Friday, March 14, 2025
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पहाड़ी युवक ऑनलाइन ट्रेडिंग करते – करते बन गया इस्लाम का कट्टर समर्थक !

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पहाड़ी युवक

उत्तराखंड से एक अजीब खबर मिल रही है। प्राप्त जानकारी के अनुसार उत्तराखंड की शीतकालीन राजधानी देहरादून में रहने वाले एक पहाड़ी युवक का अपने मूल धर्म से मोह भंग हो गया और वो बन गया इस्लाम का कट्टर समर्थक।

समाचार पत्रों तथा सूत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार उत्तराखंड देहरादून का एक आदमी ने पुलिस में शिकायक दर्ज कराई कि उनका बेटा वैभव विल्जवाण कई सालों से एक कमरे में रह रहा है। वह बहुत कम कमरे से बाहर निकलता है। केवल खाने के समय बाहर आता है, और उस समय वो इस्लाम की तारीफ करता है और अपने धर्म की आलोचना करता है। एक दिन उन्होंने (वैभव के पिता ने) जब वैभव से बात की तो वह स्वयं को मुस्लिम कहने लगा। उसने उर्दू बोलना सीख लिया है और कमरे में बैठकर पांचों वक्त की नमाज पढता है।

जब पोलिस ने जांच की तो पता चला ऑनलाइन क्रिप्टो की ट्रेडिंग करते-करते देहरादून का यह पहाड़ी युवक इस्लाम धर्म का कट्टर समर्थक बन गया। वह विगत तीन चार सालों से अपने घर से बाहर नहीं निकला, अपने कमरे से भी वो केवल खाने के लिए बाहर आता था।  खाने के दौरान वो इस्लाम के बारे में अच्छी बाते और अपने मूल धर्म की बुराई करने लगा था। पिता जी के मना करने पर मारपीट पर उतारू हो जाता था। अब उसके लिए इस्लाम ही सबकुछ हो गया है।

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प्राप्त जानकारी के अनुसार वैभव विल्जवाण ने लॉक डाउन ऑनलाइन क्रिप्टो ट्रेंडिंग शुरू कर दी थी। उसी समय से वह कुछ इस्लामिक ऑनलाइन ग्रुप से जुड़ गया। ऑनलाइन ही उसने उर्दू बोलना भी सीख लिया और कमरे में बैठ कर पांच वक्त की नमाज भी पड़ता है।युवक ने पॉलिटेक्निक की पढाई भी की है। उक्त युवक के कमरे से एक लैपटॉप मिला है। उत्तराखंड पोलिस उसके लैपटॉप और यूट्यूब चैनल्स की जाँच कर रही है।

पहाड़ी पिसी नूण, पहड़ियों का अपना यूनिक स्वाद !

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पहाड़ी पिसी नूण

पहाडों मे लोग मेहनतकश होते हैं। पहले सडकें बहुत कम थी, यातायात के साधन नही थे तो आदमी पैदल चला करते थे। मेहनत करने से नमक की कमी हो जाती होगी तो नमक ज्यादा खाया जाता था। फिर पहाडों मे प्रचुर मात्रा मे फल वगैरह होते थे तो उनके साथ नमक खाया जाता था। पहाड के लोगो ने तब कई प्रकार के मसाले वगैरह मिलाकर नमक को स्वादिष्ट बना दिया। आज भी पहाडों मे कई जगह पहाड़ी पिसी नूण के नाम से नमक बेचकर स्वरोजगार को बढावा दिया जा रहा है और पहाड के नमक  के स्वाद को देश विदेश भेजा जा रहा है।

पहाडो मे नमक की बात करूं तो सबसे पहले बारी आती है एक मसालेदार नमक की जो संयोगवश बन पडा होगा।  सिलबट्टे पर घर के मसाले, लहसन, राई, मेथी, भांग पुदीना, आदि, पीसा जाता है तो सिल बट्टे पर थोडा थोडा स्वाद सारी चीजों का रच जाता है. जब उस पर नमक के कणिक पीसे जाते थे तो बिना मसाला डाले मसालेदार नमक तैयार हो जाता था। इस नमक के स्वाद का जवाब नही।

अब आते हैं दूसरे नमक पर – ये हुवा लूण के कणिक, यानि पहले बिकने वाला डली वाला नमक। इसको हमने बचपन मे जब ईजा को समय न हो वो रोटी पकाकर चली गई और सब्जी न हो तो तब रोटी के साथ ऐसे ही टपुक जैसा कटकाकर खाया है। आज के लोगो को अटपटा लगे पर बचपन मे नमक के कुटक कुटुक करने मे मजा आता था। कभी कम तो कभी ज्यादा नमक जीभ मे अलग अलग स्वाद देता था।

पहाड़ी पिसी नूण

एक नमक ऐसे भी बनता था – कढाई मे तेल डालकर जीरा या धनिया डालकर दो चार नमक के कणिके डाल देते थे। अब तेल को अचारी तेल की तरह और नमक को कटकाकर रोटी बुका लेते थे। इसका भी अपना मजा था।

एक नमक बनता था जतकाव (प्रसव के बाद) महिलाओ के लिए या कई बार बीमार लोगो के लिए – जिसे पकाई लूण कहते थे। नमक को खूब पानी डालकर कढाई मे डालकर आँच पर चढा दिया जाता था। फिर पूरा पानी भिटकाकर (पकाते पकाते सुखाकर) नमक को बिलकुल सूख जाने पर रख लिया जाता था। शायद ये इसलिए भी करते होगे ताकि समुद्री नमक से गन्दगी निकल जाय।

अब बारी आती है पहाड के सर्वाधिक प्रचलित भांग के नमक की, भाग के नमक के बिना पहाड की कई चीजें अधूरी है।  खटाई या सना हुवा चूख (नीबू) की तो इसके बगैर कल्पना भी नही की जा सकती है।  भांग का नमक  घी के साथ रोटी तो प्रिय नाश्ता हुवा।  मडुवे की रोटी के साथ तो स्वाद का जवाब नही। भांग के बीजो को भूनकर नमक के साथ सिलबट्टे पर पीस लो भांग का नमक तैयार, भांग की तरह ही अलसी का नमक भी बनाया जाता है। ये बहुत गुणकारी माना जाता है। इसको रोटी आदि के साथ और खटाई के साथ प्रयोग करते हैं।

एक नमक बनता है जीरे का, कच्चे जीरे को नमक के साथ पीसकर बनाया जाता है। ये ककडी के साथ और काफल के साथ बढिया लगता है। काफल मे सरसों का कच्चा तेल डालकर जीरे का नमक मिलाकर खाओ मजा न आए तो पैसे वापस। लहसुन की कलियों का नमक नासपाती और बडे मेहल  के साथ जमता है। लहसुन की पत्तियों का नमक सने हुए नीबू आदि मे पडता है। हरी मिर्च, धनियां का नमक ककडी के साथ एकदम मस्त होता है। माल्टा वगैरह मे जीरे धनिया पत्ती मिर्च का नमक खाया जाता है। छांछ मे जीरा पुदीने का नमक डालकर बढिया लगता है।

इसके अलावा तिल भूनकर तिल का नमक, धुंगार का नमक, दुन (धुंगार) का नमक, भंगीर के बीजो का नमक (गदुवे के डावे) के साथ, मेथीदाना को भूनकर मेथी का नमक भी बनता है। ये बाय-बात के लिए फायदेमंद होता है। धनिये के हरे बीजो का नमक भी बनता है। ये जौले के साथ मजेदार होता है। जौले के साथ जीरे का नमक भी खाते हैं।

नमक मुख्य रूप से यही  बनते थे। इसके अलावा अपनी कल्पनाशक्ति से जीरा, धनिया (पत्ता, साबुत) लहसुन, पुदीना, आदि से मसालेदार नमक बन जाते थे। इसके अलावा एक पल्लूण भी प्रयोग होता था जिसे हिन्दी मे काला नमक कहते हैं।  इसको खाने से पदैन बास आती थी पर गैस वगैरह बनने पर हाजमा खराब होने पर इसका प्रयोग करते थे।

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पहाड़ी पिसी नूण
लेखक परिचय –
पहाडी पिसी लूण पर यह ज्ञानवर्धक लेख श्री विनोद पंत खंतोली जी के फेसबुक वाल से साभार लिया गया है। श्री विनोद पंत खंतोली कुमाउनी हास्य कवि के साथ -साथ बहुत अच्छे व्यंग लेखक भी हैं। हाल ही में इनकी कुमाउनी हास्य व्यंग की किताब फसकटैल प्रकाशित हुई है। यदि आप कुमाउनी भाषा में हास्य व्यंग पढ़ना चाहते हैं तो इस किताब को ऑनलाइन मंगा सकते हैं। इसे मंगाने का विवरण नीचे पोस्टर में दिया है।

प्रतिभा थपलियाल, उत्तराखंड की पहली महिला बॉडी बिल्डर भारत की तरफ से वर्ल्ड चैम्पयनशिप खेलेंगी।

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प्रतिभा थपलियाल

उत्तराखंड की पहली महिला बॉडी बिल्डर प्रतिभा थपलियाल का चयन नेपाल में होने वाले एशिया बड़ी बिल्डिंग चैम्पयनशिप और साउथ कोरिया में होने वाले वर्ल्ड बॉडी बिल्डिंग प्रतियोगिता के लिए हुवा है। उत्तराखंड की प्रतिभा थपलियाल का चयन छह से बारह सितम्बर नेपाल की राजधानी काठमांडू में होने वाली एशिया बॉडी बिल्डिंग चैम्पियनशिप तथा 30 अक्टूबर से 06 नवंबर तक होने वाली वर्ल्ड बॉडी बिल्डिंग चैम्पियनशिप साउथ कोरिया ,सिओल के लिए हुवा है।

प्रतिभा पुरे देश में एकलौती महिला हैं जिनका चयन इस प्रतियोगिता के लिए हुवा है। गोवा में बॉडी बिल्डर फेडरेशन की ओर आयोजित ट्रायल में लगभग 23 महिला बॉडी बिल्डरों ने अपनी प्रतिभा दिब्लड खाई। लेकिन उनमे से केवल उत्तराखंड की प्रतिभा थपलियाल का चयन हुवा।

प्रतिभा थपलियाल

कौन है प्रतिभा थपलियाल

उत्तराखंड की पहली महिला बॉडी बिल्डर के नाम से मशहूर प्रतिभा थपलियाल उत्तराखंड के पौड़ी जिले की यमकेश्वर ब्लॉक की निवासी है। प्रतिभा के पति भूपेश थपलियाल देहरादून में कपड़ों का व्यवसाय करते हैं। प्रतिभा के बॉडी बिल्डिंग क्षेत्र में जाने का कारण एक बीमारी रही। 2008 में जब प्रतिभा का दूसरा बेटा हुवा तो उसके बाद प्रतिभा थकान और कम प्रेशर का शिकार हो गई। लेकिन वो ऐसे ही काम करती रही और अपने पति का हाथ भी बटाते रही। 2014 में जब बर्दाश्त से बहार हो गया तो वो डॉक्टर के पास गई।  तब उन्हें पता चला कि उन्हें खतरनाक स्तर का थाइराइड है। दवाई से थाइराइड कंट्रोल हो गया लेकिन वजन काम करने के लिए उन्हें जिम ज्वाइन करना पड़ा।

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धीरे -धीरे उनके पति को लगने लगा कि प्रतिभा के शरीर में बॉडी बिल्डिंग की संभावनाएं है। तब उन्होंने बॉडी बिल्डिंग प्रतियोगिता को ध्यान में रख कर जिम ज्वाइन करके तैयारी शुरू कर दी। उन्हें इस कार्य के लिए पति का पूरा साथ मिला।  इसी  का नतीजा था कि कुछ महीनों की तैयारी के बाद 2022 में  सिक्किम में हुई बॉडी बिल्डिंग प्रतियोगिता में प्रतिभा को चौथा स्थान मिला। साल 2023 में रतलाम में हुई प्रतियोगिता में गोल्ड जीतकर सबकी नजरों में छा गई। एशिया चैम्पियनशिप और विश्व चैम्पियनशिप में अब उत्तराखंड को ही नहीं समस्त भारत को प्रतिभा से उम्मीदें हैं।

बिमाता / बिमाई – पहाड़ में नवजात शिशुओं की रक्षक माता !

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बिमाता

दुनिया में सभी मानव जातियों की तरह हिमालयी जनजीवन कई सामाजिक व् सांस्कृतिक मान्यताएं मानी जाती हैं। इसी प्रकार उत्तराखंड व् हिमालयी क्षेत्रों में भी अलग अलग मान्यताएं मानी जाती हैं। उनमे से एक मान्यता हिमालयी क्षेत्रों नवजात शिशुओं को लेकर मानी जाती है। पहाड़ों में जब नवजात शिशु (6 माह से छोटे) सुप्तावस्था अथवा जागृत अवस्था में बिना किसी कारण मुस्कराते हैं या रोते हैं , तो बड़े बुजुर्ग कहते हैं उन्हें बिमाता या बिमाई हँसा या रुला रही है।

पहाड़ी समाज में यह मान्यता रही है कि नवजात शिशुओं के साथ बिमाता नामक शक्ति रहती है ,जो बच्चों की नकारात्मक शक्तियों से रक्षा करती है। और शिशुओं  का मनोरंजन करती है उन्हें हसाती है या रुलाती है। कई लोग मानते हैं 6 माह तक शिशुओं को अपने पूर्व जन्म की याद रहती है ,इसलिए वे अपने पूर्व जन्म की यादों में मुस्कराते या रोते हैं। उनकी इस क्रिया को या इस क्रिया कराने वाली को बिमाता कहते हैं।

बिमाता / बिमाई

इस प्रकार के विधिमाता / बिमाई के सहचर्य की धारणा  हिमालयी क्षेत्र के अन्य समाजों में पायी जाती है। हिमांचल प्रदेश के कई क्षेत्रों में यह मान्यता मानी जाती है। वहाँ संतान के जन्म पर बिहिमाई / विधिमाता का पूजन किया जाता है। उत्तराखंड के दक्षिण -पूर्वी क्षेत्र के निवासियों थारू जाती के लोगो में नवजात शिशु की नकारात्मक शक्तियों से रक्षा के लिए प्रसूति गृह या जहाँ प्रसूता रहती है ,वहां बेमइया या विमाता का चित्रांकन किया जाता है।

उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में बिमाता का रेखांकन तो नहीं किया जाता है ,लेकिन यह मान्यता है कि जब तक शिशु सांसारिक व्यक्तियों या सांसारिक वस्तुओं के प्रति सचेत होता है , तब तक शिशु बिमाता के सम्पर्क में रहता है।

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नोट-

  • हिमालयी व् थारू संदर्भ के लिए उत्तराखंड लोकजीवन एवं लोक संस्कृति किताब का सहयोग लिया गया है।
  • उत्तराखंड की समृद्ध संस्कृति पर आधारित यह लेख अच्छा लगा हो तो सोशल मीडिया बटनों के माध्यम से शेयर करने की कृपा करें।

मुक्ति कोठरी – उत्तराखंड में दुनिया की सबसे डरावनी जगह का रहस्य!

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मुक्ति कोठरी - उत्तराखंड में दुनिया की सबसे डरावनी जगह का रहस्य!

उत्तराखंड को एक तरफ देवभूमि कहा जाता है। यहाँ एक से बढ़कर एक तीर्थ धाम हैं। उत्तराखंड के पहाड़ों में देवो और ऋषिमुनियों का वास है। वहीं इसकी मनमोहक सुंदरता और मन सुकून देने वाला शांत वातावरण हर किसी को यहाँ कुछ पल बिताने पर मजबूर कर देता है। लेकिन इसके अतिरिक्त इन शांत पहाड़ों का अपना डरावना इतिहास भी है। जिसके बारे में जानकार अच्छे सिहर जाते हैं। वैसे तो उत्तराखंड के शांत पहाड़ों में कई डरावने स्थान हैं लेकिन चम्पावत जिले में  लोहाघाट के एबट माउंट की मुक्ति कोठरी को उत्तराखंड का सबसे अधिक डरावना स्थान माना जाता है।

लोहाघाट से 8 किलोमीटर ,चम्पावत से 22 किमी तथा पिथौरागढ़ से 56 किलोमीटर दूर एबॉट माउंट नाम से प्रसिद्ध क़स्बा है। प्राकृतिक सुंदरता से भरपूर यह स्थान समुद्रतल से लगभग 6400 फ़ीट की ऊंचाई पर स्थित है। यहाँ से हिमालयी चोटियों के भव्य दर्शन होते हैं। यहाँ से पंचाचूली त्रिशूल ,कंचनजंगा  चोटियों  नयनाभिराम दर्शन स्पष्ट होते हैं। हिमालयी तलहटी पर सबसे सुन्दर जगहों में से एक माने जाने वाले इस स्थान को सन 1920 के आसपास एबॉट नामक ऑस्ट्रेलियन सज्जन ने खरीद लिया था। उनका पूरा नाम जान हैराल्ड एबॉट था। उन्ही के नाम पर इस स्थान का नाम एबॉट माउंट रखा गया। यह स्थान यूरोपीय शैली में बसा हुवा है।

यहाँ लगभग 16 के आसपास हवेलियाँ हैं और एक पुराना चर्च तथा एक कब्रिस्तान भी है। इसके अलावा यहाँ मुक्ति कोठरी नामक एक बांग्ला भी हैं। जिसके बारे में कहा जाता है कि यह बांग्ला दुनिया का सबसे भयानक भूतिया बांग्ला है। इस बंगले के बारे के टेलीविजन में भी कई प्रोग्राम आ चुके हैं। शोधकर्ताओं को भी इस स्थान के आस -पास नकारात्मक शक्तियों का अहसास हुवा है।

मुक्ति कोठरी

हम जिसे आज मुक्ति कोठरी के नाम से जानते हैं,इस स्थान पर अंग्रेजों के समय एक ख़ूबसूरत बंगला हुआ करता था। जिसमे एक अंग्रेज परिवार रहता था। इस बंगले का नाम अभय बांग्ला या एबी बांग्ला था। इस बंगले का नाम इस बंगले के मालिक के नाम पर पड़ा था। इस बंगले का निर्माण 1900 के आस पास बताया गया है। कुछ समय बाद उस परिवार ने इस बंगले को अस्पताल बनाने के लिए दान में दे दिया था। इस अस्पताल में दूर दराज से लोग अपना इलाज कराने के लिए आते थे। अस्पताल बनने के लगभग एक साल बाद एक अजीब स्वभाव का डॉक्टर इस अस्पताल में आया।  उसका नाम डॉक्टर मोरिस था।

यह डॉक्टर लोगों को जीवनदान देना छोड़कर उनकी मृत्यु  तारीख की भविष्यवाणी करता था। और मरीज की मृत्यु की तारीख नजदीक आने पर उस मरीज को एक खास वार्ड में शिफ्ट कर देता था ,जिसका नाम मुक्ति कोठरी रखा था। कहते हैं कि डॉक्टर सनकी था ,अपनी सनक पूरी करने के लिए वो उन मरीजों मृत्यु की नींद में सुला देता था। कई लोग मानते हैं कि वह डॉक्टर एक शोधार्थी था। और असाध्य रूप से पीड़ित मरीज को वह मुक्ति कोठरी नामक वार्ड में शिफ्ट कर देता था। वहां उन पर जीवन मृत्यु से जुड़े प्रयोग करता था। उसके इन्ही प्रयोगों के बीच वे मरीज मृत्यु को प्राप्त हो जाते थे। डॉक्टर मोरिस की भविष्यवाणियां सच होने के कारण वे जनता के बीच काफी लोकप्रिय हो गए थे।

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कहते हैं डॉक्टर मोरिस द्वारा मुक्ति कोठरी में मृत्यु को प्राप्त सैकड़ों मरीजों की आत्मा आज भी एबी बंगले में तथा उसके आस पास भटकती है। उत्तराखंड का यह स्थान दुनिया के सबसे डरावने स्थानों में गिना जाता है। प्रकृति का सबसे सुरम्य स्थान दुनिया के सबसे डरावने स्थलों में एक हो सकता है ,इसकी कल्पना करना  बेहद कठिन है। कई घुमक्क्ड़ों और कई स्थानीय लोग मानते हैं कि मुक्ति कोठरी की डरवानी कहानी कोरी गप्प है। यहाँ भूतिया या डरावना जैसी कोई चीज नहीं है। बल्कि हिमालय की अद्भुत छटा का नयनाभिराम दर्शन कराती यह जगह दुनिया के सबसे सुन्दर जगहों में से एक है।

कुमाऊं के कलुवा देवता और गढ़वाल के कलुवा वीर की रोचक कहानी !

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कुमाऊं के कलुवा देवता और गढ़वाल के कलुवा वीर की रोचक कहानी !

कुमाऊं में लोक देवता ग्वेल देवता के साथ अवतरित होने वाले लोक देवता कलुवा को कुमाऊं में ग्वेल देवता का प्रमुख सहयोगी और भाई माना जाता है। कुमाऊं में लोक देवता ग्वेल देवता के साथ अवतरित होने वाले लोक देवता कलुवा को कुमाऊं में ग्वेल देवता का प्रमुख सहयोगी और भाई माना जाता है। इतिहासकार और उत्तराखंड के शोधकर्ता यह मानते हैं कि कलुवा एक नागपंथी सिद्ध थे। अपनी सिद्धियों के कारण उसने नाथपंथ में अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया था। कलुवा वीर के सम्बन्ध में कुमाऊं और गढ़वाल में अलग अलग संकल्पनाएँ पायी जाती हैं।

कुमाऊं में प्रचलित कहानियों के अनुसार कलुवा  गोरिया देवता की माता कालीनारा के पुत्र और गोरिया के भाई माने जाते हैं। कहते हैं जब ग्वेल देवता का जन्म हुवा तो कलिनारा की सौतों ने ग्वेल देवता को वहां से हटाकर उनकी जगह खून से सना सिलबट्टा रख दिया और कलिनारा से कहा कि  तेरी कोख से यह सिलबट्टा पैदा हुवा है। कहते हैं कि उस खून से सने सिलबट्टे को देख कर कन्नारा बहुत दुखी हुई। उसने अपने इष्ट देवताओं से प्रार्थना की कि यदि आप मेरे सच्चे ईष्ट देव होंगे तो इस पत्थर में जान फूंक दो।

कहते हैं कन्नारा की प्रार्थना पर देवों  ने अपनी शक्ति उस पत्थर में जान फूंक दी। तबसे वे ग्वेल देवता के प्रमुख सहयोगी व् भाई कलुवा देवता के रूप में प्रसिद्द हुए। कुमाऊं के पालीपछाऊं क्षेत्र में इसकी जागर अधिक लगाई जाती है तथा यह अधिकतर अनुसूचित जाती वाले लोगो के शरीर में अवतार लेता है।

कुमाऊं की कतिपय जागर गाथाओं में बताया जाता है कि इनका जन्म कैलाघाट में हुवा था। इसे मारने के लिए इसके गले में घनेरी, हाथों में हथकड़ी से बांध कर एक गड्डे में डाल दिया था। बाद में ऊपर से भारी भरकम चट्टानों से दबा दिया। किन्तु कलुवा वीर सब तोड़ कर बहार आ गया। इनको इनके काळा होने की वजह से कलुवा कहते होंगे। कहते हैं इनके साथ बारह बायल और चार वीर चलते हैं। जिनके प्रचलित नाम हैं, रगुतुवावीर, सोबूवावीर, लोड़ियावीर और चौथियावीर।

काला कलुवा तेरी काली जात, तोई चलाऊं रे कलुवा
छंचर का दीन, मंगल की रात। काला कुलवा उसरालि
पाटली, नौ सौ घुंगरू, नौ सौ ताल। बाजे घुंगरू बाजे
ताल। कलुवा नाचे चोर चोर। बाटे नाचे, घाटे नाचे।
वीर नाचे, सिंगा नाचे। महादेव पार्वती के आगे नाचे।
बोल मर दुलन्तो आयो, आला कासट सुकन्तो आयो।
सुका कासट  मोलतो लायो। इस दस दिशा
तोड़न्तो आयो। बीस दिशा मोड़न्तो आयो। दस भेड़ा
की बली झुकन्तो आयो, षाजा, बुषण
दुकन्तो आयो।

कुमाऊं के कलुवा देवता और गढ़वाल के कलुवा वीर की रोचक कहानी !
कलुवा देवता थान ग्राम -उजगल अल्मोड़ा

कलुवा के बारे में नागपंथ के इन रखवाली मन्त्रों से सिद्ध होता है कि यह नागपंथी सिद्ध था। और नागपंथ से शिक्षा ग्रहण करके इसने अपना अलग पंथ चलाया जिसके अनुयायियों के नाम के आगे कलुवा शब्द जोड़ा गया।  जैसे – उर्स कलुवा ,धर्म कलुवा , मेण कलुवा, नीच कलुवा ,हँकारी कलुवा आदि। किन्तु यह परम्परा आगे नहीं चल पायी।

गढ़वाल में इन्हे कलुवा वीर के नाम से पूजा जाता है। वहां इनकी गिनती सिद्ध नाथपंथी वीरों में होती है। और इन्हे यहाँ लोकदेवता के रूप में नचाया जाता है। यहाँ इन्हे एक प्रचंड देवशक्ति के रूप में पूजा जाता है। यदि इनके मंदिर में कोई घात डालता है तो सामने वाले को उसी समय  टाइम दण्डित करने में देर नहीं करते हैं।

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कामरूप जाप में इसकी वेषभूषा के विषय में कहा गया है, एसा पूत कलुवा आया। हात पर अमरू का कोलंगा (सोटा)। लुवा की फावड़ी, बथथरी जामो, नादि अर सैली, सिंगी, झोली, मेखला, बोड़ण (ओढ़ना) कछोटी पैरने का आकार हैं। ‘इसी पांडुलिपि में इसके सम्बन्ध में यह भी कहा गया है, प्रथमे जउ की धूनी,जउ की धूनी उप्र कुछ ग्रास, ग्रास ऊपरि घास धरास,उपरि शिव शंकर, शिव संकरी उपरी अरू को पूतझाडू,झाडू का पूत कलुवावीर।’

साभार – उत्तराखंड ज्ञानकोष

कुमाऊं रेजिमेंट जिसने बचाया था कश्मीर ! जानिए गौरवशाली इतिहास।

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कुमाऊं रेजिमेंट जिसने बचाया था कश्मीर ! जानिए गौरवशाली इतिहास।

उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों के लोग वीर साहसी होते हैं। इतिहास गवाह है उत्तराखंड के कुमाउनी और गढ़वाली क्षेत्रों के वीरों ने समय -समय पर अपनी वीरता और साहस का प्रदर्शन किया है। ऐसी वीरता और साहस को देख कर अंग्रेजों ने गढ़वाल राइफल और कुमाऊं रेजिमेंट की स्थापना की।

आजादी के बाद से ही कश्मीर की समस्या भारत के लिए बड़ी समस्या बना है। बटवारे के बाद से ही पाकिस्तान कश्मीर को हड़पने के लिए सारे अनैतिक रास्ते अपनाता रहा है। सन 1947 में पाकिस्तान ने कश्मीर को हड़पने के लिए कबाइली युद्ध छेड़ दिया था। भारत की तरफ से पाकिस्तान की इस अनैतिक हरकत का जवाब देने की जिम्मेदारी कुमाऊं रेजिमेंट की चौथी बटालियन की डेल्टा कंपनी को मिला था।

इस कंपनी का नेतृत्व कर रहे थे मेजर सोमनाथ शर्मा। मेजर सोमनाथ शर्मा के नेतृत्व में कुमाऊं नेतृत्व के जाबांज सैनिको ने कबाइलियों के वेश में आई पाकिस्तानी सेना के हमले से श्रीनगर को बचाया था। आज कश्मीर का जो हिस्सा भारत के नियंत्रण में है वो कुमाऊं रेजिमेंट के पराक्रम के फलस्वरूप है। इस कबाइली युद्ध में असाधारण वीरता के लिए मेजर सोमनाथ शर्मा को स्वतंत्र भारत का पहला परमवीर चक्र मिला था।

यह एकमात्र रेजिमेंट है जिसे दो – दो परमवीर चक्र मिले हुए हैं। दूसरा परमवीर चक्र मेजर शैतान सिंह को ( मरणोपरांत ) 1962 के भारत -पाकिस्तान युद्ध में असाधारण वीरता के लिए मिला था। मेजर शैतान सिंह इस रेजिमेंट की तेरहवी बटालियन चार्ली कंपनी के थे।

कुमाऊं रेजिमेंट
कुमाऊं रेजिमेंट

कुमाऊं रेजिमेंट की स्थापना –

कुमाऊं रेजिमेंट की स्थापना सन 1778 में हैदराबाद में निजाम के एक जागीरदार सलावत खान ने की थी। 1794 में इसे रेमंट कोर और उसके बाद निजाम कान्टिजेंट नाम दिया गया। सन 1813 में जब अंग्रेज अधिकारी हेनरी रसल हैदराबाद पहुंचे तो उन्होंने इन सैन्य टुकड़ियों को बटालियन के रूप में एक संगठन में बांधा। इसीलिए सर हेनरी रसल को कुमाऊं रेजिमेंट का मुख्य संस्थापक माना जाता है। 1945 में इसे द कुमाऊं रेजिमेंट के नाम से स्थापित किया गया।  पहले इस बटालियन में मुस्लिम,राजपूत ,जाट और अन्य प्रांतो के सैनिक भी थे। लेकिन बाद में जब यह बाटलियन हैदराबाद से आगरा की तरफ आई तो इसमें कुमाउनी सैनिक अधिक थे।

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बाद में इसमें अन्य बटालियनें जुड़ती गई तो उनमे अधिकता कुमाउनी लोगो की ही रही। भारत की स्थापना से पहले ही कुमाऊं रेजिमेंट का इतिहास गौरवशाली रहा है। इस रेजिमेंट ने 1803 के मराठा युद्ध, 1877 का भीलों के विरुद्ध युद्ध, 1841 का अरब युद्ध ,रोहिल्ला युद्ध और प्रथम स्वतंत्रता संग्राम झाँसी ( 1857 ) में अपनी अदम्य वीरता के साथ महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

काठगोदाम का इतिहास, कैसे पड़ा काठगोदाम का नाम?

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काठगोदाम का इतिहास, कैसे पड़ा काठगोदाम का नाम?
काठगोदाम का इतिहास

काठगोदाम का इतिहास –

भारत के पूर्वोत्तर रेलवे के अंतिम विरामस्थल के रूप में जाने जाने वाला कुमाऊं के प्रवेशद्वार के नाम से प्रसिद्ध यह क़स्बा नैनीताल जिले में गौला नदी के तट पर स्थित है। सन 1975 में अंग्रेजों के कुमाऊं अधिग्रहण से पहले यह एक छोटा सा गावं था, जिसका नाम बाड़खोड़ी या बाडाखोड़ी था। या यूँ कह सकते हैं कि काठगोदाम का पुराना नाम बाड़खोड़ी या बाडाखोड़ी था।

यह क्षेत्र चंद शाशनकाल में रुहेले आक्रमणकारियों और लुटेरों को रोकने की प्रमुख घाटी थी। राजा कल्यानचंद जी के राज में उनके सेनापति शिवदेव जोशी ने 1743 -44 में रुहेलों की फौज को यहीं परास्त किया था। बाद में अंग्रेजों के शाशन में लकड़ी के ठेकेदारों ने पहाड़ की इमरती लकड़ी को गौला नदी के माध्यम से ला कर यहाँ इकट्ठा करना शुरू किया, तब इसका नाम काठगोदाम पड़ा। काठगोदाम का अर्थ होता है लकड़ी का गोदाम।

19वी सदी के पूर्व तक इस क्षेत्र की गणना यहाँ के कस्बों में भी नहीं होती थी। 1843-44 में जब प्रथम बार ट्रेन लखनऊ से हल्द्वानी पहुंची तो इसके कुछ समय बाद उत्तर प्रदेश की छोटी लाइन की गुवहाटी -काठगोदाम तिरहुत मेल को काठगोदाम तक बढ़ा दिया गया। आरम्भ में यहाँ अधिकतर मालगाड़ियां ही चलती थी। बाद में यहाँ यात्रियों की संख्या बढ़ने से यात्री गाड़ियां भी चलने लगी। आज यहाँ देश के लगभग सभी स्थानों को ट्रैन जाती है। यात्रियों की संख्या की बात करें तो कुमाउँनी लोगों के अलावा भारी मात्रा में पर्यटकों का आवागमन यहीं से होता है।

काठगोदाम का इतिहास, कैसे पड़ा काठगोदाम का नाम?
काठगोदाम का इतिहास

काठगोदाम रेलवे स्टेशन सबसे स्वच्छ रेलवे स्टशनों में गिना जाता है। स्वच्छता के लिए काठगोदाम रेलवे स्टेशन को सम्मानित भी किया जा चूका है।

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काठगोदाम में घूमने लायक स्थान-

काठगोदाम में घूमने लायक स्थानों में कालीचौड़ मंदिर और शीतला देवी मंदिर है। इसके अलवा गौला नदी, भीमताल, नैनीताल, रानीबाग आदि प्रसिद्ध हैं। यह स्थान कुमाऊं मंडल के द्वार के रूप में प्रसिद्ध है, तो यहाँ से आगे को घूमने के कई विकल्प खुल जाते हैं।

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गंगा दशहरा द्वार पत्र के मंत्र (Ganga dashahara dwar ptra)

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गंगा दशहरा द्वार पत्र के मंत्र

पौराणिक मान्यताओं के आधार पर बताया जाता है कि जेष्ठ शुक्ल दशमी को माँ गंगा का अवतरण धरती पर हुवा था। इस अवसर पर सनातन धर्म को मानने वाले गंगा दशहरा पर्व मनाते हैं। गंगा दशहरा के अवसर पर उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के निवासी विशेष मन्त्रों से अभिमंत्रित गंगा  दशहरा द्वारा पत्र अपने द्वारों पर चिपकाते हैं। इस पत्र के बारे में कहा जाता है ,कि इसमें लिखे मन्त्रों के प्रभाव से नकारात्मक शक्तियां घर से दूर रहती हैं।

कैसे शुरू हुई परम्परा –

दशहरा द्वार पत्र के बारे में कहा जाता है कि , जब धरती पर माँ गंगा  अवतरण हो रहा था ,तब सप्तऋषि कुमाऊं क्षेत्र में तपस्या कर रहे थे। माँ गंगा के धरती आगमन पर उन्होंने अपनी कुटियों में जल छिड़क कर ,अपने आश्रम द्वारों पर विशेष अभिमंत्रित द्वार पत्र लगाए। तब से कुमाऊं मंडल में यह परम्परा चली आ रही है। इसके बारे में यह उल्लेख्य है कि यह उत्सव पर्वतीय पारम्परिक त्योहारों में नहीं आता है। यह उत्तराखंड आकर बसने वाले पुरोहितों की देन है।

गंगा दशहरा द्वार पत्र के मंत्र –

विभिन्न देवी देवताओं के चित्रों से बना इस पत्र में  एक विशेष मन्त्र लिखा रहता है। जिसके बारे में कहते हैं कि इससे अभी व्याधियों से रक्षा होती है। गंगा दशहरा द्वार पत्र का वो मन्त्र इस प्रकार है –

दशहरा द्वार पत्र

अगस्त्यश्च पुलस्त्यश्च वैशम्पायन एव च।
र्जैमिनिश्च सुमन्तुश्च पञ्चैते वज्रवारका:।।
मुनेःकल्याणमित्रस्य जैमिनेश्चाऽनुकीर्तनात्।
विद्युदग्नि भयं नास्ति लिखितं गृहमण्डले।।
यत्रानुपायी भगवान् दद्यात्ते हरिरीश्वरः।
भङ्गो भवति वज्रस्य तत्र शूलस्य का कथा।।

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इस पत्र को कुलपुरोहित अपने यजमानो को सौपते हैं और बदले में दक्षिणा प्राप्त करते हैं।

शकुनाखर – कुमाऊं मंडल के संस्कार गीतों की अन्यतम विधा

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शकुनाखर - कुमाऊं मंडल के संस्कार गीतों की अन्यतम विधा

शकुनाखर कुमाऊं मण्डल के संस्कार गीतों की एक विशेष विधा है। शकुन का अर्थ होता है, शगुन सूचक और आखर शब्द का अर्थ होता है, अक्षर अर्थात शगुन सूचक अक्षर। धार्मिक कार्यों अथवा मांगलिक कार्यों के शुरू में गाए मंगल गीत, जिनका उद्देश्य विवाह, यज्ञोपवीत व नामकरण आदि मंगलकार्यों के आरम्भ से अंत तक निर्विघ्नपूर्वक संपन्न किये जाने की कामना से अपना आशीर्वाद देने के लिए देवी देवताओं को आमंत्रित करना और सम्बंधित परिवारजनों की दीर्घायु व सुखशांति की कामना करने वाले गीतों को शकुनाखर कहा जाता है। गढ़वाल मंडल में इन्हे मांगल गीत कहते हैं।

शकुनाखर गीत लिरिक्स –

प्रस्तुत लेख में शकुनाखर का अर्थ के साथ कुमाउनी सामाजिक जीवन में प्रयुक्त कुछ शकुनाखर गीतों के बोल संकलित कर रहें हैं।

मंगलाचरण

शकूना दे शकूना दे सव सिद्ध, काज ये अति नीको शूकना बोल्या ।
दाईना बजन छन, शॅख शब्द, दैणी तीर भरियो कलेश ।
अति नीको सो रंगोलो, पटलोआँचली कमलै को फूल ।
सोही फूलू मौलावन्त, गणेश रामीचन्द्र लछीमन लवकुश,
जीवा जनम आध्या अम्बरू होय ।
सोही पाट पैरी रहना, सिद्धि बुद्धि सीतादेही बहुराणी ।
आयुवन्ती पुत्रवन्ती होय सोही फूलू मोलावन्त
(परिवार को पुरुषों के नाम )
जीवा जनम आध्या अम्बरू होय ।
सोही पाट पैरी रहा, सिद्धि बुद्धि
(परिवार की महिलाओं के नाम सुन्दरी, मंजरी आदि)
आयुवन्ती पुत्रवन्ती होय ।।

गणेश पूजा के शकुनाखर –

जय जय गणपति, जय जय ए ब्रह्म सिद्धि विनायक।
एक दंत शुभकरण, गंवरा के नंदन, मूसा के वाहन।
सिंदुरी सोहे, अगनि बिना होम नहीं, ब्रह्म बिना वेद नहीं,
पुत्र धन्य काजु करें, राजु रचें।
मोत्यूं मणिका हिर-चौका पुरीयलै,
तसु चौखा बैइठाला रामीचन्द्र लछीमन विप्र ऐ।
जौ लाड़ी सीतादेही, बहुराणी, काजुकरे, राजु रचै॥
फुलनी है, फालनी है जाइ सिवान्ति ऐ।
फूल ब्यूणी ल्यालो बालो आपू रुपी बान ऐ॥

शकुनाखर - कुमाऊं मंडल के संस्कार गीतों की अन्यतम विधा

निमंत्रण/ सुवाल पथाई के शकुन आखर लिरिक्स –

सूवा रे सूवा, बनखंडी सूवा,
रे जा सूवा घर-घर न्यूत दी आ।
हरियाँ तेरो गात, पिंगल तेरो ठून,
रत्नन्यारी तेरी आँखी, नजर तेरी बांकी,
जा सूवा घर-घर न्यूत दी आ ,गौं-गौं न्यूत दी आ।
नौं न पछ्याणन्यू, मौ नि पछ्याणन्यूं, कै घर कै नारि
दियोल?
राम चंद्र नौं छु, अवध पुर गौ छु, वी घर की नारी कैं न्यूत
दी आ ।
सूवा रे सूवा, बनखंडी सूवा,
जा सूवा घर घर न्यूत दी आ
गोकुल गौं छू, कृष्ण चंद्र नौं छु, वी घर की नारी कैं न्यूत
दी आ।
सूवा रे सूवा, बनखंडी सूवा, जा सूवा घर-घर न्यूत दी
आ।
कैलाश गौ छू, शंकर उनर नु छू, वी घवी नारी न्यूत दी
आ।

सूवा रे सूवा, बनखंडी सूवा,
जा सूवा घर-घर न्यूत दी आ
अघिल आधिबाड़ी, पछिल फुलवाड़ी, वी घर की नारी
कैं न्यूत दी आ।
हस्तिनापुर गौं छ, सुभद्रा देवी नौं छ, वी का पुरुष को
अरजुन नौं छ,
वी घर, वी नारि न्यूंत दी आ।
सूवा रे सूवा, बणखंडी सूवा,
जा सूवा घर-घर न्यूत दी आ

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मंगल स्नान के शकुनाखर  –

उमटण दइए मइए मैल छूटाइये।
गंगा जमुना मिलिआए तो बालों नवाइए, कलेश मराइए,
भाई बहिन मिलि आए तो नवाइए।।
हलदी के घर जाओ तो हलद मौलाइए।
तेली के घर जावो तो तेल मौलाइए।।
कुमकुम केसर परिमल अंग सुहाइए।
किन ए उ पंडित ले हलद मौलाइ।
तो हलद की शोभा ए,
किन ए उ सोहागिलि लै घोटा घोटाई।
तो हलद रंगीलो,
किन ए उ पहिरन जोग्य तो हलद की शोभाये।
रामीचंद्र, लछीमण हलद मोलाइ तो हलद की शोभाये।
सीता देहि लै, बहूरांणि लै हलद घौटाई, तो हलद कि शोभाये।
लव कुश पहिरन जोग्य, तो हलद की शोभाये॥

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