मित्रों कहा जाता है कि , पहाड़ों में होने वाले प्रमुख वृक्ष चीड़ के पेड़ को श्राप (फिटकार ) मिला होता है। यह श्राप कैसे मिलता है? आइये जानते हैं इस पहाड़ी लोककथा के माध्यम से !
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चीड़ के पेड़ को श्राप पहाड़ी लोककथा –
यह पहाड़ी लोककथा उत्तराखंड के पिथौरागढ़ क्षेत्र से सम्बंधित है। पिथौरागढ़ में भादो के माह में सातू -आठु पर्व मनाया जाता है। यह पर्व गौरा – महेशर (महादेव ) के ससुराल आने की ख़ुशी में यह त्यौहार मनाया जाता है। यह कहानी भी गौरा के मायके आने पर आधारित है।
एक बार गौरा अपने मायके के लिए आ रही थी। और आधे रस्ते में आकर वो अपने मायके का रास्ता भूल जाती है। रास्ता भूलने के बाद वो ,पहाड़ो में पेड़ पौधों और नदियों आदि से अपने मायके का रास्ता पूछती हुई आगे बढ़ती है। और आशीर्वाद देते हुए अपने मायके की तरफ बढ़ती जाती है।
गौरा सबसे पहले नींबू के पेड़ से पूछती है कि , हे नीबू के पेड़ ! मै अपने मायके का रास्ता भूल गई हूँ , तुम मुझे मेरे मायके का रास्ता बताने में मदद करोगे क्या ? तब नीबू का पेड़ बताता है कि, दाएं हाथ का रास्ता भगवान् केदारनाथ जी के धाम को जाता है। और बायाँ रास्ता तेरे मायके को जाता है। तब गौरा नींबू के पेड़ को आशीष देती है ,कि तेरे पर सफ़ेद फूल फुलंगे और लाल रंगो में पकेंगे। और तेरे फलों को मनुष्य खाएंगे।
अब जितना रास्ता नीबू के पेड़ ने बताया ,वहां तक जाकर ,गौरा को आगे का रास्ता समझ में नहीं आया , और उनको वहीँ पर संतरे का पेड़ मिला। उसने नारंगी के पेड़ से पूछा , हे नारंगी , हे संतरे के पेड़ ! मै अपने मायके का रास्ता भटक गई हूँ ! क्या तुम मुझे सही रास्ता बताओगे ? संतरे की डाली बताती है कि ,दाया रास्ता त्रिजुगीनारायण को जाता है और , बाया रास्ता जायेगा तेरे मायके को। गवरा संतरे के पेड़ को आशीष देती है कि ,तुम नील फूलों में फूलना , और पिले रंगो में फलना। तुम्हारे फल देवताओं को चढ़े।
अब गौरा अपने मायके के लिए आगे बढ़ती जा रही थी। फिर उसे अचानक दो रस्ते मिल गए जहाँ वो फिर दुविधा में फंस गई। वहीं पर उसे घिंघारू की डाली मिलती है। तब वो घिंघारू की डाली से आग्रह करती है कि ,उसे उसके मायके का रास्ता पकड़ने में मदद करें ! घिंघारू की डाली उसे बताती है कि , दायां रास्ता तेरे मायके का है और बायां रास्ता जाता है, भगवान् बद्रीनाथ के धाम को। फिर गौरा घिंघारू की डाली को भी आषीष देती है कि ,तू लाल फलों फलें और तेरे फल ,पक्षियों की भूख मिटाये। ( पहाड़ी लोककथा )
आगे कुछ दूर जाने के बाद उसे किरमोड़े की डाली सही रास्ता बताती है , तो वह किरमोड़े की डाली को आशीष देते हुए कहती है की , तू नील रंगो में पकेगी और ,तेरे फल ग्वाल बाल लोगों की भूख प्यास बुझाएंगे। इसी प्रकार आगे जाकर चौराहे पर पहुंच कर हिसालु की झाडी , गौरा की दुविधा का अंत करती है। और गौरा हिसालु को आशीष देती हैं कि , तू कोपलों में फूलना और रसीले दानों में पकना , पहाड़ों की भूखी बहु बेटियां ,तेरे फल खाकर तृप्त होएंगी।
अब गौरा आगे बढ़ जाती है। आगे जाकर उसे फिर दो रास्ते मिलते हैं , फिर गौरा दुविधा में फस जाती है ,कि कौन सा रास्ता उसके मायके का होगा ! वहां उसे एक चीड़ का पेड़ मिलता है। गौरा चीड़ के पेड़ से पूछती है कि ,भैया क्या आपको मेरे मायके का रास्ता पता है ?? चीड़ का पेड़ घमंड से वशीभूत होकर कहता है कि ,” मैं अपने ही हल्ला गुल्ला में खोया हूँ । मुझे कुछ सुनाई नहीं पढ़ रहा , किसी और से पूछ ले रास्ता !!! तब गौरा को गुस्सा आता है। वो चीड़ के पेड़ को श्राप ( फिटकार ) देती है , !
हे घमंडी चीड़ के पेड़ तेरा एक ही जन्म होगा , तू हरे फल में फलेगी , तेरे फल सूखने के बाद भी जमींन में पड़े रहेंगे। फिर गौरा गुस्से से तमतमाती हुई आगे बढ़ी तो ,उसने रास्ते में पड़े देवदार से पूछा ,क्या तुमको मेरे मायके का रास्ता पता है ? तब देवदार बड़े लाड़ प्यार से बोला , आजा मेरी प्यारी बेटी !! तेरा मायका आ गया है। मै तेरे मायके का देवदार हूँ। तब गौरा खुश होकर बोली , हरे भरे और मूलयवान रहना और तेरे फूल पत्ते देवताओं को चढ़े !!
नोट – चीड़ के पेड़ को श्राप यह पहाड़ी लोक कथा अच्छी लगी हो तो अपने साथियों को अवश्य साँझा करें।
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