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काफल पाको मैं नि चाखो, उत्तराखंड कि प्रसिद्ध लोककथा

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काफल उत्तराखंड का एक प्रसिद्ध जंगली फल है। यह फल हिमालयी पहाड़ो में प्रतिवर्ष अप्रैल और मई में होता है। कई दिब्यगुणो को अपने आप मे समेटे यह फल,उत्तराखंड की एक अलग पहचान को दर्शाता है। उत्तराखंड के प्रसिद्ध गीत “बेडु पाको बारोमासा, काफल पाको चैत” में भी इस फल का वर्णन है। प्रकृति के चितेरे कवि चंद्रकुंवर बर्तवाल ने भी काफल पाको पर एक गीत /कविता की रचना की है।

इसके साथ- साथ उत्तराखंड की एक प्रसिद्ध लोक कथा है, “काफल पाको मैं नि चाखो” इसका हिंदी में अर्थ होता है, काफल पक गए, किन्तु मैंने नही चखे। यह लोक कथा उत्तराखंड की दोनो क्षेत्रों (गढ़वाल और कुमाऊं) में सुनाई जाती है। प्रस्तुत लेख में हम इस लोक कथा को कुमाउनी और हिंदी में संकलित कर रहें है। इस लोक कथा का गढ़वाली संस्करण भी हम संकलित करना चाहते हैं। जो मित्र अच्छी गढ़वाली लिख सकते हैं। वो इस कथा का गढवाली अनुवाद हमे ,हमारे व्हाट्सप्प नंबर और सोशल मीडिया पर भेज सकते हैं। हम उसे अपने इस लेख में स्थान देंगे।

काफल पाको, मैं नि चाख्यो कहानी कुमाउनी में

दगड़ियो  भौत पैलिकै बात छु ! पहाड़क एक गौ में, एक गरीब सैणी रौंछी । ऊ भौतै गरीब छी । और वैक एक नानि नानि चेलि छी। ऊ मेहनत मजदूरी करीबे आपुण और आपुण चेलिक पेट भरछी । कभै कुलि काम करछी ,कभै साग,घा बेचि बेर और कभै मौसमी फल बेचि बेर आपुण और आपुण चेलिक पेट भरछि । एक बार चैतक महैंण में , ऊं सैणि जंगल बै काफल तोड़ ल्यै। और वैल ऊं काफल भ्यार बै धरि देई । और आपुण चेलि हैते कै गे कि कफलों ध्यान धरिए , कम नि हुण चैन । खै झन खबरदार।

इतुक कै बेर ऊ सैंणी आपुण काम पा नैह गई।

अब महाराज चैतक महैंण भयो ,घाम लागनी भा्य तेज । नानि भौ कफलो ध्यान बड़ि ईमानदारी भै रखनछी । मगर के करछा नियति कैं के और मंजुर छि । दुपरी में जब उ चेलिक मा घर आई ,तब तक ऊ कफौ सुखी बेर आदुक छपार हैगा्य । उ चेलिक माँ लै सोचि कि यो दुष्ट चेलिल काफो खै हालि ! वैक आँख बुजि गा्य ,वैल इदुक जोरल मारि उ भौ के, भौ मार सहन नि कर पाई उत्ते चित्त है गई !

थोड़ देर बाद ,अचानक बारिस है गई ,और जो काफल धुपक कारण मुरजै गाछी ,उ दुबारा ताज है गा्य और जतुक पैली छी, उतुकै है गा्य । जब उ सैणिल देखो,तो उकैं आपुण गलतिक एहसास हौछ !और वैल लै उतकै प्राण त्यागी दी।

तब बै मैंस का्थ कूनी कि, यूं द्वी में,चेलि मारि बेर , चाड़ बनि ,और चेलि कौछ “काफल पाको मैं नि चाखो”  तब मा कौछ “पुर पुतई पुर पुर”

काफल पाको मैं नि चाखो
काफल

काफल पाको मैं नि चाखो कहानी

बहुत पहले की बात है, उत्तराखंड में पहाड़ के एक गावँ में एक गरीब औरत और उसकी छोटी सी बेटी रहती थी। वह औरत मजदूरी करके, लकड़ी ,घास, मौसमी फल बेच कर अपना और अपनी बेटी का भरण -पोषण करती थी। एक बार चैत्र के माह में , वह गरीब औरत जंगल से एक टोकरी काफल तोड़ कर लाई और आंगन में रख दिए। और बेटी को नसीहत देते हुए बोली कि ,इनका ध्यान रखना ,खाना मत ! और अपनी खेत मे चली गई । छोटी बच्ची ने पूरी ईमानदारी से काफलों की रक्षा की ।लेकिन चैत की तेज धूप में,कुछ काफल सूख कर आधे हो गए।

जैसे ही उसकी माँ खेत से घर पहुँची ,तो उसने देखा काफलों की टोकरी आधी हो रखी है।उसे लगा उसकी बेटी ने काफल खा लिए। यही सोचकर , अत्यधिक क्रोध में उसकी आँखें बंद हो गई ।और उसने अपनी फूल सी बच्ची को पूरी ताकत के साथ थप्पड़ मार दिया। धूप में भूख से प्यासी बच्ची , माँ का प्रहार नही झेल पाई और वही उसके प्राण पखेरू उड़ गए।

थोड़ी देर बाद सायंकाल हुई, मौसम में ठंडक आ गई और टोकरी में रखे काफल फिर से ताज़े हो गए,और टोकरी भर गई। तब जाकर उस औरत को उसकी गलती का एहसास हुआ और पश्चाताप में उस औरत के प्राण भी उड़ गए।

इसे भी पढ़े- पहाड़ी टोपी, कुमाउनी टोपी, गढ़वाली टोपी पर एक लेख।

तब से लोककथाओं में कहते हैं, कि वो दोनो माँ बेटियां, चिड़िया बन गई। और आज भी जब पहाड़ों में काफल पकते हैं तब  बेटी रूपी चिड़िया बोलती है, “काफल पाको मैं नि चाखो ” अर्थात काफल पके मैंने नही चखे। उसका जवाब माँ रूपी चिड़िया देती है,और बोलती है, “पुर पुतई पुर पुर” अर्थात ,मेरी प्यारी बेटी काफल पूरे हैं।

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