Friday, January 17, 2025
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बागेश्वर उत्तराखंड का इतिहास : उत्तराखंड की धार्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहर

बागेश्वर उत्तराखंड का इतिहास  : धार्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से अत्यंत समृद्ध है। सरयू और गोमती नदियों के संगम पर स्थित यह नगर उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल का प्रमुख तीर्थस्थल है। स्कंदपुराण के ‘वागीश्वर महात्म्य’ में बागेश्वर को मार्कण्डेय मुनि की तपस्थली और भगवान शिव के व्याघ्र रूप से जोड़ा गया है। यहां स्थित व्याघ्रेश्वर महादेव मंदिर की स्थापना और यहां होने वाले उत्तरायणी मेले का ऐतिहासिक महत्व है। यह स्थान न केवल आध्यात्मिकता का केंद्र है, बल्कि कत्यूरी, चंद और मनकोटी शासकों के शासनकाल से जुड़े व्यापारिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का प्रमुख केंद्र भी रहा है।

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बागेश्वर उत्तराखंड का संक्षिप्त परिचय यहाँ देखें : –

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बागेश्वर (देवस्थल एवं जनपद): कुमाऊं मंडल का अनमोल गहना :

बागेश्वर, उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में स्थित एक ऐतिहासिक और धार्मिक नगरी है। यह सरयू और गोमती नदियों के संगम पर बसा हुआ है। इसकी भौगोलिक स्थिति उत्तर अक्षांश 29°42′-56″ से 30°-18′-56″ और पूर्वी देशांतर 79°-28′-17″ से 90°-9′-42″ के बीच समुद्रतल से 942 मीटर की ऊंचाई पर है। यह स्थान 1997 में नवगठित बागेश्वर जनपद का मुख्यालय बना। इससे पहले, यह अल्मोड़ा जनपद की तहसील और दानपुर परगने की तल्ली कत्यूर पट्टी का हिस्सा था।

भौगोलिक विशेषताएँ और सीमाएँ :

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बागेश्वर जनपद उत्तर में नंदा देवी पर्वत, पिंडारी और कफनी हिमनद, दक्षिण में बिनसर पहाड़ी, पूर्व में कोटमन्या और चौकोड़ी डांडा, तथा पश्चिम में कौसानी और चंपावत से घिरा हुआ है। यह क्षेत्र हिमालय के सुरम्य दृश्यों और धार्मिक स्थलों के लिए प्रसिद्ध है।

धार्मिक महत्व और पौराणिक गाथाएँ :

बागेश्वर का नाम भगवान शिव के व्याघ्र रूप से जुड़ा है। स्कंदपुराण के ‘वागीश्वर महात्म्य’ के अनुसार, यह स्थान कभी ऋषि मार्कंडेय की तपस्थली थी। एक कथा के अनुसार, जब अयोध्या में भगवान् राम का जन्मोत्सव मनाया जा रहा तब सरयू नदी को भी अयोध्या जाने की इच्छा से प्रेरित होकर सरयू हिमालय से अयोध्या के लिए निकल गई। वहा जाते समय सरयू नदी ने अयोध्या जाने के रास्ते में यहां रुककर तपस्यारत मुनि को देखा तो सरयू वहीं पर रूक गई। वह अयोध्या जाने के लिए बहुत आतुर थी ,तब माँ पार्वती से उसकी आतुरता देखी नहीं गई उन्होंने भगवान् शिव से सरयू के इस धर्मसंकट का उपाय करने को कहा।

तब शिव और पार्वती ने एक युक्ति से नदी को वहां से आगे बढ़ने का रास्ता दिलाया। युक्ति यह थी कि भगवान् शिव वहां बाघ रूप में प्रकट हुए और माँ पार्वती गाय के रूप में। और जैसे ही व्याघ्र रुपी शिव गाय रुपी पार्वती को मारने के लिए झपटे तो गौ माता को संकट देख कर मार्कण्डेय ऋषि उठ कर गाय को बचाने के लिए झपटे ,उसी समय सरयू वहां से आगे निकल गई।

इस स्थान पर भगवान शिव ने व्याघ्रेश्वर (बाघनाथ) के रूप में प्रतिष्ठित होकर इसे बागेश्वर नाम दिया। एक अन्य कथा के अनुसार, शिव और पार्वती के सरयू-गोमती संगम पर पहुंचने पर आकाशवाणी हुई, जिसे वागीश्वर (ईश्वर की वाणी) कहा गया। यही नाम कालांतर में बागेश्वर बन गया।

बागेश्वर उत्तराखंड का इतिहास

धार्मिक स्थल और आयोजन :

बागेश्वर का सबसे महत्वपूर्ण स्थल बाघनाथ मंदिर है, जिसे शिव का दक्षिणाभिमुख मंदिर माना जाता है। यह मंदिर अपनी प्राचीनता और धार्मिक महत्ता के लिए जाना जाता है। 7वीं शताब्दी की प्रस्तर मूर्तियां यहां के संग्रहालय में देखी जा सकती हैं। इस नगर को ‘उत्तर की काशी’ भी कहा जाता है। मकर संक्रांति, जिसे यहां उत्तरायणी कहते हैं, पर बड़ी संख्या में भक्त सरयू और गोमती के संगम पर स्नान करते हैं। यह स्नान प्रयागराज में त्रिवेणी संगम पर स्नान के समान पुण्य प्रदान करने वाला माना जाता है।

बागेश्वर उत्तराखंड का इतिहास: शासकों की धरोहर –

बागेश्वर का प्राचीन मंदिर कत्यूरी, चंद और गंगोली के शासकों के शासनकाल में विकसित हुआ। इतिहासकारों के अनुसार, बाघनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार राजा लक्ष्मी चंद ने 16वीं शताब्दी में कराया। यहां कत्यूरी शासकों के समय का एक ऐतिहासिक शिलालेख था, जिसमें आठ कत्यूरी राजाओं की वंशावली का उल्लेख था। इस शिलालेख का अनुवाद ब्रिटिश अधिकारी एटकिंसन ने किया था, लेकिन यह अब उपलब्ध नहीं है।

व्यापारिक और सांस्कृतिक केंद्र –

कत्यूरी काल से बागेश्वर कुमाऊं का एक प्रमुख व्यापारिक केंद्र रहा है। यहां के उत्तरायणी मेले में भोटिया व्यापारी ऊन से बने कपड़े, औषधियां, मसाले, और तिब्बती सामान बेचने आते थे। दानपुर के लोग नारंगी और निगाले की चटाई जैसे उत्पाद लाते थे। आज भी प्रत्येक वर्ष मकर संक्रांति के उपलक्ष में यहाँ उत्तरायणी मेले के आयोजन होता है ,जिसमे पहाड़ी क्षेत्रों से तराई तक के व्यापारी अपने उत्पाद लेकर बेचते हैं और सांस्कृतिक कार्यक्रमों की धूम मची रहती है।

स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका –

स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, 14 जनवरी 1921 को उत्तरायणी मेले के दौरान यहां के ग्राम प्रधानों ने श्री बद्रीदत्त पांडेय और अन्य नेताओं के नेतृत्व में  ‘कुली बेगार प्रथा’ का विरोध किया। उन्होंने अंग्रेजों द्वारा तैयार किए गए कुली बेगार रजिस्टरों को सरयू नदी में बहाकर दासता के खिलाफ विद्रोह किया।

धार्मिक मेलों की परंपरा –

बागेश्वर के उत्तरायणी मेले के अलावा, कार्तिक पूर्णिमा, शिवरात्रि और गंगा दशहरे के अवसर पर भी यहां मेले लगते हैं। ये मेले धार्मिक और सांस्कृतिक दोनों दृष्टियों से महत्वपूर्ण हैं।

बागेश्वर का आध्यात्मिक और ऐतिहासिक महत्व –

बागेश्वर केवल एक धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि व्यापार और राजनीति का भी महत्वपूर्ण केंद्र रहा है। इसका पौराणिक इतिहास, प्राकृतिक सौंदर्य, और सांस्कृतिक धरोहर इसे अद्वितीय बनाते हैं।

पर्यटन और आधुनिक बागेश्वर –

आज बागेश्वर एक प्रमुख पर्यटन स्थल है। यहां के पर्वतीय दृश्यों और धार्मिक स्थलों को देखने के लिए पर्यटक बड़ी संख्या में आते हैं। स्थानीय संस्कृति, मेले, और त्यौहार इस नगर की जीवंतता को दर्शाते हैं। बागेश्वर उत्तराखंड का एक ऐसा अद्वितीय स्थल है, जहां इतिहास, धर्म, और प्रकृति का अनोखा संगम देखने को मिलता है। यह नगर न केवल उत्तराखंड की पहचान है, बल्कि भारतीय संस्कृति का एक अमूल्य हिस्सा भी है।

संदर्भ : प्रोफ़ेसर देवीदत्त शर्मा जी द्वारा लिखित उत्तराखंड ज्ञानकोष पुस्तक। 

इन्हे भी पढ़े :

कुली बेगार आंदोलन: उन्नीसवीं शताब्दी की अमानवीय प्रथा और उत्तराखंड का जनआंदोलन

उत्तरायणी मेला का इतिहास व धार्मिक और सांस्कृतिक महत्त्व

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Bikram Singh Bhandari
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बिक्रम सिंह भंडारी देवभूमि दर्शन के संस्थापक और लेखक हैं। बिक्रम सिंह भंडारी उत्तराखंड के निवासी है । इनको उत्तराखंड की कला संस्कृति, भाषा,पर्यटन स्थल ,मंदिरों और लोककथाओं एवं स्वरोजगार के बारे में लिखना पसंद है।
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