कुवाली रानीखेत : पूरा उत्तराखंड देवभूमि के में नाम से जगविख्यात है। यहाँ के कण कण देवताओं का वास है। यहाँ हिन्दुओं के चार धाम हैं। और कई प्रसिद्ध ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व वाले मंदिर हैं। इसके अलावा कुछ पौराणिक और ऐतिहासिक मंदिर ऐसे है जो आज भी गुमनाम है या उनको उनके स्तर का महत्व नहीं मिला। ऐसे ही मंदिरों में अल्मोड़ा- द्वाराहाट मार्ग पर कुवाली नामक गावं पड़ता है ,देखने में यह एक छोटा सा कस्बा है लेकिन यह स्थान बहुत ही धार्मिक महत्त्व का स्थान है। क्योकि यहाँ स्वयं भगवान् बद्रीनाथ निवास करते हैं।
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कुवाली गांव में स्वयं विराजते भगवान बद्रीनाथ –
रानीखेत से लगभग 25 किलोमीटर दूर अल्मोड़ा -द्वाराहाट रोड पर स्थित कुवाली गांव में ऐतिहासिक और पौराणिक बद्रीनाथ मंदिर है। प्राप्त जानकारी के अनुसार यह मंदिर कत्यूरियों द्वारा बसाया गया है। बताते हैं कि कत्यूरी काल में मूल भगवान् बद्रीनाथ की सेवा के लिए कुमाऊं और गढ़वाल के गावों को गूंठ दिया था। अर्थात कत्यूरी राजाओं की तरफ से कुमाऊं -गढ़वाल के कई गावों को बद्रीनाथ जी की सेवा के लिए नियत कर दिया गया था। इनमे से तीन फसलों में से एक भाग भगवान बद्रीनाथ की सेवा में भेजी जाती थी।
उनमे से कुवाली भी एक माना जाता है। यहाँ की स्थापत्य कला और मूर्तिकला मूल बद्रीनाथ धाम से मिलती जुलती है। यहाँ क्षीर सागर में आराम करती भगवान् विष्णु की मूर्ति ,जो की मूल बद्रीनाथ धाम की मूर्ति से मिलती जुलती है। और लम्बोदर गणेश ,मानव रुपी गरुड़ की मूर्ति तथा वराह की मूर्ति नौवीं शताब्दी की बताई जाती है।
मूल बद्रीनाथ के बराबर महत्व है यहाँ का –
कुमाऊं के बद्रीनाथ धाम कुवाली का मूल बद्रीनाथ धाम के बराबर महत्व बताया जाता है। यहाँ बद्रीनाथ धाम की तर्ज पर रावल परम्परा तो नहीं लेकिन यहाँ पुजारी नियत हैं जो भगवान बद्रीनाथ की मूल बद्रीनाथ धाम की तरह सेवा करते हैं। यहाँ जनेऊ संस्कार तथा अन्य धार्मिक संस्कार होते हैं। यहाँ समय समय पर मेलों और रामलीला का आयोजन किया जाता है। इस मंदिर के अलावा कुमाऊं में भगवान बद्रीनाथ के कुल पांच मंदिर हैं। जो द्वाराहाट ,कुवाली ,सोमेश्वर दियारी -बयाला और गरुड़ में स्थित है।
कुवाली के बद्रीनाथ मंदिर के बारे में एक लोककथा कही जाती है। कहते हैं प्राचीनकाल में कत्यूरी सैनिक भगवान् बद्रीनाथ की मूर्ति को दूसरी जगह लेकर जा रहे थे। जब वे कुवाली पर पहुंचे तो थोड़ी देर यहाँ विश्राम हेतु रुके। विश्राम ख़त्म होने के बाद जब वे यहाँ से चलने के लिए तैयार हुए तो उनसे भगवान बद्रीनाथ की मूर्ति हिलायी भी नहीं गई। भगवान की इच्छा को समझते हुए कत्यूरियों को यही उनकी स्थापना करनी पड़ी।
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