कहानी का शीर्षक – नथ
लेखिका – गौरा पंत “शिवानी “
पुट्टी ने उठकर अपनी छोटी-सी खिड़की के द्वार खोल दिए। धुएं से काली दीवारों पर सूरज की किरणों का जाल बिछ गया। छत से झूलते हए छींके में धरे ताज़े मक्खन की ख़ुशबू से कमरा भर गया और पुट्टी के हृदय में एक टीस-सी उठ गई-क्या करेगी उस ख़ुशबू का जब उस मक्खन को खानेवाला ही नहीं रहा! ऐसे ही ताज़े मक्खन की डली फाफर की काली रोटी पर धरकर खाते-खाते उसके पति ने उसके मुंह में अपना जूठा गस्सा दूंस दिया था-ठीक जाने के एक दिन पहले। उस दिन भी ऐसे ही खिड़की के पट से चोर-सा उजाला आकर पूरे कमरे में फैल गया था और उसी उजाले के पीछे-पीछे न जाने कहां से उसकी सास आकर खड़ी हो गई थी। अपने धृष्ट फ़ौजी पुत्र की बहू को कर्कशा सास ने वहीं चीरकर धर दिया था,‘हद है बेशर्मी की भी! हमारे कुमाऊं की छोकरी होती, तो ऐसी बेशर्म थोड़े ही होती!! है न तिब्बत की लामानी, इसी से गुण दिखा रही हैं!!’ सास के जाने के पश्चात् वह कितनी देर तक पति की छाती पर सिर धरे सुबकती रही थी। पर जिस छाती को चीनियों की गोलियों की वर्षा झेलनी थी, वह सुन्दर पत्नी की टेक बनती भी कैसे? गुमान सिंह के जाते ही पुट्टी पर विपत्तियों का पर्वत टूट पड़ा। सास, विधवा ननद और जिठानी की गालियां सुनती तो वह जान-बूझकर ही बहरी बन जाती-दोनों कानों पर हाथ धरकर इशारा करती कि उसे कुछ भी नहीं सुनाई दे रहा है। विधवा ननद का पर्वताकार शरीर क्रोध के भूकम्प से डोल उठता,‘अन्धी, कानी, बहरी लड़कियां क्या अभी और बची हैं भौजी, तुम्हारे तिब्बत में? अभी हमारा एक भाई और भी तो है.’ वह व्यंग्य-भरे स्वर में चीखकर कहती. अपने दोनों कानों पर हाथ धर अपनी भोली सूरत को और भी भोली बनाकर पुट्टी सधे अभिनय की मुद्रा में कहती, ‘क्या करूं, न जाने क्या हो गया है इन कानों में! हरदम सांय-सांय की आवाज़ आती है! एकदम बज्जर गिर गया है-निगोड़े कानों में!’
‘इतना घमण्ड था न अपने रूप का! तिब्बत के जादू से हमारे भैया को भेड़ बनाकर रख दिया! इसी से भगवान ने सज़ा दी! भगवान करे, तुम्हारे कानों पर ही नहीं, पूरे शरीर पर बज्जर गिरे। कुलच्छनी न होती, तो क्या गुमान को लद्दाख जाना पड़ता।’ पुट्टी अपनी हिरनी की-सी तरल दृष्टि से उसे देखकर हंसती रहती जैसे उसकी पुरुष गर्जना का एक शब्द भी उसके पल्ले न पड़ा हो। माता, भाई, भौजाई और विधवा बहन से लोहा लेकर ही गुमान उसे ब्याह लाया था। अपनी मां के साथ वह गांव-गांव में फेरी लगाकर बिसाती का छोटा-मोटा सामान बेचा करती थी। स्वास्थ्य से दमकते लाल चेहरे पर उसकी तीखी नाक और बड़ी-बड़ी आंखें लामा कन्याओं की भांति चपटी और छोटी नहीं थीं. कानों में गन्दे पीले सूत में गूंथे फीरोजा और मूंगे झूलते थे।कन्धे से टखने तक झूलते उसके तिब्बती लबादे की टीली-ढाली बांहों में वह एकदम ही बच्ची लगती, पर कभी-कभी लबादे की केंचुली उतारकर वह उसकी बांहों में रहस्यमय सीवन से ढूंढ-ढूंढ़कर जुएं मारती और अब लबादे की केंचुली से रहित उसका उन्मुक्त यौवन किसी लपलपाते नाग की भांति देखनेवाले को डसने दौड़ पड़ता. गुमान ने भी उसे एक दिन बिना केंचुली के देख लिया। ग्राम के चौराहे पर उसकी मां ने अपनी गन्दी चादर फैलाकर दुकान खोल दी थी। जम्बू, गन्फ्रेणी आदि मसाले की जड़ी-बूटियों के बीच वह स्वयं टांग पसारकर धूप सेंक रही थी और एक टीले पर बैठी उसकी सुन्दरी पुत्री अपने लबादे की बांहों से जुएं बीन-बीनकर मार रही थी। गुमान सिंह छुट्टियों में घर आया हुआ था। सुबह उठकर वह घूमने निकला और मां-बेटी की हाट के सामने ठिठककर खड़ा हो गया। पुट्टी अपनी सुडौल बांहों को अपने लबादे की मुर्दा बांहों से टटोल-टटोलकर जुएं निकाल रही थी। गुमान को देखा, तो लजाकर उसने हाथ खींच लिए। उसके गालों की उठी मंगोल हड्डियों के बीच गुलाबी रस का सागर छलक उठा। चौड़े माथे पर गोंद की तरह चिपकाई काले केशों की पुट्टी से कुछ केश निकलकर हवा में फरफरा रहे थे। जीर्ण कुरते के बटनों की पूर्ति एक बड़ी-सी सेफ़्टी पिन लगाकर की गई थी। पर किसी वेगवती नदी के दो पाटों पर बांधा गया रस्सी का पहाड़ी पुल जैसे साधारण-सी हवा में कंप-काप उठता है, उसी भांति सेफ़्टी पिन रह-रहकर कांप रही थी। गुमान अकारण ही चीज़ों का मोल-तोल करने लगा। कभी मैली चादर पर सजे छोटे आईने में अपनी मूंछ संवारता, कभी नीले फीरोजा की अंगूठी पहनता और कभी उठाकर तिब्बती घण्टियां ही टनटनाने लगता।
‘क्यों बेकार में गड़बड़ करता!’ पुट्टी की मां ने अपनी टूटी-फूटी हिन्दी में उसे झिड़क दिया,‘लेना है तो लो, नहीं तो जाओ!’
उसकी युवा पुत्री के आते ही ग्राम के मनचलों की भीड़ जम जाना नित्य का नियम था, पर वह बड़ी खूंखार और रूखी औरत थी. जौ की शराब और भेड़-बकरे के कच्चे गोश्त ने उसका रक्तचाप शायद और भी बढ़ा दिया था. असली और नकली ग्राहक को वह चट से बीनकर फटक देती थी। पर गुमान सिंह को दुबारा झिड़कने का साहस उसे भी नहीं हुआ। उस गोरे तरुण की निर्भीक दृष्टि में कुछ अजीब मोहिनी थी। फिर वह फ़ौजी जवान था-ऐसा फ़ौजी जो एक-दो दिन में ही निर्मम चीनी लुटेरों को भगाने लाम पर जा रहा था। पुट्टी की मां का मन अकारण ही ममता से भर गया। चीनियों को वह कभी क्षमा नहीं कर पाई थी। उसके इकलौते बारह वर्ष के पुत्र को उन्होंने चीन के किसी स्कूल में पढ़ने भेज दिया था। उसके दमे के रोगी पति को सड़क की बेगार में जोत-जोतकर मार डाला था। उसके हाथी से विराट् याक को काट-काटकर हत्यारों ने अपनी फ़ौजी टुकड़ी को खिला दिया था। और एक दिन भी वह चूकती, तो उसकी पुट्टी को भी उड़ा ले जाते। रात ही रात में वह ‘मनी पद्मी हुम्’ जपती पुत्री को खींचती, गिरती-पड़ती तिब्बत की सीमा पार कर गई थी. उन्हीं चीनियों को मार भगाने गुमान जा रहा था, इसी से वह उसकी श्रद्धा का पात्र बन गया।
वह नित्य ही उस सराय में पहुंच जाता जहां पुट्टी अपनी मां के साथ रहती थी। पुट्ठी उसके लिए मक्खन-नमकवाली गरम तिब्बती चाय और पशमसहित भूने गए भेड़ की रान के बड़े-बड़े टुकड़े तैयार कर लाती। पुट्टी की मां दोनों पर अपनी छोटी-छोटी आंखों का अंकुश लगाए बैठी रहती। फिर भी न जाने कब पुट्टी के मंगोल कटाक्षों की अर्गला गुमान के हृदय-कपाट पर स्वयं ही लग गई. जाने के तीन दिन पूर्व गुमान ने पुट्टी की मां के सम्मुख उसकी पुत्री से विवाह का प्रस्ताव रखा, तो वह बड़े सोच में पड़ गई. कुमय्यों के बीच खाली दाल-भात खाकर उसकी तिब्बती बेटी कैसे जिएगी? बिना जौ की शराब के उसके गले के नीचे रोटी का गस्सा नहीं उतरता और फिर दूध-चीनीवाली चाय भला कौन तिब्बती लड़की घुटक पाएगी? फिर वह गुमान की मां और विधवा बहन को देख चुकी थी। उस क्रूर बुढ़िया के शासन में उसकी पुट्टी घुल-घुलकर रह जाएगी।
‘नहीं!’ दृढ़ स्वर में अपना निश्चय प्रकट करने को उसने अपनी गरदन ऊंची की, तो देखा, गुमान और पुट्टी दोनों दीन याचक की दृष्टि से उसे देख रहे थे। दूसरे ही क्षण पुट्टी की मां को ग्राम के मनचलों का ध्यान आया जो भूखे व्याघ्र की भांति पुट्टी को किसी भी क्षण निगल जाने को तत्पर थे। उसने अपनी सहमति दे दी। पर अभी गुमान को अपनी मां, बहन और बिरादरी से मोर्चा लेना था। मां ने पहाड़ से कूद जाने की धमकी दी। बहन ने कहा, वह फांसी लगा लेगी, पर तिब्बत की सुन्दरी कन्या को लाकर जब गुमान पांच पंचों के सामने सीना तानकर खड़ा हो गया, तो पंच भी सहम गए। पुट्टी के सात्विक सौन्दर्य ने धर्म, जाति और रूढ़ियों की उलझी गांठे क्षण-भर में सुलझाकर रख दीं. दूसरे ग्राम से पण्डित बुलाकर गुमान के युवा मित्रों ने फेरे फिरा दिए और कुछ याकूत, फीरोजे, चांदी की तीन-चार दंतखुदनियां और चार बकरियों के दहेज के साथ ज़ोर-ज़ोर से रोकर पुट्टी की मां ने उसे सराय से ससुराल के लिए विदा किया। न जाने कितनी गालियों से सास ने उसका वरण किया। जिठानी और ननद उसके विचित्र लबादे का मज़ाक बनाती ज़ोर-ज़ोर से हंस रही थीं। किन्तु उस बदसूरत लबादे के भीतर जगमगाते रत्न को एक ही व्यक्ति ने पहचाना और वह था गुमान। वह जितना ही अपनी भोली विचित्र पत्नी को देखता, उतना ही उसके सौन्दर्य में डूबता चला जाता। पुट्टी बहुत कम बोलती और बोलने और हंसने में उसके गालों की ऊंची हड्डियां कुछ और भी ऊंची उठ जाती थीं।
गुमान का कमरा बेहद छोटा और अंधेरा था। एक कोने में ताज़े खोदे गए मिट्टी से सने आलुओं का ढेर लगा था, दूसरी ओर दो टूटे हल दीवार से टिके थे जिन पर उसकी खाकी वर्दियां टंगी थीं। काली दीवार पर एक बडा-सा आईना टंगा था। जिसे गुमान मद्रास से ख़रीदकर लाया था. उसी आईने में युगलप्रेमियों ने एकसाथ अपना चेहरा देखा, तो दिन भर की कड़वाहट धुल गई। रात को अपनी नवेली पत्नी के लिए गुमान कमरे में ही खाना ले आया, तो वह कटकर रह गई. बार-बार उसने गरदन हिलाकर कमरे में खाने की व्यवस्था पर असन्तोष प्रकट किया, टूटी-फूटी पहाड़ी में अपनी लज्जा व्यक्त करने की चेष्टा की, किन्तु वह जिधर गरदन फेरती, वहीं उसका सजीला पति उसके मुंह में गस्सा हंस देता। पुट्टी अपनी ढीली-ढीली बांहों में मुंह ढांकने की चेष्टा कर अपनी तिब्बती भाषा में न जाने क्या बुदबुदाती और गुमान उसकी विचित्र बड़बड़ाहट को दुहराता, तो वह खिलखिला उठती। गुमान होंठों पर अंगुली रखकर उसे इशारे से समझाता-’श्श! धीरे हंसो… बगलवाले कमरे में अम्मा लेटी हैं.’ पुट्टी उसके गूंगे आदेश को चट समझ लेती। दोनों नन्दनवन के उन शीतल वृक्षों की स्वर्गिक छाया में थे जहां भाषा का कोई बन्धन नहीं रहता। वहां केवल एक ही भाषा ग्राह्य है, और वह है हृदय की। दूसरे दिन वह सास के पीछे-पीछे छाया-सी घूमती रही, पर वह एक शब्द भी नहीं बोली। ननद के साथ वह बरतन मलवाने बैठी, तो ननद ने उसकी ओर देखकर पच्च से थूक दिया।पुट्टी की आंखों में आंसू छलक आए। अभी तो उसका पति यहीं था। उसके जाने पर उसकी कैसी दुर्गति होगी!
दूसरे दिन उसकी मां उससे मिलने आई। पुत्री के कुम्हलाए चेहरे को देखकर उसका जी भर आया। अपनी भाषा में फुसफुसाकर उसने पुट्टी के हृदय का भेद लेने की बड़ी चेष्टा की, पर पुट्टी सिर झुकाए खड़ी रही। कुछ नहीं बोली। उसके पीछे खड़ी उसकी सास और ननद आग्नेय दृष्टि से उसकी मां को देख रही थीं। किसी ने उससे बैठने को भी नहीं कहा। तब गुमान अपने मित्रों की टोली के साथ शिकार खेलने गया हुआ था। लौटने पर अपनी मां के अपमान की बात पुट्टी ने अपने ही तक सीमित रखी।
इसी बीच गुमान सिंह का जाने का दिन आ गया। जाने से कुछ घण्टे पहले उसने अपने खाकी कुरते में लपेटा गया एक रहस्यमय उपहार पुट्टी को थमा दिय,‘पुट्टी, इसमें तेरी पसन्द की एक चीज़ लाया हूं, पर अभी मत खोलना, समझी! और अकेले में देखकर इसे आलू की ढेरी के नीचे गाड़कर रख देना.’ पुट्टी डबडबाई आंखों से पति के हंसमुख चेहरे को देखती रही ,कहती भी क्या? अपने हृदय की व्यथा को वह अपनी ही तिब्बती भाषा में ठीक से व्यक्त कर सकती थी। और उस भाषा के दुरूह शब्द उसका पति कैसे समझता! पतली मूंछों के नीचे पति की मीठी हंसी के सपने देखती बेचारी आलू के ढेर पर सिसकती रही। एकाएक उसे पति के शब्द याद आए,‘इसे अकेले में देखना पुट्टी!’ हाथ की बादामी थैली को वह भूल ही गई थी। क्या लाया होगा गुमान? कांपते हाथों से उसने पोटली खोली और चौंककर पीछे हट गई। पोटली से यदि काला नाग भी फन उठाए निकल आता, तो भी वह शायद इतनी नहीं चौंकती। पोटली से उसके पीले गोल चेहरे की परिधि से भी बड़ी पीले चोखे सोने की नथ झकझक दमक उठी। लाल, सफ़ेद और हरे कुन्दन का जड़ाऊ लोलक उसके हाथ का स्पर्श पाकर घड़ी के पेण्डुलम-सा डोल उठा। सहसा उसकी आंखें पति के प्रति कृतज्ञता से डबडबा आईं। एक दिन उसने ग्राम के प्रधान की बहू की नई नथ देखकर पति से आलू के इसी ढेर पर बैठकर एक नथ की फ़रमाइश की थी। हाथ के इशारे से ही उसने अपनी छोटी सुघड़ नासिका के इर्द-गिर्द अंगुली से घेरा खींच-खींचकर भूमिका बांधी थी। पहले गुमान समझा नहीं था, और फिर कैसे ठठाकर हंसा था! आज उसी आलू के ढेर पर नथ झकझक कर रही थी, पर उसे पहनकर बैठेगी तो देखेगा कौन! टप-टप कर उसकी आंखों से आंसू गिरने लगे। न जाने कब उसकी मां आकर चुपचाप उसके पीछे खड़ी हो गई थी। सास और ननद गुमान को छोड़ने बस-स्टैण्ड गई थीं। पुट्टी की मां शायद बाज़ार करने जा रही थी। माथे पर पोटली की गांठ बंधी थी। दामाद से वह कल ही मिल ली थी। सुबह से ही पुट्टी के लिए उसका मन न जाने क्यों व्याकुल हो उठा था!! सूजी-सूजी आंखों से मां को निहारकर पुट्टी ने इशारे से नथ दिखाई। पोटली को नीचे उतारकर मां पुत्री के निकट खिसक आई. नथ हाथ से उठाई, तो उसकी आंखें आश्चर्य से फट पड़ी।
‘बाप रे बाप! कम से कम छह तोले की है पुट्टी! इतना रुपया तेरे आदमी के पास कहां से आया?’ ‘क्या पता, मां! कह गए हैं, अम्मा से बचाकर ज़मीन में गाड़ देना। ‘ पुट्टी की मां की आंखों में समधिन के प्रति घृणा उभर आई,‘ठीक ही तो कह गया. चुड़ैल अपनी बेटियों को दे देगी. ला…ला, जल्दी से कुछ ला, गाड़कर रख दूंगी, नहीं तो फिर बुढ़िया आ जाएगी। पर एक बार पहन तो बेटी, मैं भी देखू! ऐसी नथ और ऐसा तेरा रूप-एक बार तो देख जाता अभागा !!
सुन्दरी पुत्री के सौम्य चेहरे पर नथ की शोभा देखकर उसकी आंखें भर आईं। डलिया में धरे टूटे दर्पण को निकालकर पुट्टी ने चटपट अपना चेहरा देखा, तो स्वयं लाज से लाल पड़ गई,‘छिः, कहीं भी अच्छी नहीं लग रही हूं!’ ऐसा कहकर वह मां से अपने सौन्दर्य की स्तुति बार-बार सुनना चाह रही थी।
‘तू अच्छी नहीं लग रही है, तो कौन अच्छी लगेगी, तेरी खूसट सास? अच्छा, ला, उतार नथ। मैं चट से गाड़ दूं. ऐसी चीज़ क्या बार-बार बनती है!’ जब तक पुट्टी की सास और ननद लौटी, मां-बेटी ने दो हाथ गहरा गड्ढा खोदकर नथ को गाड़ दिया था। नथ का इतिहास मां-बेटी तक ही सीमित रह गया. फिर धीरे-धीरे युद्ध की दारुण विभीषिका में पुट्टी भटककर रह गई. भांति-भांति के भयावने समाचार सुनकर वह तड़पकर रह जाती. कभी सुनती, कुमाऊं के असंख्य वीर जवानों के पावन रक्त के अबीर से नेफा और लद्दाख के वन-वनान्त रंग गए हैं. कभी सुनती, नृशंस चीनी हत्यारों ने चारों ओर से घेरकर कुमाऊं रेजिमेंट की एक पूरी टुकड़ी को मोर्टार तोपों से भून दिया है। भूखी-प्यासी वह कभी स्कूल के हेडमास्टर के रेडियो से कान सटाकर बैठ जाती, कभी बिलख-बिलखकर रोने लगती। हिन्दी वह ठीक से समझ नहीं पाती थी, और ठीक से न समझे जाने पर युद्ध के भयावने समाचार उसे और भी भयानक लगते। सास दिन-भर बड़बड़ाती,‘कुलच्छनी रो-रोकर कैसा अशगुन कर रही है!!
बहुत दिनों तक गुमान की कोई चिट्ठी नहीं आई और फिर एक दिन एक तार आया,‘कुमाऊं रेजिमेंट का गुमान सिंह दुश्मन की गोलियां झेलता हुआ आख़िरी दम तक अपनी चौकी पर डटा रहा। अन्त में जांघ में गोला फटकर लगने से वह वीरगति को प्राप्त हुआ!!
जब उसकी सास और ननद, छातियां पीट घायल हथिनी-सी चिंघाड़ रही थीं, तब पुट्टी शान्त प्रस्तर प्रतिमा-सी आलुओं के ढेर पर बैठी थी। वही आलुओं का ढेर उसके प्रेम का ताजमहल था। उसी ढेर पर सौभाग्य ने उसका वरण किया था ,और आज वही वैधव्य का विषधर उसे डंस गया था। एक-एक आलू के साथ सहस्र स्मृतियों लिपटी पड़ी थीं। आलुओं की मिट्टी पर गुमान ने जाने के एक दिन पहले अपना और पुट्टी का नाम अंगुली से लिख दिया था। नाम के उसी घेरे को पुट्टी एकटक देख रही थी। पुट्टी की मां बिलखती आई, पर पुट्टी को देखकर स्तब्ध रह गई. यह तो पुट्टी नहीं, जैसे स्वयं तिब्बत के मठाधीश बड़े लामा बैठे थे। उसकी आंखों में एक भी आंसू नहीं था। स्थिर दृष्टि उठाकर उसने अपनी मां को देखा।
‘मेरी बच्ची, मेरे साथ घर चलेगी?’ वह अपना चेहरा उसके पास सटाकर बोली। ‘नहीं…नहीं, मैं वहीं रहूंगी.’ आलुओं की ढेरी को ममता से देखकर पुट्टी ने मुंह फेर लिया।
पुत्र की मृत्यु ने उसकी सास को जीती-जागती तोप बना दिया. वह दिन-रात आग उगलती, पर पुट्टी पत्थर बन गई थी। रोज़ रात को वह पति की वरदी सूंघती, माथे से लगाती और फिर छाती से लगाकर आलुओं के ढेर पर लेट जाती। जिधर करवट बदलती, उधर ही वरदी को भी यत्न से लिटा देती और धुएं से काली छत को देखती रहती। एक दिन उसने सुना, उसके ग्राम से सत्तह मील दूर की तहसील पर कमिश्नर साहब आये हुए हैं और गांव की स्त्रियों से सोना मांग रहे हैं। सोना जमा कर देश के लिए गोलियां ख़रीदी जाएंगी, बारूद आएगा और उसी गोला-बारूद से चीनियों से लोहा लिया जाएगा।
‘पर किसके पास होगा इतना सोना?’ पुट्टी ने सुना, उसकी सास अपनी पुत्री को कह रही थी,‘हमारे दरिद्र गांव में तो दो बेला एक मूठ अन्न भी नहीं जुटता। मेरे पास तो दस तोले की नथ है, पर क्यों दूं! इन्होंने ही तो मेरा बेटा छीन लिया!’
पुट्टी मन-ही-मन सास पर झुंझला उठी। इस बुढ़ापे में भी नथ का लोभ नहीं गया! उसकी आंखें सहसा अंधेरे कमरे में जुगनू-सी चमकीं. उसके हाथ स्वयं ही टटोल-टटोलकर आलुओं के ढेर को हटाकर मिट्टी खोदने लगे।
गांव की तहसील में बड़ी भीड़ थी. कमिश्नर साहब ने अपने बन्द गले के अफ़सरी कोट के बटन खोलकर बड़ा जोशीला भाषण दिया. उसमें उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि किस प्रकार उसकी पत्नी ने अपने गले की चेन खोलकर स्वेच्छा से रक्षा-कोष की झोली में डाल दी थी।
सभा में एक अजीब-सी स्तब्धता थी. तभी भीड़ को चीरकर एक तिब्बती किशोरी बढ़ गई. उसके फटे लबादे की बांहों से उसकी बताशे सी सफ़ेद कुहनियां निकल आई थीं। तेज़ी से चलने के कारण वह अभी भी हांफ रही थी। ललाट पर पसीने की बूंदें उसके चम्पई रंग को और भी मनोहारी बना रही थीं। जल्दी से हाथ की खाकी पोटली को कमिश्नर की थैली में डालकर वह भीड़ में खो गई। न उसे अपनी उदारता की घोषणा करने का अवकाश था, न कोई कामना। कमिश्नर-महिषी की पतली आधे तोले की चेन नयी सोने की नथ की कुण्डली के नीचे न जाने कहां खो गई! बातों के धनी कमिश्नर की सतर मूंछों को पुट्टी के आकस्मिक आगमन ने सहसा खींचकर नीचा कर दिया। अपनी पत्नी के सामान्य दान की ऊंची घोषणा का खोखलापन उन्हें स्वयं धिक्कार उठा। क्या वह पतली चेन उनकी पत्नी का एकमात्र आभूषण था? उनका सौ तोला सोना तो स्टेट बैंक के लॉकर से लाकर स्वयं उनकी मां ने कहीं गाड़ दिया था। ‘युद्ध के दिनों में भला बैंक में सोना कीन धरेगा, बेटा!’ मां ने कहा था. कांपते कण्ठ से उन्होंने भीड़ को सूचित कर दिया,‘एक अज्ञात महिला अभी-अभी वह नथ दे गई हैं. भीड़ में वह जहां कहीं भी हों, आकर इसकी रसीद ले जाएह।’
हाथ में पकड़कर उन्होंने नथ उठाकर भीड़ को दिखाई. तिलमिलाते रौद्र की प्रखर किरणों में नथ झक-झक कर उठी।
भीड़ से कोई भी महिला उठकर रसीद लेने नहीं आई, केवल नथ ही चमक-चमककर पुट्टी के सात्विक दान की रसीद अपने सुनहले अक्षरों में स्वयं लिख गई…….
समाप्त!
उत्तराखंड की की पहली दलित महिला पत्रकार का जीवन परिचय
लेखिका:- उत्तराखंडी कुमाउनी मूल की प्रसिद्ध लेखिका ,गौरा पंत शिवानी का जन्म १९२३ में, राजकोट गुजरात मे हुवा था। गौरा पंत हिंदी की प्रसिद्ध कहानीकार और उपन्यासकार थी। गौरा पंत ,शिवानी के नाम से रचनाएँ करती थी। शिवानी को महिलाओं के मर्म उकेरने में महारथ हासिल थी। खासकर उत्तराखंड कुमाऊं अंचल के आस पास की लोकसंस्कृति और लोक चरित्र चित्रण के लिए जानी जाती थी। शिवानी को हिंदी ,संस्कृत, गुजराती,बंगाली, और अंग्रेजी भाषाओं का अच्छा ज्ञान था। गौरा पंत की मृत्यु ,२१ मार्च २००३ में ,७९ वर्ष की उम्र में दिल्ली में हुई। उपरोक्त कहानी नथ,गौरा पंत की प्रसिद्ध कहानियों में से एक है।
कुमाउनी की पहली महिला लोक गायिका ,नईमा उप्रेती खान का जीवन परिचय यहां देखें।