Friday, March 14, 2025
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उत्तराखंड को देवभूमि क्यों कहते हैं?

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उत्तराखंड को देवभूमि क्यों कहते हैं?

उत्तराखंड को देवभूमि क्यों कहते हैं? इस बात को इसमें निहित कई तथ्य हैं जो इस बात की पुष्टि करते हैं कि, हमारी देवभूमि में कई देवी देवताओं की लीला स्थली और क्रीड़ा स्थली रही है। अनेक ऋषियों, मुनियों, साधु, संतों की तपस्थली और जपस्थली से इन महान दिव्य आत्माओं की चरण रज से यह भूमि और भी पावन पवित्र होकर कण-कण भी इसका दिव्यमय होकर के इस भूमि को भी और इस भूमि के उन अनगिनत सूक्ष्म रजकणी का स्पर्श ही हमारा मन आनंद और रोमांच से रोमांचित हो जाता है, तभी तो यहां दृश्य और अदृश्य रूप से आज भी वे महान आत्माएं यहां पर जप, तप और योग, साधना के लिए इस देवभूमि को सहज मानते हैं ।

गंगोत्री, यमुनोत्री और केदारनाथ तथा बद्रीनाथ यहां ऐसे परम तीर्थ हैं, जहां श्रद्धालू प्रतिवर्ष यहां का महात्म समझकर और आस्था को लिए यहां आते और जाते रहते हैं, हेमकुंड साहब हो या फूलों की घाटी इनकी भी अलग ही महिमा किसी से छुपी नहीं  है, हरिद्वार गंगा नदी के किनारे बसी हुई है और इस तीर्थनगरी में अमृत की कुछ बूंदों के गिरने से इसका प्रभाव देखते हुए यहां छः साल बाद अर्धकुंभ और बारह साल बाद कुंभ का मेला लगता है।

और तो और यहां के पारंपरिक वाद्य यंत्रों में भी जैसे एक दिव्य सी ऊर्जा भरी होती है, जहां ढोल दमाऊं की थाप पर देवी देवता भी पशवा पर अवतरित हो जाते हैं, कई बार चावलों की हरियाली हाथों पर उगा देते हैं, तो कभी अपने भक्तों की समस्याओं का समाधान करने के लिए उपाय सुझाना आदि, और यदि हमें अपने इष्ट में पूर्ण श्रद्धा है तो हमारी समस्याएं तब स्वतः ही समाप्त हो जाती है, और कहीं न कहीं ये सारी बातें यह इंगित करती हैं, कि ईश्वर का अस्तित्व हर जगह है ही है, तो तब हम आस्तिकता की ओर बढ़कर सत्कर्मों में निरत होकर के एक सुखी जीवन का रहस्य जानकर उसको बड़ी ही सहजता के साथ प्राप्त कर सकते हैं।

उत्तराखंड को देवभूमि क्यों कहते हैं?

ढोल दमाऊँ की थाप प्रतिवर्ष हमारे उत्तराखंड में पांडव वार्ता और मां भवानी के साथ साथ अन्य देवी देवताओं का आह्वान किया जाता है और उनकी पूजा आदि करके उनको संतुष्ट कर प्रसन्न किया जाता है। भगवान गौरी शंकर का स्थाई निवास कैलाश मानसरोवर भी यहीं है, यहां शून्य से भी नीचे जिन हिमालई क्षेत्रों में तापमान रहता है, वहां बहुमूल्य और बेशकीमती तथा हमारे इस जीवन को भी नवजीवन देने वाली औषधियां और पादप भी पाए जाते हैं।

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भारतवर्ष की उत्तर की ओर विस्तृत यह हिमालई क्षेत्र एक सीमारेखा के जैसे दुश्मनों से भी हमारी रक्षा करता है। इंद्रप्रस्थ, हस्तिनापुर जो वर्तमान में देहली कहा जाता है, या हरियाणा का वह कुरुक्षेत्र का युद्ध, इसके अतिरिक्त पंडोवो ने हमारी इस देवभूमि उत्तराखंड में ही अधिकतर अपनी लीलाओं का संवरण किया, जैसे द्रोण नगरी वर्तमान में देहरादून में गुरु द्रोणाचार्य द्वारा शिक्षा प्राप्त करना और अपने अज्ञातवास के समय अपनी इस देवभूमि उत्तराखंड में ही व्यतीत करना और सबसे आखिर में अपने जीवन के अंतिम समय में स्वर्गारोहिणी के दौरान स्वर्ग की ओर प्रस्थान करना आदि  प्रमुख घटनाओं को अंजाम इसी देवभूमि में उनके द्वारा दिया गया। कौरव और पांडवों की गाथाओं का बखान जागर आदि के माध्यम से इसी देवभूमि उत्तराखंड में ही इसी कारणवश होता है।

लेखक के बारे में इस लेख को टिहरी गढ़वाल निवासी श्री प्रदीप बिजलवान बिलोचन जी ने लिखा है। श्री प्रदीप विलोचन जी शिक्षा विभाग में कार्यरत हैं। श्री प्रदीप जी के लेख व गढ़वाली कवितायेँ नियमित रूप  देवभूमि दर्शन पोर्टल में संकलित होते रहते हैं।

द केरला स्टोरी फिल्म का यह सवाल उत्तराखंड के प्रवासियों के लिए यक्ष प्रश्न है।

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द केरला स्टोरी

हाल ही में भारत के केरल राज्य में धर्मांतरण और आतंकवाद पर आधारित हिंदी फिल्म द केरला स्टोरी पुरे देश के सिनेमाघरों में रिलीज हुई है। हालाँकि कई जगह इसका विरोध हो रहा और अधिकतर लोग इसे पसंद कर रहे हैं और इसका समर्थन कर रहें हैं। और इसे सत्यघटना पर आधारित मान रहें है। फिल्म ‘The Kerala story ’ पर एक विशेष एजेंडा फिल्म होने के आरोप लग रहे हैं। इस फिल्म में दिखाया गया है कि केरल में लगभग 30000 लड़कियों का धर्मपरिवर्तन हुवा है।

फिल्म खराब है या सही है इसका निर्णय तो दर्शक लेंगे। मगर इस फिल्म एक सीन है या यूँ कहे कि एक डायलॉग है जो सबके के लिए प्रेरणादायक है। यह डायलॉग उत्तराखंड की वर्तमान हालात पर बिलकुल फिट बैठता है। फिल्म द केरला स्टोरी के एक सीन में पीड़ित लड़की आखिर में अपने पिता से शिकायत करती है कि, आपने हमे कभी अपने कल्चर के बारे में क्यों नहीं बताया?यह एक डायलॉग पूरी फिल्म का सारांश बता देता है, और यही सबसे प्रेरणाप्रद संवाद है। उत्तराखंड में वर्तमान में आधी से अधिक जनता पलायन करके शहरों में रह रही है। और अपने दैनिक जीवन में  पहाड़ की संस्कृति कम शहरों की जीवन शैली में अधिक जी रहे हैं।और पहाड़ में बाहरी लोग ज्यादा बस रहे हैं।

द केरला स्टोरी
फोटो -सोशल मीडिया

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उत्तराखंड की पहाड़ी संस्कृति का शहरों में कम ही प्रयोग हो रहा है। वर्तमान पीढ़ी तो जैसे तैसे अपना समय निकाल ले रही लेकिन , भविष्य की पीढ़ी अर्थात उत्तराखंड के बच्चे अपनी संस्कृति से धीरे -धीरे  दूर हो रहें है। आने वाले समय में शहरों की संस्कृति से ऊब जायेंगे या द केरला स्टोरी जैसा या कश्मीर फाइल जैसा संकट आता है और पहाड़ के बच्चों को पता चलता है कि उनके पास उत्तराखंड जैसा स्वर्ग जैसा राज्य और एक समृद्ध संस्कृति थी। तब वे भी ऐसे ही अपने माता पिता से पूछेंगे, हमे हमारे कल्चर के बारे में क्यों नहीं बताया?

उमी – गेहू की हरी बालियों का स्वादिष्ट पहाड़ी स्नेक्स

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उमी - गेहू की हरी बालियों का स्वादिष्ट पहाड़ी स्नेक्स

अप्रैल मई के माह में पहाड़ों में रवि की फसल तैयार होती है। रवि की फसल में मुख्य खाद्यान गेहू होता है। पहाड़ों में गेहू की फसल के काम के दौरान अधकच्चे गेहूं से एक विशेष स्नेक्स बनाते हैं, जिसे पहाड़ी भाषा उमी कहते हैं। पहाड़ो में गेहूं की फसल तैयार हो जाने पर फसल की कटाई के समय उसकी हरी बालियों को आग में भून कर और ठंडा करके भुने हुए दानों को उमी कहा जाता है। ये दाने चबाये जाने पर विशेष स्वादिष्ट लगते हैं। बाद में इसके खाजा या चबेने के रूप प्रयोग किया जाता है।

उमी - गेहू की हरी बालियों का स्वादिष्ट पहाड़ी स्नेक्स

इसके बारे में प्राचीन साहित्य में बताया गया है कि ,वसंतोत्सव के अवसर पर लोग ,गेहूं ,जौं आदि रवि फसल के खाद्यानो और चना मटर की बालियों और फलियों को भूनकर खाते थे। जिन्हे उमा ,उमी ,होलक या होला कहते थे। पहले नगरीय क्षेत्र के लोग गेहूं या अन्य खाद्यान को आग में भूनकर बनाये गए इस स्वादिष्ट व्यंजन का स्वाद लेने के लिए धूमधाम के साथ नगरों से गावों में जाया करते थे। पहाड़ों में गेहूं की  ऊमि (umi) चनों के “होले” बनाने की परम्परा अभी भी जीवित है। हिमालय के भोटान्तिक जनजातीय क्षेत्रों में छूमा और नपल  धान्यो को भूनकर उसमे गुड़ मिलकर लड्डू बनाये जाते हैं। और उन्हें यात्रा भोजन के रूप में ले जाया जाता है।

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मासी सोमनाथ का मेला उत्तराखंड का ऐतिहासिक मेला।

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मासी सोमनाथ का मेला उत्तराखंड का ऐतिहासिक मेला।
मासी सोमनाथ का मेला उत्तराखंड का ऐतिहासिक मेला।

मासी सोमनाथ का मेला उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के चखुटिया नामक कस्बे से लगभग 12 किलोमीटर दूर, मासी नामक गावं में रामगंगा नदी के पार सोमेश्वर महादेव के मंदिर के सामने वाले तट पर आयोजित होता है। यह उत्तराखंड का प्रसिद्ध मेला है। यह मेला उत्तराखंड के प्रमुख व्यवसायिक मेलों में गिना जाता है। पहले यहाँ काशीपुर के चैती मेले के सामान पशुओं का व्यापार होता था। लेकिन वर्तमान में जीवन शैली में बदलाव के बाद यहाँ अन्य व्यवसायिक चीजों का व्यापार होता है। इसकी शुरुवात बैसाख के अंतिम रविवार से होती है। यह मेला पहले 8 से 10 दिन का होता था। वर्तमान में यह मेला एक हफ्ते के आसपास का होता है।

मासी सोमनाथ का मेले का इतिहास –

प्राचीन काल में कन्नौज से दो परिवार उत्तराखंड के तल्ला गेवाड़  क्षेत्र में आकर बस गए। जिसमे से एक था कनोडिया परिवार और दूसरा था कुलाल परिवार। कनोडिया रामगंगा के दाहिने ओर और कुलाल बाएं ओर बस गए।  कुलाल और कनोडिया राजपूतों के साथ इस क्षेत्र में और लोग भी बस गए थे। लेकिन क्षेत्र में कनोडिया और कुलाल राजपूतों का दबदबा था। बताते है सोमनाथ मंदिर का निर्माण कनोडिया राजपूतों ने करवाया था। और प्रतिवर्ष बुद्धपूर्णिमा को मासी सोमनाथ मंदिर में मेला लगने लगा। शुरू में दोनों राजपूत जातियों में बड़ी मित्रता थी ,लेकिन बाद में किन्ही कारण वश इनमे दुश्मनी हो गई।

कुलाल राजपूतों और कनोडिया राजपूतों में संघर्ष बढ़ता गया। जिसके फलस्वरूप कनोडिया राजपूतों ने संगठित होकर कुलाल राजपूतों के मुखिया की हत्या कर दी और उन्हें क्षेत्र छोड़ने पर विवश कर दिया। इसी दौरान एक कन्नोजिया ब्राह्मण जिनका नाम रामदास था ,बद्रीनाथ की यात्रा से आते समय मासी में बस गए वही शादी करके गृहस्थी जमा ली। आज उनके वंशज मासीवाल कहलाते हैं। उस समय रामदास की कुलाल राजपूतों से मित्रता थी , कुलाल राजपूतों ने मासी का त्याग करते समय अपनी सारी संपत्ति रामदास को दे दी। और कुलाल राजपूत मासी छोड़कर सल्ट  बस गए। लेकिन मन से सोमनाथ मेले की टीस सदा बनी रही। अंग्रेजो के राज में कुलाल वंशियों और मासीवाल के लोगो ने अपने अपने क्षेत्र में थोकदारी प्राप्त कर ली।

एक वर्ष सोमनाथ मेले के अवसर पर कुलाल वंश के एक उत्साही युवक ने अपनी माँ से मेले में जाने की हट की।  लेकिन माँ ने पुराने इतिहास का हवाला देकर मना कर दिया। कहा अगर उन्हें तुम्हारे बारे में पता चल जायेगा तो मार देंगे। लेकिन पुत्र की अधिक हट पर उसे जाने दिया और बताया कि वहां हमारे सहयोगी मासीवाल रहते हैं तुम उनकी मदद लेना। उस नवयुवक का नाम था सोबन सिंह और उसकी उम्र थी मात्र 20 वर्ष। उसने वाद्य बजाकर मनोरंजन करने वाले और मासीवाल के लोगो की मदद से कनोडिया जाती के श्रेष्ठ पुरुष मालदेव कनोडिया को मौत के घाट उतार दिया। और सोबन सिंह सकुशल सल्ट आया। वापस लौट कर उसने मासीवाल के लोगो का धन्यवाद किया और वादा किया कि अगले साल से मेले के पहले दिन ढोल नगाड़ों के साथ मासी पहुंचेगा और मासीवालों का साथ देगा। अपने वादे के अनुसार वो अगले साल वो ढोल नगाड़ो और पताकाओं और मेलार्थियों के साथ पहले दिन सोमनाथ मेले में पहुंच गया। तबसे पहले दिन का मेला सल्टिया मेला कहा जाता है।

मासी सोमनाथ का मेला उत्तराखंड का ऐतिहासिक मेला।
फ़ोटो साभार – सोशल मीडिया

खास है सोमनाथ मेले के ओड़ा  भेट्ने की परम्परा –

सोमनाथ मेले में रामगंगा में पत्थर फेंक कर पानी उछाल कर ओड़ा भेट्ने की परम्परा है। इसमें दोनों धड़े कनोडिया और मासीवाल भाग लेते हैं। इस कार्यक्रम में रामगंगा में पत्थर फेंक कर ओड़ा भेट्ने की रस्म को पूरा किया जाता है। पहले एक साथ ओड़ा भेट्ने की रस्म होने के कारण ,खून खराबा होने का अंदेशा बना रहता था। अंग्रेजो ने इसके लिए यह व्यवस्था बनाई कि एक साल कनोडिया ओड़ा भेटेगा और दूसरे साल मासीवाल भेटँगे। तब से सोमनाथ मेले में यह परम्परा चली आ रही है।

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राज्य के प्रमुख व्यवसायिक मेलों में से एक है यह मेला –

मासी का सोमनाथ मेला अपने व्यवसायिक क्रिया क्लापों के लिए अधिक प्रसिद्ध है। पहले यहाँ चैती मेले की तरह पशुओं का व्यपार होता था। आजकल आधुनिक चीजों का व्यपार होता है। यहाँ डांग के जूतों का व्यवसाय काफी प्रसिद्ध था।

संदर्भ – नंदन सिंह बिष्ट जी किताब, ‘ गीलो गेवाड़” व प्रो DD शर्मा की पुस्तक उत्तराखंड ज्ञान कोष।

सोमेश्वर के प्रसिद्ध मालपुए, विलुप्त होते पारम्परिक स्वाद का आखिरी ठिकाना

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सोमेश्वर के प्रसिद्ध मालपुए, विलुप्त होते पारम्परिक स्वाद का आखिरी ठिकाना

उत्तराखंड के लजीज व्यंजनों की तरह, उत्तराखंड के मालपुए काफी पसंद किये जाते हैं। उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में यह व्यंजन काफी पसंद किया जाता है। विशेषकर अल्मोड़ा जिले की सोमेश्वर के प्रसिद्ध मालपुए काफी पसंद किये जाते हैं। मालपुए पहाड़ी क्षेत्रों की एक प्रसिद्ध मिठाई हुवा करती थी, जो आज लगभग विलुप्त हो गई है।

सोमेश्वर प्रसिद्ध के मालपुए

प्रसिद्ध हैं सोमेश्वर प्रसिद्ध के मालपुए –

उत्तराखंड के सोमेश्वर के मालपुए काफी प्रसिद्ध है। यदि आप कौसानी यात्रा पर हैं और अल्मोड़ा कौसानी रुट पर जा रहे हैं तो बीच में सोमेश्वर बाजार में सोमेश्वर के प्रसिद्ध मालपुओं का स्वाद लेना न भूलें। सोमेश्वर क्षेत्र के निवासी श्रीमान कृपाल सिंह नयाल जी लगभग कई वर्षों से सोमेश्वर में स्थित अपनी दुकान में मालपुए बनाते हैं। जो पूरे कुमाऊं में प्रसिद्ध है, जो भी यात्री सोमेश्वर आता है तो कृपाल सिंह नयाल जी के मालपुओं का विशेष स्वाद अपने साथ यादों के रूप में ले जाता है। उनका स्वाद इतना लाजवाब है कि हर कोई उनकी दुकान की ओर खींचा चला आता है।

सोमेश्वर प्रसिद्ध के मालपुए

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नयाल जी की दुकान सोमेश्वर के तल्ली बाजार हल्द्वानी केमू बस स्टेशन के समीप है। बताते है कि पहले यह व्यंजन पुरे कुमाऊं में बनाया जाता था। वर्तमान में केवल सोमेश्वर बाजार में नयाल जी बनाते हैं। कृपाल सिंह नयाल जी बताते है कि मालपुवा का काम उनका पुस्तैनी काम है। मालपुवा बनाने का काम उनका परिवार लगभग सौ साल से कर रहा है। उनके पिता भी इसी कार्य को करते थे। और उन्हें ख़ुशी है कि वे आज अपनी परिवार की विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। और वे चाहते है उनके बच्चे भी उनकी अनमोल विरासत को आगे बढ़ाये। आज की तारीख में जहां उत्तराखंड की यह पारम्परिक मिठाई विलुप्ति की कगार पर है ,वही कृपाल सिंह नयाल जी ने पहाड़ की इस पारम्परिक धरोहर को सहेज कर रखा है।

मन की बात का सौवा एपिसोड उत्तराखंड में यादगार और ऐतिहासिक रहा

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मन की बात का सौवा एपिसोड उत्तराखंड में यादगार और ऐतिहासिक रहा

उत्तराखंड के सभी जिलों में मोदीजी के मन की बात कार्यक्रम के 100 वें एपीसोड को को बड़े चाव के साथ सुना गया। भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं ने इस कार्यक्रम हेतु जमीनी स्तर से बहुत अच्छी मेहनत की थी जिसके फलस्वरूप लाखों की संख्या में लोगों ने उत्तराखंड में मन की बात कार्यक्रम को सुना। शिक्षा विभाग द्वारा पहली नोटिस जारी कर दिया गया था कि सभी विद्यार्थियों और शिक्षकों को इस कार्यक्रम का हिस्सा बनना है तथा भारतीय जनता पार्टी के बूथ स्तर के कार्यकर्ताओं ने कड़ी लगन और मेहनत के साथ इस कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए हर संभव प्रयास किया।

मन की बात

उसी का परिणाम है कि पूरे प्रदेश में कार्यक्रम का 100 वा एपिसोड ऐतिहासिक व यादगार रहा। भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं ने सोशल मीडिया के माध्यम से इसका खूब प्रचार भी किया और कार्यक्रम में आए हुए लोगों की फोटो फेसबुक इंस्टाग्राम में शेयर कर खुशी जाहिर की। मोदी जी ने अपने कार्यक्रम के सभी एपिसोड में अभी तक के सभी एपिसोड ओं के यादगार पलों को साझा करते हुए पिछले 8 सालों में उनके द्वारा देश हित में किए गए कार्यों का भी जिक्र किया साथ ही मोदी जी ने देश की जनता का आभार व्यक्त किया कि उन्होंने इस कार्यक्रम को सफल बनाने में मोदी जी का साथ दिया।

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विपक्ष के लोगों ने कार्यक्रम को लेकर तंज कस रहें हैं  कि ,यह कहा किया कार्यक्रम मोदी जी और भाजपा के लिए अपने मुंह मियां मिट्ठू होना जैसा है, कई लोगों ने सोशल मीडिया में इस कार्यक्रम का मजाक भी बना है।  लेकिन कार्यक्रम की सफलता प्रधानमंत्री मोदी जी के प्रति लोगों के विश्वास का प्रमाण है।

पहाड़ी कहावत “खसिया की रीस और भैस की तीस” में छुपी है पहड़ियों की ये कमजोरी।

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पहाड़ी कहावत

उत्तराखंड के पहाड़ो में एक कहावत कही जाती है,”खसिया की रीस और भैस की तीस ” लोकाचार में इसका अर्थ लिया जाता है , क्षत्रिय का गुस्सा और भैस की प्यास अप्रत्याशित होती है। क्षत्रिय के गुस्से और भैस की प्यास  अनुमान नहीं लगाया जा सकता है। मगर वास्तव में खसिया की रीस और भैस की तीस नामक पहाड़ी कहावत में खसिया का मतलब क्षत्रिय नहीं बल्कि वे सभी जातियाँ या वर्ण हैं जो उत्तराखंड के पहाड़ो में रहते हैं ,जो उत्तराखंड के मूल निवासी हैं। क्योंकि उत्तराखंड के पहाड़ी हिस्सों और नेपाल व हिमालयी भाग  में पहले खस जाती के लोग रहते थे। इसलिए आज के पहाड़ियों में से कई उनके वंशज हैं या आज भी पहाड़ी समाज  में खस प्रवृति जिन्दा है।

पहाड़ी कहावत

वायुपुराण में उत्तराखंड के पहाड़ी भाग को “खशमण्डल” भी कहा गया है। हिमालय के इस भाग में खसो की उपस्थिति का उल्लेख सातवीं शताब्दी से मिलता है। हिमालय की अन्य जनजातियों के सामान इनका अपना अलग व्यक्तित्व और अस्तित्व था। उत्तराखंड के मंडल मिश्रित नामों (कुमाऊं और गढ़वाल) के प्रचलन से पहले यह मध्य हिमालय का सम्पूर्ण क्षेत्र एक ही नाम से जाना जाता था। बताते हैं भारत में आर्यों के प्रवेश से पहले ,हिमालय की अनेक जातियों में से खस और किरात जाती प्रमुख थी। महाभारत काल से हजारवीं शताब्दी तक पुरे हिमालय में राज करती थी। खस जाती के लोग मध्य एशिया से हिमालयी क्षेत्रों में आकर बसे। उन्होंने इस क्षेत्र में कठोर परिश्रम  करके इस हिमालयी दुर्गम क्षेत्र को रहने लायक बनाया। जम्मू ,हिमाचल प्रदेश ,उत्तराखंड ,नेपाल आदि क्षेत्रों जहाँ भी खस जाती के लोग रहे या शाशन किया वहां की सभ्यता पर आज भी खसिया प्रभाव है।

इस जाती के लोग नेक और ईमानदार होते हैं। खस जाती के लोग मूलतः शांतिप्रिय होते हैं , अत्यधिक जरुरत पड़ने पर ही हिंसक होते हैं या क्रोधित होते हैं। इनका गुस्सा अप्रत्याशित होता है। अर्थात वैसे तो अमूमन शांत होते हैं लेकिन जब गुस्सा आता है तो ,अपना पराया नहीं देखते हैं। इसी वजह से इनके ऊपर एक पहाड़ी कहावत भी है ,खसिया की रीस और भैस की तीस। पहाड़ी भाषा में रीस का मतलब गुस्सा होता है। और तीस का मतलब प्यास होता है। इनके स्वभाव में छल कपट और चतुराई न होने के कारण चतुर लोगो में पाई जाने वाले लचीलेपन का आभाव रहता है। इसी तरह  की अनेक खूबिया आज के पहाड़ी समाज में भी पाई जाती है। जो कही न कही खसों के वंशज है या उनमे खसिया प्रभाव आज भी है। हालांकि हम में से कई पहाड़ी खुद को खसिया कहलाना पसंद नहीं करते हैं।

पहाड़ी कहावत
पहाड़ो के प्राचीन निवासी। फोटो साभार -सोशल मीडिया

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खसिया जाती या खसिया प्रवृति के लोगो की एक सबसे बुरी आदत यह होती है कि , ये लोग दूसरों के लिए जान देते हैं। लेकिन अपनों की उपेक्षा करते हैं। अपनों को आगे बढ़ता नहीं देख सकते हैं। ये दुसरो के लिए जान देने के लिए तैयार रहते हैं लेकिन अपने समाज के लोगों का साथ नहीं देते। इसका ज्वलंत उदाहरण, पहाड़ी हर चीज में अग्रणीय होते हुए आज अपनी जमीन तक नहीं बचा पा रहे हैं। बाहरी लोग उनकी जमीने कब्जाने में लगे हैं ,लेकिन इसका अहसास केवल उसी को है जिसकी जमीन जा रही है। दूसरा इस अहसास का अनुभव करने के लिए अपनी बारी का इंतजार कर रहा है। दूसरों के लिए जीना बहुत अच्छी बात है ,लेकिन इसके साथ -साथ अपने लिए भी जीना जरुरी है। तभी समाज की उन्नति संभव है।

पहाड़ की एक प्रेणादायक कहानी – दूध बेचकर बेटे को बना दिया डॉक्टर

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पहाड़ की एक प्रेणादायक कहानी - दूध बेचकर बेटे को बना दिया डॉक्टर
पहाड़ की एक प्रेणादायक कहानी - दूध बेचकर बेटे को बना दिया डॉक्टर

पहाड़ की एक प्रेणादायक कहानी
पहाड़ में दूध बेचकर बेटे को बना दिया डॉक्टर। जी हां ! आज उत्तराखंड के एक ऐसे माता-पिता की एक प्रेणादायक कहानी बताने जा रहे हैं,जिन्होंने पहाड़ में साधारण नौकरी और डेयरी में दूध बेचकर अपने होनहार पुत्र को डॉक्टर बनाया। अगर मन में सच्ची लगन हो और अंतिम स्तर तक बेइंतिहा मेहनत हो तो बड़े से बड़ा लक्ष्य हासिल किया जा सकता है। उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में ताड़ीखेत ब्लॉक के ग्राम -बगुना के निवासी कमल सिंह बिष्ट ने यह सिद्ध करके दिखाया है। उन्होंने सफलता पूर्वक राजकीय दून मेडिकल कालेज से पांच वर्षीय MBBS ( बैचलर ऑफ मेडिसिन ऐंड बैचलर ऑफ सर्जरीका कोर्स सफलता पूर्वक पास करके उत्तराखंड के पहाड़ी जिले में राजकीय चिकित्सक (state doctor) के रूप में नियुक्ति प्राप्त कर ली है।

कमल सिंह बिष्ट की यह उपलब्धि बहुत ही खास है ,क्योंकि वे एक सामान्य निम्न मध्यमवर्गीय परिवार से आते हैं। उनके माता-पिता पहाड़ में रहकर अपनी आजीविका चलाते हैं। अक्सर देखा जाता है कि MBBS जैसे कठिन और महंगे कोर्स में अच्छी आर्थिकी वाले परिवारों के बच्चे भाग लेते हैं। आर्थिकी की कमी से निम्नमध्यवर्गीय या गरीब परिवार के बच्चों का डॉक्टर बनने का सपना बस सपना रह जाता है।

श्री रमेश सिंह बिष्ट और श्रीमती हरिप्रिया बिष्ट उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के बगुना गावं के मूल निवासी हैं। श्री रमेश सिंह बिष्ट जिला मुख्यालय में एक साधारण सी गैर सरकारी नौकरी करते है। जबकि श्रीमती हरिप्रिया बिष्ट एक सफल गृहणी के रूप में गावं में रहकर खेती और पशुपालन से दूध बेचकर अपनी आजीविका चलाती हैं। बताते हैं कि एक बार बाल्यावस्था में कमल बिष्ट ने यू ही बोल दिया की ,वे बड़े होकर डॉक्टर बनेंगे। उनकी इस बात को उनके माता – पिता ने अपना सपना बना लिया। और इस सपने को पूरा करने के लिए सबसे पहले अपने जिगर के टुकड़े को अच्छे स्तर की शिक्षा के लिए बचपन से ही खुद से दूर कर दिया। उन्होंने उसे बाल्यावस्था में ही लखनऊ चाचा -चाची के पास भेज दिया।

एक माँ के लिए अपने जिगर के टुकड़े को बचपन में ही अपने से अलग करना बहुत ही मुश्किल होता है। लेकिन अपने और अपने पुत्र के सपने को साकार करने के लिए श्रीमती हरिप्रिया बिष्ट यह कड़वा घूंट पी गई। इस स्वप्न को सफल करने में श्री कमल बिष्ट के चाचा -चाचियों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा। उन्होंने श्रीमती हरिप्रिया बिष्ट जी के निर्णय को सार्थक करते हुए ,कमल के लालन पालन और शिक्षा में कोई कमी नहीं छोड़ी ,जिसके फलस्वरूप कमल एक मेधावी बच्चे के रूप में अपने लक्ष्य की तरफ अग्रसर होता गया। दसवीं और बारहवीं में टॉप थ्री टॉपर्स की सूची में पास होकर उन्होंने अपने माता -पिता की उम्मीदों पर पंख लगा दिए। बारहवीं तक आते आते कमल को भी अपने लक्ष्य और माता -पिता के सपने का अहसास हो गया था।

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उन्होंने डॉक्टरी की प्रवेश परीक्षा NEET (National Eligibility cum Entrance Test) के लिए जी तोड़ मेहनत शुरू कर दी। और अच्छी रैंक से यह परीक्षा पास करके राजकीय दून मेडिकल कालेज में प्रवेश प्राप्त कर लिया। यहाँ तक सब ठीक चल रहा था ,लेकिन अब कमल बिष्ट की MBBS की पढाई के लिए काफी पैसे की आवश्यकता थी। कमल बिष्ट के माता पिता ने हार नहीं मानी। श्रीमती हरिप्रिया बिष्ट ने अपनी मेहनत दुगुनी कर दी। दुगुना दूध का उत्पादन शुरू कर दिया और घर में ही कपडे सिलाई का काम शुरू कर दिया। इधर पुत्र के सपने को पूरा करने के लिए माता -पिता जी-तोड़ मेहनत कर रहे थे ,उधर पुत्र भी लगन से पढाई कर रहा था। पुरे परिवार के सामूहिक प्रयास की बदौलत अप्रैल 2023 में MBBS की पढाई के पांच वर्ष सफलता पूर्वक पूर्ण हुए और श्री कमल बिष्ट को उत्तराखंड सरकार की तरफ से सरकारी चिकित्सक के रूप में नियुक्ति प्राप्त हुई।

तो इस प्रकार एक साधारण परिवार ने अपनी  मेहनत और लगन के बल पर असाधारण लक्ष्य प्राप्त किया।

बिखौती मेले की रौनक में झूम उठी सोमेश्वर घाटी।

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बैशाखी को उत्तराखंड में बिखौती त्यौहार और अन्य कई के नाम से त्यौहार मनाते हैं। इस अवसर पर उत्तराखंड के विभिन्न स्थानों पर अलग अलग नामों से अलग अलग मेलों का आयोजन होता है। जिसमे बिस्सु मेला और द्वाराहाट का स्याल्दे बिखोती का मेला प्रसिद्ध है। इसी अवसर पर सोमेश्वर घाटी के लोद में आयोजित बिखौती मेले में इस बार जो भव्यता देखने को मिली उसे देखकर पूरे क्षेत्र के लोग गदगद है। मेले में इस बार कुमाऊनी परंपरागत नृत्य छोलिया, झोड़ा – चाचरी के साथ प्रसिद्ध कुमाऊनी गायकों की खूबसूरत गायकी का तड़का लगा।

15 अप्रैल को कई स्कूलों के बच्चों ने सांस्कृतिक कार्यक्रमों की प्रस्तुति दी प्रसिद्ध हास्य व्यंग्यकार आनंद बल्लभ भट्ट जी ने लोगों को अपनी बातों से गुदगुदाया। उभरती हुई लोक गायिका रुचि आर्या के गीतों में लोग झूम उठे पूरा मैदान खचाखच दर्शकों से भरा रहा और लोग थिरकने पर मजबूर हो गए।

बिखौती मेले

रात को स्टार नाइट कार्यक्रम में विनोद आर्य ने अपने साथी कलाकारों के साथ जो खूबसूरत प्रस्तुतियां दी, उसने मेले में समा बांध दिया। लोगों को पता ही नहीं लगा कि रात के 10 कब बजे। और लोग आज 16 अप्रेल को प्रसिद्ध लोकगायिका माया उपाध्याय के सुरीले गीतों में झूम रही सोमेश्वर घाटी। आयोजक मंडली का यह प्रयास बहुत ही सराहनीय है, क्षेत्र में हुए इस तरह के पहले बड़े कार्यक्रम को क्षेत्रवासी कभी भूल नहीं पाएंगे।कार्यक्रम की अध्यक्षता कुन्दन सिंह भण्डारी जी ने की तथा आयोजक मंडली के कोषाध्यक्ष शेखर पाटनी, मन्दिर के पुजारी शंकर दत पाटनी, मीडिया प्रभारी कैलाश सिंह,  शंकर मेहरा तारादत्त पाटनी, गोपाल सिंह हीरा सिंह पंकज जोशी वहादुर सिंह ललित मोहन  नरेंद्र पाटनी सहित लोद सांस्कृतिक मंच के सचिव, व्यवस्थापक, सहयोगी कार्यकर्ता, क्षेत्रीय जनप्रतिनिधि, सामाजिक कार्यकर्ता, मेलार्थी आदि मौजूद रहे।

बिखौती मेले

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इस बिखौती मेले को सोमेश्वर घाटी फेसबुक पेज पर लाइव भी चलाया जा रहा है, इस डिजिटली प्रसारण की जिम्मेदारी राजेंद्र सिंह नेगी ने निभाई। तथा इस मेले में शान्ति व्यवस्था बनाए रखने के लिए थानाध्यक्ष विजय नेगी सहित थाना पुलिस ने अपनी भूमिका निभाई।

चंफूली नृत्य – कुमाऊं मंडल के शौका जनजाति का परम्परागत लोकनृत्य

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चंफूली नृत्य - कुमाऊं मंडल के शौका जनजाति का परम्परागत लोकनृत्य
कुमाऊं मंडल के शौका जनजाति का परम्परागत लोकनृत्य चंफूली नृत्य

आदिकाल से हमारे देश में लोगों द्वारा अपनी खुशियों को नृत्य के नृत्य के रूप में प्रकट करने की परम्परा रही है। विशेषकर त्योहारों की खुशियाँ नृत्य के रूप में मनाई जाती हैं। भारत में कई समृद्ध संस्कृतियों का वास है। प्रत्येक संस्कृति/ वर्ग / समुदाय  के लोगो द्वारा एक विशेष नृत्य विकसित किया गया है , जो उनकी पारम्परिक संस्कृति का प्रदर्शन करता है। वर्गविशेष या समुदाय विशेष के आम लोगों द्वारा सांस्कृतिक प्रदर्शन को विकसित किये गए नृत्य को लोकनृत्य कहते हैं। भारत में प्रत्येक समुदाय के अपने -अपने विशेष लोक नृत्य हैं। इसी प्रकार उत्तराखंड के प्रत्येक समुदाय और मंडल के अलग -अलग लोकनृत्य विकसित हैं। उत्तराखंड के इन्ही लोकनृत्यों में से आज इस पोस्ट में हम कुमाऊं मंडल के शौका जनजाति का परम्परागत लोकनृत्य चंफूली नृत्य के बारे में जानकारी  संकलन करने की कोशिश कर रहे हैं।

चंफुलि नृत्य (chamfuli Dance) –

चंफूली नृत्य उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के पूर्वी शौका जनजाति का परम्परागत सामूहिक लोक नृत्य है। यह नृत्य लोकवाद्यों की संगत में गीत के धुनों के साथ, स्त्री व् पुरुषों के द्वारा एक गोल घेरे में किया जाता है। इसमें नर्तक मंडल अर्थात नृत्य करने वाले सदस्य एक दूसरे का हाथ थामे होते हैं। और चंफुलि नृत्य  के बीच-बीच में हाथों के बंधन से मुक्त होकर, दोनों हाथों से तालियां भी बजाते रहते हैं। अपनी खास लयगति के साथ किया जाने वाला उत्तराखंड का यह लोकनृत्य बड़ा ही आकर्षक और मनमोहक होता है। चंफूली लोक नृत्य आधुनिक परिवेश में विलुप्तप्राय हो रहा है।

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संदर्भ – चंफूली नृत्य के बारे में इस पोस्ट में प्रो dd शर्मा जी की किताब उत्तराखंड ज्ञानकोष का सहयोग लिया गया है।