Friday, April 19, 2024
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ढोल दमाऊ | उत्तराखंड में ढोल दमाऊ के महत्व | उत्तराखंड का राज्य वाद्य यंत्र |Dhol damau

हमारे उत्तराखंड में ढोल दमाऊ का एक विशेष ही महत्व है। जिसकी झलक हमें प्रायः शुभ कार्यों में देखने को मिलती है।इस महत्वपूर्ण आलेख में जो मैंने कुछ तथ्यों को अपने चिंतन मनन से सत्यता की कसौटी पर खरा पाकर एक नवीनता में समाहित करने की कोशिश की है।

इसके बारे में मैं आज आपको कुछ गूढ़ और रहस्यात्मक तथ्यों में से कुछ तथ्यों से रूबरू कराने की कोशिश करूंगा,क्योंकि एक बड़ी विडंबना है कि इसकी महत्ता से हमारी पीढ़ी के युवा और आने वाली जेनरेशन हमारी इस अलौकिक विरासत से संज्ञानित हो लाभ उठा पाए। ( dhol damau )

क्योंकि हमारे पूर्व की जो महत्वपूर्ण घटनाएं हमारी इस भारतभूमि पर घटित हुई होंगी वह आज वर्तमान में हमारे सामने इतिहास के रूप में विद्यमान हैं। लेकिन इन बातों पर आज के लोगों को आसानी से विश्वास नहीं होता लेकिन तत्समय की कुछ बातों का हमारे उन पूर्वजों ने जिन्होंने आंखों देखी उन बातों को अपने सामने घटित होते हुए देखा है, तो तब हमे और उस उम्र के उन लोगों को जो विवेकवान हैं, कुछ तर्कों द्वारा उस पर विश्वास करके अचरज से भर जाते हैं, और आज के इस दौर की प्रासंसिगता को समझ ही जाते हैं।

ढोल दमाऊ | उत्तराखंड में ढोल दमाऊ के महत्व | उत्तराखंड का राज्य वाद्य यंत्र |Dhol damau

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परन्तु एक और विस्मयकारी तथ्य जो मैंने अपने चिंतन और मनन द्वारा अर्जित किया है कि,आने वाली पीढ़ियां उनके द्वारा आज के दौर की जो महत्वपूर्ण और दोबारा आने वाले समय में कुछ ही देर के लिए सांभव्य इन बातों का इस एक तरीके से किऑडियो और वीडियो या प्रिंट आदि उम्दा तकनीकी द्वारा समझ करके अवश्य ही इन बातों पर विश्वास करेंगी और कुछ ना कुछ लाभ भी अवश्य ले पाएंगी। शास्त्रों के अनुसार जो कलियुग की एक बात कि धीरे धीरे कलियुग की समयावधि आगे आगे जैसे जैसे बढ़ती जाएगी ( dhol damau )

वैसे वैसे ही बल बुद्धि संस्कार आदि भी कम होती जाएंगी वे पांडवों स्वामी विवेकानंद और भी कई पूजनीय शख्सियतों को और भी कर्म धर्म योद्धाओं  महानुभावों की उस कथा और उनके कारनामों को झुठलाने और उस पर अनुकरण तो क्या विश्वास तक ही नही करेंगे। लेकिन सत्य कहीं न कहीं अवश्य जिंदा रहता है, और सत्तमार्ग का अनुसरण करने वालों को जीत दिलाता ही दिलाता है। ढोल को हमारे यहां शिव और दमाऊँ को शक्ति का रूप माना जाता है,और जब किसी भी उपलक्ष्य या शुभ और मंगल कार्यों में इसका प्रयोग किया जाता है तो यह भगवान शंकर और शक्ति का जैसे तब एक रूप अर्धनारीश्वर बन जाता है ।

जब इस सृष्टि की रचना हुई तो स्वर के रूप में एक ॐ का निनाद सारे ब्रह्मांड में गूंजने लगा और तब मां शारदे की वीणा और भगवान शंकर के डमरू ने इस प्रतिध्वनि को स्वीकारने के पश्चात दो विशिष्ठ वाध्य यंत्रों ने भी इसे स्वीकार किया जो ढोल दमाऊ कहलाए।बड़े बड़े साधक उस ॐ के आधार पर ही साधना प्रारम्भ करते हैं,और ॐ साकार और निराकार दोनों ही स्थितियों में मुख्य आधार परिनिर्मित करता है। ( dhol damau )

आज के दौर में ढोल दमाऊ के परिपेक्ष्य में हम और हमारी आने वाली पीढ़ी इस तरह से इसकी महत्ता और विशेषता की प्रासंगिगता को अनवरत रखने और लुप्त होने से बचाने के लिए अपने से बड़ों के अनुभव और आने वाली पीढ़ी को एक तरह से एक सेतु का काम कर हमारी इस महान और गौरवशाली संस्कृति को शाश्वत और अक्षुण्ण रखते सकते हैं।

ढोल और दमाऊ के कुशल बाजिगों में एक ऐसी कला होती है, जो उन्हें एक विद्वत पंडित की भांति वार्ता के साथ साथ एक संगीतज्ञ आदि को समाहित करते हुए इन वाद्ययंत्रों से अंतरिक्ष से एक ऐसी दिव्य और सकारात्मक ऊर्जा का कर्षण कर अपने एक विशेष परिक्षेत्र में कर देते हैं,और जहां माहौल एक दिव्यता और ईश्वर के प्रति आस्था का निर्मित हो जाता है।

किसी भी पशवा जिस पर देवी देवता अवतरित हो जाते हैं, उनके द्वारा अपने हाथों पर चांवल आदि से हरियाली जमाना और अन्य चमत्कारिक कार्य करना और प्रायः जिन भक्तों का ईश्वर में विश्वास है उनके दुःख दूर करना या फिर समस्या सुलझाने के उपाय बताना इस बात की ओर संकेत करता है ,कि वह एक नाटक नही अपितु ईश्वर के वजूद का साक्ष्य देना और नास्तिकों को आस्तिकता का आभास दिलाने की भी विश्वसनीयता देता है। ( dhol damau )

ढ़ोल दमाऊ के बाजीगों को इसको सफलतापूर्वक मनोरंजनीय और प्रभावी तथा एक दिव्य माहौल का निर्माण करने हेतु बहुत परिश्रम और ज्ञान तथा विद्वता का परिचय देना पड़ता है, जैसे इसे बजाने के साथ साथ अंदर ही अंदर एक धुन पैदा करना और किसी पंडित की भांति अंदर ही अंदर किसी दिव्य शक्ति का आवाह्न कर ढोल दमाऊ द्वारा भी उसमे ताल ठोकने जैसी क्रियाएं  उन्हें जैसे उस प्रकार से किसी पासवा पर देवी या देवता के रूप में अवतरित कराने में सक्षम बना दिया जाता है। से एक ऐसी घटना जिसमे हमारी ही इसी देवभूमि में अभी भी मौजूद एक कलाकार श्री उत्तम दास जो ढोल और दमाउ को एक साथ बजा देते हैं और इनके पूर्वज इस कला में इतने माहिर थे जो ढोल के कुछ विशेष शब्दों द्वारा शेर को भी एक निश्चित सीमा में बुला लेते थे।

इस धरा पर महान संगीतकार तानसेन के जैसे राग में ऐसी दिव्य ऊर्जा को जैसे अपनी स्वरलहरी और कला के माध्यम से कुछ विस्मयकारी घटनाओं जैसे दिन में बारिश या गर्मी में ठंडक दे देने वाले माहौल को परिनिर्मित करना शायद आज के समय में अधिकांश लोगों द्वारा स्वीकार्य करना शायद उनके लिए मुश्किल ही होगा, लेकिन जब उन्हें यथार्थ का अनुभव होने लगेगा तो वे भी जो भावी आने वाली पीढ़ी को इसको जीवंत रखने में भी सक्षम होंगे। ( dhol damau )

इसी संदर्भ में मेरी एक शोध में इस संदर्भ का ग्रहण करते हुए कीट एक ऐसी कला द्वारा वायुमंडल में हाइड्रोजन ऑक्सीजन अन्य कई घटकों द्वारा ये सारी ठंड या गर्मी आदि की और वार्ता के माध्यम तथा इन सबको समाहित करते हुए दिव्य ऊर्जा का एक परिकर निर्मित करते हुए किसी पसवा पर उसे अवतरित कर उस अमुक व्यक्ति पर जो उसका ईष्ट हैं जैसे मां भगवती, नरसिंह देवता, भैरव देवता, घंटाकर्ण आदि देवता अवतरित कर भक्तों की समस्या का समाधान करने का प्रयास किया जाता है।

आपको इतना तो ज्ञान होगा कि जागर सम्राट सर प्रीतम भरतवाण जो सिनसिनाइटी अमेरिका में एक विजिटिंग प्रोफेसर के तौर पर जाते हैं जो, हमारी इस गौरवशाली संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।

लेखक परिचय :-

ढोल दमाऊ पर लेख के लेखक

यह लेख देवभूमी दर्शन के  लिए प्रदीप बिजलवान बिलोचन जी, ग्राम बामनगांव ,पोस्ट पोखरी, पट्टी क्वीली ,  जिला टिहरी गढ़वाल उत्तराखंड  ने लिखा है। प्रदीप बिजल्वाण जी वर्तमान में शिक्षा विभाग में कार्यरत हैं। इन्हें लिखनेका बहुत शौक है। इनके लिखे  भजन गीत, लेख  ,कविताएं आदि प्रकाशित होती रहती है।

इनके द्वारा रचित एक भजन का आनंद लेने के लिए यहाँ क्लिक करें।

इसे भी पढ़े :- पहाड़ी ‘बल ‘ और ‘ठैरा’ का अर्थ | Pahadi ‘Bal ‘ aur’ Thaira ‘ ka arth | Pahadi Word “bal” and “Thaira meaning in Hind

महत्वपूर्ण जानकारी :- “भंडारी कमिटी की सिफारिशों के बाद 2015 में उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री हरीश रावत जी ने ढोल को उत्तराखंड का राज्य वाद्य यंत्र घोषित किया है।

 

 

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Bikram Singh Bhandari
Bikram Singh Bhandarihttps://devbhoomidarshan.in/
बिक्रम सिंह भंडारी देवभूमि दर्शन के संस्थापक और लेखक हैं। बिक्रम सिंह भंडारी उत्तराखंड के निवासी है । इनको उत्तराखंड की कला संस्कृति, भाषा,पर्यटन स्थल ,मंदिरों और लोककथाओं एवं स्वरोजगार के बारे में लिखना पसंद है।
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