Friday, October 18, 2024
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देवभूमि जनसेवा केंद्र स्वरोजगार के लिए एक अच्छा विकल्प है।

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देवभूमि जनसेवा केंद्र

मित्रों यदि आप स्वरोजगार करना चाहते हो, और आपको इंटरनेट का अच्छा ज्ञान है , तो आप अपने क्षेत्र में देवभूमि जनसेवा केंद्र  या Common service center खोल कर अपनी कमाई कर सके हो। इसके लिए सरकार डिजिटल इंडिया मिशन के अंतर्गत , इस प्रकार के केंद खोलने के लिए मदद कर रही है।

कई लोगो ने गांवो और कस्बो में खोल भी लिए हैं। पहाड़ो में इस प्रकार के देवभूमी जनसेवा केंद्र के सफल होने की काफी संभावनाएं रहती हैं। क्योंकि पहाड़ो में अक्सर सब कामो के लिए जिला बाजार जाना पड़ता है। और कई गांवों से जिला मुख्यालय बहुत दूर होता है। और उनकी स्थानीय बाजार नजदीक होती है।

देवभूमि जनसेवा केंद्र
प्रतीक चित्र देवभूमि जन सेवा केंद्र

यदि बैंक से पैसा निकलना, आधार कार्ड के काम, पैन कार्ड के काम, ऑनलाइन आवेदन, आदि डिजिटल कार्य नजदीक में हो जाय तो, पहाड़ के स्थानीय नागरिकों को भी काफी सुविधा हो जाएगी। और वो लोग जिला मुख्यालय जाने के लिए 200 से 300 तक खर्च कर देते हैं। अगर उनके घर  के पास ये सुविधा खोल दे तो 100 रुपये तक  वो देवभूमी जन सेवा केंद्र वाले को खुशी ख़ुशी देंगे। इस हिसाब से जन सेवा केंद्र वाले कि अच्छी कमाई हो जाएगी।

इन्हे पढ़ेपहाड़ी कहावतें पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।

देवभूमी जनसेवा केंद्र के लिए कैसे आवेदन करें –

देवभूमि जनसेवा केंद्र खोलने के लिए सर्वप्रथम आपको http://register.csc.gov.in  पर जाकर कॉमन सर्विस सेंटर के लिए रजिस्ट्रेशन करें। रजिस्ट्रेशन के लिए आपको 1400 का शुल्क देंंना पड़ेगा।

रजिस्ट्रेशन के दौरान आपको उस जगह की फ़ोटो भी अपलोड करनी पड़ेगी  जहाँ आप सेंटर खोलना चाहते हैं। फार्म भरने के बाद आपको  एक id मिलेगी जिससे आप आवेदन को  ट्रैक कर सकते हो। आवेदन स्वीकार होने के बाद आपको  प्रशिक्षण दिया जाएगा। और आपको एक सर्टिफिकेट दिया जाएगा।

फिर आपको सरकारी और गैरसरकारी योजनाओं और कार्यो को डिजिटल में करने की अनुमति मिल जाएगी । यह अनुमति सबको नही मिलती।

इसके बाद आप  अपने केंद्र और ऑनलाइन कोर्सेज ,csc बाजार, कृषि सेवायें , ई  कॉमर्स  ,एयर ,रेल, बस टिकट, पैन कार्ड , पासपोर्ट, बिल जमा, रिचार्ज, पैसे निकलना आदि कार्य ऑनलाइन कर पाओगे। इसके लिए सरकार आपसे कोई चार्ज नही लेगी।

आप अपनी कीमत अपने क्षेत्र के हिसाब से खुद तय कर सकते हैं।

कुमाउनी रायते की परंपरागत रेसिपी के लिये यहाँ क्लिक करें

देवभूमि जनसेवा केंद्र के लिए आवश्यक चीजें

  • 100 से 150 वर्ग मीटर का कमरा
  • देवभूमि जनसेवा केंद्र के लिए एक या दो पर्सनल कप्यूटर जिसमे windows xp के लेटेस्ट वर्जन हो
  • एक या दो प्रिंटर
  • डिजिटल कैमरा /वेब कैमरा / अच्छे कैमरा वाला फोन
  • बायोमैट्रिक स्कैनर
  • इंटरनेट कनेक्शन अच्छी स्पीड वाला।

निवेदन – देवभूमि जनसेवा केंद्र वाला स्वरोजगार आजकल बहुत लोग कर रहे हैं। सारे कार्य डिजिटल होने के कारण बहुत अच्छी कमाई कर रहें है। उपरोक्त में जो आवश्यक चीजे बताई गई हैं, उनमे से आप सारी इलेक्ट्रॉनिक चीजे सेकेण्ड हैंड ले सकते हो। देहरादून हल्द्वानी काशीपुर आदि शहरों में आसानी से कम कीमत में मिल जाते हैं।

पहाड़ी कहावतें , कुमाउनी कहावतें और गढ़वाली कहावतें।

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पहाड़ी कहावतें

इस लेख में पहाड़ी कहावतें , गढ़वाली कहावतें और कुमाऊनी कहावतें दोनों  हिंदी अर्थ के साथ लिखीं हैं।

गढ़वाली कहावतें  ( पहाड़ी कहावतें )

  • तौ न तनखा, भजराम हवालदारी । बिना वेतन के बड़ा काम करना
  • कख नीति, कख माणा, रामसिंह पटवारी ने कहाँ -कहाँ जाणा । एक ही आदमी को ,एक समय मे अलग अलग काम देना।
  • माणा मथै गौं नी, अठार मथे दौ नी । माणा से ऊपर गांव नहीं, और अट्ठारह से ऊपर दाव नही ।
  • कख गिड़की, कख बरखी । बादल कही गरजा ,कही बरसा । अर्थथात कुछ और बोलना, कुुुछ अलग करना।
  • बांजा बनु बरखन । बंजर जमीन में बरसना ,अर्थात जहां ज़रूरत ना हो वहाँ काम करना।
  • जब जेठ तापलो ,तब सौंण बरखलो । जेठ का महीना जितना तपेगा ,सावन में उतनी अच्छी बारिश होगी। अर्थात जितनी अधिक मेहनत होगी उतना अच्छा फल मिलेगा।
  • नि होण्या बरखा का बड़ा -बड़ा बूंदा । बारिश की बड़ी बड़ी बूंदे पड़ने का मतलब है ,अच्छी बारिश नही होगी।
  • भादों की छास भूत खुणी, कातिक की छास पूत खूणी। भादों की छास भूत खाते हैं, और कार्तिक की छास पूत अर्थात भादो में मौसम परिवर्तन होता है,इसलिए छास स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती है। और कार्तिक माह में शीत ऋतु आ जाती है, तो छास से कोई दिक्कत नही होती है।
  • गरीबिकी ज्वानी अर ह्यून्द की ज्युनी, अरकअत जाउ । गरीबी की जवानी और जाड़ो की चाँदनी बेकार जाती है।
  • बांस -बाबलू काटण ,पर आस औलाद भी देखण । घास लकड़ी बेसक काटो लेकिन आने वाली पीढ़ियों के ध्यान बजी रखो। अर्थात प्रकृति से ज्यादा छेड़ छाड़ ठीक नही है।

गढ़वाली ओखाण :-

  • त्वेते क्या होयूं गोरखाणी राज । यहाँ कोई गोरखों का राज चल रहा क्या ? जो अपनी मनमानी करोगे। गोरखा राज में उत्तराखंड में भारी अत्याचार और मनमानी की जाती थी।
  • पंच भी प्रपंची हवेगैनि । पंच भी परपंची हो गए है। अर्थात जो मुखिया है, न्याय करने वाला है ,वही बेईमान हो गया है।
  • बैसाखू और सौणयां बणिग्या पंच । मतलब अयोग्य लोग प्रतिनिधि बन गये। ( पहाड़ी कहावतें )
  • अपणी करणी, बैतरणी तारणी । अपनी मेहनत से ही अच्छा फल मिलता है। या अपने अच्छे कर्म ही साथ देते हैं।
  • अगास कैन नापि बखत कैन थापि । आसमान को कोई नाप नही सकता और समय को कोई रोक नही सकता।
  • रौत और गौथ कख नि होंदा । पहाड़ में रावत जाती के लोग और गहत की दाल हर जगह मिल जाती है।
  • बिनडी बिरवो मा मूसा नि मोरदा । ज्यादा लोगो मे काम सफल नही होते।
  • सिंटोलो की पंचेत । अयोग्य लोगो का ग्रुप या आयोग्य लोगो की मीटिंग।
  • निगुस्यो का गोरु उजाड़ जन्दन ।  बिना अभिवावक की संतान खराब होती है।
  • सूत से पूत प्यारो । बेटे से पोता ज्यादा प्यारा होता है।
  • पदाने बवारीकु नोउ तोले नथुली । अर्थात बढ़े लोगों की बड़ी बातें।
पहाड़ी कहावतें
पहाड़ी कहावते (pahaadi kahawaten )

 कुमाउनी कहावतें –

  • जै जोस तै तोस ,मूसक पोथिर मूसक जस । मतलब -बच्चे के अंदर गुण अपने माँ बाप जैसे होते हैं।
  • अपूण धेई कुकुर ले प्यार। अपने घर की। खराब चीज भी अच्छी लगती है।
  • अपूण मैतोक ढुगं ले प्यार । यह कहावत ससुराल की बहू द्वारा बनाई गई है। जब उसे मायके की याद आती है,तो बोलती है , अपने मायके का पत्थर भी प्यारा लगता है।
  • मूसक आइरे गाव गाव , बिरौक हैरी खेल । चूहे की आफत आई है, बिल्ली को मस्ती आ रही है। मतलब  दूसरे की परेशानी में खुश होना।
  • बान बाने बल्द हैरेगो । हल जोतते जोतते बैल का खो जाना । अर्थात काम करते करते काम करने वाली चीज का खो जाना।
  • देखी मैस के देखण , तापी घाम के तापण। अर्थात देखा परखा हुआ इंसान क्या देखना। रोज तापी हुई धूप को रोज क्या तपना।
  • च्यल के देखचा चयलक यार देखों।   मतलब बेटे को परखना है तो उसकी संगत देेखो।
  • मडु फोकियोल आफी देखियोल। जब कुछ होगा तो सबको पता चल जाएगा।
  • जब बाघ बाकरी लीगो ,तब हुल्ल। जब नुकसान हो गया तब हल्ला करना।
  • काणि के चै नि सकन , काणि बिना रै नि सकन । अंधी का ख्याल भी नही रखते ,और अंधी के बिना रह भी नही सकते। अर्थात यह पहाड़ी कहावत नेताओ के चरित्र को चरितार्थ करती है। वो गरीब का ख्याल भी नही रखते ,और गरीब के बिना रह भी नही सकते। ( पहाड़ी कहावतें )

कुमाउनी मुहावरे  :-

  • लगने बखत हगण । शादी के समय  टॉयलेट लगना। मतलब महत्वपूर्ण कार्य के बीच मे विघ्न।
  • रामु कौतिक  गौ कैतिके नि लाग । जिस काम के लिए गए ,उस काम का न होना।
  • मान सिंह कु मौनेल चटकाई ,पान सिंह उसाई।  बात किसी को सुनाई और बुरा किसी और को लगा।
  • सासुल बुवारी तै कोय, बुवारिल कुकुरहते कोय, कुकुरल पुछड़ हिले दी।  अर्थात आलसीपन एक ने दूसरे को काम बताया ,दूसरे ने तीसरे को ,अगले ने हामी भर कर काम नही किया।
  • हगण तके बाट चाण । जब जरूरत पड़े तब सामान खोजना।
  • नाणी निनाणी देखिनी उत्तरायणी कौतिक । नहाने और ना नहाने वाले का पता उत्तरायणी के मेले में पता लग जाता है। अर्थात झूठ बोलने वाले का सामाजिक कार्यों में पता चल जाता है।
  • पुरबक बादलेक ना द्यो ना पाणि । पूर्व के बादल से बारिस नही होती है।
  • भैसक सींग भैस कु भारी नि हूं। अर्थात माता पिता को अपनी संतान बोझ नही लगती है।
  • स्यावक भागल सींग टूट । सियार की किश्मत से सींग टूट गया। अर्थात किस्मत से कामचोर को अच्छा मौका मिल गया ।

पहाड़ी कहावतें

  • तितुर खाण मन काव बताय । मन मे कुछ और मुह पर कुछ और।
  • कोय चेली ते , सुणाय बुवारी कु। बोला बेटी को और सुनाया बहु को।
  • च्यल हेबे सकर नाती प्यार । बेटे से ज्यादा पोता प्यारा होता है।
  • ना सौण कम ना भदोव कम। कोई भी किसी से कम नही है। दोनों प्रतियोगी बराबर क्षमता के।
  • नी खानी बौड़ी,चुल पन दौड़ि !  नखरे वाली बहु, सबसे ज्यादा खाती है।
  • द्वि दिनाक पूण तिसार दिन निपटूण ! आदर सत्कार अधिक दिन तक नहीं होता।
  • शिशुणक पात उल्ट ले लागू सुल्ट ले ! धूर्त आदमी से हर तरफ से नुकसान
  • अघैन बामणि भैसक खीर ! संतुष्ट ना होने पर मना करने का झूठा बहाना करना
  • जो घडी द्यो ,ऊ  घडी पाणी ! कई तरीको से एक साथ व्यवस्था होना।
  • भौल जै  जोगी हुनो , हरिद्वार रून ! अच्छाई  हमेशा अपने मौलिक रूप में रहती है।
  • नौल गोरू नौ पू घासक ! नए कार्य पर  जोश के साथ काम करना।
  • पिनौक पातक पाणी ! इधर की बात उधर करने वाला इंसान।
  • घर पिनाऊ बण पिनाऊ ! हर जगह एक ही चीज सुनाई देना।
  • नौ रत्ती तीन त्वाल ! अनुमान लगाना।

पहाड़ी कहावतें , कुमाउनी कहावतें और गढ़वाली कहावतें।

  • राती बयाणक भाल भाल स्वैण ! आलस्य के बहाने ढूढ़ना !
  • तात्ते खु जई मरू ! जल्दबाजी करना !
  • कभी स्याप टयोड, कभी लाकड़ ! परिस्थितियां अनुकूल ना होना।
  • अक्ले उमरेक कभी भेंट नई होनी ! अक्ल और उम्र की कभी मुलाकात नहीं होती। जब शरीर में ताकत रहती है तब अक्ल नहीं आती , और जब अक्ल आती है ,तब शरीर कमजोर पड़  जाता है।
  • गुणी आपुण पुछोड  नान देखूं ! अपने दोषों को कम बताना।
  • गऊ बल्द अमुसी दिन ठाड़ ! आलसी इंसान जब कार्य ख़त्म हो जाता है ,तब  उपलब्ध होता है।
  • का राजेकी रानी , का भगतविकि काणी ! धरती आसमान का अंतर होना।
  • कब होली थोरी , कब खाली खोरी ! आशावान रहना।
  • आफी  नैक ऑफि पैक ! सब कुछ खुद ही करना।
पहाड़ी कहावतें कुमाऊनी में  –
  • दातुल  आपुणे तरफ काटू ! अपना व्यक्ति अपना साथ देता है।
  • नाइ देगे सल्ला ना, और मुनेई  भीजे दी ! बिना तयारी के काम शुरू करना।
  • निर्बुद्धि राजेक काथे काथ ! मुर्ख हमेशा चर्चा का पात्र होता है।
  • भाल भाल मरगाय और मुसक च्याल पधान ! अयोग्य का पद पर आसीन होना।
  • बांज दैगे नी सक सकी, बुरांश में चोट ! कमजोर पर ताकत दिखाना।
  • बाटमेक कुड़ी ,चाहा में उड़ी ! आसानी से उपलब्ध चीज जल्दी ख़त्म होती है। ( गढ़वाली कहावतें )

निष्कर्ष –

उपरोक्त पहाड़ी कहावतें  पोस्ट में हमने उत्तराखंड की दोनों क्षेत्रों की भाषा कुमाऊनी कहावतें और गढ़वाली कहावतें , गढ़वाली मुहावरे को संकलित किया है। यदि आपको अच्छा लगें तो शेयर अवश्य करें।

इसे भी पढ़े –कुमाऊनी शायरी जिन्हे पारम्परिक भाषा में कुमाऊनी जोड़ कहा जाता है।

कुमाऊनी ,गढ़वाली गीतों के लिरिक्स देखने के लिए यहाँ क्लिक करें।

सितेसर महादेव मंदिर गोविंपुर अल्मोड़ा के बाज के जंगलों में बसा अनोखा शिव मंदिर !

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सितेसर महादेव मंदिर

उत्तराखंड को देवभूमि कहाँ जाता है। यहाँ कण कण में देवताओं का वास है। आज आपको उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में स्थित एक अनोखे शिव मंदिर, सितेसर महादेव मंदिर के बारे में बताने जा रहे हैं। जिसके शिवलिंग में चोट का निशान  है ?

आइये सर्वप्रथम जानते हैं कि यह मंदिर कहाँ स्थित है ? और एक जनश्रुति कथा, लोक कथा  के माध्यम से बताइयेंगे कि इस मंदिर के शिवलिंग पर चोट का निशान क्यों है ?

इसे पढ़ेपूर्णागिरि मंदिर और पूर्णागिरी मंदिर का इतिहास।

गोविंदपुर के नजदीक बांज के जंगलों के बीच बसा है सितेसर महादेव मंदिर –

उत्तराखंड अल्मोड़ा जिले के प्रसिद्ध हिल स्टेशन रानीखेत से लगभग 20 से 25  किलोमीटर की दूरी पर रानीखेत मनान रोड पर गोलुछिना नामक एक स्थान है। उसी के पास लगभग एक किलोमीटर अंदर  बाज के शांत  जंगल मे  भगवान भोलेनाथ सिधेश्वर महादेव  के रूप में निवास करते हैं ।

जिसको स्थानीय भाषा मे सितेसर का मंदिर भी कहा जाता है। इसके पास बसयूरा और चिनोना नामक गाँव भी स्थिति  हैं । इस मंदिर के नजदीक स्थानीय बाजार , एक तो गोलुछिना बाजार है । और दूसरी नजदीकी बाजार गोविंदपुर बाजार है। महादेव का यह मंदिर घने बाज के जंगल मे स्थिति है। यह मंदिर प्रकृृृति की शांत वातावरण मेंं बसा है।यहाँ पहुँच कर आलौकिक शांति एवं सुकून का अहसास होता है।

शिवलिंग पर है चोट का निशान  –

यहाँ सभी पूजा पाठ के साथ ,शिवरात्रि का प्रसिद्ध मेला लगता है।यह मंदिर भगवान शिव के चमत्कारी मंदिरों में से एक है ,यह सितेसर का मंदिर, इस मंदिर की अनेक लोककथाएँ ,जनश्रुतियां प्रसिद्ध हैं। इस मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि,  इसके शिवलिंग पर कुल्हाड़ी की चोट का निशान है। अर्थात शिवलिंग धारदार हथियार से काटा गया है।

सितेसर महादेव मंदिर
सीधेश्वर महादेव, फ़ोटो -संतोष गिरी

आप उपरोक्त फ़ोटो में भी देख सकते हो,कि शिवलिंग पर चोट का निशान है। आखिर यह चोट का निशान कैसे हुआ ? इस पर एक जनश्रुति और लोक कथा प्रसिद्ध है –

सितेसर महादेव पर प्रचलित लोककथा –

“हमारे दादा जी बताते थे, कि पहले जमाने मे, यह क्षेत्र एकदम घना बाज का जंगल था।  जो अभी भी है। स्थानीय गांव के लोग यहाँ  लकड़ी काटने के लिए आते थे। एक बार एक आदमी ने बाज का पेड़ ढाह रखा था, औऱ उसी पर से वो लकड़ी काट रहा था।

लकड़ी काटते हुए अचानक उसकी कुल्हाड़ी छिटक कर जमीन में धस गई। और जहॉ उसकी कुल्हाड़ी धसी वही से खून की धारा फूट गई। यह घटना देख कर वह आदमी एकदम डर गया, आश्चर्य चकित हो गया। उसकी समझ मे नही आ रहा था,कि आखिर जमीन के अंदर से खून क्यों और कैसे आ रहा है?  उसने जल्दी जल्दी अपने आस पास लकड़ी काट रहे अन्य लोगो को बुलाकर वह घटना दिखाई।

सभी लोग आश्चर्य चकित हो गए।फिर सब लोगो ने उस स्थान पर ,जहॉ जमीन से खून आ रहा था,वहाँ खोद कर देखा तो ,वहां एक शिवलिंग निकला, कुल्हाड़ी की चोट की वजह से ,उस शिवलिंग का कुछ भाग कट चुका था, और उसी कटे भाग से खून निकल रहा था।

भगवान भोलेनाथ का यह अनोखा चमत्कार देख सबकी आंखे फटी की फटी रह गई। धीरे धीरे यह बात सारे क्षेत्र में फैल गई। फिर उसी स्थान पर भगवान शिव का चमत्कारी मंदिर सिधेश्वर महादेव मंदिर की स्थापना की गई। जिसको स्थानीय भाषा मे सितेसर का मंदिर  भी कहते हैं।

कैसे जाए सितेसर महादेव मंदिर या सितेसर मंदिर –

प्रसिद्ध सितेसर महादेव मंदिर या सितेसर मंदिर जाने के लिए हल्द्वानी द्वारा जाया जा सकता है। हल्द्वानी से अल्मोड़ा बाजार और अल्मोड़ा से स्थानीय बाजार गोविंपुर तक टैक्सी या बस से जा सकते हैं। गोविंदपुर से थोड़ा पैदल जाना पड़ सकता है।

­सितेसर महादेव मंदिर जाने के लिए सबसे आसान रास्ता है , रानीखेत का रास्ता । आप अलमोड़ा या हल्द्वानी से रानीखेत बाजार पहुच जाइये वहाँ से गोलुछिना नामक स्थान के लिए टैक्सी पकड़ ले। गोलुछिना से बस 1 से आधा किमी अंदर प्रकृति की शांत गोद मे बसा है। भगवान भोले का सिधेश्वर मंदिर या सितेसर मंदिर।

पहाड़ी समान ऑनलाइन बेचने के लिए अपना स्टोर कैसे बनायें ?

होली का मजा , गांव या शहर की , कौन सी होली बेस्ट है।

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होली का मजा

होली का मजा तो गाँव मे ही आता था।  शहर में तो क्याप ठैरा।

शहर की होली का मजा –

शहर में सुबह उठो नाश्ता करो, घुट लगाने वाले घूट लगाओ। फिर हाथ मे  रंग का थैला लेकर चल दो, जो मिले उसे रंग मल दो। किसी के कमरे में जाओ, पापड़ गुजिया खाओ , अगर मिल गई तो एक घूट , उसे भी गटक लो,  ब्रांड नही देखनी , बस पीते जाओ। यही क्रियाकलाप करते करते थोड़ी देर बाद ,आदमी को खुद पता नही चलता ,वो कौन है। अगर कम पी है,और शरीर मे जान है,तो आदमी जैसे तैसे अपनी चौखट पर सिर रख देता है।

नही तो फ़ेसबुक पर होली के रुझानों में दिखता है। उल्टी सुल्ति करते कराते ,आदमी को ऐसी कलटोप पड़ती है, आधी रात को ही नींद खुलती है,वो भी सूखे गले और सर् दर्द के साथ। ये तो है शहर की होली। ( होली का मजा)

अब चलते हैं गांव की यादों में –

गांव की होली का मजा -होली का असली मजा तो गांव में ही है। मेरी गांव की होली की बहुत सुनहरी यादें है। गांव की यादों में ,एकादशी से होली शरू हो जाती है। बचपन मे बुबु हमारे लिए नए कपड़े बनाते थे, कुर्ता पैजामा और कुमौनी टोपी। फिर शुरू होता था, गांव की होली का आनंद। रोज दिन में महिला होली, शाम को खड़ी होली ,रात को बैठक  होली।

हम बच्चे थे, हमको महिला होली में भी जाने की मनाही नही थी। हम महिला होली का आनन्द भी लेते थे। महिलाओ के ठेठर और स्वांग देखने में बड़ा मजा आता था। उसके बाद शाम को होली के कपड़े पहन कर बुबु के साथ होली गाने चले जाते थे। फिर बुबु के कंधे में बैठ कर होली का आनंद लेना। होली मध्यान्ह में जब किर्तन गाये  जाते थे, तब गांव के दूसरे बुबु  गुड़ की भेली के बीच मे बहुत सारा घी रख कर गुड़ फोड़ते थे। ( होली का मजा )

फिर हमारी जद्दोजहद शुरू हो जाती थी ,एक गुड़ का टुकड़ा पाने के लिए। गुड़ तो पूरा मिलता था। पर आलू गुटुक ,बच्चों को हाथ मे देते थे। और बड़ो को पत्तल में। उस समय ये बहुत अन्याय लगता था। काश उस समय भी मानवाधिकार आयोग होता। मगर होली का मजा पूरा आता था।

घर से आमा एक थैली अलग से गुड़ इक्कठा करने के लिए दी रहती थी। जैसे सरकारी कर्मचारियों को मार्च में अपना टारगेट पूरा करना होता है, वैसे ही हमे भी आमा का प्रतिदिन का टारगेट  पुरा करना होता था। रोज थैली भर के आमा को दैनी थी।

इसे पढ़े _कहानी जनरल बकरा बैजू की, जिसने बचाई गढ़वाल राइफल्स के सैनिकों की जान। 

चतुर्दशी को बहुत मजा आता था, उस दिन होली नजदीक के शिव मंदिर में जाति थी,वहाँ अनेक गावो की होली आती थी। हमे तो बस होली का कलाकन्द खाने का लालच रहता था। मगर उस दिन शिव मंदिर तक कोरे पहुचना किसी चुनौती से कम ना होता था। जितने गांवो से मंदिर का रास्ता जाता था,वो गांव वाले पानी और गाय के

गोबर के साथ स्वागत के लिए तैयार रहते थे। वहां जाकर बुबु से 10 रुपये मांगना, और 5 के कलाकंद भस्काना। और 5 रुपये के आलू गुटुक। फिर आती थी अंतिम होली यानी छलड़ी , इस दिन बहुत मजे होते थे, होली का मजा तो इसी दिन आता था।

छलड़ी के दिन सुबह फजल उठ कर, जवान और बच्चे ढोल दमुआ लेकर गाँव मे छलड़ी खेलने चल देते थे। और बुड्ढे लोग मोर्चा सम्हालते थे, मंदिर में होली का हलुवा बनांने के लिए। हम एक एक करके सबके आंगन में जा कर ,ढोल बजा कर होली की आशीषें गाते थे।और अंदर से भाभी जी रंग फेकती थी। फिर एक घाट पर नहाधोकर वापस गांव में आते थे। फिर होली का विदाई  गीत , “है हो हैं तुम कब लक आला ” गाते थे, सच मे दिल भर जाता था।

होली का मजा

फिर होली के प्रसाद का वितरण होता था, और हमको एक भगोना ज्यादा मिलता था, क्योंकि मेरे बुबु होली के डांगर हुआ करते थे।

जो होली स्टार्ट करते हैं, और होली को लीड करते हैं उनको डांगर कहते हैं।

उसके बाद तैयारी होती थी , बकरे की , फीर रजिस्टर में हिसाब लिखा जाने लगता था, कौन कितना शिकार लेगा।

मित्रों उपरोक्त लेख मे मैंने, होली का मजा गांव और शहर दोनो जगह का वर्णन किया है। अब आप बताइए  ? कौन सी होली का मजा सबसे असली मजा है। ….

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पूर्णागिरि मंदिर, पूर्णागिरि मंदिर का इतिहास

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पूर्णागिरि मंदिर

पूर्णागिरि मंदिर या पुण्यागिरी, उत्तराखंड के चंपावत जिले में स्थित है। यह मंदिर समुद्र तल से 3000 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। यह मंदिर अन्नपूर्णा पर्वत पर 5500 फुट की ऊँचाई पर स्थित है। (Purnagiri ka mandir) माँ पूर्णागिरि मंदिर चंपावत से लगभग 92 किलोमीटर दूर स्थित है। पूर्णागिरि मंदिर टनकपुर से मात्र 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थिति है।

पूर्णागिरि मंदिर
Image credit -google

पूर्णागिरि का मंदिर काली नदी के दाएं ओर स्थित है। काली नदी को शारदा भी कहते हैं। यह मंदिर माता के 108 शक्तिपीठों में से एक माना जाता है। पूर्णागिरि में माँ की पूजा महाकाली के रूप में की जाती है।

पूर्णागिरि मंदिर का इतिहास –

पौराणिक कथाओं के अनुसार , जब माता सती ने आत्मदाह किया, तब भगवान शिव माता की मृत देह लेकर सारे ब्रह्मांड में तांडव करने लगे। सृष्टि में अव्यवस्था फैलने लगी । तब भगवान विष्णु ने संसार की रक्षा के लिए, माता सती की पार्थिव देह को अपने सुदर्शन चक्र से नष्ट करना शुरू किया । सुदर्शन चक्र से कट कर माता सती के शरीर का जो अंग जहाँ गिरा, वहाँ माता का शक्तिपीठ स्थापित हो गया। इस प्रकार माता के कुल 108 शक्तिपीठ हैं।

इनमे से उत्तराखंड चंपावत के अन्नपूर्णा पर्वत पर माता सती की  नाभि भाग गिरा ,इसलिये वहाँ पूर्णागिरि मंदिर की स्थापना हुई।

एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार , महाभारत काल मे प्राचीन ब्रह्मकुंड के पास पांडवों द्वारा विशाल यज्ञ का आयोजन किया गया। और इस यज्ञ में प्रयोग किये गए अथाह सोने से ,से यहाँ एक सोने  का पर्वत बन गया । 1632 में कुमाऊँ के राजा ज्ञान चंद के दरवार में गुजरात से श्रीचंद तिवारी नामक ब्राह्मण आये ,उन्होंने बताया कि माता ने स्वप्न में इस पर्वत की महिमा के बारे में बताया है।तब राजा ज्ञान चंद ने यहाँ मूर्ति स्थापित करके इसे मंदिर का रूप दिया।

माता के दर्शन के लिए यहाँ साल भर श्रद्धालु आते हैं। परंतु चैत्र माह और ग्रीष्म नवरात्र के दर्शन का विशेष महत्व है। चैत्र माह से यहाँ 90 दिनों तक पूर्णागिरि मंदिर का मेला भी लगता है।

पूर्णागिरि के सिद्ध बाबा मंदिर की कहानी-

सिद्ध बाबा के बारे में कहा जाता है, कि एक साधु ने घमंड से वशीभूत होकर, जिद में माँ पूर्णागिरि पर्वत पर चढ़ने की कोशिश की, तब माता पूर्णागिरि ने क्रोधित होकर साधु को नदी पार फेक दिया। (जो हिस्सा वर्तमान में नेपाल में है।) बाद में साधु द्वारा माफी मांगने के बाद ,माता ने दया में आकर साधु को सिद्ध बाबा के नाम से प्रसिद्ध होने का वरदान दिया। और कहाँ कि बिना तुम्हारे दर्शन के ,मेरे दर्शन अधूरे होंगे।

पूर्णागिरि मंदिर में सिद्ध बाबा
सिद्ध बाबा मंदिर
फ़ोटो क्रेडिट -गूगल

अर्थात जो भी भक्त पूर्णागिरि मंदिर जाएगा, उसकी यात्रा और दर्शन तब तक पूरे नही माने जाएंगे, जब तक वह सिद्ध बाबा के दर्शन नही करेगा। यहाँ सिद्ध बाबा के लिए मोटी मोटी रोटिया ले जाने का रिवाज भी प्रचलित है।

पूर्णागिरि धाम के झूठे का मंदिर की कथा

पौराणिक कथाओं के अनुसार एक सेठ संतान विहीन थे। एक दिन माँ पूर्णागिरि ने स्वप्न में कहा कि ,मेरे दर्शन के बाद तुम्हे पुत्र प्राप्ति होगी। सेठ में माता के दर्शन किये ,ओर मन्नत मांगी यदि उसका पुत्र हुआ तो वह माँ पूर्णागिरि के लिए सोने का मंदिर बनायेगा। सेठ का पुत्र हो गया,उनकी मन्नत पूरी हो गई, लेकिन जब सेठ की बारी आई तो ,सेठ का मन लालच से भर गया।

सेठ ने सोने की मंदिर की स्थान पर ताँबे के मंदिर में सोने की पॉलिश चढ़ाकर माँ पूर्णागिरि को चढ़ाने चला गया। कहते है, टुन्याश नामक स्थान पर पहुचने के बाद वह मंदिर आगे नही ले जा सका, वह मंदिर वही जम गया। तब सेठ को वह मंदिर वही छोड़ना पड़ा। वही मंदिर अब झूठे का मंदिर के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर में बच्चों के मुंडन संस्कार किये जाते हैं। इसके बारे में मान्यता है,कि इसमें मुंडन कराने से बच्चे दीर्घायु होते हैं।

पूर्णागिरि मंदिर
झूठे का मंदिर
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पूर्णागिरि माता का मंदिर  कैसे जाएं –

पूर्णागिरि मंदिर कैसे जाए पूर्णागिरि धाम की यात्रा यातायात के सभी प्रारूपों द्वारा सुगम है। पूर्णागिरि मंदिर की यात्रा गर्मियों में ज्यादा अच्छी होती है। विशेष तौर से 30 मार्च से अप्रैल मई तक। इस समय यहाँ पूर्णागिरि का मेला भी चलता है,और धार्मिक महत्व भी है इस समय का। मौसम के हिसाब से भी यह पूर्णागिरि यात्रा का सबसे सुगम समय है।

हवाई मार्ग से पूर्णागिरी मंदिर की यात्रा:-

पूर्णागिरी के नजदीक हवाई अड्डा पंतनगर है। पंतनगर नैनीताल जिले में स्थित है। यह पूर्णागिरी से 160 किमी दूर है। यहाँ से पुण्यागिरी, पूर्णागिरी को टैक्सी ,बस ऑटो सब उपलब्ध हैं। पंतनगर में सप्ताह की 4 उड़ाने दिल्ली के लिए उपलब्ध हैं । और देहरादून के लिए भी उड़ाने उपलब्ध हैं।

रेल मार्ग से पूर्णागिरी मंदिर की यात्रा:-

टनकपुर से पूर्णागिरी की दूरी 20 किमी है।  टनकपुर से  पूर्णागिरी को टैक्सी उपलब्ध हैं।  टनकपुर रेलवे स्टेशन भारत के बड़े शहरों के रेलवे स्टेशन से जुड़ा है। हाल ही में भारत सरकार ने 26 फरवरी 2021 को दिल्ली पूर्णागिरी जनशताब्दी एक्सप्रेस नामक ट्रेन शुरू की है।

यह ट्रेन प्रतिदिन  दिल्ली मुरादाबाद, बरेली इज्जतनगर, खटीमा होते हुए टनकपुर आती है। दिल्ली पूर्णागिरी जनशताब्दी एक्सप्रेस विशेष रूप से पूर्णागिरी यात्रा के लिए चलाया गया है। यह पूर्णागिरी जाने के लिए सबसे सुगम हैं।

सड़क मार्ग से पूर्णागिरी मंदिर की यात्रा:-

टनकपुर , देश के सभी नेशनल हाईवे से जुड़ा हुआ है। टनकपुर से पूर्णागिरी लगभग 20 किमी दूर है। टनकपुर तक दिल्ली ,लखनऊ, देहरादून या किसी अन्य शहर से बस में आसानी से आ सकते हैं। टनकपुर से पूर्णागिरी के लिए टैक्सी आसानी से उपलब्ध है। यदि निजी वाहन द्वार आ रहें तो आसानी से पूर्णागिरी पहुच सकते हैं।

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रानीखेत का पंकज नेगी मदद कर रहा है,गरीब बच्चों को उनके भविष्य तराशने में | Rohit Foundation of Pankaj Negi

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रोहित फाउंडेशन

रोहित फाउंडेशन – पंकज नेगी वैसे तो पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं। मगर उन्होने ने महसूस किया कि हमारे पहाड़ में गरीबी और सही साधन और मार्गदर्शन समय पर नही मिलने के कारण कई होनहार बच्चे आगे नही बड़ पाते हैं। उनका भविष्य अंधकारमय हो जाता है,और सपने धरे के धरे रह जाते हैं। इसी समस्या के समाधान की कोशिश के लिए पंकज ने रोहित फाउंडेशन  की स्थापना की है।

पंकज नेगी उत्तराखंड अल्मोड़ा जिले के रानीखेत तहसील में पडने वाला गांव धुराफाट, मण्डलकोट के रहने वाले है। पंकज नेगी ने देहरादून के प्रतिष्ठित कॉलेज से सॉफ्टवेयर इंजीनियर की डिग्री हासिल की है। वर्तमान में वो पेशे से इंजीनियर हैं।पंकज नेगी ने प्राम्भिक शिक्षा अपने गांव से ही कि है। इसलिए वो भलीभांति जानते हैं, कि गांव के बच्चों को अपने भविष्य को तराशने में कितनी परेशानी होती है।

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गांव के गरीब पृष्ठभूमि के बच्चों को अपने भविष्य तराशने में कोई परेशानी ना हो, प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी के लिए उन्हें सही संसाधन और सही मार्गदर्शन समय पर मिले, और उन्हें आधुनिक शिक्षा के बारे में तथा सही कैरियर कॉउंसलिंग समय पर मिले ,इन सब बातों को ध्यान में रख के,तथा इन समस्याओं के निवारण की प्रतिबद्धता के साथ सोमवार 21 मार्च 2021 को रोहित फाउंडेशन की स्थापना की गई।

 

रोहित फाउंडेशन ने स्थापना के शुभवासर पर सर्वप्रथम मण्डलकोट गांव के राजकीय इंटर कालेज में वहाँ के 10 वी एवं 12 वी के छात्र छात्राओं को परीक्षा किट दी गई । इस परीक्षा किट का प्रयोग छात्र छात्राएं अपने आने वाली बोर्ड परीक्षाओं में कर सकेंगे।

तथा छात्र छात्राओं को रोहित फाउंडेशन की प्रतिबद्धता और उनके आने वाले कैरियर कॉउंसलिंग के बारे में बताया गया।

इसे भी देखेकहानी जनरल बकरा बैजू की, जिसने बचाई गढ़वाल राइफल्स के सैनिकों की जान। 

इस शुभवासर के साक्षी , अध्यक्ष सरिता नेगी जी,प्रधानाचार्य रामपूजन यादव जी ,पुष्कर सिंह जी ,सुंदर करायत जी , प्रमोद भाकुनी जी,वीरेन्द्र बिष्ट जी,खुशाल बिष्ट जी,देवेंद्र बिष्ट जी,दीपक नेगी जी, दीपक मेहरा जी,अंकित मेहरा जी,गगन जी, हेमंत जी और क्षेत्रवासी और अभिवावक उपस्थित थे।

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जनरल बकरा बैजू जिसने बचाई गढ़वाल राइफल्स के सैनिकों की जान ।

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गढ़वाल राइफल्स का एक ऐसा जनरल जिसने ना कभी युद्ध किया, ना ही कभी बंदूक तक  उठाई , और वह सेना का जनरल रहा ।  और सबसे चौकाने वाली बात यह थी कि ,वह जनरल कोई इंसान नही अपितु एक बकरा था। जिसका नाम था जनरल बकरा बैजू।

एक बकरा वो भी एक महान सैन्य राइफल का सम्मानित जनरल सुनने में बड़ा अजीब लगता है। मगर यह सत्य है। अगर आप इस कहानी को इतिहास में ढूढ़ना चाहें तो इतिहासकार डॉ रणवीर सिंह चौहान  की प्रसिद्ध किताब  लैंड्सडॉन सभ्यता और संस्कृति और महान साहित्यकार योगेश पांथरी की पुस्तक कलौडांडा से लैंड्सडॉन में मिल जाएगा।

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कैसे गढ़वाल राइफल्स  ने एक साधारण बकरे को बनाया जनरल बकरा –

यह कहानी 1919 के तीसरे एंग्लो अफगान लड़ाई  की है। अफगानियों ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया था। उस विद्रोह का शमन करने के लिए अंग्रेजों ने भारत की सेना भेजी , जिसमे एक टुकड़ी गढ़वाल राइफल्स की भी शामिल हुई। लेकिन चित्राल सीमा में जा कर गढ़वाल राइफल्स की सेना टुकड़ी अपना रास्ता भटक गई। सैनिकों के पास जब तक राशन था, तब तक खाना चलता रहा। लेकिन जब टुकड़ी का राशन खत्म हो गया तो वो भूख प्यास से तड़पने लगे।

जनरल बकरा बैजू –

रास्ता भटक जाने के कारण, भूख प्यास से गढ़वाल राइफल्स के जवान ,  अफगानिस्तान के जंगल बीहड़ में भटकने लगे थे। अफगानिस्तान के जंगल मे भटकते हुए एक झाड़ी के पास अचानक हलचल हुई , तो सभी जवान अलर्ट हो गए। और सभी ने अपनी बंदूक तैयार कर ली। तभी उन झाड़ियों से विशाल जंगली बकरा निकला । हष्ट पुष्ट बकरे को देख कर जवानों ने इसे मार खाने का मन बना लिया। वे बकरे को मारने ही वाले थे कि बकरा वापस झाड़ियों की तरफ भागने लगा। और भागते हुए बकरा एक विशाल खेत मे पहुँच गया।

भूखे प्यासे सैनिकों को खाना दिलवाया –

वहाँ बकरा कुछ रुक कर ,अपने पैरों से मिट्टी हटाने लगा। बकरे की हरकत देख सैनिक आश्चर्य चकित थे। बकरा लगातार आपने पैरों से मिट्टी खोद रहा था।  थोडी देर और मिट्टी हटाने के बाद वहां पर खेत मे दबे आलू नजर आने लगे थे। यह देख कर सैनिक खुश हो गए थे।सैनिको ने और आस पास खोद कर देखा तो,वह पूरा खेत आलू का था।

अब तो सैनिको को जैसे मन मांगी मुराद मिल गई थी।वो लोग कई दिन से भूखे थे,और उन्हें बहुत सारे आलू मिल गए थे, वो भी एक बकरे की वजह से।अगर वो बकरे को मार कर खा जाते तो,बकरा पूरी टुकड़ी के लिए पर्याप्त नही होता। और आधे सौनिक भर पेट नही खा सकते थे।

जनरल बकरा
जनरल बकरा बैजू

और उन्हें  उस बकरे के कारण इतने आलू मिल गए थे कि ,उनकी पूरी टुकड़ी कई दिन तक भोजन कर सकती थी। सैनिको ने आलू भूनकर अपना भोजन बनाया ,और बाकी आलू अपने साथ ले गए।

और इस संकट के समय फरिश्ता बनकर आये बकरे ने उनका आगे भी साथ निभाया। बकरे ने सैनिकों को आगे का मार्ग दिखाया। गढ़वाल राइफल्स की टुकड़ी निर्धारित स्थान पर पहुच कर,युद्ध मे विजय हुई ।

इनके बारे में भी जानेपहाड़ी को पहाड़ की याद दिलाता है, कंचन जदली का लाटी आर्ट .

गढ़वाल राइफल ने भी अहसान चुकाया –

जब गढ़वाल राइफल्स की टुकड़ी वापस लैंड्सडॉन आईं तो , उस बकरे का अहसान चुकाने के लिए, उस बकरे को भी अपने साथ लैंड्सडॉन गढ़वाल ले आई। गढ़वाल पहुचते ही विजयी सैनिको के साथ बकरे का भी स्वागत सत्कार हुआ। बकरे को सेना में जनरल की मानक उपाधी देकर सम्मानित किया गया। सैनिकों ने जनरल बकरा को बैजू नाम दिया।

पूरे जनरल वाले ठाठ थे , जनरल बकरा बैजू साहब के –

जनरल बकरा बैजू को एक अलग बैरक दी गई, वहाँ उसकी सुविधा का का सारा सामान दिया गया। बैजू को पूरे लैंड्सडॉन में कही भी आने जाने की पूरी आजादी थी। उसके लिए कोई रोक टोक नही थी। अगर वह बाजार से कोई भी चीज खाता तो उसे कोई नही रोकता था। दुकानदार उसकी खाई हुई चीजो का बिल बनाकर गढ़वाल राइफल्स को देते थे। और सेना उसका बिल चुकाती थी।जनरल साहब बेझिझक लैंड्सडॉन में  घूमते थे, कही पर नई  रंगरूट मिलती तो ,उसको सलाम करती ,और करे भी ,

क्यों ना ,आखिर वो जनरल साहब थे। धीरे धीरे जनरल साहब बूढ़े हो गए ,और एक दिन भगवान को प्यारे हो गए। सेना ने पूरे ससम्मान उनका अंतिम संस्कार किया,अपने अनोखे जनरल साहब को विदाई दी।

जनरल बकरा बैजू इतिहास का पहला बकरा था,जिसे इतना सम्मान और अच्छी जिंदगी मिली। मगर इसका हकदार भी था वो। उसने सिद्ध किया था, जानवरों के अंदर दिल और परोपकार की भावना होती है।

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पहाड़ी को पहाड़ की याद दिलाता है, कंचन जदली का लाटी आर्ट | Kanchan jadli Lati art

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“सोशल मीडिया पर उत्तराखंड वासियों को अपने पहाड़ से जोड़ने की अनोखी कोशिश है , कंचन जदली का लाटी आर्ट”

“होगा टाटा नामक देश का नमक, पहाड़ियों का नमक तो पिसयू लूण है ” इस गुदगुदाती पंचलाइन के साथ एक प्यारी सी पहाड़न कार्टून चरित्र को नमक पिसते हुए दिखाया गया है। और इस प्यारे से संदेश को देख कर गर्व और प्रेम के मिश्रित भाव एक साथ हिलोरे मारते हैं। और अपनी संस्कृति के लिए मन मे प्रेम उमडता है।

कंचन जदली
फ़ोटो क्रेडिट – लाटी आर्ट

इसी प्रकार अपने पहाड़ी कार्टून चित्रों और गुदगुदाती पंचलाइन से पहाड़ी को पहाड़ से जोड़ने की कोशिश कर रही है,उत्तराखंड की कंचन जदली।

कंचन जदली उत्तराखंड के पौड़ी जिले के लैंड्सडॉन की रहने वाली है। कंचन की आरम्भिक शिक्षा कोटद्वार में हुई  है। कंचन को बचपन से ही कला का शौक था। वह बचपन से ही कलाकार बनाना चाहती थी। 11 वी और 12 वी कला विषय से करने के बाद , कंचन जदली ने  “फ़ाईन आर्ट्स ” विषय मे,  चंडीगढ़ के  “गवर्मेंट कालेज ऑफ आर्ट्स ” से  स्नातक और परस्नातक की पढ़ाई पूरी की।

अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद , दो  तीन साल कंचन ने चंडीगढ़ और दिल्ली में आर्ट्स के क्षेत्र में कार्य शुरू किया। मेट्रो शहरों का अशांत जीवन शैली और अपनी देवभूमि उत्तराखंड के लिए कुछ करने की इच्छा दिल मे रख वो वापस अपने पहाड़ आ गई।

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उत्तराखंड आकर कंचन जदली ने अपने डिजिटल आर्ट के माध्य्म से उत्तराखंड के प्रवासियों को पहाड़ से जोड़ने का काम शुरू कर दिया।  इसके लिए उन्होंने बनाई पहाड़ी कार्टून कैरेक्टर लाटी। और अपने आर्ट को नाम दिया  लाटी आर्ट  हम सभी आजकल सोशल मीडिया पर देख ही रहे हैं, उत्तराखंड के जितने भी आजकल कार्टून मिम्स दिख रहे हैं, उनमे एक सिग्नेचर होता है लाटी आर्ट ।

उसी लाटी आर्ट को बनाती है, कंचन जदली।अपने प्रोजेक्ट का नाम लाटी आर्ट रखने के पीछे का कारण बताती है कि, लाटी का अर्थ पहाड़ में होता है एक प्यारी सीधी नादान लड़कीं। या एक मासूम लड़कीं। कंचन के अनुसार लाटी आर्ट के माध्य्म से हर एक पहाड़ी के मन मे अपने पहाड़ के लिए प्यार जगाना तथा उनको अपनी बोली भाषा से जोड़े रखना चाहती है। कंचन को अपने पहाड़ से बहुत प्यार है। और उसे वो अपनी कला के माध्यम से दर्शा भी रही है।

कंचन जदली के लाटी आर्ट को उत्तराखंड पर्यटन विभाग (Uttarakhand Tourism )  ने अपने आधिकारिक फेसबुक पेज से (Official Facebook page of Uttarakhand Tourism )  से शेयर किया गया और सराहा गया हैं।

अभी तक कंचन जदली  100 से अधिक लाटी सीरीज के कार्टून बना चुकी है। अमूल के कार्टून और पंजाब के सांता बंता कार्टून की तर्ज पर कंचन ने ठेठ पहाड़ी चरित्र लाटी को तराशा है। उत्तराखंड के नाते घटनाक्रम तथा सांस्कृतिक कार्यक्रमों एवं त्योहारों के आधार पर अपने चरित्र लाटी को तराशती हैं।

अब वह छोटे अनिमिशन वीडियो क्लिप भी बनाती है। इसी सीरीज का मकरैणी ,की  घुगते बाँटते हुई लाटी जबरदस्त हिट रही।

कंचन जदली
फ़ोटो क्रेडिट – लाटी आर्ट

कंचन ने अभी तक डिजिटल आईपैड के इस्तेमाल से गौरा देवी, लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी, प्रीतम भरतवाण, पवनदीप राजन तथा अनेक फेमस हस्तियों के स्केच बना चुकी है। कंचन जदली अपने कार्टून कैरेक्टर को मग पर प्रिंट करके ऑफ़लाइन भी घर घर पहुचाने का काम कर रही है।

वास्तव में कंचन जदली अपनी अनूठी कला से उत्तराखंड की संस्कृति को एक सराहनीय योगदान दे रही है। उनके कार्टून मिम्स और पंचलाइन ,वर्तमान के आधुनिक शिक्षित युववर्ग को अपनी संस्कृति अपनी जड़ों से जोड़ने का काम कर रहे हैं।

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कंचन जदली से सोशल मीडिया ऑनलाइन जुड़े –

कंचन से इंस्टाग्राम जुड़ने के लिए इस लिंक द्वारा जाए –

https://instagram.com/lati.art_?igshid=oltfq8z92fuh

कंचन से ट्विटर पर जुड़ने के लिए इस लिंक द्वारा जाए –

https://twitter.com/art_lati?s=09

फ़ोटो सभार :- कंचन जदली सोशल मीडिया ।

भिटौली उत्तराखंड की एक प्यारी परंपरा पर निबंध लेख।

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भिटौली

बसंत ऋतु उत्तराखंड वासियों को बहुत सुहाता है,बसंत में उत्तराखंड के लोग उत्तराखंड की विश्व प्रसिद्ध कुमाउनी होली के रंग में डूब जाते हैं, बच्चे फूलदेई ,फुलारी त्यौहार मनाते हैं। वही महिलाएं भी आपने मायके से आने वाली भिटौली  की राह तक रही होती हैं। इसलिये उत्तराखंड वासी चैत्र माह को रंगीला महीना भी कहते हैं।

क्योंकि फाल्गुन चैत्र में होली का आनंद रोमांच ,फूलदेई की खुशी और भिटौली का प्यार एक साथ आता है। और इसी खुशी में पुरूष एवं महिलायें इस माह में लोकनृत्य लोकगीत  झोड़ा चाचेरी गा कर आनंद मानते हैं।

भिटौली क्या है ?

यह उत्तराखंड की एक बहुत ही प्यारी परम्परा है। चैत्र मास में विवाहिता बहु के मायके वाले , विवाहिता लड़की का भाई विवाहिता के लिए , सुंदर उपहार ,या उपहार में कपड़े और पूड़ी या मिठाई लेकर आते हैं। जिसका विवाहिता बड़ी बेसब्री से इंतजार करती है।और वह आस पड़ोस में बांट कर इसकी खुशी सबके साथ मानती है। स्थानीय भाषा मे भेट का मतलब होता है मुलाकात करना ,और भिटौली का अर्थ होता है, भेंट करने के लिये लायी गयी सामग्री या उपहार।

भिटौली

भिटौली परम्परा कैसे शुरू हुई ?

पहले पहाड़ो में बहुत असुविधाएं थी। यातायात के साधन नही थे। संचार व्यवस्था नही थी, जहां थी भी तो वो ढंग से काम नही करती थी।  गरीबी के कारण लोग रोज अच्छा खाना नही खा सकते थे। पूड़ी सब्जी आदि पकवान केवल त्योहारों को खाने को मिलते थे। और नए कपड़े पहनने को भी खास मौके पर ही पहने जाते थे। बहुएं अपने ससुराल में बहुत परेशान रहती थी। दिन भर जी तोड़ मेहनत उसके बाद खाने को मिलता था रूखा सूखा खाना। लड़की को अपने मायके की बहुत याद आती थी। उधर यही हाल लड़की के माता पिता और भाई का हुआ रहता था।

लड़की के मायके वाले अपनी बेटी की चिंता में परेशान रहते थे। लड़कीं के मायके वाले भी काम काज में बिजी होने के कारण , अपनी लड़कीं से मिलने का समय नहीं निकाल पाते थे, क्योंकि खेती बाड़ी का काम ही उस समय जीविकोपार्जन का साधन होता था।

पहाड़ो में पौष माह से चैत्र तक काम कम होता है। तब इसी बीच चैत्र माह में बसंत ऋतु परिवर्तन और मौसम में गर्माहट आनी शुरू हो जाती है। यह मौसम यात्रा के लिये सवर्था उचित रहता है। इसलिए लड़कीं के माता पिता अपनी बेटी को मिलने उसके मायके जाते थे। जिनके मा पिता ज्यादा यात्रा नही कर सकते थे, वे लड़कीं के भाई को भेजते थे।

लड़कीं  के मायके वाले उसके लिए, पूड़ी पकवान बना के तथा नए कपड़े लाते थे। इससे लड़कीं काफी खुश होती थी।उसके जीवन मे नव्उम्मीदो का संचार होता था। और गांव की सभी विवाहिताएं मिल कर खुशी के गीत , झोड़ा चाचरी गाती,नाचती थी।

धीरे धीरे यह एक परम्परा बन गई, और वर्तमान मे यह उत्तराखंड की एक सांस्कृतिक परम्परा है। इस परम्परा पर कई लोक गीत एवं लोक कथाएँ प्रचलित हैं।

भिटोली की प्रचलित लोक कथा ” मि सीतो म्यर भे भूखों ” –

उत्तराखंड के एक गांव में दो भाई बहिन अपनी माता पिता के साथ रहते थे। दोनो भाई बहिन के बीच अगाध प्रेम था। समय के साथ दोनो बड़े हुए , तो बड़ी लड़की थी उसकी शादी हो गई। भाई को घर में दीदी के बिना अच्छा नहीं लगता था। उधर बहिन को भी हमेशा अपने मायके और अपने भाई की याद सताती थी।

मगर प्राचीन काल में गांव में संचार के कोई साधन न होने के कारण उनकी बातचीत नहीं हो पाती थी।उधर भाई बहिन की यादों में तड़पता रहता था। तब उसके माता पिता उसको भरोसा देते थे, कि चैत का महीना आ रहा ,तेरी बहिन भिटोली लेने आएगी तब मिल लेना अपनी बहिन से ।

चैत का महीना आ कर खत्म होने वाला हो गया ,लेकिन उसकी बहिन नही आई।एक दिन वो खुद ही पूरी पकवान बना कर अपनी बहिन को भिटोली देने के लिए उसके गांव की ओर चला गया ।

पहुंचते पहुंचते उसे दोपहर हो गई। जब बहिन के घर पहुंचा तो उसने  देखा कि , सुबह से काम करके उसकी बहिन चैत की दोपहरी में , थोड़ा सुकून से सोई है। इसलिए उसने सोचा बहिन की नींद खराब नही करनी चाहिए। वह चुपचाप बहिन के सिरहाने पर पूरी पकवान से भरी डालियां (बैग) रखकर वापस घर को लौट गया। बहिन से बिना मिले जा रहा था, दुख तो हो रहा था लेकिन बहिन से इतना प्यार था कि ,उसकी नींद नहीं खराब कर पाया ।

आखिर भाई से मुलाकात नहीं हो पाई –

जब संध्या के समय उसकी बहिन की नींद खुली तो, सिरहाने पर रखी पूरी पकवान को देख कर समझ गई कि उसका भाई आया था भिटौली देने । और सोए रहने की वजह से वो उससे मुलाकात भी नही कर पाई और वो भूखा प्यासा चला गया। उसे बहुत दुःख हुवा। वो रोने लगी,” मि सीति ,म्यार भे भूखों” रोते परेशान होते वो अपने भाई को पहाड़ों में ढूढने लगी। इसी आपाधापी में उसके पैर में ठोकर लगी और वो गहरी खाई में गिर गई।

और उसकी मृत्यु हो गई। कहा जाता है, कि वो मृत्यु उपरांत एक चिड़िया बनी और आज भी पहाड़ों में बोलती है, “मि सीतो म्यर भे भूखों ”

­वर्तमान समय  में भिटौली –

बदलते समय में भिटौली का स्वरूप भी बदला है। पहले समय मे भिटौली की शुरुवात बेटी को देखने तथा उसके दुख सुख जानने के लिए की गई थी। वर्तमान में पहाड़ों में पहले की अपेक्षा काफी विकास हो गया है। यातायात के साधन काफी हो गए हैं। संचार के क्षेत्र में राज्य लगभग डिजिटल हो गया है। शिक्षा के क्षेत्र में भी काफी सुधार हो गया है।

सबसे बड़ा परिवर्तन पलायन का हुआ है। अब बेटियों को वो पहले वाली परेशानी नही होती। अधिकतर बेटियां शहर में रहती हैं। मगर फिर भी जो हमारी सांस्कृतिक परम्परा है, लोग उसे एक परम्परा के तौर पर खुशी खुशी मानते हैं। जहा तक मेरी अपनी अपनी जानकारी है, आजकल भिटौली पैसे देकर या डिजिटल मनी ट्रांसफर करके मनाई जाती है। जिससे बिटिया अपनी पसंद की मिठाई और कपड़े खरीद लेती है।

पहले बेटी के माता पिता और बेटी के लिए यह साल का सबसे अनमोल पल रहता था। वर्तमान में भिटौली उत्तराखंड की एक खास परम्परा के रूप में मनाई जाती है।चाहे वो डिजिटल रूप से ही मनाया जाय।

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कुमाऊनी होली– 2 माह तक चलने वाली अनोखी है ये पहाड़ी होली।

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कुमाऊनी होली
होली का असली मजा

होली सनातन परंपरा का प्रमुख त्यौहार है। भारत मे बहुत ही हर्षोल्लास के साथ यह त्यौहार मनाया जाता है। भारत के हर क्षेत्र राज्य में अलग अलग तरह से होली मनाई जाती है। इनमे से भारत मे दो होली उत्सव अत्यधिक प्रसिद्ध हैं। उत्तराखंड की कुमाऊनी होली ( Kumaoni holi)और बरसाने की होली।

बरसाने की होली के साथ साथ उत्तराखंड की कुमाऊनी होली विश्व प्रसिद्ध है। कुमाउनी होली 2 से 3 माह तक चलने वाला संगीतमय त्यौहार है। कुमाउनी होली विश्व की सांस्कृतिक विरासत है। कई इतिहासकार कुमाउनी होली का संबंध चंद शाशनकाल से बताते हैं। इस होली के बारे बताया जाता है कि यह होली 1870 ई से वार्षिक उत्सव के रूप में चली आ रही है। उससे पहले होली की नियमित बैठकें हुवा करती थी।

कुमाऊनी होली

कुमाऊनी होली के प्रकार –

कुमाऊनी होली मुख्यतः शास्त्रीय संगीत और लोकसंगीत के मिश्रण पे गाई जाती है। उत्तराखंड की कुमाऊनी होली की भाषा ब्रज खड़ी बोली है। कुछ स्थानीय शब्दों का मिश्रण भी मिलता है। यह त्यौहार पौष मास से शुरू होता है। पौष माह से कुमाऊं के नैनीताल और अल्मोड़ा में बैठक होलियों का दौर शुरू हो जाता है। और फाल्गुन में कड़ी होली के साथ होलिका दहन के दिन तक चलता है। यह मुख्यरूप से तीन प्रारूपों में मनाया जाता है।

  1. ­खड़ी होली
  2. बैठकी होली
  3. महिला होली

पौष के प्रथम रविवार से बैठकी होली शुरू हो जाती है। उसके बाद बसंत पंचमी के दिन से शृंगार रस प्रधान बैठकी होली चलती है। और फाल्गुन की एकादशी से खड़ी होली उत्सव शुरू होता है। खड़ी होली में ही रंगों का प्रयोग होता है। एकादशी के दिन रंग पड़ता है। कुमाऊं के कई क्षेत्रों में चीर बाँधकर होली का खड़ी होली का शुभारंभ होता है। चीर कपड़े के टुकड़ों एवं लकड़ी से मिला कर एक प्रतीकात्मक होलिका बनाई जाती है।

जिसका होलिका दहन के दिन दहन किया जाता है। एकादशी के दिन होलियार लोग मंदिरों में खड़ी होली गाकर ,खड़ी होली का शुभारंभ करते हैं। उसके बाद रोज बारी बारी से सबके घर होली गाई जाती है। होली गाने वाले लोगो को होलियार कहा जाता है। चतुर्दर्शी के दिन सब होलियार अपनी अपनी गांव की होली लेकर शिवमंदिर जाते हैं। भगवान शिव के आंगन में होली गाते है, “शिव के मन बसे काशी” इस होली की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-

कुमाऊनी होली गीत ,” शिव के मन माहि बसे काशी ” –

शिव के मन माहि बसे काशी -2
आधी काशी में बामन बनिया,
आधी काशी में सन्यासी,

शिव के मन माहि बसे काशी।
काही करन को बामन बनिया,
काही करन को सन्यासी,

शिव के मन माहि बसे काशी।
पूजा करन को बामन बनिया,
सेवा करन को सन्यासी,

शिव के मन माहि बसे काशी
काही को पूजे बामन बनिया,
काही को पूजे सन्यासी,

शिव के मन माहि बसे काशी
देवी को पूजे बामन बनिया,
शिव को पूजे सन्यासी,

शिव के मन माहि बसे काशी
क्या इच्छा पूजे बामन बनिया,
क्या इच्छा पूजे सन्यासी,

शिव के मन माहि बसे काशी
नव सिद्धि पूजे बामन बनिया,
अष्ट सिद्धि पूजे सन्यासी,

शिव के मन…

इसके अलावा “चलो चले शिव के भवन ” होली भी गाई जाती है।

महिला होली भी खड़ी होली के  बीच – बीच में चलती रहती है। इसमें केवल महिलाये नृत्य, गायन और ठिठोली से होली की खुशिया मनाती हैं। इसके अलावा पौष माह से चलने वाली बैठक होली का अपना एक अलग रंग होता है।  जिसमे उर्दू का असर भी मिलता है। इसे  बैठ कर हारमोनियम तबले के साथ राग रागनियों के साथ गाया जाता है।

इसे पढ़ेफूलदेई त्यौहार की कहानी। फुलारी त्यौहार की कहानी।

होलिका दहन के दिन , चीर दहन किया जाता है।चीर को प्रतीकात्मक होलिका माना जाता है। होलिका दहन के दूसरे दिन यानी  होली के अंतिम दिन , छलड़ी  मनाई जाती है। इस दिन गाँव मे घर घर जाकर , रंग खेला जाता है । और साथ मे होली आशीष गीत  भी गया जाता है। इसके उपरांत  गांव के सार्वजनिक स्थान पर होली का प्रसाद बनता हैं। होली के प्रसाद में हलुवा बनता है। यह प्रसाद समस्त ग्रामवासियों एवं सम्बंधियों में वितरित किया जाता है।

कुमाऊनी होली
कुमाउनी होली फोटो साभार फेसबुक

कुमाऊनी होली में छलड़ी के दिन आशीष गीत गाया जाता है। जो इस प्रकार है –

गावैं ,खेलैं ,देवैं असीस, हो हो हो लख रे
बरस दिवाली बरसै फ़ाग, हो हो हो लख रे।
जो नर जीवैं, खेलें फ़ाग, हो हो हो लख रे।
आज को बसंत कृष्ण महाराज का घरा, हो हो हो लख रे।
श्री कृष्ण जीरों लाख सौ बरीस, हो हो हो लख रे।
यो गौं को भूमिया जीरों लाख सौ बरीस, हो हो हो लख रे।
यो घर की घरणी जीरों लाख सौ बरीस, हो हो हो लख रे।
गोठ की घस्यारी जीरों लाख सौ बरीस, हो हो हो लख रे।
पानै की रस्यारी जीरों लाख सौ बरीस, हो हो हो लख रे
गावैं होली देवैं असीस, हो हो हो लख रे॥

उपसंहार –

होली समस्त भारत वर्ष का सबसे बड़ा एवं प्रिय त्यौहार है। और भारत की प्रसिद्ध कुमाऊनी होली उत्तराखंड की सांस्कृतिक पहचान है। वर्तमान में उत्तराखंड की कई सांस्कृतिक पहचान के स्रोत विलुप्ति के द्वार पर खड़े हैं। जबकि प्रसिद्ध कुमाउनी होली की रंगत में खोए लोगों को देखकर सुखद अनुभूति होती है। उत्तराखंड की कुमाउनी होली अपने नित नए जोश और प्रेम से हर साल नए आयामो को छूती हैं।

इन्हे भी देखें –

कुमाऊनी होली गीत लिरिक्स | Kumauni holi song lyrics

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