Monday, March 31, 2025
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जोशीमठ को छोड़ कर क्यों आना पड़ा कत्यूरियों को ?

जोशीमठ का उत्तराखंड में पौराणिक महत्व के साथ ऐतिहासिक महत्त्व भी है। अंग्रेजी लेखकों का मानना है कि, कत्यूरी राजा पहले जोशीमठ में रहते थे। वे वहां से कत्यूर आये। कहते हैं सातवीं शताब्दी तक उत्तराखंड में बुद्ध धर्म का प्रचार था। ह्यूनसांग अपनी पुस्तक में लिखा है ,गोविषाण और ब्रह्मपुर ( लखनपुर ) दोनों जगहों में अधिकतर बौद्ध सम्प्रदाय के लोग रहते थे। हिन्दू धर्म के प्रवर्तक बहुत कम रहते थे। मंदिर और बौद्ध मठ साथ साथ थे। आठवीं शताब्दी के बाद श्री आदि शंकराचार्य की धार्मिक दिग्विजय से यहाँ बौद्ध धर्म का ह्रास हो गया। कुमाऊ गढ़वाल और नेपाल जाकर शंकराचार्य जी ने वहां के मंदिरों से बौद्धधर्म प्रवर्तक पुजारियों को हटा कर सनातनी पुजारियों को नियुक्त किया। बद्रीनाथ ,केदारनाथ और जागेश्वर के पुजारियों को बदल कर दक्षिण के पुजारियों को नियुक्त किया।

कत्यूरी राजाओं को अपनी राजधानी जोशीमठ को छोड़ कर क्यों आना पड़ा?- कत्यूरी राजाओं के बारे में यह अनुमान लगाया जाता है कि वे भी शंकराचार्य जी के आने से पूर्व बौद्ध धर्म प्रवर्तक थे। कहते है कत्यूरी राजा शंकराचर्य जी के समय जोशीमठ में रहते थे। कत्यूर व् कार्तिकेयपुर वे जोशीमठ से आये। कत्यूरी राजाओं को अपनी राजधानी जोशीमठ को छोड़ कर क्यों आना पड़ा ? इसके बारे में  इतिहासकारों ने यह अनुमान लगाया है कि ,धार्मिक संघर्ष  के कारण  कत्यूरी राजाओं को जोशीमठ छोड़ना पड़ा होगा। इसके अलावा शिव प्रसाद डबराल और कुछ और इतिहासकारों और शोधार्थियों का मानना है कि कत्यूरी राजाओं को किसी प्राकृतिक आपदा के कारण जोशीमठ से राजधानी बदलनी पड़ी होगी। और यह तथ्य तर्कसंगत भी लगता है।

श्री बद्रीदत्त पांडेय जी ने कत्यूरियों के जोशीमठ से कार्तिकेयपुर या कत्यूर आने की कहानी इस प्रकार बताई है –

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एक बार राजा वासुदेव का वंशज शिकार खेलने गए थे। उनकी अनुपस्थिति में  भगवान् नरसिंह मानव वेश में उनके महल में आये। रानी से भोजन सत्कार पाकर रनिवास के पलंग में लेट गए। जब राजा लौटकर आये तो उन्होंने अपने रनिवास में किसी पर पुरुष को सोया देख नाराज हो गएके राजा ने क्रोध में उनके हाथ में तलवार से घाव कर दिया। भगवान नरसिंह  हाथ से दूध निकलने लगा। तब आश्चर्यचकित होकर राजा ने रानी से पूछा ,” ये कौन है ? ” तब रानी बोली , ‘ ये कोई देवपुरुष प्रतीत होते हैं , बड़े परहेज से भोजन करके पलंग पर सो गए थे। तब राजा को अपनी गलती का अहसास हुवा। उन्होंने  उस देवपुरुष से माफ़ी मांगी और कहा कि उससे गलती हो गई है।  जिसके लिए उन्हें जो भी दंड मिलेगा उन्हें स्वीकार्य है। तब उस देवपुरुष ने कहा , ‘ मै नरसिंह हूँ। मैं खुश था ,इसलिए तेरे द्वार पर आया था।  लेकिन तूने मुझे घाव देकर दुखी कर दिया। तेरा दंड यह है कि तू मेरे क्षेत्र जोशीमठ से दूर चला जा। वही जाकर अपनी राजधानी बसाना। याद रखना मेरा यह घाव मेरी इस मूर्ति में भी दिखाई देगा। जब मेरी मूर्ति टूट जाएगी तब तेरा वंश भी नष्ट हो जायेगा। ऐसा कहकर वे देवपुरुष रूपी नरसिंह भगवान अन्तर्ध्यान हो गए।

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कत्यूरी जोशीमठ

 कत्यूरी राजाओं को अपनी राजधानी जोशीमठ को छोड़ने  का भू – वैज्ञानिक मानते है कुछ और कारण-

कत्यूरी राजाओं को अपनी राजधानी जोशीमठ को छोड़ने के बारे में भू-वैज्ञानिको, शोधकर्ताओं के अलग विचार है। जैसा कि भू-वैज्ञानिको ने पहले ही बता दिया था कि जोशीमठ शहर एक प्रकार की भूस्खलन वाली मिटटी या सामग्री पर बसा है। 1939 में प्रोफ़ेसर Heim and Gansser ने  पुस्तक सेंट्रल हिमालया में जोशीमठ के बारे में लिखा था कि ,यह नगर बहुत बड़े भुस्खलनीय मटेरिल पर बसा है। जोशीमठ के बारे 1996 में गढ़वाल कमिश्नर M C मिश्रा और 18 सदस्यों के एक पैनल ने रिपोर्ट बनाई थी ,जिसमे यह स्वीकार किया था कि जोशीमठ शहर एक भुस्खलनीय मिटटी पर बसा शहर है। इसमें अति विकास खतरनाक हो सकता है।

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भू वैज्ञानिको शोध से यह पता चला है कि लगभग हजार वर्ष पूर्व जोशीमठ में एक बार प्राकृतिक आपदा आ चुकी है। और आज से लगभग चौदह सौ साल पहले यानि आठवीं शताब्दी में कत्यूरी राजा जोशीमठ छोड़ कर कत्यूर चले आये थे। कत्यूरी राजा अपने समय में  उन्नत स्थापत्य कला ,वास्तुकला में माहिर थे। कत्यूरी काल के भवन,मंदिर ,मूर्तियां आज भी वैसी ही है और अद्भुद स्थापत्य का नमूना भी है। इससे ये सिद्ध होता है कि चौदह सौ साल पहले उन्हें ये भान हो गया था कि जोशीमठ उनके लिए सुरक्षित नहीं है। इसलिए वे वहां से कत्यूर या कार्तिकपुर चले आये।

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Bikram Singh Bhandari
Bikram Singh Bhandarihttps://devbhoomidarshan.in/
बिक्रम सिंह भंडारी, देवभूमि दर्शन के संस्थापक और प्रमुख लेखक हैं। उत्तराखंड की पावन भूमि से गहराई से जुड़े बिक्रम की लेखनी में इस क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर, और प्राकृतिक सौंदर्य की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी रचनाएँ उत्तराखंड के खूबसूरत पर्यटन स्थलों और प्राचीन मंदिरों का सजीव चित्रण करती हैं, जिससे पाठक इस भूमि की आध्यात्मिक और ऐतिहासिक विरासत से परिचित होते हैं। साथ ही, वे उत्तराखंड की अद्भुत लोककथाओं और धार्मिक मान्यताओं को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। बिक्रम का लेखन केवल सांस्कृतिक विरासत तक सीमित नहीं है, बल्कि वे स्वरोजगार और स्थानीय विकास जैसे विषयों को भी प्रमुखता से उठाते हैं। उनके विचार युवाओं को उत्तराखंड की पारंपरिक धरोहर के संरक्षण के साथ-साथ आर्थिक विकास के नए मार्ग तलाशने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी लेखनी भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि से परिपूर्ण है। बिक्रम सिंह भंडारी के शब्द पाठकों को उत्तराखंड की दिव्य सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत की अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाते हैं, जिससे वे इस देवभूमि से आत्मिक जुड़ाव महसूस करते हैं।
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