Monday, May 26, 2025
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जनेऊ पूर्णिमा या श्रावणी उपाकर्म उत्तराखंड कुमाऊं में लोकपर्व जनयु पनयु के नाम से मनाया जाता है।

जन्यू पुनुयु के नाम से मनाया जाता है कुमाऊं में श्रावणी उपाकर्म पर्व –

उत्तराखंड के कुमाऊँ मंडल में भी सनातन परंपरा श्रावणी उपाकर्म , जनेऊ पूर्णिमा , पूर्णिमा के दिन ,जनयु पुनयु लोकपर्व के नाम से मनाया जाता है। जनयु पुनयु के दिन गाँव के सारे पुरुष नौले या प्राकृतिक जल स्रोत पर इक्कठा होते हैं, तत्पश्चात वहाँ पुरोहित आकर स्नान के पश्चात सभी को, मंत्रोच्चार के साथ जनेउ बदलवाते हैं मोली बांधते है।

उसके बाद गाव में आकर, गाँव की सभी महिलाओं और बच्चों को भी, रक्षा धागा बाँधा जाता है। उस समय पुरोहित ” एनबद्धोबलीराजा दानवेन्द्रों महाबल:, तेनत्वाम् अपिबंधनामि रक्षे मांचल मांचल:”  के मंत्रोच्चारण के साथ, परमात्मा से समस्त संसार की रक्षा की रक्षा की प्राथना करते हैं।

पारंपरिक साग सब्जी और दूध दही का उपहार देते हैं :

कुमाऊँ में रक्षाबंधन जनेऊ पूर्णिमा के दिन ,विभिन्न प्रकार के पकवान बनते हैं। जिनमे – पूड़ी , मौसमी सब्जी , दाल बड़े, पूवे , लाल चावल की खीर , पहाड़ी रायता , दाल चावल आदि प्रमुखता से बनते हैं। उत्तराखंड के सभी लोक पर्वों की तरह गाव में  इस दिन एक दूसरे को ,दूध दही उपहार में देते हैं।

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पहाड़ों में पहले आमा-बुबु लोग रक्षाबंधन नही पहचानते थे, वे जानते थे केवल जन्यू -पुनयु को । जन्यू पुनयु ही पहाड़ों का असली रक्षाबंधन होता था। और राखी के नाम पर कलावा और एक काली और चमकदार रंग की राखी मिलती थी , जिसे पोजी कहते थे।

जनेऊ पूर्णिमा

कुमाऊँ में राखी को पौजी कहा जाता है :

पौजी कुमाऊँ का एक पारम्परिक हाथ मे धारण करने वाला आभूषण भी होता है। अब तो रंबरंगी राखियां , एक से एक राखियाँ आ गई है। विगत वर्षों से ,कुमाऊँ की बेटियां ऐपण राखी भी बना रही हैं। लेकिन मुझे अच्छे से याद है, पहले केवल दो प्रकार की राखी मिलती थी, पहली काली या लाल डोर पर पतली चमकीली पट्टी लगाई होती थी। और दूसरी होती थी मौली के धागे से बनी राखी। बाद बाद में फूल वाली राखी भी मिलने लगी।

अभी तो पहाड़ो में गिने चुने पुरुष रह गए हैं, और कई गांवों में पुरोहित भी बस परम्परा को पूरा करने के लिए ,जनेवू को भिजवा देते हैं। और यजमान घर पर ही नाह धो कर पहन कर परम्परा का निर्वहन कर लेते हैं।

क्या है श्रावणी उपाकर्म:

सनातन धर्म में श्रावणी उपाकर्म श्रावण पूर्णिमा के दिन जनेऊ बदलने की परंपरा है। यह परंपरा उत्तरभारत में निभाई जाती है। दक्षिण भारत में इसे अबितम्म कहा जाता है। इस दिन नदी में स्नान , जनेऊ बदलना, रक्षा सूत्र बांधना और दान पुण्य और पुरोहित , ऋषि पूजन श्रेष्ठ माना जाता है। ऐसे मुहूर्त वाले साल में बहुत कम दिन आते हैं। कुंभ के दौरान भी ये कार्य किए जा सकते हैं।

उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में यह परंपरा संभवतः ऋषि मुनियों द्वारा लाई गई है। वैसे तो शायद पूरे उत्तराखंड में यह परंपरा मनाई जाती होगी लेकिन, उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में इसे लोक पर्व के रूप में भी मनाया जाता है।

लेख – बिक्रम सिंह भंडारी 

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Bikram Singh Bhandari
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बिक्रम सिंह भंडारी, देवभूमि दर्शन के संस्थापक और प्रमुख लेखक हैं। उत्तराखंड की पावन भूमि से गहराई से जुड़े बिक्रम की लेखनी में इस क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर, और प्राकृतिक सौंदर्य की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी रचनाएँ उत्तराखंड के खूबसूरत पर्यटन स्थलों और प्राचीन मंदिरों का सजीव चित्रण करती हैं, जिससे पाठक इस भूमि की आध्यात्मिक और ऐतिहासिक विरासत से परिचित होते हैं। साथ ही, वे उत्तराखंड की अद्भुत लोककथाओं और धार्मिक मान्यताओं को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। बिक्रम का लेखन केवल सांस्कृतिक विरासत तक सीमित नहीं है, बल्कि वे स्वरोजगार और स्थानीय विकास जैसे विषयों को भी प्रमुखता से उठाते हैं। उनके विचार युवाओं को उत्तराखंड की पारंपरिक धरोहर के संरक्षण के साथ-साथ आर्थिक विकास के नए मार्ग तलाशने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी लेखनी भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि से परिपूर्ण है। बिक्रम सिंह भंडारी के शब्द पाठकों को उत्तराखंड की दिव्य सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत की अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाते हैं, जिससे वे इस देवभूमि से आत्मिक जुड़ाव महसूस करते हैं।
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