Friday, July 26, 2024
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कुमाउनी भाषा का परिचय व इतिहास तथा भाषा के प्रकार

कुमाउनी भाषा का परिचय-

उत्तराखंड के कुमाऊँ क्षेत्र  उत्तरी तथा दक्षिणी  सीमांत क्षेत्र को छोड़ कर बाकि भू भाग में कुमाउनी भाषा बोली जाती है। पिथौरागढ़ का के उत्तरी क्षेत्र शौका बहुल होने के कारण , यहाँ शौका भाषा बोली जाती है। ऐसी जनपद के अस्कोट ,धारचूला और डीडीहाट के निकट रहने वाले वनरौत ,राजी बोलते हैं । कुमाऊँ के दक्षिण में थारू और बॉक्स जनजातियों द्वारा बोकसाड़ी और थारू बोली जाती है। दुसांद (गढ़वाली और कुमाऊँ का बीच का क्षेत्र ) में गढ़वाली कुमाऊनी मिश्रित प्रयोग की जाती है।

श्री देव सिंह पोखरिया द्वारा लिखे गए कुमाऊनी भाषा पर लेख के अनुसार ,कुमाऊनी पर हुई खोज के आधार पर कुमाऊनी के जन्म या विकास के परिचय के दो आधार मिले हैं। पहला- कुमाऊनी भाषा का विकास दरद , खास , पैशाची व प्रकृत से हुवा है।और दूसरे दृष्टिकोण के आधार पर हिंदी की भाति कुमाऊनी भाषा का विकास शौरसेनी अभृंश से हुवा है। पहले दृष्टिकोण के प्रेरकों में डा ग्रियस्रन ,डॉ सुनीति कुमार चटर्जी तथा प्रोफ़ेसर डी डी शर्मा आदि का नाम प्रमुख है ।इनकी खोज का आधार हार्नले दो बार भारत आने की स्थापना है। की आर्यों का   अन्य भाषाविदों ने कुमाऊनी भाषा की प्रकृति का आधोपान्त अध्ययन  किये बिना वही लिख दिया जो विचार डॉ  ग्रियसर्न ने दिया था। डॉ  डी डी शर्मा ने भी उक्त भाषाविदों का अनुसरण करते हुए दरद पहाड़ी को कुमाऊनी भाषा का मूल श्रोत माना है।

डॉ सुनीति कुमार चटर्जी ने आधुनिक आर्य भाषाओँ  के 1- उदीच्य सिंधी , लहन्दा ,पूर्वी पंजाबी 2-राजस्थानी ,प्रतीच्य गुजराती ,3- मध्य देशीय पक्षिमी हिंदी 4-प्राच्य कौसली ,पूर्वी हिंदी ,बांग्ला ,आसामी ,दक्षिणात्य मराठी में भेदोपभेद करते हुए , कुमाऊनी के बारे में कहा है, कि इसका आधार पैशाची ,दरद , और खस भाषाएँ हैं, जो कालान्तर में राजस्थानी भाषा के प्रकृत और अभ्रंश रूप से प्रभावित हो गई थी।

एटिकन्स ने अपने “हिमालयन गजेटियर में लिखा है , कि इस क्षेत्र में बहुत सी जातियां विभिन्न क्षेत्रों से आकर बसी हैं। आठ मात्र दरद ,खस ,पैशाची को कुमाऊनी भाषा का मूल आधार नहीं मान सकते। इस विषय पर श्री देव सिंह पोखरिया ने माना है कि कुमाऊनी पर राजस्थानी भाषा का प्रभाव अवश्य पड़ा है। किन्तु वह राजस्थानी का रूपांतरण नहीं है ।ऐसी प्रकार डा सुनीति कुमार की अवधारणा भी पक्षिमी पहाड़ी बोलियों पर लागु हो सकती हैं , लेकिन मध्य पहाड़ी (गढ़वाली कुमाऊनी) पर लागु नहीं होती है।

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ध्वनि ,शब्दावली ,रूप संरचना और वाक्य विन्यास की दृष्टि से कुमाऊनी शौरसेनी अभ्रंश  के सबसे ज्यादा नजदीक है। शौरसेनी   मूल  आधार संस्कृत भाषा रही है। कुमाऊनी भाषा का उदय शौरसेनी से मानना सर्वाधिक उचित रहेगा। क्योकि कुमाऊनी भाषा में तद्भव शब्दों की तादाद  अधिक है। कुमाऊनी भाषा के उदय के सम्बन्ध में डॉ  नारायण दत्त पालीवाल ने डॉ  ग्रियस्रन और उनके समर्थक  लेखकों के मत को नकारते हुए ,उदयनरायण तिवारी के मत को अपनाया है। अर्थात उन्होंने कुमाऊनी भाषा का उदय शौरसेनी से माना है।

डॉ नारायणदत्त पालीवाल ने लिखा है,”कुमाऊनी की अपनी विशेषता होते हुवे भी व्याकरण की दृष्टि से हिंदी के नियम ही कुमाऊनी पर लागू होते हैं। इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं की इसका मूल उद्गम चाहे कोई भी रहा हो ,लेकिन इस बोली पर विभिन भाषाओँ का प्रभाव पड़ा है।  इन  भाषाओँ में  कड़ी बोली हिंदी , ब्रज भाषा ,और राजस्थानी भाषा मिश्रित है।

कुमाऊं का इतिहास में श्री बद्रीदत्त पांडे जी ने लिखा है , “यद्यपि यहां की बोली प्राचीन दस्यु ,खास, शक, हूण, आर्य आदि सब जातियों के मिश्रण से बनी है । खस जाती की प्रधानता होने के कारण, कुमाऊनी में खस भाषा का ज्यादा अंश हो तो कोई इसमे कोई संदेह नही है। ” और श्री बद्रीदत्त पांडेय जी ने यह भी लिखा कि, “कुर्मांचली बोली जिसको ग्रियर्सन ने मध्य पहाड़ी कहा है, व हिंदी भाषा का बिगड़ा रूप है ।”

डाँ धीरेंद्र वर्मा ने भी गढ़वाली और कुमाउनी भाषा का उदय शौरसेनी से मानते हैं। वो पक्षीमी हिंदी , पूर्वी हिंदी की तरह कुमाउनी को मध्य देशी भाषा मानते हैं। श्री देव सिंह पोखरिया के अनुसार कुमाउनी का सर्वप्रथम प्राचीन नमूना , महेश्वर प्रसाद जोशी द्वारा पिथौरागढ़ जनपद के दिगास नामक स्थान से उपलब्ध ,शक संवत 1027 का अभिलेख है। श्री महेश्वर प्रसाद जोशी जी के अनुसार 10वी -11 वी शताब्दी में अन्य आर्य भाषाओं के साथ कुमाउनी भाषा का उदय हुआ है।

डॉ योगेश चतुर्वेदी ने ‘गुमानी ज्योति’  में लिखा है, लोहाघाट के व्यापारी के संग्रह से मिला चंद राजा अभयचन्द्र का 989 ईसवी का ताम्रपत्र जो कि कुमाउनी भाषा मे लिखा है। इस ताम्रपत्र से पता चलता है, कि 10 वी शताब्दी में कुमाऊनी भाषा , एक सम्रद्ध भाषा के रूप में प्रतिष्ठित थी।

आजकल कुमाउनी भाषा मे तत्भव , तत्सम, स्थनीय शब्दो के अतिरिक्त  अगल बगल की भाषा का प्रभाव अधिक मिलता है । उदाहरण के लिए – कुड़ी(घर), गिज (मुह ) और फ़ारसी भाषा के शब्द अकल ,इनाम आदि और अंग्रेजी भाषा के शब्दों में , मोटर, कम्बोडर,कार आदि।(history of kumaoni language )

प्रसिद्ध भाषाविद डा त्रिलोचन पांडेय ने उच्चारण और ध्वनि  व रूप रचना के आधार कुमाऊनी भाषा को 4 वर्गों में बांट कर उसकी 12 बोलियां तय की हैं।

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पूर्वी कुमाउनी भाषा

इसके अंतर्गत 4 स्थानीय  कुमाउनी बोलिया  आती हैं।
कुमइयां– यह नैनीताल से लगे काली कुमाऊँ के आड़ पास बोली जाती है।
सौर्यली- यह सोर परगना में बोली जाती है। इसे दक्षिण जोहार और पूर्वी गंगोली में भी कई लोग बोलते हैं।
सिराली – यह बोली अस्कोट के पक्षिम के परगना सीरा में बोली जाती है।
अस्कोटी– यह अस्कोट क्षेत्र की बोली है। इस बोली पर नेपाली भाषा का प्रभाव पाया जाता है।

पशिचमी कुमाउनी भाषा-

इसके अंतर्गत निम्न उपबोलियाँ आती हैं।
खस प्रजिया- यह बारा मंडल और दानपुर के आस पास की बोली बोली जाती है।
पछाई-: यह अल्मोड़ा जिले के दक्षिण भाग में बोली जाती है। इसका क्षेत्र गढ़वाल सीमा तक फैला है।
फ़लदा कोटि- फ़लदा कोट नैनिताल ,अलमोड़ा ,नैनिताल तथा पाली पछाऊँ के कुछ भागों के कुछ क्षेत्रों में बोली जाती है।
चगर्खिया– यह भाषा चौगखरा परगना क्षेत्र में बोली जाती है।
गंगोई बोली- गंगोई बोली दानपुर, और गंगोलीहाट की कुछ पट्टियों में बोली जाती है।
दानपुरिया- यह बोली दानपुर के उत्तरभाग में तथा जौहार के दक्षिण भाग में बोली जाती है।

उत्तरी कुमाउनी भाषा

इस वर्ग के अंतर्गत 2 उपबोलियाँ आती हैं –
जौहारी – यह भाषा जौहार परगना में बोली जाती है। इस भाषा पर तिब्बती भाषा का प्रभाव दिखाई पड़ता है।
भोटिया – यह बोली कुमाऊं के उत्तर, तिब्बत और नेपाल से लगे सीमावर्ती क्षेत्रों में बोली जाती है।

दक्षिण कुमाउनी भाषा

इस भाषा के अंतर्गत रचभैंसी  भाषा आती है।
रचभैंसी – यह नैनीताल में, रौ और चौमोसी पट्टियों में बोली जाती है। बावर में बोली जाने वाली भाषा को नैंणतलिया भी कहा जाता है। यह बोली भीमताल, काठगोदाम, हल्द्वानी आदि क्षेत्रों में बोली जाती है।

अन्य कुमाउनी भाषा

गोर्खाली बोली नेपाल से लगे क्षेत्र और अल्मोड़ा के आस पास प्रवासी गोरखा समाज द्वारा बोली जाती
भावरी – यह टनकपुर , आदि क्षेत्रों में बोली जाने वाली कुमाउनी भाषा है।
मझकुमय्या – यह कुमाऊँ और गढ़वाल के मध्य सीमावर्ती क्षेत्रों में बोली जाने वाली भाषा है।

कुमाउनी भाषा दिवस ( 1 सिंतबर)-

सिंतबर 2018 से उत्तराखंड की दोनो भाषाओं को सम्मान और भाषा संरक्षण के उद्देश्य से ,उत्तराखंड पर्वतीय मंच के आवाहन ने 1 सिंतबर को कुमाउनी भाषा दिवस और 2 सिंतबर को गढवाली भाषा दिवस मानते हैं। ये दिवस उत्तराखंड के शहीदों की याद और उनके बलिदान के सम्मान में समर्पित किये गए हैं। 1 सिंतबर 1994 को खटीमा गोलीकांड में शहीद उत्तराखंड आंदोलनकारियों की स्मृति में कुमाउनी भाषा दिवस समर्पित किया गया है। और 2 सितबर 1994 को मसूरी में हुए गोलीबारी में शहीदों को गढ़वाली भाषा दिवस समर्पित किया गया है।

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Bikram Singh Bhandari
Bikram Singh Bhandarihttps://devbhoomidarshan.in/
बिक्रम सिंह भंडारी देवभूमि दर्शन के संस्थापक और लेखक हैं। बिक्रम सिंह भंडारी उत्तराखंड के निवासी है । इनको उत्तराखंड की कला संस्कृति, भाषा,पर्यटन स्थल ,मंदिरों और लोककथाओं एवं स्वरोजगार के बारे में लिखना पसंद है।
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