प्रसिद्ध थे- ब्रह्मपुर, स्त्रुध्न्न तथा गोविषाण। इनमें पौरवो का ब्रह्मपुर राज्य सबसे विशाल था। सैन्य शक्ति के आभाव में इन दुर्लभ राजाओं ने सुरक्षा के लिए छोटे-छोटे कोटों अथवा गढ़ों का निर्माण किया। ( history of Uttarakhand in hindi )

इस विघटनकाल में उत्तराखंड पर कई बहरी आक्रमण भी हुए। दक्षिणी उत्तराखंड पर चौहान नरेश विग्रहराज के शासन की चर्चा मिलती हैं। तोनर राजाओं ने भी उत्तराखंड के कुछ क्षेत्रों पर अपना अधिपत्य जमाया था।

बहुराजकता का यह काल लगभग तीन सौ वर्षो तक रहा। गढ़वाल-कुमाऊँ में इस समय बहुसंख्यक गढ़पतियों का शासन रहा। कुमाऊँ में कत्यूर राजवंश कई शाखाओ में बिखर गया।

उत्तराखंड का कत्यूरी राजवंश –

‘कार्त्तिकेरीपुर’ राजाओं के पश्च्यात , मध्यकालीन कुमाऊँ में ‘कतियुरों’ की विशेष चर्चा मिलती हैं। कदाचित इस राजवंश का मूल नाम ‘कतियुर’ ही था। पीछे जागरो में जो अधिक पुराने नहीं हैं, इन्हीं को ‘कत्यूरी’ या ‘कंथापूरी’ कहने लगे। उनके इतिहास के स्रोत मात्र स्थानीय लोककथाएँ, तथा जागर हैं। जो मौखिक रूप में प्रचलित हैं। आगे चलकर कत्यूरियों के कमजोर पड़ने से उनका राज्य छीन-भिंन हो गया। इस राजवंश का अंतिम राजा बीरदेव या वीराम था। मध्यकाल म कत्यूरियों की कई शाखाएँ कुमाऊँ में शासन करती थी। असकोट के रजवार तथा डोटी के मल्ल उन्हीं के शाखाएँ मानी जाती हैं। उत्तराखंड एक बार फिर बहुराजकता के घेरे में आ गया  और उस पर बहरी आक्रमण होने लगे।

उत्तराखंड का इतिहास

यहाँ देखिये – चार धाम यात्रा का इतिहास व् चार धाम यात्रा पर निबंध

पक्षिम नेपाल नरेश अशोकचल्ल ने 1191 ईसवी में उत्तराखंड पर धावा बोला और उसके अधिकांश भाग पर अधिकार कर दिया। तदन्तर पक्षिम नेपाल से ही आक्रान्ता क्राचलदेव ने भी कुमाऊँ पर अधिकार किया यघपि उसकी सत्ता भी अधिक समय तक नहीं रही।

उत्तराखंड का इतिहास में गढ़वाल का परमार राजवंश –

ऐतिहासिक सूत्रों के अनुसार परमार वंश की स्थापना कनकपाल ने 888 ईसवी में चंन्द्पुरगढ़ में की थी। किन्तु गढ़वाल का परमार राजवंश एक ‘स्वतन्त्र’ राजनितिक शक्ति के रूप में 10वीं-11वीं शती के आसपास ही स्थपित हो गया। परमार वंश के प्रारम्भिक नरेश कार्तिकेयपुरीय नरेशों के सामन्त रहे, ऐसा प्रतीत होता हैं। इस वंश के शक्तिशाली राजा अजयपाल ने चान्दपुरगढ़ से अपनी राजधानी पहले देवलगढ़ और फिर श्रीनगर में स्थापित की। कहा जाता हैं की दिल्ली के सुल्तान बहलोल लोदी (1451-88) ने परमार नरेश बलभद्रपाल को ‘शाह’ की उपाधि देकर सम्मानित किया। इसलिए आगे चलकर ‘परमार’ नरेश अपने नाम के साथ ‘शाह’ का प्रयोग करने लगे। परन्तु पँवार राजाओं को ‘शाह’ या ‘साही’ उपाधि किसी दिल्ली के किसी बादशाह ने नहीं दी। ‘साही’ शुद्ध हिन्दू उपाधि थी। इनके राज्य में उस समय वर्तमान हिमाचल प्रदेश के थ्योग, मथन, रवाईगढ़ आदि क्षेत्र भी सम्मिलित थे। इसके अलावा, वर्तमान में हिमालचल प्रदेश स्थित डोडराकवारा और रामीगढ़ भी गढ़वाल नरेश के अधीन थे। गढ़वाल पर मुगलों ने भी छुटपुट आक्रमण किये, किन्तु गढ़वाल कभी उनके अधीन नहीं रहा। इस सन्दर्भ में एक रोचक प्रसंग 1636 में मुगल सेनापति नवाजतखाँ का दून-घाटी पर हमला था। उस समय गढ़वाल राज्य की बागडोर महाराणी कर्णावती के हाथों में थी। उसने अपनी वीरता तथा सूझबूझ से शक्तिशाली मुगलों को करारी मात दी। रानी के सैनिको ने उन सभी मुगल सैनिकों के नाक काट दिए जो आक्रमण के लिए आये हुये थे। इससे महारानी कर्णावती ‘नाक-कटी राणी’ के नाम से प्रसिद्ध हो गई। गढ़वाल नरेश मानशाह और महीपतिशाह ने तिब्बत हमलों का सफलतापूर्ण सामना किया। तिब्बत के विरुद्ध युद्धों में परमार सेनानायक माधेसिंह भण्डारी और लोदी रिखोला ने असाधारण वीरता का परिचय दिया।

परमार (पॉवर) नरेशों में अजयपाल के पश्च्यात मानशाह, फतेपतिशाह, तथा प्रदीपशाह महान राजा हुए। ‘मनोदयकाव्य’ ,’फतेप्रकाश’ आदि रचनाओं में उन नरेशों के प्रताप का वर्णन किया गया हैं। जिन्होने अपनी सीमाओं की वीरतापूर्णक सुरक्षा ही नहीं की, अपितु गढ़-संस्कृती का उत्थान भी किया। ‘गढ़वाल’ भाषा पँवार शासनकाल में गढ़वाल राज्य की राजभाषा थी। ( history of Uttarakhand in hindi )

14 मई, 1804 में गोरखों के हाथों प्रघुम्नशाह की पराजय के बाद, परमार नरेश अपना राज्य खो बैठे। गढ़वाल-कुमाऊँ पर गोरखों का शासन स्थापित हो गया। परन्तु सन 1814 में अंग्रेजों के हाथों गोरखों की पराजय के परिणामस्वरूप गढ़वाल स्वत्रन्त्र हो गया। कहते हैं अंग्रेजों को लड़ाई का खर्च न दे सकने के कारण, गढ़वाल नरेश को समझौते में अपना आधा राज्य अंग्रेजों को देना पड़ा। परन्तु तथ्य यह है की अंग्रेजों ने गढ़वाल नरेश को धोखा देकर अर्थात वचन-भंगकर पूर्वी गढ़वाल पर अधिकार कर लिया। गढ़वाल नरेश कभी श्रीनगर राजधानी को नहीं छोड़ना चाहते थे। लेकिन अंग्रेजों के क्रुचक्र के कारण गढ़वाल नरेश सुदर्शनशाह ने अपनी राजधानी ‘टिहरी’ में स्थापित कर दी। उनके वंशज 1 अगस्त, 1949 तक टिहरी गढ़वाल पर राज करते रहे तथा भारत में विलय के बाद टिहरी राज्य को उत्तर प्रदेश का एक जनपद बना दिया गया।

उत्तराखंड के कुमाऊँ का चन्द वंश –

कातियुरों के उपरान्त,उत्तराखंड के पूर्व भाग कुमाऊँ में चन्द राजवंश का शासन स्थापित हुआ। पहले भ्र्म से इसका पहला शासक राजा सोमचंद मन जाता था। नये शोधों से ज्ञात होता है की “सोमचन्द का कुमाऊँ के इतिहास में कोई अस्तित्व नहीं हैं। चन्द वंश का संस्थापक थोहरचन्द था।” ऐसा माना जाता है कि चन्द कुमाऊँ क्षेत्र पर अपना प्रभुत्व 14वीं शती के बाद ही जमा पाए। कुमाऊँ में चन्द और कातियुर (तथा-कथित कत्यूरी) प्रारम्भ में समकालीन थे। और उनके सत्ता के लिए संघर्ष चला जिसमें अन्त में चन्द विजय रहे। सबसे पहले चन्दो ने ‘चंपावत’ को अपनी राजधानी बनाया। कालान्तर में, कतियुर-शाखाओं पर क्रमशः विजय प्राप्त कर उन्होनें ‘अल्मोड़ा’ अपनी राजधानी बनायी। वर्तमान पक्षिम नेपाल के कुछ भाग भी इसके क्षेत्र में सम्मिलित थे। शायद १५६३ ईसवी में राजा बालो कल्याणचन्द ने अपनी राजधानी को अल्मोड़ा में स्थानान्तरित कर दिया। 1790 में गोरखा आक्रान्ताओं ने चन्द राजवंश का अन्त कर दिया। ( history of Uttarakhand in hindi )

उत्तराखंड के इतिहास में  गोरखा शासन –

1790 ईसवी में गोरखों ने कुमाऊँ पर अधिकार कर लेने के बाद गढ़वाल पर भी आक्रमण किया। परन्तु चीनी हमलों के भय से उस समय उन की सेना वापस लोट गई। 1804 में गोरखों ने फिर से गढ़वाल पर एक सुनियोजित आक्रमण कर अधिकार कर लिया। युद्ध में गढ़वाल नरेश प्रदुमन शाह देहरादून के खुड़बुड़ा स्थान पर वीरगति को प्राप्त हुए। इस प्रकार सम्पूर्ण उत्तराखंड पर गोरखों का अधिकार हो गया। कुमाऊँ पर यह गोरखा शासन 25 वर्ष तक और गढ़वाल पर लगभग ११-१२ वर्ष तक रहा। इस अवधि में भी गढ़वाल में उसका कड़ा विरोध होता रहा। कई स्थानों पर तो गढ़वालियों ने उनसे अपने किले वापिस करवा दिऐ। उनके शासन काल में उत्तराखंड के लोगो को असहनीय अत्याचार, अन्याय और दमन झेलना पड़ा। अतः इस अनैतिक शासनकाल को गोरख्याणी राज कि संज्ञा दी जाती हैं।

कलबिष्ट देवता उत्तराखंड के प्रसिद्ध देवता की कहानी यहाँ पढ़िए 

उत्तराखंड के बारे अधिक जानने के लिए यहाँ क्लिक करें। 

bike on rent in haldwaniविज्ञापन
RELATED ARTICLES
spot_img

Most Popular

Recent Comments