Friday, December 6, 2024
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उत्तराखंड के जंगल की आग और पलायन के दंश पर एक मार्मिक लोक कथा

वर्षों पुरानी बात है जब आज ही की तरह बैसाख और जेठ के महीने हमारे उत्तराखंड में एक विशेष फल जो आज भी होता है ,जिसकी मात्रा अब चाहे कितनी भी न्यून हो चुकी हो। वह फल काफल के नाम से इन्ही दो महीनों के वर्चस्व में पककर के रक्तवर्ण से कुछ काले काले से रंग का अपनी डालियों में हो जाता था।

उस पुराने समय में दो पंछी एक जो हमारा राज्यपक्षी मोनाल है और दूसरी चीणा नाम की चिड़िया उड़ उड़कर एक शोणितपुर नाम के गांव की ओर चली जाती थी, और अपनी मीठी मीठी बोली में गांव वालों को जैसे संदेश दे देती थी कि, जंगल में काफल अब पक चुके हैं और जैसे कहती थी कि वे फल अब आपका इन्तजार कर रहे हैं। और तब वे दोनों चिड़िया उस दिशा की ओर उड़ जाती थीं जिस दिशा में उन पके हुए फ़ल काफ़ल की अधिकता रहती थी।

गांव वाले भोले भाले लोग उनके इन संकेतों को जान जाते थे और रात के ढल जाने के बाद सुबह को अपना झोला लेकर उस दिशा की ओर काफल के फलों को एकत्र करने चल जाते थे। जब गांव वाले काफल लेकर घर ले आते थे और कुछ अपने परिवार के लिए रखकर बाकी के बाज़ार में बेचने के लिए रख देते थे।

अब गांव वाले उन दोनों चिड़ियों का अहसान मानते थे और सुबह सुबह को अपने आंगन में उनको खुश करने के लिए दाना पानी रख देते थे और चांवल आदि भी उनके लिए बिखेर देते थे, क्योंकि उन्हीं के द्वारा उनको काफल के फलों को पाने के लिए सहायता करी थी।

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धीरे धीरे समय बीतता चला गया और साल दर साल चिड़ियों का अपनी मीठी मीठी सी बोली और इशारों में संदेश देना गांव वालों का काफल उसी प्रकार खुद के लिए और बाजार में बेचने के लिए भी ले जाकर कुछ पैसा भी अर्जित करना इस प्रकार का क्रम लगातार चलता रहा। लेकिन कुछ दशकों के बाद गांवों से पलायन होना शुरू हो गया, और गांवों में आधी से भी कम आबादी बची रह गई।

अब चिड़ियों का काफल के मौसम में आना जाना और संदेश देना लगा रहा लेकिन गांव वालों ने अब इन घटनाओं पर ध्यान देना छोड़ दिया, तो चीणा और मोनाल नाम की चिड़ियों ने भी गांवो की ओर आना छोड़ दिया। एक बार गांव के किसी शख्स ने जंगल में आग लगा दी ओर इस आग में उन चिड़ियों के घोंसले में रहने वाला उनका परिवार भी जलकर भस्म हो गया।

अब यह सब देख पहले वे चिड़िया रूष्ट सी हो गई और विलाप करते हुए गांव वालों को श्राप दे दिया कि एक दिन जब पलायन कर चुके परिवार गांव की तरफ़ मजबूर होकर के लौटेंगे तो अपनी जमीन को खोजते हुए उनमें आपस में झगड़ा होगा और तब उनको भी अपने अपनो की जान से भी हाथ धोना पड़ेगा और गांव की ओर भी तभी लौटेंगे जब वहां भुखमरी और लाईलाज सी बीमारियां घेर लेंगी।

आज भी वो दोनों चिड़िया चीणा और मोनाल नाम की उन सूखी डालियों पर जहां उनका परिवार घोंसले में रहता था और जलकर के नष्ट हो गया था उन डालियों की एक शाखा से दूसरी शाखा पर उड़ उड़ करके गांवों में जो उनकी मधुर मधुर सी बोलियां होती थीं उसके स्थान पर अपने परिवार पर हुए अत्याचार को याद करते हुए करुण सा क्रंदन करती हैं। और उसका खामियाजा आज भी गांव के लोगों को विभिन्न समस्याओं से रूबरू होकर भुगतना पड़ता है।

लेखक परिचय_

उत्तराखंड के जंगलयह शिक्षाप्रद  गढ़वाली लोककथा हमे ग्राम बमनगांव पोस्ट पोखरी पट्टी क्विलि जिला टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड से प्रदीप बिजलवान बिलोचन जी ने भेजी है। प्रदीप जी शिक्षा विभाग में कार्यरत हैं। प्रदीप जी देवभूमि दर्शन के लिए नियमित लेख लिखते रहते हैं। यह मार्मिक कहानी उनकी स्वकल्पना पर आधारित है।

प्रदीप जी की एक और लेख ढोल का महत्त्व पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें

नोट : इस लेख में प्रयुक्त फोटोज कल्पना को सचित्र रूप देने के लिए इंटरनेट से लिए गए हैं।

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Bikram Singh Bhandari
Bikram Singh Bhandarihttps://devbhoomidarshan.in/
बिक्रम सिंह भंडारी देवभूमि दर्शन के संस्थापक और लेखक हैं। बिक्रम सिंह भंडारी उत्तराखंड के निवासी है । इनको उत्तराखंड की कला संस्कृति, भाषा,पर्यटन स्थल ,मंदिरों और लोककथाओं एवं स्वरोजगार के बारे में लिखना पसंद है।
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