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परिचय –
1994 का साल, सितम्बर महीने की पहली सुबह… ये वही दिन था जिसने उत्तराखंड आंदोलन के इतिहास में एक काला अध्याय लिख दिया – खटीमा गोलीकांड। इस दिन शांति से निकाले गए एक जुलूस को प्रशासन ने जिस बर्बरता से कुचला, उसने पूरे पहाड़ को झकझोर कर रख दिया।
खटीमा गोलीकांड : 1 सितम्बर 1994 की सच्चाई
जुलूस और माहौल
जगह: खटीमा, उधम सिंह नगर (तत्कालीन उत्तर प्रदेश)
उद्देश्य: सरकार की गुंडागर्दी के विरोध में शांतिपूर्ण प्रदर्शन
सहभागी: पूर्व सैनिक, छात्र, महिलाएं और बच्चे – कुल लगभग 10,000 लोग
जुलूस का पहला चक्कर थाने के सामने से निकल चुका था। जब दूसरी बार जुलूस थाने के पास पहुंचा, तभी हालात बदलने लगे।
पुलिस की बर्बर कार्रवाई –
समय: सुबह 11:17 से 11:20 के बीच शुरुआत
घटनाक्रम:
- पहले थाने की ओर से पत्थरबाज़ी
- उसके तुरंत बाद लगातार गोलियां चलना
- गोलीबारी का सिलसिला 12:48 बजे तक चलता रहा
- पुलिस ने बिना किसी चेतावनी के भीड़ पर फायरिंग की, जिससे लोग जान बचाने के लिए इधर-उधर भागने लगे।
शहीद और घायल –
इस गोलीकांड में 8 लोग शहीद हुए –
- प्रताप सिंह
- सलीम अहमद
- भगवान सिंह
- धर्मानन्द भट्ट
- गोपीचंद
- परमजीत सिंह
- रामपाल
- भुवन सिंह
सैकड़ों लोग घायल हुए, जिनमें कई निर्दोष लोग भी शामिल थे, जो सिर्फ तहसील में अपने काम से आए थे।
पुलिस की दलीलें और सच्चाई –
पुलिस ने इस जुलूस को “सशस्त्र विद्रोह” बताकर अपनी कार्रवाई को सही ठहराने की कोशिश की।
- महिलाओं के पास घास काटने की दरांती को “हथियार” कहा गया।
- पूर्व सैनिकों की लाइसेंसी बंदूकें भी उनके खिलाफ सबूत बना दी गईं।
- असलियत ये थी कि जुलूस शांतिपूर्ण था, और प्रशासन ने दमन के लिए इसे बहाना बनाया।
उत्तराखंड राज्य की राह –
इस घटना के छह साल बाद, 9 नवम्बर 2000 को उत्तराखंड राज्य बना, लेकिन आंदोलन के दमन की ये घटना आज भी लोगों के दिलों में दर्द और गुस्सा भर देती है। आज, राज्य को बने दो दशक से ज्यादा हो चुके हैं, लेकिन सवाल अब भी वही है –
क्या ये राज्य वैसा बना, जैसा आंदोलनकारियों ने सपना देखा था?
निष्कर्ष –
खटीमा गोलीकांड सिर्फ एक घटना नहीं, बल्कि उत्तराखंड आंदोलन का वो पन्ना है जिसने पूरे पहाड़ को एकजुट कर दिया। शहीदों का बलिदान ही था जिसने उत्तराखंड को अलग पहचान दिलाई, लेकिन उनकी कुर्बानियों को याद रखना और उनके सपनों का उत्तराखंड बनाना आज भी हमारी जिम्मेदारी है।
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