Wednesday, September 27, 2023
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वीर चंद्र सिंह गढ़वाली पर निबंध | जीवन परिचय | Veer Chandra Singh Garhwali Par Nibandh

प्रस्तावना –

देवभूमी उत्तराखंड में वीर चंद्र सिंह गढ़वाली जैसे वीर सपूत ने जन्म लिया। जिनके अंदर देशप्रेम ,मानवता कूट कूट कर भरी हुई थी। इसी मानवता के कारण उनका नाम पेशावर कांड से जुड़ा। और देशभक्ति के जज्बे को देख गाँधी जी बोलते थे ,”मुझे एक और चंद्र सिंह मिल जाता तो देश कबका आजाद हो जाता।

वीर चंद्र सिंह गढ़वाली का प्रारंभिक जीवन :-

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उत्तराखंड के वीर सपूत वीर चंद्र सिंह गढ़वाली जी का जन्म 25 दिसम्बर 1891 को पौड़ी जिले के चौथान पट्टी के गावं रोनौसेरा में हुवा था। उनके पिता जाथली सिंह एक किसान और वैद्य थे। बचपन में उन्हें स्कूल जाने का मौका तो नहीं मिला लेकिन एक ईसाई अध्यापक से प्राथमिक शिक्षा प्राप्ति की। वीर चंद्र सिंह गढ़वाली का असली नाम  चंद्र सिंह भंडारी था। 15 वर्ष की आयु में उनका विवाह हो गया। एक वर्ष के अंतराल में उनकी पत्नी श्रीमती कलूली देवी चल बसी। फिर 16 वर्ष की आयु में उनका दूसरा विवाह हुवा। वर्ष भर में उनकी दूसरी पत्नी भी चल बसी। उसके बाद उनका तीसरा और चौथा विवाह भी हुवा।

वीर चंद्र सिंह गढ़वाली का सामजिक जीवन –

18 वर्ष की आयु में चंद्र सिंह गढ़वाल राइफल के 2 /39  बटालियन में भर्ती हो गए। अंग्रेज सैनिक के रूप में 1915 में मित्र राष्ट्रों की तरफ लड़ने के लिए फ़्रांस गए। वहां फ्राँसियों पर अंग्रेजो के अत्याचारों से उनकी अंग्रेज सरकार के लिए सहानुभूति कम हो गई। 1920 में प्रथम विश्व युद्ध के बाद अंग्रेजों ने यहाँ की कई पलटने तोड़ दी। अनेक गढ़वाली सैनिको  निकाल दिया। कई पदाधिकारियों को सैनिक बना दिया। अंग्रेजो के इस भेदभाव निति से चंद्र सिंह भी हवलदार से सैनिक बन गए। इस दौरान देश और विश्व के घटनाक्रम को उन्होंने नजदीक से देखा। इस दौरान गाँधी जी के संपर्क में आये उनके अंदर देशप्रेम की इच्छा बलवती हो गई। उत्तराखंड में गांधी जी के कई सभाओं में उन्होंने अपनी छुटियों के दौरान भाग लिया। चंद्र सिंह सत्यार्थ प्रकाश पढ़कर प्रभावित हुए। इसके बाद वे पक्के आर्यसमाजी बन गए। इस दौरान भारत में अंग्रेजों के खिलाफ घटित घटनाओं ने उन पर व्यापक असर किया। इन घटनाओं से उनके अंदर आजादी की ज्वाला बढ़ती ही चली गई।

पेशावर कांड –

1930 में नमक सत्याग्रह के दौरान 2 /8  गढ़वाल राइफल को पेशावर भेज दिया गया। वहां चंद्र सिंह और उसके साथी छिपकर समाचारपत्रों में छपी घटनाओं को पढ़ते थे। 22 अप्रैल को को पेशवार आ रहे कांग्रेस के एक प्रतिनिधि मंडल को रोके जाने के विरोध में ,पेशवर में जुलुस निकाला गया और आम सभा हुई। अंग्रेजों के खिलाफ लोगों में काफी रोष था। उनपर पत्थर फेंके गए ,फ़ौज की गाड़ी को आग लगा दी गई। 23 अप्रेल को आंदोलन कर रही जंग कमेटी के 11 नेता गिरफ्तार कर लिए गए। इसके विरोध में किसी ने अंग्रेज के ऊपर टायर डाल कर आग लगा दी। इस बीच किसी ने क़िस्साखनी बाजार में तिरंगा फहराकर हजारों पठान इकट्ठा हो गए थे। कप्तान रिकेट 72 गढ़वाली सैनिकों के साथ वहां पंहुचा। चंद्र सिंह गढ़वाली को नहीं लेकर गया। बाद में चंद्र सिंह पानी देने के बहाने वहां पहुच गए। वहां अंग्रेजी सेना और जन समूह आमने सामने था। रीकेट ने लोगो से कहा यहाँ से भाग जाओ नहीं तो गोली चलवा दूंगा। इसका लोगों पर कोई असर नहीं हुवा।  अंग्रेज अफसर बौखला गया उसने आदेश दिया ,” गढ़वाली तीन राउंड फायर !! उसके बाएं ओर खड़े चंद्र सिंह ने तुरंत कहा ,” गढ़वाली सीज फायर !!” इसके बाद भी अंग्रेज सैनिकों ने निहत्ते पठानों पर गोलियां चलायी। जिसमे 30 लोग मारे गए और 33 घायल हो गए।

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पठानों पर गोलिया न चलाने और अफसर की आज्ञा की अवहेलना करने के जुर्म में गढ़वाली।सैनिको पर मुकदमा चला बैरिस्टर मुकंदी लाल ने गढ़वाली सैनिको तरफ से पैरवी की। 12 जून 1930 को 43 जवानों और 17 पदाधिकारियों को एक से पंद्रह वर्ष तक की सजा सुनाई गई। चंद्र सिंह गढ़वाली को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई जो बाद में 11 वर्ष की हुई। अन्य सैनिक भी सजावधि से पहले छूट गए। सभी सैनिकों को फ़ौज से निकाल दिया गया। चंद्र सिंह को बटालियन के सामने अपमानित कर उसके वर्दी तमगे सब उतारे गए। पेशावर कांड के सैनिकों को म्रत्यु दंड न देने के पीछे अंग्रेजों की यह सोच थी की दुनिया को पता न चले कि भारतीय सेना उनके खिलाप हो गई है। पेशावर कांड के पीछे मुख्य कारन था। अंग्रेजों की फूट डालो राज करो की निती। गढ़वाली सैनिको को भी अंग्रेज हिन्दू मुस्लिम का पाठ पढ़ाकर पेशावर का विद्रोह दमन करने के लिए लाये थे।  किन्तु चंद्र सिंह और अन्य गढ़वाली सैनिक इनकी यह चाल समझ गए। उन्होंने निहत्ते पठानों पर गोली चलाने से इंकार कर दिया।

जेल से रिहा होने के बाद उन्होंने भारत छोडो आंदोलन में भी भाग लिया। गाँधी जी चन्द्रसिंह गढ़वाली से काफी प्रभावित थे। गाँधी जी कहते थे , ”मुझे एक और चंद्र सिंह मिल जाता तो भारत कब का आजाद हो जाता। ”

वीर चंद्र सिंह गढ़वाली का अंतिम समय बड़े आर्थिक संघर्षो में बीता। 01 अक्टूबर 1979 को भारत माँ का यह वीर सपूत अनंत यात्रा पर प्रस्थान कर गया।

चंद्र सिंह गढ़वाली से जुड़ा लोकप्रिय किस्सा :

1929 में चंद्रसिंह छुट्टियों में घर आए थे । गांधी जी के बागेश्वर आने की खबर पाकर वहां चले गए। सादे कपड़ों में सिर में फौजी टोपी पहने कर वे श्रोताओं की पहली पंक्ति में बैठ गए । गांधी जी ने मंच पर आते ही उनकी तरफ इशारा करते हुए बोले ,” क्या ये यहां मुझे डराने के लिए बैठें हैं ? ” सभी लोग हंस पड़े ! तब चंद्रसिंह बोले,”अगर कोई मुझे दूसरी टोपी दे दे तो मैं इसे उतार कर उसे पहनने के लिए तैयार हूं ” तब भीड़ में से किसी ने गांधी टोपी उछाल कर उनकी तरफ फेंक दी । तब उन्होंने गांधी जी की तरफ वह टोपी फेंकते हुवे बोला ,” मैं बूढ़े के हाथ से टोपी लूंगा “!

तब गांधी जी ने वही टोपी चंद्र सिंह को दे दी ….और चंद्रसिंह ने वह टोपी पहनते हुए प्रतिज्ञा ली ,”मैं इसकी कीमत चुकाऊंगा ! ”

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